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मजनाचनबल्लभ लललल कुटुम्बीजनः) कुटु म्बीजन भी (किं वपनं विनापि) तथा बोरो बिना ही (धान्यं लभते) याज् पाते हैं । (कीर कमक्षित) कीड़ों के पास खाये गये (इक्षु सहशे) गल्ने के समाज (देहे) शरीर में (वृथा मोहम्) व्यर्थ में ही मोह (मा कृथाः) मत करो । अर्थ :
हे जीव ! तुम सुख चाहते हो ? क्या तुमने पूर्व भत में दान अथवा तप किया है ? यदि नहीं, तो इस लोक में सुख कैसे मिलेगा ? जैसा तुमने किया. वैसा ही इस लोक में आ गया। क्या कुटुम्बीजन भी बिना कुछ बोये धान्य प्राप्त कर सकते हैं ? कीडों के द्वारा रताये गये गन्ने के समान इस शरीर में तुम व्यर्थ ही मोह मत करो। भावार्थ :
सातावेदनीय का उदय तथा लाभान्तराय कार्य का क्षयोपशम आदि निमित्तों की प्राप्ति होने पर संसार के सुखों की प्राप्ति होती है। बीज के समान ही वृक्ष होता है । यह सर्वमान्य लोक ति: पूसा है।
जीव जैसा करता है, वैसा ही भोगता है । जिसने पूर्वभव में सत्पात्रों को दाज नहीं दिया है व इच्छा के निरोध रुप तप नहीं किया है, तो उरो इसम्भव में सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती क्योंकि जीव कृतकर्मों का फल । | अवश्य ही भोगता है।
इस शरीर की रिश्चति कोडे लगे हुए या काने गन्ने की तरह है। इससे रत्नत्रय की प्राप्ति कर लेना ही बुद्धिमत्ता है।
कविवर श्री मंगतराय जी लिखते हैं कि :काना पौंडा पड़ा हाथ यह चूसै तो रोवे। पले अनंत जुधर्मध्यान की भूगि विषैबोवै।। केशर चन्दन पुषा सुगन्धित वस्तु देव सारी। देह परसते होय अपावन निशदिन मल जारी॥
(बारह भावना -१५) शरीर निःसार दल्यों से भरा हुआ है। जैसे काना गल्ला बोने पर मीठा आला प्राप्त होता है. उसीपकार शरीर को तप में लगाने पर वह शाश्वत सुख रूपी गल्ले को पढ़ान नाता है ।