________________
PELLLLL सज्जनवित्तपम र
यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि साधुओं में ऐसे कौन से गुण होने चाहिये कि जिससे वे त्रिलोकपूज्यत्व प्राप्त कर सके ? इस प्रश्न का समाधान प्रस्तुत श्लोक में किया गया है । इस श्लोक में साधु के नौ मुख्य गुणों का उल्लेख करते हुए उन्हें साधुता का लक्षण माना गया है।
प. शरीर से निर्ममत्व :- पूर्वोपार्जित कर्मों के उदय से शरीर की प्राप्ति होती है। यह शरीर जीव को मोक्षमार्ग की साधना में भी सहयोग प्रदान करता है तथा पत्तन के मार्ग में भी सहयोभी बनता है। शरीर के प्रति रागभाव समस्त अनर्थों की जड़ है । शरीर के प्रति किया गया। रागभाव असंयम को बढ़ाता है, तप से विमुख करता है, परीषह व उपसर्ग के सहन करने में भय उत्पन्न करता है , इष्ट कार्यों से विमुख करता है | तथा ध्यान में विघ्न उत्पन्न करता है | शरीर के प्रति जबतक रागभाव रहता है, तबतक आत्महितकारी कार्यों में प्रवृत्ति नहीं होती क्योंकि जो कार्य शरीर के लिए हितकारक होते हैं, वे कार्य आत्मा का अहित करने वाले होते हैं तथा जो कार्य आत्मा के लिए हितकारक होते हैं, वे कार्य शरीर का अहित करने वाले होते हैं। इसीलिए मुनिराज शरीर से ममत्वभाव नहीं करते हैं।
२. गुरु में विनय :- हितोपदेष्टा गुरु मोक्षमार्ग में हस्तातलम्बन प्रदान करते हैं। गुरु ऐसा दीपक है, जिसके प्रकाश में शिष्य हिताहित का बोध प्राप्त कर लेता है। जिसके जीवन में गुरु नहीं होते, उसका जीवन प्रकाशशील एवं विकासशील नहीं होता । अतः साधुजन गुरुओं का आदर करते हैं।
यहाँ यह बात विशेष रूप से नातव्य है कि जो गुणाधिक हैं, पदाधिष्ठित हैं अथवा दीक्षा में बड़े हैं, वे सब गुरु हैं। जिन्होंने अपने पर उपकार किया है, वे सब गुरु कहलाते हैं। उन सब का यथायोग्य विजय करना चाहिये।
३. नित्य श्रुत का अभ्यास :- मन को एकाग्र करने के लिए, साधना मार्ग का बोध प्राप्त करने के लिए तथा साधना के अवरोधक कारणों से बचने के लिए जिनवाणी का नित्य अध्ययन किया जाना अत्यन्त आवश्यक है।