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मज्जनचित्तबल्लभ ख
मुनिराज इस तथ्य से परिचित होते हैं कि मन चंचल हैं. बिज। स्वाध्याय के उसे रोक पाना संभव नहीं है। मन को रोके बिना साधना नहीं हो सकती । अतः मुनिराज अपने मन को निरन्तर स्वाध्याय में लीन करते हैं ।
४. चारित्रोज्वलता
जिसका समुद्र रत्नों का आगार होता है, उसीप्रकार मुनि चारित्र के भण्डार होते हैं। उनका आचरण स्वच्छ दर्पण की तरह पवित्र होता है। संसार के कारण राम और द्वेष का उच्चाटन करने के लिए वे सतत आत्मचर्या रूप स्व-समय में रममाण रहने का प्रयत्न करते हैं। आइ म्बर युक्त प्रवृत्ति, लोकोपचार और ख्याति लाभादि की इच्छा के बिना केवल आत्मकल्याण के लिए ही वे चारित्रगुण का अनुपालन करते हैं । मुनियों के चारित्र में लोकमर्यादा का उल्लंघन भी नहीं होता है, अतः उनका चारित्र निर्मल होता है ।
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कषाय जीव के प्रबलतम वैरी ५. महान उपशम से सहितता : हैं । मुनिराज इन्द्रियविजय की तरह कषायों पर भी विजय प्राप्त किया करते हैं। उदय में आने वाले कर्मों के कारण से प्राप्त होने वाले फल को वे हानि समताभाव से सहन करते हैं। शत्रु और मित्र, जीवन और मरण. और लाभ, कॉच और कंचन संयोग और वियोग आदि समस्त अनुकूल और प्रतिकूल परिणामों में समताभाव को अंगीकार करते हैं। पर को दोष देना तो वे जानते ही नहीं हैं। प्रतिपल वे अपने मन में सभी जीवों के प्रति मैत्रीभाव धारण करते हैं। इसलिए मुनिराज क्षमा की साकार मूर्ति होते हैं। उनके इस उपशम परिणाम के प्रभाव से जन्मजात वैर धारणा करने वाले प्राणी भी परम मैत्रीत्व को धारण करते हैं।
६. संसार से विरक्तिभाव :- प्रतिक्षण संसारभावना का चिन्तन करने वाले मुनिराज पंचपरिवर्तन रूप संसार से भयभीत रहते हैं। वे जानते हैं कि भववन में भटकते हुए इस जीव ने अनन्तबार विषय भोगों को प्राप्त किया, भोगा और उसके फलस्वरूप आत्मा को दुर्गति में अतीव दुःख सहन करने पड़े हैं। यदि संसार से पीति बनी रही तो आगामी काल में भी भयावह सहने पड़ेंगे। अतः वे अपनी आत्मा को प्रतिपल सम्बोधित करते हैं कि
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