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मज्जरविनवलख्य
भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः । उच्छिष्टेति तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा ॥
(इष्टोपदेश- ३० )
अर्थात्
:- सभी पुद्गल परमाणु मैंने मोहवश बार-बार भोगकर छोड़ दिये हैं, फिर आज उच्छिष्ट भोजन के समान उन पुद्गलों में तत्त्ववेत्ता (बुद्धिमान)
के समान मेरी क्या अभिलाषा है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ।
इस संसार में जीव परस्पर में कभी सम्बन्धी, कभी शत्रु और कभी मित्रादि बन जाते हैं। अधिक क्या कहें ? दुर्भाग्यवशात् कभी-कभी जीव अपना ही पुत्र बन जाता है । यह संसारसमुद्र दुःख रूपी झाग से भरा हुआ है । सर्वत्र स्वार्थ की लहरें उछल रही है। बहिरात्मा रूपी नक्रचक्र इस समुद्र में यत्र-तत्र विचरण कर रहे हैं। कुधर्म रूपी दस्यु जीव को लूट ने के लिए सदैव कटिबद्ध हैं। ऐसे असार संसार से कुछ सार की चाहना करना बालुका से तेल निकालने के समान निरर्थक है। इस सत्य के 'ज्ञाता मुनीश्वर संसार से सदैव विरक्त रहते हैं ।
७. अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह का त्याग :- मिथ्यात्व क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री वेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये चौदह अन्तरंग परिग्रह हैं तथा क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य और भाण्ड ये दस प्रकार के बाह्य परिग्रह हैं। ये परिग्रह के चौबीस भेद हैं। परिवाह परद्रव्य के प्रति ममत्वभाव को जागृत करता है। परिग्रह दुर्गति का कारण है । परिग्रह से मन चंचल होता है। चंचलमन साधना के मार्ग में अपात्र होता हैं। जबतक मन चंचल बना रहेगा तबतक ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है।
८. धर्म के स्वरूप का ज्ञान :- वस्तुस्वभाव को धर्म कहते हैं। आत्मा का मूल स्वभाव आत्मधर्म कहलाता है। मोक्ष का अर्थ है आत्मा को अपने स्वरूप की उपलब्धि हो जाना। स्व- समय का विचार करने में चतुर मुनिराज धर्म को अपना सर्वोत्कृष्ट हितेच्छु मानते हैं । अतः वे सदैव धर्माराधना में लवलीन रहते हैं।
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