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परामजनाचनबाट
छ ७. रत्नत्रय से अलंकृतता :- सम्यग्दर्शन. सम्यग्रहान और सम्यक चारित्र इन तीन सालो मा रत्लान्यसंज्ञा पात है। यह रत्नत्रय ही हैं आभषण जिलकं ऐसे निर्णय श्रमणाधीश्वर रत्नत्रय की परिपालना में सतत कटिबद रहते हैं । रत्नत्रय ही मो अमार्ग है । अतः | रत्नत्रय रूपी धन के स्वामी मुनिराज शरघ ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं, इसमें क्या आश्चर्य है ?
ये रातों ही भ्रमणगुण मेरे अन्दर उस्ततीर्ण हो, एतदर्थ सप्तगुण मण्डित मुनियों के चरणयुगल में मेश सविधि व सभक्ति प्रणाम हो ।
स्त्रीकथा का त्याग दुर्गन्धं वदनं वपुर्मलभृतम्भिक्षाट नाम्भोजनं, शैय्या स्थण्डिल भूमिषु प्रतिदिनं कट्यां न ते कर्पटम्। मुण्ड मुण्डित्तमर्द्धदग्धशववत्त्वं दृश्यते भो जनैः,
साधोऽद्याप्यबलाजनस्य भवतो गोष्ठी कथं रोचते ।।७।। अन्वयार्थ :
(भो साधो !) हे साधो ! (ते) आपका (दुर्गन्धं वदनम्) मुख दुर्गन्धित है (वपुः मलभृतम्) शरीर मल से भरा हुआ है (भोजनम् भिक्षाट नात्) भिक्षा से भोजन की प्राप्ति होती है । (शय्या स्थण्डि ल भूमिषु प्रतिदिन) प्रतिदिन कठोर भूमि की ही शय्या है । (कयां न कर्पट म्) कमर में लंगोट नहीं है। (मुण्ड मुण्डि तम)सिर मुण्डा हुआ है। (जनैः त्वम् अईदग्ध शववत् दृश्यते) लोगों को तुम अधजले मुर्दै के समान दिखायी देते हो ।(अद्यापि) ऐसी दशा में भी (अबलाजनस्य गोष्ठी) स्त्रियों की वार्ता (कथं रोचते) तुम्हें कैसे सुहाती है ? अर्थ:
हे साधो । अब भी तुम्हें स्त्री की वार्ता कैसे सच्चती है ? तुम्हारा मुख । दर्गन्ध से युक्त है. शरीर मल से भरा हुआ है, भिक्षाटन से भोजन करते हो, प्रतिदिन कठोर भूमि ही तुम्हारी शय्या है, कमर में लंगोट भी नहीं| है, सिर मुण्डा हुआ है । तुम्हारा यह रुप लोगों को अधजले मुद्दे के समान दिवाई देता है।