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RST मन्जनाचनबल्लभ
क की मनिराज को उसी स्थान पर निवास करना ताहिये. जो स्त्री लघु और पशुओं के द्वारा छा लगता हो ।
१. निदोष आहारका गहण :- मन, वचन, काला और कुत.कारित अजम्गेहना इन नौ कोटि से आहार बनाने की पतिया का त्याग करने वाले मुनिराज शरीर की स्थिति को कायम रख तर धर्मादि शुभध्यान करने के लिए आहार लेते हैं।
शुद्ध श्रावक के घर यथान आहार को ग्रहण करना चाहिये । वह आहार छयालीस दोषों से रहित होना चाहिये ।
३. षडावश्यकनिरत :- अनिवार्यतः करणीय कार्य आवश्यक कहलाते हैं। अथवा, जो कार्य पराश्रित नहीं होते, उन्हें आवश्यक कहते हैं। मुनियों के आवश्यककर्म छ ह हैं । यथा - सामायिक, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग । मुनिराज इन आवश्यक कार्यो का यथाविधि परिपालन करते हैं।
५. धर्मानुरागवाहीत्व :- मुजि अपनी चर्या में भी प्रमाद नहीं करते । वे सदैव धर्म के प्रति उत्साहित रहते हैं। धर्म और धर्मफल का चिन्तन और अनुकरण ही हैं पाण जिनके ऐसे मुनिराज रत्नत्रयरूप अथवा दशलक्षण रूप धर्म का स्वयं पालन करते हैं तथा अव्यजीवों को धर्मोपदेश देकर उन्हें धर्म में हद करते हैं।
१. योगियों के साथ निवास :- जो जैसी संगति करता है, वैसा ही बन जाता है। इस तथ्य के ज्ञाता मुनि अपनी चारित्रिक निर्मलता के लिए, साधना मार्ग पर दृढ़ता को प्राप्त करने के लिए तथा विशिष्ट तपोसाधना करने के लिए अपने से विशिष्ट ज्ञाजी तपरवी और अनुभवी साधुओं के साथ निवास करते हैं। ___. आत्माभावना में तत्परता :- स्वात्मोपलब्धि रूप मोक्ष को प्राप्त करने की अभिलाषा है जिनके मन में ऐसे मुनिराज मन को संकल्प और विकल्पों से बचाने के लिए तथा निज के का-याण के लिए रादेव अपने आत्मा को भावजा करते हैं । निरन्तर भायी गयी भावना ही उन्हें अपजे मार्ग में स्थिर करती है।