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जनचिनवलभ
भावार्थ:
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जैनागम में स्त्रीकथा राजकथा वांरकथा सौनकथा इन चार कहा गया है। से कशा असंथम का पोषण करती
कथाओं को
हैं, कषायों को भड़काती हैं और प्रमाद की वृद्धिंगत करती हैं।
इस श्लोक में गंधकार आचार्य श्री मल्लिषेण जी ने मुनियों को स्त्री विषयक कथा करने का निषेध किया है ।
गंधकार लिखते हैं कि हे मुने अस्जानवत के कारण आपका सर्वाग जल्ल और मल से परिपूर्ण हो चुका है और अदन्तधवन मूलगुण का परिपालन करने से आपके मुँह से दुर्गन्ध निकल रही है। आप स्वयं भिक्षाटन करके भोजन करते हो। आपके पास कोई कोमल शय्यादि नहीं है, इसलिए ही आप भूमितल पर शयन कर रहे हो। आपके पास लंगोट के बराबर भी वस्त्र नहीं है, इसलिए आप नग्न होकर चर्या कर रहे हो । सिर का मुण्डन करने से आपकी सुन्दरता नष्ट हो चुकी है। आपका मलीन व संस्कारविहीन शरीर लोगों को ऐसा लगता है मानो अधजला शव ही हो। ऐसे भयंकर रूप को धारण करके भी तुम्हें स्त्रीकथा कैसे सुहा रही है ? अर्थात् स्त्रीकथा में आपका मन नहीं लगना चाहिये ।
शरीर का स्वरूप
अङ्ग शोणितशुक्रसम्भवमिदम्मेदोऽस्थिमज्जाकुलम्, बाह्ये माक्षिकपत्रसन्निभमहो चर्मावृतं सर्वतः । नोचेत्काकबकादिभिर्वपुरहो जायेत भक्ष्यं ध्रुवं, दृष्ट्वाद्यापि शरीरसद्मनि कथं निर्वेगता नास्ति ते ॥८॥ अन्वयार्थ :
( शोणित शुक्रसम्भवम् ) खेत और वीर्य से उत्पन्न ( मेदोऽस्थिमज्जा कुलम् ) हड्डी, मांस और मध्नादि से भरे हुए (बाह्ये सर्वतः माक्षिकपत्र सन्निभम् ) बाहर में सभी ओर से भवखी के पंखों के समान (चर्मावृतम्) चमडी से ढका हुआ है । (नो चेत्) यदि ऐसा नहीं होता तो (काकबकादिभिः ) को और बगुलादि पक्षियों के द्वारा (इद वपुः ) यह शरीर ( भक्ष्यं जायेत ) खाया जाता ।
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