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(अहो!) अहो। (दम) इस (अङ्गम्) शरीर को (दृष्ट्वा ) देखकर (अद्यापि शरीरसमनि) अना भी शरीर रूपी सदन से (ते निर्वे गता नास्ति) आपको निर्वेगता नहीं आयी ? अर्थ:
अहो । इस शरीर के स्वरूप को हेस्वकर भी तुम्हें इस शरीर रूपी सदन से निर्वेता नहीं हुआ ? कैसा है यह शरीर ? शोणित और शुक्र से बजा हुआ है, मेद - अस्शि व मज्जा से भरा हुआ है, बाहर से सभी तरफ से मवरवी के परों के समान चमड़ी से ढका हुआ है, यदि ऐसा न होता तो काक्र, बक आदि पक्षियों के द्वारा इस शरीर को खाया आता । भावार्थ:
जीव सबसे अधिक प्रेम अपने शरीर से करता है । जबतक शरीर से प्रेम नहीं हट ता, तबतक वैराग्य परिपुष्ट नहीं हो सकता । अतः वैराग्य | को दृढ़ करने के लिए इस श्लोक में अशुचित्व का वर्णन किया गया है।
कैसा है यह शरीर? आचार्य श्री शुभचन्द्रदेव ने लिखा है कि - अजिनपटल गूढं परं कीवसानां , कुथितकुणिपगन्धः पूरितं मुटु गाढम् । यमवदननिषण्णं रोगमोगीन्द्रगेहूं, कमिह मनुजानां प्रीतये स्याच्छरीरम् ।।
(ज्ञानार्णव-२/११८) अर्थात् :- मनुष्यों का शरीर चमड़े के समूह से ढका हुआ, हड्डियों का ढाँचा, सड़े-गले मृत शरीर के समान दुर्गन्ध से अतिशय परिपूर्ण, यम के मुख में बैठा हुआ - नाशोन्मुख और रोगरूप भयानक सर्यों का स्थान है यह यहाँ मनुष्यों को प्रीति का कारण कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता - वह | सर्वथा ही अनुराग के अयोग्य है।
इस शरीर की उत्पत्ति माता के रज और पिता के वीर्य से होती है । इसमें अनेक दुर्गन्धित पदार्थ भरे हुए हैं । यह तो बहुत अच्छा हुआ कि इस पर चमड़ी का आवरण है अन्यथा अत्यन्त ग्लानिप्रद हो जाता । इतना ही नहीं अपितु पक्षीगण इसे स्वा लेते।