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RRRRRR सज्ज चनबल्लभ
सहका आचार्य श्री शुभचन्द्र जी लिखते हैं कि - कलेवरमिदं न स्याद्यदि 'चविगुण्ठितम् । मक्षिकावृमिकाकेश्य: स्यात्वातुं कस्तदा प्रभुः॥ ।
_ (ज्ञानार्णव २/११२) अर्थात् :- यह शरीर यदि चमड़े से आच्छादित न होता तो मक्खी, लट और कौओं से भला उसकी रक्षा कौन कर सकता था ? अर्थात् कोई नहीं।
ग्रंथकर्ता मुनिराज को सम्बोधित करते हैं कि - हे साधो ! इतने घृणित शरीर रूपी घर से आपको आसक्ति करना उचित नहीं है । इस शरीर के द्वारा रत्नत्रय की साधना करके आत्मशुद्धि कर लेनी चाहिये।
शरीर की दुर्गन्धयुक्तता दुर्गन्धं नवभिर्वपुः प्रवहति व्दारैरिदं सन्ततं, तदृष्ट वापि च यस्य चेतसि पुनर्निर्वेगता नास्ति चेत्। तस्यान्यद् भुवि वस्तु कीदृशमहो तत्कारणं कथ्यता, श्रीखण्डादिभिरङ्गसस्कृतिरियं व्याख्याति दुर्गन्धताम् ॥९॥ अन्वयार्थ :
(अहो!) अहो ! (इदं वपुः) यह शरीर (दुर्गन्ध) दर्गन्ध से युक्त (नवनिः दारैः सन्ततं प्रवहति) नव मलदारों से निरन्तर मल बहता रहता है । (श्रीखण्डादिभिरिय) चन्द जादि के द्वारा इस (अङ्गं संस्कृतिः) शरीर को संस्कारित करने पर भी (दुर्गन्धत व्याख्याति) दुर्गन्ध को ही सुस्पष्ट करता है । (तद् दृष्टवा) उरो देखकर भी (यस्य चेतसि) जिसके चित्त में (निर्वे गता नास्ति) लिगता नहीं जाती है (चेत्) तो (तस्य) उसको (अवि) इस पृथ्वी पर (अन्यत्) अत्य (कीशं वस्तु) कौन सी वस्तु (तत्कारणम्) वैराग्रा का कारण हो सकेगी (कथ्यताम्) सो कहो । अर्थ :
अरे ! यह शरीर दुर्गन्धयुक्त एवं जन मलतहारों से सतत रूप में मल प्रबाहमान हो रहा है. केशर. चन्दनादिक से सजाया लगी ताया भी