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छालामजनपिनबालपहल भावार्थ :
मुनियों को शारित्रमाग में हल करने के लिए आरायन ने इस श्लोक के द्वारा करणापूर्वक उपदेश दिया है। 1. रात्रिकान में चन्द्रमा के बिना आकाश शोभा को प्राप्त नहीं होता। ३. बिना कमलों का तालाब सुन्दर नहीं दिखता। 1. पण्डितों से रहित सभा की गरिमा नहीं रह पाती । ४. दाँतों से रहित हाथी का सौन्दर्य लुप्त हो जाता है। .. गन्धरहित पुष्प लोकप्रिय नहीं हो पाता । B. जिसका पति कर गया है, यह विटा योनित जीं होती।
इन छह दृष्टान्तों के समान ही चारित्र से विहीन मुनि श्री सुशोभित नहीं होते।
स्वरूपे चरणं चारित्रम् । स्वरूप में विचरण करना चारित्र है अथवा | जिसके द्वारा संसार के कारणों का विनाश होता है उसे चारित्र कहते हैं। मुनिराज पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप तेरह प्रकार के चारित्र का परिपालन करते है अथवा मुनिराज सामायिक व छे दोपस्थापनादि चारित्र को अंगीकार करते हैं।
चारित्रगुण से रहित मुनि भव्यसेन मुजि की तरह ग्यारह अंग और | जौ पूर्वो के पाठी होते हए भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाते । इसके विपरीत श्रेष्ठ चारित्र से विभूषित शिवभूति, भीम आदि के समान मुनि अल्पल होते हुए भी शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं। अतः शांथकार मुनि की शोभा खान से नहीं. अपितु चारित्र से मानते हैं।
केवल नग्नता ही मुनित्व नहीं है किं वस्त्रत्यजनेन भो मुनिरसावेतावता जायते, क्ष्वेडेनच्युत पन्नगो गतविषः किं जातवान् भूतले ? मूलं किं तपसः क्षमेन्द्रियजयः सत्यं सदाचारता, रागादींश्चविभर्ति चेन्न स यति लिङ्गी भवेत् केवलम्॥३||