________________
सजवित्तबालभर महान वक्तृत्वशैली के धनि, उस युग के श्रेष्ठ एवं जेष्ठ आचार्य थे और वे शिथिलाचार के प्रबल बिरोधि थे यह बात प्रस्तुत ग्रन्थ की शैली से सुस्पष्ट हो ही जाती है। । प्राप्त जानकारी के अनुसार इस ग्रन्थ पर आचार्य श्री चन्द्रकीर्ति के शिष्य आचार्य श्री श्रुतकीर्ति जी की तथा मुनि श्री बालचन्द जी की टीका प्राप्त होती है। दोनों ही टीकायें कन्नड़ भाषा में हैं।
यह ग्रन्थ सम्बोधनप्रधान शैली में लिखा हुआ है। अतः विवेचन शैली के कारण कहीं-कहीं कठोर शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। यदि उन्हीं शब्दों को पकड़कर कोई मुनियों की आलोचना करना प्रारंभ करें तो यह उसकी बालबुद्धि का ही फल होगा । ग्रन्थकर्ता ने जितनी बातें लिखी है उसका हेतु मुनियों की आलोचना करना नहीं अपितु मुनियों को शिथिनलाचार से बचाना है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में कहीं-कहीं श्रावकों के लिए भी सम्बोधन किया गया परन्तु अधिकांश उपदेश मुनियों के लिए ही दिया गया है। मुनियों की धर्मनीति को कुल तेईस शार्दूलविक्रीडित छपद में जिसताइपेपरेशा पटाई है । इस ग्रन्थ पर गागर में सागर यह उक्ति चरितार्थ होती है। शब्दों का समायोजन अत्यन्त आलंकारिक एवं रमणीय है। इस यन्ध में कुल पच्चीस श्लोक हैं। भाषा की दृष्टि से ग्रन्थ अत्यन्त प्रौढ है।
इस ग्रन्थ का अनुदान करने में मात्र आठ दिनों का समय लगा | आशा है कि पाठकवर्ग के लिए यह टीका सरल और तत्त्वबोधिनी सिद्ध होगी। इसे प्रकाशन के योग्य बनाने में मिलाई निवासी श्री दिनेशकुमार जी जैन और मालवीयनगरदुर्ग निवासी प्रो. पी. के. जैन का अपूर्व सहयोग प्राप्त हुआ |
जिनके पुजीत अर्थसहयोग से यह कृति आपके करकमलों तक पहुँच सकी है, उन समस्त अर्थसहयोगियों को आशीर्वाद।
इस कृति में व्याकरण और सिद्धान्त विषयक जो भी त्रुटियाँ हुई हो, मान्यवर विव्दान हमें ज्ञात कराने का कष्ट करें ताकि आगामी प्रकाशन में हम अपनी भूल सुधार सकें।
यह गन्ध आपके लानधन की वृद्धि करें. यही आशीर्वाद ।
मुनि सुविधिसागर