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हल सज्जनचित्तबलभ लाल
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सम्पादकीय.
आगम साधुओं का तृतीय नेत्र है। उसी चक्षु के माध्यम से मुनिराज वस्तुस्वरूप को देखते हैं। अपने जीवन को आगमनिर्दिष्ट मार्ग पर स्थापित करने से ही मुनिराज का जीवन जिम बन जाता है । सगुणों के आगार तथा रत्नत्रय के चलते फिरते तीर्थ वे मुनीश्वर धरती के देवता हैं। उनका दर्शन, पूजन अथवा वन्दन ही भव-भव के क्रन्दन को नष्ट कर देता है।
वर्तमान में मनुष्य अज्ज का कीडा बना हुआ है अथवा भोगों का गुलाम बना हुआ है । ऐसे विकट समय में आज भी जिनलिंग के धारी मुनियों के दर्शनों का अवसर प्राप्त होता है. यह महापुण्य का ही फल समझना चाहिये।
मुनिराज का स्वरूप क्या है ? मुनिराज के कौन-कौन से विशेष गुण होते हैं ? उनके योग्य और अयोग्य आचरण कौनसे हैं? मुनिराजों को अपने परिणामों की विशुद्धि के लिए क्या-क्या चिन्तन करना चाहिये ? किनका जीवन सार्थक है? और किनका निरर्थक ? आदि अनेक प्रश्नों का उत्तर इस ग्रंथ में है।
मुनियों के आचरणपद्धति को सुस्पष्ट करने वाले मूलाचार, भगवती आराधना, आराधनासार. चारित्रसार और अनगार धर्मामृत आदि अनेक ग्रन्थ हैं तथापि इतना संदित पद्धति से अन्य कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता।
यह लघुकाव्य गन्ध आत्तार्य श्री मल्लिषेण जी के व्दारा रचित है। अन्धका ईसदी सन् १०४७ के महल आचारी थे : इस ग्रन्थ के अतिरिक्त । राज्यका ने महापुराण और नागकुमार महाकाव्य की भी रचना की है।
गायकार्ता जैन आगम घरम्परा के कुशल अत्यला. उत्कृष्ट साधक