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मन्जनाचनवल्लभ w काश स्तोकाय साध्याय) अल्प सुख को पाति के ला (गुण भृतम्) ठाणों से भरे हा (देहसुपोतकम) हेह रूपी इनाम जहाज को (भंततं अलम्) तोड़ने को (ते) तुम्हारी (इच्छ। किमस्ति) इच्छा क्यों हो रही
अर्थ :
मनुष्यजाति, उत्तम कुल, रूप, निशेगता. बुद्धि, विद्वानों के द्वारा सेवा. श्री जिगेन्द्रदेव के व्दारा कथित तारित्र को प्राप्त कर किंचित् सुख के लिये गुण से भरे हुए शरीर रूपी जहाज को नष्ट करने की इच्छा तू क्यों कर रहा है ? (तू उसका क्यो दुरुपयोग कर रहा है ?) भावार्थ:
इस संसारचक्र में अनादिकाल से परिभ्रमण करता हुआ यह जीव अनन्त कालपर्यन्त निगोद पर्याय में वास करता रहा है । किसी प्रकार वहाँ से निकल गया तो बहुकाल स्थावर पर्याय में व्यतीत हो गया । स्थावर पर्याय से निकलकर कभी ये जीव दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय जीव अर्थात् विकलत्रय बज जाता है । यहाँ पर भी बहुत काल व्यतीत हो जाता है । कभी पञ्चेन्द्रिरा भी हुआ तो तिर्यच, नारकी अथवा देव होकर काल व्यतीत करता रहा । ___मनुष्यपर्याय को प्राप्त करना कितना कठिन है. इसे सोदाहरण स्पष्ट करते हुए स्वामी कुमार लिखते हैं कि - स्थांचउप्पहे पिवमण्यत्तंसदलदल्लहलहिय।
(स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा-२१०) तथा रयणुव्व जलहिपडियं मणुयत्तंतंपिअइदुलहं।
(स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा. २१७) अर्थात् :- जिसप्रकार चौराहे पर गिरे हुए रत्न का हाथ आना दुर्लभ है, | उसीप्रकार मनुष्यभव भी अत्यन्त दुर्लभ है।
अथवा, जिसप्रकार समुद्र में गिर गये रत्न की प्राप्ति होना दुर्लभ है, उसीप्रकार मनुष्य भव को प्राप्त करना दुर्लभ है।
मगुष्ट्यपर्याय को पा करके भी उत्तम कुल स्य. आरोलासम्पन्नतः.