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सहा मज्जाचनवाप्रभ
रहल
श्लोक क्र.
क्र. | १७ .
श्लोक योषा पाउडुक गोवितर्जित पदे
रात्रिश्चन्द्रमसा दिनानिवहै
लावार्थ यदि धर्मादाजविषये लावा भाषातमुत्तमपुर न
वृत्तैर्विशतिभिश्चतुर्भिरधिकैः वेतालाकृतिम दग्धमृतकं
शोचन्ते न मृतं कदापि वनिता
सौख्यं वाञ्छसि किन्त्वया गतभवे स्त्रीणां भावविलासविधाममति
मनुष्य जीने के लिए स्वयं लालायित रहता है। प्राणों का मोह सभी प्रकार के मोह से अधिक प्रबल होता है। यदि मनुष्य अपने प्राणों के समान अन्य को भी अपने प्राण 'यारे हैं, ऐसा मान लेवें तो उसके मन में दयाभाव अवतीर्ण हो जायेगा। दया की वृत्ति मनुष्य के अन्दर विराजित ग्यम्पूर्ण सद्गुणों में प्रमुख है। यही वृत्ति सत्वेषु मैत्री के सिध्दान्त का परिपालन कगती है। दया के वशीभूत होकर ही मनुष्य परोपकार की दिशा में अग्रसर होता है। जो उपकार करता है,
वह भी आत्मरुप से उपक़त होता है। जो जीवदया के रंग में रंग जाता है, वही | Mi का सबमें श्रेष्ठ बहेता होता है।
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