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सज्जनजिवलय का । जबतक आत्मीपोम पारीर में लगा हुआ होता है तनतकारस्थानी हुआ वह मूढ जीव आत्मकल्याण से दागुर हो जाता है। इसीलिए शरीर से ममत्व का त्याग करता साधनामार्ग के साधक का प्रथम कर्त्तव्य | है। इसके लिए शरीर के मण्डज करने की रुचि सर्वप्रथम छोड देनी चाहिये।
इसी तथ्य को इस श्लोक में ग्रंथकर्ता ने स्पष्ट किया है । वे | करुणापूर्वक समझाते हैं कि . हे साधो ! यह शरीर विष्ठा से भरे हुए। बर्तन के समान है । यह कभी भी शुद्ध नहीं होता। क्या सैकड़ों बार जल से प्रक्षालित किये जाने पर भी विष्ठा कभी चन्दन बन सकती है ? जिस | प्रकार विष्ट । चन्दन का रूप धारण नहीं कर सकती. उसीप्रकार सैकड़ों बार प्रक्षालित करने पर भी शरीर कभी पवित्र नहीं होता । शरीर का संस्कार करते समय यदि तुम जख,केश और मुख को श्रृंगारित करते रहोगे तो तुम मण्ड प्रिय कहलाओगे और यदि तुम मण्ड नप्रिय हो तो तुम्हें अपना नाम अकामी नहीं रखना चाहिये । इसलिए तुम शरीर का मण्ड नकार्य शीघ्र ही छोड़ दो।
ग्रंथ का उपसंहार वृतैर्विंशतिभिश्चतुर्भिरधिकैः सल्लक्षणेनान्वितै -- ग्रन्थं सज्जनचित्तवल्लभमिमं श्री मलिषेणोदितम् । श्रुत्वात्मेन्द्रियकुन्नरान् समटतो रुन्धन्तु ते दुर्जरान्, विद्वान्सो विषयाटवीषु सततं संसारविच्छित्तये ।।२५|| अन्वयार्य :
(श्री मल्लिषे यो दितम्) श्री मल्लिषेण के द्वारा कथित ग्रह (सज्जनचित्तवल्लभं ग्रन्थम्) सज्जनचित्तबल्लभ नामक लांथ (सल्ल -क्षणान्वितैः) समीचीन लक्षणों से युक्त है (चतुभिरधिक: वृत्तैर्विं - शतिभिः) चौबीस छ न्दों से युक्त है । (ये विन्दान्सः) जो बुद्धिमान हैं (ते इमं ग्रन्थं श्रुत्वा) वे इस हांथ को सुनकर (संसारविच्छि त्तये) संसार का विनाश करने के लिए (दुर्जरान्) जिसको जीतना कठिन है ऐसे (आत्मेन्द्रियकुअरान्) अपने इन्द्रिय रूपी हाथियों को (विषयाट वीषु)
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