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सज्जनचितवल
( सुस्वादवन्त्यः ) सुस्वाद वाली हैं । ( ईषत्सेवन मात्रतोऽपि ) अल्प | सेवन मात्र से ही (पुंसाम् ) पुरुषों को ( मरणं प्रयच्छन्ति) मृत्यु पव्हान करती है। (तस्मात् ) इसीलिए (दृष्टि विषाहिवत् ) दृष्टि विष सर्प के समान (त्वम्) तुम (मृत्यु वे ) मृत्यु से बचने के लिए उन्हें (दूरतः ) दर से ही (परिहर) छोड़ दो ।
अर्थ :
अरे ! नारियों के भावविलास और विश्वमगति को देखकर तुम मन से भी अनुराग मत करो। वे विषवृक्ष के पके फलों के समान सुस्वाद युक्त हैं. जिनके अल्पसेवन मात्र से ही पुरुष को मृत्यु होती है. इसीलिए दृष्टि विषधारक सर्प के समान तुम उन्हें दूर से ही छोड़ दो । भावार्थ :
वैराग्य की उत्पत्ति के लिए संसार, शरीर और भोगों से अनासक्त होना बहुत आवश्यक है। भोगों से कराने का उद्देश्य मन में रखकर यहाँ आचार्य भगवन्त ने भोगों में साधनभूत स्त्रियों की निन्दा की है। स्त्रियों की निन्दा करते हुए आचार्य श्री प्रभाचन्द्र लिखते हैं कि :समधनमुपहर्तृ कामचौरप्रचारम् । निश्चयति निकामं कामनी यामनीयम् ॥ सपदि विदधतीया मोहनिद्रासमुद्राम् । जनयति जनमन्तः सर्वचैतन्यशून्यम् ॥ ( श्रृंगार वैराग्यतरंगिणी - ४०) अर्थात् :- स्त्री शम रूपी धन का अपहरण करने में काम रूपी चोरों का प्रचार बढ़ाने वाली है, मोहनिद्रा रूपी समुद्र को विकसित करने वाली है, विवेक और चैतन्यता को नष्ट करने वाली है ।
ठीक ही है, वह कामिनी यामिनी (रात्रि ) के समान है ।
जिसप्रकार आँखों में कोई भी रोग हो जाने पर वस्तुयें दिखाई नहीं देती । उसीप्रकार जिस पुरुष के 'ज्ञानचक्षु में कामदेव रूपी रोग हो गया है, उसे अपना स्वरूप भी स्पष्ट दिखाई नहीं देता। जिसे नेत्ररोग हो गया हो, उसे पथ सुस्पष्ट दिखाई नहीं देता, उसीपकार कामदेव रूपी रोग से ग्रसित ज्ञानदक्षु को मोअपथ दिखाई नहीं देता । अतः वह भवभवान्तर में भटकता फिरता है।
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