Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Haribhadrasuri, Shyamacharya
Publisher: Jinshasan Aradhak Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हम् याकिनीमहत्तरासूनु-आचार्यवर्यश्रीहरिभदसूरिविवृत्तं श्रीश्यामाचार्यवरेण्यविरचितम् प्रज्ञापनासूत्रम् (भाग:-२) - समतासागरपंन्यासश्रीपद्मविजयपुण्यस्मृतौ बमालायाम पुनःप्रकाशनप्रेरकाः - प्राचीनश्रुतोद्धारक प.पू.आचार्यदेवश्रीमद्विजयहेमचन्द्रसूरीश्वराः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि.सं. २०६७ प्रकाशकः श्रीजिनशासन आराधना ट्रस्ट बी.सी. जरीवाला, दु-६, बद्रिकेश्वर सोसायटी, मरीनड्राईव, ई रोड़, मुम्बई - ४००००२ • श्रुतसमुद्धारसहयोगी · श्री मुनि-सुपार्श्व - शान्ति ट्रस्ट, इशा पेलेस, पूना, आराधक श्राविका ज्ञाननिधिः प्रेरका:-पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद्विजयमुक्तिप्रभसूरीश्वराः - - वीर सं. २५३७ एतद्ग्रन्थस्वामित्वं श्रीजैन श्वेताम्बरमूर्तिपूजकसङ्घस्यैव, एतद्ग्रन्थपठनपाठनाधिकारी कृतयोगोद्वहनो गुर्वनुज्ञातः श्रमण एव । मुद्र:- शिवपा खोइसेट प्रिन्टर्स हुधेश्वर महावाह शेनः ०७८-२५६२३८२८, २५९२५६७८ ॥ 2 ॥ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नमो नमः श्रीजिनशासनाय ॥ परमकारुणिक श्रीश्यामाचार्यवरेण्यविरचितमागमसूत्रमिदं याकिनीमहत्तरासूनु-आचार्यवर्य श्रीहरिभद्रसूरिसूत्रितप्रदेशव्याख्यासहितं भविष्यति भव्यं भव्यजीवालम्बनमिति सानन्दं पुनः प्रकाश्यते । पुनःप्रकाशनपुण्यावसरेऽस्मिन् पूर्वप्रकाशक श्रीजैनपुस्तकप्रचारसंस्थायाः कृतज्ञतया संस्मृतिं विदधामः । त्रिशताधिकशास्त्रपुनरुद्धारप्रेरकाणां विहरमाणजिन श्रीसीमन्धरस्वाम्युपासकानां वैराग्यदेशनादक्ष - आचार्यदेव - श्रीमद्विजयहेमचन्द्रसूरीश्वराणां पुण्यप्रेरणया समतासागरपंन्यासप्रवरश्रीपद्मविजयपुण्यस्मृतौ श्रीजिनशासन आराधना ट्रस्टग्रथितायां प्राचीनश्रुतसमुद्धारपद्ममालायां षट्चत्वारिंशत्तमं पद्ममिदं सानन्दं समर्पयामः श्री श्रमणसङ्घायेति शम् । - श्रीजिनशासन आराधनाट्रस्ट 113 11 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐.. कृपावा ..॥ सिद्धान्तमहोदधि-सच्चारित्रचूडामणि-सुविशालगच्छसर्जक-आचार्यदेवश्रीमद्विजय-प्रेमसूरीश्वराः न्यायविशारद-वर्धमानतपोनिधि-गच्छाधिपति-आचार्यदेवश्रीमद्विजय-भुवनभानुसूरीश्वरा: समतासागर-संयमसमर्पणादिगुणगणार्णव-प. पू. पंन्यासप्रवरश्री-पद्मविजयगणिवरा: 卐.. आज्ञाप्रसादः ..卐 सिद्धान्तदिवाकर-गीतार्थगच्छाधिपति-आचार्यदेवश्रीमद्विजय-जयघोषसूरीश्वरा: म.. प्रेरणापीयूषम् ..॥ वैराग्यदेशनादक्ष-प्राचीनश्रुतोद्धारक-आचार्यदेवश्रीमद्विजय-हेमचन्द्रसूरीश्वरा: ॥4॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ama 卐 श्री जिनशासन सुकृत मुख्य आधारस्तंभ) १) श्री नयनबाला बाबुभाई जरीवाला परिवार ह. लीनाबेन चंद्रकुमार जरीवाला-मुंबई. २) श्री मूलीबेन अंबालाल शाह परिवार ह. रमाबेन पुंडरीकभाई शाह, खंभात-मुंबई. ३) श्री नयनबाला बाबुभाई जरीवाला परिवार ह. शोभनाबेन मनीशभाई जरीवाला-मुंबई. ४) श्री सायरकंवर यादवसिंहजी कोठारी परिवार ह. मीनाबेन विनयचन्द कोठारी 卐श्री जिनशासन सुकृत आधारस्तंभ) १) श्री कमलाबेन कांतिलाल शाह परिवार ह. बीनाबेन कीर्तिभाई शाह (घाटकोपर-सांघाणी) २) श्री जागृतिबेन कौशिकभाई बावीसी., डालीनी जयकुमार महेता, म्हेंक 卐श्री श्रुतीद्धार मुख्य आधारस्तंभ) १) श्री माटुंगा श्वे. मू. जैन संघ - मुंबई २) श्री अठवालाइन्स श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ,श्री फूलचंद कल्याणचंद झवेरी ट्रस्ट - सुरत IIAII Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १) श्री के.पी. संघवी चेरीटेबल ट्रस्ट संचालित श्री पावापुरी तीर्थ जीवमैत्री धाम ॐ श्री श्रुतीद्वार आधारस्तंभ २) श्री हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर - पाटण ३) श्री मनफरा श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ -मनफरा. (प्रेरकः प.पू. आ. श्रीमद् विजयकलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. ना शिष्य प.पू. आ. कलाप्रभसूरीश्वरजी म.सा.) ४) श्री गोवालिया टेन्क जैन संघ मुंबई ५) श्री नवजीवन श्वे. मू. जैन संघ मुंबई * ६) श्री नडियाद श्वे. मू. जैन संघ - नडियाद ७) श्री बाबुभाई सी. जरीवाला चेरीटेबल ट्रस्ट, ह. श्री आदिनाथ जैन संघ निझामपुरा, वडोदरा ८) श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ श्वे. मूर्ति . तपागच्छ जैन संघ - श्री जयालक्ष्मी आराधना भवन घाटकोपर (पूर्व), मुंबई ९) श्री जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ सायन (शिव), मुंबई १०) श्री रिद्धि-सिद्धि वर्धमान हाइट्स श्वे. मू. जैन संघ, भायखला, मुंबई ११) श्री मुलुंड श्वे. मू. तपागच्छ समा १२) श्री आदिनाथ सोसायटी जैन टेम्पल ट्रस्ट, पुणे (प्रेरक: प.पू.पं. अपराजित वि. गणिवर्य) ॐ श्री शासन रजतस्तंभ * १) स्व. मातुश्री ताराबेन चंदुलाल शाहना आत्मश्रेयार्थे श्री हंसाबेन जयेशभाई चंदुलाल शाह, अमदावाद २) श्री नयनभाई मनसुखलाल शाह, सुरत ** IIBII Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रज्ञापनो पाङ्गम् १२ शरीर० ************* आचार्यपुरन्दरश्रीहरिभद्रसूरिसूत्रितपदेशविवरणयुतं औदारि * कादिशरीरश्रीप्रज्ञापनोपाङ्गम्। खरूपम् ॥ (उत्तरार्धम्) साम्प्रतं द्वादशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे सत्त्वानामसत्यादिभाषाविभागोपदर्शनं कृतं, इह पुनभाषाया एव शरीरायत्तत्वात्, शरीरप्रभषा भाषेत्यत्रैव प्रतिपादितत्वात् , तथा 'गिण्हति य काइएणं निसिरति तह वाइएण जोगेणं'ति, अन्यत्राप्युक्तस्वाच्छरीरप्रभवा, तद्विभागोपदर्शनायेदमारभ्यत इति, इह चेदमादावेष प्रश्ननिर्वचनं, आदिसूत्र-गोतमा! पंच सरीरया पण्णत्ता तंजहा-ओरालियेस्यादि, तत्रोत्पत्तिसमयादारभ्य प्रतिक्षणमेव शीर्यत इति शरीरं, तत्रौदारिकमिति कःशब्दार्थः? उदारं प्रधान, 4 उदारमेवीदारिक, प्राधान्यं चास्य तीर्थकरगणधरशरीरापेक्षया, ततोऽन्यत्न प्रधानतरमस्ति, प्राकृतशैल्या मोरालियं, तत्र ओरालं नाम | विस्तरालं, विशालंति वा, जं भणितं होति, कह? तं सातिरेगजोयणसहस्समपट्टितप्पमाणमोरालियं,अन्नमेइहमेत्तंणस्थि,वेउब्धियं होजाता तु अणवट्ठियप्पमाणं भवट्ठिय पुण पंचधणुसयाई अहेसत्तमाइ,इमं पुण अवट्ठियप्पमाणं सातिरेगंजोयणसहस्सं वनस्पत्यादी(ती)नामिति, अथवौरालिकं, उरलं नाम स्वस्पप्रदेशोपचितत्वात् बृहत्त्वाब भेंडवत्, अथवौरालिक, उरालं नाम मांसस्थिमजाद्यवबद्धं वा यदुक्तं च-"तथोदारमुराल, उरालं महद् विन्नेयं, 'ओदारियंति परमं पडुन तित्येसरसरीरं,' भण्णति य-'ओरालं वित्थरवंत, वणस्सई पप्प 'एवतियं || णथि अण्णं पदहमेत्तं विसालं ॥१॥ "ति, ओराल थेवपदेसोपच्चियति महलग जह भेंडग? मंसटिहारूबद्धं भोरालं समयपरिभासा,* ॥१ ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रज्ञापनोपाङ्गम् १२ शरीर इदानीं वैक्रियं, तत्र वि विविधा विशिष्टा वा क्रिया, विक्रियायां भवं बैंक्रिय, उक्तं च-“ विविहा विसिट्ठया वा किरिया एई य जं | भव तमिह । वेउब्धिय तय पुण नारकदेवाण सहजम्म, ॥१॥" योगवलेनाहियत इस्याहारक, उक्तं च-" कजंम्मि समुप्पन्ने औदारि| सुयकेवलिणा विसिट्ठलदिए । जं पत्थ आहरिजति भणति आहारगं तं तु ॥१॥" कार्याणि वाऽमूनि “ पाणिदयर रिद्धिदरिसणस्थ २ || कादिशरीर| अत्थोवगहणहेतुं ३ वा संसयबोच्छेदत्थं ३ गमणं जिणपायमूलंमि ॥ १॥" कार्यपरिसमाप्तौ च पुनर्मुच्यते, याचितोपकरणवत्, स्वरूपम् ॥ तथा तेजसो भावो तैजसं उष्मादिलिंगसिद्धमिति' उक्तं च-"सब्वस्स उण्हसिद्ध रसादिआहारपागजणणं च । तेयगलद्धिनिमित्तं तेयग होइ नायव्वं ॥१॥" तथा कर्मणो विकारः कार्मणं सकलशरीरकारणमित्यर्थः, उक्तं च-"कम्मवियारो कम्मणमट्टविह विवित्तकम्मणिप्फणं । सब्वेसि सरीराणं कारणभूयं मुणेयब्वं ॥१॥” अत्राह-किं पुनरयमौदारिकादिःकम इति? अत्रोच्यते परं परं प्रदेशसौम्यात् परं परं प्रदेशबाहुल्यात् परं परं प्रमाणोपलब्ः प्रत्यक्षोपलब्धत्वात् प्रथितत्वाच्चौदारिकादिकः क्रमः, ताणि य सरीराई जीवाणं बद्धमुत्ताई दब्बखेत्तकालभावहिं साहिज्जति, द्रव्यप्रमाणं वक्ष्यति अभव्यादिभिः, क्षेत्रेण श्रेणिप्रतराविना, कालेनाथलिकादिना, भावो द्रव्यान्तर्गतत्वान्न सूत्रणोक्तः सामान्यलक्षणत्वाच, वर्णादीनामन्यत्रोक्तत्वात् , ओरालिया दुविहा बद्धल्लया मुकल्लया य, बद्धं गृहीतमुपातमित्यनर्थान्तरं, मुक्तं त्यक्तं क्षिप्तं समुज्झितमस्तमित्यनान्तर्र. तत्थ बद्धेल्लया असंखिजया असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणिहिं अवहीरंति कालतो, खित्ततो असंखिज्जा लोगा, एतं सुत्तं, इदानीमर्थः, ण संखेजा असंखिज्जा, ण तीरंति संखातुं गणितेण जहा एत्तिय मास मित्ता] कोडीप्पमिहणातोवि कालादीहिं साहिज्जति, कालतो ताव समर २ एककं सरीरं समवहीरमाणमसंखेजाहि उस्सप्पिणीओस्सप्पिणीहिं अवहीरंति, जं भणियं असंखिजाणं ओस्सप्पिणिओसप्पिणीणं जावइया समया एवतिया ओरालिया सरीरा बद्धल्लया खेत्तओ परिसंखाणं असंखिज्जा लोगा भवंति, ओगाहणाहिं ठविजंति, तेहिं जइ वि एकेक पदेसे सरीरमेकेक ठविज्जति तो वि असंखिजा लोया भवति, किंतु अवसिद्धतदोसपरिहरणत्थं अप्पणप्पणियाहिं ओगाहजाहिं उविजंति, आह-कहमणंताणमोगलियसरीराणं असंखेज्जाई ओरालियसरीराई भवंति? आयरिय आह-पत्तेय सरीरा अ ॥२॥ . Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनो पाङ्गम् १२ शरीर० संखेजा, तेसिं सरीरावि तावइया चेव, जे पुण साहरणा ते अर्णता, सेसिं अणंताणवि पक्केकमोरालियं काउं असंखिज्जा सरीरा || भवंति, एवमोरालिया बद्धेल्लया असंखेज्जा, मुक्कोल्लया अणंता, कालपरिसंखाणं अर्णताणं उस्सप्पिणीओसप्पिणीणं समयरासि- औदारिप्पमाणमित्ताई. खेत्तओ परिमाणं अणंताणं लोगप्पमाणमित्ताणं खंडाणं पदेसरासिप्पमाणमेत्ताई, दवओ परिसंखाणं अणंतभव कादिशरीरसिद्धियजीवरासीओ अणंतगुणाई, तो किं सिद्धरासिप्पमाणमित्ताई होजा? भण्णति सिद्धाणमणंतभागमित्ताई, आह-तो किं स्वरूपम् ॥ | परिवडियसम्मदिट्ठीरासिप्पमाणाई होजा ते ?, तेसिं दोण्हवि रासीण मज्झे पढिजंतित्ति काउं, भण्णति जइ तप्पमाणाई होजाई | तो तेसिं चेव निहेसो होतो, तम्हा ण तप्पमाणाई, तो किं तेसिं हिट्ठा होजा!, उवरिं होजा?, भण्णति, कयाइ हेट्ठा कयाइ उबरिं होजा, कयाइ तुल्लाई, तेण स व्याघातत्वात् ण णिचकालं तप्पमाणाई तीरंति वोर्चे, आह-कहं मुक्काई अणंताई भवति ओरालियाई? जइ ताव ओरालियाई मुकाई ताई जाव अविकलाई जाब धिप्पंति तो तेसि अणंतकालठाणाभावातो अणंतत्तगंण पावति, अह जे जीवहिं पोग्गला ओरालियत्तेण पित्तुं मुका तीयद्धाए तेसिं गहणं, एव सम्वपोग्गलगहणमावणं एवं जं तं भण्ण| ति, अभवसिद्धिएहिं अणंतगुणा सिद्धाणं अर्णतभागोत्ति तं विरुज्ज्ञति, एवं सम्बजीवहिंतो बहुएहिं गुणेहि भणंतत्तणं पावति', आयरिय आह–ण य अविकलाणमेव केवलाण गहणमेयं, ण य ओरालियगहणमुक्काण सव्वपुग्गलाण, किंतु जं सरीरमोरालियं जीवेण मुक्कं होति तं अणंतमेद मिन्नं होति, जाव ते य पोग्गला तं जीवनिव्वत्तियं ओरालियसरीरकायप्पओगं ण मुयंति, ण ताव अण्णपरिणामेण परिणमंति ताई पत्तेयं २ सरीराई भणंति, एवमेकेकस्स ओरालियसरीरस्स अणंतमेदमिण्णत्तणो अगंताई ओरालियसरीराई भवंति, तत्थ जाई दवाई ताई ओरालियसरीरप्पओगं मुयति ताई मोत्तुं सेसाई ओरालियाइ चेव, तेसिं पुण असंखिजं कालं अवत्थाणं, तेणासंखिजेणं कालेणं जाव तं पढममोरालियमणतगुणं जाव तं भावं मुयति-ताव अन्नाई असंखिज्जाइ छ । ताई तहेवाणंतमेदाई हवंति, एवं जाहे असंखिज्जाई अर्णतयाई भवंति, ताहे पढममणतयं अणंतत्तणेण परिणमति तमोरालियभावं मुयति, एवमणंतमोरालियाणं, आह-कहमेकको सरीरदबदेसो सरीरत्तणेणोवचरि- ॥३॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री प्रज्ञापनोपाङ्गम् औदारिकादिशरीरस्वरूपम् ॥ १२ शरीर० जति?, आयरिय आह-लवणादिवत् , यथा लवणस्य तुलाढककूडवादिष्वपि लवणोपचारो यावदेकशर्करायामपि सैव लवणाख्या विद्यते, केवलं संख्याविशेषः एवमिहापि प्राण्यंगैकदेशेऽपि प्राण्यङ्गोपचारः कपालादिवत्, एवमनन्ताम्यौदारिकादीग्यपीति, अत्राह-कथं पुनस्तान्यनन्तलोकप्रमाणान्येकस्मिन्नेव लोकेऽवगाहन्ति?, अत्रोच्यते प्रदीपप्रकाशवत्, यथैकप्रदीपाऽचिष्येकभवनाभासीनि भवन्ति अन्येषामप्यनेकेषां प्रदीपानामचिषि तत्रैवानुविशन्त्यन्योन्याविरोधात् एवमौदारिकाण्यपीति, एवं सर्वशरीरेध्वपि आयोज्यमिति, अत्राह-किमुत्क्रमेण कालादिमिरुपसंख्यानं क्रियते?, कस्माद् द्रव्यादिमिरेव न क्रियते?, अत्रोच्यते, कालान्तरावस्थायित्वेन पुद्गलानां शरीरोपचार इतिकृत्वा कालो गरीयान् , तस्मात् तदादिभिरुपसंख्यान, ओरालियाई, संमत्ताई ओहियाई, दुविहाइपि जहियाई ओहिओरालियाई, पयं सम्वेसिपि एगिदियाणं दब्वाई, किं कारणं जेण ओहिओरालियाईपि तेसिं पडुच्च बुञ्चति?, बेउब्विया बदल्लया असंखेजा असंखेजाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं तहेव असंखिज्जाओ सेढीओ, ताओ णं सेढीओ०, आहका पुण एसा सेढी णाम?, उच्यते-सेढी लोगाओ णिप्फजति, लोगो पुण चउदसरज्जूसिओ हेटा देसूणासत्तरज्जुविच्छिण्णो मज्झे पगं बभलोग पञ्च उवरिं लोगते एग्गं रज्जु विच्छिन्नो, रज्जु पुण सयम्भूरमणसमुद्दपुरथिमपचत्थिमवेदियंता, एस लोओ बुद्धिपरिच्छेदएण संवर्ड घट्टणो कीरति, कह पुणं?, नालीए दाहिणिलमहेलोगखंडं हेट्ठा देसूणतिरज्जुविच्छिण्णं उपरि देसूणजोयणविच्छिण्णं अतिरित्तसत्तरज्जूसियं चित्तुं ओमच्छियं उत्तरे पासे सहातिजत्ति उडुलोए दो दाहिणिल्लाई खंडाईबंभलोए बहुमज्झदेसभाए बिरज्जुविच्छिण्णाई सेसतेसु अंगुलसहस्सभागविच्छिण्णाई देसूणाधुट्ठरज्जूसियाई चित्तुं उत्तरपासे विवरीयाई सजाइजंति, एवं किं जायं ?, हेटिलं लोगद्धं देसूणचउरज्जूविच्छिण्णं सातिरित्तसत्तरज्जूसितं जातं, उवरिलमद्धं तिरज्जुविच्छिणं देसूणसत्तरज्जूसियं जातं, उवरिल्लमद्धं घिनुं हेछिल्लस्स उत्तरे पासे संघाइजति, एवं किं जातं?, सातिरित्तसत्तरज्जूसितं देसूणसत्तरन्जुविच्छिणं जातं, उवरि सत्तरज्जु अमहियं घिचुं च उत्तरे पासे उहायय संघाइजति, तहावि सत्तरज्जुन पूरंति, ताहे जं दक्खिणिल्ला खंडा तस्स जस्स जमहियं बाहल्लओ तस्सद्ध छेत्तुं उत्सरओ बाहले संघाइजति, एवं किं जातं?, वित्थरओ ॥४॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औदारिकादिशरीरखरूपम् ॥ प्रज्ञापनो पाङ्गम् | १२ शरीर आयामओ सत्त रज्जू बाहल्लओ रज्जुए असंखभागेण अहियामो छ रज्जुओ, एवं सबलोगो ववहारेण सत्तरज्जुघणो जाओ, ऊणाइरित्तं जाणिऊण ततो बुद्धीए संघाएज्जा, जत्थ जत्थ सेढीगहणं तत्थ तत्थ एयाए सत्तरज्जुआययाए अवगंतब्वं, पयरस्सवि एयस्स चेव सत्तरज्जुयस्स चेव अणेण लोगेण खेत्तप्पमाणं, एवमेतेण सरीरप्पमाणेणं वेउम्बियाई बद्धेल्लयाई असंखिजसेदिप्पदेसरासिप्पमाणमित्ताई, मुक्काई जहा ओरालियाई, आहारगे-बद्धाई सिय अस्थि सिय नत्थि, किं कारणं? जेण तस्स अंतरं जहण्णेणं एवं समयं उकोसेणं छम्मासा, तेण ण होतिवि कयाइ, यदि होंति जहण्णेण एक्को व दो व तिण्णि व उक्कोसेणं सहस्सपुहुत्तं, दाहि-|* तो आढत्तं पुहत्तसण्णा जाव णव, मुक्काई, जहोरालियाई मुक्काई तेया बद्धा अणंता अर्णताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं कालपरिसंख्याण, खेत्तओ अणंता लोया, दब्बओ सिद्धेहितो अणंतगुणा सव्वजीवाणंतभागूणा, किं कारणमणंताई ? तस्सामीण अणंतत्तणओ, आह-ओरालियाणंपि सामिणो अणंता,आयरिय आह-ओरालियसरीरमणंताणं पगं भवति साधारणतणओ, तेयाकम्माई पुण पत्तेयं | पत्तेयं सव्वसरीरिणं, तेयाकम्माई पडुच पत्तेयं चेष सम्बजीवा सरीरिणो, ताई च सव्वसंसारिणंतिकाउं, संसारी(रिणो) सिद्धेहिंतो अणंतगुणा होंति, सब्बजीवा अणंतभागूणा, के पुण!, ते चेव संसारी सिद्धेहिं ऊणा, सिद्धा जीवाणं अणंतभागो, तेण ऊणा अणंतभागूणा भवंति, मुक्काई अणंताई अर्णताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि कालपरिसंखाणं, खेत्तओ अणंता लोगा, दोवि पूर्ववत्, 'दब्बतो सब्वजीवेहिं अणंतगुणा जीवबग्गस्स अणंतभागो', कह सबजीवाणंतगुणा ? जाई तेयाकम्माई मुक्काई ताई तहेवाणंतमेदभिनाई असंखिज्जकालवत्थाइयाणि जीवेहितो अणंतगुणाई भवति, केण पुण अणंतएण गुणाई?, तं चेव जीवाणं तपण गुणितं जीववग्गो भषणति, एत्तियाई होजा?, आयरिय आह-एत्तियं न पावति, किं कारणं?, असंखिज्जकालावत्थायित्तणओ तेसिं दवाणं, तो कित्तियाई पुण होजा?, जीवबग्गस्स अणंतभागो, कहं पुण एतदेवं चित्तब्वं?, आयरिय आह-ठवणारासीहिं णिदरिसणं कीरति, सब्वजीवा दस सहस्साई धिप्पंति, तेसिं वग्गो दस कोडीओ होंति, सरीरयाई पुण दससयसहस्साई बुद्धीए अवधारिज्जंति, एवं किं जातं ?, सरीराइं जीवेहिंतो सतगुणाई जाताई.जीववग्गस्स दस (सततम) भागे संवुत्ताई, णिरिसणमेयं, ॥५॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *इहरा सम्भावतो एते तिणि वि रासी अणता दट्टब्बा, पव कम्मयाई वि तस्सहभावत्तणओ तुलसंखाई भवंति, एवं ओहियाई || |पंच सरीराई भणियाई.'णेरइयाणं' भंते' त्यादि, वैशेषिकं णारगादीणं इयाणी भण्णति, णारगाणं ओरालिया सरीरा बद्धेल्लया णत्थि, औदारिश्री ओरालियसरीरजोग्गदब्बगहणाभावत्तणओ, रइयाणं बेउम्विया बद्धल्लया जावंत एव नारका, ते पुण असंखेजा, असंखिज्जाहिकादिशरीरप्रज्ञापनोपाङ्गम् उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं कालपमाणं, खेत्तओ असंखिजाओ सेढीओ तासिं पदेसमेत्ता णारगा, आह-पतरंमि असंखिजाओ|* स्वरूपम् ॥ सेढीओ?, आयरिय आह-सयलपयरसेढीओ ताव ण होंति, जइ होंति तो पतर चेव भणतं, आह-तो ताओ सेढीओ १२ शरीर०||किं देसूणपयरवत्तिणीओ होजा?, अद्धपतरवत्तिणीओ तिभागचउभागवत्तिणीमो होज्जा?, ताओणं सेढीओ पतरस्स * असंखिजइभागो, एवं विसेसियरं परिसंखाणं कहियं होति, अहवा इदमन्नं विसेसियतरं, विक्खंभसूतीए परिसंखाणं भण्णति. तासिणं सेढीणं विक्खंभसूतीअंगुलपढमवग्गमूलं, वितियवग्गमूलं ततियं जाव असंखिजामत्ति, तम्हा अंगुलविक्खंभखित्तवत्तिणो सेढिरासिस्स जं पढमं वग्गमूलं बितिएण वग्गमूलेण पडुप्पाइजति एवतियाओ सेढीओ सूती, अहवा * इदं साम(अण्णेण पगारेण पमाणं भण्णति जहा-अहव्वणं अंगुलबितियवग्गमूलघणप्पमाणमित्ताओ सेढीओ, तस्सेव अंगुल |प्पमाणखेत्तवत्तिणो सेढिरासिस्स जं बितियं बग्गमूलं तस्स जो घणो एवतियामो सेढीओ विक्खंभसूती, तासिणं सेढीणं +पदेसरासिप्पमाणमित्ता नारगा तस्स सरीराई च, तेसिं पुण ठवणंगुलेणं णिदरिसणं, दो छप्पणाई सेढिसताई अंगुलबुद्धीए ★| धिप्पति, तस्स पढमं वग्गमूलं सोलस, वितियं चत्तारि, ततियं दोषिण, ते पढमं सोलसयं ततिएण चउक्कण वग्गमूलेण गुणियं चउसट्ठी जाता, बितियवग्गमूलस्स वि चउकस्स य घणो सो चेव चउसट्ठी भवति, पत्थ पुण गणियघणो अणुवत्तिओ भवति, जं बहुयं थोवेण गुणिज्जति, तेण दो पगारा भणिता, इहरा तिण्णि वि भवंति, इमो ततिओ पगारो-अंगुलवितियवग्गमूलं पढमवग्गमूलपडुप्पणं, एवंपि सा चेव चउसट्ठी भवति, एते सव्वे रासी सम्भावतो असंखिज्जा दट्टब्वा, एयाई नारगवेउब्बियाई बद्धाई, मुक्काई जहोहिमोरालियाई, पवं सब्यसरीराई मुक्काई भणियब्वाई बणस्सतितेयाकम्माई मोर्चे, देवनारगाणं तेयाकम्माई ॥६॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्गम् स्वरूपम् ॥ १२ शरीर दुविहाइपि सट्टाणवेउब्वियसरिसाति, सेसाणं वणस्सतिबजाणं सटाणोरालियसरिसाइं इदाणी जं जस्स न भणियं तं भणिहामि-असुरवेउब्विया बबेल्लया असंखिज्जातो सेढीभो पयरस्स असंखिज्जइभागो, तासिणं सेढीणं विक्खंभसूती य पदमबग्ग-|| मूलस्स संखिजइभागा, तस्स अंगुलविक्खंभखेत्तवत्तिणो सेढिरासिस्स जं पढमं वग्गमूलं, तत्थ जाओ सेढीओ तासिं संखिज्जइ-II औदारिभागो, पर्व नेरइएहितो असंखेजगुणहीणा विक्खभसूती भवति, जम्हा महादंडएवि असंखिजगुणहीणा सब्वे चेव भवणवासी रयण-| कादिशरीर| प्पभापुढविनेरइपहिंतोवि, किमुत सब्वेहितो, एवं जाव थणियकुमाराणं, पुढविआऊतेऊसु (वेउब्ब) उववज कंट्ठा भाणियब्बा, वाउकाइयाणं बेउब्विया बदल्लया असंखिजा, समए समए अवहीरमाणा पलिओवमस्स असंखिज्जइभागमित्तेणं कालेणं अवहीरंति, णो चेव णं अवहीयाई सिता, सूत्र, कहं पुण पलिओवमस्स असंखिज्जाभागसमयमित्ता भवंति?, आयरियाह-वाउकाइया चउविहा सुहुमा पजत्ता अपज्जत्ता, बाइरावि पजत्ता अपज्जत्तावि, तत्थ तिण्णि रासी पत्तेयमसंखिजलोगपदेसरासिमित्ता, जे पुण बादरा पजत्ता ते परं पयरासंखिजहभागमित्ता, तत्थ ताव तिण्हं रासीणं वेउब्वियलद्धी चेव नत्थि, बादरपज्जत्ताणंपि संखिज्जहभागमित्ताणं लद्धी अस्थि, ततो पलिओमामसंखिज्जभागो चेव, ते पवन्नाई?, तं न जुज्जति, (किं) कारणं, जेण सब्वेसु च लोकाकाशादिषु वलयादिषु वायवो विज्जंति, तम्हा अविउब्वियावि तं घेत्तव्यं, सहावो तेसिं वातियब्वं, वाताद्वायुरितिकृत्वा, बेइंदियोरालिया बद्धेल्लया असंखिजा असंखिजाहिं ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहिं कालपरिमाणं, तहेव खित्तओ असंखिजाओ सेढीओ तहेव पतरस्स असंखिजइभागो, केवलं विक्खंभसूतीए विसेसो, विक्खंभसूती असंखिज्जाओ जोयणकोडाकोडीओत्ति विसेसियतरं परिसंखाणं, महवा इममण्णं विसेसियतरं असंखिज्जाई सेढीवग्गमूलाई, किं भणियं होति !, एकाए सेढीए जो पदेसरासी तस्स पढम वग्गमूलं बितियं ततियं जाव असंखिज्जाई वग्गमूलाई जो पदेसरासी भवति तप्पमाणा विक्खंभसई बेईदियाणं, निदरिसण-पट्टि सहस्साई पंच य सयाई छत्तीसाई पदेसाणं, तीसे पदमवग्गमूलं बे सता छप्पणा, वितियं सोलस्स, ततियं चत्तारि, चउत्थं दोण्णि, एवमेताई बग्गमूलाई संकलियाई ॥७॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री. औदारिकादिशरीरस्वरूपम् ॥ दो सता भटुसत्तरा भवंति, एवढ्या पदेसरासी सेढीणं विक्खभसई, पते च सद्भावतो असंखिज्जया मूलरासी पत्तेयं२ घेत्तब्वा, इदाणी इमा मग्गणा-किंपमाणाहिं पुण ओगाहणाहिं पूरइजमाणा बेइंदिया पयरं पूरिजति? तत्तो माह सुत्तं. बेइंदियाणं भोरालिय सरीरेहिं बहेल्लपाहिं पतरं अवहीरति असंखिजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं कालतो,' तं पुण पतरं अंगुलपयरासंखेजइभाग- प्रज्ञापनोपाङ्गम् 1मित्ताहिं सव्वं पूरिज्जति, तं पुण केवइपणं कालेणं पूरइज्जति धारेजति, (साहिजति) वा?, भणति-असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणि ओसप्पिणीहिं, किं पमाणेण पुण खेत्तकालावहीरण ?, भण्णति, 'अंगुलपयरस्स आवलियाए असंखिज्जहभागपलिभागेणं, जो सो १२ शरीर०/ अंगुलपयरस्स असंखिज्जइभागो एवइपहिं पलिभागेहिं अवहीरति, पस खेत्तावहारो, आह-असंखिज्जहभागगहणेण येव सिद्ध किं पलिभागगहणेणं ?, भण्णति एकेक बेइंदिय पलिइ भागो सो परिभागमेत्तेणं कालं भणियं अवगाहोत्ति, कालपलिभागो आवलियाप असंखिज्जइभागो, एएण आवलियाए असंखिज्जइभागमेत्तेणं कालपलिभागेणं एकेके खित्तपलिभागे साहिज्जमाणे सवं लोगपयरं साहिज्जति खेत्तओ, कालतो असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि, एवं बेइंदियओरालियाणं उभयमप्यभिहितं संखप्पमाणं ओगाहणपमाणं च, पवं तेइंदियचउरिदियपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणवि भाणियब्वाई, पंचिदियतिरियबद्धेल्लया असंखिज्जा असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणिओस्सप्पिणीहिं कालओ, तहेव, खित्तओ असंखिज्जाओ सेढीओ, पयरस्स असंखिज्जइभागो विक्खंभस्ती, णवरं अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखिज्जतिभागो सेसं जहा असुरकुमाराणं मणुयाणं ओरालिया बद्धेल्लया सिय संखिज्जा सिय असंखिज्जा, जहण्णपदे संखेज्जइभागो सेसं जहा असुरकुमाराणं, जहण्णपदं नाम जत्थ सव्वत्थोवा मणुस्सा भवंति, आह-किं एवं संमुच्छिमाणं गहणं अह तब्बिरहियाणं !, आयरिय आह-गम्भवतिया निय(च)कालमेव संखिज्जा परिमितक्षेत्रवर्तित्वात् महाकायत्वात् प्रत्येकशरीरत्वाच, तस्मात् सेतराणां ग्रहणं उकोसपदे, जहण्णपदे गम्भवतियाण चेव केवलाणं गहणं, किं कारणं?, जेण संमुच्छिमाणं चउवीसं मुहुत्ता अंतरं अंतोमुहुत्तं च ठिती, जहण्णपदे संखिज्जा, संखित्तत्तणएण ण णज्जति, कतरंमि संखिज्जपदे होज्जा?, तेण विसेस करेति, जहा-संखिज्जामो कोडीओ, अहवा इदमणं विसेसियतरं परिसंखाणं वाण * ॥८॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रज्ञापनो पाङ्गम् १२ शरीर० णिसं पडुन खुश्चति, कह?, पगूणत्तीस ठाणाई, तेसिं सामितिकीए सन्नाए निसं करोमि-जहा तिजमलपदस्स उवरिंI बउजमलपदस्स हिट्ठा, किं भणितं होति !, अटुण्डं अट्टण्हं ठाणाणं जमलपदंति सण्णा सामयिगी, तिणि जमलपदाई समुदिया। तिजमलपदं, अहवा ततियं जमलपदं तिजमलपदं, एयरस तिजमलपदस्स उवरिमेसु ठाणेसु बट्टति, जं भणियं-चउवीसहं ठाणाणं || औदारिउपरि घट्टति, चत्तारि जमलपदा चउजमलपदं, अहवा चउत्थं जमलपदं चउजमलपदं, किं च तं?, बत्तीसं ठाणाई चउजमलपदं कादिशरीरएयस्स चउजमलपदस्स हेवा वहति मणुस्सा, [अम्नेहिंतिहिं ठाणेहिंतो पावंति,] जइ पुण बत्तीसं ठाणाई पूरंताई तो चउजमलपदस्स | खरूपम् ॥ उवरि भण्णति, जम्हा बत्तीसं ण पावति तम्हा हेट्ठा भण्णंति, [जदि] अहवा दोन्निर वग्गा जमलपद भणति, छ बग्गा | समुदिता तिजमलपदं, अहवा सत्तमठाणं चउत्थं जमलपदं चउजमलपदं, जेणं च छहं वग्गाणं उचरिं बटुंति सत्तमठाणस्स च हेट्टा | तेणं तिजमलपदस्स उवरिं चउजमलपदस्स हेटुत्ति भण्णति, संखेजाओ कोडीमो ठाणबिसेसेण नियामियाभो, इदाणी विसेसि| यतरं फुडं संखाणमेव निदरिसति जहा-अहव ण छ? वग्गो पंचमवग्गपडुप्पणो, छ वग्गा उवठाषिजति तजहा-एकस्स घग्गो पको, एस पुण बहीरहिमोत्तिकाउं वग्गो चेवन भवति, तेण विण्ह बग्गो चत्तारि एस पढमो वग्गो, एयस्स वग्गो सोलस, पस | बितियवग्गो, पयस्स घग्गो बेसता छप्पण्णा, एस ततिओ वग्गो, एयस्स बग्गो पणट्टि सहस्साई पंचसयाई छत्तीसाई पस चउत्थो | वग्गो, पयस्स इमो घग्गो, तंजहा-चत्तारि कोडिसताओ अउणतीसं च कोडीओ अउणावण्णं च सयसहस्सा सत्तद्धिं च | सहस्साई दो य सयाई छण्णउयाई, रमा ठवणा-४२९४९६७२९६, एस पंचमो बग्गो, एयस्स गाहामो-चत्तारि य कोडिसया | भउणातीसं च होंति कोडीओ । अउणाषणं लक्खा सत्तढेि चेव य सहस्सा॥१॥दोय सया छन्नउया पंचमवग्गो समासओ होह । | | पयस्स को वग्गो छ8ो जो होइ तं वोच्छं ॥२॥ "एयस्स पंचमवग्गस्स इमो वग्गो होइ, तंजहा-कं कोडाकोडी सतसहस्सा चउरासितिं च कोडाकोडिसहस्सा चत्तारि य सत्तट्ठा कोडाकोडिसया चोयालीसं च कोडिसयसहस्सा सत्त य कोडिसहस्सा कातिनि य सत्तरा कोडिसया पंचाणउइं च सतसहस्सा पकावणं च सहस्सा छच्च सयासोलसुत्तरा, रमा उवणा-१८४४६७४४० ॥९॥ * Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औदारिकादिशरीरखरूपम् ॥ श्रीप्रज्ञापनों पाङ्गम् १२ शरीर० ७३७०९५५१६१६, एस छट्टो वग्गो, पयस्स गाहाओ, तंजहा-“लक्खं कोडाकोडी चउरासीई भवे सहस्साई । चत्तारि सत्तट्ठा हॉति सया कोडिकोडीणं ॥१॥ चोयालीसलक्खाई कोडीणं सत्त चेव य सहस्साई। तिष्णि सया सत्तयरी कोडीणं होंति नायब्वा ॥२॥ पंचाणउती लक्खा एकावणं भवे सहस्साई। छसोलसुत्तरसया य पत्थ छट्ठो हवति वग्गो॥३॥ पत्थ य पंचमछटेहिं पओयणं, एस छट्ठो बग्गो पंचमेण वग्गेण पडुप्पाइजति, पडुप्पाइए समाणे जं होति पवइया जहण्णपतिया मणुस्सा हवंति, ते य इमे पवइया-७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६, एवमेताई अउणतीसं ठाणाई, एवइया जहण्णपइया मणुस्सा, छ| | तिण्णि२ सुपणं पंचेव य नव य तिणि चत्तारि। पंचेच तिणि णव पंच सत्त तिण्णेव तिण्णेव ॥१॥ चउ छ हो चउ पको पंच दु छक्केवगो य अटेव। दो दो नव सत्तेव य ठाणाई उवरि हुंताई ॥२॥ अहवा इमो पढमक्खरसंगहो ति 'छत्ति त्ति सुपण तिच पति ण प स ति ति च छ दु च प प दुच्छ ए अबे बिण स पढमक्खरसन्नि(संग) या ठाणा ॥१॥' पते पुण निरमिलप्पा कोडिहिं वा कोडाकोडीहिं चत्तिकाउं तेण पुव्व पुवंगेहिं परिसंखाणं कीरति, चउरासीइ सयसहस्साइ पुवंग भण्णति, पयं पवतिएण चेव गुणियं पुर्व भण्णति, तं च इम-सत्तर कोडिसतसहस्साई छप्पण्णं च कोडिसहस्साई, पतेण भागो हीरति, ततो इदमागतं फलं भवति-पकारस पुव्वकोडाकोडीओ बावीसं च पुश्वकोडिसतसहस्साइ चउरासीदं च पुवकोडीसहस्साइ अट्ठ दसुत्तरा पुवकोडिसता एक्कासीतिं च पुव्वसयसहस्साई पंचाणउतिं च पुव्वसहस्साईत्ति, तिणि य छप्पणो पुब्बसया,पतं भागलन्धं भवति, तओ पुब्वेहिं भागं ण पयच्छति, पुबंगेहिं भागो हीरति, ततो इदमागतफलं भवति-पकवीसं पुव्यंगसतसहस्साई सत्तरि पुवंगसहस्साई छच्च पगूणसट्ठाई पुव्बंगसयाई, ततो इदण्णं वेगलं भवति-तेसीतिमणुस्ससतसहस्साई पण्णासं च मणुयसहस्साई तिषिण य छत्तीसा मणुस्ससता, एसा जहण्णपदियाणं मणुस्साणं सखा, एतेसिं गाहाओ-मणुयाण जहण्णपदे एक्कारस पुब्बकोडिकोडिओ। बावीस कोडिलक्खा कोडिसहस्सा य चुलसीई ॥ १॥ अट्टेव य कोडिसया पुष्वाण दसुत्तरा तो होंति । पक्कासीति लक्खा पंचाणउती-सहस्सा य ॥ २॥ छप्पण्णा तिण्णि सया पुब्वाणं पुव्ववणिया अण्णे । एत्तो पुब्बंगाई इमाई अहियाई ॥१०॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औदारिकादिशरीरस्वरूपम् ॥ प्रज्ञापनो पाङ्गम् १२ शरीर अण्णातिं ॥ ३॥ लक्खाइ एकवीसं पुवंगाण सत्तरिं सहस्सा य । छच्चेवेगूणट्ठा पुबंगाणं सता होति ॥ ४॥ तेसीति सतसहस्सा पण्णासं खलु भवे सहस्सा य । तिणि सया छत्तीसा पवतिया वेगला मणुया ॥५॥ एयं चेव य संखं पुण अण्णेण पगारेण |* भण्णति विसेसोवलंभनिमित्तं, तंजहा-'अहव ण छण्णउतिछेदणगदायी रासी' छनउति छेदं जो देति रासी सो छनउतिछेदयणगदायी, किं भणितं होति ?, जो रासी दोवारा छेदेण छिज्जमाणो २ छनउतिबारे छेदं देति, सकलरूपपज्जवसितो, तत्तिता वा|* | जहण्णपतिया मणुस्सा, ततिया ओरालिया वा बद्धेल्लया, को षुण रासी छणउतिछेदणगदाई भवेजा?, भण्णति-एस चेव छटो * वग्गो पंचमवग्गपडुप्पयो जत्तिओ भणितो एस छणउतिछेदणए देति, को पच्चतो?, भण्णति-पढमो वग्गो छिजमाणो दो छेदणए देति, वितिओ चत्तारि, ततिओ अटु, चउत्थो सोलस, पंचमो छत्तीसं, छटो चउसट्ठी, एतेसिं पंचमटाणं वग्गाणं छेदणता मिलिया छन्नउति भवंति, कहं पुण?. जम्हा जो जो वग्गो जेण वग्गेण गुणिज्जइ तेसिं दोण्हवि तत्थ छेयणा लम्भंति, जहा-पढमवग्गो बितिएण गुणिओ छेदणे छ देति, बितिएण ततिओ गुणिओ बारस, ततिएण चउत्थो गुणिओ चउवीसं, चउत्थेण पंचमो:गुणिओ अडयालीसं छेदणए दॆति, एवं पंचमेण वि छटो गुणिओ छन्नउति छेदणए देति, पस पञ्चओ, अहवा रूपं ठवेऊण तं छन्नउतिवारे दुगुणा दुगुणं कीरति, कतं समाणं जति पुव्वभणियपरिमाणं पावति तो छिजमाणंपि ते चेव छेदणए दाहितित्ति पञ्चतो, एवं जहण्णपदममिहितं, उक्कोसपदमियाणिं, तत्थ इमं सुत्तं-'उक्कोसपदमसंखिज्जा, असंखिजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं कालओ, खेत्तओ रूवपक्खित्तेहिं मणुस्सेहिं सेढी अवहीरति, किं भणियं होति?, उक्कोसे पदे जे मणुस्सा भवंति तेसु पक्कम्मि मणुस्सरूवे पक्खित्ते समाणे तेहिं मणुस्सेहिं लोगसेढी अवहीरति, तीसे य सेढीए कालखेत्तेहिं अवहारो मग्गिज्जति, कालतो ताव असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं, खित्तओ अंगुलपढमवग्गमूलं ततियवग्गमूलपडुप्पण्णं, किं भणियं होति !, तीसे सेढीए अंगुलायते खंडे जो पदेसरासी तस्स जं पढमं वग्गमूलं तं ततियवग्गमूलपदेसरासिणा पडुप्पातिज्जति, पडुप्पादिए जो पदेसरासी भवति एवइएहिं खंडेहिं 4 सेढी अवहीरमाणा २ जाव निट्टाति ताव मणुस्सावि अबहीरमाणा णिट्टाति, आह-कहमेका सेढी पदहमेत्तेहिं खंडेहिं अवहीर ॥११|| Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनो पाङ्गम् १२ शरीर० माणा २ असंखेजाहिं उस्सप्पिणिभोसप्पिणीहिं अवहीरति ?, आयरिया आह-खित्तादि सुहमत्तणतो, सुत्ते य भणियं 'मुहुमो य|4| होति कालो तत्तो सुहुमयर हवति खित्तं । अंगुलसेढीमेत्ते उस्सप्पिणीओ असंखिज्जा ॥१॥ बेउब्बिया बदल्लया समयेर अवहीर-1 माणा २ संखिज्जेणे कालेणं भवहीरति, पठितसिद्धं, आहारगाई जहा ओहियाई, वाणमंतरवेउन्चिया असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणि-| औदारिओसप्पिणीहिं तहेव, खेत्तओ असंखिज्जाओ सेढीओ, सेढीणं विक्खंभसूती, वक्तब्येति वाक्यशेषः, कंठ्या नोक्ता, किं कारणं?,* कादिशरीरपंचिंदियतिरियोरालियसिद्धत्तणओ, जम्हा महादंडए पंचिंदियतिरियणपुंसपहिंतो असंखिज्जगुणहीणा वाणमंतरा पढिज्जंति, एवं खरूपम् ॥ विक्खंभसूतीवि तेसिं तेहिंतो असंखिज्जगुणहीणा चेव भाणियब्वा, इदाणी पलिभागो संखेज्जजोयणसतवग्गपलिभागो पयरस्स, जं संखिज्जजोयणसतवग्गमित्ते पलिभागे एकेके घाणमंतरे उविज्जते पतर पूरिज्जति, तम्मत्तपलिभागो ण चेव अवहीरंति, 'जोह-14 सियाण' इत्यादि, जोइसियाणं बेउम्विया बद्धेल्लया असंखिजा, असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणिभोसप्पिणीहि अवहीरंति कालतो, खित्तओ असंखिज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखिज्जाभागोत्ति तहेव विसेसो, तेसिं णं सेढीणं विक्खंभसई, वक्तव्येति शेष :, कण्ठया |" [न किंचातः] भूयते, जम्हा वाणमंतरेहिंतो जोइसिया संखिज्जगुणा पढिज्जंति, तम्हा विक्खभसूई वि तेसिं तेहितो संखिज्ज-|* गुणा चेव भवति, णवर पलिभागविसेसो, जहा विछप्पण्णंगुल सयवग्गपलिभागो पयरस्स, पयरए पलिभागे ठबिज्जमाणे एकेको जोइसिओ सब्ब पयरं पूरिज्जति, तहेव सोहिज्जर वि, जोइसियाणं वाणमंतरेहितो संखेज्जगुणहीणो पलिभागो संखिज्जगुणाभहिया सूई। 'बेमाणिय' इत्यादि, वेमाणियाणं वेउब्बिया बद्धल्लया असंखेज्जा कालो तहेव, खेतो असंखिज्जाओ सेढीओ ताओ|* णं सेढीओ पयरस्स असंखिज्जहभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलबितियवग्गमूलं ततियवग्गमूलपडप्पणं, अहया|M भंगुलततियवग्गमूलघणप्पमाणमेत्ताओ सेढीओ तहेव, अंगुलविक्खंभखेत्तवत्तिणो सेढीरासिस्स पढम बग्गमूलं वितिय ततियं || चउत्थं जाव असंखिज्जाइत्ति, तेसिपि अं वितियं बग्गमूलं ततियवग्गमूलसेढिप्पदेसरासिणा गुणिज्जति, गुणिए जं होति ततियाओ* ॥१२॥ सेढीओ विक्खंभई भवति, ततियस्स वा बग्गमूलस्स जो घणो पवइयाओ सेढीओ विक्वंभसई, णिदरिसणं तहेव, बेछप्पण्ण Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री प्रज्ञापनो पांगम् १२ शरीर० * १३ परि० शरीरपदं सतियमंगुलिं तस्स पदमवग्गमूलं सोलस, बितियं चत्तारि, ततियं दोण्णि, बितियं ततिरण गुणियं अट्ठ भवंति, ततियं बितिरण गुणियं ते चेव अट्ठ, ततियस्स वि जो घणो सोबि ते चेव भट्ट, एवमेते सम्भावतो असंखिजा रासी दट्ठव्वा, एवमेयं वैमाणियप्पमाणं मातो असंखिजगुणहीणं भवति, किं कारणं?, जेण महादंडर बेमाणिया नेरहपहिंतो असंखिज्जगुणहीणा चेव पढिजंति, * परिणामपदं पतेर्हितो नेरइया असंखिज्जगुणत्ति, शेषं निपुणधिया परस्परव्यक्तिभूता अत्र वेदं (युतिमता सूत्रादेवेद) भावनीयमिति । च || प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायां द्वादशशरीरपदव्याख्या समाप्तेति ॥ साम्प्रतं त्रयोदशमारभ्यते, तस्य चायमभिसंबन्धः - इहानन्तरपदे औदारिकादिशरीरविभाग उक्तः, तानि पुनः शरीराणि तथापरिणामे सति भवन्तीत्यतः परिणामस्वरूपप्रतिपादनायेदमारभ्यते इह चेदमादिसूत्रं कतिविहे णं भते !" “परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा * * व्यवस्थानं । न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥ १ ॥ द्रव्यार्थस्य । सत्पर्यायेण नाशः प्रादुर्भावोऽसतो च पर्ययतः । द्रव्याणां परिणामः प्रोकः खलु पर्ययनयस्य ॥ २ ॥” दुविहे पण्णत्ते जीवपरिणामे य अजीवपरिणामे य, तत्र यो जीवपरिणामः स प्रायोगिकः, यः पुन* रजीवपरिणामो वर्णादिः स वैधसिकः, तत्र जीवपरिणामो दशविधो गतिपरिणामादिः, गतिरेव परिणामो तिपरिणामः, इंद्रियाण्यैव * * परिणामः इन्द्रियपरिणामः कषाय एव परिणामः कषायपरिणामः, लेश्या एव परिणामो लेश्यापरिणामः, योग एव परिणामः योगपरिणामः, उपयोग एव परिणामः उपयोगपरिणामः, ज्ञानमेव परिणामो शानपरिणामः, दर्शनमेव परिणामः दर्शन गरिणामः, चारित्रमेव * परिणामः चारित्रपरिणामः, वेद एव परिणामो बेदपरिणामः, गमनं गतिः “अनेकार्था धातव" इति न देशान्तरप्राप्तिलक्षणा, गति- * * नामकर्म्मोदयान्नारकादिर्या संज्ञा सा गतिर्निरुच्यते, तस्याश्च कारणं गतिनामोदयः, गतिपरिणामश्च आभवक्षयात्, इदानीं क्रमकारणमुच्यते, गतिपरिणामे सति इंद्रियपरिणामः, इन्द्रियपरिणामे च इष्टविषयसम्बन्धाद् रागद्वेषपरिणतिरिति कषायाः, कपायपरि* पतिर्देशोनां पूर्वकोटिं भवति यस्मादुक्तं लेश्यानां स्थितिनिरूपणाधिकारे लेश्याभ्ययने शुक्ललेश्याया जघन्योत्कृष्टा स्थिति:- " मुदुचदं *** ॥१३॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री * प्रज्ञापनो पांगम १३ परिणाम० ** तुजण्णा, उक्कोस हवंति पुव्वकोडीओ। णवहिं वरिसेहिं ऊणा णायव्वा सुक्कलेसाए ॥ १ ॥” योगपरिणामे च सति लेश्यापरिणामः यस्मान्निरुद्धयोगस्य परिणामोऽपैति यतः समुछिन्नक्रियं ध्यानमलेश्यस्य भवति, संसारिणां च योगपरिणतावुपयोगपरिणतिर्भवति अतो योगपरिणामानंतरमुपयोगपरिणामः, सति चोपयोगपरिणामे ज्ञानपरिणामः ज्ञानाज्ञानपरिणामे च सति सम्यग्रमिथ्यापरिणतिः, सम्यग्दर्शनपरिणामे च चारित्रपरिणामः, ख्यादिवेदपरिणामे चारित्रपरिणामः नतु चारित्रपरिणामे वेदवृत्तिः यस्मादवेदकस्यापि यथाख्यातचारित्रपरिणतिर्दृष्टा, एवमेते गत्यादिपरिणामविशेषा हेतुहेतुमद्भावेनोपदिष्टाः सामान्यतः, इदानीमुत्तरो ग्रन्थः संख्याभेदेन * परिणामभेदेन चानुसरणीयः, 'अजीवपरिणामे दसविहे बंधणपरिणामादितः, बंधनपरिणामस्य इदं लक्षणं "समणिद्धयाए बन्धोण * होति समक्खयाए faण होति । वेमाइयणिद्धलुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं" ॥ १ ॥ एतदुक्तं भवति समगुणस्निग्धस्य समगुणस्निधेन परमाण्वादिना बंधो न भवति, तथा समगुणरूक्षस्यापि यदा पुनर्विषमा मात्रा तदा भवति बंध, विषममात्रापि निरूपणार्थ* मुच्यते - "णिद्धस्स णिद्वेण दुयाहिपणं लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिरणं । णिद्धस्स लुक्खेण उवेति बंधो, जहण्णवज्जो विसमो समो वा ॥ १ ॥ यदा स्निग्धगुणस्य परमाण्वादेः स्निग्धगुणेनैव बंधो भवति तदा द्वयधिकादिगुणेनैव, रूक्षगुणस्यापि रूक्षगुणेन द्व्यधिकादिगुणेन, यदा पुनः स्निग्धरूक्षयोर्वन्धस्तदा कथम् ? उच्यते- जघन्यगुणं वर्जयित्वा, जघन्यगुणमिति एकगुणस्निग्धं एकगुणरूक्षं च, शेषस्य द्विगुणस्नि* ग्धस्य द्विगुणरूक्षादिना सर्वत्र बन्धो भवति, 'फुसमाणगतिपरिणामो' येन प्रयत्नविशेषात् क्षेत्रप्रदेशान् स्पृशन् गच्छतीति, 'अफुलमाण- * गतिपरिणामो' तु येनास्पृशन्नेव, न च सम्भाव्यते खल्वयं परिणामः गतिमद्द्रव्याणां प्रयत्न मेदोपलब्धेः तथाहि अभ्रंक हर्म्यतलगतविमुक्ामप्रपातकाल उपलभ्यते, मनवरगतिप्रवृत्तत्वाश्च देशान्तरप्राप्तिकालभेदश्चेत्यतः सम्भाव्यते (न) अधिकृतपरिणाम इति, * अथवा 'दीहगतिपरिणामे य हस्सगतिपरिणामे य' तत्थ दीहगतिपरिणामे इति विप्रकृष्टदेशान्तरप्राप्तिपरिणामः, ह्रस्वगतिपरिणाम:, * इति सन्निकृष्टदेशान्तरप्राप्तिपरिणामः, 'सुब्भिसहेति' शुभः शब्दः 'दुम्भिसदेत्ति' दुर्भिशब्द इति शेषं गतार्थम् ॥ ॥ प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायां त्रयोदशपरिणामपव्याख्या समाप्तेति ॥ * परिणाम पदम् 113811 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री | प्रज्ञापनो पांगम् कषायपदम् कषाय अधुना चतुर्दश पदमारभ्यते, भस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे गत्यादिलक्षणजीवपरिणामः सामान्येनोक्तः, तत्र सामान्यस्य विशेषविषयत्वाद्विशेषतःस एव कचित् कश्चित् प्रतिपाद्यते, तत्रैकेन्द्रियाणामपि क्रोधादिकषायभावात् प्रधानबन्धहेतुत्वात् "सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते" (तत्त्वा० अ०८ सू०२) इति वचनावादावेव विशेषतः कषायपरिणामप्रतिपादनार्थमिदमारभ्यते, इह चेदमादिसूत्र-'करणं भंते ! कसाया पण्णता ?' इत्यादि, कियन्तो भदन्त ! कषायाः प्रक्षप्ताः?, तत्र कषाया इति निरुक्तमुच्यते, "सुहदुक्खबहुसतीय कम्मकखेत्तं कसंति ते जम्हा । कलुसंति जंच जीवं तेण कसायत्ति वुच्चंति ॥ १ ॥ अहवाकम्म कसं भवो वा कसमायो सिं जतो कसायातो। कसमाययंति व जतो गमयंति कसं कसायत्ति ॥२॥ निर्वचनसूत्र क्षुण्णार्थ, नेरइयाणमित्यादि प्रश्नः निर्वचनं-चत्तारि कषाया पण्णत्ता' इत्येतत् प्रवाहापेक्षया भावनीयं तत्कर्मपुद्गलप्रदेशाऽनुभवतो नेति, | 'आतपइद्रित' इति, आत्मन्येव प्रतिष्ठितः, पतदुक्तं भवति यत् स्वयमाचरति तस्य देहिकं प्रत्यपायं दृष्ट्वा आत्मनः क्रुध्यतीत्यात्मप्रतिष्ठितः, परप्रतिष्ठितः यदा पर उदीरयति आक्रोशादिना तदा नैगमनयदर्शनेन परप्रतिष्ठित उच्यते, कथं ? यथा सम्यग्दर्शनपरीक्षायामधिकरणानुयोगद्वारे आत्मसन्निधाने जीवे सम्यग्दर्शनं परसन्निधानेजीवे सम्यग्दर्शनमित्यष्टास्वपि भंगेषु भवति एव| मिहापीति, उभयपतिढ़िए आत्मपरप्रतिष्ठितः, अनुभयप्रतिष्ठित इति (न) आक्रोशादिकारणवशाद् (सापेक्षाणि निरपेक्षाणि च') | कर्माणि फलविपाकेषु । सोपक्रमं च निरुपक्रमं च दृष्टं यथाऽऽयुष्कम् ॥ इति एवं तावदधिकरणमेदेन मेद उक्तः, अधुना | सम्बन्धित्वेन भेद उच्यते, 'खेत्तं पडुच' इत्यादि, तत्र नारकाणां नारकक्षेत्र प्रतीत्य तिरश्चां तिर्यक्षेत्रं मनुष्याणां मनुष्यक्षेत्रं देवानां | देवक्षेत्रमिति, 'वत्थं पञ्चत्ति' वस्तु सचेतनमचेतनं वा शरीरं प्रतीत्य दुष्टसंस्थित विरूपं वा, 'उपधिं पडुच' यद्यस्य उपकरण, इदानीं सम्यग्दर्शनादिगुणघातित्वेन, 'अर्णताणुबंधी'त्यादि अनन्तं संसारमनुबधुं शीलमस्येति अनन्तानुबंधी क्रोधः, तथा स्वल्पमपि प्रत्याख्यानमावृणोतीति अप्रत्याख्यानावरणः, [सर्व प्रत्याख्यानावरण:-सर्व प्रत्याख्यानमावृणोतीति प्रत्याख्यानावरणः, संज्वलयतीति | संज्वलन, उक्तं च तत्र "अनन्तान्यनुबध्नन्ति यतो जन्मानि भूतये। ततोऽनन्तानुबन्ध्याख्या क्रोधाचेषु निदर्शिता ॥१॥ नाल्पमप्यु ॥१५॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम श्री * त्सहेद्येषां प्रत्याख्यानमिहोद्यात् । अप्रत्याख्यानसंज्ञाऽतो, द्वितीयेषु निवेशिता ॥ २ ॥ सर्वसावद्यविरतिः, प्रत्याख्यानमुदाहृतम् । तदावरणसंज्ञाऽतस्तृतीयेषु निवेशिता ॥ ३ ॥ शब्दादीन् विषयान् प्राप्य, संज्वलन्ति यतो मुहुः । अतो संज्वलनीयाख्या, चतुर्थानामिहो प्रज्ञापनो- * च्यते ॥ ४ ॥ तेषामेव क्रोधादीनां निवृत्तिप्रतिमेद आख्यायते- 'आभोगनिव्वत्तिपत्ति' जानन् रुप्यति, अणाभोगनिव्वत्तिए' अजानन् ** पदम् पांगम् * रुष्यति उपशान्त अनुदयावस्थः, अनुपशान्त इति उदयप्राप्तः, इदानीं फलमेदेन कालत्रयवर्तिना मेद उच्यते- 'चउहिं ठाणेहिं कम्मं चिणिसु' इत्यादि, [ पापग्रहणात् घातिकर्म्मणां ग्रहणं, अथवा सर्वमेव हि कर्म्म पापमित्युच्यते,] तत्र चयनं नाम कषायपरिणतस्य १३ परिणाम० * कर्म्मपुद्गलोपादानमात्रं गृह्यते, उपचयो ग्रहणान्वितस्य अबाधाकालं मुक्त्वा उत्तरकालं ज्ञानावरणीयादिकर्म्मतया निषेकः यस्मादुक्तं * कर्म्मप्रकृतिसंग्रहणिकायां स्थितिबंधाधिकारे अबाधाकण्डके- "मोत्तूणं सगमबाहं पढमाइ ठितीए बहुतरं दवं । सेसे विसेसहीणं जाकसंति सव्वासिं ॥ १ ॥” णाणावरणिजादिकम्माणं अप्पणो जाव अबाहा तिवाससहस्साइया तं अबाहाकालं मोचूणं णाणावरणिज्जा* दिकम्मतया पढ़माए ठितीए बहुयं कम्मदलियं [ निसिंचति, बंधिस्संति बंधग्रहणात् तदेव ज्ञानावरणादिकर्म्मतया,] ताव विसेस हीणं निसिंचति, तथा 'बंधिसु बंधंति बंधिस्संति' बन्धग्रहणात् तदेव ज्ञानावरणादिकर्म्मतया निषिक्तं पुनरपि कषायपरिणतिविशेपानिकाच्यते, तद् बन्धशब्देन कालत्रयेऽपि निकाचितावस्थं दर्श्यते, तथा 'उदीरिंसु उदीरंति उदीरिस्संति' उदीरणा हि अनुदयप्राप्तं * चिरेण आगामिना कालेन यद् वेदयितव्यं कर्म्मदलिकं तस्य विशिष्टनाध्यवसायविशेषेण करणेनाकृष्य उदये प्रक्षेपणमुदीरणा, सा च कषायपरिणतिविशेषादेव भवति, तथा वेदना कालत्रयेऽपि, वेदना तु कर्म्मण उपभोगोऽनुभवः तत्र वेद्नं स्थितिक्षयादुदयप्राप्तस्य कर्म्मण उदीरणाकरणेन वा उदयभावमुपनीतस्य भवति, तथा 'णिजरिंसु' ति निर्जरा नाम कर्म्मणोऽकर्म्मत्वभवनं, ततश्च आत्मप्र* देशेन सह संश्लिष्टस्य कर्मणः शातनं तथा चोतं "पुव्वकयकम्मसाडणं तु णिज्जरा” इति भ्रुवोदयत्वात् क्रोधादिवेदनीयकर्म्मणां, तेनोच्यते णिज्जरिंसु ३, कोहकसारणं माणकसाएणं मायाकसारणं लोभकसापणं इयं वा देशनिर्जरा पुनः चतुर्विंशतिदण्डकेऽपि भवति ॥ ॥ प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायां चतुर्दशकषायपदव्याख्या समाप्तेति ॥ ॥१६॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * उद्देशः १ साम्प्रतं पंचदशमारभ्यते, अस्य चायममिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे प्रधानबन्धहेतुत्वाद्विशेषतः कषायपरिणाम उक्तः, तदनन्तरमिन्द्रियवतामेव लेश्यादिसद्भावाद् विशेषतः इन्द्रियपरिणामनिरूपणायेदमभिधीयते, तत्रेन्द्रियपदस्य प्रथमोदेशके इन्द्रियाणां संस्था- * इन्द्रियपदे नाद्यर्थसंग्रहार्थमिदं गाथाद्वयं - 'संठाणं बाहल्लं पोहतं कतिपदेस अवगाढे । अप्पाबहु पुट्ट पविट्ठ विसय अणगार आहारे ॥ १ ॥ अद्दाय असीय मणी दुद्ध पाणा तेल्ल फाणिय वसा य । कंबल थूणा थिग्गले दीवोदहि लोगऽलोगे य ॥२॥ ' तत्र संस्थानाद्यर्धप्रश्नव्याकरणात्मो ग्रन्थप्रबन्धः - 'कति णं भंते! इंदिया' इत्यादि, तानि पुनरिन्द्रियाणि सत्यपीन्द्रियसामान्ये द्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियवि- * *शेषतोऽधिगन्तव्यानि, यस्मादुक्तं संग्रहकारेण - "निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियं लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रिय” मिति (तत्त्वा. अ. २ सू. १७-१८) तत्र निर्वृत्तिर्नाम मनुष्यगतौ मनुष्यादिजातौ तिर्यगूगतौ च गवादिजाती २, अंगोपाङ्गनिर्वर्त्तितानीन्द्रियद्वाराणि कर्म्मविशेषसंस्कृताः * शरीरप्रदेशाः, उपकरणं नाम स्पर्शादिज्ञानावरणीयकम्र्म्मक्षयोपशमानयनसाधकतमः करणविशेषः यस्मादुपक्रियते तेनात्मनः क्षयोप* शमतया स्पर्शादीनामत उपकरणमित्युच्यते, लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियं लब्धिरुपयोगमेव भावेन्द्रियं तत्र लब्धिर्नाम गतिजात्यादिनामकम्र्मोदयजनित उदयो लब्धिरुच्यते, यस्मादेकेन्द्रियजातिनामकम्र्म्मोदयादेकेन्द्रियादिर्भवति, तदावरणीयकर्म्मक्षयोपजनिता च, इह तु क्षयोपशमो लब्धिरुच्यते, सा च पंचविधा, तद्यथा स्पर्शनेन्द्रियलब्धिर्जिकेन्द्रियलब्धिः प्राणेन्द्रियलब्धिः चक्षुरिन्द्रियलब्धिः * श्रोत्रेन्द्रियलब्धिरिति, उपयोगस्तु स्पर्शनेन्द्रियादिष्वर्थेषु भवति, उपयोगः परिधानमायोगस्तद्भावपरिणाम इत्यर्थः । एषां च सत्यां निर्वृत्तावुपकरणोपयोगौ भवतः, सत्या च लब्धौ निर्वृत्युपकरणोपयोगा भवंति एवं विभागे प्रदर्शिते उपकरणेन्द्रियाश्रयाणि प्रश्न* व्याकरणानि, तद्यथा 'सोइदिपणं भंते! किं संठिए पण्णत्ते ?' इत्यादि, संस्थानमाकारो, बाहल्यं बहलता रुन्दतेत्यर्थः, पुडुत्तं पृथुता विस्तीर्णतेत्यर्थः, अत्राह-यदि अंगुलस्यासंख्येयभागो बाहल्यं स्पर्शनेन्द्रियस्य ततः कथमायुधाद्यभिघाते अन्तर्वेदनानुभव इति ? उच्यते, आत्मा शरीरेणैव वेदयति दुःखात्मिकां वेदनां नापीन्द्रियेण ज्वरशूलादिवेदनावत्, शीतादिस्पर्शनं तु सर्ववृत्तित्वच एव भवति, तत्र पानकादिपाने अंतः शीतस्पर्शग्रहणं कथं ? उच्यते, सर्वप्रदेशपर्यन्तवर्तित्वात् त्वचः अभ्यन्तरतोऽपि शुषिरस्योपरित्वग श्रीप्रज्ञापनो - * पांगम् १५न्द्रिय * ॥१७॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * इन्द्रियपदे उद्देशः१ *** श्री- Mस्त्येव, शेषं गताथै, 'जाव पविट्ठाई सुणेति' तत्र प्रवेशो मुखे नासिकायां कर्णबिले वा भवन्ति, इन्द्रियविषयाधिकारे अयमपि प्रश्नः प्रज्ञापनो- अणगारस्स णं भंते इत्यादि, भावित आत्मा शानदर्शनचारित्रैस्तपोविशेषेश्च येन स भावितात्मा तस्य चरमाः शैलेशीकालान्त्य समये निर्जरापुद्गलाः अपगतकर्मभावास्तेषां, 'अणतं' अन्यत्वं द्वयोरनगारयोः सम्बन्धिनोः ये पुद्गलाः, नानात्वं वर्णादिकृतं एकस्यैव १५इन्दिय० 'ओमत्तं' ऊनता, तुच्छत्तं निस्सारता, गुरुलघुत्वे प्रतीते, कापुनरस्य प्रश्नस्यावकाशः? उच्यते, यस्मादुक्तं स्पृष्टान्येव शब्दादिद्र व्याणि शृणोतीत्यादि, सर्वलोकस्पर्शित्वाश्चैषां निर्जरापुद्गलानां स्पर्शनप्रवेशने स्त इत्यतः प्रश्नः, छद्मस्थग्रहणं केवलिव्युदासार्थ स्यात् , केवली सर्वैरेवात्मशरीरप्रदेशैर्जानाति पश्यति च, उक्तं च "सव्वतो जाणति केवली सब्वतो पासति" तथा चोक्तं “समस्तसर्वाक्षगुणं निरक्ष" मिति, छमस्थः पुनरङ्गोपाङ्गनामकर्मविशेषसंस्कृतैरेवेन्द्रियद्वारैर्जानाति पश्यति च, अतः छद्मस्थग्रहणं, तथा निर्वचनं "देवेऽवि य णं अत्थेगइए जाणति पासति" इति, यस्माद्देवानां मनुष्येभ्यः पटुतराणीन्द्रियाणि भवन्ति, अतो देवोऽपि न (सों) जानाति न पश्यति च, किमुत मनुष्य इति, सर्वलोकस्पर्शित्वाच निर्जरापुद्गलानामपि प्रश्नः, 'रइयाणं भंते!' इत्यादि गतार्थ, मनुष्यप्रश्ने 'सन्निभूता असन्निभूता' इति, इह संझिग्रहणादवधिज्ञानी गृह्यते यस्य ते कार्मणशरीरपुद्गला विषयः, 'एवामेवासण्णिया मायिमिच्छादिट्ठी उववण्णा' इति जाव उपरिमगेवेज्जा, यद्यप्यारातीयेषु कल्पेषु प्रैवेयकेषु च सम्यग्दृष्टयः सन्ति, तथापि तेषां कार्मणशरीरपुद्गला न विषयः, अमायिसम्मदिट्ठी उबवण्णया अणुत्तराते कहं जाणंति फासंति वा? उच्यते, उक्तमवधिज्ञानविषयाधिकारे “संखिज कम्मदव्वे लोगे थोवूणगं पलिय" मिति, कार्मणशरीरद्रव्याणि पश्यन् क्षेत्रतो लोकस्य संख्येयान् भागान् पश्यति, अनुत्तराश्च सम्पूर्णलोकनाली पश्यन्तीत्युक्तं, अत्यंगतिया वेमाणिया जाणंति पासंति आहारेति, सर्वत्र चाहारयन्तीति ओजाहारो गृह्यते, यस्मादुक्तं "सरीरेणोजाहारो तयायफासेण लोमआहारो। पक्खेवाहारो पुण कावलीओ होति नायव्वो ॥१॥” इति, इन्द्रियविषयाधिकार-एवायं प्रश्नः 'अहायं पेहमाण' इत्यादि, 'अहायमिति' आत्मशब्देन शरीरमभिधीयते, पलिभाग: | प्रतिबिम्बप्रायत्वात् पुद्गलानां भासुरद्रव्ये आदर्श प्रतिविम्ब संक्रान्तं पश्यति, यस्मादुक्कं "सामा उदिया छाया अभासुरगता णिसिं ***空* 4*** ॥१८॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियपदे उद्देशः १-२ प्रज्ञापनो पांगम् | १५इन्द्रिय तु कालाभा। सा चेव भासुरगता सदेहवण्णा मुणेयन्वा ॥१॥जे आरिसस्स सन्तो देहापयवा भवंति संकंता । तेसिं तत्थुवलद्धी पगासजोगा ण इतरेसिं ॥२॥" यथा सर्वमेव हि ऐन्द्रियकं स्थूलद्रव्यं चयापचयधर्माकं रश्मिवच भवति, यतश्चादर्शादिषु छाया स्थूलस्य दृश्यते, अवगाढरश्मिनः (ततः) स्थूलद्रव्यस्य कस्यचिद्दर्शनं भवति, न चान्तरितं दृश्यति किंचित् अतिदूरस्थ वा, अतः 'पलिभागं' प्रतिबिम्बं 'पेहति' पश्यतीत्यर्थः, अणगारस्स भावियप्पणो चरिमा निजरापोग्गला छउमत्थो न जाणति ण पासतीति च योऽयं प्रतिषेधो इन्द्रियविषयस्य असावुद्देशकपरिसमाप्तेरनुवर्तयितव्यः, सर्वत्र चैतान् अर्थान् छन्मस्थमनुष्यो जानाति पश्यतीति वक्तव्यं, प्रतिषेद्धव्यं च अर्थात् , कथं ? यस्मात् सर्वेऽमी कम्बलशाटकादिप्रश्ना अतीन्द्रियार्थविषयाः, यथैव निर्जरापुद्गलाः छमस्थस्येन्द्रियविषयो न भवतीति प्रतिषिद्धं, संशीभूतस्य मनुष्यस्योपयुक्तस्य वैमानिकस्य च परम्परोपपन्नस्योपयुक्तस्य विषय इति प्रदर्शितं अतीन्द्रियार्थत्वात् , अतीन्द्रियं केवलस्यैव विषय इति सामर्थ्याद् गम्यते, अन्यथा इन्द्रियविषयाधिकारे एतेषां प्रश्नानामनवकाश एव, कम्बलसाटकेत्यादि, कंबलसाटकं कंबल एव, 'आगासथिग्गलं' लोकः महतो बहिराकाशस्य पटस्येव विततस्य, 'फुड' इति व्याप्तः, पुढविकाइयादीहिं सुहुमेहिं सव्वलोगपरियावण्णेहिं फुडे 'तसकारणं' सिम फुडे सिया णो फुडे, जदा केवली समुग्धायगतो तदा तसकारणं फुडे, जदा णो अस्थि तदा न फुडे, शेषं गतार्थम् । ॥ इतीन्द्रियपदे प्रथमोद्देशकः १५-१ ॥ द्वितीयोद्देशकस्यामी अर्थाधिकारास्तद्यथा “ इंदियउवचय णिव्वत्तणा य समया भवे असंखिज्जा । लद्धी उबोगद्धा अप्पाबहुया विसेसहिया ॥१॥ ओगाहणा अवाए ईहा तह बंजणोग्गहे चेव । दविदिय भाविंदिय तीता बद्धा पुरफ्खडिया ॥२॥" श्रोत्रेन्द्रियादियोग्यपुद्गलग्रहणं तदुपचयः, कति समया इन्द्रियपर्याप्तिः? कतिसमयगृहीतानामिन्द्रिययोग्यानामिन्द्रियपर्याप्तानामिन्द्रियाणां, ॥१९॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपांगम् १५ इन्द्रिय १६ प्रयोग० इन्द्रियपदे उद्देशः २ च ततो निर्वर्त्तना यो यस्येन्द्रियस्योपकारः इंदियोवओगद्धा यावन्ति कालमुपयुक्त आस्ते, अगाहणा अवग्रह इत्यर्थः, शेषं प्रथ * पवानुसरणीयं, नवरं पुढविकाश्य आउकाइयवणस्सइकाइयाणं दबिंदिया पुरेक्खडा अट्ठ वा णव वा भवति, जम्हा पते अनंतरं * प्रयोगपर्व उचट्टित्ता मणुस्सेसु उववचंति सिज्यंति य, तेण दविदिया मणुस्सभवसंबधिणो अट्ठ, यदि पुण ते चैव अणंतरं उब्वट्टित्ता पुणरवि तेसु चैव पुढविकाइयादिसु उववज्रंति, ततो उव्वट्टित्ता मणुस्सेसु उषवण्णा सिज्यंति तदा णव, एवं उवउज्जिय भाणियव्वं, * तेउवाउबेइंदियतेइंद्रियचउरिंदियाणं पुरेक्खडा नव, कहूं? ततो उब्वट्टित्ता पुढविआउवणस्सईसु उववण्णा समाणा ततो उब्बट्टित्ता * मणुस्सेसु उववज्जंति सिज्झति य तेण णव, मणुस्साणं मणुस्लातीता अणता, बद्धा सिय संखिज्जा सिय असंखिज्जा, कहं ? पुच्छा समय जइ संमुच्छिममणुस्सा णत्थि ततो संखिज्जा, कहं पुण णत्थि ?, जेण संमुच्छिममणुस्साणं विरहो चउबीसमुडुत्ताति * * अंतरं भणियं, जदा पुण अत्थि तदा असंखिज्जा, विजयादिसु द्विरुत्पन्नोऽनन्तर भव एव सिध्यति, शेषं गतार्थम् ॥ इति द्वितीयोद्देशकः ॥ ॥ प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायां पंचदशपदस्य व्याख्या समाप्तेति ॥ ** अधुना षोडशमारभ्यते अस्य चायममिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे प्रधानबन्धहेतुत्वादिन्द्रियवतामेव लेश्यादिसद्भावाद् विशेषतः * इन्द्रियपरिणाम उक्तस्तदनन्तरं परिणामस्यैव प्रयोगपरिणामविशेषप्रतिपादनायेदमारभ्यते, इह चेदमादिसूत्रम् -'कतिविहे णं भंते ! पयोगे पण्णत्ते ?' इत्यादि, कति प्रकारो भदन्त ! प्रयोगः ? योजनं योगः परिस्पन्दः आत्मनः क्रियापरिणामः समाधानं आत्मव्यापार इत्यर्थः, अथवा युज्यन्तेऽनेन क्रियापरिणामाभिमुखेल साम्परायिकैर्यापथकर्म्मणा वा आत्मेति योगाः, गौतम ! ' पण्णरसविहे ' * ** इत्यादि निर्वचनं, तत्र सत्यार्थालोचननिबन्धनं मनः सत्यं तस्य प्रयोगो व्यापारः सत्यमनः प्रयोगः एवं शेषेष्वपि मनःप्रयोगादिषु भावनीयं, यावत् औदारिकशरीरकायप्रयोगः, इहौदारिकशरीरमेव पुनलस्कन्धसमुदायरूपत्वात् उपचीयमानत्वात् कायः औदारिक 112011 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** कायः तस्य प्रयोग इति समासः अयं च पर्याप्तकस्यैव वेदितव्यः तथैौदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगः, अयं चापर्याप्तकस्येति, आहकेन सहौदारिकं मिश्रं ?, उच्यते-कार्मणेन, तथा चोकं निर्मुक्तिकारण शस्त्रपरिशाध्ययने "जोरण कम्मरणं आहारेती अणंतरं जीवो। ** तेण परं मीसेणं जाव सरीरस्स णिष्फत्ती ॥ १ ॥” आह-यद्येवं किमयं कार्मणमिश्र इति न व्यपदिश्यते ? मिश्रभावस्य द्विष्ठत्वात् * प्रयोगपदम् विशेषाभावाच्च, उच्यते- कार्मणस्यासंसारमविच्छेदेनावस्थितत्वात् (सर्व) शरीरेष्वेव भावात् तिर्यङ्मनुष्यवैक्रियाद्यारंभसमयेऽनेकधा मिश्रोपपत्तेः, सूत्रे च विचित्रमिश्रताया अनभिधानात् तस्मादुत्पत्तिमाश्रित्यौदारिकस्य प्रधानत्वात् कादाचित्कत्वाञ्च्चौदारिकमिश्र १६ प्रयोग० * एव व्यपदिश्यत इति, यदा पुनरौदारिकशरीरी वैक्रियलब्धिसम्पन्नो मनुष्यः पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिको वा पर्याप्तबादरवायुकायिको वा वैक्रियं करोति तदौदारिकशरीरकामयोग एव वर्त्तमानः प्रदेशान् विक्षिप्य वैक्रियशरीरयोग्यान् पुद्गलानुपादाय यावद्वैक्रिय* शरीरपर्याप्त्या न पर्याप्तं गच्छति तावद्वैक्रियेण मिश्रताऽव्यपदेशचौदारिकस्य प्रारंभकत्वादिति । एवमाहारकेणापि सह मिश्रता * * वेदितव्या, आहारयति च तेनैवेत्यलं विस्तरेण, तथा वैक्रियशरीरकायप्रयोगो वैक्रियपर्याप्तकस्य, तथा वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग- * स्तदपर्याप्तकस्य कार्मणेनैव, एतदुक्तं भवति - देवनारकेषूत्पद्यमानस्य अपर्याप्तकस्येति, आक्षेपपरिहारौ प्राग्वत् । लब्धिवैक्रियपरित्यागे चौदारिकप्रयोगस्तदभिनिवृत्तौ सत्यां तस्यैव प्रधानत्वात्, तथा आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगः औदारिकेन सह, तत्* परित्यागेनेतरग्रहणायोद्यतस्य पतदुक्तं भवति यदाऽऽहारकशरीरी भूत्वा कृतकार्यः पुनरप्यौदारिकं गृह्णाति तदाऽऽहारकस्य प्रधानत्यादौदारिकप्रवेशं प्रति व्यापारभावान्न परित्यजति यावत् सर्वथैवाहारकं तावदौदारिकेण सह मिश्रतेति, आह-न तत्तेन * सर्वे सर्वथा मुक्तं, पूर्वनिर्वर्तितं तिष्ठत्येव, तत् कथं गृह्णाति ?, सत्यं तिष्ठति तत्तथाप्यौदारिकशरीरोपादानार्थ प्रवृत्त इति गृह्णाति, * ** तथा कार्मणशरीरकायप्रयोगः विग्रहे समुद्धातगतस्य च केवलिनस्तृतीयचतुर्थ पंचमसमयेषु भवति, उक्तं च- “ कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पंचमे च तृतीये च' कार्मणमिश्रभावे प्रयोजनं कार्मणस्यासंसारमित्यादिना" विवरणग्रन्थेनोक्तमेव । 'रइया णं भंते! * कतिविहे प्रयोगे' इत्याद्यापदपरिसमाप्तेः प्रायो निगदसिद्धमेव, नवरं नारकाणां वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगः उपपाते कार्म्मणेन उत्तर- * श्रीप्रज्ञापनो पांगम् 112311 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * प्रयोगपदम् वैक्रियारमे वैक्रियेणैव, कार्मणशरीरप्रयोगस्तु विग्रहेणोत्पद्यमानस्यापान्तरालगताविति । नियतप्रयोगभावचिंतायां चौघतो वैक्रिय मिश्रशरीरकायप्रयोगिणो नारकादयः सदैवोपपातोत्तरवैक्रियारंभभावात्, कार्मणशरीरकायप्रयोगिणः सदैव वनस्पत्यादीनां विग्रहे-11 प्रज्ञापनो- णापान्तरालगतौ भावात्, आहारकमिश्रप्रयोगचिंतायामेकवचनबहुवचनाभिधाने भावार्थ:-आहारकं संयतमनुष्याणामेव भवति, पांगम् | कदाचिदेकमेव भवति. यथोक्तं "आहारगाई लोप छम्मासं जाण होति वि कयाइ । उकोसेणं नियमा एक समयं जहण्णेणं ॥१॥ १६ प्रयोग होताई जहन्नेणं इकं दो तिणि पंच व हवंति । उक्कोसेणं जुगवं पुहुत्तमेत्तं सहस्साणं ॥२॥" एकवचनबहुवचनभावार्थः स्वधिः याऽऽलोचनीयः, क्षुण्णत्वान्न प्रतन्यते, नारकवक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगिणः सदैव, द्वादशमुहर्तके च गत्युपपातविरहकाले | सत्यप्युत्तरवैक्रियमिश्रापेक्षया भवधारणीयवैक्रियस्येति धिया । द्वीन्द्रियादय औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगिणः सदैवान्तर्मुहुर्तक एवोपपातविरहकाले सत्यपि मिश्रयोगस्याप्यान्तर्मुहर्तिकत्वात् । पंचेन्द्रियतिथंच औदारिकत्वादिति, द्वादशमुहूर्तस्तूत्पादविरहकालो * गर्भव्युत्क्रान्तिकतिरश्चामिति मनुष्याः वैक्रियशरीरकायप्रयोगिणः सदैव विद्याधरादीनां विकुर्वणाभावादिति । गतिप्रयोगचिंतायां |* गतिः प्रवृत्तिः प्रक्रिया चेष्टा धर्म इत्यनन्तरं, गतेः प्रपात: गतिप्रपातः, तत्र कुत्र २ गतिरूपनिपतति, कस्य गतिरस्तीत्युक्तं | भवति, योगस्य क्रियार्थत्वात् देशान्तरप्राप्तिलक्षणाच्च गतिरिति, अत्रापि देशान्तरप्राप्तिर्नास्ति लेश्यागतो, तत्राप्यध्यवसायस्थानानां उत्कर्षापकर्षवृत्तिरस्तीति कृत्वा गतिशब्दप्रयोगः, तानि २ परिणामाध्यवसायस्थानान्तराणि गच्छत इति वचनात् 'घट्टणं' खंजतो गतिः 'थंभणं' ग्रीवायां धमण्यादीनां अच्छतस्स वा अप्पणो अंगपदेसाण गती 'लेसाणं' ऊरूसु जन्नुयादिसंबंधो 'पडणं' अच्छंतो चेव लुठति ॥ ॥ प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यां षोडशपदव्याख्या समाप्ता ॥ ॥२२॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ ___साम्प्रतं सप्तदशमारभ्यते-अस्य चायमभिसंबंधः, इहानन्तरपदे परिणामसामान्याद् विशेषतः प्रयोगपरिणाम उक्तः, तदनन्तरं श्री लेश्यापरिणामविशेषप्रतिपादनार्थमिदमारभ्यतेः, इह च प्रथमोद्देशोक्तार्थसंग्रहार्थ इयं गाथा-'आहार समसरीरा उस्सासे कम्मवण्ण लेसासु । समवेदण समकिरिया समाउया चेव बोद्धव्वा ॥१॥' अथ किमर्थ लेझ्यापरिणामविशेषाधिकारेऽमीषामर्थानामुपन्यासः? लेश्यायपदे प्रज्ञापनो-|| उच्यते, उक्कं च प्रयोगपदे-“कतिविहे णं भंते! गतिप्पवाए इति? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते तंजहा-पयोगगती ततगती बंधण उद्देशः १ पांगम् १७ लेश्या० छेदणगती उववायगती विहायोगती, तत्थ जा सा उववायगती सा तिविहा-खित्तोववायगती," तत्र नारकादिभवत्वेनोपप(त्प)बानां |* जीवानामुपपातसमयात् प्रभृति आहाराद्यर्थसंभवोऽवश्यं भावीत्युपन्यासः, 'जेरयाणं भंते ! सव्वे समाहारा' इत्यादि, 'जाव समाउया' अत्र आहच्चेति-कादाचिदाहृत्य वा, नारकाधिकार एव पुव्वोववण्णया अप्पकम्मतरा इत्यस्य भावना-नेरायाउयणिरयगतिअसातावेयणिजाणि पडुच जेणेव पुव्वोववण्णयाणं बहुणिजिन्नं अप्पं चिट्ठति तेण पुव्वोचवण्णगा णेरड्या अप्पकम्मतरा, पच्छोववण्णा महाकम्मतरा, ताणि चेव पडुच्च जेण बहुं चिट्ठति विसेसविसेसियतरं च, इमं सुत्तं ण सामण्णविसयं व्यभिचारसंभवात्, तथा च पच्छोववण्णोवि जहण्णादिदितिओ पुव्योववण्णेणवि उक्कोसठितिपणं णियमेण अप्पकम्मयरे भवति, असण्णिभूयाण सण्णिभूयाण य सेसकम्मठितिजहण्णुक्कोसादिविसेसभावाओत्ति, तम्हा समठितिया वि ठितिय नारगविसेसविसयमेयंति । 'वण्ण' पुव्वोववण्णा रइया विशुद्धवनयरा, विशुद्धतरवर्णा इत्यर्थः, कहं ?, जणं रहयाणं अप्पसत्थवण्णणामकम्मरस असुभो तिब्वाणुभावुदयो भवावेक्खो, जम्हा भणितं कालमवखेत्तवेक्खो उदओ सविवाग अविवागो इति, जइवि आऊणि भवविवागाणि तहावि (असुभो) तिव्वाणुभावुदयो (भवावेक्खो) अधुवोदयत्ताओ य पुयोववण्णएहिं उपक्कमेणेव बहुं निजरिओत्ति, पोग्गलविपाकं वण्णनाम पुव्वोववण्णा तेण विरुद्धवण्णतरा, पच्छोववण्णा जेण न णिजरियं तेण अविसुद्धवण्णतरत्ति, पतंपि विसेसविसयमेव, एवं चेव सेसाणि वि जहत्थं समतीए भाणियव्वाणि, लेसासु पुव्वोववण्णा विसुद्धलेसा, कह? जेण तेसिं अप्पसत्थकम्मलेसाणं किण्हनी ॥२३॥ लकाऊणं असुभो तिव्वाणुभागुदमो भवावेक्खो जातिविपाकलेसाकम्मं तहावि जोगपरिणामो लेस्सा इति विग्गहेवि कम्मतिय- |* REEEEEEEEEEEEE 你必條路路路路路路路碎碎。 + Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्यायपदे उद्देशः१ प्रज्ञापनो पांगम् १७ लेश्या० कालजोगो अस्थित्ति तेण विसुद्धलेसा । पच्छोववण्णेहि ण णिज्जरिओ तेण अविसुद्धलेसा । वेदणाए सन्निभूता इति, कहं ? जेण |' असण्णिणो नेरइयतिरिक्खमणुयदेवेसु सब्बेसु वि अत्थि, जेण भणियं “कतिविहे गं भंते ! असन्निाउए ? गोयमा! चउविहे असनिआउप पं० तं० नेरइयअसन्निआउप तिरिक्खजोणिअसन्निआउए मणुस्सअसन्निआउए देवअसन्निआउए, तत्थ देवनारगअसन्निआउयस्स जहण्णेणं दसघाससहस्साई ठिई, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखिजइभागो, तिरियमणुयअसनिआउय(स्स) जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखिज्जइभागो,” तत्थ जे असण्णी नेरइया ते अप्पवेयणा, जे सण्णी ते महावेयणा । क्रियासु 'जेय ते सम्मट्टिी तेसिं चत्तारि किरिया कजंति' चतस्रः क्रियाः प्रवर्तते कर्मबन्धहेतुभूताश्चेष्टा इत्यर्थः, तद्यथा-आरंभिका 'आरंभो उद्दवओ', तत् कृतं साम्परायिकं कर्म परिग्रहत्वात् क्वचित् मूर्छासद्भावात् , मायाप्रत्यया शाठ्यभावात् , अप्रत्याख्यानक्रिया | विरतिपरिणामाभावात् 'णियझ्याउ'त्ति नियता-अवश्यंभावात् , सम्यग्दृष्टीनां त्वनियताः, संयतादिषु व्यमिचारात्, मिथ्यादर्शनप्रत्यया मिथ्यात्वपरिणामहेतुकी, शेषं गतार्थ, यावदसुरकुमाराधिकारे, 'जे ते पुन्वीववण्णगा ते णं महाकम्मतरा' कहं ? छम्मासावसेसाउय परभवियाउय बंधए पडुच्च, जम्हा ते तिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा उववजंति, तिरिक्खेसु उघवजमाणा कयाइ एगिदिएसु पढविकाइयाउकाइयवणस्सइकाइपसु उवचजंति, पंचिंदियतिरिक्खेसु वा, मणुस्सेसु उववज्जमाणा कम्मभूमयगम्भवकंतियमणुस्सेसु | उववजंति, मणुस्सजोगाओ पगडीओ बंधंति, तेणं पगंततिरियमणुयजोगाओ पगडीओ पडुच्च पुवोचवण्णगा महाकम्मतरा पच्छोववन्नगा अप्पकम्मतरा, जेण ताओ चेव उवषण्णया बंधंति, पर्यपि विसेसविसयमेव दद्रव्वं, अण्णहा तिरियमणयजोग्गपयडिंबंधे |* सत्यपि पुव्वोचवण्णगान]पच्छोववण्णगोवि उक्कोसठितीए अहिणवउप्पण्णे अणंतसंसारिए य महाकम्मतरे चेव भवति, तेण समठितीयादिसु, असुरकुमारविसेसविसयमेयंति, तत्थ वि बद्धपरभवियाउयो चेव पुव्योववन्नगो घेप्पति, अबद्धाउयथेवकालं, तहेव | उववण्णगोत्ति, वण्णे-पुव्योवषण्णा(अ)विसुद्धवषणतरा कह ? जेण पतेसिं भवावेक्खाप चेवणएहिंण (सुहो तिब्वाणुभावुदओ सो य पुव्वोषवष्णेहिं बहु) णिज्जरितो तेण(अ)विसुद्धवण्णा । लेसादि, पुब्वोषवण्णा अविसुद्धलेसा, कहं ? जेण पतेसिं भवावेक्खाए ॥२४॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनो लेझ्यापदे उद्देशः १ पांगम्। १७ लेश्या० कण्हादिलेसाणं चउहं उपरिमाणं साहाणाण विसुद्धतराणं अणुभाबुदभोत्ति, सो य पुल्बोषवण्णपहिं बह णिजरिओत्ति तेण अविसुद्धलेस्सा, पच्छोषवण्णएहि ण णिज्जरितो तेण विसुद्धलेसा, देवनेरइयाणं च लेसापरिणामुदओ उपपातसमयात् प्रभृति आभवक्षयाद् भवति, तथा च तृतीयलेश्योद्देशके वक्ष्यति से पूर्ण मंते ! कण्हलेस्से मेरइए कण्हलेसेसु नेरइपसु उववज्जति, कण्हलेस्से उब्वति ? जल्लेसे उववज्जइ तल्लेसे उव्वदृतित्ति?, एतदुक्तं भवति पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा वा नेरासु उववज्जमाणा तिरियमणुयाउपसु खीणेसु रइयाउए पडिसंवेपमाणो विग्गहेवि णारग एव लब्भति, ऋजुसूत्रनयदर्शनेन तस्य च | कण्हादिलेसातो पुब्वभवाउए अंतोमुहुत्तसेसर वट्टमाणस्स लन्भति, यस्मादुक्तं-"अंतमुहुत्तंमि गए अंतमुहुत्तमि सेसए चेव । लेसाहिं परिणताहि जीवा वचंति परलोग ॥१॥" तथा च लेसज्झयणे रईयाणं कण्हादिलेसाणं जहण्णुकोसिया इमा ठिती भणिता"दस वाससहस्साई काऊ जहणिया ठिती होति । उक्कोसा तिण्णुदही पलियस्स असंखमार्ग च ॥१॥णीलाएँ जहण्णठिती तिण्णुदहि असंखभागपलिय च । दस उदही उक्कोसा पलियस्स असंखभागं च ॥२॥ कण्हाए जहण्णठिती दस उदही असंखमागपलियं च । तेत्तीससागराई मुहुत्तऽहियाई चउकोसा ॥३॥ एसा नेरइयाणं लेसाण ठिई उ वनिया इणमो । तेण परं वोच्छामि | तिरियाण मणुस्सदेवाण ॥४॥ अंतोमुत्तमद्धा लेसाण ठिई जहिं जहिं जाउ । तिरियाण नराणं वा बज्जित्ता केवलं लेसं ॥५॥" | एतदुक्तं भवति-तिरियमणुयाणं जा जस्स लेसा अस्थि तेसिं अंतोमुत्तमेव ठिती, तत्थवि मणुस्साणं सजोगिकेवलीणं इमा ठिती "मुहुत्तर्द्ध य जहण्णा उक्कोसा होति पुषकोडी उ । णवहिं वरिसेहिं ऊणा णायव्या सुकलेसाए ॥१॥ एसा तिरियनराणं लेसाण | ठिती उ पन्निया होति । तेण परं वोच्छामि लेसाण ठितिं तु देवाणं ॥२॥ दस वाससहस्साई कण्हाइ ठिती जहणिया होति । पल्लासंखियभामो उक्कोसो होति नायब्बो ॥३॥ जा कण्हाइ ठिती खलु उक्कोसा चेव समयमभहिया। नीलाइ जहण्णेणं पलियासंखं च उक्कोसा ॥ ४ ॥ जा णीलाइ ठिती खलु उल्कोसा चेव समयमभहिया । काऊइ जहण्णेणं पलिआसंखं च उक्कोसा ॥ ५ ॥ | तेण परं वोच्छामि तेउल्लेस्सं जहा सुरगणाणं । भवणवदवाणमंतरजोइसवेमाणियाणं च ॥ ६॥ दस वाससहस्साई तेऊय ठिती | ॥२५॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लेश्यापदे उद्देशः १-२ * जहणिया होइ । उक्कोसा दोण्णुदही पलियस्स असंखभागं च ॥७॥ जा तेऊए ठिती खलु उक्कोसा चेव समयमभहिया । पम्हाइ जहन्नेणं दस मुहुत्तहियाई उक्कोसा ॥८॥ जा पम्हाइ ठिई खलु उक्कोसा चेव समयमभहिया । सुक्काए जहण्णेणं तेत्तीसुकोसमभहिया ॥९॥" वेदणा जहा रदया, तत्थवि असण्णिणो लभंतित्ति, पुढविकाइयाणं कहं अप्पसरीरमहासरीरत्तं जेण पुढविकाइयाणं सरीरोगाहणा प्रज्ञापनो 1*| अंगुलस्स असंखिजइभागो भणिओ?, उच्यते, सत्यमेतत्, तथा अस्त्येवाल्पमहत्त्वं शरीरेभ्यो, जेण पज्जवपदे पुढविकाइप पांगम् पुढविकाइयस्स ओगाहणाए चउवाणवडिए, अतोऽस्स्यल्पमहत्त्वं, शेषं गतार्थ, जाव जे ते अपमत्तसंजता तेसिं एगा मायावत्तिया १७ लेश्या० किरिया कज्जति समुद्देसणादिसु, अण्णहा पसुव्व णो मातिाणभावतो, पमत्ताण आरंभिया य मायावत्तिया य, वस्तुतः प्रमत्तयोगस्यारम्भत्वात् शेषं गतार्थ, जाव जोतिसियवेदणाए मायिमिच्छहिट्ठी अमायिसम्मदिट्ठीत्ति, सण्णिभूता असण्णिभूता इति न भणितं, किं कारणं? जेण तेसु असण्णी णत्थि, कहं ? जेण असण्णिदेवाउयस्स उक्कोसा ठितीय पलिओवमस्स असंखिज्जइभागो, जोइसियाणं जहणिया ठिती पलिओवमट्ठभागो, वेमाणियाणं पुण जहणिया पलिओवर्म, तेण तेसु असणी णत्थि, 'सलेसाणं भंते ! नेरइया' इत्यादि, गतार्थ जाव तेउलेसा, असुरकुमारा वेदणाए सण्णिभूता असपिणभूता इति ण भण्णति, किं कारणं? जेण तेउलेसा असण्णी णत्थि, उक्ताः प्रथमोद्देशकोक्ताः खल्वाहारादयोऽर्थाः। प०१७-१॥ अधुना। द्वितीयोद्देशकः-'सलेसाणं भंते! नेरड्या' इत्यादि, इह तु ता एव चिम्त्यंते, कति लेश्या इति, तत्र “लिशि संश्लेषणे" इत्यस्य धातोलेंशन लेण्या, उक्तं च-"ता. कृष्णनील| कापोततैजसीपयशुक्लनामानः । श्लेष इव वर्णबंधस्य कर्मबंधस्थितिविधात्र्यः ॥१॥" योगपरिणामश्च लेश्या, कथं पुनर्योगपरिणामो लेश्या ? यस्मात् सयोगिकेवली शुक्ललेश्यापरिणामेन विहृत्य अन्तर्मुहूर्तशेषे योगनिरोधं करोति, तत अयोगित्वं प्राप्नोति, अतोऽवगम्यते योगपरिणामो लेश्या इति । स पुनर्योगः शरीरनामकर्मपरिणतिविशेषः, यस्मादुक्तं-कर्म हि कार्मणस्य कारणमन्येषां च शरीराणामिति, तस्मादौदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो यस्स चाग्योगः, तथा चौदारिकादिशरीरव्यापारमनोवीर्यपरिणतिसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो ॥२६॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्स मनोयोग इति, यथैव कायादिकरणयुकस्यात्मनो वीर्यपरिणतिर्योग उच्यते, तथैव लेश्यापीति, इतश्च शरीरनामकर्मपरिणति| विशेषो लेश्या, यस्मादुक्कं उत्तराध्ययनेषु-"लेसज्झयणं पवक्खामि आणुपुवि सुणेह मे। छहंपि कम्मलेसाणं अणुभावं जहक्कम ॥१॥ |' Aणामाणि वण्णरसगंधफासपरिणामविलक्खणं ठाणं । ठितिं गतिं च आउं लेस्साणं तु सुणेह मे ॥२॥" पते चार्था लेश्याध्ययनत प्रज्ञापनोपवाधिगन्तव्याः, केचिदिहैव लेश्यापदे नामवर्णरसगन्धस्पर्शपरिणामसंस्थानाख्याः, शेष कण्ठ्य, नवरं पंचिंदियतिरिक्खेसु दस *उद्देशः २-३ पांगम् | | अप्पाबहुगा-तं. “ओहिय पणिदिय १ समुच्छिमा २ य गम्भतिरिक्खइत्थीओ ३ । संमुच्छगन्मतिरिया ४ मुच्छिमतिरिक्खी य ५ १७ लेश्या० गम्भम्मि ६ ॥१॥ समुच्छिम ७ गभइत्थी ८पणिदितिरिगित्थीगा९य ओहित्थी १० । दस अप्पबहुगमेदा तिरियाणं होंति नायव्वा ॥२॥" शेष सूत्रसिद्धं यावत् उद्देशकपरिसमाप्तिरिति । प०१७-२ ॥ इदानीं तृतीयोद्देशकः तस्यादिसूत्रम्-'नेरहए ण भंते ! नेरइएसु | उववज्जती'त्यादि, द्वितीयोद्देशके नारकादीनां लेश्यापरिसंख्यानमल्पबहुत्वं महर्द्धिकत्वं चोक्तं, इह चेदं चिन्त्यते-नारकादीनां स्वा स्वा लेश्याः किमुपपातक्षेत्रोपपत्रानामेव उत विग्रहेऽपि संतीति अस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थ प्राक् तावन्नयान्तरमाश्रित्य नारकादिव्यपदेशं पृच्छति-'जेरहए णं भंते। रइएसु उववज्जई' इत्यादि, कथं पुनर्नारकादिरेव नारकादिषूपपद्यते ? उच्यते यस्मानारकादिभवोपग्राहकमायुरेव, अतो नारकाद्यायुः प्रथमसमयसंवेदन एव नारकादिव्यपदेशो भवति ऋजुसूत्रनयदर्शनेन, यस्मादुक्तं नयविद्भिः ऋजुसूत्रस्वरूपनिरूपणं कुर्वद्भिः "पलालं न दहत्यग्निर्भिद्यते न घटः क्वचित् । न(ना)शून्ये निर्गमोऽस्तीह, न च शून्यं प्रविश्यते ॥१॥ नारकव्यतिरिक्तश्च, नरके नोपपद्यते । नरकाचारकश्चास्य, न कश्चिद्विप्रमुच्यते ॥२॥" इत्यादि, एवं उव्वट्टणाएवि ऋजुसूत्रनयदर्शनेनैवोक्तं-'अणेहए उबट्टई' इत्यादि, ‘से पूर्ण भंते ! कण्हलेसे नेरइए' इत्यादि, कहं कण्हलेसे उववज्जति कण्हलेसे उब्व० जलेसे उववजह तल्लेसे उव्वति ? उच्यते, तिरिक्खजोणिओ मणुस्सो वा बद्धाउओ रइयत्ताप उववजिउकामो तिरियमणुस्साउए अंतमुहुत्ते सेसे कण्हलेसादिपरिणाम परिणमति, ततो तेणेव परिणामेण रइयाउयं संवेदति, अतो कण्हादिलेसेसु उववज्जति, उव्वदृति कण्हादिलेसे कहं ? जेण तेसिं कण्हादिलेसापरिणामो आभवक्खया भवति, तेण तल्लेसे उव्वट्टति, असुरकुमारादीनामपि इयमेवो ॥२७॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री लेश्यापदे उद्देशः ३-४ * पपत्तिः, एवं सर्वदेवानां । तिरियमणुस्साणं पुण अंतोमुहुत्तिओ लेसापरिणामो, तेण कदाइ जल्लेसे उववजति तल्लेसे उव्वदृति, |* | कदाइ लेस्संतरपरिणाम परिणते उव्वदृति, कण्हलेसे नेरइए कण्हलेस्सगाई दब्वाई गिण्हित्ता कालं करोति तदा णीललेसापरिणतो प्रज्ञापनो उववज्जति जल्लेसा, नेरदयं पणिहाए प्रतीत्य तदपेक्षया किं प्रमाणक्षेत्रं पश्यति', शेषं गतार्थ । प०१७-३॥ अत्र चेयमधिकारगाथापांगम् “परिणामवन्नरसगंधसुइअप्पसत्थसंकिलिट्ठण्हा । गतिपरिणामपदेसोगाढवग्गणठाणाणमप्पबहुं ॥१॥" विषमपदव्याख्या-से गुणं भंते! १७ लेश्या० | कण्हलेस्सा नीललेसं पप्प तारूवत्ताए' इत्यादि, "जल्लेसाई दवाई परियाइत्ता कालं करेति तल्लेसे उववजति"त्ति वयणातो कारणमेव कार्य भवत्युपचाराद् उक्तं कण्हलेसा नीललेसं पप्प तारुवत्ताए परिणमतीति, एवं काउतेउपम्हसुक्काणं उपर्युपरि तागृप्यतेत्यादि, तथा च दृष्टान्तः-से जहा णामए खीरप सिं पप्प तारूवत्ताए, नीललेश्यारूपादिभावं-प्रतिपद्यत इति, एवं तावद् भवसंक्रान्ति प्रतीत्य उक्त । यदा पुनस्तिर्यङ्मनुष्यो वा स्वस्मिन्नेव भवे वर्तमानः कृष्णलेश्यापरिणतो नीलादिलेश्याभावं परिणमति, नीललेश्यापरिणतो वा कृष्णादिलेश्यादिभावं परिणमति, तत्रायं दृष्टान्तः-से जहा नामए वेरुलियमणी सिया किण्हसुत्तए वा जाव सुक्किलसुत्तए वा आइए आविद्ध इत्यर्थः, तासुत्तत्ताए परिणमए । कः पुनर्यो दृष्टान्तदाान्तिकयोरर्थयोः प्रतिविशेषः ? उच्यते-यथा पूर्वदृष्टान्ते क्षीरतकगता रूपादयोऽन्योऽन्यावयवाविभागतः परिणम्यपरिणामकमावेन वर्तते, नैवमिह, किंत्वेकदेशसंसर्गात् वैडूर्यमणेश्व स्वास्थ्यात् कृष्णादिसूत्रताद्रप्यताऽनुमीयते तथा दान्तिकयोरपि पूर्वकार्यकारणभावोऽनुमीयते, कृष्णादिलेश्याद्रव्याण्यधिकृत्यानुभावश्च, इह तु संसर्गमात्रं द्रव्याण्यधिकृत्य प्रदेशसंक्रममात्रं गृह्यते, नत्वनुभावसंक्रमः, तथा चेदं प्रदेशसंक्रमणलक्षणं-"जं दलियमनपगतिं निजह सो संकमो पदेसस्स"त्ति । अनुभाषसंक्रमस्य त्विदं लक्षणं-"तत्थट्ठपदं उब्वट्टिया व ओषट्टिया व अविभागा। अणुभागसंकमो एस अन्नपगति णिया वावि ॥१॥" एतदुक्कं भवति-सुमासुभाणं पगडीणं सुभासुमो अणुभावो, सुभाणं सुभो विसोहीए उव्वहिज्जत्ति, कहाषिजतित्ति भणिय, असुभाण असुमो संकिलेसेण उव्वहिज्जति, सुभाणं सुभो संकिलेसेण ओवहिज्जति नासिज्जतित्ति भणितं, असुभाणं असुभो विसोहीए ओपट्टिज्जति, एस अणुभाषसंकमो, अहवा अण्णपगति णिया वाइत्ति अण्णपगतिअणुभावपादणेणंति ॥२८॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्यापदे उद्देशः ४ प्रज्ञापनो पांगम् १७ लेश्या० भणियं होति, अस्मिंश्योद्देशके प्रायशः कृष्णादिलेश्यापरिणामयोग्यव्यगत एव विचारः, तथाचोत्तरप्रन्थः रूपादिनिरूपणात्मकद्रव्यगत एव कृष्णादिद्रव्ये न तथाभूतभावो भवति अतस्तान्येव द्रव्याणि लेश्या अभिधीयन्ते कृष्णादिलेश्यापरिणामकारणत्वात् कृष्णादिलेश्या एवेति, कारणं च कार्याद भिन्नमिति पृच्छति, 'कण्हलेसाणं भंते! केरिसया वण्णेण'मित्यादि, अन्यथा हि कण्हलेस्सा दव्या णं * भंते! केरिसया वण्णेणमित्येव वक्तव्यं स्यात्, शेषं गतार्थ, वण्णाहिकारे जो पत्थ कोइलच्छदो सो तिलकंटतो भण्णति, उब्वत्ततो(उच्चंतगो) दंतरागो भण्णति, वरपुरिसो वासुदेवो भण्णति, हीनमध्यमोत्तमात्रयः, पुनरपि हीने हीनादयस्त्रय इत्यादि, उत्पन्नविकल्पत्रयत्रिभेदतया बहुविधता वाच्या । प्रदेशचिंतायां तद्योग्यपरमाणवः प्रदेशा इति । अवगाहचिन्तायां-प्रदेशा:-क्षेत्र-24 प्रदेशा इति । वर्गणाः कृष्णलेश्यादियोग्यद्रव्यवर्गणा एव गृह्यते औदारिकादिवर्गणावत्, एताश्च वर्णादिभेदेन समानजातीयानेकसद्भावादनन्ता इति । स्थानचिंतायां तारतम्येन विचित्राध्यवसायनिबन्धनानि कृष्णादिद्रव्यवृन्दान्येव गृह्यन्ते, अन्यथा इहैव प्रदेशार्थचिन्तायामनन्तगुणत्वमुक्तमयुक्तं स्यात् , असंख्येयत्वं च, तथाविधैकपरिणामनिवन्धनानामनन्तद्रव्याणामप्येकाध्यवसायहेतुत्वेनैकत्वभावादिति, अत्र बहुवक्तव्यं तत्तु नोच्यते, अवचूर्णिकामात्रत्वात् प्रारम्भस्य । इह जहण्णलेसाट्ठाणपरिणामकारणभूता दव्या चेव जहण्णलेसटाणसहेण भण्णंति, ते य सट्टाणपरिणामगुणमेदओ असंखिज्जा भवंति, पत्थ निरिसणं, जहा फलिहमणिस्स अलत्तरागवसेण रत्तत्ता जा भवति सा जहण्णरत्तगुणालत्तगवसेण जहण्णा, एवमेगगुणवडीप जहण्णाए चेव रत्तत्ताप असंखिजा ठाणा हवंति, ते य ववहारतो थोवगुणत्तिकाउं जहण्णगा चेव भवति, एवम[प्यप्पणो वि लेस्सादव्वोयहाणवसतो परिणामविसेसा भावियब्वत्ति, उक्तं च "कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् परिणामोऽयमात्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥१॥" एवं उक्कोसगावि भाणियब्वा, एत्थ जदप्पमिति एकगुणाइ अब्भहियावि दवा जहण्णट्ठाणजोगा होति, ते पडुश्च पढमं कण्हलेसानीला-* दिसु दवट्ठाए चिंतनं, एवं उक्कोसगाणवि जहण्णुक्कोसगाणवि, पत्थ य दव्वगतगुणतारतम्ममेदे सत्यपि तारतम्येनानेकगुणकलि-| तैरपि लेण्याद्रव्यैरात्मन एकत्वविशिष्टोऽध्यवसायः क्रियते, अन्यथा द्रव्यगुणानामानंत्यादनंतानि स्थानानि स्युरिति सूक्ष्मधिया * ॥२९॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापनो पांगम् १७ लेश्या० १८काय० भावनीयं, इत्यलं प्रसङ्गेन । १७-४॥'से गुणं भंते ! कण्हलेस्सा नीललेसा पप्प णो तारूवत्ताए' इत्यादि, कः पुनरस्य सम्बन्धः, उक्तमनन्तरोद्देशके असंखिजा गुणा इति, कण्हलेसाप ठाणा, तत्र अल्पबहुत्वे थोषा जहन्नया काउलेसटाणा दव्वट्ठयाए, जहन्नया कलेश्यापदे नीललेसटाणा असंखिज्जगुणा इति, एवं उत्तरोत्तरा असंखिजगुणा, तत्थ यदा जीवो जहण्णएसु काउलेसाठाणेसु वट्टति ताणि य 14 उद्देशः ५ नीललेसाठाणाणं प्रत्यासन्नानीति प्राप्तिमात्रं गृह्यते, न तु परिणम्यपरिणामकभावः वैडूर्यमणिनीलादिसूत्रकदृष्टान्तात् आकारभाव कायस्थितिमात्र गृह्यते, आकार एव भावः आकारभावः, मात्रशब्दस्यावधारणात्मकत्वात् पलिभागभावमायाए वा से सिया इति प्रतिबिम्बमात्र, पदं च तत्थ गता 'उक्कोसत्ति (ओसक्कइ), जम्हा कण्हलेसाए जहणियाए हेट्टा अन्नलेसा नत्थि, तेण तत्थ गता चेव उक्कोसतित्ति भणितं, मझमिस्सियाओ तत्थ गता ओसक्कति, कह? जेण णीलाए हिट्ठा कण्हलेसाप अस्थि तेण ओसक्कत्ति, उवरिपि काऊ अत्थि तेण |उस्सकत्ति, एवं सेसयाओवि, सुकलेसाए उवरि अण्णा लेसा णत्थि तेण ओसक्कत्ति चेव भाणियव्वं ॥१७-५॥ षष्टोद्देशकस्तु ग्रन्थ एवानुसरणीयः ॥ १७-६॥ ॥ प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायां सप्तदशपदव्याख्या समाप्तेति ॥ ___ अधुना अष्टादशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे परिणामसाम्याद्विशेषतो लेश्यापरिणाम उक्तस्तदनन्तरं गति|परिणामविशेषकायस्थितिपरिणामप्रतिपादनार्थमिदमारभ्यते, इह चेदमधिकारगाथाद्वयं-'जीव गतिंदिय काए जोगे वेदे कसायलेसा य । |सम्मत्तणाणदसण संजम उपभोग आहारे ॥१॥ भासगपरित्त पजत्त सुहम सण्णी भवत्थि चरिमे य । पतेसिं तु पदाणं | कायठिती होति णायव्वा ॥२॥' आह-कायस्थितिरिति कः शब्दार्थः इति ?, उच्यते, कायो हि विवक्षितसामान्यविशेषरूपो जीवकाय एव तस्मिन् स्थितिः, एतदुक्तं भवति-यस्य वस्तुनः येन पर्यायेणादिएस्याव्यवच्छेदेन भवनं सा कायस्थितिरुच्यते, यथा |* ॥३०॥ . Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापनो पांगम् १८काय | 'जीवे णं भंते !' इत्यादि तत्र “जीव प्राणधारणे" जीवनं जीवः, जीवनपर्यायेणादिष्टस्य जीवस्य जीवनपर्यायः सर्वाद्धा, यत आयुष्क* कर्मपुद्गलानुभवनं संसारिणां जीवनमुच्यते द्रव्यप्राणानधिकृत्येदमुक्त, मुक्तानां ज्ञानादयस्तु भावप्राणाः, मुक्तोऽपि जीवति सा | तैरिति, अतः संसार्यवस्थायां मुक्तावस्थायां च सर्वत्र जीवनमस्तीति सर्वाताम्, इदानीं तस्यैव जीवस्य नारकादिपर्यापैरादिष्टस्य | तैरेव पर्यायैरव्यवच्छेदेन भवनं वर्तनं यत् , तद् ग्रन्थत एवानुसरणीयमिति, यश्च विशेषः स उच्यते, सेन्द्रिय इति लब्धीन्द्रियंकायस्थितिप्रतीत्य, यस्माद् विग्रहगताविन्द्रियपर्याप्त्या अपर्याप्तस्य लब्धींद्रियमस्त्येव, अतः सेन्द्रिय इत्युक्तं सूत्रे, अन्यथा यदीन्द्रियपर्याप्त्या-1 पदम् पर्याप्तस्यैव सेन्द्रिय उच्यते ततो विग्रहगतौ उपपातक्षेत्रप्राप्तस्य वा इन्द्रियपर्याप्त्या अपर्याप्तस्य सेन्द्रियत्वं न स्यात्, ततश्च 'सेंदिए णं । भंते! सेंदिए कालतो केवचिर'मित्यस्य प्रश्नस्य यनिर्वचनं तदनर्थकं स्यात् , तथा 'सकाइए णं भंते!' इत्यादि, इहापि सकायिक इति |* | कार्मणशरीरमधिकृत्योक्तं, अन्यथा शरीरपर्याप्त्या अपर्याप्तस्य विग्रहगतौ च वर्तमानस्य सकायिकत्वं न स्यात्, तथाचास्मिन् | प्रश्ने निर्वचनमनर्थकं स्यात् , 'सजोगीण'मित्यादि, अत्रापि कार्मणशरीरकाययोगमेवाधिकृत्य सयोगिप्रश्नः, पुद्गलपरावर्त इति, अट्ठविहं | पोग्गलगहणं जीवस्स ओरालियवेउब्वियआहारगतेयभासाआणापाणुमणकम्मइयत्तणेण, पुच्छाकाले य जं भवग्गहणं तं अवहिं | काऊण, ततो जदा सव्वपुग्गला परमाणुप्रभृतयः ओरालियादिसरीरबंधजोगत्तणमावण्णा पगिदियादिभावे वट्टमाणेण परिणामिया | तदा पोग्गलपरियट्रेति भण्णति, अवद्धमिति अर्द्धस्य समीपे अपार्द्ध देसूणमिति किंचिदूनमर्द्ध, मणोयोगो पगं समयं, कहं , मणयोगे | खंधे पडुच्च ओरालियादिकायजोगेण जीवव्यापारो पढमे समये चेव उवरमति मरति वा तत्थ एगसमयं, अंतोमुहुत्तं गहण| निसग्गे करेंतस्स अंतोमुहुत्तिओ, एवं वइजोगोवि, पढमसमये कायजोगेण गहियाणं भासादवाणं बितियसमप वइजोपण णिसग्गं | काऊण उवरमंतस्स मरंतस्स वा एगसमइओ लम्भति, अंतोमुत्तं गहणनिसग्गा करेंतस्स अंतोमुहुत्तिओ, भासालद्धियस्स वइजोगो | लम्भतित्ति । उक्कोसेणं वणस्सइकालो, वणस्सइकाइपसु काययोग एव केवलोत्ति, ततो बेइंदियादिसु उववण्णस्स वहजोगोवि अस्थि | | सादीए सपजवसिए । सवेदए जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, कहं ? भण्णति उवसामतो तिविहं वि वेदं उवसामित्ता अनुभावतः अवेदको ॥३१॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रज्ञापनो पांगम् १८ काय | भूत्वा पुनरपि प्रतिपतने सवेदकत्वं प्राप्तः, ततस्तत्क्षणादेव उपशमकश्रेणी प्रतिपद्य मोहनीयमुपशामयत्यन्तर्मुहत्तैनेति, अतो | अंतर्मुहूर्तेनेति, अत्र कैश्चिदतिगहनत्वात् प्रस्तुतस्य भ्रान्त्या लिखितं किलोपशमश्रेण्यनन्तरं क्षपक श्रेणी प्रतिपद्यत इति, एतदपकर्ण *कायस्थिति| यितव्यं, अत्र विरुद्धत्वाद्, उक्तं च सम्यक्त्वादिनिरूपणायां कल्पाध्ययने–“सम्मत्तम्मि उ लद्धे पलियपुहुत्तेण सावओ होजा । पदम् चरणोवसमखयाणं सागरसंखंतरा होंति ॥१॥ एवं अप्परिवडिए सम्मत्ते देवमणुयजम्मेसु । अन्तरसेढिवजं एगभवेणं च सव्वाइं ॥२॥" | तथाऽन्येनाप्युक्तं-"मोहोपशम एकस्मिन् भवे द्विः स्यादसन्ततः। यस्मिन् भवे उपशमः क्षयो मोहस्य तत्र न ॥१॥" उक्कोसेणं दसुत्तरं पलिओवमसतं पुब्बकोडीपुडुत्तमम्भहियं, कहं ? इत्थी उबसमसेटिं पडिवण्णा तिविहंपि वेदं उबसामित्ता अवेदकत्वं प्राप्य प्रतिका पतिता स्त्रीवेदप्रथमसमयसंवेदनकाल पव कालं कृत्वा देवेषूपपद्यते, तत्र च पंवेद एव भवति, नान्यः, तथा चोक्तं-"उवसमसम्म-14 | त्तद्धा, अंतो आउक्खया धुवं देवो । तिसु आउगेसु बढेसु जेण सेढिं न आरुहति ॥१॥" उक्कोसेण पुण ईसाणे कप्पे पणपण्णपलिओवमा| उगासु अपरिग्गहियदेवीसु अणंतरं दो वारे उववजमाणाप दसुत्तरं पलिओषमसतं भवति, इथिभवेहि य कई हिंपि पुवकोडि. पुहुत्तमभहियं, ण जतो असंखेज्जवासाउया उकोसठितीं पावति, एवं सेसेसुषि भावियब, णवरं अट्ठारसपलियाई ईसाणे चेव|* | नवपलिओवमायुगासु परिग्गहियदेवीसु उववजमाणीए, पलिओवमसतं सोहम्मे अपरिग्गहियासु, चोइस उ तंसि चेव परिग्गहि| यासु, पलिओवमपुहुत्तं देवकुरादिसु । पुरिसवेओ जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, कहं ! अण्णवेदेहितो पुरिसेसु उववजिऊण अंतोमुहुत्तं | जीविऊण पुणोवि अन्नवेदगेसु चेव उववज्जमाणोत्ति, अन्ये तु पुरिसो उवसंतवेदो अंतोमुहुत्तं कालं काऊण देवेसु उववन्नो पुणोवि पुरिसवेदओ चेवत्ति व्याचक्षते तदभिप्राय त्वतिगम्भीरत्वान्न विद्मः, उक्कोसं कंठं, णपुंसगवेदओ जहण्णेणं एगं समयं, पडिवजमाणो एगसमयमवेदगो होऊणमतो, उक्कोसेण अंतोमुहुत्तं ततो परं नियमेन परिवडणे वेदभावओत्ति । 'कोहकसाई जहण्णेण | अंतोमुहुत्त'मित्यादि, विशिष्टमुपयोगोदयमधिकृत्येदं भावनीयं, लोभकसायी जहणेणं पक्कं समयं, कहं ! जो उवसमसेढीपज्जवसाणे ॥३२॥ उवसंतवीतरागो होऊण परिवडतो लोभाणुपढमसमयसंवेदणे चेव कालं करेइ तस्य किल तदनन्तरं सब्वे चेष कसाया जुगवमेवोदयं Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगच्छति, तदा लोभकसाय एव केवलोत्ति एवं गुरवो व्याचक्षते, आह यद्येवं क्रोधादिष्वपि कस्मादेवमेव न भवति ? उच्यते तेषां यथोपवान्तर्मुहूर्त्तकः प्रारम्मे उपशमकालः एवं प्रतिपततोऽपि युगपदेवारंभो, मरणेऽपि तद्भावादेवेत्यर्थः । लेइयाधिकारे - * प्रज्ञापनोपांगम् * 'कण्हलेला उक्कोसेणं तेन्तीसं सागरोवमाई अंतोमुडुत्तमन्भहियाई' अधः सप्तम पृथिव्यामुत्पद्यमानस्योद्वर्त्तमानस्यापि किंचित् कालभावात्, * “जल्लेसे उबवज्जति तल्लेसे उव्वट्टतित्ति" वचनाद् । एवं णीललेसादि पंचमपुढविआदिपत्थडे, काउलेस्सा ततियपुढविपढमपयरेति, १८ काय० * तेऊलेस्सा ईसाणे, पम्हलेस्सा बंभलोप, सुकलेसा अणुत्तरेसु, 'सम्मद्दिट्ठी सादीए अपज्जबसिए' खाइयसम्मत्तं पहुच, सादीए सप * जबसिते, पुण खओवसमियादि पश्च तं च उक्कोसओ छावट्ठि सागरोवमाई सातिरेगाई कहं ? "दोबारे बिजयादिसु गयस्स * तिण्णच्चुते अहव ताई । अतिरेगं नरभवियं णाणाजीवाण सव्वद्धं ॥ १॥” ओहिणाणी जहण्णेणं एगं समयं', कहं? जया विभंगनाणी * संमत्तं पडिवज्जति तस्स पढमसमये तं चैव विभंगं ओहिणाणं भवति, तम्मि समय तस्ल परिवडति जदा तदा पक्कं समयं * * मणपज्जवणाणी जहणणेणं पक्कं समयं, संजयस्स अप्पमत्तद्धाप घट्टमाणस्स मणपज्जवं समुप्पण्णं उत्पत्तिसमयं कालं करेंतस्स परिबडितं । 'ओहिदंसणी दो छावडीओ सातिरेगाओ', कहं ? विभंगणाणी तिरिक्खो मणुस्सो वा अहे सप्तमाप उबवण्णो तेत्तीससागरोवमठिती, ततो तत्थुव्वट्टणकालासपणे सम्मत्तं पाविय पुणोवि परिचयइ य अपरिवडियण चेव विभंगेण पुव्यकोडिमाउपसु * तिरिक्खेसु जाओ, पुणरवि अपरिवडियविभंगो चेव अहेलत्तमार उववण्णो, तत्थ तेत्तीससागरोवमट्टितीतो, तो पुणोवि उब्बट्टणकाले स सम्मतं पाविय पुणोवि परिचयइ, अपरिवडियण चेव विभंगेण पुग्वकोडिभउपसु तिरिक्खेसु जाओ, आह किं लस्मत्तं * पडिवज्जति १ उच्यते, जतो विभंगस्ल थोवा ठिती, भणियं च -“विभंगणाणी जहष्णेणं पक्कं समयं, उक्कोलेणं तेत्तीसं सागरोवमाई * देसूणपुण्वकोडीप अष्भहियाई”ति, ततो अपरिवडियविभँगो मणुस्वत्तं पाविय संजमं लहित्ता विजयादिसु दोबारे उबवज्जमाणस्स दुतिया छावट्ठी भवति, दंसणं च विभंगोहीण जओ तुल्लमेव, अतो दो छावट्टी सातिरेगाओ । केचिदेवं व्याचक्षते, इह च अविग्रहे* णाधः सप्तमपृथिव्यास्तिर्यक्षु उत्पादयितव्यः, विग्रहे विभङ्गस्य प्रतिषिद्धत्वाद्, वक्ष्यति च 'विभंगणाणी पंचिंदियतिरिक्खजोणिया * कायस्थितिपदम् ॥३३॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रज्ञापनो कायस्थिति पदम् पांगम् १८ काय मणुस्सा य", आहारगा णो आहारगत्ति । अवसेसेसु जीवादिभंगो, गुरवस्तु व्याचक्षते, किं नः सप्तमनरकपृथिवीनिवासिनारकादिपरिकल्पनया? सामान्येनैव नारकतिर्यङ्नरामरभवेषु पर्यटतः खल्ववधिविभंगावेतावंतं कालं भवत इति, तत ऊमपधर्ग इति । | संजए एवं समयं, चरित्तपरिणामसमए चेव कालं करेंतस्स, सवसावजपरिवजणपरिणामस्स य एकसामायिकस्य भावात्। संजतासंजते जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, दुविहतिबिहाइपडिवत्तिउवओगस्स नियमा पवान्तर्मुहर्तिकत्वात् । सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए अजहण्णमणुक्कोसेणं तिष्णि समया, कहं ? समवहतस्य केवलिनः, उक्तं च-"प्रथमे समये दंडं कपाटमथ चोत्तरे तथा समये। मंथानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥१॥ संहरति पंचमे त्वंतराणि मंथानमथ पुनः षष्ठे । सप्तमके तु कपाटं संहरति ततोऽष्टमे दंडम् ॥२॥ औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ॥३॥ कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पंचमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥४॥" अत्र गुरवो व्याचक्षते-मंथानसमये बहिः प्रदेशे निर्गमादनाहारकः सर्वपरिशातसमयवग्रहिकः, षष्ठे तु मंथानोपसंहरणसमये आहारकः, अतः प्रदेशप्रदेशाः सर्वथा तत्र युज्यमानाः इत्यस्मादेव गम्यते देशतोऽपि स्वावगाहनातः प्रदेशोऽयमनाहारकः । अभासए सादीप सपजघसिए अंतोमुहुत्तं एगिदियो अभासओ, बेइंदियाइपसु भासपसु उववणे अंतोमुहुर्त जीविऊण य पुणरवि पगिदियो । चरिमे अणादीए सपज्जवसिप, भब्वव्व, अचरिमे अणादीप अपज्जवसिए, अभब्वन्च, सादीए अपज्जवसिप सिद्ध तस्य सिद्धत्वेनाचरमत्वात् न हि स सिद्धो विद्यते | यस्मिन् सति पुनरपरो न भविष्यति ॥ ॥ प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायामष्टादशपदव्याख्या समाप्तेति ॥ ॥३४॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अन्तक्रियापदम् एकोनविंशतितमं तु निगदसिद्धमेव, नवरं सम्यग्मिथ्यादृष्टया प्रतिपद्यमान एव, न तु प्रतिपतन्तः "सम्मा मिच्छं न उण |* मीसंति धयणाओ" (?) ॥ प० १९ ॥ साम्प्रतं विंशतितममारभ्यते । अस्य चायमभिसंबंध:-इहानन्तरपदे सम्यक्त्वपरिणामः प्रतिपादितः, इह तु परिणामस्य गतिपरिणामविशेषा एवान्तक्रियेति तत् प्रतिपादनार्थमिदमारभ्यते, इह चेदमादिसूत्र-'जीवे णं भंते अंतकिरियं करिज्जा' इत्यादि, तत्र प्रज्ञापनो अमनमन्तः अवसानं, कस्य ? कर्मणः, तस्य तस्मिन् वा क्रिया अन्तक्रिया, कान्तकरणं मोक्ष इत्यर्थः, "कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्ष" पांगम् | इति वचनात् , शेषं पुनः प्रायः सूत्रसिद्धमेव यावत् 'रयणप्पभापुढविनेरइप णं भंते !० अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लमेज्जा?' १९ सम्यक इत्यादि, अनंतरागता विवक्षितभवानन्तरभवस्था उच्यते, तथा स्त्रीणां विंशतिर्बहुतरप्रव्रजनात्, 'जस्स गं नेरयस्स तित्थगरनामगोत्ताई कम्माई बद्धाइ'ति-बन्धमात्र, पुट्ठाई, निधत्तानि-उद्वर्तनापवर्तनकरणवर्जशेषकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः, कडाइंतिनिकाचितानि सर्वकरणायोग्यत्वे व्यवस्थापितानि, पट्टवियाइंति मनुष्यगतिपंचेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तसुभगादेययश कीर्तिनामकर्मसहोदयत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः, "णिविट्ठाईति तीव्रानुभावतया, अभिसमन्वागतानीति-उदयाभिमुखीभूतानि, 'उदिण्णाई' विपक्कानि शेष ग्रन्थत एवानुसरणीयं, यावत् 'अह भंते !' इत्यादि तत्रासंजतभव्यद्रव्यदेवा के ? उच्यते, असंयताः-चारित्रपरिणामशून्याः, भन्याः-देवत्वयोग्याः, अत एव द्रव्यदेवा इति, समासश्चैवं असंयताश्च ते भव्यद्रव्यदेवाश्चेति, तत्रैते असंयतसम्यग्दृष्टयः किलेत्येके, यतः किलोक्तं-"अणुब्वमहन्वएहि य बालतवोऽकामनिजराए य । देवाउयं निबंधति सम्मदिट्ठी य जो जीवो ॥१॥" पतञ्चायुक्तं, यतोऽमीषामुत्कृष्टत उपरिमप्रैवेयकेषु उपपात उक्तः, सम्यग्दृष्टीनां तु देशविरतानामपि न तत्र विद्यते, देशविरतश्रावकाणामप्यच्युताद् ऊर्ध्वमगमनात्, [सम्यग्दृष्टीनां तु देशे] नाप्येते निवास्तेषामिहैव मेदेनाभिधानात् , तस्मान् मिथ्यादृष्टय एव भव्याभव्यमेदाः श्रमणगुणधारिणः अखिलसामाचार्यनुष्टानयुक्ता द्रव्यलिङ्गधारिणो गृह्यन्ते, तेऽप्यखिलकेवलक्रियाप्रभावत पवोपरिप्रैवेयकेषूत्पद्यन्त इति, असंयताश्च सत्यप्यनुष्ठाने चारित्रपरिणामशून्यत्वात् । अविराधितसंयमाः-प्रव्रज्याकालादारभ्याभप्रचारित्रपरिणामाः, स्वल्प ॥३५॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** मायादिसंभवेऽप्यनाचरितोपघाता इत्यर्थः, अन्यथा पीठादीनामनुत्तरसुरेषूपपाताभावः स्यात् । विराधितसंयमाः प्रतिपक्षतो भाव- * नीयाः । अविराधितसंयमासंयमाः - प्रतिपत्तिकालादारभ्याखंडितदेशविरतिपरिणामाः श्रावकाः, इतरे प्रतिपक्षतो वेदितव्या इति । असंज्ञिनो ये अकामनिर्जरादिभ्यो देवेषूपपद्यते । तापसाः परिशटितपत्राद्युपभोगिनः । कंदर्पिकाः - व्यवहारतश्चरणवंत एव कन्दर्पकौकु व्यादि कुर्वन्ति, उक्तं च "कंदप्पे कुक्कुइप दवसीले यावि हासणकरे य। विम्हाविंतो य परं कंदप्पं भावणं कुणइ ॥ १ ॥ कहकह २० अन्त० * कहस्सहसणं कंदप्पो अनिहुया य संलावा । कंदष्पकहाकहणं कंदप्पुवएस संसा य ॥ २ ॥ भमुहणयणाइपहिं वयणेहि अ तेहिं तेहिं तह चिट्ठ | कुणइ जह कुक्कुअं चिभ इसइ परो अप्पणा अहसं ॥ ३ ॥ वाया कुक्कुइओ पुण तं जंपर जेण हस्लप * अन्नो । णाणाविहजीवरुते कुव्वति मुहतूरण चैव ॥ ४ ॥ भासति दुतं २ गच्छप य दप्पिअव्व गोविसो सरए । सव्वदवहवकारी * * फुहृति व ट्ठिओ वि दप्येणं ॥ ५ ॥ बेसवयणेहि हासं जणयंतो अप्पणो परेसिं च । अह हासणोति भण्णति धयणोव्व छले जिय च्छंतो ॥ ६ ॥ सुरजालमादिपहिं तु विम्हयं कुणति तब्विहजणस्स । तेसु न विम्हयइ सयं आहट्टकुहेडगेसुं च ॥ ७ ॥ जो संजतोषि * एयासु अप्पसत्थासु भावणं कुणति (वट्टर कहंचि) । सो तव्विहेसु गच्छति सुरेषु भइओ चरणहीणो ॥ ८ ॥” चरकपरिव्राजकाः- * धाटिभिक्षोपजीवित्रिदण्डिनः, किल्विषिकाः-व्यवहारतश्चरणवंत एव ये ज्ञानाद्यवर्णवादिनः उक्तं च- "णाणस्स केवलीणं धम्मा* यरियाण सव्वसाहूणं । माई अवण्णवादी किव्विसिय भाषणं कुणति ॥ १॥ काया क्या ये ते चियते चैव पमाय अप्पमादाय । * मोक्खाहिगारिगाणं जोइसजोणीहिं किं कज्जं ? ॥ २ ॥ एगंतरमुप्पादे अण्णोष्णावरणता दुवेण्हंपि । केवलदंसणणाणाणमेगकाले य_पगतं ॥ ३॥ जच्चादीहिं अवण्णं विहसति वट्ट नया वि उववाए। अहितो छिद्दप्पेही पगासवाती अणणुकूलो ॥४॥ भविसह णा तुरियगती अणाणुवित्तीय अवि गुरूणंपि । खणमेत्तपीतिरोसा गिहिवच्छलगा य संचइया ॥ ६ ॥ गूहति आतभावं घापति गुणे * परस्स संतेऽवि । चोरो व्व सव्वसंकी गूढायारो वितहभासी ॥ ६ ॥ तिर्यञ्चो- गवाश्वाद्यो देशविरतिप्रभावतो भावनीया इति । * आजीविकाः - पाखंडिकविशेषाः, गोशालमतानुसारिण इत्येके, आजीवंति वा येऽविवेकतो लब्धिपूजाख्यात्यादिभिस्तपश्चरणादीति । श्रीप्रज्ञापनो पांगम् अन्तक्रियापदम् ॥३६॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनो पांगम् २० अन्त० २१ शरीर० *+ आभियोगिकाय इहाभियुंजते विद्यादिभिरिति । स्वलिङ्गिनस्तु व्यापन्नदर्शना णिण्डवा इति । रइयादीणं असण्णिआउयस्स अप्पबहुत्तं आउगस्स दीहहरुसते पडुच्च, शेषं सुगमम् । ॥ प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायां विंशतितमपदव्याख्या समाप्तेति ॥ == अन्तक्रियापदं शरीर * पदं च साम्प्रतं एकविंशतितममारभ्यते, अस्य चायममिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे गतिपरिणामविशेषोऽतक्रियापरिणाम उक्तः, * इहापि गतिपरिणामविशेष एव शरीरस्यावगाहना संस्थानादीनि च नरकादिगतावुत्पन्नानां चिंत्यन्त इति, तत्रेह संग्रहगाथा - * "बिधिसंठाणपमाणे पोग्गल चिणणा सरीरसंजोगो | दव्वपदेसप्पबहु सरीरभोगाहणप्पबहुं ॥ १ ॥ तत्र 'कह णं भंते! सरीरा' इत्यादि * * सूत्रसिद्धं 'यावत् आहारगसरीरस्स जहण्णेणं देसूणा रयणी' तथाविधप्रयत्नविशेषतस्तथारम्भकद्रव्यविशेषतश्च प्रारम्भकालेऽप्युक्त- * प्रमाणभावात् शेषं सुगमं यावत् 'जीवस्स णं भंते मारणंतियसमुग्धापणं समोहयस्स तेयगसरीरस्स के महालिया सरीरो* गाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सरीरप्पमाणमित्ता विक्खंभबाहल्लेणं' तत्थ विक्खंभो उरोदरवित्थरो बाहलं उदरपिठिघोंटत्तणं, आयामेति आयामो- दैर्घ्य, 'जहणणेणं अंगुलस्स असंखिज्जरभागं' आसण्णे उववजमाणस्स धिप्पर, 'उक्कोसेणं लोगंताओ लोगंत' अहोलोगंताओ उडलोगंते उववज्जमाणस्स, अयं च एगिंदियाण चेव भवति सुहुमबादराणं, न सेसाणंति 'बेइंदियस्स तिरिय* लोगातो लोगंतो' कहं ? जेण एगिदिएसु वि समंतातो उववज्जति, बेइंदियस्स तिरियलोगाओत्ति, अण्णहा उडलोगा अहोलोगतो * एकदेस भावेवि ते संति वेब 'णेरइयाणं आयामेणं जहणणेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं' कहं ? नरकगत्याः (कादुद्धृत्य ) पातालकुयं मिदेत्ता मच्छेस पातालातो वा मच्छस्स नरगेसु उववज्जमाणस्स, अन्ये तु व्याचक्षते - नारकाणां योजनसहस्रं, कहं ? * सीमंतको नाम नरकः सर्वोपरिवर्ती वज्रमयो योजनसहस्रबाहुल्यकुड्यः, इतो योजनसहस्रमवगाह्य तत्र ये नारका मत्स्या भवितु ॥३७॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीरपदम् कामास्ते तदासनसमुदातगतास्तत्र सहस्रं लभते, भवणवतिवाणमंतरजोइसियसोहम्मीसाणाणं य जघन्यतोऽङगुलस्यासंख्येयश्री- भागः, कथं ? पतेसिं एगिदिएसु उववातो अत्थित्ति, तेन ते स्वाभरणेष्वङ्गदादिषु कुण्डलादिषु वा ये मणयः पद्मरागादयः तेषु | प्रज्ञापनो गृद्धा मूच्छितास्तदध्यवसितास्तेष्वाभरणकादिषु पृथिवीकायिकत्वेनोत्पद्यन्ते, इह तु पूज्याः खल्वेवं भावार्थमतिवर्णयंति-यथोपपात- 1* पांगम् देशगतजीवप्रदेशापेक्षयैतदुच्यते, कुतः? मणेः तदुपपातक्षेत्रस्य वा तच्छरीरविष्कंभवाहुल्यायोगात्, न च तत्र गतोऽपि तत्र २१शरीर०संघातमधिकृत्य तदाहारकस्तदा भवति, तदा विष्कंभं बाहुल्यं चोपसंहत्य सर्वात्मना तत्र प्रतिष्ठो भवतीति, अयं च स्वाभरणा- | दावुत्पद्यमान पव द्रष्टव्य इति, स्थापना । अहे जाव तच्चा पुढवीति, तत्र गता एव म्रियन्त इति, तिरियं सयंभूरमणस्स बाहिरिल्ले वेदियंते जे पुढविकाइया तेसु उववज्जमाणस्स, उहूं इसीपब्भाराए पुढविकाइयत्तणेण, सनत्कुमारदेवस्य जघन्यतः अंगुलस्यासंख्येयभागः, कथं ? ते एकेन्द्रियेषु विकलेन्द्रियेषु वा नोत्पद्यन्ते यत्र पंचेंद्रियतिर्यङ्मनुष्यास्तत्रोत्पत्तव्यमिति, पुष्करिण्यादिषु जलावगाहनादि कुर्वतस्तत्रैव मत्स्यादित्वेनोत्पत्तिः, पूर्वसम्बन्धिनी वा स्त्रियं परिष्वज्य मृतस्य इहागतस्य लभ्यते, उत्कृष्टतः अधोलवणे, महापाताला लक्षप्रमाणास्तेषामधः त्रिभागो वायुपूर्णः उपर्युदकस्य त्रिभागः, मध्ये द्वितीयत्रिभागो वायूदकयोरुत्सरणापसरणधर्मः, तत्र मत्स्यादिषूत्पद्यते, तिर्यक् स्वयम्भूरमणे मत्स्यादिष्वेव, ऊर्ध्वं यावदुक्त (दच्युत) इति, अन्यदेवनिश्रागतस्य, न तत्र वाप्यादिषु मत्स्यादय इतीहव तिर्यङ्मनुष्येषूत्पत्तिः, एवं यावत् सहस्रारदेवस्य, आनतादिदेवा मनुष्येष्वेवोत्पद्यन्ते, तत्रागुलासंख्येभागः, कथं ? उच्यते, इह पूर्वसम्बन्धिनी मनुष्यस्त्रियं मनुष्येणोपभुक्तामुपलभ्यासन्नमृत्युत्वाद्विपरीतस्वभावत्वात् , सत्त्वचरितवैचित्र्यात् कर्मगतेरचिंत्यत्वात् कामवृत्तमलिनत्वाद्, उक्तं च “सत्त्वानां चरितं चित्रमचिन्त्या कर्मणां गतिः । मलिनानत (नत्वं च) कामानां, वृत्तिः पर्यन्तदारुणा ॥१॥" इत्यतः कथंचित्तामेव परिधिज प्वज्य (परिभुज्य) तदवाच्यप्रदेशे स्वावाच्यं प्रक्षिप्य मृतस्य सतस्तस्या पव गर्ने मनुष्यत्वेनोत्पद्यमानस्य लभ्यत इति, जेण भणियं-"मणुस्सवीए णं भंते ! कालतो केवच्चिरं ? गो० जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता" तेन द्वादशमुहूर्ताभ्यन्तरे उपभुक्तां तां परिष्वज्य मृतस्य तत्रवोत्पत्तिर्मनुष्यत्वेन, एवं * $$$$索$$$$$ ॥३८॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री- प्रज्ञापनो पांगम् २१शरीर० २२ क्रिया * पावदच्युतदेवस्य अधस्तिर्यक् कंठोक्तं । अवेयकादयो वन्दनाद्यपि तत्रस्था पब कुर्वन्ति तेन इहानागमनादंगुलासंख्येयभागासंभव |* | शरीरपद इति । शेषं सुगमं यावत् ओरालियसरीरस्स पोग्गला चिजंति णिव्वापारणं छदिसंति, जत्थ ओरालियसरीरिणो जीवस्य छसुवि दिसासु पोग्गलाणं संभवो अत्थि, वाघापणं सिय तिदिसिं चउदिसिं पंचदिसिं चेति, सुहुमनिमओयजीवाणं लोगते अवगाहणं जत्थ क्रियापदं च उहुं लोगागासं णस्थि, तिरियपि पुग्वेण णस्थि, उत्तरेण णस्थि, अहे दक्खिणेणं अवरेण वि अत्थि, तत्थ तिदिसिं, जत्थ उत्तरेण तत्थ चउदिसिं, जत्थ पुब्वेण अस्थि तत्थ पंचदिसिं, अयं व्याघातः लोकान्ते स्थितस्य । शेषं सुगमं यावत् तेयाकम्माणं च ओरालियसरीरजहण्णोगाहणाओ विसेसाहिया, कहं ? मारणंतियसमुग्धापणं समोहतस्स पुब्बसरीराओ अन्नं सरीरं गिण्हंतस्स जहण्णावगाहेऽवि तदंतरालं तदपि ब्याप्तमिति विशेषाधिकाः, शेषं गतार्थम् ॥ ॥ प्रज्ञापनांप्रदेशव्याख्यायामेकविंशतितमपदव्याख्या समाप्तेति ॥ साम्प्रतं द्वाविंशतितममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे गतिपरिणामविशेष एवेति कृत्वा शरीरावगाहनादि चिन्तितं, इह नारकादिपरिणामेन परिणतानां जीवानां प्राणातिपातादिक्रियाविशेषश्चिन्त्यत इति, इह चेदमादिसूत्रम्-'कतिणं भंते । किरियाओं' इत्यादि, तत्र करणं क्रिया, कर्मनिबन्धना चेष्टेत्यर्थः सा च पंचधा, तंजहा-काइया इत्यादि, तत्र चीयत इति | कायः, काय एव कायेन वा निवृत्ता कायिकी, तथाऽधिक्रियते नारकादिष्वात्माऽनेनेत्यधिकरणं देहादि तस्मिन् भवा तेन वा निर्वृत्ता आधिकरणकी, तथा प्रद्वेषो-मत्सरः कर्मबन्धहेतुरकुशलो जीवपरिणाम इत्यर्थः तस्मिन् भवा तेन वा निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी, तथा परितापनं परितापः पीडाकरणमित्यर्थः तस्मिन् भवा तेन वा निर्वृत्ता पारितापनिकी, तथा प्राणातिपातक्रिया, इहेन्द्रियप्राणादयः ॥३९॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणास्तेषामतिपातो - विनाशः प्राणातिपातस्तस्मात् क्रियेति समासः, तत्र कायिकी द्विभेदा, तद्यथा - अणुवरयाकाइया य दुप्पउत्त काइया य, तत्र नोपरतोऽनुपरतः, दुष्प्रयुक्तश्चासौ कायश्चेति तस्मिन् भवा तेन वा निर्वृत्ता दुष्प्रयुक्तकायिकी, इयं प्रमत्तसंयतस्यापि * क्रियापदम् भवति, प्रमादे सति कायदुष्टयोगनियमात् । तथा अधिकरणिक्यपि द्विमेदा, तद्यथा-संजोयणाधिकरणिया य णिव्वत्तणाधिकरणया पांगम् *य, तत्र संयोजन हलगरविषकूटयंत्रादीनां तदेव संसारहेतुत्वादधिकरणमिति -समासः पूर्ववत्, इयमप्यनन्तरसंयोजयितुर्भवतीति, क्रिया० २२ एवं अक्षरगमनिका स्वबुद्धधैव कार्या, तथा निवर्त्तनं असिशक्तिकुन्ततोमरादीनामिति, पंचविधस्य वा शरीरस्य, तथा प्राद्वेषिकी त्रिविधा, तद्यथा- 'जे णं अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा असुभं मणं पहारेइत्ति' यः कश्चित् णमिति वाक्यालङ्कारे, आत्मनः* स्वस्य वा, परस्य वा अन्यस्य वा तदुभयस्य वा स्वपरोभयस्य अशुभं - अकुशलं मनः - अन्तःकरणं प्रधारयति - प्रकर्षेण धारयति * प्रधारयति करोतीत्यर्थः, अत्रैके व्याचक्षते - आत्मन उपरि तथा परस्य तदुभयस्येति, तथाचात्मन एवोपरि कस्मिश्चिदाचरिते सति विपाकदारुणे संवृत्ते अविवेकतः अकुशलं मनः प्रधारयति, एवं परस्य तदुभयस्य चेति भावनीयं, अथवा 'जेणं' ति येन विशेषेणा* त्मनः परस्य तदुभयस्य वा अकुशलं मनः प्रद्वेषहेतुत्वादिति, नैतदेवं, वीतरागादिचेष्टाया निरवधत्वादनुमत्यभावात्, सावद्यचेष्टातश्च * सा भवति, संसाराभिनन्दिनः आत्मा प्राद्वेषिक्येव वस्तुतो वेदितव्या इति, बह्नत्र वक्तव्यं तन्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति । पारितानिकी त्रिविधा, तद्यथा- जेणं अप्पणो बेत्यादि, असातां दुःखरूपां वेदनामुदीरयति । आह एवं सति लोचाकरणतपोऽनुष्ठा*नाकरणप्रसंगः, नैतदेवं, विपाकहेतत्वेन चिकित्साकरणवल्लोच करणादेर सातत्वानुपपत्तेः अशक्यकरणप्रतिषेधाश्च । उक्तं च- "सो हु ** तवो कायव्वो, जेण मणो मंगुलं न चिंतेइ । जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा ण हायंति ॥ १ ॥” तथा प्राणातिपातक्रिया त्रिविधा तद्यथा-जेणमित्यादि, जीविताद् व्यपरोपयति-जीविताद् भ्रंशयतीत्यर्थः, अत एवाकारणे अकालमरणमपि निषिद्धमिति । शेषं सूत्रसिद्धं * * यावत् 'अस्थिणं भंते! जीवाण' मित्यादि, इह विषयविषयिभावश्चिन्त्यते, तत्र विषयः षट् कायाः, विषयिणी प्राणातिपातक्रिया । आहैवं वक्तव्यं अस्ति जीवेऽपि प्राणातिपातक्रिया ?, हंतः अस्ति, हंत संप्रेषण प्रत्यवधारणविवा (पा) देषु इह तु प्रत्यवधारणे, श्री प्रज्ञापनो 118011 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रज्ञापनो क्रियापदम् पांगम् २२ क्रिया यद्यस्ति कास्ति ? षट्सु जीवनिकायेषु इति, किमुच्यते कज्जतीति उच्यते अनतीतनयाभिप्रायात्मकोऽयं प्रश्नः कतमोऽत्र नयोऽयमध्यवस्य पृच्छति ? उच्यते ऋजुसूत्रः, यस्माद् ऋजुसूत्रस्य हिंसापरिणतिकाल एव प्राणातिपातक्रिया, नान्यथापरिणतस्य, एवं च सूत्रोक्तं-"आता चेव अहिंसा आया हिंसत्ति णिच्छओ एस" त्ति, आत्मैव हिंसापरिणतेः हिंसेत्युच्यते, अतः क्रियमाणैव क्रिया, नान्यथा, एवं सर्वत्र भावनीयं, नवरं विषयः “पढमंमि सव्वजीवा बीए चरिमे य सबदब्वाई । सेसा महब्वया खलु तदेकदेसेण दव्वाणं ॥ १॥" शेष सूत्रसिद्धं यावत्-'जीवे णं भंते! पाणाइवाएणं कति कम्मपगडीओ बंधतीत्यादि, अत्र सप्तविघबन्धका आयुर्वयः अष्टविधबन्धकाः सहायुषा, एवं जहेव सुत्तं सत्तविहबंधकावि अट्टविहबंधगावि, तत्रायुर्बन्धाध्यवसानसहिता अट्ठविहबन्धका., तद्विरहात् सप्तविधबन्धका इति, यस्मादन्तर्मुहूर्तमायुर्बन्धो भवति शेषाश्च मूलप्रकृतयः प्रतिक्षणं बध्यन्त इति, एतच्च | द्रव्यार्थनयदर्शनेनाविरतिं प्रत्युक्तं, इतरथा हि ध्रुधबंधित्वात् ज्ञानावरणादिप्रकृतीनां विग्रहगतावपि बन्धोऽस्ति मूलप्रकृति प्रति, न | तु हिंसादिपरिणतिकाल एव गृह्यते । शेष सूत्रसिद्धं यावत् जीवाणं भंते ! णाणावरणिजं कम्मं बंधमाणा कति किरिया' इत्यादि, | कः अस्यामिसम्बन्धः?, उक्तं जीवाः प्राणातिपातेन सप्तषिधं वा अष्टविधं वा कर्म बध्नाति, इह तु तमेव प्राणातिपातं झानावर| णीयादि कर्म बध्नन् जीवः कतिभिः क्रियाभिः संप्रा(मा)पयतीति, किंच कार्येण झानावरणीयकर्माख्येन कारणस्य प्राणातिपाता| ख्यस्य निवृत्तिमेदाः प्रदश्यते, तद्भेदाच्च बन्धविशेषोऽपीति, तथा चोक्तं-"तिसृभिश्चतसृभिरथ पंचभिश्च हिंसा समाप्यते क्रमशः । |बन्धोऽस्य विशिष्टः स्यात् योगप्रद्वेषसामान्य( साम्यं चेत्) ॥१॥" चेति, कार्यकारणव्यवस्था च आपेक्षाकृता, यथा प्राणातिपातः | कारणं बन्धस्य तथा बन्धोऽपि संसारकारणमिति, निवृत्तिमेदं दर्शयति 'सिय तिकिरिए' इत्यादि, काइयअधिकरणीयपाओसि| याहिं तिकिरिए, काइयअधिकरणीयपाओसियपारियावणियाहिं चउकिरिए, काइयअधिकरणीयपाओसियपारियावणियपाणाइवाय| किरियाहिं पंचकिरिए, शेष निगदसिद्धं, 'जीवे णं भंते ! जीवाओ काकिरिए' इत्यादि, अथ कोऽस्य सम्बन्धः?, उच्यते, न *केवलं वर्तमानभववर्तिनो जीवस्य ज्ञानावरणीयादिकर्मबंधभेदप्ररूपणायां कायिक्यादिक्रियाविशेषेण प्राणातिपातमेदः प्रदश्यते, ॥४१॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रज्ञापनो पांगम् २२ क्रिया किरिए, तत्रेयमुपपत्तिः, यस्माद् भवनवास्यादयो देवाः तृतीयां पृथिवीं गता गमिष्यन्ति च उक्तं ते पुनः कथं गता गमिष्यन्तीति?* पुन्वसंगत्यस्स वेदणमुवसामणताए, पूर्ववैरिणो वा वेदनोदीरणार्थ तत्र गता नारकैzध्यंत इत्यप्यन्तकाल एव कथंचित् संभवमात्रमेत क्रियापदम् दिति । सिय अकिरिए तत्थ कहं ? जस्स सरीरे एकदेसेणं अभिघातादिसंभवो णत्थि, तं पडुच्च भण्णति सिय अकिरिय इति । अत्र पर आह-नारकस्य कथं द्वीन्द्रियादिभ्यः कायिक्यादिक्रियाः ? उच्यते, यस्मात् पूर्वभवशरीरं न व्युत्सृष्टं, जाव तं शरीरं जीवेणं निव्वत्तियं तभावं ण छडेत्ति ताव तत् पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्य (मते) तस्यैवेति व्यपदिश्यते, "घृतघटन्यायेन," अतस्तेन शरीरेण एकदेशेन अस्थ्यादिना योऽन्यः प्राणातिपातं करोति, ततः पूर्वनिवर्तितशरीरजीवोऽपि कायिक्यादिक्रियाभिर्योज्यते, अव्युत्सृष्टाधिकरणत्वात् , यतो न केवलं कायिकीचेष्टात एव, अव्यापारादपि भवति, अधिकरणत्वात् कायस्य अधिकरणिकी च, प्राद्वेषिकी तु कथं ? यदा तु तमेव जीवशरीरैकदेशमभिघातादिसमर्थ अन्यः प्राणातिपातोद्यतो दृष्ट्वा तस्मिन् घात्ये द्वीन्द्रियादौ समुत्पन्नक्रोधादिकारणः, अभिघातादिसमर्थ च पारितापनिकी प्राणातिपातक्रिया च शेष निगदसिद्धं यावत् 'जस्स ण' मित्यादि, इदानीं कायिक्यादीनां एक-| जीवाश्रयाणां परस्परं अविनाभावित्वं चिन्त्यते 'जस्स णं कायिकी'त्यादि, इह कायिक्रीक्रिया प्राणातिपातनिर्वर्तनसमर्था प्रतिविशिष्टौदारिकादिकायाश्रयैव गृह्यते, न कार्मणशरीराधया, अत आद्यानां तिसूणां क्रियाणां परस्परतो नियम्यनियामकभावः, कथे? कायस्याधिकरणत्वात् काये सति अधिकरणकी भवति, काये च सति प्रद्वेषः स्फुटलिंगो भवति रूक्षवक्त्रादिना, तथाचोक्तं "रूक्षयति रुष्यतो ननु वक्त्रं स्निह्यति च रज्यतः पुंसः । औदारिकोऽपि देहो भाववशात् परिणमत्येवम् ॥१॥” इति परितापनस्यानियमः कथं ? यद्यसौ घात्यो मृगादिः घातकेन धनुषा क्षिप्तेन विध्यते ततस्तस्य परितापनं मरणं वा भवति नान्यथा, ततोऽनियमः, शेष प्रकटाथै यावत् 'समयं ण' मिति कालग्रहणं 'जं देसपदेसमिति क्षेत्रग्रहणं यथा चैताः, कायिक्यादिक्रियाः ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धकारणं, तथैव एताः संसारकारणमिति पृच्छति, न केवलं कारण एव कार्यमुपचर्यते, किन्तु ॥४२॥ कारणेष्वपि कार्योपचारो भवतीति, आह च-'कति णं भंते ! आयोजियाओ किरियाओ' इत्यादि, आयोजयंति आत्मानं संसार Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रज्ञापनो क्रियापदम् पांगम् २२ क्रिया किन्तु अतीतभवकायसम्बन्धिकायादिक्रियाविशेषेणापि प्राणातिपातादि, भमंतेहिं सव्वजीवहिं तेसु तेसु ठाणेसु शरीरायुधादिणो विप्पमुत्ता, तेहिं सत्थ(त्थाइ)भूएहिं यदा कस्सदि स्वतः परतो वा परियावणादयो भवंति तदा तस्सामिणो भवंतरगतस्सवि तदनिवृ| त्तत्वात् किरिया संभवंति, व्युत्सृष्टेषु तु निवृत्तस्य न भवंति, पत्थ उदाहरणं वसंतपुरे नगरे,अजियसेणस्स रण्णो परिचारगा दुवे कुलपुत्तगा, तत्थेगो समणसड्डो, इयरो मिच्छादिट्ठी, अन्नया रयणीए रनो निस्साए ससंभम तूरंताणं तेसिं घोडगारूढाणं खग्गा पसढा(णा)सडेण मग्गियं, जणकोलाहलओ य, नटुं, इयरेण हसियं-किमन्नं न होही ? सडेण अहिगरणंतिक? वोसिरियं, इयरे खग्गाते खग्गा बंदिग्गहसाहसिगेहिं लद्धा, गहिओ य णेहिं रायवल्लहो पलायमाणो वावाइओ य, ततो आरक्खिगेहिं गहिऊण रायसमीवं नीता, कुपितो राया, पुच्छियं चणेण-कस्स तुम्मे ? तेहिं भणियं-अणाहा, कल्लंचिय कप्पडिया, पत्थ अम्ह खग्गा, कहिं लद्धित्ति पुच्छिए भणियं-पडियत्ति, तओ सामरिसेणं रण्णा भणियगवेसह तुरियं मम अणवादवेरियाणं ईसरपुत्ताणं महापमत्ताणं केसि इमे खग्गेत्ति, तओ तेहिं निउणं गवेसिऊण विष्णत्तं रणोसामि! सुण गुणचंदबालचंदाणंति, ततो रण्णो पिहं पिहं सद्दावेऊण भणिता-लेह नियखग्गे, एक्केण गहियं, पुच्छितो रण्णा-कहं पुण ते णटुं ?, तेण कहियं, कीस न गविटुं ?, भणति, सामि! तुज्झ पसारण पद्दहमेत्तपि गबेसामि?, सहोण इच्छति, रण्णा पुच्छितो-कीस न गिण्हसि ?, तेण भणितं-सामि ! अम्हाणमेस ट्रिइ चेव नत्थि जमेवं एडि(गेण्ह)ज्जति, अहिगरणतणतो, संभमे य मग्गंतणवि न य लद्धति वोसिरियं, अतो ण कप्पति मे गिहिउं, ततो रण्णा पमादकारी अणुसासिओ, इयरो विप्पमुक्को, एस दिट्ठतो, इमो य से अत्थोवणतो, जहा-सो पमायगम्मेण अवोसिरणदोसेण अवराह पत्तो एवं जीवोवि जम्म॑तरम्भत्थंपि देहाउधादि अवोसिरंतो अणुमतिभावतो पावेद दोसं, श्रूयते च जातिस्मरणादिना विज्ञाय पूर्वदेहमतिमोहात् सुरनदी प्रत्यस्थिशकलानि नयंतीत्यलं विस्तरेण ।। 'जीवे णं भंते जीवातो' इत्यादि, तत्र नारकादेवान् प्रति चतुष्क्रिया एव, "अनपवायुषो नारका देवान्" इति वचनात्, औदारिकशरीरिणः संख्येयवर्षायुषः प्रति पंचापि क्रियामेदाः संति, तेऽपवायुष इति, जत्थ नेरहयदेवाओ पंच(चउ)-124 ॥४३॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनो पांगम् २२ क्रिया इत्यायोजिकाः, शेषं पूर्ववदेव । न केवलं षट् कायादयः प्राणातिपातादिक्रियाहेतव एव, किंतु तद्विरमणे विवक्षितहेतवोऽपि भवन्तीत्यतः पृच्छति-'अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवायवेरमणे कज्जा ? हंता कज्जई' इत्यादि, एवं 'जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणे णं क्रियापदम् तथा पाणाइवायविरयस्स बंधो अस्ति नास्तीति पृच्छति-'पाणाइवाय(विरए)वेरमणे णं भंते ! जीवे कति कम्मपगडीओ बंधती'त्यादि, आह-कृथं पुनर्विरतस्य बंधः? कोऽभिप्रायः ? यदि विरतिबन्धहेतुः स्यात्ततो निर्मोक्षप्रसङ्गः, यच्चोक्तम्-“सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्ग" इत्येतद्धीयते, उच्यते, न विरतिबन्धहेतुः, किंतु विरतस्य कषाययोगा बन्धकारणं देवायुष्कादीनां शुभप्रकृतीनां, तथा चोक्तं "तहारूवं णं भंते ! समणं वा माहणं वा पज्जुवासमाणस्स किंफला पज्जुवासणा? सवणफला' इत्यादि, जति णं भंते ! तहारूवस्स समणस्स वा २ पज्जुवासणा सवणफला तं चेव, किंपत्तिएणं भंते! देवा देवलोपसु उववजंति ? कम्मसंगियाए अज्जो! देवा देवलोपसु उववजंति, पुवतवसंजमेणं, सामाइयछेओवट्ठावणियपरिहारविसुद्धीयाइसु कसाया संभवंतीति, अतो विरतो बंधति । आरंभिया प्रमत्तसंजमस्स, कहं ? उच्यते यस्मादुक्तं-" संरंभो संकप्पो परितावकरो भवे समारंभो। आरंभो उद्दवओ सुद्धणयाणं तु सब्वेसि ॥१॥" तस्य च संज्वलनकषायोदयात् प्रमत्तत्वं, प्रमत्तत्वाच सांपरायिकबन्धः । मायावत्तिया अप्रमत्त-IN संयतस्य कथं? उच्यते-प्रवचनोडाहाच्छादनाथे बल्लीकरणसमुद्देशादिषु, तत्प्रत्ययबन्धः ईर्यापथः । शेषाः कण्ठ्याः । प्राणातिपात- | विरताः संयतमनुष्या पव, ते च सप्तविधबंधका आयुर्वन्धरहिताः, आयुष्कसहिता अष्टविधबंधकाः, षविधबंधका उभयश्रेणिप्रतिपन्नाः मोहायुर्वन्धरहिताः, एकविधबन्धका उपशान्तक्षीणकषायसयोगिकेवलिनः सद्वेद्यबन्धं प्रति, पतेषु यत्रैकवचनं तत्रोपयुज्य वक्तव्यं । अल्पबहुत्वाधिकारे-सव्वथोवाओ मिच्छादसणवत्तियाओ, कथ! मिथ्यादृष्टीनामेवेति । अपञ्चक्खाणकिरियाओ विसेसाहियाओ, येन असंयतस्स चेव मिच्छादृष्टेश्चेति, अतो विशेषाधिकाः, पारिग्रहिकी विशेषाधिका, येन देशविरतानां पूर्वयोश्च, आरम्भिकी विशेषाधिका, येन प्रमत्तसंयतस्यापि भवति पूर्वेषां च, मायाप्रत्ययिकी विशेषाधिका, येनाप्रमत्तसंयतस्यापि भवति पूर्वेषां च मिथ्यादृष्टिप्रभृतीनामिति ॥ ॥४४॥ ॥ प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायां द्वाविंशतितमपदव्याख्या समाप्तेति ।। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रज्ञापनोपांगम् २३ कर्म साम्प्रतं त्रयोविंशतितममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे नारकादिगतिपरिणामपरिणतानां जीवानां प्राणातिपातादि क्रियाविशेषश्चिन्तितः, इह पुनः कर्मबन्धादिपरिणामविशेषश्चिन्त्यत इति । इह चेयमधिकारद्वारगाथा-"कति पगडी कह |* कर्मप्रकृति बंधति कतिहिवि ठाणेहिं बंधए जीवो। कति वेदेह य पगडी अणुभावो कतिविहो कस्स ॥ १॥" 'कति णं भंते ! कम्मपगडीओं' पदम् इत्यादि, आह-उफ्तमेव क्रियापदे कति प्रकृतय इति-इह तु किमर्थं प्रकृतिसंख्याऽर्थः प्रश्नः?, उच्यते, अस्त्यत्र विशेषः-तत्रोक्तं शानावरणीयादि कर्म बनन् जीवः कतिमिः क्रियाभिर्युज्यते ?, क्रियाश्च प्राणातिपातहेतवः, प्राणातिपातश्च बाह्य ज्ञानावरणीयादिकर्मबंधकारणं, कर्मबन्धः कार्य; इह तु शानावरणीयादिकर्मबन्ध पवान्तरं कर्मबन्धकारणमित्ययं विशेषः । तथाचोकं "पुवभणितं तुजं भण्णती पुणो तत्थ- कारणं अस्थि । पडिसेह अणुण्णा वा कारण(हेउ)विसेसोपलभो वा ॥ १॥" बंधविशेषप्रतिपादनार्थ, न केवलं कायिकी क्रिया साम्परायिकबन्धस्य कारणं, ईपिथबंधस्य च । झानावरणीयादि पुनः साम्परायिकस्यैव, क्षीणावरणस्य केवलिनः कायक्रियानिमित्त ईर्यापथबंध एव । वाङ्मनोयोगावपि काययोगविशेष एव । अथ कोऽयं शानावरणीयादिकर्मक्रमनियमः ?, उच्यते, यस्मात् मानस्वतन्त्र आत्मा, तस्य शानस्वतन्त्रस्य आत्मनः स्वभावोपघाति शान(नावरणं)दर्शनावरणं च । ज्ञानदर्शनावरणयोः कथं प्राक् पश्चाद्वा?, उच्यते, यस्माच्छुभाशुभप्रकृतीनां शुभाशुभानुभावबन्धकाले साकारोपयुक्तस्य एकद्वित्रिचतुःस्थानिकरसविशेषनिवर्तनयोग्यान्यध्यवसायस्थानानि लभ्यन्ते, अनाकारोपयुक्तस्य शुभाशुभप्रकृतीनां शुभाशुभानुभाव (बन्धकाले) द्विस्थानिकरसनिवर्तकान्येव, साकारोपयोगश्च ज्ञानमित्यतो ज्ञानावरणं प्रथम, तथाचोक्तं कर्मप्रकृतिसंग्रहणिकायाम्| "अणगारप्पाउग्गा बिठाणगया उ दुविहपगडीणं । सागारा सव्वत्थवि" त्ति, पतदुक्तं भवति-जीवस्स संकिलेसपरिणयस्स विसोहियापरिणयस्स वा अणगारोवउत्तस्स सुभासुभपगडीणं सुभासुभदुट्ठाणियरसनिवत्तियाणि चेव अज्झवसाणठाणाणि लभंति, | 'दुविहपगडीणं' सुभाणं असुभाणं च 'सागारा सव्वत्थवी'ति सागारोवउत्तस्स सुभासुभपगडीणं सुभासुभएगठाणियदुट्ठाणियतिहाणियचउट्टाणियरसनिव्वत्तयाणि सव्वत्थ अज्झवसाणाणि लम्भंति । ततो वेध, यस्मात् सर्वमेव हि कर्म अनुभवकाले सुख ॥४५॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदम् दुःखवेदनारूपेणामिव्यज्यते । तत्र मानावरणविपाकः सुखदुःखरूपः, कथं ?, यस्मात् उक्तं "सम्भावस्स परित्राणं परतो य सुहित्तणं । पंचिंदियवसत्तं च पज्जत्तं दुखकारणं ॥१॥" सुखरूपस्तु व्यावाधाभावश्च सर्वशत्वे न भवति परमसुखी व्याबाधाभावस्तु कर्मप्रकृति श्री स्वस्थस्य, न तु सुखं । मोहनीयविपाकोऽपि सुखादिरूपः । देवमनुष्यायुषः सुखरूपः, शेषस्तु दुःखरूपः । तथा शुभनामकर्मप्रज्ञापनो विपाकः सुखरूपः, अशुभनामकर्मविपाको दुःखरूपः। गोत्रविपाकः उश्चैर्गोत्रं सुखरूपः, नीचर्गोत्रं दुःखरूपः । विघ्नविपाको दानादि, पांगम् दानं स्थानव्ययात् सुखरूपं, अस्थानव्ययाञ्चौरादिकात् प्रत्यपायानुभवाद् दुःखरूपः, इच्छितद्रव्यलाभात् सुखं तद्विपरीताददुःखं, २३ कर्म|* (इष्टाहारादेः सुखं अन्यथाभूतात् दुःख), अभीष्टवस्त्रालंकाराद्युपभोगात् सुखं, तद्विपरीताद्दुखं, बलसम्पन्नात् सुखं तद्धीनत्वाद् दुःखमिति । ततो मोहनीयं, यस्माद् इष्टानिष्टविषयसंबंधात् सुखदुखे, ते च रागद्वेषाभ्यां भवतः, रागद्वेषौ मोहनीयमिति, तत आयुष्कं, बह्वारम्भादीनां मोहनीयोदयात् । ततो नाम, नरकाद्यायुष्कसहोदयत्वान्नारकादिगतिनामादीनां । ततश्च गोत्रं, नारकादिभवाश्रयाभिव्यंग्यत्वात् । ततो विघ्नं, उच्चैःकुलोत्पन्नस्य दानलाभादिभिरभिव्यज्यते रा(ग)जप्रभृतीनां, नीचैःकुलोत्पन्नस्य तु विपर्यय इति । एवमेतेषां क्रम उक्तः । तत्र ज्ञानावरणीयमिति, मानमावियते येन कर्मणा करणेऽनीयरि ज्ञानावरणीयं विशेषावधारणमित्यर्थः । दर्शनावरणीयं सामान्यावबोधस्य । तथा वेद्यत इति कर्मणि अनीयरि वेदनीयं । मुह्यतेऽनेन मोहनीयं, सर्वत्र अनीयर् । तथा इण् गतौ पति याति चेत्यायुः, औणादिक उस् जनेरुसीति पतेणिश्चेति वृद्धिः । 'णमः प्रत्वे' गत्यादीन् शुभाशुभान् नमयतीति नाम । गूयत इति गोत्रं । अन्तरायो-विघ्नः, अन्तराये भवं अन्तरायिकं । शेषमुत्तानार्थ । यावत् | 'कहण्णं भंते ! जीवे अट्टकम्मपगडीओ बंधती'त्यादि, अत्र निर्वचनं 'गोयमा ! णाणावरणिज्जस्सेत्यादि, शानावरणीयस्य कर्मण उदयेन, किं?, दर्शनावरणीयं कर्म निर्गच्छति, निश्चयेन गच्छति निर्गच्छति विशिष्टोदयापनमासादयतीत्यर्थः । तथा दर्शनावरणीयस्य कर्मण उदयेन दर्शनमोहनीयं कर्म निर्गच्छति, विपाकावस्थं करोतीत्यर्थः, अस्यैवोदयेन मिथ्यात्वं निर्गच्छति, ततश्च मिथ्या-* ॥४६॥ . | त्वेन उदीर्णेन एवं खलु जीवोऽष्टकर्मप्रकृतीबध्नाति, खलुशब्दःप्रायोवृत्त्यर्थप्रदर्शनार्थः, प्रायस्तावदेवमन्यथा सम्यग्दृष्टिरपि कश्चिद् Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बध्नात्येव, कश्चिन्न बध्नातीत्यपि, सूक्ष्मसंपरायादिरिति । एतदुक्तं भवति पूर्वकर्म्म परिणामादुत्तरकर्म्मारम्भः यथा बीजादेवांकुरमूल* पर्णादीनामिति । ज्ञानावरणीयमुत्कर्षप्राप्तं दर्शनावरणीयं प्रपद्यते, दृश्यन्ते च शून्यवादिकुवादिनः कुशानवासिता विपरीतं पश्यन्त प्रज्ञापनो इति भावनीयं । शेषं सुगमं । यावत् 'जीवे णं बद्धस्से'त्यादि, नवरं 'वीरिओवग्गहिएहिं'ति जीववीर्योपगृही' तैरिति, तत्र जीवेण *+ पांगम् बद्धस्सेति रागद्वेषार्द्रत्वात् स्वामवस्थां प्रापितस्य, कर्म्मतया परिणतस्येत्यर्थः । 'पुट्ठस्स' आत्मप्रदेशैः सह लिष्टस्य । 'बद्धपासपुट्ट२३ कर्म० *स्से 'ति आवेष्टनपरिवेष्टनतया । संचितस्याबाधाकालातिक्रान्तस्योत्तरकालं निषक्तस्येत्यर्थः । चितस्य - बद्धस्य प्रदेशतया । उपचितस्य * * कर्मप्रकृति पदम् संक्रमणादिकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितस्येत्यर्थः । इदानीं क्रमं दर्शयति- 'आवागपत्तस्स' इत्यादि, आवागपत्तस्स प्रथमपाकाभि- ** मुखं प्रथमं तत् कर्म्म, ततो विपाकः, ततः पाकफलनिष्पत्तिः, ततः स्वरूपाभिव्यक्तिरुदयः, अत्र त्रपुष्याः फलमुदाहरणं, यथा पुषीफलस्य पुष्पदौर्हृदादि तत्सदृश आपाकः, आङ्शब्दः आदिकर्म्मणि यथा आरब्धमिति । तस्यैव यदा वृंतसंबद्धमेव नाल, काठिन्यश्यामादिगुणपरिणतं तत्सदृशो विपाकः । तदेव यदा आयत्तवृत्तादिना संस्थानविशेषेण परिणतं तत्- * सदृशं फलं । तदेव यदा तद्बीजकाटिन्यादिना पाकेन परिणतं तत्सदृशं उदयः । तत् पुनर्जीवेन कथं निबद्धमिति तत आह* 'जीवेण कयस्स' जीव उपयोगस्वाभाव्याद्रागादिपरिणत्या करोति, नान्यथा, किन्तु कर्म्मबन्धनबद्ध पव, तथाचोक्तं- "जीवस्तु कर्म बन्धनबद्धो वीरस्य भगवतः कर्ता । संतत्याऽनाद्यं च तदिष्टं कम्र्मात्मनः कर्तु ॥ १ ॥ "रिति । निर्वर्त्तितमिति यदपि बन्ध- * कालेऽविशिष्टज्ञानावरणीयादिकर्म्मयोगपुद्गलग्रहणं करोति तथाऽप्यनाभोगिकेन वीर्येण ज्ञानावरणादितया यद् व्यवस्थापनं तन्नि *वर्त्तितमित्युच्यते, रसादिसप्तधातुतया व्यवस्थापनं आहारस्येव । परिणामितमिति, विशेषप्रत्ययैः प्रद्वेषनिह्नवादिभिः बीजमिवाङ्कुरत्वेन । स्वयमुदीर्यते अतिप्रकर्षान्निरपेक्षं, परेणोदीर्यते यत् सापेक्षं । 'गतिं प्राप्य' नारकादिर्गतिः, तत्र असातोदयो यथा नारकाणां तीव्रो न तथा तिर्यगादीनां । 'स्थितिं प्राप्य', तत्रापि स्थितिप्रकर्षाः, 'भवं प्राप्य', यथा सत्यपि देवभवत्वे सामा* निकत्वाभियोग्यत्वादिर्विशेषः, अयं परनिरपेक्ष उदयो गत्यादिः । 'पोग्गलं पप्प' पोग्गलपरिणामं च पप्पत्ति, अयं सापेक्षः, तत्र ॥४७॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुङ्गल:- काष्ठलोष्टादिलक्षणः परिणामश्चाभ्यवहृतस्य वातादिलक्षण इति । तत्र निर्वचनं 'दसविह' मित्यादि, सोतावरणेत्यादि * श्रोत्रावरण इत्यनेन निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियं गृह्यते । तद्विज्ञानावरणा इति, लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियं गृह्यते । एवं सर्वत्र । एकेन्द्रियाणां चतुर्णामावरणं, द्वीन्द्रियाणां त्रयाणामावरणं, त्रीन्द्रियाणां द्वयोः, चतुरिन्द्रियाणामेकस्य, निर्वृत्युपकरणेन्द्रिययोः * प्राप्तयोरपि कुष्ठादिव्याधिभिरुपहतत्वात् तद्विज्ञानानुपलब्धिः, जात्यन्धजातिबधिरादीनां वा । 'जं' वेदेति पोग्गले वा' वेदयतीति पांगम् यदा सम्बन्धमुपयाति काष्ठादिना अभिघातजननसमर्थेन पुद्गलैर्वा, तदभिघातादिजनितेन मूर्च्छादिना तदा ज्ञानपरिणत्युपघातः । २३ कर्म० * 'पोग्गलपरिणामं चे'ति, अत्र वेदयतीति आहारितस्य वातिकपैत्तिकश्लेष्मिकभोजनस्योत्तरकालं रसादिना परिमितस्य वा * धातूनामुदयात् शानपरिणत्युपधाताः । तथा 'विस्ससा वा पोग्गलपरिणाम' मिति विश्रसापरिणामं शीतोष्णातपादिकं प्राप्य, तत्सम्बन्धाश्चेन्द्रियोपघातस्तदुपघाताच्च ज्ञानपरिणत्युपघातः, 'जाणियव्वं ण जाणती 'ति ज्ञातव्यमैन्द्रियकमपि सद्वस्तु ज्ञानपरिणतेः प्रतिहत्वान्न जानाति, अयं सापेक्षो विपाकः, निरपेक्षस्य तु अयं सूत्रालापः -तेसिं वा उदपणं तेषामिति ज्ञानावरणीयादिकमनु* भावविशेषाणां । 'जाणितुकामे ण जाणति'त्ति, ज्ञानपरिणामेन परिणतुमिच्छतो विज्ञानपरिणत्युपघातः । ' जाणित्तावि ण याणति'त्ति प्राक् ज्ञात्वापि पुनर्न जानीते तेषामेवोदयात्, तथा च अपरिणतिविपरिणत्योर्हेतुर्हि तदावरणमिष्टमिति । उक्तं च- "सापेक्षाणि व निरपेक्षाणि च कर्माणि फलविपाकेषु । सोपक्रमं च निरुपक्रमं च कष्टं यथाऽऽयुष्कं ॥ १ ॥” तत्र सापेक्षाणां वातिकपैत्तिकश्लेष्मिक*** भोजनशीतोष्णवर्षवातादीनर्थानपेक्ष्य, न तु सुखदुःखक्रोधादिपरिणामः । 'उच्छन्नणाणी यावि भवति'त्ति, ज्ञानज्ञानिनोरमेदात् प्रच्छादितज्ञान्यपि भवति । शेषं सुगमं । यावन्निद्देत्यादि, तत्र निद्रादीनां स्वरूपं - "सुहपडिबोहो णिद्दा दुहपडिबोहा य निनिदा जय । पयला होति ठियस्स उ पयलपयला य चंकमओ ॥ १ ॥ श्रीणगिद्धी पुण अतिसंकिलिट्ठकम्माणुवेयणे होति । महणिद्दा दिण* चिंतियवावारपसाहणी पायं ॥ २ ॥” चक्षुर्दर्शनावरणं चक्षुः सामान्योपयोगावरणमित्यर्थः, एवं शेषेष्वपि भावनीयं ।' जं बेयति पोग्गलं * वा' मृदुशयनीयादि, 'पोग्गले वा' मृदुशयनीयगन्धरूपगंडोपधानादीन्, 'पोग्गलपरिणामं वा' माहिषदध्याद्यभ्यवहारपरिणाम श्री प्रज्ञापनो *** कर्मप्रकृति पदम् 118211 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृति पदम् पांगम् २३ कर्मः/का मित्यर्थः, 'वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम' वर्णस्वभ्रसंभृतनभोरूपं धारानिपातादिरूपं वा, 'तेसिं वा उदपणं' दर्शनावरणीय कर्मानुभावविशेषाणां विपाकेन, 'पासियव्वं न पासतीत्यादि पूर्ववत्, नवरं दर्शनामिलापः। शेष सुगमं । यावत् 'मणुण्णा सद्दा प्रज्ञापनो- इत्यादि, तत्थ मणुण्णा आगंतुका बेणुवीणादिशब्दा गृह्यन्ते, आत्मीया अप्येके, एवं रूपादिष्वपि भावनीयं, इहतजन्यसातावेदन II नीयोदया तु भवइत्ति । मनोसुहता-सुखितं मनः, वइसुहता-आह्वादनीया वाक्, 'जं वेदेति पोग्गलं वा' स्रक्चन्दनादि, 'पोग्गले वा' बहुप तंबोलमादिए, 'पोग्गलपरिणामं वा' देशकालवयोऽवस्थानुरूपाहारपरिणाम, 'वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम' कालेऽभिल-* षितं शीतोष्णादिवेदनाप्रतीकाररूपं, 'तेसिं वा उदएणं' सातावेदनीयकर्मपुद्गलविशेषाणां विपाकेन, शेष प्रकटार्थ यावत् 'वइदुहिया' नवरं प्रतिपक्षतो भावनीयं, 'वेदेति पोग्गलं वा' विषशस्त्रकंटकादि, 'पोग्गले वा ते चेव बहू 'पोग्गलपरिणामं वा+ अपथ्याहारपरिणामं, वीससा वा पोग्गलाणं अकालेऽनिएशीतोष्णादिपरिणामं, 'तेसिं वा उदपणं' सातावेदणिजकम्मंसाणं विवागे* णंति । शेषमुत्तानार्थम् । यावत् 'सम्मत्तवेयणिज्जे' इत्यादि, सम्यक्त्ववेदनीयं नाम यदिह वेद्यमानं प्रशमादिपरिणामं करोतीति । मिथ्यात्ववेदनीयं तु विपरीतप्रशमादिपरिणामं । सम्यगमिथ्यात्ववेदनीयं मिश्रं । कषायवेदनीयं क्रोधादिपरिणामं। नोकषायवेदनीयं हास्यादिपरिणाममिति । 'जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा' पडिमा साहुमादीए, 'पोग्गलपरिणामं वा' देशाद्यनुरूपाहारपरिणाम * कर्मपुद्गलविशेषोपादानसमर्थमिति भावार्थः, श्रृयते च लोके फलादिभक्षणपरिणामात् देहाधिक्यादि 'वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम' अभ्रविकारादिलक्षणं, तथाच दृष्ट्वा भावयति-"आयुः सरिज्जलधरप्रतिम नराणां, सम्पत्तयः कुसुमितमसारतुल्याः । स्वप्नोपभोगसदृशा विषयोपभोगाः, संकल्पमात्ररमणीयमिदं हि सर्वम् ॥१॥" अन्यद्वा प्रशमादिपरिणामनिबन्धन मिति, 'तेसिं वा उदएण, मित्यादि, क्षुण्णार्थ यावत् परं रइयाउए इत्यादि. अत्र 'जं पति पोग्गलं वा' शस्त्राघायुष्कापवर्तनसमर्थ, 'पोग्गले वा बहुए पोग्गलपरिणाम वा' विषान्नादिपरिणामं 'वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम' शीतादिकमेवायुरपवर्तनक्षम, शेषं सूत्रसिद्ध यावत् 'इट्टा सद्दा' इत्यादि पते चात्मीया एव परिगृह्यन्ते, नामकर्मविपाकित्वात् , तंत्रीस्वनाद्युत्पादिता इति चैके, न चेदमति ॥४९॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शोभमन्यकम्र्मोदयनिर्वर्त्यत्वात् तेषामिति । इष्टा गतिर्मत्तवारणानुकारिणी, शिविकाद्यारोहणतचैके । इष्टा स्थितिः सहजा, सिंहासनादौ * चान्ये । इष्टं लावण्यं छायाविशेषलक्षणं, कुंकुमाद्यनुलेपनजमपरे । 'इट्ठा जसो कित्तित्ति, अत्र यशःकीत्यरयं विशेष: “दानपुण्यफला कीर्तिः, पराक्रमकृतं यश" इति, 'इट्टे उट्ठाणकम्मबलवी रियपुरिसक्कारपरकमे' तत्रोत्थानं देहचेष्टाविशेषः, कर्म-आरेचनभ्रमणादि, प्रज्ञापनो- * बलं - शारीरसामर्थ्यविशेषः, वीर्ये तु जीवप्रभवः, पुरुषकार:- अभिमानविशेषः सचेष्ट एव, निष्पादितस्वविषयः पराक्रम इति । पांगम् श्री २३ कर्म० अन्ये तु व्याचक्षते - उद्वाणं-डिंडिकादीनां त्रिपादारूढानां यनयनं कर्म - हलादिसम्बन्धनं कृष्यादि, बलं हलादिव्यायामजं शरीरं, पराभिभवजास्तु वीर्यपुरुषकारपराक्रमा इति एतच नातीव संगतमुक्तन्यायादिति । 'इट्ठस्सरता' वल्लभस्वरता, तत्र इट्ठा सद्दा * इति सामान्योक्तावियं विशेषोक्तिस्तदन्यबहु (तम) सत्वापेक्षा वगन्तव्येति । 'कंतस्सरता' तब कान्ताः - कमनीयाः, सामान्यतोऽभिलषणीयाः * इत्यर्थः 'पियस्सरता' भूयो भूयोऽभिलषणीयः प्रियः, 'मणुण्णस्सरता' तत्रोपरतवाचोऽपि प्रीतः श्रोतृस्मृतिजनको मनोशः, 'जं वेदेति पोग्गलं वा' वीणावर्णकगन्धताम्बूलपट्टशिबिकासिंहासनकुंकुमदानगजयोगगुलिकादि, 'पोग्गलपरिणामं वा' ब्राह्मधाद्याहारपरिणामं, * 'वीसला वा पोग्गलाणं परिणामं' शुभजलदादिकं 'तेसिं वा उदरण' मित्यादि सूत्रसिद्धं, एतदेव विपरीतमशुभस्य भावनीयमिति । गोत्रचिन्तायां 'जातिविसिद्धतेत्यादि, तत्र जात्यादयः प्रकटार्थाः । 'जं वेदेति पोग्गलं वा' यतो बाह्यद्रव्यसम्बन्धान्नीच कुलोत्पन्नोऽपि राजा दिविशिष्टपुरुषसंपरिग्रहाद्वा जात्यादिसंपन्न इव मान्यो भवति, बलमपि लकुटादिभ्रमणात्, रूपं प्रतिविशेषालंकारसम्बन्धात्, तपस्तु गिरिकूटाद्यारोहणेनातापनां कुर्वतः श्रुतं तु मनोज्ञसुदेशसम्बन्धात्, 'पोग्गले वा' बहुए, 'पोग्गलपरिणामं वा' दिव्यफलाहारपरिणामं, 'वीससा पोग्गलाणं' आकस्मिकाभिहितजलदागमादिसंवादलक्षणा, 'तेसिं वा उदपण' मित्यादि, सूत्रसिद्धं । एतदेव विपरीतं नीचैर्गोत्रस्य । अन्तरायचिन्तायां 'दाणंतराय' इत्यादि, तत्र दानान्तरायं यदुदयात् सति विभवे सत्सु च पात्रेषु जानव वस्त्वसारतां दत्तस्य फलविशेषान्नोत्सहते दातुमिति । लाभान्तरायं यदुदयात् सत्यर्थित्वे सति च प्रसिद्धे तद्द्द्रव्यसमन्विते दातरि याञ्चाकुशलो याचन्नपि न लभत इति । भोगान्तरायं यदुदयात् सति विशिष्टाहारादौ असति वैराग्यजे प्रत्याख्यानपरिणामे *** कर्मप्रकृति पदम् ॥५०॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री. कर्मप्रकृति | पदम् प्रज्ञापनोपांगम् २३ कर्म कार्पण्यात् नोत्सहते भोक्तुमिति । उपभोगान्तरायं पवमेव भावनीयं, नवरं भोगोपभोगयोरयं विशेष:-सकृद् भुज्यत इति भोगः, पुनः पुनः भुज्यत इति उपभोग इति, उक्तं च-" सति भुज्जतित्ति भोगो सो पुण आहारपुप्फमाईओ। उवभोगो पुणो पुण उवभुज्जति वत्थविलयादी ॥१॥" त्यादि । वीर्यान्तराय यदुदयात् सति बलवति शरीरे विद्यमाने साध्ये-प्रयोजने हीनसत्त्वदोषान्न प्रवर्त्तत इत्यादि । 'जं वेदेति पोग्गलं वा' प्रतिविशिष्टरत्नादिसम्बन्धात्तद्विषय एव दानान्तरायोदयः । सन्धिछेदनोपकरणसम्बन्धात् लाभान्तरायः। यत्कर्मोदयात् विशिष्टाहारादिसम्बन्धादन(र्थािर्थसम्बन्धाद् लोभतो वाभोगान्तरायकर्मोदयोऽपि भावनीयः । एवमुपभोगान्तरायकम्र्मोदयोऽपि भावनीयः। तथा बाह्यद्रव्यामिघाताद् वीर्योपघातदर्शनाद् वीर्यान्तराय इति । 'पोग्गले वा बहुए पोग्गलपरिणामं वा' तथाविधद्रव्याहारपरिणाममिति । वीससा पोग्गलाणं परिणाम' चित्रं शीतादिलक्षणं, तथा च शीताद्यमिभवादपि न दानादिभाव इति भावनीयं । तेसिं वा उदएण'मित्यादि, गतार्थ यावदुद्देशपरिसमाप्तेरिति । उक्तो ज्ञानावरणादीनामनुभावः, इदानीमुत्तरप्रकृतिविभाग उच्यते, तत्र विशेषपरिज्ञानार्थः प्रश्नः 'कति णं भंते!' इत्यादि, प्रश्ननिर्वचनसूत्रार्थः पूर्ववत्, तत्र शब्दादेरर्थस्य आभिमुख्येन नियतो-निश्चितो बोधः अभिनिबोधो स एवामिनिबोधिकं तच्च तत् ज्ञान च आभिनिबोधिकहानं तस्यावरणमामिनियोधिकज्ञानावरणं । शृणोती'ति श्रुतं, तदेव शानं तस्यावरणं श्रुतज्ञानावरणं । अवधीयते तेनास्मिन्नित्यवधिः-मर्यादा यस्मात्तया द्रव्यक्षेत्रकालभावा परस्परनिबद्धा मर्यादया शायन्ते तस्मादवधिः, स एव शानं अवधिज्ञानं तस्यावरण अवधिशानावरणं, परि-सर्वतो भावे, अवनं-गमनं मनसि मनसो वा पर्यवा., तेषां तेषु वा ज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं तस्यावरणं मनःपर्यवज्ञानावरणं । केवलस्य-कृत्स्य-सम्पूर्णस्य द्रव्यादेयस्य ज्ञानं केवलज्ञानं तस्यावरणं केवलज्ञानावरण। दर्शनावरणीय निद्रादि, तत्र निद्रापञ्चक प्राप्ताया दर्शनलब्धरुपघातं करोति, सुखावप्रबोधात्मिका निद्रा, दुःखप्रबोधात्मिका निद्रानिद्रा, तिष्ठतः प्रचला, चंक्रमतः प्रचलाप्रचला, स्त्यानद्धिः-उदयाद्वासुदेवार्द्धबलसदृशो भवति। चक्षुरिन्द्रियेण श्रुतज्ञानावरणीय क्षयोपशमं नीत्वा सामान्यार्थावबोधः चक्षुर्दर्शनं, शेषैरिन्द्रियैर्मनसा च सामान्यार्थावबोधोऽचक्षुर्दर्शनं, अवधिज्ञानस्य सामान्यार्थावबोधः अवधिदर्शनं, केवलस्य ॥५१॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्यार्थावबोधः केवलदर्शनमिति । वेद्यं सातमसातं वा यस्यादयात् शारीरं मानसं वा सुखं वेदयते तत् सातं तद्विपरीत* मसात । मोहो द्विविधः - दर्शनमोहश्चारित्रमोहश्च, दर्शनमोहनीयं बन्धं प्रति एकविधं, सत्कर्म्मतथा त्रिविधं सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं कषायाः षोडश संयोजनादयः, “संयोजयति यन्नरमनन्तसम्यग्मिथ्यात्वमिति । चारित्रमोहनीयं कषाया नोकषायाश्च तत्र पांगम् संख्यैर्भवैः कषायास्ते । संयोजनताऽनन्तानुबंधिता चाप्यतस्तेषां ॥ १ ॥" इह सर्वप्रत्याख्यानं देशप्रत्याख्यानं वा न येषामुदये २३ कर्म० * लभ्यते ते भवन्त्यप्रत्याख्यानिनः, सर्वनिषेधवचनोऽयं नम् । आवृण्वन्ति प्रत्याख्यानं स्वल्पमपि येन जीवस्य तेन प्रत्याख्यानं न लभ्यत इति प्रत्याख्यानावरणाः । आह-न येषामुदये प्रत्याख्यानमस्तीति नञ् प्रतिषेधात् अप्रत्याख्यानाः, इहापि चावरणशब्दात् * प्रत्याख्यानप्रतिषेध इति क एषां प्रतिविशेषः?, उच्यते, ननूक्तं तत्र नञ् सर्वनिषेधवचनत्वात् सर्वप्रत्याख्यानविद्यातिनस्ते, इह पुनराङ् ** मर्यादायां ईषदर्थे च वर्त्तत इति न सर्वनिषेधः, किं तर्हि ? सर्वविरतेरेव निषेधो गम्यते, न देशविरतेरिति तथा चोक्तं- "सर्व प्रत्याख्यानं येनावृण्वन्ति तदभिलषतोऽपि । तेन प्रत्याख्यानावरणास्ते निर्विशेषोक्त्या ॥ १ ॥ तत्राङ् मर्यादायां तावद्विरतिप्रत्या* ख्यानावरणा न देशविरतेरिति, प्रत्याख्यानावरणाः, ईषदर्थेऽपि प्रत्याख्यानस्य ईषद् वरणाः प्रत्याख्यानावरणाः, यतो देशतः * ** प्रत्याख्यानेऽपि नास्त्येव भूयसीनां विरतिरतस्तत् सम्बन्धिनीमीषद् विरता आवृण्वन्तीति तन्मात्रावरणाः । आह- किमेते विद्यमान मावृण्वन्ति प्रत्याख्यानमुताविद्यमानमिति ?, उच्यते, नासतः खरविषाणस्येवावरणमस्तीत्यतो नाविद्यमानं न च विद्यमानं * अभव्यादीनामपि सविरमणप्रसंगात्, परिशेषात् प्रत्याख्यानपरिणतेरावरणाः प्रत्याख्यानावरणाः, परिणतिशब्दलोपात् । ईषत् परी- * पहादिसंपाते ज्वलनाः संज्वलनाः, संशब्दस्य ईषदर्थत्वात्, तथा च " संज्वलयन्ति यतिं यत् संविग्नं सर्वपापविरतमपि । तस्मात् संज्वलना इत्यप्रशमकरा निरुच्यन्ते ॥ १ ॥ " आद्यकषायत्रयविकल्पानुवर्त्तित्वान्नोकषायाः, यतः क्षीणेषु द्वादशसु तेषामभावः, ते * च हास्यादयः, हास्योदयात् सनिमित्तमनिमित्तं वा हसति शोकोदयात् परिदेवनादि, रतिः प्रीतिर्बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु एतेष्वेव * अप्रीतिररतिः, भयं त्रासः चेतनाचेतनेषु वस्तुषु व्यलीकता - जुगुप्सा, स्त्रियाः स्त्रीवेदोदयात् पुरुषाभिलाषः पुंसश्च पुंवेदोदयात् श्री प्रज्ञापनो कर्म प्रकृति पदम् ॥५२॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रज्ञापनोपांगम् २३ कर्म व्यभिलाषः, नपुंसकस्य नपुंसकवेदोदयात् स्त्रीपुंसाभिलाषिता । आयुष्कं नारकादिचतुर्विधं । गतिनाम-गतिपर्यायेणात्मा गतिनामकर्मोदयात् आभिमुख्येन परिणतो गच्छतीति गतिः, सा चतुर्विधेत्यादि । समानजातीयं यत् सामान्यं सा जातिः, यथा पकेन्द्रियत्वं || कम सबैकेन्द्रियाणां सामान्य जातिः। एवं सर्वत्र । ननु च स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमसद्भावादेकोन्द्रयो भवति, नाम च औदयिको पदम् भावः, कथमेकेन्द्रियत्वं घटते ?, सत्यमेतत् , तथापि यद्यस्य जातिनाम न स्यात्तत एकेन्द्रिय इति सज्ञां न लभते, तस्मात् सज्ञा. कारणं यत् कर्म तन्नामेत्युच्यते, तचैकेन्द्रियजातिनामादि पंचविधं । शीर्यत इति शरीरं, तश्चौदारिकादि पंचविधं, तत्र उदारं-प्रधान तीर्थंकरगणधरशरीराणि प्रतीत्य, ओरालमपि च विस्तरालं विशालमिति, यस्मात् समधिकयोजनसहनप्रमाणं, ओरालमिति वा स्वल्पप्रदेशोपचितत्वाच मेण्डवत् तद्योग्यपुद्गलग्रहणकारणं यत् कर्म, तत् औदारिकशरीरनाम पुद्गलविपाकि । एवं सर्वत्र । विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया। आहियते दयादिकारणानुद्दिश्य गृह्यत इत्यर्थः, कार्यपरिसमाप्तेश्च पुनर्मुच्यते याचिोपस्कारवत् । तेजोगुणोपेतद्रव्यसमर्थ तैजसमुष्णगुणं, तदेव यदोत्तरलब्धिरुत्पद्यते तदा निसृजति, गोशालवत् , यस्योत्तरगुणलब्धिर्नास्ति तस्याहारपाचनं । सर्वकर्माधारभूतं कार्मण, यथा कुंडं वदरादीनां, सर्वकर्मप्रसवसमर्थ वा, यथा बीजमङ्खरादीनां । पुदलरचनाविशेषः संघातः, तेषामेवौदारिकादियोग्यानां पुद्गलानां गृहीतानां यस्य कर्मण उदयात् शरीरं घनीभवति तत् संघातनाम पुद्गलविपाकि, तच्चौदारिकादिभेदेन पंचविधं । बध्यतेऽनेनेति बन्धनं, तत् पुनः सर्वात्मप्रदेशगृहीतानां गृह्यमाणानां च पुद्गलानां सम्बन्धजनकं अन्यशरीरपुद्गला सह सम्बन्धो यस्य कर्मण उदयाद् भवति तत् बंधननामेत्युच्यते, विद्यते तत् कर्म यन्निमित्तं द्वयादिसंयोगापत्तिर्भवति, यथा काष्ठद्वयमेदैकत्वकरणे जतु कारणं, औदारिकादिशरीरमेदवत्तदपि पंचविधं । | संस्थानमाकृतिः, तथैव गृहीतसंघातितदेहपुद्गलेषु संस्थितिविशेषो यस्य कर्मण उदयाद् भवति, तत् संस्थाननाम षड्विधं समचतुरनादि । मानोन्मानप्रमाणानि अनतिरिक्तान्यङ्गोपाङ्गानि च यस्मिन् शरीरसंस्थाने तत् संस्थानं समचतुरनं । नामित | उपरि सर्वावयवाः चतुरस्रलक्षणाविसंवादिनः अधस्तु तदनुरूपं न भवति तत् न्यग्रोधं । नामितोऽधः सर्वावयवाः सम ॥५३॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृति पदम् प्रज्ञापनोपांगम् २३ कर्म चतुरस्रलक्षणाविसंवादिनः, उपरि तु तदनुरूपं न भवति तत् साति(दि)। ग्रीवा हस्तपादौ च [आदि लक्षणयुक्ताः, संक्षिप्तविकृतमध्यं कोष्ठं कुजलक्षणयुक्तं कोष्ठं ग्रीवायुपरि हस्तपादौ [वाच] लक्षणहीना वामनं । कुब्जमेतद्विपरीतं । हस्तपादाघवयवाः प्रायः प्रमाणविसंवादिनस्तद् हुण्डमित्युच्यते । "तुलं वित्थरबहुलं उस्सेहबहुलं च मडहकोटुं च । हेटिळकायमबह सव्वत्थ असंठियं हुंडं ॥१॥" अंगानि-हस्तपादादीनि, उपाङ्गानि-अङ्गल्यादीनि अङ्गोपाङ्गानि च श्रोत्रघ्राणादीनि यस्य कर्मण उदयाग्निर्वय॑न्ते तदङ्गोपाङ्गनाम । मर्कटबन्धस्थानीयमुभयोः पार्श्वयोरस्थि नाराचं, ऋषभः-पट्ट, वज्रं-कीलिका, वजं च ऋषभश्च नाराचं च यत्रास्ति तद् वज्रर्षभनाराचं संहननं, मर्कटपट्टकीलिकारचनायुक्तः प्रथमोऽस्थिबन्धः, मर्कटकीलिकाभ्यो द्वितीयः, मर्कटसंयुक्तस्तृतीयः, मकटैकदेशबन्धेन द्वितीयपावें कीलिकासम्बन्धश्चतुर्थः अंगुलि(अस्थि)द्वयस्य युक्तस्य मध्ये कीलिकैव दत्ता कीलिकासंहननं, अस्थीनि चर्मणा निकाचितानि केवलमेवेति असंप्राप्तसम्बन्ध सेवात, नित्यं परिशीलनामाकांक्षति स्नेहपानादि, एवंविधास्थिसंघातकारणं संहनननाम, औदारिकविशेषविषयमेव । वर्णनाम-औदारिकवैक्रियादिषु शरीरेषु यस्योदयात् कृष्णादिवर्णनिवृत्तिर्भवतीति । गन्धनाम-तेष्वेव शरीरावयवेषु सुगन्धता दुर्गन्धता वा यस्य कर्मण उदयात् । रसनाम-तेष्वेव शरीरावयवेषु तिक्तादिरसविशेषः यस्योदयात् तत् रसनाम । तेष्वेवावयवेषु कक्खडादिस्पर्शविशेषो यदुदयात् तत् स्पर्शनामाष्टविध । आणुपुब्बी-परिवाडी आकाशश्रेणीनां यदुदये गमनं जीवस्य भवति विग्रहगती तदानुपूर्वीनाम, नारकादिचतुर्विधं । शरीरसम्बन्धादगुरुलघु आत्मानं नामयति शरीरं न गुरू नापि लध्वेति तदगुरुलघु । उपघातनाम-यदुदयात् उपहन्यते । पराघातनाम-यत् परान् आहति । उच्छ्वासनाम-यदुदयादुच्छ्वासनिश्वासनिवृत्तिर्भवति । आतपनाम-पृथिवीकाये आदित्यमण्डलादौ । उद्योतनाम-अनुष्णः प्रकाशः खद्योतरत्नादिषु, न पुनरग्नेस्तस्योष्णस्पर्शनामोदयादौष्ण्यं, रूपं च लोहितनामोदयात् । विहायोगतिश्चंक्रमणं, नारकादीनां यदुदयाद् विहायोगतिनाम, तद्विविधं प्रशस्ताप्रशस्तमेदात्, तत्र प्रशस्तं हंसगजवृषभादीनाम्, अप्रशस्तं तूष्ट्रादीनाम् । असनाम-यदुदयाचलना स्पन्दनं च भवति । स्थावरनाम-यदुदयादस्पन्दो भवति । बादरं-स्थूलं यदुदयात् एकेन्द्रियकं शरीरं भवति । सूक्ष्मनाम-यदुदयादतीन्द्रियं शरीरं | ॥५४॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवति । पर्याप्तनाम - यदुदयादिन्द्रियादिनिष्पत्तिर्भवति । तद्विपरीतमपर्याप्तकं, प्रत्येकशरीरनाम - यदुदयादेको जीवः खल्वेक*मेव शरीरं निवर्त्तयति । साधारणनाम-यदुदयाद् बहवो जीवाः खलु एकमेव शरीरं निवर्त्तयति । स्थिरनाम यदु- * दयाच्छरीरावयवस्थैर्य शिरोऽस्थिदन्तानां भवति । अस्थिरनाम यदुदयादवयवानामेव मृदुता भवति कर्णजिह्वादीनां । शुभनाम यदुदयाच्छरीरावयवानां शुभता, यथा शिरसः, शिरसा स्पृष्टस्तुष्यति, पादादिरशुभस्तेन स्पृष्टो रुष्यति । सुभग२३ कर्म० * नाम यदुदयात् कमनीयता । तद्विपरीतं दुमगनाम सुस्रनाम यदुदयात् सौस्वयं भवति, श्रोतॄणां श्रुत्वा यत्र प्रीतिरुत्पद्यते । तद्विपरीतं दुःस्वरनाम आदेयनाम यदुदयात् यश्चेष्टते भाषते वा तत् सर्व लोकः प्रमाणीकरोति । तद्विपरीतमनादेयं । यशःकीर्तिनाम यदुदयात् कीर्त्यते संशब्द्यते गुणवानिति । तद्विपरीतमयशः कीर्त्तिनाम । निर्माणनाम यदुदयात् सर्व* जीवानां जातौ अंगोपांगविशिष्टता भवति । तीर्थकरनाम यदुदयात् सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य पूज्यो भवति । गोत्रमुच्चैर्गोत्रं * यदुदयादशानी विरूपो निर्धनोऽपि सत्कुलमात्रादेव पूज्यते । नीचैर्गोत्रं ज्ञानादिसम्पन्नोऽपि यदुद्द्यान्निन्द्यते । दानान्तरायं-सति * दातव्ये प्रतिग्राहके च दानफलं च विजानन् यदुदयात् नोत्सहते दातुं तद् दानान्तरायं । यत् सर्वकालं दददपि अन्यस्य याच * यतो नोत्सहते दातुं तत्तस्य लाभान्तरायिकोदयः । सकृत् भुज्यते इति भोगः- आहार माल्यादिः, सति विभवे प्रतिविशिष्टं यदुदयान भुंक्ते तद्भोगान्तरायिकं । पुनः पुनः भुज्यत इत्युपभोगो-वस्त्रालंकारादि, यदुदयानोपभुंक्ते तदुपभोगान्तरायं । वीर्य शक्तिः चेष्टा. निरुजो वयस्थाश्चाल्पबला यदुदयाद् भवन्ति तद् वीर्यान्तरायमिति । इदानीं मूलोत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टजघन्यस्थितिबन्धपरिज्ञानार्थं * पृच्छति - णाणावरणिजस्स णं भंते! कम्मस्स केवहय' मित्यादि, प्रश्नः, निर्वचनं 'तीसं सागरोवमकोडीओ', इयता सिद्धे इदमपृष्टस्य * व्याकरणं - 'तिनिय वाससहस्साइं अबाहा, अबाहुणिया कम्मठिती कम्मनिसेगो' इति, किमर्थं ? उच्यते, स्थितिद्वैविध्यप्रदर्शयता बन्धकाले आत्मा अविशिष्टमेव कर्म्मपुद्गलोपादानं कृत्वा उत्तरकालं ज्ञानावरणीयादिकर्म्मणां स्वस्वाबाधाकालं मुक्त्वा ज्ञाना- * * वरणीयादिप्रकृतिविभागतया अनाभोगिकेन वीर्येण उदयसहितं तद्दलीकं निषिञ्चति, अतो द्विविधा स्थितिः कर्म्मत्वापादनमात्ररूपा श्री प्रज्ञापनोपांगम् कर्म प्रकृतिपदम् ॥५५॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृति श्रीप्रज्ञापनो पांगम् २३ कर्म पदम् अनुभवमात्ररूपा च, यतः स्थितिरवस्थानं तेन भावेनाप्रच्यवनं, तत्र कर्मत्वापादानरूपामधिकृत्य तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, वर्षसहनत्रयोना उदयसहिता इति. जम्हा अग्गायणीयपुब्वे कम्मपगडीपाहुडे बन्धविहाणे ठितिबन्धाहिगारे "च तारि अणुयोगदाराणि, | तं जहा-ठितिबंधठाणपरुवणा णिसेगपरूषणा अबाहाकंडपरूवणा अप्पाबहुयंति," तत उत्कृष्टमवाधाकंडकं उत्कृष्ट निषेककालं| चेत्येतदप्युभयमप्युपदर्शितं भवति । इदानीमक्षरार्थो विवरिज्जति-तिषिण वाससहस्साई अबाह'त्ति, पतदुक्तं भवति-बंधापलियाओ आरम्भ जाव तिन्नि वाससहस्साइ ताव कम्मंन बाधति नोदयं यातीत्यर्थः, ततो अणंतरसमये निसिंचति कम्मद लिकं, णिसेगो नाम णाणावरणिज्जादिकर्मापुद्गलरचनानुभवार्थ, तं च पढमसमए बहुग णिसिंचति, बितियसमए विसेसहीणं, ततिये विसेसहीणंति, पवं जाव उकोसठितियं कम्मदलियं ताव विसेसहीणं णिसिंचति, तथाचोक्तं-कम्मपगडीसंगहणीप-"मोत्तूण सगमवाह पढमाप ठितीए बहुतर दव्वं । एत्तो विसेसहीणं जावुक्कोसंति सब्वसि ॥१॥" अबाधा-अन्तरं, कस्य ? कर्मण उदयस्य ? ता एव अबाइणिया धाधु लोडने बाधयति बाधा कर्मण उदय इत्यर्थः, पतदुक्तं भवति उदयसहिया या स्थितिः सा अबाधाकालेण ऊणिया यथा कृता स्थितिः संबाध्यते, कर्मनिषेकश्व अबाधाकालेनैवोनः, दसहं सागरोवमकोडाकोडीणं वाससहस्सं अबाधा, एवं तेरासियकरणेणं सब्बकमाणं जा जस्स ठिती ता तस्स अवाहा उवउजिउण भाणियब्वा, सब्बजहण्णा भंतोमुहुत्तं अबाधा, जत्थ जत्थ सागरोवम सत्त भागा दोपिण तिष्णि चत्तारि सत्त वा तत्थ इमा करणगाहा-"वग्गुकोस्सठितीणं मिच्छत्तुक्कोस्सएण जं लद्धं । सेसाणं तु जहण्णो पल्लासंखिज्जगेणूणे ॥१॥" एतदुक्त भवति-वग्गुक्कस्सठितीणं आवरणदुगवेदणिजअंतराईयाणं मूलपगडीणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तहा मिच्छत्तस्स सत्तरि, कसायवेयणिजस्स चत्तालीसं, नोकसायवेयणिज्जस्स बीसं, णामगोयाणं बीसं, पसा घग्गुकस्सठिती, एयाप वग्गुकस्सठितीए मिच्छत्तस्स उक्कोसियाए ठितीप सत्तरिसागरोषमकोडाकोडी-14 परिमाणाए तीसाए सत्तरीए चत्तालीसाए वीसाए य कोडाकोडीणं भागो हरिजति, तत्थ भागलखं तिणि सत्तभागा, सत्त सत्तभागा, दोषिण सत्तभागा, पते पलिमोवमस्स असंखिज्जइभागेण ऊणगा जहणिया ठिती, जेसिं कम्माण अंतोमुहुत्तं जहणिया ॥५६॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रज्ञापनो पांगम् २३ कर्म | ठिती. जेसिं कम्माणं अंतोमुहुत्तं जहणिया ठिती पत्थि पगिदियाणं पते चैव सत्तभागा पडिपुण्णा उक्कोसठितीव से जहण्णा. पलिओवमअसंखभागूणा, पते चेव सत्तभागा बेइंदियठितीबंधे पणुवीसाए गुणिज्जंति, तेइदियठितिबंधे पण्णासाए गुणि-| कप्रकृति| जंति, चउरिदियठितीवन्धे सतेण गुणिज्जंति, असण्णिपंचिंदियठितीवन्धे सहस्सेण गुणिज्जंति पडिपुण्णा उक्कोसिया || पदम् | ठितिया, पल्लअसंखियभागूणा जहणिया ठिती, सेसं कण्ठ्यं, नवरमत्र पूज्या व्याचक्षते-"अबाहा अबाइणियत्ति अबा| हाकालेणं बाधाकाले ऊणे कम्मठितीए"त्ति, एतदुक्तं भवति-कर्मनिषेक उदयसहितः, ततश्च त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोट्यः परा | स्थितिरित्याद्यपि न विरुध्यते, यत पतावानेव कर्मनिषेकः खलु उदयसहित इति, जत्थ य दरिसणावरणिज्जादौ जहण्णठिती कालो वि बहु भणितो सो किल विसेसविसओ दट्ठवा, तत्तियकालोदयो य पुरिसकारेण परिहविज्जतित्ति भाषनीय, अतो न सा | देवे सुवणादिकिरियत्ति, सामण्णेण पुण्णोदयो अत्थि चेव, जहा देसकालियादिविण्णाणखतोवसमतो मोसे, तत् सर्वमपि सेसेण | अजाणोत्ति वित्ति, बतिरेगा भावणा, 'एगिदियाण सम्मत्तवेयणिजस्स ण किंचि' बन्धन्ति तथाविधपरिणामाभावात्, आह-जदि एवं कहं अणंतरमवे केह सिझंति? भण्णति, सिजनमाणभवे वेयइत्ता चेव सिमंतित्ति न विरोधो, तथा च सम्मत्तवेयणिजस्स जण्णिया अंतोमुहुत्तिया चेव अबाधा भणियत्ति, कोहमाणमायालोभसंजलणाप य दोमासा इत्यत्रापि वत्ति(बन्ध)काल एव | विशिष्टोदयस्त्वन्यथैव, ततश्च पक्षं या स्थितिः प्रतिपादिता संज्वलनानां प्रदेशान्तरे सा न विरुध्यत इति, जत्थ आउस्स जहण्णट्ठितीबंधसामिणिहेसे आलावओ-जे जीवे असंखिप्पद्धापविढे इति, जीवा सोबक्कमाउया णिरुवकमाउया य, तत्थ देव| नारगा य छम्मासावसेसाउया परभवियाउयं बन्धंति, एवं तिरियमणुआवि असंखेजवासाउया जे पुण तिरियमणुआ संखिज-|+ | वासाउया निरुवकमा ते नियमा तिभागावसेसाउया परभवियाउयं बन्धंति, जे सोवकमाउया ते सिय तिभागसेसाउया जाव* 'असंखिप्पद्धापवि?'ण सकति संखिविउ तिमागादिणा । सम्वनिरुद्ध से आउए सेसत्ति, 'सव्वनिरुद्धे'त्ति आयुर्वन्धनिर्वर्तनमात्र एव कालः न परतोऽस्ति जीवनकाल इत्यर्थः, 'सेसे'त्ति उपमुक्तशेष, 'सव्वमहंतीए आउयबन्धद्धापत्ति, सव्वमहतो आउयबंधकालो, ॥५७॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिकर्मबन्धपदे प्रज्ञापनो पांगम् २३ कर्म २४ कर्मप्र० जो जीवो अट्टहिं आगरिसेहिं आउयं णिवत्तेति 'तीसे आउयबन्धद्धाए चरिमकालसमयसि सब्वजहणियंसि ति, चरिमसमयकालगहणेण न परमणिरुद्धो समओ धिप्पति, किंतु एगागरिसस्सगहणकालो, जतो वकंतीप भणिय-जीवे णं भंते ! ठितिणामनिहत्ताउयं कतिहिं आगरिसेहि पगरे ? गोयमा! जहण्णेणं पक्केण उक्कोसेणं अहहिं आगरिसेहिं' उक्कोसिया ठितीत्ति वत्तिजतित्ति, तेण सम्वत्थोवा जीवा अट्ठागरिसणिवत्तगा, सेसा सत्तहिं आरम संखिजगुणा जाव एगागरिणिवत्तगा संखिजगुणत्ति, ते य जहण्ण ठितिया तावता कालेण 'जहणियमिति ठिती संबज्झती, 'अपज्जत्तापज्जत्तिय णिवत्तेइ'त्ति, लद्धीप अपजत्तपज्जत्तओ सरीरिंदियपज्जत्तीणिवत्तणाजोग्गां ठितिं बन्धति'त्ति भणियं होति, जदि पुण सरीरिदियपजत्तीए अपजत्तो कालं करिजा तो दविदियपजत्तीए अपज्जत्तयस्स पगिदियादिववपसो ण पावति, ण य परभवियाउय बन्धति, जेण ओरालियादीणं तिण्हं सरीराण काययोगे वहमाणो, अण्णहा नहोति ज्ञानावरणीयं, नारक उत्कृष्टस्थितिं पर्याप्तिगतः सागारोपयुक्तः, जागरे-जाप्रत् नारकाणामपि कियानपि निद्रानुभवो भवत्येव, शेष कण्ठयं, यावत् 'कम्मभूमगपलिभागी वा,' तत्थ गम्भिणियाऽवहिता कम्मभूमिजातो जातिस्मरणादिना भावलिङ्गं पडिवजति, अण्णे अवहारेण कम्मभूमित्थं भण्णति, शेष सूत्रसिद्धं यावत् पदान्त इति । प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायां त्रयोविंशतितमपदव्याख्या समाप्तेति. साम्प्रतं चतुर्विंशतितममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे कर्मबन्धादिपरिणामविशेषश्चिन्तितः, वक्ष्यमा णेष्वपि चतुर्यु स एव विशेषतः कचित् कचित् चिन्त्यत इति, तत्र कर्मबन्धपदादिसूत्र-'कति णं भंते!' इत्यादि, उपन्यासवास्य विशेषामिधानार्थोऽदुष्ट एव, एवं शेषेष्वपि दृष्टव्यं । तत्र सत्तविहबन्धए आउयवजं, अट्ठविहबन्धए सहाउणा, छविहबन्धए मोहाउयवजं सुहुमसंपराये, उक्त च-“सत्तविहबन्धया होंति पाणिणो आउवजियाणं तु । तह सुहुमसंपराया छब्धिहबन्धा ॥५८॥ . Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री. प्रज्ञापनोपांगम् कर्मप्रकृतिबन्धादीनि कर्मप्रकत्यादि विणिदिवा ॥ १ ॥ मोहाउयवजाणं पगडीणं ते उ बन्धया भणिया । उवसंतखीणमोहा केवलिणो एगविहबन्धा ॥२॥" शेष प्रकटार्थ यावत् वेदनीयचिन्तायां-पगविहबंधगा हवंति से य उवसंतकसायाइएत्ति । भणियं च-"उवसंतखीणमोहा केवलिणो एगविहबन्धा । ते पुण दुसमयठितीयस्स बन्धया ण पुण संपरायस्स ॥१॥" इत्यादि, तत्थवि सायावेदणिजस्स, शेषमुत्तानार्थ यावत् पदसमाप्तेरिति ॥ चतुर्विंशतितमपदव्याख्या समाप्ता॥ | वेतपदे-जत्थ 'सत्तविहवेदए वा अट्ठविहवेदए वा चउविहवेदप वा' सत्तविहवेयओ सुहुमसंपराइमो उपसमगो वा खवगो *वा, मोहणिज्जस्स उदमो तंमि वोच्छिज्जति तेण सत्त, अट्ट सव्वाओ वेदतस्स, चउम्विहवेदो(दगो) सजोगी केवली सात वेपमाणो | चत्तारि वेदणिज्जाउयणामगोयाणि चउ ॥ वेदपदं (समत)। पञ्चविंशतितमपदव्याख्या समाप्ता॥ वेदपग्धपदे-'जीवे णाणावरणिज्जं वेदेमाणे सत्तविहबन्धए' आउयवज्जाओ, भट्ट संपुग्णाओ, 'छब्बिहबन्धर' सेटिदुगपडिवण्णो सुहुमसंपरायो मोहाङयाणं अवन्धगोत्ति, 'एगविहबन्धप' खीणकसाओ सातावेदणिज्जस्स, शेष उपयुज्य भंगाः कार्याः ॥ वेदवन्धपर्द (समत्तं)। परविंशतितमपदव्याख्या समाप्ता ॥ वेदवेदपदे-'जीवे नाणावरणिज्जं वेदेमाणे सत्तविहवेदए, ' सेढिदुगपडिवण्णो तस्स मोहस्स उदओ णत्थि सेण सत्त संपुण्णाओ अट्ठ ॥ वेदवेदपदं (समत्त) ॥ प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायां सप्तविंशतितमपदव्याख्या समाप्तेति ॥ साम्प्रतमष्टाविंशतितममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-दहानन्तरपदे नारकादिगतिसमापन्नानां प्राणिनां कर्मवेदना| परिणाम उक्तः, इह तु परिणामविशेष एव आहारपरिणाम इत्यतः स एव निरुण्यते, इह चार्थसंग्रहगाथाः-"सचित्ताहारट्ठी ॥५९॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रज्ञापनो पांगम् २८ आहार * केवइ किं वावि सब्बओ चेव । कतिभागं सके खलु परिणामे चेव बोद्धब्वे ॥१॥ एगिदियसरीरादी लोमाहारे तहेव | मणभक्खी । एतेसिं तु पदाणं विभावणा होति कायब्वा ॥२॥" 'नरइयाणं भंते !' इत्यादि प्रकटार्थ यावत् 'आभोगणिव्वत्तिए य अणाभोगणिव्वत्तिए य, तत्र आभोगनमाभोगः उवयोगोऽभिसंधिरित्यर्थः, विपरीतस्त्वनाभोगः, तत्राभोगनिवर्णित आहारयामीतीच्छापूर्व निर्मितः, अनामोगनिवर्तितस्त्वाहारयामीति विशिष्टेच्छामन्तरेणापि प्रावृट्काले प्रचुरतरमूत्राद्यमिव्यङ्ग्यशीतपुद्गलाद्याहारवत् , तत्त्थ णं जे से अणाभोगनिवत्तिप से णं सततंत्ति तीवक्षुबेदनीयकम्र्मोदयादोजाहारादिना प्रकारेण 'अणुसमयं' समए समए । 'अविरहिए'त्ति चुक्खलितन्यायादिविरहितः । अथवा प्रदीर्घकालोपभोग्याहारस्य सद्ग्रहणेsप्यनुसमयं भवत्येव, अतः सातत्यग्रहणप्रतिपादनार्थमविरहित इत्याह 'आहारट्टे समुप्पज्जति' आहारार्थः आहारप्रयोजन द्रव्यभावयुक्तं प्रयोजकफलरूपमित्यर्थः, समुप्पज्जति भवतीत्यर्थः । 'तत्थ णं जे से आभोगनिव्वत्तिप से णं असंखिज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए आहारट्टे समुप्पज्जति', किमुक्तं भवति ? आहारयामीत्यभिलाषामात्राहारस्य द्रव्यपरिणामजनिततीव्रतरदुःख जननपुरस्सरमन्तर्मुहर्सात् इति, शेष प्रकटार्थं यावत् 'अण्णतरठितियाइ'ति जघन्यमध्यमोत्तम (स्थितिकानि) स्थितिरिति च-आहारयोग्यस्कन्धपरिणामत्वेनावस्थानं, 'ठाणमग्गणं पडुच्चत्ति तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थान-सामान्य याव एकवर्ण द्विवर्णमित्यादि, विधानं पुनर्विशेषो नीलादि । 'पुट्ठाणि'त्ति आत्मप्रदेशसंस्पर्शनमात्र, तत् पुनरात्मप्रदेशावगाहक्षेत्राद् बहिरपि भवति । 'अवगाढानी तिआत्मप्रदेशैः सहकक्षेत्रावगाढानीत्यर्थः । 'अनन्तरावगाढानीति आत्मप्रदेशानन्तरस्थानि, नैकादिव्यवहितानि । आद्यपीति, आभोगनिर्वर्तितस्य आहारस्यान्तमाँइर्तिकस्य आदिमध्यावसानेषु सर्वत्राहारयन्ति 'सविसपति स एव स्पृष्टावगादानन्तरावगढाख्यः तस्मिन् स्वविषये आहरयति । अणुवादरत्वं अपेक्षया तेषामाहारयोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशवृद्धया वर्द्धितानामुभयमाहारयति । आनु| पूर्वी, यथासनं नातिक्रम्य, उर्वमधस्तिर्यक् चेति, दिसि 'नियमा छदिसि'त्ति 'मोसण्णकारणं पडुचत्ति बाहुल्यकारणं प्रतीत्य * मशुभभाष पप तत् कारणमिति, तथापि प्रायो मिथ्यावृष्यः कृष्णादीनि आहारयंति, न तु भविष्यत्तीर्थकरादयः । तेसिं पोराण ॥६ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री- 4 प्रज्ञापनोपांगम् २८माहार वण्णादिगुणे विपरिणामादीणि एगट्टियाणि विनाशार्थ प्रतिपादितानि। 'सव्वप्पणयाए 'त्ति सर्वात्मप्रदेशः, शेष प्रकटार्थ यावत् | 'रइएणं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताप गेण्हंति, तेसिं पोग्गलाणं सेयं ' एष्यत्काले ग्रहणकालोत्तरकालमित्यर्थः, कतिभागमाहा+ रयंती 'त्याविप्रश्ने, उत्तर-गोयमा ! असंखिज्जइभागमाहारयंतीति, अत्र केचिद् व्याचक्षते-गवादिप्रथमवृहग्रासग्रहण इवान्ये पतन्ति । अन्ये त्वाचक्षते-ऋजुसूत्रनयदर्शनात् स्वशरीरतया परिणतानामसंख्येयभागमाहारयति। अन्ये पुनरित्थमभिदधति असंखिज्जाभागमाहारैतित्ति, शेषास्तु कीट्टीभूय मनुष्याभ्यवहृताहारवन्मलीभवंति, न शरीरत्वेन परिणमन्तीत्यर्थः । 'अणंतभागं आसाएंति गृहीतानां च पश्चादनन्तभागमास्वादयन्ति, वितियप्रश्नसूत्रनिर्वचने तु सर्वे आहारयन्तीत्यत्र विशिष्टप्रहणगृहीता आहारपरिणामयोग्या एव गृह्यन्ते, उज्झितशेषा इत्यर्थः, अन्यथा पूर्वापरविरोधाद्, उक्तं च-"जह (जं)जह सुत्ते भणियं तहेव तं जइ वियालणा णत्थि। किं कालियाणुयोगो दिट्ठो दिद्विप्पहाणेहि ॥१॥" 'कीसत्ताप 'त्ति केन प्रकारेण किं रूपतयेत्यर्थः। अणिट्ठादीणि एगट्ठियाणि । 'अमिज्झित्ताप'त्ति अमिध्या-अभिलाषः, अतृप्तत्वात् पुनः पुनरप्यभिलाषत्वेन इत्यर्थः अथुतेनेति चान्ये, 'अहत्ताप 'त्ति गुरुपरिणामतया, ‘णो उदृत्ताए'त्ति णो लघुपरिणामतया, शेषं प्रकटार्थ यावदसुरकुमाराधिकारान्तः, णवरं चउत्थभत्तस्स दशवर्षसहस्रायुषां तु सागरोपमायुषां वर्षसहस्रात् , अभ्यधिके अभ्यधिकं, एवं सर्वत्र देवानां पल्योपमासंख्येयभागायुषां तदधिकायुषां च दिवसपृथक्त्वमयसेयमिति । पृथिवीकायचिंतायां णिव्वाघाएणं णियमा छ हिसिं णिव्याघातो लोगमझे, वाघातो लोगते वि ठियस्स भावात् । प्राकृते च शेषं प्रकटाथै यावत् 'फासिदियवेमातत्ताए'त्ति विषमा मात्रा विमात्रा इष्टानिष्टनानामेदतया, न तु यथा नारकाणामशुभतया सुराणां शुभतया चेति, शेष निगदसिद्धं यावल्लोमाहारपक्खेवाहारे यत्ति, तत्र लोमाहारः खल्वोघतो वर्षादिषु यः पुदलप्रवेशो मूत्रादिगम्य इति, प्रक्षेपाहारस्तु कावलिकः, तत्र प्रक्षेपाहारे बहून्यस्पृष्टानि अन्तर्बहिश्च द्रव्याणि विध्वस्यन्ते स्थौल्यसौम्याभ्यां, शेषं सुगम.यावत् पञ्चन्द्रियतिर्यगधिकारे-उक्कोसेण छट्ठभत्तस्सत्ति, देवकुरुउत्तरकुरुसु । मणुस्साधिकारे-अट्ठमभत्तस्सत्ति, तासु चेव, वेमाणियाहिकारे-तेत्तीसाए वाससहस्साणं'त्ति अणुत्तरसुराणं, शेष सुगम यावत् 'पुब्वभावपण्णवणं पडुच्चे'त्यादि, तत्र पूर्वभाव ॥६ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपदम् श्री प्रज्ञापनो पांगम् २८ आहार प्रशापना भूतपूर्वगतिरभिधीयते, 'पडुप्पण्णपण्णवणं पडुश्च नियमा पंचिदियसरीराई तत्र प्रत्युत्पन्नयंति यदा परिणामयंति शरीरतया तदा तज्जीवावयवा एव भवन्तीत्यर्थः, शेषं सुगमं यावदुद्देशकपरिसमाप्तेः, नवरं अयमोजाहारादिविभागः “सरीरेणोजाहारो तयाय फासेण लोमआहारो। पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होति नायव्वो ॥१॥ ओयाहारा जीवा सम्वेऽपजत्तया मुणेयव्वा । |पज्जत्तगा य लोमे पक्खेवे होंति भइयव्वा ॥२॥ एगिदियदेवाणं रइयाणं च णत्थि पक्खेवो। सेसाणं जीवाणं संसारत्थाण पक्खेवो ॥३॥ लोमाहारा एगिदिया उनेरइय सुरगणा चेव । सेसाणं आहारो लोमपक्खेवो चेव ॥३॥ ओयाहारा मणभक्खिणो बाय सब्वेवि सुरगणा होति । सेसा हवंति जीवा लोमाहारे मुणेयब्वा ॥ ४॥" देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं अणाभोगणिव्वत्तिओ ओयाहारो, |पजत्ताणं पुण आभोगणिव्वत्तिओ मणोभक्खणोत्ति, सेसाणं लोमाहारो अणाभोगनिव्वत्तिओ, रइयाणं ओयाहारोत्ति, अलमति प्रसकेन । इदानीं द्वितीयोद्देशकः तस्य चामी खल्वर्थाधिकाराः-"आहारभविय सण्णी लेसा दिट्ठीय संजय कसाए । णाणे जोगुवयोगे | वेदे य सरीरपज्जत्ती ॥१॥" 'जीवे णं भंते!' इत्यादिप्रश्नसूत्रस्य निर्वचनं 'सिय आहारए सिय अणाहारए 'त्ति कहं ? पत्थ विग्गहसमुग्घाय से लेसिप सिद्ध य अणाहारए सेसावत्थासु आहारएत्ति कटु, उक्तं च-" विग्गहगतिमावण्णा केवलिणो समोहता | अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥१॥" "जीवा आहारगावि अणाहारगावि', जेण सुहुमनिगोदाणं असंखि जइभागो सदाकालं विग्महे वट्टति, तेण अणाहारगेसु वि बहुवयणं, कह? जे जेरइया सब्वेवि ताव होजा आहारगा, उपपात| विरहभावात् । 'अहवा माहारगा य अणाहारग 'त्ति, पगवयणं, कहं ? जेपा निरयगतीए बारस मुहुत्ता उक्कोसओ उववायविरह| कालो भणितो, उववायविग्गहे य कदावि पक्को चेव हवेजा अतो एगवयणंति । अणाहारगा पुण जेण विग्गहे कताइ दो तिन्नि संखेजा | असंखिजा वा होजत्ति। जोइसियवेमाणिया असण्णित्ति न पुच्छिजंति, जेण तेसु असन्निदेवत्तं णत्थि, भवसिद्धिओ-भव्यः, अभव| सिद्धिओ-अभव्यः, उभयप्रतिषेधवर्त्यपि सिद्ध एव, संशी अनाहारक एव विग्रहगतः, संश्यायुष्कवेदनाश्च संश्येव लभ्यते, असंक्षी द्वीन्द्रि यादिः, बहुवयणपुच्छाए आहारगावि अणाहारगावि कहं ? सामान्येनासंशिग्रहणात् तंमि चानाहारकाणामपि मेदबहुत्वात् , उभय-1* ॥६२॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपदम् * श्रीप्रज्ञापनोपांगम् २८ आहार + + प्रतिषेधवर्ती भवस्थकेवली समुदाताद्यवस्थासु भावनीयः। संजते जीवे य मणुस्से य तियभंगो, सब्वेवि ताव होजा* आहारगा, अहवा आहारगा य अणाहारगे य, पग केवलिसमोहए सेलेसिगते य भवति, पते व बहुगा। संजतासंजता तिसुवि ठाणेसु पगत्तेण वि पुहत्तेण वि आहारगा चेव भवंति, भवान्तरगती केवलिसमुद्धाताधवस्थासु च देशविरतिपरिणामा-14 भावात्। कोहकसायादीसु नवरं देवेसु छ भंगत्ति, एत्थ माणादिविसुद्धदए कोहो न विक्खिज्जति, एवं सेसेसु वि।* 'ओहिणाणी पश्चिदियतिरिक्खजोणिया आहारगा नो आहारग'त्ति अत्र गुरवो व्याचक्षते-नाप्रतिपतितावधिस्तिर्यवेवोत्पद्यते | (देवो) मनुष्यो वेति। एवं विभंगचिन्तायामपि भावनीयं, आह-उक्तमेवावधिदर्शनस्थितिनिरूपणायां दो छावट्ठीओ ठितित्ति, तत्थ नेरइयो अपरिवडियविभंगो गच्छति तिरिएसुत्ति वक्खाणितं कहं ? भण्णति-एगायरियमपण सो नियमा अविग्गहेणेव * गच्छतित्ति नो अणाहारए भवतित्ति दरिसियं, अन्नहा चिय तत्थ वक्खाणियं चेव । मणपज्जवणाणी आहारगा चेव, अपरिवडिए मरणाभावात् , शेषं सुगम, यावत् 'ओरालियसरीरी जीवमणुस्सेसु तियभंगो' समोहतेतर सजोगिकेवलिणो पडुश्च । सगलपज्जत्तीसुत्ति एप चेव घेप्पंति, आहारपज्जत्तीए अपज्जत्तए पढमे समए चेव आहारेति, तेण इकसमामो चेव आहारपजत्तीकालो, जेण* वितियादिसमपसु सव्वत्थ आहारओ, सरीरपज्जत्तीप अपज्जत्तए सिय आहारए सिय अणाहारपत्ति, विग्गहे अणाहारए विम्गहे चेव | सरीरपजत्तीए अपजत्तओ अणाहारओ, ततो पच्छा उववायखित्तं पत्तो जाव सरीरपज्जति ण जणेति ताव आहारओ चेव लब्भति, एवं इंदियआणापाणुभासमणपज्जत्तीए सिय आहारए सिय अणाहारप, सब्वत्थ विग्गहे चेष अणाहारए लभति, ततो उव-* वायखित्तं पत्तो सव्वपजत्तीणं अपजत्तओ आहारओ चेव भवति, 'उवरिल्लासु चउसु अपज्जत्तीसु नेरइयदेवमणूसेसु छ भंगा,' आहारगा य आहारगा अणाहारप य अणाहारगा आहारए य अणाहारए य, चउभंगो य कथं ? यस्मात् चउसु अपज्जत्तगा कयाइ ण होइ वि जे य अस्थि देवा ते आहारादिपजत्ती पज्जत्तगत्ति नाघियंते ततश्च ते यदा भवन्ति तदा सर्वे आहारका वा अनाहारका वा, विग्रहेऽपि ते ताभिः पर्याप्तिभिरपर्याप्ता एव, चतुर्भङ्गकेषु सुगमः, 'अवसेसाणं' विगलिंदियाणं 'जीवेगिंदियवजो तिय ॥६३॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापनो पांगम् २८ आहार २९उपयोग भंगो' 'भासामणपजत्तपसु जीवेसु पंचिंदियतिरिक्खजोणीएसु य तियभंगो,' पत्थ जीवा वि त पते चेव जेण सम्मुच्छिमा आहारगा || आणाहारते य अणाहारप य, ‘नेरदयदेवमणुपसु छ भंगा' विवक्षिते काले चरमपर्याप्त्यपर्याप्तकाभावात् , ततश्च भावनाऽत्र प्राग्वद् आहारोप योगपदे यदा भवन्ति तदा सर्वे आहारका वा अथवा आहारकाश्च अनाहारकाच, शेषं सूत्रसिद्धं यावत् । अत्र अधिकृतार्थभावनार्थमेवैता गाथाः प्रतिपादिताः, तद्यथा-"सिद्धेगेंदियसहिया, जेहिं तु जीवा अभंगयं तत्थ । सिद्धेगेंदियवजेहि होति जीवेहि तियभंगो ॥१॥ असण्गीसु य रइयदेवमणुएसु हाँति छब्भंगा। पुढविदगतरुगणेसु य छन्भंगा तेउलेसाए ॥२॥" जेण तेसु भवणवतिवाणमंतरजोइसियविमाणसोहम्मीसाणया देवा उववजंति तेण तेउलेसा लम्भति, “कोहे माणे माया, छम्भंगा सुरगणेसु सब्वेसु । माणे माया लोमे, नेरइएहिंपि छब्भंगा ॥३॥ आमिणिबोहियणाणे सुयणाणे खलु तहेव संमत्ते । छन्भंगा खलु नियमा, बियतियचउरिदिपसु भवे ॥ ४॥ उवरिल अपज्जत्तीसु, चउसु नेहयदेवमणुएसु । छब्भंगा खलु नियमा, वजा पढमा अपज्जत्ती॥५॥ सण्णी विसुद्धलेस्सा, संजय हेट्ठिलतिसु य णाणेसु । थीपुरिसाण य वेदेवि छम्भंग अवेयतिभंगो ॥६॥ सम्मामिच्छामणवति मणणाणे बालपंडिय विउव्यी । आहारसरीरम्मि उ, णियमा आहारया होंति ॥ ७॥ ओहंमि विभंगंमिवि, नियमा आहारया उ नायव्वा । पंचिंदिया तिरिच्छा, मणुया पुण होति विभंगे ॥८॥ ओरालसरीरम्मि, पज्जत्तीणं च पंचसु तहेव । तियभंगो जीवमणुएसु, होंति | आहारया सेसा ॥९॥नो भवऽभविय अलेसा, अजोगिणो तय होंति असरीरा । पढमाए पज्जत्तीए, ते तु नियमा अणाहारा ॥ १०॥ सण्णासण्णविउत्ता, अवेद अकसाइणो य केवलिणो। तियमंग एक्कवयणे, सिद्धा णाहारया होंति ॥ १९॥" प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायामष्टाविंशतितमपदव्याख्या समाप्ता ॥ साम्प्रतमेकोनत्रिंशत्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे गतिपरिणामविशेष पवाहारपरिणाम उक्तः, इह तु|* ॥६४॥ शानपरिणामविशेषा उपयोगाः प्रतिपाद्या इति । इह च 'कतिविहे णं भंते उवयोगे' इत्यादि सूत्र, तत्र 'युज समाधा' वित्यस्य EEEEEEEE Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उपयोगपश्यत्तापदे उपयोजनमुपयोगः, उपयुज्यतेऽनेनास्मिन् वेत्युपयोगः । आयोगः सदभावः परिणाम इत्यनान्तरं । स द्विविधः-साकारोऽनाकारश्च, || सह आकारेण साकारः, आकारो मेदः पर्याय इत्यनर्थान्तरं, एतदुक्तं भवति-सचेतने अचेतने वा वस्तुनि उपयुज्यमान आत्मा प्रज्ञापनो- सपर्यायमेव वस्तु यदा परिच्छिनत्ति, स साकारोपयोग उच्यते, अन्तमुहर्त्तकालं। अनाकारोपयोगस्तु वस्तुनः सामान्यमात्रावबोधापांगम् | त्मकः स्कन्धावारोपयोगवत् , असावप्यन्तर्मुहूर्तमेव, अनाकारोपयोगकालात् साकारोपयोगकालः संख्येयगुणः, तयोश्च मेदाः कण्ठया। २९उपयोग __ प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायामेकोनत्रिंशत्तमपदव्याख्या समाप्ता॥ ३०पश्यत्ता साम्प्रतं त्रिंशत्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे ज्ञानपरिणामविशेष उपयोगः प्रतिपादितः, इहापि ज्ञान| परिणामविशेष एव पश्यत्ता चिन्त्यते इति । इह चेदमादिसूत्रं-'कतिविहा ण' मित्यादि, तत्र 'रशिरूत्प्रेक्षणे' अस्य वर्तमानकालाभि धायिनो 'लट' शवादेशे कृते 'हशेः पश्ये ति च पश्यादेशे कृते पश्यत्ता, सैव प्राकृते पासणता । अत्र च पासणयाशब्दः | साकारानाकारवोधाभिधायकः उपयोगशब्दवत् । तथा च प्रश्नोत्तरे-'कतिविहे णं भंते ! उवभोगे पन्नत्ते ,गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सागारोवोगे य अणागारोवोगे य' एवं पासणयावि सागाराणागारमेदा। आह-तुल्ये साकाराऽनाकारमेदत्वे कोऽनयोः प्रतिविशेषः ? उच्यते-साकारोपयोगोऽष्टमेद उक्तः, साकारपासणया छविहा । अथ किमिति मतिज्ञानमत्यज्ञानयोक्ता ? उच्यते| यस्मादुक्तम्-“ उत्पन्नाविनष्टार्थग्राहकं साम्प्रतकालविषयं मतिज्ञान, श्रुतज्ञानं तु त्रिकालविषयमुत्पन्नविनष्टानुत्पन्नार्थग्राहकमिति | (तत्त्वार्थभाष्यं पृ. १०)", अतो यत्र त्रैकालिकोऽवबोधोऽस्ति तत्र पासणया भवति, यत्र पुनर्वर्तमानकालौकालिकश्च बोधःस उपयोग | इत्ययं विशेषः, तथा चोक्तं-"पुवमणियं तु जं भण्णती पुणो तत्थ कारणं अस्थि । पडिसेहोऽणुण्णा कारणविसेसोवलंभो वा | ॥१॥" इह चायं विशेष उक्तः, इतरथा हि उपयोगेनैव गतार्थत्वात् किमिति पासणयाप्रश्नेनेति । 'दृशिरुत्प्रेक्षणे' इति च धात्वर्थः | प्रेक्षणं-प्रकर्षण ईक्षणं प्रेक्षणं, तच प्रदीर्घकाले सति भवति, नैकक्षणवर्तिनीति । तहा अणागारपासणया चक्खुदसणस्स भणिता, * अचक्खुदंसणस्स पडिसिद्धा, कीस ? उच्यते-जम्हा भणियं इंदियपदे “उवओगद्धाअप्पाबहुत्ते सव्वत्थोवा चक्खिदियस्स जहणिया | ॥६५॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रज्ञापनो पश्यत्तापदम् पांगम् ३०पश्यत्ता उक्कोसा य उवोगद्धा, ततो सोइंदियघाणिदियजिभिंदियफासिंदियाणं जहकम विसेसाहिया" भणिता, अतश्चक्षुषा प्रेक्षणमस्ति, न शेषाणामिति, चक्षुर्दर्शनवय॑मचक्षुर्दर्शनं, शेषेन्द्रियाणां मनसश्च यत्सामान्यग्रहणं तदचक्षुर्दर्शनं, ततः किमिति नोक्तं मनोऽधिकृत्य 24 अचक्षुर्दर्शनपासणया ? उच्यते, यस्मात् यो मनोद्रव्योपादानसमयात् प्रभृत्यर्थावबोधः स एवार्थावग्रहेहापायकाले प्रतिसमयमेव भवति, तत्र योर्थावग्रहकाले सामान्याववोधः सोऽचक्षुर्दर्शनाख्येनानाकारोपयोगेन गृहीतः, यस्त्वपायधारणाकाले स साकारोपयोगेन श्रुताख्येन गृहीत इति, अत उपयोगस्यैव पर्यायशब्दः पासणता इति । गुरवस्तु व्याचक्षते-“साकारपासणता श्रुतज्ञानादिषु अवबोधविशेषः, अणागारपासणता साक्षात्करणमात्र," चक्षुषा यथाऽक्षराणि पश्यतः संविदुपजायते तत्राक्षरसाक्षात्कारचक्षुषा |पश्यत्ता, तद्भेदाः कण्ठ्याः । जाव 'केवली णं भंते ! रयणप्पभ'मित्यादि, तत्र' आगारेहिं 'ति आकारमेदाः, यथा रत्नप्रभा त्रिकाण्डा खरपंकाब्बहुलकाण्डाख्या, खरकाण्डमपि षोडशभेदं रत्नवजवैडूर्यादिभेदं । 'हेतूहिं 'ति कारणेहिं, यथा केन कारणेन रत्नप्रमेति ? उच्यते, यस्मादस्या रत्नमयं प्रथम काण्डमिति । 'उपमाहिं 'ति, 'मा माने, उपमानमुपमा, उपमीयत इति वा उपमा, यथा रत्नप्रभाया, रत्नादीनि काण्डानि वर्णादिविभागेन कीदृशानि! पद्मरागेन्द्रनीलादिसदृशानीति। 'दिटुंतेहिं 'ति स्वगतभेदानुगमनेन शर्कराप्रभादिमेदव्यतिरेकेण च, यथा घटोऽन्वयव्यतिरेकवान् तथा रत्नप्रभाऽपीति । 'वण्णेहिं 'ति, शुक्लादिवर्णविभागेन, तेषामेव चोत्कर्षापकर्षसंख्येयासंख्येयानन्तगुणविभागेन, तथैव गन्धरसस्पर्शविभागेन । 'संठाणेहिं 'ति,यानि तस्यां भवननारकादीनां संस्थानानि, | यथोक्तं "ते गं भवणा वट्टा अंतो चउरंसा अहे पोक्खरकन्नियासंठाणसंठिया" इति । तथा " ते णं णरया अंतो वट्टा बाहिं | चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता" इति । 'पमाणेहिं 'ति, जह “असीउत्तरजोयण( सय )सहस्सबाहल्ला रज्जुप्पमाणमित्ता आयामविक्खंमेणं "ति । 'पडोयारेहिंति, यस्तस्याः परिवारो घनोदधिधनवलयादिः, शेषं कण्ठ्यं । प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायां त्रिंशत्तमपदव्याख्या समाप्ता ।। ॥६६॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्प्रतमेकत्रिंशत्तमपदव्याख्या समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरपदे ज्ञानपरिणामविशेषः प्रतिपादितः, इह * तु परिणामसाम्याद्गतिपरिणामविशेष एव संज्ञापरिणामः प्रतिपाद्यत इति । इह चैवमादिसूत्रम् - 'जीवा णं भंते सण्णी 'त्यादि तत्र संज्ञीति संज्ञायते अनया पूर्वोपलब्धो भूतभविष्यद्वर्त्तमानोऽर्थः स शब्दादिरिति संज्ञा, सा च मनोवृत्तिः, असौ यस्यास्ति स संज्ञी, समनस्क इत्यर्थः । तद्विपरीतस्तु असंझी, केवलं वर्त्तमान एवार्थे शब्दादौ शब्दादिसंज्ञानं अमनस्क इत्यर्थः, उभयप्रतिषेधितः ३१ संज्ञा० * केवली सिद्धो वेति । केवलिनि मनोवृत्तेरभावात् सिद्धे च शरीरमनसोरभावात् प्रतिषेधितः, शेष कण्ठयं ॥ प्रज्ञापनाप्रदेश व्याख्यायामेकत्रिंशत्तमपदव्याख्या समाप्ता ॥ ३२ संयम० ३३अवधि० *+ श्रीप्रज्ञापनो पांगम् साम्प्रतं द्वात्रिंशत्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरपदे संज्ञापरिणामः प्रतिपादितः, इह तु चारित्रपरिणामविशेषः * संयमः प्रतिपाद्यते । इह चेदमादिसूत्रं 'जीवाण 'मित्यादि, तत्र हिंसादिनिवृत्तः संयतः तद्विपरीतस्तु असंयतः, हिंसादीनां | देशनिवृत्तः संयतासंयत इति, त्रितयप्रतिषेधितः सिद्धः, यस्मात् संयतादिपर्याया योगाश्रयाः तस्मात् योगाभावात् सिद्धः त्रितय* प्रतिषेधित इति ॥ प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायां द्वात्रिंशत्तमपदव्याख्या समाप्ता ॥ साम्प्रतं त्रयस्त्रिंशत्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरपदे चारित्रपरिणामविशेषः संयमः प्रतिपादितः, इह तु * ज्ञानपरिणामविशेषः खल्ववधिः प्रतिपाद्यते, इह चेयमवधिद्वारगाथा - “ भेदविसयसंठाणे अभितरबाहिरेय देसोही । ओहिस्स वह्नि* हाणी पडिवाती चेव अपडिवाती ॥ १ ॥” जत्थ उवरिमगेवेज्जाणं जहण्णेण अंगुलस्स असंखिजइभागो, तत्र यः संयतमनुष्यः समुत्पन्नजघन्यक्षेत्रावधिज्ञानी अविच्युतावधित्रैवेयकेषूत्पद्यते, तस्योपपातक्षेत्रप्राप्तस्य पारभविकोऽवधिरंगुलस्यासंख्येयभागविषयः, तद्भवजस्तु * सूत्राभिहित इति । शेषं कण्ठयं ॥ प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायां त्रयस्त्रिंशत्तमपदव्याख्या समाप्ता ॥ * संज्ञासंयमावध पदानि ॥६७॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री साम्प्रतं चतुस्त्रिंशत्तममारभ्यते अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरपदे ज्ञानपरिणाम विशेषोऽवधिः प्रतिपादितः, इह परिणाम साम्याद् वेदपरिणामविशेषः प्रवीचारः प्रतिपाद्यत इति । इह चेदमादिसूत्रम् -' नेरइयाणं भंते ' इत्यादि, तत्र 'अनन्तराहारा' इति प्रज्ञापनी- * उपपातक्षेत्रप्राप्तिसमय एव आहारयन्तीत्यर्थः, 'ततो निव्वत्तणया' इति ततः शरीरनिवृत्तिः । ' ततो परियादिणया' इति, ततः पांगम् पर्यादानं अङ्गप्रत्यङ्गैः समन्तात् पुद्गलादानमित्यर्थः, 'ततो परिणामणता' इति, ततोऽपि तस्य उपात्तस्य परिणतिरिन्द्रियादिवि- * ३४ प्रवी- भागेन 'ततो परियारणता' इति ततः शब्दादिविषयोपभोग इत्यर्थः । 'ततो पच्छा विउव्वणा' ततो विक्रिया नानारूपा इत्यर्थः । चार० * हंता ? तदेयं । “पुव्वं विव्वणा खलु पच्छा पडियारणा सुरगणाणं । सेसाणं पुव्व पडियारणाउ पच्छा विब्वणया ॥ १ ॥” * * णेरड्या जे पुग्गले आहारत्ताए गिव्हंति ते ण जाणंति न पासंति आहारेन्ति, कहं ? ण जाणंति ओहिणाणेणं, (न) पासंति चक्खुणा, * लोमाहारत्वात् तेषां । असुरकुमारा अपि अवधेरविषयत्वात् मनोभक्षित्वे सत्यपि न जानन्त्यवधिना, चक्षुषापि * पश्यन्ति । पृथिवीकायिका न जानन्त्यनाभोगनिवृत्तत्वादेव, न च पश्यन्त्यपि, चक्षुरिन्द्रियाभावात् । द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिया मत्यज्ञानेन * * (न) जानन्ति, चक्षुरिन्द्रियाभावान्न पश्यन्ति । चतुरिन्द्रियाः प्रक्षेपाहारं प्रति मत्यज्ञानेन न जानन्ति, चक्षुरिन्द्रियाश्च पश्यन्ति, मक्षिकादयो गुडादि । पंचेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च लोमाहारप्रक्षेपाहारौ प्रतीत्य चतुर्भङ्गोऽपि अवध्यादिशानसहितानां मनुष्याणां * तिरब्धां वा अवधिज्ञानिनामिति । वेमाणिया मायिमिच्छादिट्ठी उबवण्णया जाव उवरिमगेवेज्जा । यद्यपि आरातीयेषु कल्पेषु सम्यग्दृष्टयो देवाः सन्ति तथापि तेषां मनोभक्ष्याहारयोग्य स्कन्धत्वादवधेरविषयत्वं । अमायिसम्मदिट्टिउववन्नया अनुत्तरसुरा एव गृह्यन्ते, ते जानन्ति पश्यन्त्याहारयन्ति च विशुद्धत्वादवधेरिन्द्रियविषयस्य च विशुद्धत्वात् पश्यन्त्यपीति । ' से जहानामप सीया * पोग्गला सीतं पप्प सीतं चेव अतिवतित्ताण चिह्नंति', सीतीभवन्तीत्यर्थः एवं उसिणा वि उष्णीभवन्ति । एवमेवेत्यादि से इच्छामणे खिप्पामेव अवेति शीतीभवति तृप्तिः संजायते अभिलाषनिवृत्तिर्भवतीत्यर्थः । रूपप्रवीचारादौ शुक्रपुद्गलपरिणामो अप्सरसां शक्त्यपेक्षया प्रतिपाद्यत इति । गुरवो व्यावर्णयंति - विचित्र परिणामतस्तु यदि कथंचिदचिन्त्यशक्तित्वादन्यथापि सम्पर्क प्रवीचार* पदम् ॥६८॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । सब कण्ठयम्। दिपदानि श्री- जसुखजनकत्वेन परिणमंति तथाप्यविरोध पर लक्ष्यत इति, शेषं कण्ठयम् । प्रज्ञापनो प्रवीचाराप्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायां चतुस्त्रिंशत्तमपदव्याख्या समाप्ता । पांगम् | ३४ प्रवी० साम्प्रतं पञ्चत्रिंशत्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्वन्धः-दहानन्तरपदे वेदपरिणामविशेषः प्रवीचारः प्रतिपादितः, इह तु ३५वेदना गतिपरिणामविशेषो वेदना प्रतिपाद्यते। तदं सूत्र-'कतिविहा णं भंते ! वेयणे 'त्यादि, तत्र द्रव्यादिवेदना चतुर्विधा, तत्र पुगल३६ मु. द्रव्यसम्बन्धाद् द्रव्यवेदना, नरकाद्युपपातक्षेत्रसम्बन्धात् क्षेत्रवेदना, नारककालसम्बन्धात् कालवेदना, वेदनीयकम्र्मोदयानाववेदना, सातासातसुखदुःखयोरय विशेषः-सातासाते क्रमेणोदयप्राप्तवेदनीयकर्मपुद्गलानुभावः, सुखदुःखे परेणोदीर्यमाणवेदनानुभवः । तथा चोक्तम्-"परस्परोदीरितदुःखाः संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाचे"ति, एवं सर्वजीवानां परेणोदीर्यमाणा सुखदुःखा, 'परेण वा उदीर्यमाणस्येति वचनात्। अम्भुवगमिया-स्वयमभ्युपगम्य, यथा साधवः केशलुश्चनातापनादिभिवेदयंति । औपक्रमिकी तु-स्वयमुदीर्णस्य उदीरणाकरणेन वा उदयमुपनीतस्यानुभावो वेद्यस्य । निदा-चित्तवती, तद्विपरीता अनिदा । शेष कण्ठ्यम् । प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायां पञ्चत्रिंशत्तमपदव्याख्या समाप्ता। अधुना पत्रिंशत्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहान्तरपदे गतिपरणामविशेषो वेदना प्रतिपादिता, इहापि तु तद्4 विशेष पब समुद्धातश्चिन्त्यत इति । तत्रेदं सूत्रं-'करणं भंते ! समुग्धाया पण्णता? तत्र “हन हिंसागत्योः" हननं घातः समि-1 स्येकीभावे उत्-प्राबल्ये, एकीभावेन प्राबल्येन च घातः समुद्धातः, केन सहकीभावगमनं ?, उच्यते-यदा आत्मा वेदनादिसमुद्धातगतस्तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानपरिणतो भवति, नान्यज्ञानपरिणत इति, प्राबल्येन घातः कथं ? यस्माद्वेदनादिसमुद्धातपरिणतो बहून् [कश्रियान मारणंतिसमुद्धातपरिणतो बहून् ] वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभावयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्य उदये* ॥६९॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्धातपदम् प्रज्ञापनोपांगम् ३६ समु दात प्रक्षिप्यानुभूय निर्जरयति, आत्मप्रदेशः सह संश्लिष्टान् सातयतीत्यर्थः, उकं च-"पुयकयकम्मस(सा)डणं तु निजरा" इति, स च वेदनादिमेदेन सप्तधोक्तः, 'वेदनासमुद्धात' इत्यादि, तत्र वेदनासमुद्धातः असदेद्यकश्रियः, कषायसमुद्धातः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकश्रियः, मारणंतियसमुद्धातः अन्तर्मुहुर्तशेषायुष्ककर्माश्रयः, वैकुर्विकतैजसाहारकसमुद्धानाः शरीरनामकश्रियाः, केवलिसमुद्घातस्तु सदसवेधशुभाशुभनामोचनीचैर्गोत्रकर्माश्रय इति । तत्र वेदनासमुद्घातसमुद्धत आत्मा वेदनीयकर्मपुद्गलशातं करोति, कषायसमुद्घातसमुद्धतः कषायपुद्गलशातं, मारणंतियमुद्घातसमुद्धत आयुष्ककर्मपुद्गलघातं, वैकुर्विकसमुद्घातसमुद्धतस्तु जीवप्रदेशान् शरीराद् बहिः निष्काश्य शरीरविष्कम्भवाहल्यमात्रमायामतश्च संख्येयानि योजनानि दंडं निसृजति, | निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान् सातयति, यथोक्तं-"वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणति, समोहणित्ता संखिज्जाई जोयणाई दंड निसिरति, निसिरित्ता अहाबायरे पोग्गले परिसाडेति "त्ति। एवं तैजसाहारकसमुद्घातावपि व्याख्येयौ। केवलिसमुद्घातेन समुद्भुतः केवली वेदनीयादिकर्मपुद्गलान् सातयति। शेषं कण्ठयं, यावत्, 'एगमेगस्स णं भंते ! नेग्इयस्स केवइया वेयणासमुग्घाया अतीता? इत्यादि, पुरेक्खडा, शेषं कण्ठयं, यावत् जहन्नेणं १-२-३ इत्यादि, प्रायः क्षीणायुषोऽनन्तरभवसिद्धयमानस्यैकादिसंभव इति । आहारकसमुग्धाता उक्कोसेणं तिन्त्रि, तदुवरि नियमा णरगं न गच्छति जस्स चत्तारि हवंति। शेषं सुगम। यावन्मनुष्येषु केवलिसमुद्घातचिन्तायां-उक्कोसेणं सतपुहुत्ताओ, तत्रैककाल एवोत्कृष्टपदे एतावन्तः केवलिनः समुद्घातमासादयंति । पगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ताए इत्यादि, केवड्या पुरेक्खडा ? कस्सइ अस्थि, कस्सइ नत्थि, तत्र आसन्नमृत्युवेदनासमुद्घातमप्राप्यात्यन्तिकमरणेन नरकादुद्वृत्य सेत्स्यति तस्य नास्ति, एकादिसंभव ऽपि अन्त्य तद्भवभाजामेव, अन्यथा यदि पुनरुत्पद्यते ततो जघन्यस्थितेरपि संख्येया एव भवंति, वक्ष्यति च-असुरकुमारस्य नारकेषु पुरस्कृतास्तु जघन्यपदेऽपि संख्येया इति, तच्चेदं सूत्रं- असुरकुमारस्स नेरयिएसु पुरेक्खडा * वेदणासमुग्धाता जस्स अस्थि सिय संखिज्जा' इत्यादि । नरकेषु जघन्यस्थितिषु उत्पन्नस्य नियमतः संख्येया एव वेदना समुद्घाता ॥७०॥ . Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री. प्रज्ञापनो पांगम् ३६ समु दात भवंति, वेदनासमुद्रातप्रचुरत्वान्नारकाणामिति । 'नेरइयस्स असुरकुमारेसु कसायसमुग्धाया पुरेक्खडा जस्सत्थि सिय संखिजा'|* जहण्ण ठितियाण वि णियमेण ओहतो संखिज्जभावो, जेण बह्वो लोभसमुग्धाता पतेसि भवंति, जोइसिपसु असंखिजा, जम्हा तेसिं*समुद्रात पदम् जहण्णायुगापि असंखिज्जा, पलिओवमस्स अट्ठभागोत्ति। शेष सुगम यावत् अल्पबहुत्वचिंतायां जीवपदे-'सब्वत्थोवा जीवा आहारगसमुग्धारणं समोहता संखिजगुणा', पत्थ जइवि आहारगाण सहस्सपुहुत्तमेगदा भणितं तहावि तत्थ जुगवं समोहता थोवा, सत्तया पुनर्बहुत्वेऽप्यविरोध एवेति भावनीयं । तेयासमुग्घारण समोहता असंखिजगुणा, कहं ! [तेण] पंचिंदियतिरिक्खमणुस्साणं देवाणं [देव ] तेयासमुग्घाओ अस्थि । वेउब्वियसमुग्धारण समोहता असंखिजगुणा, कहं ? वाउकाइए पडुब, जेण महादंडए भणियं"बादरा वाउकाइया पज्जत्तया सम्वदेवेहिंतो खहचरथलचरजलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतोवि असंखिजगुणा"। मारणांतियसमुग्धारण समोहता अणंतगुणा, निओदजीवे पडुच, जेण निओदाणं असंखिज्जइभागो सदा कालं विग्गहे वट्टति । कसायसमुग्धारण समोहता असंखिजगुणा, णिओयजीवे पडुच । जे [भवत्था ] वेदनासमुग्धापण समोहता ते विसेसाहिया, ते चेव पडुच्च । असमोहता विसेसाहिया, ते पडुच जे वेदणाकसायमारणंतियसमुग्धापणं असमोहता, शेषं सुगमं । यावल्लोभकसायसमुग्धारणं णेरपसु एगुत्तरियाए नेयव्वा, जम्हा नेरइयाणं लोभसमुग्घाया थोवा चेव भवंति, तेसिमिठ्ठदव्वसंजोगाभावातो एकादिसंभवो। 'जीवे णं भंते ! वेदणासमुग्धारणं समोहते [त्याह] केवइए खेत्ते अफुण्णत्ति-स्पृष्टं, फुडेत्ति-भृतं । 'केवइयकालस्स: अप्फुन्ने' कियता कालेन, अथवा कियतः 'एगसमपण वा १-२-३। [कति ] 'विग्गहेणं ति, तद्देहमात्र क्षेत्रं आत्मविश्लिष्टपुद्गलै-* {तमित्यर्थः, कर्णादिदेशे च स्वबुद्धया भावनीयं । केवइयकालस्स णिच्छुभति 'त्ति, कियतो वेदनाकालस्य सम्बन्धिनो विक्षपति केवयं । कालं वेदणाजननयोग्यानित्यर्थः। ते णं भंते ! जीवा ताओ' समोहतजीवाओ कति किरिया? गोयमा ! सिय तियकिरिया इत्यादि, निर्वचनभावना-जम्हा तेवि तं कदापि उद्दवेंति परितावेंति वा । 'चउसमपण वा.' एगिदियाणं णालीए बाहिमुप्पज्जत्ताणं । एग-* दिसि बिदिसिं वा सिया, देवाण सुद्धा होजा अण्णहा वा । गेरइयस्स भंते । संखिज्जाइंजोयणाई एगदिसिं दंडे हवति, जइवि ॥७॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्धातपदम् प्रज्ञापनो पांगम् ३६ समु दात सरीरं धणुसहस्सप्पमाणमुक्कोसं तह वि सो सरीराओ अभहिओ चेव भवति । शेषं सुगम । 'पगं महं' सविलेवणगंधसमुग्गमित्यादि,* गंधसमुग्गर्त अबदालेतित्ति-उग्धा (प्पा )डेतित्ति, इणामेवत्ति [पहिणति] एवमेवेत्यर्थः, 'तिहिं अच्छराणिवातेहि'-चप्पडियाहिं, गंधसमुग्गएण गहिएण दुतं दुतं हिंडतस्स गंधपोग्गलेहिं दीवे भरिजतित्ति, एस पत्थ भावत्थो। शेषं सुगम। यावत् 'विसमं समंकरेती'त्यादि, चउण्हं केवलिकम्माणं सब्बबहुपदेसतरं रढबंधणतरं च वेदनीयं विसमं तं माउगेण समं करेति, 'बंधणेहिं 'ति-1* पदेसेहिं, 'ठितिए'ति-वेदणकालेणंति । शेषं सुगमं । यावत् कतिसमएणं भंते ! भाउजीकरणे पण्णत्ते 'आउज्जीकरणं 'ति, आवर्जनमुपयोगः, व्यापारविशेषः, करणं क्रिया, वेद्यायुषः समरचनप्रयत्नकरणमित्यर्थः । शेषं सूत्रसिद्धं । यावत् 'ततो पच्छा' मणजोगंपि झुंजती'त्यादि, स हि भगवान् भवधारणीयकर्मसु वेदनीयनामगोत्रेषु आयुषस्समषिकेष्वचिन्त्यमाहात्म्यसमुद्घातसमीकृतेष्वन्तर्मुहूर्तभाविपरमपदः एतस्मिन् काले अनुत्तरोपपातिकादिना च देवेन मनसा पृष्टः मनःपुद्गलान् गृहीत्वा वाकपुद्गलान् गृहीत्वा कायचेष्टायुक्तखियोगी भवति । अधुना चैषां योगानां मनोवाकाययोगक्रमेणैव निरोधं करोति, ततः यस्मात् सयोगी सिध्यत्येव, यद्वन्मन्त्रेण विषं शरीरादेवं मनोयोग तितो विकरणधिया असंख्येयैः समयैः मनसः सर्व निरोधं करोति, एवं द्वीन्द्रियप्रथमपर्याप्तकवाग्योगमात्र-IN वाग्योगं ततः परं असंख्येयैः समयैः सर्व वाग्योगनिरोधं करोति, ततः सूक्ष्मपनकस्य प्रथमसमयोत्पन्नस्य यावान् काययोगस्तावद्धृष्ट्वा ततोऽधस्तादसंख्येयैः समयैरुच्छ्वासादिसर्वकार्य निरोधं कृत्वा देहविभागं च मुक्त्वाऽयोगिकेवली भवति, हस्वपंचाक्षरोचारणकालं, यावता कालेन 'क ख ग घ ङ' उच्चार्यन्ते । अत्र च काययोगनिरोधारम्भात् प्रभृति ध्यायत्यसौ सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपातिध्यान, सर्वनिरोधं कृत्वा शैलेशीकाले व्युच्छिन्नक्रियमप्रतिपातिध्यानं कायिकं, कुम्भकारप्रयुक्तचक्रभ्रमणव्यापारोपरमेऽपि चक्रभ्रमणानुवृत्तिवत् । शैलेशीशब्दस्य व्युत्पत्ति-शिलाभिनिर्वृत्तः शिलानामयं वेति अण्. शैल:-पर्वतः, शैलानामीश:-अधिपतिः शैलेशः-मेरुः, शैलेशस्येयं स्थिरता शैलेशी, स्थिरतासामान्यात् परमशुक्लध्याने वर्तमानः शैलेशीवानमेवोपचारादुच्यते स एव शैलेशी। तेषु च शैलेशीसमयेषु' पुधरइयं च णं कम्म 'ति आउज्जी [ जीवा न मेदोपचार] काले चेव गुणसेढी करेति, गुणप्पहाणा सेढीर, ॥७२॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समुदात प्रज्ञापनो | पदम् पांगम् ३६ समुदात 000 OOO | आउकम्मसमयमित्तकालं गुणसेटिं रएति, पढमसमए वेदणीयादिकम्मपदेसे थोवे रपति, बितियादिसमपसु असंखिजगुणे २रपति, आउकम्मस्स य विषज्जपण ति । स्थापना चेयं । । \00000000/ 10000000 00000000 fooo0000/ rooo0000 000000 oo0000 Moo0000 000000 O 0000 OO 000 100000 10000 6000/ OOO Doo tooo OOOON OO 000000 000000 00000000 1600000000 | 'तीसे सेलेसिमवाय असंखिज्जाहि गुणसेढीहिं'ति, वासिमसंखिजत्तणं एगनिमिसणसमएणं चउण्हं वेदिजा, चउण्हं संप्पा| यत्तणतो सेढीचाओ य असंखिजा, समयाण समत्ति भावनीयं । असंखिजे कम्मखंघे खवयंतेर-अणुभावेणं, 'वेदणिज्जाउयनाम| गोत्ते, इन्चेते चत्तारि कम्मंसे 'जुगवंति समं स्त्रवेति, खवेत्ता ओरालियतेयाकम्मगाई सन्याहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहति-सव्वपगारेण | वज्जति-सर्वैः प्रकारैः परित्यजतीत्यर्थः, न यथा देशत्यागेन प्राक् त्यक्तवानिति । 'विप्पजहिता उजुसेढिपडिवणे' इत्यादि, ऋजु4 श्रेणिप्रतिपन्नः कुम्भकारप्रयुक्तचक्रभ्रमणब्यापारोपरमेऽपि चक्रभ्रमणानुवृत्तिन्यायेन अस्पृशद्गत्या प्राग्भावितया, एकसमयेनाविग्रहण, | जीवस्वाभाब्यादूगर्वे गत्वा,साकारोपयुक्तः,कांचनोपलवदग्निना सततमुपयोगेन कर्ममलाद्विप्रमुक्तः सन् , सिध्यति-निष्ठितार्थी भवति। 'ते णं तत्थ' ति ते तत्र, 'सिद्धा भवंति', किं भूताः? 'असरीरा' औदारिकादिशरीररहिताः, जीवघनाः तच्छुषिरापूरणात्, ॥७३॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिशेन दर्शनज्ञानोपयुक्ता जीवस्वाभाव्यात् , निष्ठितार्थाः कृतकृत्यत्वात् , नीरजसो वध्यमानकाभावात् , निरेजनाः कम्पक्रियानिमित्तबिरहात् | वितिमिराः कर्मतिमिरवासनाविरहात्, विशुद्धानिविघसम्पग्दर्शनादिमार्गतोऽत्यन्तशुभत्वात्, शाश्वतं शश्वद्भावेन, अणागतद्धं कालमिति समयपरिभाषा तिष्ठन्ति । 'णिच्छिण्णसव्वदुक्खा' गाहा, निगदसिद्धा। शेषं सूत्रासिद्धं । नवरमियं भावना ॥ दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्करः ॥१॥ ग्रन्थानम् ४७०० ॥ समुद्धातपदम् प्रज्ञापनोपांगम् ३६ समु. द्धात भवविरहरिकृतप्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यायां षट्त्रिंशत्तमपदव्याख्या समाप्ता ।। अज्ञापनोपाङ्गमदेशव्याख्या समाप्त प्रज्ञापनोपाङ्गप्रदेशव्याख्या समाप्ता । = = =rea== = = ॥७४॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m अथ प्रशस्तिः Guvad (शार्दूलविक्रीडितम्) पादाङ्गुष्ठसुचालितामरगिरि-हस्तास्तदेवस्मयः, जिह्वाखण्डितशक्रसंशयचयो वाङ्नष्टहालाहलः । सर्वाङ्गीणमहोपसर्गदकृपा-नेत्राम्बुदत्ताञ्जलिः, दाढादारितदिव्ययुत्समवतात् श्रीवर्धमानो जिनः ।।१।। (उपजाति) श्रीगौतमस्वामि-सुधर्मदेव-जम्बूप्रभु-श्रीप्रभवप्रमुख्याः । सुरीशपूजापदसूरिदेवा, भवन्तु ते श्रीगुरवः प्रसन्नाः ।।२।। (वसन्ततिलका) एतन्महर्षिशुचिपट्टपरम्पराजान्-आनन्दसूरिकमलाभिधसूरिपादान्। संविग्नसन्ततिसदीशपदान् प्रणम्य, श्रीवीरदानचरणांश्च गुरून् स्तविष्ये ||३|| श्रीदानसूरिवरशिष्यमतल्लिका स, श्रीप्रेमसूरिभगवान् क्षमया क्षमाभः। सिद्धान्तवारिवरवारिनिधिः पुनातु, चारित्रचन्दनसुगन्धिशरीरशाली ।।४।। (शार्दूलविक्रीडितम्) प्रत्यग्रत्रिशतर्षिसन्ततिसरित्-स्रष्टा क्षमाभृन्महान,गीतार्थप्रवरो वरश्रुतयुतः सर्वागमानां गृहम् । तर्के तर्कविशुद्धबुद्धिविभवः सोऽभूत् स्वकीयेऽप्यहो, गच्छे संयमशुद्धितत्परमतिः प्रज्ञावतामग्रणीः ।।५।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीनकरग्रहग्रहविधा-वब्दे ह्यभूद् वैक्रमे, तिथ्याराधनकारणेन करुणो भेदस्तपागच्छजः । कारुण्यैकरसेन तेन गुरुणा सत्पट्टकादात्मनो बह्वंशेन निवारितः खकरखौ -ष्ठे पिण्डवाडापुरे ||६|| (वसन्ततिलका) तत्पट्टभृद् भुवनभान्वभिधश्च सूरिः, श्रीवर्धमानतपसा निधिरूग्रशीलः । न्याये विशारद इतीह जगत्प्रसिद्धो, जातोऽतिवाक्पतिमति-र्मतिमच्छरण्यः ||७|| * तस्याद्यशिष्यलघुबन्धुरथाब्जबन्धु - तेजास्तपः श्रुतसमर्पणतेजसा सः। पंन्यासपद्मविजयो गणिराट् श्रियेऽस्तु, क्षान्त्येकसायकविदीर्णमहोपसर्गः ||८|| सर्वाधिकश्रमणसार्थपतिर्मतीशः, पाता चतुःशतमितर्षिगणस्य शस्यः । गच्छाधिनाथपदभृज्जयघोषसूरिः, 'सिद्धान्तसूर्य' - यशसा जयतीह चोच्चैः ।।९। सद्बुद्धिनीरधिविबोधनबद्धकक्षः, वैराग्यदेशनविधौ परिपूर्ण दक्षः । सीमन्धरप्रभुकृपापरपात्रमस्तु श्रीहेमचन्द्रभगवान् सततं प्रसन्नः ।।१०।। कारुण्यकम्रालयानां महनीयमुख्यानां महोमालिनांलोकोपकारचतुराणां वैराग्यदेशनादक्षाचार्यदेव - श्रीमद्विजयहेमचन्द्रसूरीश्वराणां सदुपदेशेन श्रीजिनशासन आराधनाट्रस्ट विहिते श्रुतसमुद्धारकार्यान्वये प्रकाशितमिदं ग्रन्थरत्नं श्रुतभक्तितः ।। समतासागरपंन्यासश्रीपद्मविजयपुण्यस्मृतौ वि. सं. २०६७ ०००. - पद्ममाला. * वीर सं. २५३७ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है श्रुतसमुद्धारक 4. भानबाई नानजी गडा, मुंबई (प्रेरक : प. पू. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद्विजय भुवनभानमरि म. सा.) १३. बाबु अमीचंद पन्नालाल आदीश्वर जैन टेम्पल वेरीटेबल ट्रस्ट, वालकेश्वर, मुंबई-६. (प्रेरक : पू. मुनिराजश्री अक्षयबोधि २. शेठ आगंदजी कल्याणजी, अमदावाद । विजयजी म.सा. तथा पू. मुनिराजश्री महाबोधि विजयजी म.सा. तथा पू, मुनिराजश्री हिपण्यबोधि विजयजी म.सा.) श्री शांतिनगर सेतांवर मूर्तिपूजक जैन संघ, अमदावाद (प्रेरक : प. पू. तपसपाट आ. श्रीमद्विजय हिमांशुसूरि म. सा.) १४. श्री श्रेयस्कर अंधेरी गुजराती जैन संघ, मुंबई (प्रेरक : पू. मुनिश्री हेमदर्शन वि.म. तथा पू, मुनिश्री पम्यघोष वि.म.) ४. श्री श्रीपालनगर जैन उपाश्रय ट्रस्ट, वालकेवर, मुंबई (प्रेरक : प. पू. ग. आ. रामचंद्रसूरि म.सा.नी दिव्यकृपा तथा १५, श्री जैन खेतांबर मूर्तिपूजक संघ, मंगल पारेखनो खांचो, शाहपुर, अमदावाद (प्रेरक : प.पू. आ. श्री रूचकचंद्र सूरि म.) पू. आ. श्रीमद्विजय मित्रानंद सू. म. सा.) | | १६. श्री पार्श्वनाथ बेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ, संघाणी एस्टेट , घाटकोपर (ने), मुंबई (प्रेरक : पू. मुनिराजश्री कल्याणबोधि श्री लावण्य सोसायटी देतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ, अमदावाद (प्रेरक : प. पू. पंन्यासजी श्री कुलचंद्रविजयजी गणिवर्य) | विजयजी म.सा.) ६. नयनवाला बाबुभाई सी.जरीवाला हा. चंद्रकुमार, मनीष, कल्पनेश (प्रेरक : प.पू. मुनिराजश्री कल्याणबोधि वि. म. सा.) | १७. श्री नवजीवन सोसायटी जैन संघ, बोम्बे सेन्ट्रल, मुंबई (प्रेरक : पू. मुनिराजश्री अक्षयबोधि वि.म.) ७. केशरयेन रतनचंद कोठारी हा. ललितभाई (प्रेरक : प. पू. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयघोषसूरीश्वरजी म.) १८. श्री कल्याणजी सोभागचंदजी जैन पेढी, पीडवाडा, (सिद्धांतमहोदधि स्व. आ. श्रीमद् विजय प्रेमसूरीमरजी म.सा. ना ८. श्री खेतांवर मूर्तिपूजक तपगच्छीय जैन पौषधशाला ट्रस्ट, दादर, मुंबई संयमनी अनुमोदनाथें) १. श्री मुलुंड शेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ, मुलुंड, मुंबई (आचार्यदेव श्री हेमचंद्रसूरि म. सा. की प्रेरणा से) १९. श्री घाटकोपर जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक तपगच्छ संघ, घाटकोपर (वे), मुंबई (प्रेरक : वैराग्यदेशनादक्ष पू.आ. १०. श्री सांताकुज से. मूर्ति, तपागच्छ संघ, सांताकुज, मुंबई (प्रेरक : आचार्यदेव श्री हेमचंद्रसूरि म.सा.) श्री हेमचंद्रसूरि म.सा.) ११. श्री देवकरण मूलजीभाई जैन देरासर पेढी. मलाड (वेस्ट). मुंबई (प्रेरक : प. पू. मुनिराजश्री संयमबोधि वि. म.सा.) | २०. श्री आंबावाडी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, अमदावाद (प्रेरक : पू. मुनि श्री कल्याणबोधि वि.म.) १२. संधवी अंबालाल रतनचंद जैन धार्मिक ट्रस्ट, खंभात (पू. सा. श्री वसंतप्रभाश्रीजी म. तथा पू. सा. श्री स्वयंप्रभाश्रीजी २१. श्री जैन बेताम्बर मूर्तिपूजक संघ, वासणा, अमदावाद (प्रेरक : पू. आचार्य श्री नररत्नसूरि म. ना संयमजीवननी म. तथा पू. सा. श्री दिव्ययशाश्रीजी म. की प्रेरणा से मूलीबेन की आराधना की अनुमोदनार्थ) अनुमोदनार्थे पूज्य तपस्वीरत्न आचार्य श्री हिमांशुसूरीश्वरजी म.सा.) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. श्री प्रेमवर्धक आराधक समिति, घरणिधर देरासर, पालडी, अमदावाद (प्रेरकः पू. गणिवर्य श्री अक्षयबोधि वि.म.) | ३५. श्री रांदेर रोड जैन संघ, सुरत (प्रेरक : पू. पं. अक्षयबोधि विजयजी म. सा.) २३. श्री महावीर जैन . मूर्तिपूजक संघ, पालडी, शेठ केशवलाल मूलचंद जैन उपाश्रय, अमदावाद. (प्रेरक : प. पू. आचार्य | ३६. श्री श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छ दादर जैन पौषधशाला ट्रस्ट, आराधना भवन, दादर, मुंबई (प्रेरक मुनिश्री श्री राजेन्द्रसूरि महाराज सा.) अपराजित विजयजी म. सा.) २४. श्री माटुंगा जैन से. मूर्तिपूजक तपगच्छ संघ ओन्ह चेरिटीज, माटुंगा, मुंबई ३७. श्री जवाहर नगर जैन से. मूर्तिपूजक संघ, गोरेगाव, मुंबई (प्रेरक : पू. आ. श्री राजेन्द्रसूरि म. सा.) स. श्री जीवीत महावीरस्वामी जैन संघ, नांदिया (राज.) (प्रेरक पू. गणिवर्य श्री अक्षयबोधि विजयजी म.सा. तथा । ८. श्री कन्याशाला जैन उपाश्रय, संभात (प्रेरक : प.प्र.श्री रंजनबीजी म. सा. पू. प्र.श्री इंद्रधीजी म. सा. के संयमजीवन मुनिश्री महाबोधि विजयजी म.सा.) के अनुमोदना प. पू. सा. श्री विनयप्रभाश्रीजी म. सा., प. पू. सा. श्री वसंतप्रभाश्रीजी म. सा. तथा साध्वीजी २६. श्री विशा ओसवाल तपगच्छ जैन संघ, खंभात (प्रेरक वैशम्यदेशनादक्ष प. पू. आचार्यदेव श्री हेमचंद्रसूरि म.सा.) श्री स्वयंप्रभाश्रीजी म. सा.) २७. श्री विमल सोसायटी आराधक जैन संघ, बाणगंगा, वालकेशर, मुंबई-७ (प्रेरक : आचार्यदेव श्री हेमचंद्रसूरि म.सा.) ३९. श्री माटुंगा जैन सेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छ संघ अन्य घेरीटीज, माटुंगा, मुंबई (प्रेरक : पू. पंन्यासप्रवर २८. श्री पालिताणा चातुर्मास आराधना समिति (प. पू. वैराम्यदेशनादक्ष आचार्यदेव श्रीमद् विजय हेमचंद्रसूरीधरजी महाराज श्री जयसुंदरविजयजी गणिवर्य) साहेब संवत २०५३ के पालिताणा में चातुर्मास प्रसंग पर ज्ञाननिधि में से) ४०. श्री शंखेशर पार्श्वनाथ सेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, ६० फुट रोड, घाटकोपर (ईस्ट) (प्रेरक : पू. पं. श्री वरबोधिविजयजी २९. श्री सीमंधर जिन आराधक ट्रस्ट, अमरल्ड एपार्टमेन्ट, अंधेरी (ईस्ट), मुंबई (प्रेरक : मुनिश्रीनेत्रानंदविजयजीम.सा.) गणिवर्य) ३०. श्री धर्मनाथ योपटलाल हेमचंद जैन खेताम्बर मूर्तिपूजक संघ, जैन नगर, अमदावाद (प्रेरक : मुनिश्री संयमबोधि वि. म.) ४१. श्री आदिनाच शेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, नवसारी (प्रेरक : प. पू. आ. श्री गुणरत्नसूरि म. के शिष्य पू. पंन्याराजी ३१. श्री कृष्णनगर जैन बेताम्बर मूर्तिपूजक संघ, सैजपुर, अमदावाद (प्रेरक : प. पू. आचार्य विजय हेमचंद्रसूरीश्वरजी म. श्री पुण्यरत्नविजयजी गणिवर्य तथा पू. पं. यशोरत्नविजयजी गणिवर्य) सा.ना कृष्णनगर मध्ये सं.२०१२ के चातुर्मास निमित्त प.पू. मुनिराजश्री कल्याणबोधि विजय म.सा.) ४२. श्री कोईम्बतूर जैन बेताम्बर मूर्तिपूजक संघ, कोईम्बतूर ३२. श्री बाबुभाई सी.जरीवाला ट्रस्ट, निजामपुरा, वडोदरा (प्रेरक : पू. पंन्यासप्रवर कल्याणबोधि विजयजी म.सा.) ४३. श्री पंकज सोसायटी जैन संघ ट्रस्ट, पालडी, अमदावाद (प. पू. आ. श्री भुवनभानुसूरि म.सा. के गुरुमूर्ति प्रतिष्ठा प्रसंग ३३. श्री गोडी पार्श्वनाथजी टेम्पल ट्रस्ट, पुना (प्रेरक पू. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयघोषसूरीश्वरजी म. सा. पर हुए आचार्य-पंन्यास-गणि पदारोहण दिक्षा वगेरे निमित्त झाननिधि में से) तथा पू. मुनिराजश्री महाबोधि विजयजी म.सा.) ४४. श्री महावीरस्वामी जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक देरासर, पावापुरी, खेतवाडी, मुंबई (प्रेरक : पू. मुनिश्री राजपालविजयजी ३४. श्री शंकर पाईनाथ जैन सेताम्बर मंदिर ट्रस्ट, भवानी पेठ, पुना (प्रेरक : पू. मुनिराज श्री अनंतबोधि विजयजी म.सा.) | म. सा. तथा पू. पं. श्री अक्षयबोधिविजयजी म. सा.) ||IVII Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. श्री हीरसूरीबरजी जगदगुरु सेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ ट्रस्ट, मलाड (पूर्व), मुंबई (प्रेरक : वैराग्यदेशनादच पू.आ. | ५९. श्री मुनिसुव्रतस्वामी जैन देरासर ट्रस्ट, कोल्हापुर (प्रेरक : पू. मुनिराज श्री प्रेमसुंदर वि.) श्री हेमचंद्रसूरि म.सा.) ६०. श्री धर्मनाथ पो. हे. जैन नगर श्वे. मू. पू. संघ, अमदावाद (प्रेरक : पू. पुण्यरति विजयजी महाराजा) ४६. श्री पार्श्वनाथ हे. मूर्ति. पू. जैन संघ, संघाणी ईटेट, घाटकोपर (वेस्ट), मुंबई (प्रेरक : गणिवर्यश्री कल्याणबोधि वि. म.) | ११. श्री दिपक ज्योति जैन संघ, कालाचोकी, परेल, मुंबई (प्रेरक : पू. पं. श्री भुवनसुंदर विजयजी गणिवर्य तथा पू. पं. ७. श्री धर्मनाथ पोपटलाल हेमचंद जैन के. मू. पू. संघ जैन नगर, अमदावाद (पू. मुनिश्री सत्यसुंदर वि. की प्रेरणा से श्री गुणसुंदर विजयजी गणिवर्य) ज्ञाननिधि में से) ६२. श्री पचमणि जैन शेतांबर तीर्थ पेढी-पाबल, पुना (प्रेरक : पं. कल्याणबोधि विजयजी के वर्धमान तप सो ओलीनी ४८. स्तनवेन वेलजी गाला परिवार, मुलुंड-मुंबई (प्रेरक : पू. मुनिश्री रत्नबोधि विजयजी) अनुमोदनाथे, पं. विजकल्याण विजयजी) ४९. श्री मरीन ड्राईव जैन आराधक ट्रस्ट, मुंबई ६३. ओमकार सूरीश्वरजी आराधना भवन-सुरत (प्रेरक : आचार्य गुणरत्नसूरि मना शिष्य मुनिश्री जिनेशरलविजयजी म.) ५०. श्री सहमफणा पार्श्वनाथ जैन देरासर उपाश्रय ट्रस्ट, बाबुलनाथ, मुंबई (प्रेरक : मुनिश्री सत्यभूषण विजयजी) ६४. श्री गोडी पार्श्वनाथ जैन घेतांबर मूर्तिपूजक संघ, नायकु कोलोनी, घाटकोपर (ईस्ट), मुंबई ५१. श्री गोवालीया टेक जैन संघ, मुंबई (प्रेरक : गणिवर्यश्री कल्याणबोधि वि.) ६५. श्री आदीवर घेतांबर मूर्तिपूजक संघ, गोरेगाव (प्रेरक : वैराग्यदेशनादक्ष पू. आ. श्री हेमचंद्रसूरि म. सा.) ५२. श्री विमलनाथ जैन देरासर आराधक संघ, बाणगंगा, मुंबई ६६. श्री आदीचर खेतांबर ट्रस्ट, सालेम (प्रेरक : पू. ग. आ. जयघोषसूरीखरजी म. सा.) ५३. श्री वाडीलाल साराभाई देरासर ट्रस्ट, प्रार्थना समाज, मुंबई (प्रेरक : मुनिश्री राजपाल वि. तथा पं. श्री अक्षयबोधि वि.ग.) ६७. श्री गोवालिया टेक जैन संघ, मुंबई (प्रेरक : पू.पं.प्र. कल्याणबोधि विजयजी म. सा.) ५४. श्री प्रीन्सेस स्ट्रीट, लुहार चाल जैन संघ (प्रेरक : गणिवर्य श्री कल्याणबोधि वि.) ६८. श्री विले पारले श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ अन्ड चेरिटीझ, विलेपार्ले (पूर्व), मुंबई ५५. श्री धर्मशांति चेरीटेबल ट्रस्ट, कांदिवली (ईस्ट), मुंबई (प्रेरक : मुनिश्री राजपाल विजयजी तथा पं. श्री अक्षयबोधि । ६९. श्री नेन्सी कोलोनी जैन थे. मू. पू. संघ, बोरीवली, मुंबई (प्रेरक : पू. पंन्यास प्रवर कल्याणबोधि विजयजी म. सा.) विजयजी गणिवर) | ७०, मातुश्री रतनबेन नरसी मोनजी सावला परिवार (प. पू. श्री कल्याणबोधि वि.ना शिष्य मुनि भक्तिवर्धन वि. म. तथा ५६. साध्वीजी श्री सुर्ययशाश्रीजी तथा सुशीलयशास्त्रीजीना पाला (ईस्ट) कृष्णकुंज में हुए चातुर्मास की आवक में से ___सा. जयशीलाश्रीजीना संसारी सुपुत्र राजनजीनी पुण्यस्मृति निमिते हः सुपुत्रो नवीनभाई. पुनीलाल, दिलीप. हितेश) ५७. श्री प्रेमवर्धक देवास थे. मूर्तिपूजक जैन संघ, देवास, अमदावाद (प्रेरक : पू. आ. श्री हेमचंद्रसूरिजी म.) ७१. श्री सीमंघर जिन आराधक ट्रक्ट, अमरल्ड एपार्टमेन्ट, अधेरी (ई) (प्रेरक : प. पू. श्री कल्याणबोधि विजयजी गणिवर्य) ५८. श्री पार्श्वनाथ जैन संघ, समारोड, वडोदरा (प्रेरक : पंन्यासजी श्री कल्याणबोधि विजयजी गणिवर्व) ७२. श्री धर्मवर्षक के. मूर्तिपूजक जैन संघ, कार्टर रोड... बोरीवली (प्रेरक : प. पू. वैशष्यदेशनादक्ष आचार्य भगवंत ॥VII Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विजय हेमचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. तथा पंन्यासप्रवर श्री कल्याणबोधि विजयजी गणिवर्य) ८६ श्री शेफाली जैन संघ, अमदावाद. ४१. श्री उमरा जैन संघनी श्राविकाओ (ज्ञाननिधि में से) (प्रेरक : प. पू. मुनिराजश्री जिनेशरत्न विजयजी म. सा.) ८७. शान्ताबेन मणिलाल घेलाभई परीख उपाश्रय, साबरमती, अमदावाद (प्रेरक : सा. श्री सुवर्णप्रभाश्रीजी म. तथा सा. ४४. श्री केशरीया आदिनाथ जैन संघ, झाजोली (राज.) (प्रेरक : प.पू.मु. श्री मेरुचंद्र वि. म. तथा पं. श्री हिरण्यबोधि वि. ग.) | श्री रत्नत्रयाश्रीजी म.) ४५. श्री धर्मशांति चेरीटेबल ट्रस्ट, कांदीवली, मुंबई (प्रेरक : प. पू. मुनिराज श्री हेमदर्शन वि.म.सा.) ८८. श्री आडेसर विशा श्रीमाळी जैन देशवासी संघ (प्रेरक : आ. श्री कलाप्रभ सूरीश्वरजी म. सा.) ४६. श्री जैन से. मू. सुधाराखाता पेढी, महेसाणा ८९. श्रीमद् यशोविजवजी जैन संस्कृत पाठशाला एवं श्री श्रेयस्कर मंडल, महेसाणा. ७७. श्री विनोली संभवनाथ येताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, विक्रोली (ईस्ट), मुंबई के आराधक बहनों की तरफ से (ज्ञाननिधि) ९०. श्री तपागच्छ सागरगच्छ आणंदजी कल्याणजी पेढी, विरमगाम (प्रेरक : आ. श्री कल्याणबोधिसूरीमरजी म.) ७८. श्री के. पी. संघवी चेरीटेबल ट्रस्ट, सुरत, मुंबई (प्रेरक : प.प. वैराग्यदेशनादक्ष आचार्य भगवंत श्री विजय हेमचंद्र ९१. श्री महावीर थे. मूर्तिपूजक जैन संघ, विजयनगर, नारणपुरा, अमदावाद सूरीक्षरजी म.सा, तथा पं. श्री कल्याणबोधि विजयजी गणिवर्य. सुश्राविका रतनयेनना ७५ उपवासनी अनुमोदनार्थ) १२. श्री सीमंघर जिन आराधक ट्रस्ट संघ, अंधेरी (पू.) (प्रेरक : सा. श्री स्वयंप्रभाश्रीजी म.) ७९. शेठ कनैयालाल भेरमलजी घेरिटेबल ट्रस्ट, पंदनवाला, वालकेश्वर, मुंबई ९३. श्री चकाला शेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ (प्रेरक : आ. श्री कल्याणबोधि सूरीश्वरजी म.) ८०, शाह जेसींगलाल मोहनलाल आरोशावालों के स्मरणार्थे (हः प्रकाशचंद्र जे. शाह, आफ्रिकायाले) (प्रेरक : पंन्यासप्रवर १४. श्री अठवालाईन्स घेताम्बप मूर्तिपूजक जैन संघ एवं श्री फूलचन्द कल्याणचंद सवेरी ट्रस्ट, सुरत श्री कल्याणबोधि विजयजी गणिवर्य) १५. श्री जैन घेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छ संघ-संस्थान, प्यावर (राजस्थान) (प्रेरक : आ. श्री पुण्यात्नसूरीक्षपजी म.सा.) ८१. श्री नवाहीसा से.मू. पू. जैन संघ, बनासकांठा ९६. पालनपुर निवासी मंजूलावेन रसिकलाल शेठ (हाल-मुंबई). (प्रेरक : आ. श्री कल्याणवेधिसूरीवरजी म.) ८२. श्री पालनपुर जैन मित्र मंडळ संघ, बनासकांठा (प्रेरक : पू. पंन्यासप्रवर कल्याणबोधि विजयजी गणिवर्य.) १७. श्री शंखधर पार्श्वनाथ से.मू.जैनसंघ, पद्मावतीएपार्टमेन्ट, नालासोपारा (ई).(प्रेरक पू. पा.आ.श्री हेमचंद्रसूरीश्वरजीम.) ८३. श्री उंझा जैन महाजन, प्रेरक : पू. पंन्यासप्रवर श्री अपराजित विजयजी गणिवर्य तथा पू. मुनिराज श्री हेमदर्शन वि. म.)- ९८. श्री ऋषभ प्रकाशभाई गाला, संघाणी घाटकोपर (वे.). (प्रेरक : पू. पा. आ. श्री हेमचंद्रसूरीवरजी म.) ८४. श्री सीमंघर जैन देरासर, एमरल्ड एपार्टमेन्ट, अंधेरी (पूर्व), मुंबई. (प्रेरक : पू. सा. श्री स्वयंप्रभाश्रीजीना शिष्या पू. सा. ९९, श्री पुखराज रायचंद आराधना भवन, साबरमती, अमदावाद (प. पू. व्याख्यानवाचस्पति आ. दे. श्रीमद्विजय श्री तत्वप्रज्ञाश्रीजी आदि) रामचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. की दिव्य कृपा से) ८५. श्री बापुनगर थे. मू. जैन संघ, अमदावाद. १००. श्री कुंदनपुर जैन संघ, कुंदनपुर, राजस्थान हः श्री शान्तिलाल मुथा ||VIII Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनशासन आराधना ट्रस्ट प्राचीन श्रुतसमुद्धार पद्रमाला प्रकाशित ग्रंथी क्रं. पद्म ग्रंथ नाम मूलकर्ता टीकाकार १) You श्रीदशवैकालिकसूत्रम् श्री शय्यंभवसूरीश्वरजी पू. आ. हरिभद्रसूरीश्वरजी २) NON श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्रम् श्री सुधर्मास्वामी पू. आ. अभयदेवसूरीश्वरजी श्री सुधर्मास्वामी पू. आ. अभयदेवसूरीश्वरजी VOM श्रीजीवाजीवाभिगमसूत्रम् (भाग - २) श्री सुधर्मास्वामी पू. आ. अभयदेवसूरीश्वरजी ५) Vom श्रीपिण्डनियुक्तिः श्री भद्रबाहुस्वामी पू. आ. मलयगिरिजी ६) Vom श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रम् श्री सुधर्मास्वामी पू. आ. अभयदेवसूरीश्वरजी ७) Noon श्रीउपासकदशाङ्गसूत्रम् श्री सुधर्मास्वामी पू. आ. अभयदेवसूरीश्वरजी ८) TOM श्रीप्रज्ञापनासूत्रम् (भाग - १) श्री श्यामाचार्य पू. आ. मलयगिरिजी ||VII|| Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलकर्ता ************** क्रं. पद्म ग्रंथ नाम र श्रीप्रज्ञापनासूत्रम् (भाग - २) १०) OM श्रीव्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रम् (भाग - १) ११) VAAM श्रीव्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रम् (भाग - २) १२) YAM श्रीव्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रम् (भाग - ३) * १३) WapM श्रीउत्तराध्ययनसूत्रम् (भाग - १) श्रीउत्तराध्ययनसूत्रम् (भाग - २) १५) Vवा श्रीउत्तराध्ययनसूत्रम् (भाग - ३) । १६) YAAM श्रीऔपपातिकसूत्रम् श्रीराजप्रश्नीयसूत्रम् १८) YAM श्रीआवश्यकनियुक्तिः (भाग - १) श्री श्यामाचार्य श्री सुधर्मास्वामी श्री सुधर्मास्वामी श्री सुधर्मास्वामी स्थविर भगवन्त स्थविर भगवन्त स्थविर भगवन्त स्थविर भगवन्त स्थविर भगवन्त श्री भद्रबाहुस्वामी टीकाकार पू. आ. मलयगिरिजी पू. आ. अभयदेवसूरीश्वरजी पू. आ. अभयदेवसूरीश्वरजी पू. आ. अभयदेवसूरीश्वरजी पू. भावविजयजी पू. भावविजयजी पू. भावविजयजी पू. आ. मलयगिरिजी पू. भावविजयजी पू. आ. हरिभद्रसूरीश्वरजी ||VIII|| Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलकर्ता श्री भद्रबाहुस्वामी श्री भद्रबाहुस्वामी श्री भद्रबाहुस्वामी स्थविर भगवन्त क्रं. पद्म ग्रंथ नाम RM श्रीआवश्यकनियुक्ति: (भाग - २) २०) TOM श्रीआवश्यकनियुक्तिः (भाग - ३) २१) YAM श्रीआवश्यकनियुक्तिः (भाग - ४) २२) एRAM श्रीउत्तराध्ययनसूत्रम् (भाग - १) श्रीउत्तराध्ययनसूत्रम् (भाग - २) श्रीउत्तराध्ययनसूत्रम् (भाग - ३) श्रीनन्दीसूत्रम् (मूलम्) २६) YOU श्रीसमवायाङ्गसूत्रम् २७) श्रीअन्तकृद्दशाङ्गम्-अनुत्तरोप पातिकदशाङ्गम्-विपाकसूत्रम् टीकाकार पू. आ. हरिभद्रसूरीश्वरजी पू. आ. हरिभद्रसूरीश्वरजी पू. आ. हरिभद्रसूरीश्वरजी वादिवेताल शान्तिसूरीश्वरजी वादिवेताल शान्तिसूरीश्वरजी । वादिवेताल शान्तिसूरीश्वरजी स्थविर भगवन्त स्थविर भगवन्त श्री देववाचकगणि श्री सुधर्मास्वामी पू. आ. अभयदेवसूरीश्वरजी श्री सुधर्मास्वामी पू. आ. अभयदेवसूरीश्वरजी ||IN|| Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलकर्ता स्थविर भगवन्त स्थविर भगवन्त क्रं. पद्म ग्रंथ नाम श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति: (भाग - १) २९) HOW श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः (भाग - २) *३०) NON श्रीसूर्यप्रज्ञप्तिः ३१) VII श्रीओघनियुक्तिः ३२) YAM श्रीनिरयावलिका ३३) TAM श्रीप्रकीर्णकसूत्राणि ३४) VAII श्रीकल्पसूत्रम् ३५) YAAD श्रीआचाराङ्गदीपिका . ३६) VOOD श्रीस्थानाङ्गसूत्रम् (भाग - १) ३७) VOOM श्रीस्थानाङ्गसूत्रम् (भाग - २) टीकाकार महो. शांतिचन्द्रजी महो. शांतिचन्द्रजी श्री मलयगिरिजी श्री द्रोणाचार्यजी श्री चन्द्रसूरीश्वरजी स्थविर भगवन्त श्री भद्रबाहुस्वामी स्थविर भगवन्त पूर्वाचार्यों श्री भद्रबाहु स्वामी श्री सुधर्मास्वामी श्री सुधर्मास्वामी श्री सुधर्मास्वामी उपा. विनयविजयजी पू. आ. श्री अजितदेवसूरीश्वरजी पू. आ. अभयदेवसूरीश्वरजी म. पू. आ. अभयदेवसूरीश्वरजी म. ||X|| Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रं. पद्म ग्रंथ नाम मूलकर्ता ३८) YAAW श्रीस्थानाङ्गसूत्रम् (भाग - ३) श्री सुधर्मास्वामी ३९) TOP सुत्रकृताङ्गदीपिका (भाग - २) . श्री सुधर्मास्वामी . ४०) You अङ्गचूलिका (भाग - १) पूर्वाचार्य ४१) YAM अङ्गचूलिका (भाग - २) पूर्वाचार्य ४२) YAAM वर्गचूलिका पूर्वाचार्य ४३) WOOD ऋषिभाषितसूत्रम् (भाग - १) प्रत्येक बुद्ध महर्षिओ ४४) L ऋषिभाषितसूत्रम् (भाग - २) प्रत्येक बुद्ध महर्षिओ प्रज्ञापनासूत्रम् (भाग - १) पू. श्यामाचार्य म. प्रज्ञापनासूत्रम् (भाग - २) पू. श्यामाचार्य म. आवश्यकनियुक्तिदीपिका (भाग - १) पू. भद्रबाहुस्वामी म. टीकाकार पू. आ. अभयदेवसूरीश्वरजी म. पू. हर्षकुलगणि म. पू. आ. कल्याणबोधिसूरि म. पू. आ. कल्याणबोधिसूरि म. पू. आ. कल्याणबोधिसूरि म. पू.आ.कल्याणबोधिसूरि म. पू.आ.कल्याणबोधिसूरि म. पू.आ. हरिभद्रसूरि म. पू.आ. हरिभद्रसूरि म. पू.आ. माणिक्यशेखर सूरि म. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रं. पद्म ग्रंथ नाम मूलकर्ता आवश्यकनियुक्तिदीपिका (भाग - २) पू. भद्रबाहुस्वामी म. आवश्यकनियुक्तिदीपिका (भाग - ३) पू. भद्रबाहुस्वामी म. ५०) HOW नन्दीसूत्रम् पू. देववाचकगणि म. प्रश्नव्याकरणम् श्री सुधर्मास्वामी आचाराङ्गम् (प्रथमः श्रुतस्कन्धः) श्री सुधर्मास्वामी टीकाकार पू.आ. माणिक्यशेखर सूरि म. पू.आ. माणिक्यशेखर सूरि म. पू.आ. मलयगिरिसूरि म. पू.आ. ज्ञानविमलसूरि म. नियुक्ति- पू. भद्रबाहुसूरि म. टीका - पू. शीलाङ्काचार्य म. पू.आ. अभयदेवसूरि म. । पञ्चनिन्धिी +प्रज्ञापनातृतीयपदसग्रहणी पू.आ. अभयदेवसूरि म. VO श्रीयोगशास्त्रम् (भाग - १) कलिकालसर्वज्ञ श्रीयोगशास्रम् (भाग - २) ' हेमचंद्रसूरीश्वरजी ५६) YODM श्रीयोगशास्त्रम् (भाग - ३) कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्रसूरीश्वरजी ||XII|| Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रं. ५७) ५८) पद्म *५९) *** ६०) प्राण ६१) ६२) |।*। ग्रंथ नाम हेमप्रकाशमहाव्याकरणम् (भाग - १) हेमप्रकाशमहाव्याकरणम् (भाग - २) श्रीन्यायप्रवेशः श्रीलोकप्रकाश: (भाग - १) श्रीलोकप्रकाश: (भाग - २) श्रीलोकप्रकाश: ( भाग - ३) ६३) ** ६४) *६५) ** ६६) श्रीद्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका (उत्तरार्ध:) श्रीलोकप्रकाश: (भाग - ४) श्रीद्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका (पूर्वार्ध:) उपदेशमाला मूलकर्ता उपा. विनयविजयजी म. उपा. विनयविजयजी म. बौद्धाचार्य दिङ्नाग उपा: विनयविजयजी म. उपा. विनयविजयजी म. उपा. विनयविजयजी म. उपा. विनयविजयजी म. महोत्री यशोविजयजी म. टीकाकार उपा. विनयविजयजी म. • उपा. विनयविजयजी म. पू. आ. हरिभद्रसूरीश्वरजी म. महो. श्री यशोविजयजी म. पू. सिद्धर्षिगणि श्री धर्मदासगणि महो. श्री यशोविजयजी म. महो. श्री यशोविजयजी म. |||XII|| Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रं. ६७) ६८) *** ६९) *७०) पद्म ग्रंथ नाम निक्षेपविंशिका धर्मबिन्दुप्रकरणम् नमस्कारस्वाध्यायः (संस्कृत) नमस्कारस्वाध्यायः (प्राकृत) मूलकर्ता टीकाकार पू.आ. अभयशेखरसूरीश्वरजी दिव्यदर्शन प्रकाशित पू. आ. हरिभद्रसूरि म. ७१) NHS सेनप्रश्नः ७२) ७३) ११५ जम्बूद्वीपसङ्ग्रहणी+संसारदावानलस्तुतिः पू.आ. हरिभद्रसूरि म. ***७४) २०५ षोडशकप्रकरणम् तत्त्वार्थसूत्रम् (प्रथमोऽध्यायः) पू. आ. सेनसूरि म. पू. उमास्वामि म. पू.आ. हरिभद्रसूरि म. पू.आ. मुनिचन्द्रसूरि म. सम्पा. - पू. तत्त्वानंद वि.म. सम्पा. - पू. तत्त्वानंद वि.म. सङ्कलित - प. शुभविजयगणि म. महो. यशोविजय म. पू. आ. प्रभानन्दसूरि म. पू.आ. ज्ञानविमलसूरि म. पू. आ. यशोभद्रसूरि म. महो. यशोविजय म. ||XIV|| Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रं. पद्म ग्रंथ नाम मूलकर्ता ७५)सामाचारी आराधकविराधकचतुर्भङ्गी महो. यशोविजय म. ७६) ७७) प्रमाणमीमांसा तत्त्वार्थसूत्रम् **७८) प्रशिए श्रावकधर्मविधिप्रकरणम् **७९) सम्यक्त्वसप्तत्तिः पञ्चाशकप्रकरणम् ८०) ( ८१) ८२) ८३) ८४) धर्मसङ्ग्रहः (भाग - १) धर्मसङ्ग्रहः (भाग - २) अष्टसहस्त्रीतात्पर्थविवरण गौतमीयकाव्यम् टीकाकार कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि म. स्वोपज्ञ पू. उमास्वाति म. पू. आ. हरिभद्रसूरि म. पू. आ. हरिभद्रसूरि म. पू. आ. हरिभद्रसूरि म. उपा. मानविजय म. उपा. मानविजय म. महो. यशोविजय म. पू. रूपचन्द्रगणि वि. पू. आ. हरिभद्रसूरि म. पू.आ. मानदेवसूरि म. पू. संघतिलकाचार्य म. पू. आ. अभयदेवसूरि म. स्वोपज्ञ स्वोपज्ञ स्वोपज्ञ पू. क्षमाकल्याणगणि वि. ||XV|| Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाकार सं.काशीनाथ शर्मा, शिवदत्त शर्मा स्वोपज्ञ स्वोपज्ञ क्रं. पद्म ग्रंथ नाम नेमिनिर्वाणः 86) MAY प्रतिमाशतकम् 87) YAHOW अनेकान्तव्यवस्थाप्रकरणम् 88) Yam नयोपदेशः नयरहस्यम् + मार्गपरिशुद्धिः ललितविस्तरा + हिंसाष्टकम् 91) YARI हीरप्रश्नः 92) YAAM प्रशमरतिप्रकरणम् जम्बूस्वामी चरित्रम् मूलकंर्ता कवि वाग्भट्ट महो. यशोविजय म. महो. यशोविजय म. महो. यशोविजय म. महो. यशोविजय म. पू. आ. हरिभद्रसूरि म. पू. आ. हीरसूरि म. पू. सास्वाति म. पू. आ. जयशेखरसूरि म. सङ्कलित-पू.कीर्तिविजयगणि म. पू.आ. हरिभद्रसूरि म. ||XVII