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weggo, v. 3DS 9000
ASHI SANSKRIT SERIES
49330.0058300
(ILARIDIS
VSKRIZGRATILA)
NÒ: 88 (Kilva Section No. 14 )
टीकात्रयोपेतं
मेघदूतम्
VOL 02 322 429030308000. L.TOD
महाकविश्रीकालिदासविरचितम् ।
PRINTED-PUBLISIIED SOLD BY
JAI KRISHNA DÂS HABIDAS CUPTA The Chorokhamba Sanskrit Series Office, Vidya Vilas Press
North of Gopalmandir, Benares City.
OC S70,
S900cco
193..
262 60
TALL RIGH ISH","HID BY THE PUBLISHER
Geneve
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690000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000058
Sppi@mggbಣ ೫೫ ೫೫ अस्मत् प्रकाशित मध्यमापरीक्षोपयोगिनिर्धारित पाठ्य-पुस्तकानि
काव्यमीमांसा-चन्द्रिकाटीका सहित । ___ इसके टोकाकार गवर्नमेंट संस्कृत कालेज सरस्वती भवन लाईब्रेरी के पुस्तकाध्यक्ष साहित्याचार्य पं० श्रीनारायणशास्त्रीखिस्तेजी हैं। विषय विवेचन के साथ ही साथ उदाहरण श्लोकों की व्याख्या भी विशदरूप से की गयी है । 'टीका अत्यन्त सुबोध ॐ तथा सरल हैं जो कि विद्यार्थियों के अत्यन्त उपयोग की हुई है।
१ से ५ अध्याय का प्रथमभाग का मूल्य लागत मात्र )
काव्यमीमांसामधुमुदनी विवृत्ति तथा बालक्रीडानामक हिन्दी अनुवाद सहित । 8 इसके टीकाकार तथा अनुवादकर्ता मारवाड़ी संस्कृत महाविद्यालय साहित्य
शास्त्र के प्रधानाध्यापक साहित्याचार्य पं० श्रीमधुसूदनशर्माजी हैं । संस्कृतटीका तथा हिन्दी अनुवाद हो जाने से विद्यार्थियों के बड़े उपयोग की पुस्तक होगई है।
१ से ६ अध्याय का प्रथम भाग का मूल्य ॥)
शिशुपालवधम्मल्लिनाथी तथा वल्लभदेवी व्याख्या द्वयोपेतम् । ___ आज तक शिशुपालपर मल्लिनाथ टीका के अलावा दुसरी कोई भी टीका नहीं १ छपी थी। मगर विद्यार्थियों के उपयोग के लिए बहुत प्रयत्न से तलाश कर मल्लिनाथी, टीकाके साथ साथ वल्लभदेवी टीका भी प्रकाशित की गई है । यह वल्लभदेवाटीका विद्यार्थियों के बड़े उपयोग की सरल तथा परीक्षोपयोगि हुई है। १ से ३ सर्ग का॥) इसका १ से २ सर्ग का मूल्य।) तथा संपूर्ण का मूल्य३) पृथक् २ भी प्राप्त होता है।
मुक्तावली-शब्दखण्डः । __ न्याय-व्याकरण-साहित्याचार्य-मीमांसकशिरोमणिपं० श्रीसूर्यनारायणशुक्ल रचित
परीक्षोपयोगी मयूखटीका तथा भाषा टीका सहित। मयुखटीका के साथ भाषाटीका 2 जाने से साहित्य मध्यमा के विद्याथियोंके लिए अपूर्व पुस्तक होगई है। इससे उत्तम १ परीक्षोपयोगि मुक्तावली शब्दखण्ड का संस्करण दुसरा नहीं । मूल्य लागत मात्र ।)
मुक्तावली-मयूखटीका सहित । - इसके टीकाकार न्याय-व्याकरण-साहित्याचार्य मीमांसक शिरोमणि पं० सूर्य है नारायण शुक्ल जी हैं । आज तक मुक्तावली पर जितनी टाका टीप्पणी छपी हैं उन सबसे उत्तम यह नवीन दंग का सरल पराधोपयोगि टीका विद्यार्थियों के अत्यन्त 0 उपयोग को हुई है।
संपूर्ण ग्रन्थ का मूल्य ११), प्रत्यक्षखण्डात्मक प्रथमोमागः ॥२) अनुमान शखण्डाद्यात्मक द्वितीयाभागः18)
योगसूत्रम् । मणिप्रभा, भोजवृत्ति, योगवन्द्रिका, भावागणेशवृत्तिः, नागोजीमवृत्तिः, योगसुधाकर आदि ६ टोका तथा टीप्पणी सहित। अत्युत्तम संस्करण का मूल्य २)
प्राप्तिस्थान-चौखम्बा संस्कृत पुस्तकालय, बनारस सिटी। Ranan0000amasves an amonds arewarana Pranamil
RangonlineGODDEDROOTDEODESOTRADIONROSOTRACONGREJBSC-STONESSOORDARSTORESENSE
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KASHI-SA
(HARIDAS S'
RIES İLĀ)
( Kavya Section, No. 14 )
THE MEGI ADUTA
KALIDASA WITH THREE COMMENTARIES THE SANJIVINI-By M.M. Sri Mallinatha THE CHARITRAVARDHINI-by Charitra Wardhnacharya
AND edited with a new commenta magni BHAVAPRABOJNINI
AND Introduction etc.
Ву
SAHITYACHARYA Pandit Sri Narayan Sastri Rhiste Asst. Librarian Govt. Sanskrit College, Saraswati Bhawan Library, Benares.
PRINTED, PUBLISHED & SOLD BY JAI KRISHNADÂS-HARIDÂS GUPTA, The Chowkhamba Sanskrit Series Office, Vidya Vilas Press,
North of Gopalmandir, Benares City.
1931, [ Registered According to Act XXV. of 1867.
All Rights Reserved by the Publisher 1
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Printed-Published & sold by JAI KRISHNADAS-HARIDAS GUPTA, The Chowkhamba Sanskrit Series Office,
VIDYA VILAS PRESS, North of Gopal Mandir,
BENARES CITY.
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हरिदाससंस्कृतग्रन्थमालासमाख्यकाशीसंस्कृतसीरिजपुस्तकमालायाः
८८ काव्यविभागे (१४) चतुदशं पुष्पम् ।
टीकात्रयोपेतं
मेघदूतम् महाकविश्रीकालिदासविरचितम् । म० म० पं० श्री मल्लिनाथकृत सञ्जीविन्या, चारित्रवर्द्धनाचार्यविरचितचारित्रवर्द्धिन्या,
तथा
साहित्याचार्य पं० श्रीनारायणशास्त्रि खिस्तकृत भावप्रबोधिनीव्याख्याटिप्पण्या च सहितम् भूमिकावर्णानुक्रमसूचीभ्यां च, संवलितम् । भावप्रबोधिनीकृतैव संशोध्य संपादितम् ।
प्रकाशकजयकृष्णदास-हरिदास गुप्तःचौखम्बा संस्कृत सीरिज आफिस, विद्याविलास प्रेस, गोपालमन्दिर के उत्तर फाटक,
बनारस सिटी।
१९८८ अस्य सर्वेऽधिकाराः प्रकाशकेन म्वायत्तीकृताः ।
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Somasaram
HDDDDDEISCREDMerowapawwaDDDDDDwon
इस कार्यालय द्वारा “काशीसंस्कृतसीरिज" के अलावा और भी ३ सीरिज यथा Mचौखम्बासंस्कृतसीरिज" "बनारससंस्कृतसीरिज" "हरिदाससंस्कृत सीरिज" प्रन्य मालायें निकलती है तथा इन ४ सीरिजों के पश्चात् और भी विविध शास्त्र की पुस्तकें प्रकाशित की गई हैं तथा अन्य सब स्थानों के छपे हुए संस्कृत तथा भाषा-भाष्य के। प्रन्थ विक्रयार्थ प्रस्तुत रहते हैं, सूचीपत्र पृथक् मंगवाकर देखें, इसके अलावा हमारे यहां सर्व प्रकार की संस्कृत, हिन्दी, अङ्ग्रेजी की सुन्दर छपाई होती है, परीक्षा प्रार्थनीय है।
पत्रादि प्रेषणस्थानम्जयकृष्णदास-हरिदास गुप्तःहै "चौखम्बा संस्कृतसीरिज़” आफिस, विद्याविलास प्रेस, है
गोपालमन्दिर के उत्तर फाटक, बनारस सिटी। Harmoamaroam00r.comomonaamanararappare
Romawasowwwwwwwwwwwws
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भूमिका
विश्वविख्यातस्य सरसमधुरकविताकामिनीस्वयंवृतस्य महाकवेः कालिदासस्य कृतिषु अशिताक्षर विपुलगंभीरगढाथ पदे पदे ध्वनिमहिम्ना हृदयग्राहि मेवहूताभिधं काव्यरत्न सर्वातिशायितया जागर्ति । खण्डकाव्यमिदमिति बहवः प्राहुः । दण्डिप्रभृतयः कतिपये महाकाव्यत्वमस्योरीकुर्वन्ति । - स्वाधिकारानुष्ठाने कृतप्रमादः संवत्सरपर्यन्तं भोग्येन स्वामिनः कुबेरस्य शापेन विगलितमहिमा कश्चिद् धनदानुचरो यक्षः चित्राकटाराश्रमेषु वसतिं कुर्वाणः, कदाचित आपा
स्य प्रथमदिवसे नभसि मेचं पश्यन् , अन्तर्वाष्पश्चिरमनुध्याय कथञ्चिदात्मानं प्रकृतिस्थं सम्पाद्य स्वदयिताजीवितालम्बनार्थी सन् , चित्रकूटादेरलकापर्यन्तमध्वानं, ततः सन्देशा. श्चि कथयित्वा प्रेषयतिस्म प्रियासमीपं तं जीमूतमिति सरसात्मनामाह्लादनं कोमलं कथावस्तु ।
इदं च मेघदूतकाव्यं महाकविना कालिदासेन, रामायणीयं रामस्य सीतां प्रति हनूमत्सन्देशमादर्शत्वेन पुरोनिधायैव निर्मितम् । नहि प्राकृत जनवां सीव वश्यवाचां महाक. वीनां भणितयो यतिकमपि निरभिसन्धि वर्णयन्ति । अन्न मेघदूते खलु महाकविः कालिहासो व्यङ्गयमर्यादया रामायणकथामेवांशतो ध्वनयति । तथा हि-ग्रन्थारम्भ एवं दयिता विरही यक्षः 'कश्चित्' इत्यनिर्वचनीयत्वेन दर्शितः । स च ऋष्यमूके सीताविरहमग्नं हनूमते सन्देशं कथयितुमुद्यतं रामं स्मारयति । अग्रे च तत्तत्स्थलेषु 'जनकतनयास्नान. पुण्योदकेषु' 'रामगिर्याश्रमेषु' "रघुपतिपदैरङ्कितं' 'दशमुखभुजोच्छ्वासितप्रस्थसन्धेः' इत्यादि प्रयुञ्जानो महाकविः कं वा गूढमभिसन्धि ध्वनयति ? किञ्च 'इत्याख्याते पवनतनयं मैथिलावोन्मुखो सा' इत्युक्त्या स्पष्टमेव हनूमत्सन्देशमुपजीव्य प्रवृत्तमिदं मेघ. सन्देशमिति न तिरोहितं काव्यार्थभावनाभावितात्मनां सहृदयानाम् । अन्यच्च रामायणे हनुमत इव मेघदूते मेवस्य गजपर्वतादिसादृश्यकथनं कामरूपत्वोक्तिश्च, रामायणे सुग्रोवेण वानरगणगन्तव्यमार्गकथनं, सुवेलाचलमूर्धस्थाया लङ्काया इव कैलासाचलशिरोभूषणाया 'अलकाया वर्णनं, हनूमतो लायामिव मेवल्यालकायां सायंकाले प्रवेशकथनं, हनुमतः सूक्ष्मशरीरेणेव मेघेनाऽपि तथाविधेनैव सन्देशकथनं, अशोकवनिकास्थितया सीतथा समानावस्थाया यक्षपत्न्याः प्रायस्तैरव विशेषणैर्वर्णनम् , रामायगीयमभिज्ञानहानमिवानाऽप्यभिज्ञानदानकथनं, बाद रामायणच्छायामेवाऽनुहरति ।
अस्मिन् लघुनि काव्ये च महाकविना यादृशं शब्दार्थमाधुर्य, लोकोत्तरं वर्णननैपुण्यं,
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भूमिका। यादृशी च व्यक्यमर्यादा, यच्च रसपरिपोषणं, सम्यगुपन्यस्त, तत्स्वानुभवैकसंवेद्यमेव सहृद. याना, नवचसा प्रकाशयितुं शक्यम् । किं बहुना, काव्यस्यास्य लोकोत्तरसरसतासमाकृष्टैर्बहुभिः कविभिमेघदूतपद्यादेकैकं पादमुद्धृत्य एकैकस्मिन् पद्ये घटयित्वा क्रमेण, स्वकाव्यं मेघदूत कोटावन्तर्भावयदूभिः काऽपि कृतार्थता समपादि ।
दूतकाव्यकवीनांमध्ये कालिदास एवं सर्वादिमो मार्गदर्शी दूतकवीनाम् । कालिदाससरणि लेशेनैवानुहरन्ति सन्ति सन्ति भुयांसि दूतकाव्यानि सुप्रसिद्धानि । तत्र धोयीकवेः पवनदूत, वेदान्तदेशिकानां हंससन्देश, च रमणीय जागर्ति । प्रायेण सर्वाण्येव दूतकाव्यानि मन्दाक्रान्ता माश्रित्यैव संदृब्धानि दृश्यन्ते । नच लक्षगग्रन्थेषु केचिदपि क्वचिदप्यनुशिएमस्ति, यत् दूतकाव्यैर्मन्दाक्रान्तावृत्तवटितैरेव भाव्यमिति । तत्रेदमेव निदान प्रतिभाति यन्मन्दाक्रान्तायाः प्रतिपादं प्रथमतश्चतुर्यु पश्चात् पट्स ततः सप्तस्वक्षरेपु यतेविद्यमानतया विरहविक्लवस्य नायकस्य सन्देशावसरे किञ्चिद्विलम्ब्य विश्रम्य निःश्वासविच्छेदपूर्वक कथनं सकरमिति तदेव वृत्तमनुभवरसिकेन महाकविना स्वीकृतम् ।
अत्र च काव्ये शापप्रवासविप्रलम्भशृङ्गारो रसः । अभूतपूर्व कौशलं कालिदासस्यत. इसवर्णने । 'न विना विप्रलम्भेन सम्भोगः पुष्टिमश्नुते' इति चाभियुक्तोक्तिः । शापप्रवासवि. प्रलम्भवर्णने च कालिदासस्य भूयानादरो दृश्यते । तथाहि-शाकुन्तले विक्रमोर्वशीयेचा ऽयमेव रस सम्यगुपनिबद्धो महाकविना ।
किंचाऽस्य महाकवेरनितरसाधारणं भूगोलपरिज्ञानं मेघसन्देशव्याजेन स्फुटमनुभूयते ।
अस्य काव्यस्य बह्वयष्टीकाः सन्ति । तास मलिनाथीया बहुवार मुद्रिताऽपि प्राणभूतेव सर्वासामिति भूयोऽप्यन्त्र सङ्ग्रहीता।
चारित्रवर्द्धनकृता टीका तु नाऽद्यावधि क्वाऽपि मुद्रितेति तत्सङ्ग्रहस्त्वावश्यक एव । अयं चारिम्रवर्द्धनो जैनधर्मीय इति तदीयग्रन्थादिमलेखादनुमीयते । नाऽधिकं किमपि सम्प्रति तद्विषये वक्तुं शक्यम् । भावप्रबोधिनी च भावार्थमात्रैकबोधिका परीक्ष्यच्छात्रोपकारिका मया स्वयंविरचितेति टीकात्रयसंवलितमिदं संस्करणं रसिकानां मुदे छात्राणामुपकाराय च भूयादिति साञ्जलिबन्धं श्रीविश्वनाथमभ्यर्थते ।
सरस्वती भवनम्
কাম্য
विदुषां वशंवदः नारायणशास्त्री विस्त
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श्रीः
श्लो० पृ० ४७ ३८ ६० ४० ५१ ४१ ६३ ४२
६१
४७
३१ ५
६
११ १०
न.
२१ १८ २५ २१
मेघदतस्थ श्लोकानामकारादिवर्णक्रमानुसारिणी
सूची।
पूर्वमेधे
श्लो० पृ० अ०
तामुसीर्य व्रज परिचित० अतः शृङ्ग हरति० १४ १२
तस्माद् गच्छेरनुकनखलं. अप्यन्यस्मिञ्जलधर० ३४ २९
तस्याः पातुं सुरगज इव० आ० आपृच्छ स्वप्रियसखा
तं चेद्वायौ सरति सरल० आराध्यैनं शरवण
तत्र व्यक्तं दृषदि चरण आसीनानां सुरभित० २ ४१
तत्रावश्यं वलयकुलिशो०
तस्योत्सङ्ग प्रणयिन इव० उत्पश्यामि द्रुतमपि० २२ १९ उत्पश्यामि त्वयि तटगते० ५९ ४६
दी/कुर्वन्पटु मदकलं०
घ० कश्चित्कान्ताविरह
धूमज्योतिः सलिलमरुतां० कर्तुं यच्च प्रभवति० ग०
नीपं दृष्ट्वा हरितकपिश० गच्छन्तीनां रमणवसति
नीचैराख्यं गिरिमधिवसे० गम्भीरायाः पयसि०
प. गत्वा चोध्वं दशमुख
प्रत्यासन्ने नभसि इयिता० छनोपान्तः परिणत०
पाण्डुच्छायोपवनवृतयः० १८ १५ ज०
प्राप्यावन्तीनुदयनकथा० जातं वंशे भुवनविदिते
पादन्यासैः कणितरसना० जालोद्रीणरुपचितवपुः० ३२ २८
पश्चादुर्भुजतरुवनं० ज्योतिर्लखावलयि गलितं० ४४ ३६
प्रालेयादेपतटमति
ब० तस्मिन्नद्रौ कतिचिदबला० २ ३
ब्रह्मावर्त जनपदमथ० तस्य स्थित्वा कथमपि०
भर्तुः कण्ठच्छविरितिक त्वामारूढ़ पवनपदवी० तां चावश्यं दिवसगणना० १० १०
मन्दं मन्दं नुदति पवन० त्वय्यायत्तं कृषिफलमितिः
मार्ग तावच्छ णु कथयत० त्वमासारप्रशमितवनो. १७ १५
___य तस्यास्तिक्तैर्वनगजमदै०
ये संरम्भोत्पतनरभसा:० तेषां दिक्षु प्रथितविदिशा० तां कस्यांचिद्भवनवलभौ० ३८ ३२ रत्नच्छायाव्यतिकर इव० तास्मिन्काले नयनसलिलं० तस्याः किंचित्करतमिव०
विशान्तः सन्नज वननदी त्वनिष्यन्दोच्छ्वसित०४२ ३५ वक्रः पन्था यदपि भवतः० तत्र स्कन्दं नियतवसति० ४३ ३६ ।। वीचिक्षोभस्तनितविहग० त्वय्यादातुं जलमवनते०४६ ३८ वेणीभूतप्रतनुसलिला०
छ०
४ ६ २३ २० ३० २५
२९
२६ २२ २७ २३ २८ २३ २९ २४
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अ०
आ.
भ०
श्लो० पृ० शब्दायन्ते मधुरमनिलैः०५६ ४४
हित्वा हालामभिमतरसां० ४९ ४० संतप्तानां त्वमसि शरण०७ ७ हित्वा तस्मिन्भुजगवलयं० ६० ४७ स्थित्वा तस्मिन्वनचरवधू० १९ १६ हेमाम्भोजप्रसवि सलिलं० . ६२ ४८
ऊत्तरमेघ
नूनं तस्याः प्रबलरुदितो अक्षय्यान्तभवननिधयः०८ ५५ । निःश्वासेनाधरकिसलय० अङ्गेनाङ्ग प्रतनु तनुना० ३९ ७४ ... नन्वात्मानं बहु विगणय० आलोके ते निपतति पुरा० २२
पादानिन्दोरमृतशिशिरा० २७ आधिक्षामां विरहशयने० आये बद्धा विरहदिवसे०
भर्तुमित्रं प्रियमविधवे० ३६ ७३ आश्वास्यैवं प्रथमविरहो.
भित्वा सद्यः किसलयपुटान० ४४ ७८ इत्याख्याते पवनतनयंः ३७ ७३
भूयश्चाहं त्वमपि शयने० ४८ ८०
म० उत्सङ्गे वा मलिनवसने
मंदाकिन्या:सलिलशिशिरैः० ४
मत्वा देवं धनपतिसखं० १० १६ एभिः माधो हृदयनिहित १७६० मामाकाशप्रणिहितभुज०४३ ७७ एतस्मान्मां कुशलिनमभि० ४९ ८१
य० एतत्कृत्वा प्रियमनुचित० ५२
यस्यां यक्षाः सितमणिमया० ३ १२
यत्र स्त्रीणां प्रियतमभुजा० कच्चित्सौम्य व्यवसित०५१ ग.
रक्ताशोकश्चल किसलय. गत्युत्कम्पादलकपतितै०
रुद्धापाङ्गाप्रसरमलकैः गत्वा सद्यः कलभतनुतां०
विद्युत्वंतं ललितवनिताः० जाने सख्यास्तव मयि मनः० ३१ ६९ वामश्चित्रं मधु नयन्यो
वापी चास्मिन्मरकतशिला० १३ ५७ तत्रागा धनपतिगृहात्० १२ ५७
वामश्चास्याः कररुहपदै० तस्यास्तीरे रचितशिखरः० १४ ५८ तन्मध्ये च स्फोटकफलका० १६ ६९ शेषान्मासान्विरहदिवस० २४ ६६ तन्वी श्यामा शिखरिदशना० १९ ६१ शब्दाख्येयं यदपि किल ते ४० ७६ तां जानीथाः परिमितकथां० २० ६२
श्यामास्वङ्ग चकितहरिणी० ४१ ७६ तस्मिन्काले जलद यदि सा० ३४ ७१
शापान्तो मे भुजगशयना० तामुत्थाप्य स्वजलकणिका० ३५ ७२
श्रुत्वा वार्ता जलदकथिर्ता ५४ तामायुष्मन्मम च वचना० ३८ त्वामालिख्य प्रणयकुपितां० ४२ ७७ सव्यापारामहनि न तथा० तं संदेशं जलधरवरो ६३ ८४
सा संन्यस्ताभरणमबला.
संक्षिप्येत क्षण इव कथं० नीवीवन्धोच्छ्वसित नेत्रा नीताः सततगतिना० ६ ५४ ।
हस्ते लीलाक्रमलमलके०
क०
श०
०
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मेघदूतकाव्यम् सञ्जीवनी, चारित्रवद्धिनी, भावप्रबोधिनी सहितम् ।
पूर्वमेघः।
सञ्जीवनी। मातापितृभ्यां जगतो नमो वासार्धजानये
स्खद्यो दक्षिणक्पातसंकुचद्वामदृष्टये ॥ १॥ अन्तरायतिमिरोपशान्तये शान्तपावनमचिन्त्यमरम् तन्नरं वपुपि कुञ्जर मुखे मन्महे किमपि तुन्दिल बरही। शरणं करवाणि कामदं ते चरणं वाणि चराचरोपजीच्या करुणाम तृणैः कटाक्षपातैः कुरु मामम्ब कृतार्थसार्थवाहमा
इहान्वयसुखेनैव सर्व व्याख्यायते गया।
नामलं लिख्यते किञ्चिन्नानपेक्षितमुच्यते ॥ ४ ॥ "आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि नन्मुखम्" इति शास्त्रात्काव्यादौ वस्तुनिर्देशाकथां प्रस्तौतिकश्चित्कान्नाविरहगुरुणा स्त्राधिकारात्प्रमत्तः
शापेनास्तङ्गमितमहिमा वर्षभोग्येण भतुः । यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नान पुण्योदकेषु
स्निग्धच्छायातरुषु वसति रामगियाश्रमेषु ।। १ । कश्चिदिति ॥ स्वाधिकारात्स्वनियोगात्प्रमत्तोऽनवहितः। “प्रमादोऽनवधानता” इत्यमरः । “जुगुप्साबिरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानम्" इत्यपादानत्वम् । तस्मात्पञ्चमी । अत एवापराधाद्धेतोः । कान्ताविरहेण गुरुणा दुर्भग्ण। दुस्तरेणेत्यर्थः । “गुरुरन्तु गीष्पतौ श्रेष्टे गुरौ पितरि दुर्भरे” इति शब्दार्णवे । वर्षभोग्येण संवत्सरभोग्येण । “कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे" इति द्वितीया । “अत्यन्तसंयोगे च” इति समासः। “कुमति च” इति णत्वम् । भर्तुः स्वामिनः शापेन। अस्तंगमितो महिमा सामथ्यं यस्य सोऽरन्तंगमितमहिमा। अस्तमिति मकारान्तमव्ययन् । तस्य "द्वितीया-" इति योगविभागात्समासः। कश्चिदनिर्दिष्टनामा यक्षो देवयोनिविशेषः । “विद्याधराऽपरोयक्षरक्षोगव कन्नराः। पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः" इत्यमरः । जनकनन यायाः सीतायाः स्नानैरवगाहनैः पुण्यानि पवि. बाग्युदकानि येषु नेषु । पावनेग्वित्यर्थः । छापाप्रधानास्तरवश्छायातरवः । शाकपार्थिवादित्वात्समासः । स्निग्धाः सान्द्रारकायातरवो नमेरुयक्षा येषु तेषु । वसतियोग्येष्वित्यर्थः । “स्निग्ध तु मम लान्द्रे” इति । "छायाक्षो नोरुः स्यात्" इति च शब्दार्णवे । रामगिरेश्चित्रकूटस्याश्रमेषु वसतिम् । "वहिवस्यतिभ्यश्च" इत्यौणादिकोऽतिप्रत्ययः। चक्रे कृतवान् । अत्र रसो विप्रलम्भाख्यः शृङ्गारः। तत्राप्युन्मादावस्था। अत एवैकवानव
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मेघदते-प्रवेमघः।
स्थानं सूचितमाश्रमेष्विति बहुवचनेन । सीतां प्रति रामस्य हनुमत्संदेशं मनसि निधाय मेघसंदेशं कविः कृतवानित्याहुः । अत्र काव्ये सर्वत्र मन्दाक्रान्तावृत्तम् । तदुक्तम्-"मन्दाक्रान्ता जलधिषडगम्भॊ नतौ ताद् गुरू चेत्" इति ॥ १ ॥
चारित्रवर्द्धनी। नत्वा पद्मावतीपादपद्मं सद्म श्रियामहम् ।
मेघदूताख्यकाव्यस्य कुत्रे टीका यथामति ॥१॥ एवं हि किल श्रूयते । समस्तप्रशस्तसर्वास्तिकप्रवरसमभिलक्ष्यमाणवैभवस्तत्रभवद्भवानीवल्लभसखो निखिलकिन्नरप्रवरोत्तमाङ्गशेखरीकृतविततशासनः कदाचित्कमपि कनककमलरक्षाध्यक्षं यक्षमादिदेश। सोऽपि तदाज्ञावश्यो लसदक्षुण्णप्रणयगुणानुबद्धाशयोऽपि 'मानससरोवरमार । तत्र कथं कथमपि त्रियामायामद्वयमतिवाह्य रजन्यपि निर्जगामैवेति मन्यमानो निजकान्ताविरहकातरः स्वाश्रयमेवायासीत् । अत्रान्तरे क्षणदाप्रान्तसमुत्पन्नप्रबोधविधूतश्रोत्रतालास्तरलतरशुण्डादण्डास्फालनप्रोदलितसकलजलजजातयो दिग्गजास्तत्तडागभागमालोडयाञ्चक्रुर्वक्राः । राजराजोऽपि प्रातरेवाकर्णिततवृत्तान्तः समुत्पन्नरोषकषायविलोचनश्चपलतर तमाहूय स्वकीयजायाव्यसनिनमज्ञया तयैव तव सम्वत्सरमदर्शनमस्तु महिमा च विलीयतामित्यशाप्सीचेममत्र वस्तुनिर्देशमुद्दिशन्नाह-चिकीर्षितस्य काव्यस्याशीनमस्क्रिया वस्तुनिदेशो वापि तन्मुखमिति न्यायात्।। ___ कश्चिदनिर्दिष्टनामधेयो यक्षो गुह्यको रामेण दाशरथिनोपलक्षितो गिरी रामगिरिश्चित्रकूट: पर्वतस्तस्याश्रमा मुनिगृहास्तेषु वसतिमवस्थानं चक्रे कृतवान् । बहुवचन विरहित्वादेकत्रावस्थानासम्भचसूचनार्थम् । कीदृशेषु । जनकस्य तनया सीता तस्याः स्नानेनाप्लवनेन पुण्यानि पवित्राण्युदकानि येषु तेषु । एतेन पतिव्रतासंयोगात्पुण्यत्वं निरूपितम् । तथा स्नि. ग्धाः शाद्वलदलाश्छायाऽनासपस्तत्प्रधानास्तरवो वृक्षा येषु ते तेषु । अनेन वियोगिनो योग्य स्थानं ध्वन्यते । ननु निजस्थानमलकां परित्यज्य तपोवनाश्रये कोऽस्य हेतुरित्याह-भतुः स्वामिनः कुबेरस्य शापः कोपवचस्तस्मादस्तगतः प्रतिहतो महिमा दूरविलोकनश्रवणादिशक्तिर्यस्य स तथा । कीदृशेन वर्षेण संवत्सरेण सम्भुज्यते समाप्यते वर्षभोग्यः । यद्वा वर्ष भोग्यः कालावनोरत्यन्तसंयोगे द्वितीया । तेन तथा कान्ताया वल्लभाया विरहो वियोगस्तेन गुरुर्दर्वहस्तेन । अथवा कान्ताविरहे गुरुरिव गुरुरुपदेशकः । तेन स्त्रीवियोगित्वेऽमुष्य मनुष्यपरिज्ञानत्वात् । ननु किमर्थं स्वामी शशापेत्याह-आत्मीयोऽधिकारो व्यापारस्तडागरक्षणलक्षणस्तस्मिन् प्रमत्तो विकलः । अतो रागस्य स्थितिमात्रात्तीर्थभूतोऽयं पर्वतः इति तमेवाबीभजत् । यतो "यदध्यासितमर्ह द्विस्तद्धि तीर्थ प्रचक्षते” इात । जनकात्मजाविरहितो रामस्तनासीनस्तां प्राप्तवान् । अतो ममाप्येवं स्थानमहिम्ना कान्तासङ्गतिर्भविष्यतीति तस्याश्रयणम् । अत्र वर्षभोग्यत्वेन षड्ऋतुष्वपि नानाप्रकारविरहिदुःखानुभवनं दर्शितम् । अत एव "येन सम्वत्सरो दृष्टः सकृत्कामश्च सेवितः। तेन सर्वमिदं दृष्ट पुनरावर्तितं जगत् ॥ नयत्र शापावसानस्तत्र रागस्य स्थितिकारणात् । कभिप्रायाभावाच्च आत्मनेपदं कथमिति न वाच्यम् । पदसंस्कारेण साधुत्वाङ्गीकारात् । सर्वत्र मन्दाक्रान्ता वृत्तम् । तल्लक्षणं यथा"मन्दाक्रान्ता जलधिषड्गैम्भॊनतौ ताद् गुरू चेत्" । प्रावृडाश्रयेण प्रवासविप्रलम्भशृङ्गारः॥१॥
भावप्रबोधिनी। कश्चिद्यक्षः स्वाधिकारसम्पादने स्खलितः, भर्ना कुचरेण वर्षमानं यावद्वनितादर्शन परिहतुं शप्तः सन् अपगतनिजालौजिकसामर्थ्यश्चित्रकूटगिरी जनकतनयापावितेष्वाश्रमेषु निवा. संकल्पितवान् ॥१॥
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सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनी भावप्रबोधिनीसहित
तस्मिन्नौ कतिचिदवलाविप्रयुक्तः स कामी नीत्वा मासान्कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठः । आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं क्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श || २ ||
1
(सञ्जी०) तस्मिन्निति ॥ तस्मिन्नद्वौ चित्रकूटाहौ । अबलाविप्रयुक्तः कान्ताविरही। कनकस्य वलयः कटकम्। “कटकं वलयोऽस्त्रियाम्" इत्यमरः । तस्याभ्रंशेन पातेन रिक्तः शून्यः प्रकोष्ठःकूपराधः प्रदेशो यस्य स तथोक्तः । “कक्षान्तरे प्रकोष्ठः कूर्पराधः" इति शाश्वतः । विरहदुःखात्कुश इत्यर्थः । कामी कामुकः स यक्षः । कतिचिन्मासान् । अष्टौ मासानित्यर्थः । " शेषान्मासान् गमय चतुरः" इति वक्ष्यमाणत्वात् । नीत्वा यापयित्वा । आषाढानक्षत्रेण युक्ता पौर्णमास्यापाढ़ी । "नक्षत्रेण युक्तः कालः" इत्यण् । “टिड्ढाणज्" इत्यादिना ङीप् । साषायस्मिन्पौर्णमासीत्याषाढो मासः । “सास्मिन्पौर्णमासीति संज्ञायाम्" इत्यण् । तस्य प्रथमदिवसे आश्लिष्टसानुमाक्रान्तकूटम् । वप्रक्रीडा उत्खातकेलयः । “उत्खातकेलिः शृङ्गाद्यैdurist निगद्यते" इति शब्दार्णवे । तासु परिणतस्तिर्यग्दन्तप्रहारः । “तिर्यग्दन्तप्रहारस्तु गजः परिणतो मतः” इति हलायुधः । स चासौ गजश्च तमित्र प्रेक्षणीयं दर्शनीय मेघं ददर्श । गजप्रेक्षणीयमित्यत्रेव लोपाल्लुप्तोपमा । केचित् “आषाढस्य प्रथमदिवसे" इत्यन्त्र " प्रत्यासन्ने नभसि” इति वक्ष्यमाणनभोमास प्रत्यासत्त्यर्थ “प्रशमदिवसे " इति पाठं कल्पयन्ति । तदसँगतम् । प्रथमातिरेके कारणाभावात् । नभोमासस्य प्रत्यासत्यर्थमित्युक्तमिति चेन्न । प्रत्यासतिमात्रस्य मासप्रत्यासत्त्यैव प्रथमदिवसस्याप्युपपत्तेः । अत्यन्तप्रत्यासत्तेरुपयोगाभावेनाविवक्षितत्वात् । विवक्षितत्ये वा स्वपक्षेऽपि प्रथमदिवसातिक्रमेण मेघदर्शनकल्पनायां प्रमाणाभावेन तदसंभवात् । प्रत्युतास्मत्पक्ष एवं कुशल संदेशस्य भाग्यनथप्रतीकारार्थस्य पुरत एवानुमानमुक्तं भवतीत्युपयोगसिद्धिः । ननून्मत्तस्य नायं विवेक इति चेन्न । उन्मत्तस्य arat प्रतीकारार्थं प्रवृत्तिरपीति संदेश एवं मा भूत् । तथा च काव्यारम्भ एवाप्रसिद्धः स्यादित्यहो मूलच्छेदी पाण्डित्यप्रकर्षः । कथं तर्हि “ शापान्तो मे भुजगशयनादुत्थिते शार्ङ्गपाणt" इत्यादिना भगवत्प्रबोधावधिकस्य शापस्य मासचतुष्टयावशिष्टस्योक्तिः, दशदिवसाधिक्यादिति चेत्-स्वपक्षेऽपि कथं सा, विंशतिदिवसैन्यूनत्वादिति संतोष्टव्यम् । तस्मादीषद्वैपम्यमविवक्षितमिति सुष्ट क्तं "प्रथम दिवसे" इति ॥ २ ॥
( चारि० ) अत्र स्थितश्च किं व्यधादित्याकाङ्क्षायां व्याचष्टे
तस्मिन्निति - कामी कामुकः स यक्षस्तस्मिन् चित्रकूटगिरे रेवानुवृत्तिस्तच्छब्देन विधीयत इत्यनुमन्तव्यम् । कतिचित्कियतोऽपि शेषान्मासानतिवाह्याऽऽषाढस्य प्रथमः प्रवरश्चासौ दिवसश्च । यस्मिन् वासरे स मासः पूर्तिमियर्ति सा, आपाव्यमावास्येति भावः । तस्य प्रवरत्वं च क्रुप्यादिकार्याणां तस्मिन्प्रारम्यमाणत्वात् । मेवं यस्मिन् ददर्श विलोकितवान् । कीदृशम् | आश्लिष्टा आलिङ्गिताः सानवः शिखराणि येन तम् । तथा वप्रस्य तदस्य क्रीडा विदारणं तत्र परिणतस्तिर्यग्दन्तप्रहारश्चासौ गजश्च तत्प्रेक्षितुं योग्यो रमणीयो यस्तम् । उपमालङ्कारः । कीEat at saat प्रियया विप्रयुक्तो विरहितोऽत एव कुशशरोरत्वात्कनकस्य हेम्नो वलयानि कङ्कणानि तेपां भ्रंशोऽधःपतनं तेन रिक्तौ शून्यौ प्रकोष्ठौ कूपराधोभागस्तथा । raisedीति कामी । अतिशायने मत्वर्थीयः । अत एवालङ्करणमकरोन्न कामी मण्डनप्रिय इति वचनात् । "आदि प्रवरौ प्रथम प्रवाने परिकीर्तितौ । वप्रो रोधसि केदारे प्राकारे पितरि स्मृतः । तिर्यग्दन्तप्रहारस्तु गजः परिणतो मतः " | परिणतग्रहणेनैव सिद्धे पुनर्गजग्रहणं
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मेघदूते-पूर्वमेघः।
करिकलभवत् ज्ञेयम् । प्रथम दिवास इति पाठे मासस्या बसानो दिवसः स एव प्रथमदिवसः तत्र पवाद्यच् । प्रथमः प्रख्याता विष्णुदिवसः प्रथमकादशीत्यर्थः । तत्रात एक शापान्तो मे भुजगशयनादुत्थिते शाङ्गपाणौ मासानेतान् गमय चतुर इति वाक्यम् ॥ २ ॥
(भाव०)अथ कामी स यक्षान्तस्मिन् पर्वते |विरहितान् कतिपयान मास.न् यापयित्वा क्षामक्षामाङ्गः सन् आपाढस्य प्रथमदिवसे समाश्रिततत्पर्वतशिखर तिर्यग्दन्तप्रहारिगजव. दर्शनीयं मेघं ददर्श ॥२॥ तस्य स्थित्वा कथमपि पुरः कौतुकाधानहेतो.
रन्तवाष्पश्चिरमनुचरो राजराजस्य दध्यौ । मेघालोके मवति सुखिनोऽप्यन्यथावृत्ति चेतः
कण्ठाश्लेपप्रणयिनि जने किं पुनरसंस्थे ॥ ३ ॥ (सञ्जी०) तस्येति ॥ राजानो यक्षाः । “राजा प्रभौ नृप चन्द्रे यक्षे क्षत्रियशक्रयोः" इति विश्वः । राज्ञां राजा राजराजः कुरेरः। "राजराजो धनाधिपः” इत्यमरः । “राजाहः सखिभ्य ष्टच्" इति टच्प्रत्ययः । तस्यानुचरो वक्षः । अन्तर्वापो धीरोदात्तत्वादन्तःस्तम्भिताशः सन् । कौतुकाधानहेतोरभिलापोल्पाकारणस्य । "कौतुकं चाभिलापे स्यादत्लो नमहर्षयोः" इति विचः । तस्य मेघस्य पुरोऽग्रे कथमपि गरीयसा प्रयत्नेनेत्यर्थः । "ज्ञानहेतुविवक्षायामन्यापि कथमव्ययम् । कथमादितथाप्यन्तं यत्तगौरबबाढयोः" इत्युन्ज्वलः। स्थित्वा चिरं दध्यौ चिन्तयामास । "ध्यै चिन्तायाम्" इति धातोलिट् । मनोविकारोपशमनपर्यन्तमिति शेषः । विकारहेतुमाह-मेघालोक इति । मेवालोके मेघदर्शने सति सुखिनो ऽपि प्रियादिजनसंगतस्यापि चेतश्वित्तमन्यथाभूता वृत्तिापारो यस्य तदन्यथावृत्ति भवति । विकृतिमापद्यत इत्यर्थः । काठाश्लेषप्रणयिनि कण्टालिङ्गानानि जने । दूरे संस्था स्थितिर्यस्य तस्मिन्दरसंस्थ सति किं पुनः । विरहिणः किमुत बक्तव्यमित्यर्थः । विरहेणां मेवदर्शनमुदीपनं भवतीति भावः । अर्थान्तरन्यासोऽलंकारः। तदुक्तं दण्डिना----"ज्ञेयः सार्थान्तरन्यासा वस्तु प्रस्तुत्य किचन । तत्साधनसमर्थस्य न्यासो योऽन्यस्य बरन्तुनः" इति ॥ ३॥ (चारि०) मेघविलोकनानन्तरं यक्षः किमकादित्याह-तस्येति ।
राजराजस्य धनदस्यानुचरः किडरो यक्षस्तस्य मेघस्य पुरोऽग्रे कथमपि महता कष्टेन स्थित्वा चिरं चिरकालं दध्यो ध्यातवान् । स्वजायामभिसन्धाय विरं चिन्तयति स्मेत्यर्थः । यद्वा निजाभिप्रायममुष्मै कथयामि न वेति चिन्तयामास । केचित्सकर्मकत्वात्किमध्यज्ञायमानं वस्तु दध्याविति व्याचक्षते । प्रत्यासन्ने ऽस्मिन्दुःसहे मेघसमये कान्ताप्राणरक्षणं करोमीति व्यातवानित्यपरे । सकर्मकस्यापि कर्माविवक्षा ऽश्ववद्गच्छतात्यत्र यथा।अथवा सकर्मकत्वादध्याहारक्लेशं मत्वा नान्यथा व्याकुर्वत । अनुचरो मघसमय कोतुकाधानहेतोः पुराऽलकायाः स्थित्वा निश्चलीभूय यस्य राजराजस्य दथ्यो। अधीगर्थदयेशां कर्मगीति पष्ठी। कीदृशस्य मेघस्य कौतुकानां कुतुकानामाधानं तस्य हेतोः । कोदशाऽनुचरः । अन्तःस्तम्भितम् , बाष्पमऽश्रु येन स तथा । प्रभुत्वादहिरनिःसृतपानीयलोचनो बभूव। प्रभुत्वं चामु प्य राजराजस्य सेवकत्वात् । जलदविलोकनादस्य चेतसो बैंकलव्य किमित्यासीदित्याह---सुखिनः कान्तासहितस्यापि पुंसश्चेतो मनो मेवस्यालोको दर्शन तस्मिन् सति । अन्यथा वृत्तिर्यस्य तत्प्रकृताववस्थितेरन्यथा वर्त्तनमित्यर्थः । भवति सम्पद्यते । कण्ठे आवलेष अलिङ्गानं तत्रा प्रोतिर्यस्य तस्मिन् वल्लभालक्षगे जन दूरसंस्थऽन्तर्धानभाजि सति चित्तमन्यधावृत्ति स्यात् किं पुनः किं वक्तव्यम् । अन्यथावृत्ति भवत्प्रवेत्यर्थः । आलोके दर्शने बातो भारीपटहमानकावित्यमरः॥३॥
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सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनी भावप्रबोधिनीसहिते--
५
(भाव०) कौतुकजनकस्य तस्य पुरः क्षणं स्थित्वा प्रयलसंस्तम्भिताश्रुवेगः स यक्षश्चिरं चिन्तयामास । मेघदर्शने हि सति कान्तासहितस्यापि जनस्य चेतः क्षणं व्याकुलीभवति । यस्य प्रणयी जनो दूरे तिष्ठति तस्य पुनः किं वक्तव्यम् ॥ ३ ॥ अथ समाहितान्तःकरणः सन्कि कृतवानित्यत आहप्रत्यासन्ने नभसि दयिताजीवितालम्बनार्थी
जीमूतेन स्वकुशलमयीं हारयिष्यन्प्रवृत्तिम् । स प्रत्यौः कुटजकुसुमैः कल्पिताघाय तस्मै
प्रीतः प्रीतिप्रमुखवचनं स्वागतं व्याजहार ॥ ४ ॥ (सञ्जी० ) प्रत्यासन्न इति॥ सयक्षः। यश्चिरं दध्यौ स इत्यर्थः । नभसि श्रावणे। “नभः वं श्रावणो नभाः" इत्यमरः । प्रत्यासन्न आपाढस्यानन्तरं संनिकृष्टे । प्राप्से सतीत्यर्थः । दयिनाजीवितालम्बनार्थी सन् । वर्षाकालस्य विरह दुःखजनकत्वात् "उत्पन्नानर्थप्रतीकारादनोंत्पत्तिप्रतिबन्ध एवं वरम्” इति न्यायन प्रागेव प्रियाप्राणधारणोयायं चिकीर्षुरित्यर्थः । जीवनस्योदकस्य मतः पटबन्धो जोमूतः । पोदरादित्वात्साधुः । "मृतः स्यात्पटबन्धेऽपि” इति रुदः । तेन जीमूतेन जल घरेण प्रयोज्यन स्वकुशलमयी स्वक्षेमप्रधान प्रवृत्ति वार्ताम् । “वार्ता प्रवृत्तिवृत्तान्तः” इत्यमरः । हारथिप्यन्प्रापनियन् । "लट् शेषेच" इति चकारात्कियोपर. दाल्लुट्प्रत्ययः । जीवनाथ कर्म जीवनप्रदनैव कर्तव्यमिति भावः । "हक्रोरन्यतरस्याम्" इति कर्मसंज्ञाया विकल्पाल्पक्षे कर्नरि तृतीया । प्रत्यग्रेभिनवैः कुटजकुसुमैगिरिमल्लिकाभिः । "कुटजी गिरिमल्लिका” इति हलायुधः । कल्पितार्थाय कलि तोऽनुष्टितोऽर्घः पूजाविधिर्यस्मै तस्मै । "मूल्ये पूजाविधावः” इत्यमरः । तस्मै जोडताय । “क्रियाग्रहणमपि कर्तव्यम्" इति प्रदानत्वाच्चतुर्थी । प्रीतिप्रमुखानि प्रीतिपूर्वकाणि वचनानि यस्मिन्कर्मणि तत्प्रीति. प्रमुखवचनं यथा तथा। शोभनमागतं स्वागतं स्वागत वचनं प्रीतः सन्व्याजहार । कुशलागमनं पप्रच्छेत्यर्थः । नाथन त्वत्र "प्रत्यासन्ने मनसि" इति साधीयान्पाठः कल्पितः । प्रत्यापन्ने प्रकृतिमापने सतीत्यर्थः । यस्तु लेनेच पूर्वपाविरोधः प्रदर्शितः सोऽस्माभिः "आषाढस्य प्रथमदिवसे” इत्येतत्पाठविकल्पसमाधानेनैव समाधाय परिहृतः ॥ ४ ॥ (चारि०) विचारानन्तरं किमकरोदित्याह--
प्रत्यासन्न इति । जीमूतेन मेघन स्वस्यात्मनः कुशलं क्षेमं तद्पां प्रवृत्तिं वाती प्रापयितुं प्रीतः सम्पादितसत्कारोऽ सौ मत्कार्य सम्पादयिष्यतीति सन्तुष्टः सन् स यक्षस्तस्मै मेघाय न्वागतं शोभनमागमनं ते इति व्याजहार । पप्रच्छ। कीदृशं, प्रोत्या स्नेहेन प्रसुखं श्रेष्ठं वचनं चत्र तत् तद्यथा । माङ्गल्यवान् कुशलं तवत्यादि। काशाय तस्मै प्रत्यग्रेनेत्रीनैः कुटजानां गिरिमल्लिकानां कुसुमैः कल्पिती इत्तोऽयी पूजाविधिर्यस्य स तस्मै । कीदृशः नभसि श्रावणे मासि प्रत्यासन्ने निकटस्थिते सति दयिता कान्ता तस्या जीवितं जीवन तस्याऽवलम्बनं धागणं तदर्थयते । प्रत्यासन्ने मनसीति पाठे ध्यानव्याकुलिने चेतसि पुनः प्रतिष्टिते सतीत्यर्थः । वापि जीवितालम्बनार्थामिति पाठस्तत्रालम्बनमर्थः प्रयोजनं यस्या इति प्रवृत्तिविशेषणम् । तपात्ययस्य संनिधानत्वेन निजनिधनशड्या सापि मरिष्यतीति स्वप्रवृत्ति मेघेन प्रापयितुं पूजापूर्व तस्मै स्वागतमप्राक्षादित्यर्थः । नमः खं श्रावणो नभा इत्यनेकार्थः । नभाः श्रावणिकश्च स इत्यमरः । वार्ता प्रवृत्तिवृत्तान्त इत्यभिधानचिन्तामणिः । कुटजो गिरिमल्लिकति हलायुधः । तस्मा इति चतुर्थी चाशिघ्या युध्येति चतुर्थी ॥४॥
( भाव० ) प्रत्यासने वर्षाकाले विरहिण्याः स्वप्रियायाः प्राणरक्षगं कामयमानो मेघद्वारा
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मेघदते-पूर्वमेघः ।
तदन्तिक स्वकुशलसन्देशं प्रेपयितुमिच्छन् स यक्षोऽभिनवैः कुटजपुष्पैरचिताय तस्मै प्रेमसम्भाषणपूर्वकं स्वागतमुदीरयामास ॥ ४ ॥ ननु चेतनसाध्यमर्थ कथमचेतनन कारयितुं प्रवृत्त इत्यपेक्षायां कविः समाधत्तेधूमज्योतिःसलिलमरुतां संनिपातः क मेघः
सन्देशार्थाः क्व पटुकरणैः प्राणिमिः प्रापणीयाः । इत्योत्सुक्यादपरिगणयन्गुह्यकस्तं ययाचे
कामार्ता हि प्रकृतिकपणाश्चेतनाचेतनेषु ॥ ५ ॥ (सजी०) धूमेति ॥ धूमश्च ज्योतिश्च सलिलं चमरुद्वायुश्च तेषां संनिपातः संघातो मेघः क्व । अचेतनत्वात्संदेशानह इत्यर्थः । पटुकरणैः समथेन्द्रियैः। “करणं साधकतम क्षेत्रगानेन्द्रियेध्वपि" इत्यमरः । प्राणिभिश्चेतनैः । “प्राणी तु चेतनो जन्मा" इत्यमरः। प्रापणीयाः प्रापयितव्याः संदिश्यन्त इति संदेशास्त एवार्थाः । इत्येवमौत्सुक्यादिष्टार्थीद्युक्तत्वात् । “इष्टार्थोद्युक्त उत्सुकः" इत्यमरः । अपरिगणयन्त्र विचारयनगुह्यको यक्षस्त मेचं ययाचे याचितवान् । “यात्रु याञ्चायाम्" । तथा हि । कामार्ता मदनातुराश्चेतनाश्चाचेतनाश्च तेषु विषये प्रकृतिकृपणाः स्वभावदीनाः । कामान्धानां युक्तायुक्तविवेकशून्यत्वादचेतनयाञ्चा न विरुध्यत इत्यर्थः । अत्र मेव-संदेशयोर्विरूपयोर्घटनाद्विषमालंकारः। तदुक्तम्-"विरुद्धकार्यस्योत्पत्तिर्यवानर्थस्य वा भवेत् । विरूपवटना चासो विषमालंकृतिस्त्रिधा।" इति, सा चार्थान्तरन्यासानुप्राणिता तत्समर्थकत्वेनैव चतुर्थपादे तस्योपन्यासात् ॥६॥ (चारि० ) मेवस्य निश्चेतनत्वात्प्रार्थना न युक्तत्याशङ्क्याह--
धूमज्योतिरिति । धूमज्योतिरग्निः स च सलिलं पानीयं च मरुतश्व तेपामचेतनानां सनिपातः समुदायस्यो मेवः क्व । पनि स्पष्टानि करणानीन्द्रियाणि येषां ते तैः प्राणभिः पुम्भिः सचेतनैः प्रापणीया नेतव्याः सन्दिश्यन्ते कथ्यन्ते इति सन्देशाः ते च ते अर्थाश्च क। इत्येतदसम्भाव्यमिति । औत्सुक्यं विरहपीडा तस्मादपरिगणयन् अविचारयन् गुह्यको यक्षस्तं वनं ययाचे । प्रार्थितवान् । अचेतनं मे किमिति प्रार्थयांञ्चक्रे इत्याशडामर्थान्तरन्यासेन निरस्यति-कामेन मन्मथेनार्ताः पीडिताः प्राणिनश्चेतनाश्चाचेतनाश्च ते स्थावरजङ्गमास्तेषु प्रकृत्या स्वभावेन कृपणा दीना भवन्ति । यथा सीतादिवियोगात्काममोहिता रामप्रमुखा अचेतनं न याच्यमिति विवेक्तमसमर्थाः । तथासावपीत्यर्थः ।
नन्यत्र यक्षगुह्यकयोरभावात्तयो दाद्यक्षश्चक्रइति गुह्य कस्तं ययाच इति । एतदसङ्गतिमञ्च तीति चेनैवम् । निधिगृहनाद्रक्षणाद् गुह्यक इति यक्ष इति च अन्वर्थसंज्ञाकरणाद्यक्षगुह्यकौ धनदे. ऽपीति यादवाभिधानात् । धनदवाचकेन गुह्यकशब्देन तस्यानुचरस्याप्युपचारेणाभिधानम् ॥६॥
(भाव०)अग्निजलवायूनां सङ्घातात्मको मेघः कुत्र ? चेतनैः प्राणिभिः प्रेषणीयाः सन्द. शाश्च व ? उत्कण्ठावशादिदमखिलमविगणयन् स यक्षो मेवं प्रार्थयामास । कामबाणपीडिता हि चेतनाचेतनयोविवेक न जानते ॥६॥ संप्रति याञ्चाप्रकारमाहजातं वंशे भुवनविदिते पुष्करावर्तकानां
जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोनः । तेनार्थित्वं त्वयि विधिवशाद दूरवन्धुर्गतोऽहं
याचा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा ॥ ६॥
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मञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनी भावप्रबोधिनीसहिते
७
(सञ्जी०) जातमिति ॥ हे मेघ, त्वां भुवनेषु विदिते ॥ "निष्टा" इति भृतार्थे क्तः । “मति बुद्धि-" इत्यादिना वर्तमानार्थत्वे तु "क्तस्य च वर्तमाने” इति भुवनशब्दस्य पश्यन्ततानियमात्समासो न स्यात् । “क्तेन च पूजायाम्" इति निषेधात् ॥ पुष्कराश्चावर्तकाश्च केचिन्मे घानां श्रेष्ठास्तेषां वंशेजातम् । महाकुलप्रसूतमित्यर्थः। कामरूपमिच्छाधीनविग्रहम । दुर्गादिसंचारक्षममित्यर्थः । मघोन इन्द्रस्य प्रकृतिपुरुषं जानामि । तेन महाकुलप्रसूतत्वादिगुणयोगि त्वेन हेतुना विधिवशाद दैवायत्तत्वात् ॥ "विधिविधाने देवेच" इत्यमरः॥ "वशमायत्ते वशमिच्छाप्रभुत्वयोः” इति विश्वः ॥ दूरे बन्धुर्यस्य स दूरबन्धुर्वियुक्तभार्योऽहं त्वय्यर्थित्वं गतः । ननु याचकस्य याञ्चायां याच्यगुणोत्कर्षः कुत्रोपयुज्यत इत्याशङ्कय-दैवाद्याच्याभोऽपि ला. घवदोषाभाव एवोपयोग इत्याह-याजेति ॥ तथा हि-अधिगुणेऽधिकगुणे पुंसि विषये याचा मोघा निष्फलापि वरमीषत्प्रियम् । दातुर्गुणाढ्यत्वात्प्रियत्वं याञ्चावैफल्यादीपत्प्रिय. स्वमिति भावः ॥ अधमे निर्गुणे याचा लब्धकामापि सफलापि न वरम् । ईषत्प्रियमपि न भवतीत्यर्थः ॥ “देवाढते वरः श्रेष्ठे त्रिषु कीब मनाविप्रये" इत्यमरः ॥ अर्थान्तरन्यासानुप्राणितः प्रेयोऽलंकारः । तदुक्तं दण्डिना-"प्रेयः प्रियतराख्यानम्" इति ॥ एतदाद्ये पादत्रये चतुर्थपादस्थेनार्थान्तरन्यासेनोपजीवितमिति सुव्यक्तमेतत् ॥ ६॥ (चारि०) स्तुतिपूर्व प्रार्थनां विधत्ते--
जातमिति । भो जलद ! पुष्कराश्वावर्त्तकाश्च कल्पान्तकालजलदास्तेषां वंशेऽन्वये जात. मुत्पन्नं जानामि । अवगच्छामीत्यनेनाभिजातं प्रसिद्धम् । कीदृशं त्वां कामरूपं स्वेच्छाचारिणम् । तथा मघोन इन्द्रस्य प्रकृतिपुरुषम् । तेन हेतुना विधिदैवं तस्य वश आधीनं तस्माद् दूरबन्धुर्विप्रकृष्टभार्योऽहं त्वां प्राप्तः । तमुचेतनं किमिति प्रार्थितवानित्याशड्याह--यतो याचा अधिगुणे ऽधिका औदार्यादयो गुणा यस्य सोऽधिगुणस्तस्मिन् । मोघा निरर्थकापि वर प्रियम् । देवावृते वर श्रेष्टे त्रिषु क्लीब मनाविप्रयमिति यादवः । अधमे गुणरहिते लब्धकामा प्राप्ताभिलाषापि सा वरं न । वंश इत्यत्र जनिकर्तुः प्रकृतिरत्यपादानसंज्ञायां पञ्चमी स्यादिति न । वंशस्योत्पत्तिरूपत्वेन प्रकृतित्वाभावात् ॥६॥
(भाव० ) स यक्षो मेघमाह-हे मेघ ! त्वं कल्पान्तकालिकपुष्करावर्तकाख्यमहामेघकुलप्र सूतोऽसि । किञ्च, इन्द्रस्य प्रधानपुरुषोऽसीत्यपिजाने । तेन हेतुना दूरस्थितभार्योऽहं सत्कुलीनं सुपदस्थं त्वां याचे । श्रेष्ठे पुंसि कृता याञ्चा व्यर्थाऽपि वरम् , अधमे सफलाऽपि न वरम् ॥६।'
संतप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोद मियायाः ____ संदेश मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य । गन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणां
बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहा ॥ ७ ॥ (सञ्जी०) संतसानामिति ॥ हे पयोद ! त्वं संतप्तानामातपेन वा प्रवासविरहेण वा संज्वरितानाम् ॥ “संतापः संज्वरः समौ” इत्यमरः । शरणं पयोदानेनातपस्विन्नानां स्वस्थानप्रेरणया च रक्षकोऽसि ॥ "शरणं गृहरक्षित्रोः" इत्यमरः ॥ तत्तस्मात्कारणाद्धनपतेः कुबेरस्य क्रोधेन वि. श्लेषितस्य प्रियया वियोजितस्य मे मम संदेशं वार्ता प्रियाया हर। प्रियां प्रति नयेत्यर्थः ॥ संबन्धसामान्ये षष्ठी ॥ संदेशहरणेनावयोः संतापं नुदेत्यर्थः ॥ कुत्र स्थाने सा स्थिता तत्स्थानस्य वा किं तत्राह-गन्तव्येति ॥ बहिर्भवं बाह्यम् ॥ "बहिर्देवपञ्चजनेभ्यश्च" इति यञ् ॥ बाह्य उद्याने स्थितस्य हरस्य शिरसि या चन्द्रिका तया धौतानि निर्मलानि हाणि धनिकभवनानि यस्यां सा तथोक्ता ॥ "हाणि धनिनां वासः” इत्यमरः ॥ अनेन व्यावर्त्तकम
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मेघदने-पूर्वमेघः ।
क्तम् । अलका नामालकेति प्रसिद्धा यक्षेश्वराणां वसतिः स्थानं ते तव गन्तव्या। त्वया गन्तव्येत्यर्थः ॥ "कृत्यानां कर्तरि वा” इति षष्टी ॥ ७॥ (चारि. ) का यौष्माकीना प्रार्थनेत्यपेक्षायामह--
सन्तप्तानामिति । पयो जलं ददातीति पयोदस्तत्सम्बुद्धिः । आतपेन स्मरेण च सन्तप्तानां पीडितानां प्राणिनां त्वं शरणमाश्रयोऽसि भवसि। तत्तरमाटेतोर्धनपतेः कुबेरस्य कोपेन क्रोधेन विश्लेषितस्य वियोजितस्याऽनेन स्वकीयः सन्तापो दर्शितः। मे यक्षस्य प्रियायाः सन्देशं वार्ता हर प्रापय।सा वास्ते तत्स्थानस्य किमभिधानं किं लक्षणमित्याशडयाह-ते तवा. लकाभिधा पुरी नाम नामेति प्रसिद्धौ चाव्ययम् । यक्षेश्वराणां यक्षश्रेष्ठानां वसतिः स्थान गन्तव्या यातव्या। कीदृशी, बहिर्भवं बाह्म बाह्यं च तदुद्यानं कैलासोपवनं तत्र स्थितश्वाली हर ईशश्च तस्य शिरसि सूर्धनि चन्द्रिका चन्द्रातपस्तया धौतानिधवलितानि हाणि गृहाणि यस्याः सा । कैलासस्थस्य हरस्याऽलकोद्यानत्तित्वं केऽप्याहुः । कैलासक्रोडस्थिताया अलकाया बहिनिः सरणप्रदेश उद्यान तत्रत्येत्यनेन स्थानस्य लक्षणमभिहितम् । यक्षेश्वराणामिति बहुवचनेन तत्रत्यानां धनदसाम्यं सूचितम् । त इति कृत्यानां कर्तरि वेति षष्टी ॥ ७॥
( भाव० ) किं च, हे जलद ! त्वं सन्तप्तानां सन्तापनिवारकतया रक्षकोऽसि । भर्तृशापात्कान्ता वियुक्तस्य मे सन्देश हर । तव यक्षाणां निवासभूमिरलकानगरो गन्तव्याऽस्ति । यत्र बाह्योद्याने स्थितस्य हरस्य शिरश्चन्द्रचन्द्रिकया हयाणि प्रकाश्यन्ते ॥७॥ मदर्थ प्रस्थितस्य ते पत्रिकाङ्गनाजनाचासनमानुपङ्गिक फलमित्याहत्वामा पवनपदवीमुद्गृहीतालकान्ताः ।
प्रेक्षिष्यते पथिकवनिताः प्रत्ययादाश्वसत्यः । कः संनद्रे विरहविधुरां त्वय्युपेक्षेत जायां
न स्यादन्योऽप्यहमिव जनो यः पराधीनवृत्तिः ॥ ८ ॥ (सजी० ) त्वामिति ॥ पवनपदवीमाकाशमारूढं त्वाम् पन्थानं गच्छन्ति ते पथिकाः॥ "पथः कन्" इति ष्कन्प्रत्ययः। तेषां वनिताःप्रोषितभर्तृकाः। प्रत्ययात्प्रियागमनविश्वासात्॥ "प्रत्ययोऽधीनशपथज्ञानविश्वासहेतुपु” इत्यमरः ॥ आश्वसन्त्यो विश्वसिताः ॥ श्वसधातोः शत्रन्तात् "उगितश्च" इति डीप् ॥ तथोद्गृहीतालकान्ता दृष्टिप्रसारार्थमुन्नमय्य ताल. काग्राः सत्यः प्रेक्षिप्यन्ते । अत्युत्कण्ठया वृक्ष्यन्तीत्यर्थः ॥ मदागमनेन पथिकाः कथमागमियन्तीत्यत्राह-तद्यथा--त्वयि संनद्धे व्यापृते सति विरहेण विधुरी कृशां जायां क उपक्षेतानकोजीत्यर्थः । को न स्यात् । स्वतन्त्रस्तु न कोऽप्युपेक्षेतेति भावः ॥ अवार्थान्तरन्यासोऽलंकारः । तदुक्तम्---"कार्यकारणवामान्यविशेषाणां परस्परम् । समर्थनं यत्र सोऽर्थान्तरन्यास उदाइतः ॥” इति लक्षणात् ॥ ८ ॥ (चारिक) तव गमनेन न केवल ममैवाश्वासः किन्त्वन्यस्यापि लोकस्येत्याह
त्वासारूडमिति । भो मेघ ! पथिकानामध्वगानां वनिताः स्त्रियः पवनस्य वातस्य पदवी सरणिर्गगनमारूढं प्राप्तुं त्वां भवन्तं प्रेक्षिप्यन्ते विलोकयिष्यन्ति। कीदृ: । वर्षौ भारः समेष्यन्तीति प्रत्ययो विश्वासस्तस्मादाश्वसन्त्यः। स्वस्थभावं भजन्त्यः । तथोद्गृहीतः उपरिष्टात्कृतः अलकानां चूर्णकुन्तलानां अन्तो अञ्चलो याभिस्ताः । एनमेवार्थ प्रकटयति-त्वयि सन्नद्धे समागते सति विरहेण वियोगेन विधुरां विह्वलां जायां पत्नी क उपक्षेत न गच्छेत् । योऽन्योऽगि पृथग्जनोऽहमिा पराधीना परवशा वृत्ति: वर्त्तनं यस्य स तथाविधो न
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मेघदूत - पूर्वमेघः ।
स्यात् । आश्वसन्त्य इत्यत्र नुमभावः । यत्र गणकार्य्यस्यानित्वमपेक्ष्यैव स्वरूपसिद्धिस्तत्रैव तदाश्रयणं युक्तम् । नान्यत्रेति नियमात् । उपेक्षेतेति । ईक्ष दर्शने । प्रत्ययोऽधीनशपथज्ञानविश्वासहेतुषु । वृत्तिर्वर्त्तनजीवने इत्यमरः ॥ ८ ॥
( भाव०) वायुमार्गमुपा रूढं त्वां करकलितालकान्ताः पथिकस्त्रियस्तव प्रियप्रत्यानयनसामर्थ्याविश्वासादाश्वसन्त्यः त्वां सकौतुकं प्रेक्षिष्यन्ते । पराधीनवृत्ति मां विहाय त्वय्युपारू सति विरहिणीं जायां न कोऽप्युपेक्षेत ॥ ८ ॥ निमित्तान्यपि ते शुभानि दृश्यन्त इत्याह
मन्दं मन्दं नुदति पवनश्चानुकूलो यथा त्वां वामश्वायं नदति मधुरं चातकस्ते सगंधः । गर्भाधानक्षणपरिचयान्नूनमाबद्धमालाः
सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्त बलाकाः ॥ ९ ॥
(सञ्जी०) मन्दं मन्दमिति ॥ अनुकूलः पवनो वायुस्त्वां मन्दं मन्दम् । अतिमन्दमित्यर्थः॥ अत्र कथं चीप्सायामेव द्विरुक्तिर्निर्वाद्या ॥ " प्रकारे गुणवचनस्य" इत्येतदाश्रयणे तु कर्मधारयवद्भावे ब्लुकि मन्दमन्दमिति स्यात् । तदेवाह वामनः-- " -- " मन्दमन्दमित्यत्र प्रकारार्थे द्विर्भाव" इति ॥ यथा सदृशम् । भाविफलानुरूपमित्यर्थः ॥ "यथा सादृश्ययोग्यत्ववीप्सास्वार्थानतिक्रमे" इति यादवः ॥ नुदति प्रेरयति । अयं सगन्धः सगर्वः । संबन्धीति केचित् ॥ "गन्धो गन्धक आमोदे लेशे संबन्धगर्वयोः" इत्युभयत्रापि विश्वः ॥ ते तव वामो वामभागथः । “वास्तु वक्रे रम्ये स्यात्सव्ये वामगतेऽपि च" इति शब्दार्णवे ॥ चातकः पक्षिविशेषश्व मधुरं श्राव्यं नदति व्याहरति ॥ इदं निमित्तद्वयं वर्तते । वर्तिष्यते चापरं निमित्तमित्याहगर्भेति ॥ गर्भः कुक्षिस्थो जन्तुः "गर्भोपकारके ह्यग्नौ मुखे पनसकण्टके । कुक्षौ कुक्षिस्थजन्तौ च" इति यादवः ॥ तस्याधानमुत्पादनं तदेव क्षण उत्सवः । सुखहेतुत्वादिति भावः ॥ “निर्व्यापार स्थितौ कालविशेषोत्सवयोः क्षणः" इत्यमरः ॥ तस्मिन्परिचयादभ्यासाद्धेतोः खे व्योम्नि । आबद्धमालाः । गर्भाधानसुखार्थं त्वत्समीपे बद्धपङ्कय इत्यर्थः ॥ उक्तं च कर्णोदये "गर्भ बलाका दुधतेsयोगान्नाके निबद्धोवलयः समन्ताद्” इति ॥ बलाका बलाकाङ्गनाः नयनसुभगं दृष्टिप्रियं भवन्तं नूनं सत्यं सेविष्यन्ते ॥ अनुकूलमारुतचातकशब्दितबलाकादर्शनानां शुभसूचक शकुनशास्त्रदृष्टं तद्विस्तरभयान्नालेखि ॥ ९ ॥
( चारि० ) साम्प्रतं स्वानुकूलशकुनच्छद्मना त्वरागमनाय जलद प्रोत्साहयति-
मन्दमिति - भो मेघ ! यथानुकूलः पृष्ठिप्रदेशानुगामी पवनो वातस्त्वां भवन्तं मन्दं मन्दं शनैर्नुदति प्रेरयति तथा चोक्तम् । मृदुरनुकूलश्च यदा भवति तदा यातुः सुखावहः कथित इति । तथा सगर्वः साभिमानस्ते तव वामो वामस्थितोऽयं चातको मधुरप्रदीप्तस्वरं यथा तथा नदति शब्दं करोति । नद अव्यक्त शब्दे । उक्तं च, मृगाः पक्षिणश्च यातुर्वामाः कामदा इति । किं च गर्भस्य कुक्षिस्थितस्य जन्तोराधानं धारणं तस्मिन्क्षणे समये परिचयः सङ्गस्तहमादाबद्धा माला याभिस्ता बलाका बिसकण्टिकाः खे गगने नयनयोः सुभगं मनोहरं भवन्तं नूनं निश्चितं सेविध्यन्ते आश्रयिष्यन्ते । पवनश्चेति चकारेण निमित्तान्तरं चातकानुकूल्यं द्योत्यते । द्वितीयश्चकार उक्तसमुच्चयार्थः । नुदतीति वर्त्तमानसामीप्ये लट् । मन्दमन्दमित्येकं पदम् । गर्भोपकारके नौ सुखे पनसकण्टके । कुक्षौ कुक्षिस्थजन्तौ चेति यादत्रः । चातकः स्तोकको staीहः सारङ्गो नभोम्बुप इत्यभिधानचिन्तामणिः ॥ ९ ॥
( भाव० ) अयमेव च ते गन्तुं शुभोsवसरः, यथा ऽयमनकूलः पचनस्त्वां मन्दं मन्दं
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१० सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनी भावप्रबोधिनीसहितेप्रेरयति । सगर्वोऽयं चातकश्च ते वामभागे मधुरं कूजति। किञ्च नयनलोभनीयरूपं त्वामेता बलाका गर्भाधानक्षणपरिचिताः खे बद्धपयः सेविष्यन्ते ॥९॥ न च तस्या नाशाद् व्रतस्खलनाद्वा निरर्थकस्त्वत्प्रयास इत्याह___तां चावश्यं दिवसगणनातत्परामेकपनी.
__ मव्यापन्नामविहतगतिद्रक्ष्यसि भ्रातृजायाम् । आशाबन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानां
सद्यः पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि ॥ १० ॥ (सञ्जी०) तां चेति ॥ हे मेघ! दिवसानामवशिष्टदिनानां गणनायां संख्याने तत्परा. मासक्ताम् ॥ “तत्परे प्रसितासक्तौ” इत्यमरः ॥ अत एवाव्यापन्नाममृताम् । शापावसाने मदागमनप्रत्याशया जीवन्तीमित्यर्थः । एकः पतिर्यस्याः सैकपत्नी ताम् । पतिव्रतामित्यर्थः ॥ "नित्यं सपत्न्यादिषु" इति की नकारश्च ॥ भ्रातुर्भे जायां भ्रातृवन्निःश दर्शनीयामित्या. शयः । तां मत्प्रियामविहतगतिरविच्छिन्नगातः सन्नवश्यं द्रक्ष्यसि चालोकयिष्यस एव ॥ सथा हि । आशातितृष्णा "आशा दिगतितृष्णयोः" इति यादवः ॥ बध्यतेऽनेनेति बन्धो वन्धनम् । वृन्तमिति यावत् । आशैव बन्ध आशाबन्धः कर्ता ॥ प्रणयि प्रेमयुक्तम् । अत एव कुसुमसदृशम् । सुकुमारमित्यर्थः । अत एव विप्रयोगे विरहे सद्यःपाति सद्योभ्रंशनशी लमङ्गनानां हृदयं जीवितम् । “हृदयं जीविते चित्ते वक्षस्याकूतहृद्ययोः" इति शब्दार्णवे ॥ प्रायशः प्रायेण रुगद्धि प्रतिबध्नाति ॥ अर्थान्तरन्यासः ॥१०॥
(चारि०) तामिति-हे मेघ ! ता भ्रातृजायां प्रातुम स्त्रियमवश्यं निश्चितं द्रक्ष्यसि वि. लोकयसि । कीदृशस्त्वं, अविहताऽविनिता गतिर्गमनं यस्य स तथा । कीदृशी, दिवसणना एकद्वयादि सड्यानं तत्र तत्परा सावधाना तां प्रोषितस्य महल्लभस्येयन्तो वासरा गता इयन्तोऽवशिष्टा इति गणयन्तीमित्यर्थः । एतेन मद्विरहे सा न परासुर्भवितेति वियोगावधेनि-- यतत्वात् । नत्वन्यरत्ता भविष्यतीत्याशङयाह-एकः पतिर्यस्याः सा ताम् । अथवा एकाऽस. पत्नीका चासौ पत्नी । यज्ञसंयोगाहीचेति कर्मधारयः । पत्यु! यज्ञसंयोगे। कदाचिद्विरहे विपन्ना स्यादित्याह-पुनः किं विधां अव्यापन्नां अत्यक्तप्राणाम् । त्वया कथं ज्ञातं तदाह-हि यतः प्रायशो बाहुल्येन आशाबन्धो विप्रयोगे वियोगे विश्लेषे सद्यः पाति तत्क्षणादेव पतनशील अङ्गनानां हृदयं रुणद्धि । किविधं कुसुमसदृशं पुष्पवत्सुकुमारं, पुनः किविधं प्रणयि प्रणययुक्तम् । एके मुख्यान्यकेवला इत्यमरः । अथ चोक्तिः । यथा ऽऽशाबन्धः मर्कटवासकः सद्यः पाति कुसुम रुणद्धि ॥ आशबन्धः समाश्वासे तथा मर्कटवासके इति मेदिनीकारः ॥१०॥
( भाव०) तत्र गत्वा विरहावशिष्टदिवसान् गणयन्ती पतिव्रतामसपत्नी जीवन्ती में जायामप्रतिबद्धगतिस्त्वं द्रक्ष्यसि । वियोगे सद्यो भङ्गुरमपि वनितानां हृदयं प्रियप्रत्यागम. नाशाबन्ध एव धारयति ॥ १० ॥ सम्प्रति सहायसंपत्तिश्चास्तीत्याहकर्तुं यच्च प्रभवति महीमुच्छिलीन्ध्रामवन्ध्यां
तच्छुत्वा ते श्रवणसुभगं गर्जितं मानसोकाः । आ कैलासाद्रिसकिसलयच्छेदपाथेयवन्तः
___ संपत्स्यन्ते नभसि भवतो राजहंसाः सहायाः ॥ ११॥ (सक्षी० ) कर्तुमिति ॥ यद् गर्जितं कर्तृ महीमुच्छिलीन्भ्रामुद्भूतकन्दलिकाम् ॥ “कन्दल्यां च शिलीन्ध्रः स्यात्” इति शब्हार्णवे ॥ अत एवावन्ध्यां सफलां कर्तुं प्रभवति शक्नो
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मेघदते-पूर्वमेघः ।
११ ति। शिलीन्ध्राणां भाविसस्यसम्पत्तिसूचकत्वादिति भावः । तदुक्तं निमित्तनिदाने "का. लाभ्रयोगादुदिताः शिलीन्ध्राः सम्पन्नसस्यां कथयन्ति धात्रीम्" इति ॥ तच्छ्रवणसुभगं श्रोत्रसुखम् । लोकस्येति शेषः। ते तव गर्जितं श्रुत्वा मानसोका मानसे सरस्युन्मनसः । उत्सुका इति यावत् ॥ "उत्क उत्सुक उन्मनाः इति निपातात्साधु ॥ कालान्तरे मानसस्य हिमदुष्टत्वाद्धिमस्य च हंसानां रोगहेतुत्वादन्यत्र गता हैसाः पुनर्वर्षासु मानसमेव गच्छन्तीति प्रसिद्धिः । बिसकिसलयानां मृणालाग्राणां छेदैः शकलैः पाथेयवन्तः । पथि साधु पाथेयं पथि भोज्यम् । “पथ्यतिथिवसतिस्वपते । तद्वन्तः । मृणालकन्दशकलसम्बन्धवन्त इत्यर्थः । राजहंसा हंसविशेषाः ॥ "राजहंसास्तु ते चञ्चुचरणैाहितैः सिताः" इत्यमरः ॥ नभसि व्योम्नि भवतस्तव आ कैलासात्कैलासपर्यन्तम् ॥ पदद्वयं चैतत् ॥ सहायाः सयात्राः॥ "सहायस्तु सयात्रः स्यात्" इति शब्दार्णवे ॥ संपत्स्यन्ते भविष्यन्ति ॥ ११ ॥
(चारि०) कर्तुमिति-भो मेघ ! आकैलासात् कैलासगिरिपर्यन्तं राजहंसाः विमलविहङ्गमा नभसि आकाशे भवतस्तव सहायाः सम्पत्स्यन्ते साधं भविष्यन्ति । किं विशिष्टाः मानसोत्काः मानसं सरः प्रति गन्तुकामाः पुनः किं विशिष्टाः बिसानां मृणालानां किसलयानि पल्लवास्तेषां छेदैः खण्डैः पथि योग्य पाथेयं मार्गसम्बलम् । तदेषामस्ति ते बिसकिसलयच्छेद. पाथेयवन्तः । किं कृत्वा, ते श्रवणसुभगं श्रोत्रसुखं तद्गजितं स्तनितं श्रुत्वा निशम्य । तत्किम् यच्च महीं उगतानि शिलान्ध्राण्येव कन्दलीपत्राण्येव छत्राणि यत्र सा तादृशीं कर्तुं प्रभवति त्वयि शब्दायमाने मह्यां छत्राकाराणि शिलीन्ध्राणि विकन्ति ॥ ११ ॥
(भाव० ) भुवि शिलीन्ध्रकुसुमसम्पादकममोधं ते मधुर गर्जितं श्रुत्वा कैलासपर्यन्तं बिसच्छेदपाथेययुक्ताः हंसास्त सहचारिणो भविष्यन्ति ॥ ११ ॥ आपृच्छस्व प्रियसखममुं तुङ्गमालिझ्य शैलं
वन्द्यैः पुंसां रघुपतिपदैराङ्कितं मेखलासु । काले काले भवति भवतो यस्य संयोगमेत्य
___ स्नेहव्यक्तिश्चिरविरहजं मुश्चतो वाष्पमुष्णम् ॥ १२ ॥ (सञ्जी० ) आपृच्छस्वेति ॥ प्रियं सखायं प्रियसखम् ॥ “राजाहः सखिभ्यष्टच्” इति टच समासान्तः ॥ तुङ्गमुन्नतं पुंसां वन्द्यैराराधनीयै रघुपतिपदै रामपादन्यासमंखलास कटकेष ॥ "अथ मेखला श्रोणिस्थानेऽद्रिकटके कटिबन्धेभबन्धने" इति यादवः ॥ अतिं चिह्नितम् । इत्थं सखित्वान्महत्त्वात्पवित्रत्वाञ्च संभावना हम् । अमुं शैलं चित्रकूटाद्विमालियाच्छस्व साधो यामीत्यामन्त्रणेन सभाजय ॥ "आमन्त्रणसभाजने । आप्रच्छन्नम्" इत्यमरः ।। "आङि नुप्रच्छ्योरुपमख्यानम्" इत्यात्मनेपदम् ॥ सखित्वं निर्वाहयति-काल इति ॥ काले काले प्रतिप्रावृट्कालम् । सुहृत्समागमकालश्च कालशब्देनोच्यते ॥ वीप्सायां द्विरुक्तिः। भवतः संयोग संपर्कमेत्य चिरविरहजमुष्णं बाप्पमूष्माणं नेत्रजलं च ॥ "बाष्पो नेत्रजलोप्मणो" इति विश्वः ।। मुञ्चतो यस्य शैलस्य स्नेहव्यक्तिः प्रेमाविर्भावो भवति । स्निग्धा हि चिरविरहसंगतानां बाष्पपातो भवतीति भावः ॥ १२ ॥
(चारि०) आपृच्छस्वेति-भो मेघ ! रघुपतेः श्रीराम वन्द्रस्य पदैश्चरणन्यासैमेखलास मध्यप्रदेशेषु अडित विह्नतं तुङ्गमुन्नतममुं शेलं रामगिरिमालिङ्गयाश्लेषं विधायापृच्छस्व । कीदृशैः पुंसां प्राणिनां वन्द्यैनमस्कर्तुं योग्यैः कर्तरि षष्ठी । कोदृशं प्रियश्चासौ सखा च प्रियसखस्तम् । काले काले सर्वस्मिन्समागमसमये भवता त्वया संयोग सम्बन्धमेत्य प्राप्य यस्य पर्वतस्य स्नेहव्यक्तिः प्रेमप्रादुर्भावो भवति । कीडशस्य चिरं विरहाद्वियोगान्जातमुष्णमशी.
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१२ सीवनीचारित्रवर्द्धनी भावप्रबोधिनीसहितेतलं बाष्पमूष्माण मुञ्चतः । भवत इति पाठे कर्तरि षष्ठी। प्रियसखमिति राजाहः सखिभ्यष्टच् । बाष्पमूष्माश्रु कशिपु इत्यमरः । मेखला मध्यभागोद्रेरित्यभिधानचिन्तामणिः ॥१२॥ . (भाव०) दूरदेश गच्छन् त्वं तव प्रिय सखमेनं चिद्रकूटादि समालिंग्य गमनानुज्ञां पृच्छ। योऽसौ पर्वतो मध्यभागे जगद्वन्यानि रघुपतिपदचिन्हानि धत्ते । किञ्च, प्रतिवर्ष वर्षाकाले भवत्सङ्गमे जाते सति चिरविरहजं बाष्पं विमुञ्चन् यः स्नेहं व्यञ्जयति ॥ १२ ॥ संप्रति तस्य मार्ग कथयतिमार्ग तावछृणु कथयतस्त्वत्प्रयाणानुरूपं
संदेश मे तदनु जलद श्रोष्यसि श्रोत्रपेयम् । खिन्नः खिन्नः शिखरिषु पदं न्यस्य गंतासि यत्र
क्षीणः क्षीणः परिलघु पयः स्रोतमां चोपभुज्य ।। १३ ।। (सञ्जी०) मार्गमिति ॥ हे जलद ! तावदिदानी कथयतः । मत्त इति शेषः । त्वत्प्रया. णस्यानुरूपमनुकूलं मार्गमध्यानम् ॥ "मार्गो मृगपदे मासि सौम्यक्षेऽन्वेषणेऽध्वनि" इति यादवः ॥ शृणु । तदनु मार्गश्रवणानन्तरं श्रोत्राभ्यां पेय पानाहम् । अतितृष्णया श्रोतव्यमित्यर्थः ॥ पेयग्रहणात्संदेशस्यामृतसाम्यं गम्यते ॥ मे संदेशं वाचिकम् ॥ "संदेशवाग्वाचित स्यात्" इत्यमरः ॥ श्रोष्यसि । यत्र मार्गे खिनः खिन्नोऽभीक्ष्णं क्षीणबलः सन् ॥ "नित्यवी. प्सयोः" इति नित्या) द्विर्भावः ॥ शिखरिषु पर्वतेषु पदै न्यस्य निक्षिप्य । पुनर्बललाभाथ क्वचिद्विश्रम्येत्यर्थः । क्षीणः क्षीणोऽभीक्ष्णं कृशाङ्गः सन् ॥ अत्रापि कृदन्तत्वात्पूर्ववद् द्विरुक्तिः॥ स्रोतसां परिलघु गुरुत्वदोषरहितम् । उपलास्फालनखेदितत्वात्पथ्यमित्यर्थः । तथा च वाग्भ2:-"उपलास्फालनक्षेपविच्छेदैः खेदितोदकाः । हिमवन्मलयोभूताः पथ्या नद्यो भव. न्त्यमूः॥ इति ॥ पयः पानीयमुपभुज्य शरीरपोषणार्थमभ्यवहृत्य च गन्तासि गमिष्यसि ॥ गमेलृट् ॥ १३ ॥
(चारि०) मार्गमिति-जलं ददातीति जलदस्तस्य सम्बुद्धौ भो जलद मेघ ! तावत्प्रथमतः तव मार्ग शृणु पन्थानमाकर्णय । किं विधं त्वप्रयाणानुरूपं तव गमनयोग्यं तइनु मार्गाकर्णनपश्चात् कथयतो मे सन्देश वाचिकं श्रोष्यसि । किं विधं सन्देशं श्रोत्रपेयम् । मार्ग कल्य शृगोमि यन्त्र गन्तासि गमिष्यसि । किं कृत्वा। खिन्नः खिन्नः मार्गायासक्लान्तः सन् शिखरिषु पर्वतेषु पदं न्यस्य । पुनः किं कृत्वा । जलदानात् क्षीणः २ सन् स्रोतसां सरित्प्रवाहाणां पयश्चोप. भुज्य ॥ १३ ॥ .
(भाव) हे मेघ ! त्वं गन्तव्यं माग तावत्प्रथम शृणु। पश्चात् कान्तायै सन्देश श्रोष्य. सि। यत्र मार्गश्रमलान्तस्त्वं पर्वतेषु विश्रम्य क्षीणाङ्गः सन् परिलघु निर्झरपयः पीत्वा गमिव्यसि तं, मार्ग वक्ष्यामि । शृणु ॥ १३ ॥ अद्रेः शृङ्गं हरति पवनः किंस्त्रिदित्युन्मुखीभि
दृष्टोत्साहश्चकितचकितं मुग्धसिद्धाङ्गनाभिः । स्थानादस्मात्सरसनिचुलादुत्पतोदङ्मुखः खं
दिङ्नागानां पथि परिहरनस्थूलहस्तावलेपान् ॥ १४ ॥ ( सञ्जी०) अद्वेरिति ॥ पवनो वायुद्धेश्चित्रकूटस्य शृङ्ग हरति किंस्वित् । किस्विच्छब्दो विकल्पवितार्थादिषु पठितः ॥ इति शङ्कयोन्मुखीभिचतमुखीभिः ॥ "स्वाङ्गाचोपसर्जनाद
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मेघदूते-पूर्वमेघः।
संयोगोपधात्" इति की ॥ मुग्धाभिर्मूढाभिः ॥ “मुग्धः सुन्दरमूढयोः” इत्यमरः । सिद्धानां देवयोनिविशेषाणामङ्गनाभिश्चकितं चकितप्रकारं यथा तथा ॥ "प्रकारे गुणवचनस्य” इति द्विर्भावः ॥ दृष्टोत्साहो दृष्टोद्योगः सन् । सरसा आर्द्रा निचुलाः स्थलवेतसा यस्मिस्तस्मात्॥ "वानीरे कविभेदे स्यानिचुलः स्थलवेतसे" इति शब्दार्णवे ॥ अस्मात्स्थानादाश्रमात्पथि नभोमागें दिङ्नागानां दिग्गजानां स्थूलाग्ये हस्ताः करास्तेषामवलेपानाक्षेपान्परिहरन् ॥"हस्तो नक्षत्रभेदे स्यात्करेभकरयोरपि" इति । “अवलेपस्तु गर्व स्यात्क्षेपणे दूषणेऽपि च" इति च विश्वः ॥ उदङ्मुखः सन् । अलकाया उदीच्यत्वादित्याशयः ॥ खमाकाशमुत्पतोद्गच्छ । अत्रेदमप्यर्थान्तरं ध्वनयति-रसिको निचुलो नाम महाकविः कालिदासस्य सहाध्यायी परापादितानां कालिदासप्रबन्धदूषणानां परिहर्ता यस्मिन्स्थाने तस्मात्स्थानादङ्मुखो निर्दोषत्वादुन्नतमुखः सन्पथि सारस्वतमागें। दिङ्नागानाम् ॥ पूजायां बहुवचनम् ॥ दिङ्नागा. चार्यस्य कालिदासप्रतिपक्षस्य हस्तावलेपान्हस्तविन्यासपूर्वकाणि दूषणानि परिहरन् । "अवलेपस्तु गवें स्याल्लेपने दृषणेऽपि च" इति विश्वः ॥ अद्वेदिकल्पस्य दिङ्नागाचार्यस्य "शृङ्ग प्राधान्यसान्वोच” इत्यमरः ॥ हरति किंस्विदिति हेतुना सिद्धः सारस्वतसिद्धर्महाकविभिरङ्गनाभिश्च दृष्टोत्साहः सन्खमुत्पतोच्चभवेति स्वप्रबन्धमात्मानं वा प्रति कवेरुक्तिरिति ॥ संसर्गतो दोषगुणा भवन्तीत्येतन्मृषा येन जलाशयेऽपि । स्थित्वानुकूलं निचुलश्चलन्तमात्मानमारक्षति सिन्धुवेगात् ॥” इत्येतच्छ्लोकनिर्माणात्तस्य कवेर्निचुलसंजेत्याहुः ॥१४॥
(चारि० ) अद्वेरिति-भो मेघ ! अस्मात् स्थानात् उदङ्मुखः उत्तराभिमुखः सन् खमा. काशमुत्पत। किं विशिष्टात् । सरसनिचुलात । सरसा अशुष्काः पल्लवपुष्पफलसहिताः निचुलाः हिज्जलाख्यास्तरवो यत्र तत् तस्मात् । किं कुन् । दिङ्नागानां दिग्जानां स्थूलहस्तावलेपान् पीवर शुण्डादण्डसम्पर्कान् पथि परिहरन त्यजन् । किं विशिष्टः इति अमुना प्रकारेण मुग्धसिद्धाङ्गनाभिः मुग्धाः सुन्दयों याः सिद्धाङ्गनास्ताभिश्चकितचकितं साश्चयं यथा स्यात्तथा दृष्टोच्छ्रायः । दृष्ठ आलोकित उच्छ्राय आधिक्यं यस्य स त्वं किं विशिष्टाभिः । उन्मुखीभिः ऊनिनाभिः इति कथं विदिति वितकें । पवनो वायुरद्रः पर्वतस्य शृङ्ग शिखरं हरति किम् । निचुलो हिजलोऽम्बुजः इत्यमरः । निचुलस्तु निचोलेल्या दिधज्जलाख्यमहीरहे इति मेदिनी। स्वित्प्रश्ने च वितकेंचेत्यमरः ।हस्तः करे करिकरे सप्रकोष्ठकरेऽपि चेति मेदिनीकारः। मुग्धः सुन्दर मूढयोरिति विश्वः ॥ १४ ॥
भाव० ) मागें गच्छन्तं त्वां दृष्ट्वा 'पवनः पर्वतशृङ्ग हरति किम्' इति धिया मुग्धसि. द्धागनाः सविस्मयं द्रक्ष्यन्ति । मार्गागतानां दिग्गजानां शुण्डास्फालनानि परिहरन् आई. वेतसबहुलादस्मात् स्थानादुदङ्मुखः सन्नुत्पत ॥ १४ ॥ रत्नच्छायाव्यतिकर इव प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्ता.
दूल्मीकाग्रात्प्रभवति धनुःखण्डमाखण्डलस्य । येन श्यामं वपुरतितरां कान्तिमापत्स्यते ते
बढेणेव स्फुरितरुचिना गोपवेषस्य विष्णोः ॥ १५ ॥ ( सञ्जी० ) रत्नेति ॥ रत्नच्छायानां पद्मरागादिमणिप्रभाणां व्यतिकरो मिश्रणमिव प्रेक्ष्य दर्शनीयमाखण्डलस्येन्द्रस्यैतद्धनुः खाडम् ॥ एतदिति हस्तेन निर्देशो विवक्षितः ॥ पुर. स्तादग्रेवल्मीकामाद्वामलूरविवरात् ॥ “वामलूरश्च नाकुश्च वल्मीकं पुनपुंसकम्" इत्यमरः॥ प्रभवत्याविर्भवति । येन धनुःखग्डेन ते तव श्यामं वपुः । स्फुरितरुचिनोज्ज्वलकान्तिना
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सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनी भावप्रबोधिनीसहिते
बहेंग पिच्छेन ॥ "पिच्छबहें नपुंसके” इत्यमरः ॥ गोपवेषस्य विष्णोर्गोपालस्य कृष्णस्य श्यामं वपुरिव । अतितरां कान्तिं शोभामापत्स्यते प्राप्स्यते ॥ १५ ॥ .
(चारि०) रत्नेति-भो मेघ ! एतदाखण्डलस्य इन्द्रस्य धनुःखण्डं कार्मुकशकलं पुरस्तादने वल्मीकानात् प्रभवति उद्यते । किं विशिष्ट प्रेक्ष्यं प्रेक्षितुं योग्यं दर्शनीयमित्यर्थः । उत्प्रेक्षते-रत्नच्छायाव्यतिकर इघ । रत्नानां पद्मरागवैडूर्यादीनां मणीनां छायानां दीप्तीनां व्यतिकर इव व्यतिषङ्ग इव । मणीनां नानावर्णत्वादसावुत्प्रेक्षा । एतत्किं येन धनुषा कृत्वा ते तव श्यामं वपुः शरीरं अतितरां कान्ति आपत्स्यते दीप्तिं प्राप्स्यति । केन कस्येव । स्फुरितरुचिना देदीप्यमानदीप्तिकेन बहेण शिखण्डेन गोपस्य वेष इव वेषो यस्य तस्य विष्णोवसुदेवसूनोरिख । यथा कृष्णस्य श्यामं वपुर्ब हेण कान्ति लभते तथेत्यर्थः । श्यामत्वान्मेघस्योपमानं कृष्णः नानावर्णत्वाद्धनुषो बर्ह मुपमानम् । र तु जातश्रेष्ठेऽपि मणावपि नपुंसक इति मेदिनीकारः । छाया सूर्य प्रिया कान्तिरित्यमरः । छाया स्यादातपाभावे प्रतिबिम्बार्कयोषि. ताः । पालनोक्ता दीप्ति सच्छोभा पङ्किषु स्त्रियामिति मेदिनीकारः। अथ व्यतिकरः पुंसि व्यसनव्यतिषङ्गायोरिति विश्वः । शिखा चूडा शिखण्डस्तु पिच्छबहें नपुंसक इत्यमरः ॥१५॥
( भाव० ) अनेकरत्नप्रभासञ्चय इवेदमने वल्मीकाग्रात् समुद्यदिन्द्रधनुः प्रेक्षणीयमास्ते। श्यामे तव वपुषि तत्प्रभासम्मिश्रणात् मयूरपिच्छावतंसस्य भगवतः कृष्णस्येव सुपमा त. वास्ति॥ १५ ॥ त्वय्यायत्तं कृषिफलमिति भ्रविलासानभिज्ञैः
प्रीतिस्निग्धैर्जनपदवधूलोचनैः पीयमानः । सद्यः सीरोत्कषणमुरभि क्षेत्रमारुह्य मालं
किंचित्पश्चाइज लघुगतिभूय एवोत्तरेण ॥ १६ ॥ ( सञ्जी० ) त्वयोति ॥ कृषेर्हलकर्मणः फलं सस्यं त्वयि ॥ अधिकरणविवक्षायां सप्तमी ॥ आयत्तमधीनम् ॥ "अधीनो निघ्न आयत्तः" इत्यमरः ॥ इति हेतोः प्रीत्या स्निग्धैः । अकृत्रिमप्रेमा रित्यर्थः । भ्रूविलासानां भ्रूविकाराणामनभिज्ञैः । पामरत्वादिति शेषः । जनपदवधूनां पल्लीयोषितां लोचनैः पीयमानः सादरं वीक्ष्यमाणः सन् । मालं मालाख्य क्षेत्रं शैलप्रायमुन्नतस्थलम् ॥ "मालमुन्नतभूतलम्" इत्युत्पलमालायाम् ॥ सद्यस्तत्कालमेव सीरहलैरु. स्कषणेन सुरभि घ्राणतर्पणं यथा तथारुह्य । तत्राभिवृष्येत्यर्थः ॥ "सुरभिर्घाणतर्पणः" इत्यमरः ॥ किंचित्पश्चाल्लघुगतिस्तत्र निर्वृष्टत्वात्क्षिप्रगमनः सन् ॥ "लघु क्षिप्रमरं द्रुतम्" इत्य मरः ॥ भूयः पुनरप्युत्तरशैवोत्तरमागेणैव बज गच्छ ॥ तृतीयाविधाने "प्रकृत्यादिभ्य उपसं. ख्यानम्" इति तृतीया ॥ यथा कश्चिदू बहुवल्लभः पतिः कुत्रचित्क्षेत्रे गूट विहृत्य ॥ "क्षेत्रं शरीरे केदारे सिद्धस्थानकलत्रयोः" इति विश्वः ॥ दाक्षिण्यभङ्गभयानीचमार्गेण निर्गत्य पुनः सर्वाध्यक्ष इव संचरति तद्वदिति ध्वनिः ॥१६॥
(चारि०) त्वय्यायत्तमिति-भो मेघ ! त्वं मालं उन्नतस्थलं आरुह्य किंचित्पश्चादीषस्पश्चिमेन लघुगतिर्मन्दगमनः सन् वज गच्छ। भूयः पुनरपि उत्तरेणैव व्रज । कीदृशं क्षेत्र । सद्यस्तरक्षणात् सीरेण इलेनोत्कषणं विदारणं तेन सुरभीणि क्षेत्राणि यस्य तत् । त्वं कीदृशः । इति हेतोरतः कारणात् जनपदवधूलोचनैस्तद्विषयाङ्गनानयनैः पीयमानः सादरं बीत्यमाणः । किंविधैः भूविकारे कटाक्षादिनिरीक्षणे ऽनभिरकुशलैः । पुनः किंविधैः प्रीतिस्निग्धैः । प्रीत्या स्ने हेन स्निग्धैः स्नेहयुक्तः । इति कुतः । कृषिफलं त्वय्यायत्तं त्वत्स्वाधीनम् । कृषको लाले हलम् ।। गोचारणं च सीरोऽथेत्यमरः। त्रिषु निष्पन्ने स्निग्धं स्नेहयुते चिक्कणेऽपि
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मेघदते-पूर्वमेघः ।
स्यादिति मेदिनीकारः,। माला पुष्पादिबन्धे स्यान्मालमुन्नतभूतले इत्यभिधानचिन्तामणिः ॥१६॥
(भाव०) कृषिकायं त्वदेकाधीनमिति सादरं जनपदवधूमिः सरलदृष्ट्या निरीक्ष्यमाणस्त्वं हलकर्षणेन सौरभ्ययुक्तं मालक्षेत्रमारुह्य द्रुतिगतिः सन् किञ्चिदुत्तरेण पुनर्ब्रज ॥ १६ ॥ त्वमासारप्रशमितवनोपप्लवं साधु मूर्ना
वक्ष्यत्यध्वश्रमपरिगतं सानुमानाम्रकूटः । न क्षुद्रोऽपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय ।
प्राप्त मित्रे भवति विमुखः किं पुनर्यस्तथोच्चैः ॥ १७ ॥ (सञ्जी० ) त्वामिति ॥ आम्राश्चूताः कूटेषु शिखरेषु यस्य स आम्रकूटो नाम सानुमान्पर्वतः ।। "आम्रश्चूतो रसालोऽसौ” “कूटोऽस्त्री शिखरं शृङ्गम्" इति चामरः । आसारो धारावृष्टिः । “धारासंपात आसारः" इत्यमरः ॥ तेन प्रशमितो वनोपप्लवो दावाग्नियन तम्। कृतोपकारमित्यर्थः । अध्वश्रमेण परिगतं व्याप्तं त्वां साधु सम्यङ् मूर्ना वक्ष्यति वोढा ॥ वहेलट् । तथा हि । क्षुद्रः कृपणोऽपि ॥ "क्षुद्रो दरिद्रः कृपणे नृशंसे" इति यादवः। संश्रयाय संश्रयणाय मित्रे मुहृदि । “अथ मित्रं सखा सुहृत्" इत्यमरः ॥ आगते सति । प्रथमसुकतापेक्षया पूर्वोपकारपर्यालोचनया विमुखो न भवति यस्तथा तेन प्रकारेणोच्चैरुन्नतः स आम्रकूटः किं पुनर्विमुखो न भवतीति किमु वक्तव्यमित्यर्थः ॥ एतेन प्रथमावसथे सौख्यलाभात्ते कार्यसिद्धिरस्तीति सूचितम् । तदुक्तं निमित्तनिदाने-"प्रथमावसथे यस्य सौख्यं तस्याखिलेऽध्वनि । शिवं भवति यात्रायामन्यथा त्वशुभं ध्रुवम् ॥” इति ॥१७॥
(चारि०) त्वामासारेति-भो मेध ! आम्रकूटः सानुमान् आम्रकूटनामा पर्वतः त्वां भवन्तं मूर्धा मस्तकेन वक्ष्यति धास्यति कथं साधु यथा स्यात् । किं विधं त्वां आसारेण धारासम्पातेन प्रशमितः शान्ति नीतः वनस्य उपप्लवो दावानललक्षणो येन त्वया स त्वं तं त्वाम् । पुनः किं विधं अध्वश्रमपरिगतं मार्गकमयुक्तम् । पूर्वोक्तऽर्थेऽर्थान्तरन्यासमाह-भो मेघ संश्रयाय मित्रे प्राले सति प्रथमसुकृतापेक्षया पूर्वकृतोपकाराकाङ्क्षया मय्यमुना पूर्वमुपकृतं मयाप्यमुष्य प्रत्युपकारः कर्त्तव्य इति विचारणेत्यर्थः । क्षुदोऽपि नीचोऽपि विमुखो न भवति पराङ्मुखो न स्यात् । यस्तथोच्चैर्महान् स किं पुनः स यदि विमुखो न भवति तदा किमाश्चर्यम् । धारासम्पात आसार इत्यमरः । उपप्लवः सैहिकेये विप्लवोत्पातयोरपि ॥१७॥
(भाव०) वर्षाजलप्रशमितदावानलं मार्गक्लान्तं त्वामसौ आम्रकूटगिरिध्ना धारयि. ष्यति । आश्रयग्रहणार्थ प्राप्तं सुहृदं पूर्वकृतोपकारान् स्मरन क्षुद्रोऽपि न निषेधति । यः पुनरुनतस्तस्य किं वाच्यम् ॥ १७ ॥ छन्नोपान्तः परिणतफलद्योतिभिः काननाः
स्त्वयारूढे शिखरमचलः स्निग्धवणीसवणे । नूनं यास्यत्यत्यमरमिथुनप्रेक्षणीयामवस्था
मध्ये श्यामः स्तन इव भुवः शेषविस्तारपाण्डः ॥१८॥ (सजी० ) छत्रेति ॥ हे मेघ! परिणतैः परिपक्कैः फलैर्योतन्त इति तथोक्तैः। आषाढे वनचूताः फलन्ति पच्यन्ते च मेघवातेनेत्याशयः । काननानैर्वनचूतैश्छन्नोपान्त आवृतपाचोऽचल आम्रकूटादिः स्निग्धवेणीसवणे मरणकेशबन्धच्छाये। श्यामवर्ण इत्यर्थः ॥ "वेणी
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सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनी भावप्रबधनीसहिते
तु केशबन्धे जलस्तौ” इति यादवः ॥ त्वयि शिखर शृङ्गमारूठे सति ॥ “यस्य च भावेन भावलक्षणम्" इति सप्तमी ॥ मध्ये श्यामः शेषे मध्यादन्यत्र विस्तारे परितः पाण्डुर्हरिणः॥ "हरिणः पाण्डुरः" इत्यमरः ॥ भुवः स्तन इव । अमरमिथुनानाम् । खेचराणामिति भावः । प्रेक्षणीयां दर्शनीयामवस्थां नूनं यास्यति । मिथुनग्रहणं कामिनामेव स्तनत्वेनोत्प्रेक्षा संभवतीति कृतम् । यथा परिश्रान्तः कश्किामी कामनीनां कुचकलशे विश्रान्तः सन्स्वपिति तद्वभवानपि भुवो नायिकायाः स्तन इति ध्वनिः ॥ १८ ॥ ( चारि० ) अध्वक्लान्तं प्रतिमुखगतं सानुमानाम्रकूट.
स्तुङ्गेन त्वां जलद शिरसा वक्ष्यति श्लाघ्यमानः। आसारेण त्वमपि शमयेस्तस्य नैदावमग्निं
सद्भावाः फलति न चिरेणोपकारो महत्सु ॥१॥ क्षेपकोऽयम् ॥
छनोपान्त इति-भो मेघ! अचलः पर्वतो नूनं निश्चितं अमरमिथुनप्रेक्षणीयामवस्था देवयग्मदर्शनीयां दशां यास्यति । प्राप्स्यति । क सति, त्वयि भवति शिखर शृङ्ग आरूढे आरुह्य स्थिते सति किं विशिष्टे त्वयि स्निग्धवेणीसवणे । श्यामत्वात् चिकणवेणिकादृशे । अचलः कीहक् । काननाम्रविपिनरसालैः छनोपान्तः आच्छादितनिकटः । कीदृशैः काननानैः परिणतानि पक्कानि पीतच्छवीनि यानि फलानि तैोतन्त इति घोतिनस्तैः । उत्प्रेक्षते-भुवः पृथिव्याः स्तन इच । कीदृशः । मध्ये श्यामः । पुनः कीदृशः, शेषविस्तारपाण्डुः । स्तनस्था नीयः पर्वतः श्यामिकास्थानीयो मेघः पाण्डुतास्थानीयाः काननाम्राः। अमरा निर्जरा देवा इत्यमरः । मिथुनं तु द्वयोराशिभेदे स्त्रीपुंसयुग्मके इति मेदिनीकारः । आम्रचूतो रसालोऽसौ सहकारोऽतिसौरभ इत्यमरः ॥१८॥
(भाव० ) किञ्च, हे मेघ ! परिपाकपाण्डुरैरानैः परितो वृतो मध्ये नीलवन त्वया सहितोऽसौ गिरि भूदेव्याः स्तन इव सुरमिथुनैस्त्प्रेक्षयिष्यते ॥ १८ ॥ स्थित्वा तस्मिन्वनचरवधूभुक्तकुझे मुहूर्त
तोयोत्सर्गद्वततरगतिस्तत्परं वर्त्म ताणः । रेवां द्रक्ष्यस्युपलविषमे विन्ध्यपाद विशीर्णा
भक्तिच्छेदैरिव विरचितां भूतिमंगे गजस्य ॥ १९ ॥ ( सञ्जी०) स्थित्वेति ॥ हे मेघ ! वने चरन्ति ते वनचराः ॥ "तत्पुरुषे कृति बहलम्" इति बहुलग्रहणाल्लुग्भवति ॥ तेषां वधूभिभुक्ताः कुक्षा लतागृहा यत्र तस्मिन् ॥ "निकुञ्ज. कुक्षौ वा क्लीवे लतादिपिहितोदरे" इत्यमरः ॥ तत्र ते नयनविनोदोऽस्तीत्यर्थः । तस्मिना. म्रकटे मुहूर्तमल्पकालम् । न तु चिरं, स्वकार्यविरोधादिति भावः ॥ "मूहुर्तमल्पकाले स्याद्ध. टिकाद्वितयेऽपि च" इति शब्दार्णवे ॥ स्थित्वा विश्रम्य । तोयोत्सर्गेण "त्वामासार-" इत्यु. कवर्षणेन दुततरगतिलाघवाद्धेतोरतिक्षिप्रगमनः सन् । तस्मादाम्रकूटात्परमन्तर वर्त्म मार्ग तीर्णाऽतिकान्तः । उपलैः पाषाणविषमे विन्ध्यस्याः पादे प्रत्यन्तपर्वते ॥ “पादाः प्रत्यन्त. पर्वता" इत्यमरः ॥ विशीर्णो समन्ततो विसमराम् ॥ एतेन कस्याश्चित्कामुक्याः प्रियतमचर
पातोऽपि ध्वन्यते ॥ रेवां नर्मदाम् ॥ " रेवा तु नर्मदा सोमोजवा मेकलकन्यका" इत्य. मरः ॥ गजस्या शरीरे भक्तयो रचनाः रेखा इति यावत्॥ "भक्तिनिषेवणे भागे रचनायामू" इति शब्दार्णवे ॥ तासां छेदैर्भङ्गिभिर्भाभिर्विरचितां भूति शृङ्गारमिव भसितमिव वा॥
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मेघदते -पूर्वमेघः। "भूतिर्मातंगशृङ्गारे जातौ भस्मनि संपदि” इति विश्वः ॥ दृश्यसि । अयमपि महांस्ते नयन. कौतुकलाभ इति भावः ॥ ११ ॥
(चारि०) स्थित्वेति-भो मेघ ! त्वं तत्परं तस्मात् पर्वतात्पर वर्क्स माग तीर्णः सन् रेवां नर्मदा द्रक्ष्यसि विलोकयिष्यसि । किं विशिष्टस्त्वम् । तोयोत्सर्गात् जलत्यागात द्रुततरगतिरतिशीघ्रगमनः । किं कृत्वा । तस्मिन् पर्वते मुहत क्षणं स्थित्वा। किंविशिष्टे । वनचरखधूभिः किरातवनिताभिर्मुक्तो निको लतादिपिहितोदरं स्थान यस्य स तस्मिन् । किंविशिष्टां रेवाम् । उपलैः पाषाणैर्विषमे निम्नोन्नते विन्ध्यस्य विन्ध्याचलस्य पादे प्रत्यन्तपर्वते विशीणी प्रसृताम् । कामिव । गजस्य हस्तिनोऽङ्गो शरीरे भृतिमिव भर मेव । कोहशीं। भक्तिच्छेदै रचनाविशेषैविरचिताम् । गिरेरुपमानं गजः पादस्याङ् रेवायाः भुतिः । रेवा तु नर्मदा सोमोद्भवा मेकलकन्यकेत्यमरः । पाहो बुधे तुरीयांशे शैलप्रत्यन्तपर्वत इति मेदिनीकारः । निकुञ्जकुक्षौ वा क्लीवे लतादिपिहितोदर इत्यमरः । पाषाणप्रस्तरावोपलाश्मान इत्यमरः । भुतिर्भस्मनि सम्पत्ती॥१९॥
(भाव०) हे मेघ ! आम्रकट गिरेः किराताङ्गनोपभुक्ते कुळे क्षणं विश्रम्य तत्र वृष्टिं कृत्वा लघुशरीरः सन् तत्पर मार्गरमाक्रम्य विन्ध्याद्वित: विसृमरां गजस्याङ्ग रचनाविशेषैनिहितां भूतिमिव नर्सदां वक्ष्यति ॥ १९ ॥ तस्यास्तिक्तैर्वनगजमदैवासितं वान्तवृष्टि
जम्बकुञ्जपतिहतरयं तोयमादाय गच्छेः । अन्तःसारं घन तुलयितुं नानिलः शक्ष्यति त्वां।
रिक्तः सर्वो भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय ।। २० ।। ( सञ्जी० ) तस्या इति ॥ हे मेघ ! वान्तवृष्टिरुदीर्णवर्षः सन् । कृतवमनश्च, व्यज्यते । तिक्तैः सुगन्धिभिस्तिक्तरसवद्भिश्च ॥ “तिक्तो रसे सुगन्धौ च” इति विश्वः ॥ वनगजमदैवासितं सुरभितं भावितं च । “हिमवद्विन्ध्यमलया गजानां प्रभवाः” इति विन्ध्यस्य गज प्रभवत्वादिति भावः । जम्बूकुत्रैः प्रतिहतरयं प्रतिबद्धवेगम् । सुखपेयमित्यर्थः । अनेन लयुत्वं कषायभावना च व्यज्यते । तस्या रेवायास्तोयमादाय गच्छेज। हे घन मेघ अन्तः सारो बलं यस्य तं त्वामनिल आकाशवायुः, शरीरस्थश्च गम्यते। तुलयितुं न शक्ष्यति शको न भविष्यति । तथा हि । रिक्तोऽन्तःसारशून्यः सर्वोऽपि लघुर्भवति । प्रकम्प्यो भवतीत्यर्थः । पूर्णता सारवत्ता गौरवायाप्रकरप्यत्वाय भवतीत्यर्थः ॥ अयमत्र ध्वनिः-आदौ वम. नशोधितस्य पुंसः पश्चाच्छ्लेमशोषणाय लघुतिक्तकषायाम्बुपानालब्धबलस्य वातप्रकम्पो न स्यादिति । तथाह बाग्भटः- "कषायाश्वाहिमास्तस्य विशुहौ श्लेष्मणो हिताः। किम तिक्तकपाया वा ये निसर्गात्कफापहाः ॥ कृतशुद्धः क्रमात्यीत यादेः पथ्यभोजिनः । वातानि निर्न आधा ल्यादिन्द्रियैरिव योगिनः ॥” इति ॥२०॥
(चारि०) तस्या इति । भो मेव! त्वं वान्तवृष्टिः सन् तस्या रेवायास्तोय जलमादाय गृहीत्वा गच्छेर्यायाः। किंविधं तोयं कटुभिर्वनगजमदैवासितं अरण्यद्विपदानैः सगन्धी तम् । पुनः कीदृशं तोयम् । जम्बूकुञ्जप्रतिहतरयं जम्वाः कुः प्रतिहतः स्खलितोयोगों पस्य तत् । अन्तःसारं सनीरं त्वां तुलयितुं अनिलो वायुर्न शक्ष्यति न शको भविष्यति । अधीन्तरमाह-हि यतः सर्वो रितः सन् लघुर्भवति पूर्णत्वं गौरवाय गरिम्णे भवति । भो त्प्रतिहतं द्विष्टे प्रतिस्खलितरुद्धयोरिति मेदिनीकारः । मदो रेतसि कस्तूर्या गवे हर्षेभदानयोरिति । सारो बले मज्जनि च स्थिरांशे न्याये च नीरे च धने च सारमिति विश्वः ॥२०॥
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१८
सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनी भावप्रबोधिनीसहिते
(भाव०) अथ तत्रोङ्गीर्णजलस्त्वं नर्मदाया गजमदसुरभि जम्बूकुओपगतं जलमादाय गच्छ । इत्थं सजलं घृतगरिमाणं त्वां पवनस्तुलयितुं न शक्नुयात् । अन्तःसारशून्यः सर्वोऽपि लघुत्वमेव गच्छति । पूर्णत्वमेव गौरवापादकं भवति ॥ २० ॥
नीपं दृष्ट्रा हरितकपिशं केसरैरर्धरूडराविर्भूतप्रथममुकुलाः कन्दलीचानुकच्छम् । जग्ध्वा रण्येष्वधिक सुरभिं गन्धमाघ्राय चोर्व्याः सारङ्गास्ते जललवमुचः सूचयिष्यन्ति मार्गम् ॥ २१ ॥
(सञ्जी०) नीपमिति ॥ सारङ्गा मतङ्गजाः कुरङ्गा भृङ्गा वा ॥ " सारङ्गश्चातके भृङ्गे कुरङ्ग व मतङ्गजे" इति विश्वः ॥ अर्धरूढैरेकदेशोद्गतैः केसरैः किञ्जल्कैर्हरित पालाशवर्णं कपिशं कृपीतं च ॥ " पालाशो हरितो हरित्” इति । "श्यावः स्यात्कपिशो धूम्रधूमलौ कृष्णलोहिते" इति चामरः ॥ श्यामवर्णमिति यावत् ॥ "वर्णो वर्णेन" इति समासः॥ नीपं स्थलकदम्बकुसुमम् ॥ "अथ स्थलकदम्बके । नीपः स्यात्पुलके" इति शब्दार्णवे ॥ दृष्ट्वा संप्रेक्ष्य । विदित्वेति यावत्। तथा कच्छेष्वनूपेष्वनुकच्छम् ॥ "अव्ययं विभक्ति-" इत्यादिना विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः ॥ "जलप्रायमनूपं स्यात्पुंसि कच्छस्तथाविधः" इत्यमरः ॥ आविर्भूताः प्रथमाः प्रथमोत्पन्ना मुकुला यासां ताः कन्दली भूमिकदलीः ॥ " द्रोणपर्णी स्निग्धकन्दा कन्दली भूकदल्यपि” इति शब्दार्णवे । जग्ध्वा भक्षयित्वा ॥ "अदो जग्धिः -" इति जग्ध्यादेशः ॥ अरण्येष्वधिकसुरभिमतिघ्रा तर्पणम् ॥ " दग्धारण्येषु ” इति पाठे "दग्धम्" इत्यधिकविशेषणम् ॥ अर्थवशात्कन्दलीश्च Searcast ष्टव्यः ॥ उर्व्या भूमेर्गन्धमाघ्राय जललवमुचो मेघस्य ते तव मार्ग सूचयिष्यन्त्यनुमापयिष्यन्ति । यत्र यत्र वृष्टिकायें कन्दली मुकुलनीपकुसुमादिकं दृश्यते तत्र तत्र त्वया वृष्टमित्यनुमीयत इति भावः ॥ प्रक्षिप्तमपि व्याख्यायते
अम्भोबिन्दुग्रहणचतुरांश्चातकान्वीक्षमाणाः
श्रेणीभूताः परिगणनया निर्दिशन्तो बलाकाः । त्वामासाद्य स्तनितसमये मानयिष्यन्ति सिद्धाः सोत्कम्पानि प्रियसहचरीसंभ्रमालिङ्गितानि ॥
अम्भ इति ॥ अम्भोबिन्दूनां वर्षोदविन्दूनां ग्रहणे । “सर्वे सहापतितमम्बु न चातकस्य हितम्" इति शास्त्राद् भूस्पृष्टोदकस्य तेषां रोगहेतुत्वादन्तराल एव स्वीकारे चतुरांचातकान्वीक्षमाणाः कौतुकात्पश्यन्तः श्रेणीभूता बद्धपंक्तीः ॥ अभूततद्भावे त्रिः ॥ बलाका बकपङ्कीः परिगणनयैका द्वे तिस्र इति संख्यानेन निर्दिशन्तो हस्तेन दर्शयन्तः सिद्धाः स्तनितसमये त्वदूर्जितकाले सोत्कम्पान्युत्कम्पपूर्वकाणि प्रियसहचरीणां संभ्रमेणालिङ्गितान्यासाद्य । स्वयं ग्रहणाश्लेषसुखमनुभूयेत्यर्थः । त्वां मानयिष्यन्ति । त्वन्निमित्तत्वात्सुखलाभस्येति भावः ॥२१॥
1
( चारि०) नीपमिति । भो मेघ ! सारङ्गाश्चातकभृङ्गकुरङ्गमतङ्गजास्ते मार्ग पन्थानं सूचयिष्यन्ति । किं कृत्वा - नीपं दृष्ट्वा कदम्बं वीक्ष्य । किंविधम् । अर्द्धरूढैः अद्धोत्पन्नैः केसरैः foreseeaafi एतेन भृङ्गाः सूचयिष्यन्ति । तव मागं अनुकच्छं कच्छसमीपे । कन्द
वीक्ष्य । किंविधाः आविर्भूताः प्रकटीभूताः प्रथमं पूर्व मुकुलाः कुड्मला यासु तास्ताः । एतेन भृङ्गाः सूचयिष्यन्ति । पुनः किं कृत्वा दग्धारण्येषु उर्व्या गन्धं आत्राय । किंविधम् । अधिकसुरभिम् । एतेन हस्तिनः सूचयिष्यन्ति । किंविशिष्टस्य ते । जललवमुचः शीकरान्
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मेघदते-पूर्वमेघः ।
त्यजतः एतेन चातकाः । सारङ्गश्चातके भृङ्गे मृगेऽपि च मतङ्गाजे इति मेदिनीकारः। तूलं च नीपप्रियककदम्बा इत्यमरः । किझल्कः केसरोऽस्त्रियामित्यमरः ॥२१॥
(चारि०) अम्भोबिन्द्विति-भो मेघ ! सिद्धाः त्वामासाद्य भवन्तं प्राप्य स्तनितसमये त्वर्जितकाले प्रियाणां वल्लभानां सहचरीणां स्त्रीणां विभ्रमालिङ्गितानि विलासालिङ्गानानि मानयिष्यन्ति । किविशिष्टानि । उत्कण्ठया सह वर्तन्त इति सोत्कण्ठानि । कीदृशाः सिद्धाः। चातकान् वीक्षमाणाः विलोकयन्तः। कीदृशान् । अम्भसां पानीयानां बिन्दुग्रहणे आदाने रभसो हर्षो येषां ते तान् । किं कुर्वन्तः परिगणनया श्रेणीभूताः कृतपङ्कीः बलाकाः बकपङ्कीः निर्दिशन्तः । इयत्यः सन्ति बलाका इति निर्देशं निश्चयं कुर्वन्तः। रभसो हर्षवेगयोरिति मेदिनी। बलाका बकपङ्किः स्यादित्यमरः । स्तनितं गर्जितं मेघ इत्यमरः । श्रेणीभूना इति पौनरुत्य चिन्त्यम् ॥२१॥
(भाव०) हे मेघ ! मृगाः नीपकुसुमोद्गमं दृष्ट्वा भूकन्दलीश्व भक्षयित्वा वनेषु सुरभितम भूमेर्गन्धमाघ्राय च वृष्टिं कुर्वतस्ते मार्गमनुमापयिष्यन्ति ॥ २१॥ उत्पश्यामि द्रुतमपि सखे मत्प्रियार्थ यियासोः
कालक्षेपं ककुभसुरमौ पर्वते पर्वते ते । शुक्लापाङ्गैः सजलनयनैः स्वागतीकृत्य केकाः
प्रत्युद्यातः कथमपि भवान्गन्तुमाशु व्यवस्येत् ॥ २२ ॥ (सञ्जी० ) उत्पश्यामीति ॥ हे सखे ! मेघ ! मत्प्रियार्थं यथा तथा द्रुतं क्षिप्रम् ॥ "लघु क्षिप्रम द्रुतम्" इत्यमरः॥ यियासोर्यातुमिच्छोरपि ॥ यातेः सन्नन्तादुप्रत्ययः॥ ते तव ककुभैः कुटजकुसुमैः सुरभी सुगन्धिनि । “ककुभः कुटजेऽर्जुने” इति शब्दार्णवे ॥ पर्वते पर्वते प्रतिपर्वः तम् ॥ वीप्सायां द्विरुक्तिः ॥ कालक्षेपं कालविलम्बम् ॥ "क्षेपो विलम्बे निन्दायाम्" इति वि. यः॥ उत्पश्याम्युत्प्रेक्षे॥ विलम्बहेतुं दर्शयन्नाशुगमनं प्रार्थयते-शुक्लेति ॥ सजलानि सानन्द. बाष्पाणि नयनानि येषां तैः शुक्लापा मयूरैः ॥ “मयूरो बर्हिणो बहीं शुक्लापाङ्गः शिखावला" इति यादवः ॥ केकाः स्ववाणीः ॥ “केका वाणी मयूरस्य" इत्यमरः॥ स्वागतीकृत्य स्वागत. वचनीकृत्य प्रत्युद्यातः प्रत्युद्गतः। मयूरवाणीकृतातिथ्य इत्यर्थः । भवान् कथमपि यथाकथंचि. दाशु गन्तुं व्यवस्येदुद्युञ्जीत ॥ प्रार्थने लिङ् । “शेषे प्रथमः” इति प्रथमपुरुषः । शेषश्चार्य भवच्छब्दो युष्मदस्मच्छब्दव्यतिरेकात् ॥ "स्वागतीकृत्य केकाः" इत्यत्र केकास्वारोप्य माणस्य स्वागतवचनस्य प्रकृतप्रत्युद्गमनोपयोगात्परिणामालंकारः । तदुक्तमलारसर्वस्वे-"आरोप्यमाणस्य प्रकृतोपयोगित्वे परिणामः" इति ॥२२॥
(चारि०) उत्पश्यामोति-भो सवे ! मेघ ! मत्प्रिया) मम सन्तोषाथ दूतं शीघ्र यिया. सोर्गन्तुमिच्छोरपि ते तव पर्वते पर्वते कालक्षेपं विलम्ब अहमुत्पश्यामि । किविशिष्टे पर्वते ककुभैरर्जुनवृक्षः सुरभिः सुगन्धस्तस्मिन् । भवान् आशु शीघ्रं गन्तुं गमनाय कथमपि महता कष्टेन व्यवस्येत् व्यवसायं उद्योगं कुर्यात् । कीदृशो भवान् । शुक्लापाङ्गैः मयूरैः प्रत्युद्यातः । किं कृत्वा केकाः मयूरवाणीः स्वागतीकृत्य स्वागतं भो मेव केकयेति सम्भाष्य । किविशिमयूरैः। स्नेहत्वात् जलेन स्नेहाश्रुानीयेन सह वर्तन्त इति सजलानि नयनानि येषां ते तैः। अथ चोक्तिः । यथा कश्चित्स्नेहाश्रुजलं मुञ्चन स्वागतमिति वाक्यं ब्रुवन् परदेशादागतं मित्रं प्रत्युद्याति । केकावाणी मयूरस्येत्यमरः । नदीसों वीरतरुरिन्द्रद्रः ककुभोऽर्जुनः इत्यमरः । ज्वलितेऽथ द्रुतं त्रिषु । शोधे विलीने विभ्राण इति मेदिनी ॥ २२ ॥
(भाव०) हे मेघ ! मम प्रियकार्य कतु जिगमिषोस्ते मध्येमाग कुटजकुसुमैः सुरभौ
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२०
सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहिते -
पर्वते पर्वते कालक्षेपं सम्भावयामि । यतस्तत्र प्रतिपर्वतं मयूरा: सजलनयनाः सन्तः स्वकोयकेकावाण्या तव स्वागतं कुर्वन्तस्त्वां प्रत्युद्धमिष्यन्ति । इत्थं त्वमपि ततः कष्टेनैवाने गन्तु. मुद्योगं करिष्यसि ॥२२॥ पाण्डुच्छायोपवनवृतयः केतकैः मूविभिन्न
नीडारम्भहबलिभुजामाकुलग्रामचैत्याः । त्वय्यासन्ने परिणतफलश्यामजम्बूवनान्ताः
संपत्स्यन्ते कतिपयदिनस्थायिहंसा दशार्णाः ॥ २३ ॥ (सो०) पाण्डिति ॥हे मेघ! त्वय्यालन्ने संनिटे सति दशार्णा नाम जनपदाः सूचिभित्रैः सूचिषु मुकुलाग्रेषु भिन्नविकसितैः ॥ "केतकीमुकुलाग्रेषु सूथि: स्यात्" इति शब्दार्णवे ॥ केतकैः केतकी कुसुमैः पाण्डुच्छाया हरितवर्णा उपवनानां वृतयः कण्टकशाखावरणा येषु ते तथोक्ताः॥ "प्राकारो वरणः साल: प्राची प्रान्ततो वृतिः" इत्यमरः । तथा गृहबलिभुजां काकादिग्रामपक्षिणां नीडारम्भैः कुलायनिर्माणः ॥ "कुलायो नीडमस्त्रियाम्" इत्यमरः ॥ चित्याया इमानि चेत्यानि रथ्यावृक्षाः॥ "चैत्यमायतने बुद्धवन्ये चोदेशाप" इति विश्वः ॥ आकुलानि संकोनि ग्रामे र वैत्यानि येते तथोक्ताः । तथा परिणतः पक्कैः फलैः श्यामानि यानि जम्बूबनानि तैरन्ता रम्याः ॥ "मृताववासिने रम्ये समासावन्त इष्यते” इति शब्दार्गः ॥ तथा कतिपयेष्वेव दिनेषु स्थायिनो हंसा येषु ते तथोक्ता एवंविधाः संपत्स्यने भविष्यन्ति॥ "पोटायुवतिम्तोककतिपय-" इत्यादिना कतिपय शब्दस्पोत्तरपदत्वेऽपि न तच्छन्दस्यो. त्तरत्वमस्त्यस्य शास्त्रस्य प्रायिकत्वात् ॥ २३ ॥
(चारि०) पाण्डिति-भो मेघ ! त्वयि आलन्ने निकटगते सति दशार्णाः देशविशेषाः परिणतानि फलानि येषु ते तादृशाः श्यामजम्ब्वाः वनान्त काननमध्यं येषु तादृशाः सम्पत्स्य. न्ते सम्पन्ना भविष्यन्ति । कीदृशाः । कतिपयेषु दिनेषु स्थातुं शीलमेषां ते तादृशाः हंसा येषु ते । कोशाः सूचिभित्र: कण्टकमिश्रितः केतकः पाण्डुचछायस्य पीतशोभस्योपचनस्योद्यानस्य वृतिरावेष्टनं येषु त । पुनः कीदृशाः। गृहबलिभुजां काकानां नीडारम्भैः कुलायोद्यमैः आकु. लानि नामचैत्यानि ग्रामपादाः येषु ते। चैत्यमायतने बुद्धबिम्बे चोदेशपादप इति मेदिनीकारः । वृतिस्तु वरणेऽपि स्याद्वेटने पि च योषितोति मेदिनी कारः। नोडं स्नानकुलाययोरिति मेदि । आरम्भस्तु त्वरायां स्यादुद्यमे वधदर्पयोरिति मेदि० ॥२३॥
(भाव०) हे मेव ! त्वयि प्रत्यासन्ने सति दशाणंदेशेषु उपवनानि सकण्टककेतकवृतियुतानि, रध्यावृक्षाश्व ग्रामपक्षिणां कुलायनिर्माणव्याकुलाः, वनान्ताश्च परिपक्वजम्बूफलश्यामाः, हंसाश्च वर्षाकालवशान्मानसगमनत्वस्या कतिपयदिनस्थायिनो भविष्यन्ति ॥ २३ ॥ तेषां दिक्षु प्रथितविदिशालक्षणां राजधानी
गत्वा सद्यः फलमविकलं कामुकत्वस्य लब्धा । तीरोपान्तस्तनितसुभगं पास्यसि स्वादु यस्मा
सभ्रभङ्ग मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोमि ॥ २४ ॥ (सञ्जी० ) तेषामिति ॥ दिक्षु प्रथितं प्रसिद्धं विदिशेति लक्षणं नामधेयं यस्यास्ताम् ॥ "लक्षणं नाम्नि चिह्ने च” इति विश्वः । तेषां दशार्णानां सम्बन्धिनीम् । धीयन्तेऽस्यामिति धानी || "करणाधिकरणयोश्च" हति ल्युट् ॥ राज्ञां धानी ।। राजधानी ॥ "कृयोगलक्षणा
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मेघदूते-पूर्वमेघः ।
षष्टी समस्यते" इति वक्तव्यात्समासः ॥ तां प्रधाननगरीम् ॥ “प्रधाननगरो राज्ञां राजधा. नीति कथ्यते” इति शब्दार्णवे ॥ गत्या प्राप्य सद्यः कामुकत्वस्य बिलासितायाः ॥ "विला. सी कामुकः कामी स्वीपरो रतिलम्पटः" इति शब्दाणे ॥ अविकलं समग्रं फलं प्रयोजनं लब्धा लप्स्यते । त्वयेति शेषः । कर्मणि लुट् ॥ कुतः। यस्मात्कारणात्स्वादु मधुरम् चला ऊर्मयो यस्य तञ्चलोमि तरङ्गितं वेत्रवत्या नाम नद्याः पयः सभ्रूभङ्ग भ्रूकुटियुक्तम् । दुशनपीडयेति भावः । मुमिवाधरमिवेत्यर्थः । तीरोपान्ते तटप्रान्ते यत्स्तनितं गजितं तेन सुभगं यथा तथा । स्तनितशब्देन भणितमपि व्यपदिश्यते । “ऊर्ध्वमुच्चलितकण्ठनासिकं हुकृतं स्तनितमल्पघोषवत्" इति लक्षणात् ॥ पास्यसि ॥ पिबतेर्लट् ॥ "कामिनामधरास्वादः सुरतादतिरिच्यते” इति भावः ॥ २४ ॥
(चारि०) तेषामिति-भो मेध! त्वं वेत्रवत्या नद्याः स्वादयुक्तं मधुरं पयः पानीयं पास्यसि कथं कीदृशं चलास्तरला ऊर्मयः कल्लोला यत्र तत् । कथं यथा स्यात् । नीरोपान्ते कूलसमीप स्तनितेन मेघगजितेन यथा स्यात् । उत्प्रेक्षते-सभ्रूभङ्गंभूभङ्गसहितं मुखमिव । किं कृत्वा । तेषां दशार्णानां दिक्षु दिग्विभागेपु प्रथितं विख्यातं विदिशेति लक्षणं नाम यस्याः सा तां राजधानी गत्वा । पुनः किं कृत्वा सद्यस्तत्क्षणात् कामुकत्वस्य कामितायाः अविक लं सम्पूर्ण फलं लब्ध्वा प्राप्य । लक्षण नानि चिह्न चेति मेदिनीकारः । स्तनितं मेघगजितं इत्यमरः ॥२४॥
(भाव०) हे मेघ ! दशार्णदेशराजधानी प्रसिद्धां विदिशां गत्वा तत्र वेत्रवत्या नद्याः स्वादु तीरप्रान्ते सशब्द जलं दशनपीडया नायिकाधरमिव पीत्वा कामुकत्यस्य पूर्ण फलं लप्स्यसे ॥२४॥ नीराख्यं गिरिमधिवसेस्तत्र विश्रामहेतो
स्त्वत्संपर्कात्पुलकितमिव प्रौढपुष्पैः कदम्बैः । यः पण्यस्त्रीरतिपरिमलोद्गारिभिन गराणा
मुद्दामानि प्रथयति शिलावेश्मपियौवनानि ॥ २५ ॥ ( सञ्जी० ) नीचैरिति ॥ हे मेध ! तत्र विदिशासमीपे । विश्रानो विश्रमः खेदापनयः ॥ भावाथे घञ्प्रत्ययः ॥ तस्य हेतोः। विश्रामार्थमित्यर्थः । “षष्ठी हेतुप्रयोगे” इति षष्ठी॥ विश्रामेत्यन्त्र "नोदात्तोपदेशस्य मान्तस्यानाचमेः” इति पाणिनीये वृद्धिप्रतिषेधेऽपि "विश्रामो वा” इति चन्द्रव्याकरणे विकलपेन वृद्धिविधानादूपसिद्धिः ॥ प्रौढपुष्पैः प्रबुद्धकुसमैः कदम्बैनोपवृक्षस्त्वत्संपर्कात्तव सङ्गात् । पुलका अस्य जाताः पुलकितमिव संजातपुलकमिव स्थितम् ॥ तारकादित्वादितप्रत्ययः ॥ नीचैरित्याख्या यस्य ते नीराख्यं गिरिमधिवसेः॥गिरौ वसेरित्यर्थः ॥ "उपवध्यावसः" इति कर्मत्वम् । यो नीचैगिरिः । पण्या: क्रेयाः स्त्रियः पण्यस्त्रियो वेश्याः ॥ वारस्त्री गणिका वेश्या पण्यस्त्री रूपजीविनी" इति शब्दावे ॥ तासां रतिषु यः परिमलो गन्धविशेषः ॥ "विमदोत्थे परिमलो गन्धे जनमनोहरे" इत्यमरः ॥ तमुद्विरन्त्याविष्कुर्वन्तीति तथोक्तानि तैः । शिलावेश्मभिः कन्दरै गराणां पौराणामहामान्युत्कटानि यौवनानि प्रथयति प्रकटयति ॥ उत्कटयौवनाः क्वचिदनुरक्ता वारांगना विश्रामविहाराकांक्षिण्यो मात्रादिभयानिशीथसमये कंचन विविक्त देशमाश्रित्य रमन्ते । तच्चान बहलमस्तीति प्रसिद्धिः। अत्रोद्गारशब्दो गौणार्थत्वान्न जुगुप्सावहः । प्रत्युत काव्यस्यातिशोभाकर एव । तदुक्तं दण्डिना-'निष्ठ्यूतोद्गीर्णवान्तादि गौणवृत्तिव्यपाश्रयम् । अ. तिसुन्दरमन्यत्र ग्राम्यकक्षां विगाहते ॥” इति ॥ २५ ॥
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२२ सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहिते -
(चारि०) नीचैरिति । भो मेघ ! त्वं तत्र विदिशायां विदिशासमीपे नीचैरित्याख्या नाम यस्य तं नीचैराख्यं गिरि पर्वतं अधिवसेः कुतः विश्रामहेतोः। उत्प्रेक्षते-त्वत्सम्पर्कात् त्वदङ्गसङ्गात् प्रौढपुष्पैः पक्वकुसुमैः कदम्बनींपैः पुलकितमिव । रोमाञ्चितमिव यो गिरिन गराणां पुरनिवासिनो उद्दामानि स्वतन्त्राणि यौवनानि तारुण्यानि शिलावेश्मभिः पाषाणगृहैः प्रथयति प्रख्यापयति । किंविशिष्टः । पण्यस्त्रीणां वेश्यानां रतिपरिमलः सुरतोपमर्दविकसच्छरीररागादिसौरभस्तं उद्विरितुं शीलमेषां तानि उद्गारीणि नैः । उद्दामो बन्धरहिते स्व. तन्त्रे चेति मेदि । स्यात्परिमलो विमर्दातिमनोहरगन्धयोश्वापि। सुरतीपमर्दविकसच्छरीररागादिसौरभे पुंसीति मेदि० । पाषाणः प्रस्तरमावोपलाश्मानः शिलाहषदित्यमरः ॥२६॥
(भाव०) हे मेघ ! विश्रामार्थ तत्र नीचैराख्यं पर्वतमधिवस । यस्त्वत्प्रेम्णेव कदम्बैः पुलकितः स्यात् । किञ्च यत्र वाराङ्गनारतिपरिमलसुरभीणि शिलागृहाणि तत्रत्यानां नागराणां उद्दामानि तारुण्यानि प्रकटयन्ति ॥ २६॥ विश्रान्तः सन्वज वननदीतीरजातानि सिञ्च
न्नुद्यानानां नवजलकणैथिकाजालकानि । गण्डस्वेदापनयनरुजा कान्त कर्णोत्पलानां
छायादानात्क्षणपरिचितः पुष्पलावीमुखानाम् ॥ २६ ॥ सभी विश्रान्त इति ॥ विश्रान्तः संस्तत्र नीचैगिरौ विनीताध्वश्रमः सन् । अथ विश्रान्तेरनन्तरम् । वनेऽरण्ये या नद्यस्तासां तीरेषु जातानि स्वयंरूढानि अकृत्रिमाणीत्यर्थः। नदनदि-" इति पाठे "पुमान्स्त्रिया" इत्येकशेषो दुर्वारः ॥ तेषामुद्यानानामारामाणां संबं. धीनि यूथिकाजालकानि मागधीकुसुममुकुलानि ॥ “अथ मागधी । गणिका यूथिका" इत्य. मरः ॥ "कोरकजालककलिकाकुड्मलमुकुलानि तुल्यानि" इति हलायुधः ॥ नवजलकणैः सिञ्चन्नार्दीकुर्वन् । अत्र सिञ्चतेराद्रीकरणत्वाद् द्रवद्रव्यस्य करणत्वम् । यन्त्र तु क्षरणमर्थस्तत्र द्रवव्यस्य कर्मत्वम् । यथा "रेतः सिक्त्वा कुमारीषु" । "सुखैनिषिञ्चन्तमिवामृतं त्वचित इत्येवमादि ॥ एवं किरतीत्यादीनामपि "रजः किरति मारुतः" । "अवाकिरन्वयोवृद्धास्त लाजैः पौरयोषितः” इत्यादिष्वर्थभेदाश्रयणेन रजोलाजादीनां कर्मत्वकरणत्वे गमयितव्ये तथा गण्डयोः कपोलयोः स्वेदस्यापनयनेन प्रमार्जनेन या रुजा पीडा ॥ भिदादित्वादम. यतया कान्तानि म्लानानि कर्णोत्पलानि येषां तेषां तथोक्तानाम् । पुष्पाणि लुनन्तीति पुष्पलान्यः पुष्पावचायिकाः स्त्रियः ॥ “कर्मण्यम्" । "टिड्ढाणञ्-" इत्यदिना डीप । तासां मखानि । छायाया अनातपस्य दानात् । कान्तिदानं च धन्यते ॥ छाया सूर्या प्रिया कान्तिः प्रतिबिम्बमनातपः" इत्यमरः ॥ कामुकदर्शनात्कामिनीनां मुखविकासो भवतीति भावः ॥ क्षणपरिचितः क्षण संसृष्टः सन् । न तु चिरम् । गच्छ ॥ २६ ॥
(चारिक) विश्रान्त इति। भो मेध ! विश्रान्तः सन् त्वं ब्रज किं कुर्वन् उद्यानानां उपवमानां यूथिकाजालकानि नवजलकणैः नवीनशीकरैः सिञ्चन् । किविशिष्टानि नवनदीतीरजातानि । नवनद्याः कुल्यायास्तीरे कूले जातानि समुत्पन्नानि । अथवा नवानि नूतनानि नदीतीरजातानि च तानि । किविशिष्टस्त्वम् । छायादानात् आतपाभावकरणात् पुष्पलावीमुखानां पुष्पाणि लुनन्ति पुष्पलाव्यस्तासां मुखानि तेषां । क्षणे अव्यापारस्थितौ काले परिचितः कृतपरिचयः । किविशिष्टानां मुखानां । गण्डयोः कपोलयोर्यः स्वेदस्तस्यापनयनं दूरीकरणं तेन या रूजा भङ्गस्तयाः क्लान्तानि कर्णात्पलानि येषु तानि तेषाम् । रुजा रोगे च भड़े चेति मेदिक। छाया स्यादातपाभाव इति मेदि । अव्यापारस्थितौ कालविशेषोत्सवयोः क्षण
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मेघदते-पूर्वमेघः ।
इत्यमरः । पुमानाक्रीड उद्यानं राज्ञः साधारणं वनमित्यमरः ॥ २६ ॥
(भाव०) तत्र विश्रान्तः सन् वन्यनदीतीरोद्यानस्थयूथिकाजालकानि सिञ्चन् गच्छ । तत्रोद्यानेषु पुष्पावचयार्थमागतानां पुष्पावचयश्रमेण स्विन्नानां सुन्दरीणां छायाकरणेन ताभिरुग्रीवाभिः क्षणं विलोकितस्त्वं तासां परिचितो भविष्यसि ॥ २६ ॥ वक्रः पन्था यदपि भवतः प्रस्थितस्योत्तराशा
सौधोत्सङ्गप्रणयविमुखो मा स्म भूरुज्जयिन्याः। विद्युद्दामस्फुरितचकितैस्तत्र पौराङ्गनानां
लोलापाङ्गैर्यदि न रमसे लोचनैर्वश्चितोऽसि ॥ २७॥ (सञ्जी०) वक्र इति॥ उत्तराशामुदीची दिशं प्रति प्रस्थितस्य भवतः पन्था उज्जयिनीमार्गो वक्रो यदपि । दूरो यद्यपीत्यर्थः । विन्ध्यादुत्तरवाहिन्या निर्विन्ध्यायाः प्राग्भागे किय. त्यपि दूरे स्थितोज्जयिनी । उत्तरापथस्तु निर्विन्ध्यायाः पश्चिम इति वक्रत्वम् ॥ तथाप्युज्जयिन्या विशालानगरस्य ॥ “विशालोज्जयिनी समा" इत्युत्पलः॥ सौधानामुत्सङ्गषूपरिभागेषु प्रणयः परिचयः ॥ “प्रणयः स्यात्परिचये याञ्चायां सौहृदेऽपि च” इति यादवः। तस्य विमुखः पराङ्मुखो मास्मभुः। न भवेत्यर्थः । "स्मोत्तरे लङ् च" इति चकारादाशीरथै लुङ् । “न माङ्योगे" इत्यडागमप्रतिषेधः ॥ तत्रोज्जयिन्यां विद्युदाम्नो विद्युल्लतानां स्फुरितेभ्यः स्फुरणेभ्यश्चकितैर्लोलापाडैश्चञ्चलकटाक्षः पौराङ्गनानां लोचनैर्न रमसे यदि तर्हि त्वं वञ्चितः प्रतारितोऽसि । जन्मवैफल्यं भवेदित्यर्थः ॥२७॥
(चारि० ) वक्र इति-भो मेध ! उत्तराशां उदीची दिशं प्रस्थितस्य गच्छतो भवतस्तत्र यदपि मार्गो वक्रस्तिरश्चीनस्तथापि उज्जयिन्याः विक्रमार्कपुर्याः सौधोत्सङ्गप्रणयविमुखो धवलगृहपराङ्मुखो मा स्म भूः सरलमार्ग त्यत्तवा वक्रे पथिकिमर्थं गच्छामीत्याह-तत्र उज्जयिन्यां पौराङ्गनाना नागरनारीणां । लोचनैर्नयनैर्यदि न रमसे न क्रीडसि तदा वञ्चितोऽसि । किविशिष्टैः । विद्युद्दामस्फुरितचकितैः सौदामिनीमालादीप्तिचञ्चलैः । अपरं कीदृशैः । लोलापाङ्गैः लोलाश्चञ्चला अपाङ्गा नेत्रान्ताः कटाक्षा येषु तानि तैः। अपाङ्गस्त्वहीने स्यान्नेत्रान्ते तिलकेऽपि च इति मेदिनीकारः । विद्युत्सौदामिनीत्यमरः ॥२७॥
(भाव०) उत्तरां दिर्श गच्छतस्ते यद्यपि मार्गों वक्र: स्यात्तथाऽपि उजयिनीमवश्य गच्छ । तत्र पौरस्त्रीणां विद्युद्दामतुल्यैः कटाक्षैर्नयनोत्सवं लप्स्यसे । तासां सौन्दर्यमवश्यं विलोकय ॥ २७ ॥ संप्रत्युज्जयिनी गच्छतस्तस्य मध्येमागं निर्विन्ध्यासम्बन्धमाहवीचिक्षोभस्तनितविहगश्रेणिकाचीगुणायाः
संसर्पन्त्याः स्खलितमुभगं दर्शितावर्तनाभः । निर्विन्ध्यायाः पथि भव रसाभ्यन्तरः सनिपत्य
स्त्रीणामाचं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु ॥ २८ ॥ ( सञ्जी० ) वीचीति ॥ हे सखे ! पथ्युज्जयिनीपथे वीचिक्षोभेण तरङ्गचलने स्तनितानां मुखराणाम् ॥ कर्तरि क्तः ॥ विहगानां श्रेणिः पंक्तिरेव काञ्चीगुणो यस्यास्तस्याः स्खलितेनोपस्खलनेन मदस्खलितेन च सुभगं यथा तथा संसर्पन्त्याः प्रवहन्त्याः गच्छन्त्याश्च । तथा दर्शितः प्रकटित आवर्ताऽम्भसा भ्रम एव नाभिर्यया ॥ "स्यादावर्तोऽम्भसां भ्रम"
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सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहिते
इत्यमरः ॥ निष्क्रान्ता विन्ध्या नाम नदी ॥ "निरादयः क्रान्ताद्यर्थपञ्चम्या" इति समासः। "द्विगुप्रासापन्नालम्-" इत्यादिना परवल्लिङ्गताप्रतिषेधः ॥ तस्या नद्याः संनिपत्य संगत्य। रसो जलमभ्यन्तरे यस्य सः। अन्यत्र रसेन शृङ्गारेणाभ्यन्तरोऽन्तरङ्गो भव । सर्वथा तस्या रसमनुभवेत्यर्थः । "शृङ्गारादौ छले वीर्ये सुवणे विषशुक्रयोः। तिक्तादावमृते चैव निर्यासे पारदे ध्वनौ। आस्वादे च रसं प्राहुः" इति शब्दार्णवे ॥ ननु तत्प्रार्थनामन्तरेण कथं तत्रानुभवो युज्यतेत्यत आह-स्त्रीणामिति ॥ स्त्रीणां प्रियेषु विषये विभ्रमो विलास एवाय प्रणयवचनं प्रार्थनावाक्यं हि । स्त्रीणामेष स्वभावो यद्विलासैरेव रागप्रकाशनम् । न तु कण्ठत इति भावः ॥ विभ्रमश्चात्र नाभिसंदर्शनादिरक्त एव ॥ २८॥
(चारि० ) उज्जयिन्यां केन पथा व गच्छामीत्याह-चीचीति । भो मेघ ! निर्विन्ध्यायाः नद्याः पथि मागें भव । किं कृत्वा रसाभ्यन्तरं रसस्य जलस्याभ्यन्तर मध्य संनिपत्य । अथवा रसं जलं अभ्यन्तरे मध्ये संनिपत्य एकस्थीकृत्य । कीदृश्याः। वीचीनां क्षोभस्तस्मात् स्वनिताः शब्दायमाना ये विहगाः पक्षिणस्तेषां श्रेणिः परम्परा सैव काञ्चीगुणो मेखलासूनं यस्याः सा तस्याः । पुनः कीदृश्याः संसर्पन्त्याः गछन्त्याः कथं यथा स्यात् । स्खलितसुभगं मनोज यथा स्यात् । पुनः कीदृश्याः दशित आवर्त एव वारिभ्रम एव नाभिर्यया सा तस्याः। अर्थान्तरमाहहि यतः कारणात् स्त्रीणां कामिनीनां प्रियेषु भर्तृषु प्रणयवचनं प्रीतियुक्तं वच आद्यो विभ्रमःप्रथमविलासः।अन्योऽपि शृङ्गाररसयुक्तः सन् नायिकायाः मार्गे गच्छति । साऽपि शब्दायमानमेखला स्यात् अपरं गच्छन्ती स्खलन्ती। नाभिं च दर्शयति कामोदेकात्। आवर्तश्चिन्तने वारिभ्रमे चावर्तने पुमानिति मेदिनीकारः ॥२८॥
(भाव) हे सेघ ! उज्जयिनीमार्गे विद्यमानाया निर्विन्ध्याया अनुरक्ताया नायिकाया इव रसाभ्यन्तरः सन् गच्छ । स्त्रीणां हि प्रियेषु विलासप्रदर्शनमेव प्राथमिकं प्रेमवचनं भवति॥२८॥ निर्विन्ध्याया विरहावस्था वर्णयंस्तनिराकरणं प्रार्थयतेवेणीभूतप्रतनुसलिलाऽसावीतस्य सिन्धुः
पाण्डुच्छाया तटरुहतरुभ्रंशिभिर्जीर्णपणैः । सौभाग्यं ते सुभग विरहावस्थया व्यञ्जयन्ती
___ कार्य येन त्यजति विधिना स त्वयैवोपपाद्यः ॥२९॥ ( सञ्जी० ) वेणीति ॥ अवेणी वेणीभूतं वेण्याकारं प्रतनु स्तोकं च सलिलं यस्याः सा तथोक्ता । अन्यत्र वेणीभूतकेशपाशेति च ध्वन्यते । रुहन्तीति रहाः इगुपधलक्षणः कप्रत्ययः । तटयो रहा ये तरवस्तेभ्यो भ्रश्यन्तीति तथोक्तैः जीर्णपणः शुष्कपत्रैः पाण्डुच्छाया पाण्डव । अत एव हे सुभग, विरहावर-धमा पूर्वान्तप्रकारया करणेन ॥ अतीतस्यैतावन्तं कालमतीत्य गतस्य प्रोषितस्येत्यर्थः । ते तव सौभाग्यं सुभगत्वम् ॥ "हृद्भगसि. न्ध्यन्ते पूर्वपदस्य च” इत्युभयपदवृद्धिः ॥ व्याजयन्ती प्रकाशयन्ती। स खलु सुभगो यमछानाः कामयन्त इति भावः । असौ पूर्वोक्ता सिन्धु दी निर्विन्ध्या ॥ "स्त्री नद्यां ना नदे सिन्धुदेशभेदेऽम्बुधौ गजे" इति वैजयन्ती ॥ येन विधिना व्यापारेण काश्यं त्यजति स विधिस्त्वयैवोपपायः कर्तव्य इत्यर्थः। स च विधिरेकत्र वृष्टिरन्यत्र संभोगस्तदभावनिबन्धनत्वाकार्यस्येति भावः ॥ इयं पञ्चमी मदनावस्था । तदुक्तं रतिरहस्ये-"नयनप्रीतिः प्रथमं चि. तासहस्ततोऽथ संकल्पः । निद्राच्छेदस्तनुता विषयनिवृत्तिनपानाशः ॥ उन्मादो सूर्छा मृतिरित्येताः स्मरदशा दशैव स्युः ॥” इति । “तामतीतस्य” इति पाठमाश्रित्य सिन्धुर्नाम • नद्यन्तरमिति व्याख्यातम् । किंतु सिन्धु म कश्चिन्नदः काश्मीरदेशेऽस्ति । नदी तु कुत्रापि
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मेघदूते-पूर्वमेघः।
नास्तीत्यपक्ष्यमित्याचक्षते ॥ २९ ॥
(चारि० ) वेणीति-भो सुभग मेध ! सिन्धुर्निर्विन्ध्या येन विधिना विधानेन काश्य कृशत्वं त्यजति मुञ्चति स विधिस्त्वयैव भवतैव उपपाद्यः करणीयः । किं कुर्वती । ते तव विरहावस्थया विश्लेषदशया सौभाग्यं सुभगत्वं व्यञ्जयन्ती प्रकटयन्ती। कीदृशस्य ते। तां निर्विन्ध्यां अतीतस्यातिक्रान्तस्य । सिन्धुः कीदृशी वेणीभूतं प्रतनु अल्पतरं सलिलं पानीय यस्याः सा पुनः कीदृशी । जीर्णपणे: पक्कपलाजैः पाण्डुः पीता छाया आतपाभावो यस्यां सा। किंभूतैः । तटरहतरुभ्रंशिभिः फलोत्पन्नपादपपतितैः। अन्यापि विरहिणी वेणीबन्धसहिता भवति । अपरं पीतच्छविः स्यात् । कृशशरीरा च भवति । एतैर्लक्षणैः पत्युः सौभाग्यं च व्यञ्जयति । विधिर्ना नियते काले विधाने परमेष्टिनीति मेदि० । तनुः काये त्वचि स्त्री स्यात्रिष्वल्पे विरले कृश इति मे० ॥२९॥
(भाव. ) किञ्च हे मेघ ! सा निर्विन्ध्या तव विरहेण कृशाङ्गी तटतरुगलितजीर्णपणैः पाण्डुकान्तिः तय सौभाग्यं व्यञ्जयति । यथा सा कृशतां त्यजेत् तथा त्वया यतनीयम् ।। २९ ॥ प्राप्यावन्तीनुदयनकथाकोविदग्रामवृद्धा.
पूर्वोद्दिष्टामनुसर पुरीं श्रीविशालां विशालाम् । स्वल्पीभृते सुचरितफले स्वर्गिणां गां गताना
शेषः पुण्यै हतमिव दिवः कान्तिमत्खण्डमेकम् ॥ ३० ॥ (सञ्जी० ) प्राप्येति ॥ विन्दतीति विदाः ॥ इगुपधलक्षणः कः ॥ ओकसो वेद्यस्थानस्य विदाः कोविदाः ॥ ओकारलुप्ने पृषोदरादित्वात्साधुः ॥ उदयनस्य वत्सराजस्य कथानां वासवदत्ताहरणाद्यद्भुतोपाख्यानानां कोविदास्तत्त्वज्ञा ग्रामेषु ये वृद्धास्ते सन्ति येषु तानवन्तीस्तजामजनपदान्प्राप्य तत्र पूर्वोद्दिष्टां पूर्वोक्तां "सौधोत्सङ्गप्रणयविमुखो मा स्म भूरुज्जयिन्याः" इत्युक्तां श्रीविशालां संपत्तिमतीम् ॥ "शोभासंपत्तिपद्मासु लक्ष्मीः श्रीरिख दृश्यते” इति शाश्वतः । विशालां पुरीमुजयिनीमनुसर व्रज ॥ कथमिव स्थिताम् । सुचरितफले पुण्यफले स्व. गोपभोगलक्षणे स्वल्पीभूते । अत्यल्पावशिष्टे सतीत्यर्थः। गां भूमि गतानाम् ॥ "गौरिला कुम्भिनी क्षमा" इत्यमरः ॥ पुनरपि भूलोकगतानामित्यर्थः। स्वर्गिणां स्वर्गवतां जनानां शेपे क्तशिष्टैः पुण्यैः सुकृतैर्हतमानीतम् । स्वर्गार्थानुष्ठितकर्मशेषाणां स्वर्गदानावश्यभावादिति भावः । कान्तिरस्यास्तीति कान्तिमदुज्ज्वलम् । सारभूतमित्यर्थः । एकं भुक्तादन्य. त् ॥ “एके मुख्यान्यकेवलाः" इत्यमरः ॥ दिवः स्वर्गस्य खण्डमिव स्थितामित्युत्प्रेक्षा !! एतेनातिक्रान्तसकलभूलोकनगरसौभाग्यसारत्वमुज्जयिन्या व्यज्यते ॥ ३० ॥
(चारि०) प्राप्येति-भो मेघ ! अवन्तीन् देशान् प्राप्य गत्वा पूर्वोद्दिष्टां प्रथमनिवेदितां विशालामुज्जयिनी पुरीं अनुसर अनुयाहि । कीदृशों श्रिया लक्ष्म्या विशाला पृथुलां परिपूर्णा कीदृशान् अवन्तीन् । उदयनस्य उदयनाचार्यस्य कथया कोविदाः पण्डिताः ये ग्रामाः ग्रामवासिनो जनास्तैर्वृद्धा वृद्धि गतास्तान् । उत्प्रेक्ष्यते। दिवः स्वर्गस्य कान्तिमत् सश्रीक एक खण्डसिव शकलमिव । पृथिव्यां कुतः समागतमित्याह । कीदृशं स्वर्गिणां स्वर्गप्रासानां शेषैः अवशिष्टः पुण्यैः सुकृतैर्हतमानीतं कीदृशानां सुचरितफले पुण्यफले स्वल्पीभूते क्षीणे सति गां गतानां पृथ्वीप्राप्तानां। विशाला विन्द्रवारुण्यामुज्जयिन्यांतु योषितीति मे० ॥३०॥
(भाव० ) अथ हे मेघ ! उदयनराजकथाकथनपटुग्रामवृद्धयुतानवन्तीदेशान् प्राप्य समृ. द्धिमती विशालानगरी गच्छ । या विशाला नगरी स्वर्गस्यैवैकं खण्डमस्ति ॥ ३० ॥
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सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहिते
दीर्घाकुर्वन्पटु मदकलं कूजितं सारसानां
प्रत्यूषेषु स्फुटितकमलामोदमैत्रीकषायः । यत्र स्त्रीणां हरति मुरतग्लानिमङ्गानुकूलः
शिप्रावातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः ॥ ३१ ॥ ( सजी० ) दीर्घाकुर्वन्निति । यत्र विशालायां प्रत्यूषेष्वहर्मुखेषु । “प्रत्यूषोऽहर्मुखं कल्यम्" इत्यमरः । पटु प्रस्फुटम् । मदकलं मदेनाव्यक्तमधुरम् । "ध्वनो तु मधुरास्फुटे । कलः" इत्यमरः । सारसानां पक्षिविशेषाणाम् । “सारसो मैथुनी कामी गोनर्दः पुष्कराह्वयः" इति यादवः । यद्वा सारसानां हंसानाम् । "चक्राङ्गः सारसो हंसः" इति शब्दार्णवे । कूजित स्त दीर्थीकुर्वन् । विस्तारयन्नित्यर्थः । यावद्वातं शब्दावृत्तरिति भावः । एतेन प्रियतमः स्वचाटुवाक्यानुसारिक्रीडापक्षिकूजितमविच्छिन्नीकुर्वन्निति च गम्यते । स्फुटितानां विकसितानां कमलानामामोदेन परिमलेन सह या मैत्री संसर्गस्तेन कषायः सुरभिः। “रागद्रव्ये कषायो. ऽस्त्री निर्यासे सौरभे रसे" इति यादवः । अन्यत्र विमर्दगन्धीत्यर्थः । "विमोत्थे परिमलो गन्धे जनमनोहरे । आमोदः सोऽतिनिहारी" इत्यमरः । अङ्गानुकुलो गात्रसुखस्पर्शः । अन्यत्र गाढालिङ्गनदत्तगात्रसंवाहन इत्यर्थः । भवभूतिना चोक्तम्- “अशिथिलपरिरम्भैर्दत्तसंवाह. नानि" इति । संवाह्यन्ते च सुरतश्रान्ताः प्रियैर्युवतयः । एतत्कविरेव वक्ष्यति-"संभोगान्ते मम समुचितो हस्तसंवाहनानाम्” इति । शिप्रा नाम काचित्तत्रत्या नदी तस्या वातः शिप्रावातः । शिप्राग्रहणं शैत्यद्योतनार्थम् । प्रार्थना सुरतस्य याच्आ तत्र चाटु करोतीति तथोक्तः । पुनः सुरतार्थं प्रियवचनप्रयोक्तत्यर्थः । कर्मण्यणप्रत्ययः । प्रियतमो वल्लभ इव स्त्रीणां सुरतग्लानिं संभोगखेदं हरति नुदति । चाटूक्तिभिर्विस्मृतपूर्वरतिवेदाः स्त्रियः प्रियतमप्रार्थनां सफलयन्तीति भावः । “प्रार्थनाचाटुकारः" इत्यत्र "खण्डितनायिकानुनीता" इति व्याख्याने सुरतः ग्लानिहरणं न संभवति । तस्याः पूर्व सुरताभावात्पश्चात्तनसुरतग्लानिहरणं तु नेदानीन्तनको. पशमनार्थं चाटुवचनसाध्यमित्युत्प्रेक्षैवोचिता विवेकिनाम् । "ज्ञातेऽन्यासङ्गविकृते खण्डितेाकपायिता" इति दशरूपके ॥ इतः परं प्रक्षिप्तमपि श्लोकत्रयं व्याख्यायतेहारांस्तारांस्तरलगुटिकान्कोटिशः शङ्खशुक्तीः शष्पश्यामान्मरकतमणीनुन्मयूखप्ररोहान् । दृष्ट्वा यस्यां विपणिरचितान्विद्रमाणां च भङ्गान्सलक्ष्यन्ते सलिलनिधयस्तोयमात्रावशेषाः ॥
हारानिति । यस्यां विशालायां कोटिशो विपणिषु पण्यवीथिकासु । “विपणिः पण्यवी. थिका" इत्यमरः । रचितान्प्रसारितान् । इदं विशेषणं यथालिङ्ग सर्वत्र संबध्यते । ताराञ्छुद्धान् । "तारो मुक्तादिसंशुद्धौ तरणे शुद्धमौक्तिके” इति विश्यः । तरलगुटिकान्मध्यमणीभूतमहारलान् । “तरलो हारमध्यगः" इत्यमरः । "पिण्डे मणौ महारत्ने गुटिका बद्धपारदे" इति शब्दार्णवे । हारान्मुक्तावलीः । तथा कोटिशः शङ्खाश्च शुक्तीश्च मुक्तास्फोटांश्च ॥ "मु. क्तास्फोटः स्त्रियां शुक्तिः शङ्खः स्यात्कम्बुरखियाम्" इत्यमरः । शप्पं बालतृणं तहच्छ्या. मान् । “शष्पं बालतृणं घासो यवसं तृणमर्जुनम्" इत्यमरः । उन्मयूखप्ररोहानुद्गतरम्याङ्कु. रान्मरकतमणीन्गारुडरत्नानि । तथा विद्रमाणां भङ्गान्प्रवालखण्डांश्च दृष्टा सलिलनिधयः समुद्रास्तोयमात्रमवशेषो येषां ते तादृशाः संलक्ष्यन्ते । तथानुमीयन्त इत्यर्थः। रत्नाकराद. प्यतिरिच्यते रत्नसंपद्भिरिति भावः ॥ प्रद्योतस्य प्रियदहितर वत्सराजोऽत्र जहे हैम तालद्वनमभूदन तस्यैव राज्ञः। अत्रोद्धान्तः किल नलागिरिः स्तम्भमुत्पाट्य दोदित्यागन्तून्रमयति जनो यत्र बन्धूनभितः।
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मेघदुते-पूर्वमेघः । प्रद्योतस्येति । अत्र प्रदेशे वत्सराजो वत्सदेशाधीश्वर उदयनः । प्रद्योतस्य नामोज्जयिनीनायकस्य राज्ञः प्रियदुहितरं वासवदत्ता जढे जहार । अन्न स्थले तस्यैव राज्ञः प्रद्योनस्य हैमं सौवर्ण तालमवनमभूत् । अन्न नलगिरिनामेन्द्रदत्तस्तदीयो गजो दर्पान्मदात्स्तभमालानमुत्पाट्योद्धत्योभ्रान्त उत्पत्य भ्रमणं कृतवान् । इतीत्थंभूताभिः कथाभिरि. त्यर्थः । अभिज्ञः पूर्वोक्तकथाभिनः कोविदो जन आगन्तून्देशान्तरादागतान् । औणादिकस्तु. प्रत्ययः । बन्धून्यत्र विशालायां रमयति विनोदयति । अत्र भाविकालंकारः । तदुक्तम्"अतीतानागते यत्र प्रत्यक्षत्वेन लक्षिते । अत्यद्भुतार्थकथनाद्भाविकं तदुदाहृतम् ।” इति ॥ पत्रश्यामा दिनकरहयस्पर्धिनो यत्र वाहाः शैलोदग्रास्त्वमिव करिणो वृष्टिमन्तः प्रभेदात् । योधाग्रण्यः प्रतिदशमुखं संयुगे तस्थिवांसः प्रत्यादिष्टाभरणरुचयश्चन्द्रहासवणाः ॥
पत्रेति । हे जलद ! यत्र विशालायां वाहा हयाः पत्रश्यामाः पलाशवर्णा अत एव दिनकरहयस्पर्धिनो वर्णतो वेगतश्च सूर्याश्वकल्यास्तथा शैलोदग्राः शैलवदुन्नताः करिणः प्रभेदा न्मदत्रावाद्धेतोस्त्वमित्र वृष्टिमन्तः । अग्रं नयन्तीत्यग्रण्यः । “सत्सूद्विष-" इत्यादिना विप् । “अग्रगामाभ्यां नयतेः” इति वक्तव्याण्णत्वम् । योधानामग्रण्यो भटश्रेष्ठाः संयुगे युद्धे प्रतिदशमुखमभिरावणं तस्थिवांसः स्थितवन्तः । अत एव चन्द्रहासस्य रावणासेरृणानि क्षता. न्येवाड़ाश्चिह्नानि तैः । “चन्द्रहासो रावणासावसिमात्रेऽपि च कचित्” इति शाश्वतः । प्रत्या. दिष्टाभरणरुचयः प्रतिषिद्धभूषणकान्ताः । शस्त्रप्रहारा एव वीराणां भूषणमिति भावः । अनापि भाविकालंकारः ॥ ३१ ॥
(चारि०) दीर्घाति-भो मेघ ! यत्र यस्यामुज्जयिन्यां शिप्रावातः शिष्यानदीमरुत् अङ्गा. नुकूलः सन् प्रत्यूषे प्रातःकालेषु स्त्रीणां कामिनीनां सुरतग्लानि रतिश्रमं हरति । किं कुर्वन् । सारसानां पक्षिभेदानां कूजितं शब्दं दीर्थी कुर्वन् । कीदृशं पटु दक्षं । पुनः कीदृशम् । मदात् हपांत् कलं मधुरध्वनि अव्यक्तं वा । कीदृशो वातः । स्फुटितानां विकसितानां कमलानां वारिजानां आमोदो जनमनोहरो गन्धस्तस्य मैत्री सम्पर्कस्तेन कषायः सुरभिः सुगन्धिः । मदो रेतसि कस्तूर्या गवे हर्षेभदानयोरिति मे० । कलं शुक्रे त्रिषु जीणें चाव्यक्त मधुरध्वना. विति मे । पटुर्दक्षे च नीरोगे चतुरे ऽप्यभिधेयवदिति मे० । विमोत्थे परिमलो गन्धे जनमनोहरे । आमोद इत्यमरः । कपायो रसभेदे च निर्यासे च विलेपने । अगरङ्गे च न स्त्री स्या. त्सरभौ लोहिते त्रिष्विति मेदिनीकारः । क इव उत्प्रेक्ष्यते । प्रार्थना प्रसादार्थ याचा तस्यां चाटुकारः मधुरभापी प्रियतम इव भत्तेंव । सोऽप्येवंविधो भवति । कीदृशः कमलगन्धसम्पसुगन्धिः । तथा च शरीरसुखकारी भवति । अपरं च सुरतमं हरति ।
(चारि०) हारानिति-भो मेघ ! यस्यां पुर्या तारान् शुद्धमौक्तिकान् हारान् दृष्ट्वा सलिलनिधयः समुद्रास्तोयमात्रावशेषाः केवलजलावशिष्टाः संलक्ष्यन्ते । कीदृशान् तरला भा. स्वरा गुटिका येषु ते तान् । कोटिशः सर्वत्र योज्यम् । शङ्खशुक्तीश्च दृष्ट्वा न केवलं शङ्कशुक्तीः शष्पवत् बालतृणवत् श्यामान नीलवर्णान् मरकतमणींश्च कीदृशान् उद्गताः मयूखाना किरणानां प्ररोहाः अङ्कुरा येषां ते तान् । विद्रुमाणां प्रवालानां भङ्गाश्च शकलानि च दृष्टा किंविशिष्टान् विपण्या हट्टायां रचितान् कृतराशीन् । तारो वानरभिन्मुक्ताविशुयोः शुद्धमौक्तिक इति मेदि। तरलं चञ्चले पिड्गे भास्वरेऽपि त्रिलिङ्गकमिति मे० । शष्पं बालतृणं घास इत्यमरः॥
(चारि०) प्रद्योतस्येति-भो मेघ ! यत्रोजयिन्यां अभिज्ञो जनो लोकः आगन्तूना. गन्तुकान् बन्धून सुहृदः इति रमयति । इति कथम् । भो बान्धवाः अत्र वत्सराजो नृपवि. शेषः प्रद्योतस्य राज्ञः प्रियदुहितरं पुत्रीं जहें अहरत् । तस्यैव राज्ञः तालदुमवन हैमं सौवर्णमभूत् । किलेति प्रसिद्धौ । अत्र नलगिरिन्पो दर्पात् बलात् स्तम्भ उत्पाय उभ्रान्तः । उद्भ्रमणं चकार ॥
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सजीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहिते— (चारि०) शष्येति-भो मेध ! यत्रोज्जयिन्यां वाहाः अश्वाः दिनकरहयानां सूर्याश्वानां स्पर्धा येषामस्ति तादृशाः सन्ति । कीदृशाः शष्पश्यामाः बालतृणवन्नीलाः । यत्र करिणस्त्व. मिव सन्ति । किंविशिष्टाः । प्रभेदात् मदक्षरणात् वृष्टिमन्तः वृष्टियुक्ताः । पुनः कीदृशः। शैलवत् पर्वतवदुदयाः उच्चाः । त्वमप्येवं विधः । प्रभेदात् जलत्यागात् वृष्टिमान् । शैलोदरश्च । यत्र च योधाग्रण्यः योधेषु भटेषु अग्रण्यः अग्रगामिनः संयुगे समामे दशमुख रावण प्रति तस्थिवांसः । रावणेन सह युद्धमकार्षरित्यर्थः। कीदृशाः चन्द्रहासस्य शस्त्रविशेषस्य व्रणा क्षतचिह्नः प्रत्यादिष्टा निराकृता आभरणानामलङ्काराणां रुचियेषां ते तादृशाः। प्रत्यादिष्टे निरा. कृतइत्यमरः ॥ ३१॥
(भाव) हे मेघ! यत्र विशालायां प्रत्युषे पद्मसौरभयुक्तः शिप्रापवनः प्रियतम इव चाटुवाक्यः स्त्रीणां सुरतखेद हरति, तां विशाला नगरी गच्छ ॥ ३१ ॥ जालोद्गीर्णरुपचितवपुः केशसंस्कारधूपै
बन्धुप्रीत्या भवनशिखिभिर्दत्तनृत्योपहारः । हर्येष्वस्याः कुसुमसुरभिष्वध्वखेदं नयेथा
__ लक्ष्मी पश्यंल्ललितवनितापादरागांकितेषु ॥ ३२ ॥ मतुः कण्ठच्छविरिति गणैः सादरं वीक्ष्यमाणः
पुण्यं यायास्त्रिभुवनगुरोर्धाम चण्डीश्वरस्य । धृतोद्यानं कुवलयरजोगन्धिभिर्गन्धवत्या
स्तोय क्रीडानिरतयुवतिस्नानतिक्तैर्मरुद्भिः ॥ ३३ ॥ (सञ्जी०) जालोद्रीणैरिति। जालोद्गीणैर्गवाक्षमार्गनिर्गतः। “जालं गवाक्ष आनाये जालके कपटे गणे” इति यादवः । केशसंस्कारधूपैः । वनिताकेशवासनार्थैर्गन्धद्रव्यधूपैरित्यर्थः । अत्र संस्कारधूपयोस्तादयेऽपि यूपदावादिवत्प्रकृतिविकारत्वाभावादश्वघासादिवत्षष्ठीसमासो न चतुर्थीसमासः । उपचितवपुः परिपुष्टशरीरः। बन्धौ बन्धुरिति वा प्रीत्या भवनशिखिभिर्गृहम. यूरैर्दत्तो नृत्यमेवोपहार उपायनं यस्मै स तथोक्तः । “उपायनमुपग्राह्यमुपहारस्तथीपदा" इत्यमरः । कुसुमैः सुरभिषु सुगन्धिषु । ललितवनिताः सुन्दरस्त्रियः । "ललितं त्रिपु सुन्दरम्" इति शब्दार्णवे । तासां पादरागेण लाक्षारसेनाडितेषु चिह्नितेषु हम्येषु धनिकभवनेष्वस्या उज्जयिन्या लक्ष्मी पश्यन्नध्वगमनेन खेदं क्लेश नयेथा अपनय ॥ ३२ ॥
(सी) भर्तुरिति । भर्तुः स्वामिनो नीलकण्ठस्य भगवतः कण्ठस्येव छविर्यस्यासौ कण्ठच्छविरिति हेतोर्गणैः प्रमथैः । “गणस्तु गणनायां स्याद्गणेशे प्रमथे चये” इति शब्दार्णवे । सादर यथा तथा वीक्ष्यमाणः सन् । प्रियवस्तुसादृश्यादतिप्रियत्वं भवेदिति भावः । त्रयाणां भुवनानां समाहारस्त्रिभुवनम् । “तद्धितार्थ-" इत्यादिना समासः। तस्य गुरो. खैलोक्यनाथस्य चण्डीश्वरस्थ कात्यायनीवल्लभस्य पुण्यं पावनं धाम महाकालाख्यं स्थानं याया गच्छ । विध्यर्थे लिङ् । श्रेयस्करत्वात्सर्वथा यातव्यमिति भावः । उक्तं च स्कान्दे"आकाशे तारकं लिङ्ग पाताले हाटकेश्वरम् । मर्त्यलोके महाकालं दृष्ट्वा काममवाप्नुयात् ।" इति । न केवलं मुक्तिस्थानमिदं किंतु विलासस्थानमपीत्याह-धूतेति । कुवलयरजोगन्धि. मिरुत्पलपरागगन्धवद्भिस्तोयक्रीडासु निरतानामासक्तानां युवतीनां स्नानं स्नानीयं चन्दनादि । करणे ल्युट् । "स्मानीयेऽभिषवे स्नानम्" इति यादवः । तेन तिक्तेः सुरभिभिः ।
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मेघदूते - पूर्वमेघः ।
२९
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"कटुतिक्तकषायास्तु सौरभे च प्रकीर्तिताः” इति हलायुधः । सौगन्ध्यातिशयार्थं विशेषणदूयम् । गन्धवत्या नाम नद्यास्तत्रत्याया मरुद्भिर्मास्तैर्धूतोद्यानं कम्पिताक्रीडमिति धाम्नोविशेषणम् ॥ ३३ ॥
।
1
।
( चारि०) जालोद्गीणैरिति - भर्तुरिति युग्मम् । भो मेघ! त्वं चण्डीश्वरस्य महा-काल निकेतनस्य पुण्यं पवित्रं धाम स्थानं याया गछेः । कीदृशः । त्रिभुवनगुरोः त्रिलोकीभर्तुः कीदृशस्त्वम् । इति हेतोर्गणैः नन्दीप्रभृतिभिः सादरमादरपूर्वकं वीक्ष्यमाणः । इति कम् । भर्तुहेश्वरस्य कण्ठछविरसौ नीलः । कीदृशं धाम । मरुद्भिर्वायुभिः धूतोद्यानं । धूतमीत्तमुद्यानं आक्रीडो यस्य तत् । एतेन मान्योक्तिः । कीदृशैः कुवलयानामुत्पलानां रजोगन्धिरेषामस्ति तैः । एतेन सौगन्ध देक्तिः । स्यादुत्पलं कुवलयमित्यमरः । पुनः कीदृशैः गन्धवत्या नदीभेदायाः तोये जले या क्रीडा लीला तस्यां निरतास्तत्परा या युवतयः तरुण्यः तासां स्नाने तिक्तो रसो रागो येषां ते तैः । एतेन शैत्योक्तिः । तिक्तो रससुगन्धयोरिति मेदिनीकारः । पुमानाक्रीड उद्यानमित्यमरः । किं कृत्वा । अस्या उज्जयिन्याः हम्र्येषु धवलगृहेषु धनिनां वासेषु खेदं आयासं नीत्वाऽपनीय । कीदृशः सन् अध्वना दीर्घमार्गचलनेन खिन्नः क्लान्तः आत्मा यस्य तत्र सत्वम् । कीदृशेषु हम्येंषु कुसुमसुरभिषु पुष्पसुगन्धिषु । पुनः कीदृशेषु ललित वनिता पादरागाङ्कितेषु मनोहरस्त्रीचरणलाक्षारसजात चिह्नेषु त्वं कीदृशः । केशसंस्कारधूपैः उपचितवपुः प्रवरधूपत्वात् प्रवृद्धशरीरः । पुनः कीदृशस्त्वं । भवनशिखिभिर्गृहमयूरैः बन्धुत्या मित्रस्नेहेन "दत्तः" नृत्यमेवोपहारो यस्मै स त्वम् । हर्म्यादि धनिनां वास इत्यमरः । धाम देहे गृहे रश्मौ स्थाने जन्मप्रभावयोः || ३२-३३ ||
1
(भाव) हे मेघ ! तत्र विशालायां गवाक्षमार्गनिर्गतैः केशसंस्कारधूपैः परिपुष्टाङ्गः, भवनमयूरैश्च त्वद्गर्जनश्रवणप्रमुदितैर्तृत्य प्रदर्शनेन समानितस्त्वं कुसुमसुगन्धिषु सुन्दरीचरणलाक्षारसाडितेषु हम्यंषु शोभां पश्यन् मार्गश्रमं दूरीकुरु ॥ ३२ ॥
(भाव) हे मेघ ! विशालायामतिपवित्रं महाकालायतनं गच्छ । तत्र प्रभोनीलकण्ठस्य सुषमा हतीत शिवगणास्त्वां सादरं द्रक्ष्यन्ति । किञ्च तन्महाकालायतनं जलकीडासक्तयुवतिजनस्नानसुरभिभिः कमलपराग सौरभसम्पन्नैर्गन्धवत्या नद्याः पावनैः पवनैः क पितोद्यानमवश्यं प्रेक्षणीयम् ॥ ३३ ॥
अप्यन्यस्मिञ्जलंधर महाकालमासाद्य काले
स्थातव्यं वे नयनविषयं यावदत्येति भानुः । कुर्वन्संध्याबालिपटतां शूलिनः श्लाघनीया
मामन्द्राणां फलमविकलं लप्स्यसे गर्जितानाम् ॥ ३४ ॥
( सञ्जी ) अपीति । युग्मम् । हे जलधर ! महाकालं नाम पूर्वोक्तं चण्डीश्वरस्थानम यस्मिन्सन्ध्यातिरिक्तेऽपि काल आसाद्य प्राप्य ते तव स्थातव्यम् । त्वया स्थातव्यमित्यर्थः । " कृत्यानां कर्तरि वा" इति षष्ठी। यावद्यावता कालेन भानुः सूर्यो नयनविषयं दृष्टिपथमत्येत्यतिक्रामति । अस्तमयकालपर्यन्तं स्थातव्यमित्यर्थः । यावदित्येतदवधारणायें । " याव arat साकल्येsart मानेऽवधारणे" इत्यमरः । किमर्थमत आह- कुर्वन्निति । लाघनीय प्रशस्यां शूलिनः शिवस्य संध्यायां बलिः पूजा तत्र परहतां कुर्वन्संपादयन्नामन्द्राणामीषद्म्भीराणां गर्जितानामविकलमखण्डं फलं लप्स्यसे प्राप्स्यसि । लभेः कर्तरि लुट् । महाकाल. treasurera fafaयोगात्ते गर्जितसाफल्यं स्यादित्यर्थः ॥ ३४ ॥ -
( चारि०) अप्येति-- जलं धारयतीति जलधरस्तस्य सम्बुद्धौ भो जलधर मेघ ? अन्य
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सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहिते -
स्मिन्नपि काले सन्ध्याया अन्यत्रापि समये महाकालं देवस्थानविशेष आसाद्य प्राप्य ते त्वया तावत्स्थातव्यं यावद्भानुः सूर्यो नयनविषयं नेत्रगोचरत्वं अत्येति अतिक्रामति । अस्तं यातीत्यर्थः। त्वं आमन्द्राणां ईषद्गम्भीराणां गर्जितानां अविकलं सम्पूर्ण फलं लप्स्यसे प्राप्यसि। कि कुर्वन् शूलिनो महेश्वरस्य सन्ध्यावलिपटहतां देवपूजानकत्वं कुर्वन् विदधत् । कीदृशम् । श्लाघनीयां स्तवनीयां । कलो मन्द्रस्तु गम्भीर इत्यमरः । बलिःपूजोपहारे चेति वैजयन्ती। आनकः पटहोऽस्त्रीस्यादित्यमरः । शिवः शूली महेश्वर इत्यमरः ॥ ३४॥
(भाव०) हे मेघ ! सायंकालातिरिक्तऽपि काले महाकालनिकेतनं प्राप्तस्त्वं सूर्यास्तगः मनपर्यन्तं तत्र प्रतीक्षस्व । प्रदोषे शिवार्चनवेलायां गम्भीर गजितं वितन्धन् त्वं पूजापटहतां प्राप्य सफलर्जितो भविष्यसि ॥ ३४ ॥ पादन्यासः कणितरशनास्तत्र लीलावधृतै
रत्नच्छायाखचितवलिभिश्चामरैः क्लान्तहस्ताः । वेश्यास्त्वत्तो नखपदमुखान्प्राप्य वर्षाग्रबिन्द
नामोक्ष्यन्ते त्वयि मधुकरणिर्दान्किटाक्षान् ॥ ३५ ।। ( सजी० ) पादन्यासैरिति । तत्र संध्याकाले । पादन्यासैश्चरणनिक्षेपैर्नृत्याङ्गैः क्वणिताः शब्दायमाना रशना यासां तास्तथोक्ताः । वमतेरकर्मकत्वात् “गत्यर्थाकर्मक-" इत्यादिना कतरिक्तः । लीलया विलासेनावधूतैः कम्पितैः रत्नानां कणमणीनां छायया कान्त्या खचिता रूषिता वलयश्चामरदण्डा येषां तैः। बलिश्चामरदण्डे च जराविश्लथचर्मणि" इति विश्वः । चामरैर्बालव्यजनैः क्लान्तहस्ताः । एतेन दैशिकं नृत्यं सूचितम् । तदुक्तं नृत्यसर्वस्वे-"खड्गकन्दुकवस्त्रादिदण्डिकाचामरस्रजः । वीणां च कृत्वा यत्कुर्युनत्यं तदूदेशिकं शिकं भवेत् ।" इति। वेश्या महाकालनाथमुपेत्य नृत्यन्त्यो गणिकास्त्वत्तो नखपदेषु नखक्षतेषु सुखान्सुखकरान् । "सुखहेतौ सुखे सुखम्" इति शब्दार्णवे । वर्षस्याग्रबिन्दून्प्रथमबिन्दून्प्राप्य त्वयि मधुकर)णिदीर्घान्कटाक्षानपाङ्गानामोक्ष्यन्ते । “परैरुपकृताः सन्तः सद्यः प्रत्युपकुर्वत" इति भावः । कामिनीदर्शनीयत्वलक्षणं शिवोपासनाफलं सद्यो लप्स्यस इति ध्वनिः ॥ ३५ ॥
(चारि०)पादन्यासेति-मो मेघ ! वेश्याः पण्यस्त्रियस्त्वयि भवति कटाक्षक्षेपान् वक्रावलोकितानि मोक्ष्यन्ते त्वां कटाक्षरालोकयिष्यन्तीति भावः । किं कृत्वा त्वत्तो भवतो नखपदानि करजलक्ष्माणि सुखयन्तीति सुखास्तान् वर्षाने बिन्दून् प्रावृटप्रथमविपुषः प्राप्य किं. विधान कटाक्षान मधुकरश्रेणिदीर्घान् । भ्रमरपङ्क्तिदीर्घान् । श्यामानित्यर्थः । वेश्याः कीश्यः । पादन्यासेन नृत्यकरणात् चरणविक्षेपेण कणिताः शब्दायमाना मेखला यासां ताः । पुनः कीदृश्यः । चामरैर्बालव्यजनैः क्लान्ताः खिन्नाः हस्ताः पाणयो यासां ताः । चामरैः कीदृशैः लीलया क्रीडयावधूतैः । पुनः कीदृशैः रत्नछायया मणिदीप्त्या खचिता वलयः करा यस्तानि तैः। पद व्यवसितत्राणस्थानलक्ष्माधिवस्तुम्वित्यमरः। करोपहारयोः पुसि बलिरित्यमरः॥३६॥
(भाव) हे मेघ ! तत्र सन्ध्याकाले महाकालसेवायां सलील पादविन्यासैः शब्दायमान. मेखलाश्चामरान्दोलनेन च क्लान्तहस्ताः वेश्यास्त्वत्सकाशानखातेषु सुख जनकान् वृष्टिजल. बिन्दून् प्राप्य पीडापगमात्सुखितास्त्वामपाङ्गवीक्षणैर्द्रक्ष्यन्ति ॥ ३५ ॥ पश्चादुर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभिलीनः
सान्ध्यं तेजः प्रतिनवजपापुष्परक्तं दधानः
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मेघदूते-पूर्वमेघः ।
नृत्यारम्भे हर पशुपतेराईनागाजिनेच्छां
शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर्भवान्या ॥ ३६ ॥ (सी० ) पश्चादिति । पश्चात्संध्याबल्यनन्तरं पशुपतेः शिवस्य नृत्यारम्भे ताण्डवप्रा. सम्भे प्रतिनवजपापुष्परक्तं प्रत्यग्रजपाकुसुमारुणं संध्यायां भवं सान्ध्यं तेजो दधानः । उचै रुन्नतं भुजा एव तरवस्तेषां वनं मण्डलेन मण्डलाकारेणाभिलीनोऽभिव्यासः सन् । कर्तरि फतः । भवान्या भवपत्न्या। "इन्द्रवरुणभवशर्वरुद्रमृडहिमारण्ययवयवनमातुलाचार्याणामानुका इति ङीष् । आनुगागमश्च । शान्त उद्वेगो गजाजिनदर्शनभयं ययोस्ते अत एव स्तिमिते निश्चले नयने यस्मिन्कर्मणि तत्तथोक्तम् । "उद्वेगस्त्वरिते क्लेशे भये मन्थरगामिनि" इति शब्दार्णवे । भक्तिः पूज्येष्वनुरागः । भावार्थे तिन्प्रत्ययः। दृष्टा भक्तिर्यस्य स दृष्टभक्तिः सन् । पशुपतेरा शोणिता यन्नागाजिनं गजचर्म । "अजिनं चर्म कृत्तिः स्त्री" इत्यमरः । तमेच्छां हर निवर्तय । त्वमेव तत्स्थाने भवेत्यर्थः । गजासुरमर्दनानन्तरं भगवान्महादेवस्तदीयमार्दाजिन भुजमण्डलेन विभ्रत्ताण्डवं चकारेति प्रसिद्धिः। दृष्टभक्तिरिति कथं रूपसिद्धिः । दृष्टशब्दस्य "स्त्रियाः पुंवत्-" इत्यादिना पुंवद्रावस्य दुर्घटत्वादप्पूरणीप्रियादिष्विति निषेधात् । भक्तिशब्दस्य प्रियादिषु पाठादिति । तदेतच्चोद्यं दृढभक्तिरिति शब्दमाश्रित्य प्रतिविहितं गणव्याख्याने दृढं भक्तिरस्येति नपुंसकं पूर्वपदम् । अदाढयनिवृत्तिपरत्वे दृढशब्दाल्लिङ्गविशेषस्यानुपकारित्वात्स्त्रीत्वमविवक्षितमिति । भोजराजस्तु-"भक्तौ च कर्मसाधनाया. मित्यनेन सूत्रेण भज्यते सेव्यत इति कर्मार्थत्वे भवानीभक्तिरित्यादि भवति । भावसाधनायां तु स्थिरभक्तिर्भवान्यामित्यादि भवति" इत्याह । तदेतत्सवं सम्यग्विवेचितं रघुवंशसंजीविन्या "दृढभक्तिरिति ज्येष्टे" इत्यत्र । तस्माददुष्टभक्तिरित्यत्रापि मतभेदेन पूर्वपदस्य स्त्रीत्वेन नपुंसकत्वेन च रूपसिन्दिरस्तीति स्थितम् ॥ ३६॥
(चारि०) पश्चादिति-भो मेघ ! त्वं नृत्यारम्भे नर्तनोद्यमे पशुपतेर्महादेवस्य आर्द्रनागाजिनेच्छां हर । आर्द्रस्य रुधिरावलिप्तस्य गजाजिनस्य हस्तिचर्मणः इच्छां वाञ्छां हर दूरीकुरु । त्वं कीदृशः पश्चान्मण्डलेन अपरदेशेन उच्चैरुन्नतानां भुजतरूणां वृक्षविशेषाणां वनं काननं अभिलीनः प्राप्तः किं कुर्वाणः सान्ध्य सन्ध्यासम्बन्धि तेजो दधानः । तेजः कीदृशं प्रति नवे नवीनं यज्जपापुष्प बन्धूककुसुमं तद्वदिव रक्तमरुणम् । त्वं कीदृशः । भवान् पार्वत्या दृष्टभक्तिः विलोकितसेवः । कथं यथा स्यात् शान्तोद्वेगेन गतक्लमेन स्तिमिते निश्चले नयने यत्र दर्शने तत्तथा। मण्डले परिधौ कोष्ठे देशे द्वादशराशिष्विति मेदि० । स्तिमितोऽचञ्चलायोरिति मे० । उद्वेगं क्लमकीलके ॥ ३६ ॥
(भाव०) हे मेघ ! तत्र महाकालताण्डवसमये सान्ध्यं रक्त तेजो दधानस्त्वं शिवस्य भुज. वनमध्ये मण्डलाकारेण प्रविश्य भगवत आगजाजिनधारणेच्छां पूरय । तदानीं भगवती भवानी तव भक्ति शान्तया निश्चलया च दृष्टया सादरं वक्ष्यति ॥ ३६ ॥ इत्थं महाकालनाथस्य सेवाप्रकारमभिधाय पुनरपि नगरसंचारप्रकारमाहगच्छन्तीनां रमणवसतिं योषितां तत्र नक्तं
रुद्धालोके नरपतिपथे सूचिभेद्यैस्तमोभिः । सौदामन्या कनकनिकपस्निग्धया दर्शयोवों
तोयोत्सर्गस्तनितमुखरो मा स्म भूर्विक्लवास्ताः ॥ ३७॥ (सञ्जी० ) गच्छन्तीनामिति । तत्रोजयिन्यां नक्तं रात्रौ रमणवसतिं प्रियभवनं प्रति
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३२
सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहिते
गच्छन्तीनां योषिताम् । अभिसारिकाणामित्यर्थः ।। सूचिभिर्भेद्यैः । अतिसान्द्रैरित्यर्थः । तमोभी रुद्रालोके निरुद्धदृष्टिप्रसारे नरपतिपथे राजमार्ग कनकस्य निकषो निकम्यत इति व्युत्पत्त्या निकष उपलगतरेखा तस्येव स्निग्धं तेजो यस्यास्तया । "स्निग्धं तु मसृणे सान्द्रे रम्ये क्लीवे च तेजसि” इति शब्दार्णवे । सुदाम्नाद्विणैकदिक्सौदामनी विद्युत् " तेनैकदिक्" इत्यण्प्रत्ययः । तयोर्वी मार्ग दर्शय । किंच तोयोत्सर्गस्तनिताभ्यां दृष्टिगर्जिताभ्यां मुखरः शब्दायमानो मा स्मभूः । कुतः । ता योषितो विक्कुवा भीरवः । ततो वृष्टिगर्जिते न कार्यं इत्यर्थः । नात्र तोयोत्सर्गसहितं स्तनितमिति विग्रहः । विशिष्टस्येव केवलस्तनितस्याप्यनिष्टत्वात् । न च द्वन्द्वपक्षेऽल्पाच्तरपूर्वनिपातशास्त्रविरोधः "लक्षणहेत्वोः क्रियायाः" इति सूत्र एव विपरीत निर्देशेन पूर्वनिपातशास्त्रस्यानित्यत्वज्ञापनादिति ॥ ३७ ॥
( चारि०) गच्छन्तीनामिति - भो मेघ ! तत्र नक्तं रात्रौ रमणवसतिं कान्तवेश्मगच्छ. न्तीनां व्रजन्तीनां योषितां नरपतिपथे राजमार्गविषये सौदामन्या विद्युता उवीं दर्शय । की मार्गे सूचिभेधैर्निबितमोभिरन्धकारैः रुद्ध आच्छादित: आलोक: उद्योतः प्रकाशो यस्मिन् । सौदामन्या कश्या कनकनिकषवत् सुवर्णपरीक्षापाषाणवत् स्निग्धया मनोज्ञया गौरवर्णयेत्यर्थः । तोयोत्सर्गेण जलत्यागेन यत् स्तनितं तेन मुखरः शब्दायमानस्त्वं मा स्मभूः । कुतो यतस्ता योषितो विक्लवाः । वसती रात्रिवेश्मनोरित्यमरः । तडित्सौदामनी विद्युच्चचला चपला अपोत्यमरः । आलोकौ दर्शनयोतावित्यमरः ॥ ३७ ॥
(भाव०) किञ्च हे मेघ ! उज्जयिन्यां निशि, प्रियसदनं गच्छन्तीनामभिसारिकाणां मागें नीरन्ध्रेण तमसा व्याप्ते सति विद्युदालोकेन ताभ्यो मार्ग दर्शय । सुकुमारास्ता गर्जनैर्न च भीषयेः ॥ ३७ ॥
कस्यचिद्भववलभौ सुप्तपारावतायां
नीत्वा रात्रिं चिरविलसनात्खिन्न विद्युत्कलत्रः ।
दृष्टे सूर्ये पुनरपि भवान्वाहयेदध्वशेषं
मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपेतार्थकृत्याः ॥ ३८ ॥
( सञ्जी० ) तामिति ॥ चिरं विलसनात्स्फुरणात्खिन्नं विद्युदेव कलनं यस्य स भवासुप्ताः पारावताः कलरवा यस्यां तस्याम् । विविक्तायामित्यर्थः ॥ "पारावतः कलरवः कपोतः" इत्यमरः ॥ जनसंचारस्तत्रा संभावित एवेति भावः । कस्यांचिद्भवनवलभौ । गृहाच्छादनोपरिभाग इत्यर्थः ॥ " आच्छादनं स्याहलभी गृहाणाम्” इति हलायुधः ॥ तां रात्रिं नीत्वा सूर्ये दृष्टे सति । उदिते सतीत्यर्थः । पुनरप्यध्वशेषं वाहयेत् । तथाहि सुहृदां मित्राणामभ्युपेतार्थस्याङ्गीकृतार्थस्य प्रयोजनस्य कृत्या क्रिया यैस्ते | अभ्युपेतसुहृदर्था इत्यर्थः ॥ सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वात्समासः ॥ "कृत्या क्रियादेवतयोः कायें स्त्री कुपिते त्रिषु" इति यादचः ॥ "कृञः श च" इति चकारात्क्यप् ॥ न मन्दायन्ते खलु न मन्दा भवन्ति हि । न विलबन्त इत्यर्थः ॥ "लोहितादिडाज्भ्यः क्यष्" इति क्यष् । “वा क्यषः" इत्यात्मनेपदम् ॥ ३८ ॥
( चारि०) तामिति - भो मेघ ! सूर्ये भास्करे दृष्टे विलोकिते सति पुनरपि भूयो भवान् अध्वनो मार्गस्य शेषं वाहयेत्प्राप्नुयात् । किं कृत्वा कस्यां चित् भवनवलभौ गृहाट्टालिकायां तां रात्रिं नीत्वा गमयित्वा । किंविशिष्टायां सम्पारावतायां सप्ताः पारावताः गृहकपोता यस्यां सा तस्याम् । भवान् किंभूतः । खिन्नविद्युत्कलनः खिन्ना चमत्काररहिता या विद्युत्सौ. दामनी सैव भार्या यस्य सः । कस्मात् । चिरविलसनात् चिरं चिरकालं विलसन चमत्कारस्तस्मात् । अन्यस्याऽपि रममाणस्य विलासिन: बहुकालं सुरतकरणात् अवश्यमेव
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मेघदते -पूर्वमेघः। स्त्री खिन्ना भवति शिथिलशरीरा जायते । खलु निश्चितं मुहृदां मित्राणां अभ्युपेताः स्वीकृता अथें प्रयोजने कृत्या कार्यक्रिया यैस्ते न मन्दायन्ते न सालसा भवन्ति । कलनं श्रोणिर्भाययोः। कृत्या क्रियादेवतयो रित्यमरः ॥ ३८॥
(भाव० ) हे मेघ ! तत्र रात्रौ सुचिरं वर्षणेन शान्तविद्युद्वनितस्त्वं तां रात्रि तत्रैव यापयित्वा अङ्गीकृतसुहृत्कार्यः प्रातरेव समुत्थायाऽग्निमं मागं गच्छ ॥ ३८ ॥ तस्मिन्काले नयनसलिलं योषितां खण्डितानां
शान्ति नेयं प्रणयिभिरतो वर्त्म भानोस्त्यजाशु । पालेयास्त्रं कमलबदनात्सोऽपि हर्तुं नलिन्याः
प्रत्यावृत्तस्त्वयि कररुधि स्यादनल्पाभ्यसूयः ॥ ३९ ॥ ( सञ्जी० ) तस्मिन्निति ॥ तस्मिन्काले पूर्वोक्ते सूर्योदयकाले प्रणयिभिः प्रियतमैः खण्डितानां योषितां नायिकाविशेषाणाम् ॥ "ज्ञातेऽन्यासङ्गविकृते खण्डिताकषायिता" इति दशरूपके ॥ नयनसलिलं शान्ति नेयं नेतव्यम् ॥ नयतिढिकर्मकः ॥ अतो हेतो नोर्बाशु शीघ्रं त्यज । तस्यावरको मा भूरित्यर्थः । विपक्षेऽनिष्टमाचष्टे-सोऽपि भानुः । नलान्यम्बुजानि यस्याः सन्तीति नलिनी पद्मिनी ॥ "तृणेऽम्बुजे नलं ना तु राज्ञि नाले तु न स्त्रियाम्" इति शब्दार्णवे ॥ तस्याः स्वकान्तायाः कमलं स्वकुसुममेव वदनं तस्मात्प्रालेयं हिममेवानमश्रुहः शमयितुं प्रत्यावृत्तः प्रत्यागतः। नलिन्याश्च भर्तुर्भानोदेशान्तरे नलिन्यन्तरगमनात्खण्डितत्वमित्याशयः । ततस्त्वयि । करानंशून्रुणहीति कररुत् । क्विए । तस्मिन्कररुधि सति। हस्तरोधिनि सतीति च गम्यते ॥ "बलिहस्तांशवः कराः" इत्यमरः । अनल्पाभ्यसूयोऽधिकविद्वेषः स्यात् । प्रायेणेच्छाविशेषविघाताद्वेषो रोपविशेषश्च कामिनां भवतीति भावः । किंच "आत्मानं चार्कमीशानं विष्णुं वा द्वेष्टि यो जनः । श्रेयांसि नस्य नश्यन्ति रौरवं च भवेध्रुवम् ॥” इति निषेधात्कार्यहानिर्भविष्यतीति ध्वनिः ॥ ३९॥
(चारि०) तस्मिन्निति-भो मेघ तस्मिन्काले प्रातः समये प्रणयिभिः खण्डितानां योपिता उचितवासकगृहानागतप्रियसन्तप्तानां वीणां नयनसलिलं लोचनपानीयं शान्ति नेयं प्रापयितव्यम् । अतो हेतो नोः श्रीसूर्यस्य वर्त्म मार्ग त्यज विमुञ्च । कथं आशु शीघ्रम् । सोऽपि सूर्यः त्वयि अनल्पाभ्यसूयः अधिकष्यः स्यात् । कि विशिष्टे त्वयि । कररुधि करान् किरणान् रुणद्वीति कररुत् तस्मिन् । स किं भूतः। नलिन्याः कमलिन्याः कमलबदनात् । कमलं पद्म तदेव वदनं तस्मात् । प्रालेयाखं प्रालेयं हिमं तदेवानं अश्रु तत् हतुं दूरीकतुं प्रत्यावृत्तः पुनरागतः । कुतश्चिन्नागतो यस्या उचिते वासके प्रियः । [? खण्डि०] ता सा मता यथेति वसन्ततिलके । अवश्यायस्तु नीहारस्तुषारस्तुहिनं हिमम् । प्रालेयं मिहिका चाथेत्यमरः । अस्त्रः कोणे कवे पुंसि क्लीबमश्रुणि शोणिते ॥ ३९ ॥
(भाव० ) हे मेघ ! प्रभाते खण्डितानां नयनजलं प्रियैरपनेयमिति हेतोः सूर्यस्य माग परित्यज । सब सूर्यः प्रियाया नलिन्याः कमलरूपाद्वदनात् प्रालेयरूपं बाष्पमपनेतुं प्रवृत्त स्त्वय्यन्तराये सति त्वयि सासूयः स्यात्॥३९॥ गम्भीरायाः पयसि सरितश्चेतसीव प्रसन्ने
छायात्मापि प्रकृतिमुभगो लप्स्यते ते प्रवेशम् । तस्मादस्याः कुमुदविशदान्यहसि त्वं न धैर्या
न्मोघीकर्तुं चटुलशफरोद्वर्तनप्रेक्षितानि ॥ १० ॥
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३४ सजावनीचारित्रबर्द्धनामावप्रबोधिनीसहिते
(सञ्जी०) गम्भीराया इति ॥ गम्भीरा नाम सरित् ॥ उदात्तनायिका च ध्वन्यते ॥ तस्याः प्रसन्नेऽनुरक्तत्वाहोषरहिते चेतसीव प्रसन्नेऽतिनिर्मले पयसि। प्रकृत्या स्वभावेनैव सुभगः सुन्दरः ॥ "सुन्दरेऽधिकभाग्ये च दुर्दिनेतरवासरे । तुरीयांशे श्रीमति च सुभगः” इति शब्दार्णवे ॥ ते तव छाया चासावात्मा च । सोऽपि प्रतिबिम्बशरीरं च प्रवेशं लप्स्यते। अपिशब्दात्प्रवेशमनिच्छोरपीति भावः। तस्माच्छायाद्वारापि प्रवेशावश्यंभावित्वादस्या गम्भीरायाः । कुमुदवद्विशदानि धवलानि चटुलानि शीघ्राणि शफराणां मीनानामुद्वर्तनान्युल्लुण्ठनान्येव प्रेक्षितान्यवलोकनानि ॥ "त्रिषु स्याटुलं शीघ्रम्" इति विश्वः॥ एतावदेव गम्भीराया अनुरागलिङ्गम् । धैर्याद्धाात् । वैयात्यादिति यावत्। मोघीकर्तुं विफलीकतुं नार्हसि । नानुरक्ता विप्रलब्धव्येत्यर्थः ॥ धूतलक्षणं तु-"लिश्नाति नित्यं गमितां कामिनीमिति सुन्दरः । उपत्यरक्तां यत्नेन रक्तां धूर्ती विमुञ्चति ॥” इति ॥ ४०॥
(चारि० ) गम्भीराया इति । भो मेघ, गम्भीरायाः गम्भीरानाम्न्याः सरितो नयाः चेतसीव प्रसन्ने पयसि ते छायात्मापि प्रतिबिम्बमपि प्रवेशं लप्स्यते प्राप्स्यति । कीदृशः प्रकृत्या स्वभावेन सुभगः सुन्दरः । तस्मात्कारणात् अस्या नद्याः कुमुदवद्विशदानि निर्मलानि चटुलाश्चञ्चला ये शफरोमत्स्यविशेषास्तेषामुद्वर्तनान्येव प्रेक्षितानि विलोकितानि धैर्यात् मोघीकतुं निष्फलानि विधातुं नार्हसि । न योग्यो भवसि । अतो मम कार्यस्य विलम्बो भविष्यतीत्यर्थः ॥४०॥
(भाव०) हे मेघ ! प्रसन्ने गम्भीरायाः पयसि छायात्मना प्रविष्टं त्वामियं गम्भीरा चपलमीनोल्लुण्ठनात्मकै वीक्षणैर्द्रक्ष्यति । त्वया च तान्यस्या अवलोकितानि न विफलीकर्तव्यानि ॥ ४०॥ तस्याः किंचित्करघृतमिव प्राप्तवानीरशाखं
नीत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोधोनितम्बम् । प्रस्थानं ते कथमपि सखे सम्बमानस्य भावि
ज्ञातास्वादो विकृतजघनां को विहातुं समर्थः ॥ ४१ ॥ ( सञ्जी० ) तस्या इति ॥ हे सखे, प्राप्ता वानीरशाखा वेतसशाखा येन तत्तथोक्तमत एव किंचिदीपत्करतं हस्ताक्लम्बितमिव स्थितम् । मुक्तस्त्यक्तो रोधस्तटमेव नितम्बः कटियेन तत्तथोक्तम् ॥ "नितम्बः पश्चिमे श्रोणिभागेऽद्रिकटके कटो" इति यादवः ॥ नीलं कृष्णवर्ण तस्या गम्भीरायाः सलिलमेव वसन नीत्वाऽपनीय ॥ प्रस्थानसमये प्रेयसीवसनग्रहणं विरहतापविनोदनार्थमिति प्रसिद्धम् ॥ लम्बमानस्य पीतसलिलभराल्लम्बमानस्य । अन्यत्र जपनारूढस्य । ते तव प्रस्थानं प्रयाणं कथमपि कृछ्रण भावि ॥ कृच्छ्रत्वे हेतुमाह-ज्ञातेति ॥ ज्ञातास्वादोऽनुभूतरसः कः पुमान्विवृतं प्रकटीकृतं जघनं कटिस्तत्पूर्वभागो वा यस्यास्ताम् "जघनं स्यात्कटौपूर्वश्रोणिभागापरांशयोः" इति यादवः ॥ विहातुं त्यक्तुं समर्थः। नकोपीत्यर्थः॥४१॥
(चारि०) तस्या इति-भो सखे मेघ लम्बमानस्य जलाधिकमरेण तन स्थितस्य ते प्रस्थान गमनं कथमपि गरीयसा कष्टेन भावि भविष्यति । किं कृत्वा। तस्याः गम्भीरायाः सलिलवसनं सलिलमेव वसन वस्त्रं हृत्वा । किं विशिष्टं मुक्तो रोध एव तटमेव नितम्बः कटिप्रदेशो येन तत् । पुनः कीदृशम् । प्राप्तवानीरशाखं प्राप्ता। वानीराणां वेतसानां शाखा विटपाः यस्मिन् येन वा तत् । उत्प्रेक्ष्यते । किञ्चित्करटतमिव । ईपत्करण हस्तेन तमिव । योषितः करावलम्बितं वस्त्रं हरतोऽन्यस्यापि विलासिनः ततः स्थानाद्गमनं कटेन भवति । कुतो न भविष्यतीत्यर्थान्तरमाह । ज्ञातास्वादः अनुभूतवनितासम्भोगः विपुलजघनां पीनजनं
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मेघदते-पूर्वमेघः। स्त्री विहातुं त्यक्तं का समर्थो भवेदिति कोऽपि न । विवृतजघनामिति वा पाठः । तत्रायमन्त्रयः । विवृत वस्त्रेण अनाच्छादितं जघनं यस्याः सा ताम् ॥ ४१ ॥
(भाव० ) हे मेव ! तस्या गम्भीराया वेतसशाखासङ्गमेन किञ्चित् करवृतमिव, परित्यततटरूपनितम्ब, नीलं जलमेव वसनमपनीय तत्र सानुरागं निपततस्तेऽग्रे गमनं कृच्छ्रेण भावि । यतोऽनुभूतरसः कः पुमान् प्रकटीकृतजघनां कामिनी परित्यक्तुं शक्नुयात् ॥४१॥ त्वनिष्यन्दोच्छ्वासितवमुधागन्धसंपकरम्यः
स्रोतोरन्ध्रध्वनितमुभगं दन्तिभिः पीयमानः । नीचर्यास्यत्युपजिगमिषोर्दैवपूर्व गिरि ते
शीतो वायुः परिणमायता काननोदुम्बराणाम् ॥४२॥ ( सञ्जी०) त्वदिति ॥ त्वनिष्यन्देन तव वृष्ट्योच्छसिताया उपबंहिताया वसुधाया भूमेर्गन्धस्य संपर्केण रम्यः । सुरभिरित्यर्थः ॥ स्रोतःशब्देनेन्द्रियवाचिना तद्विशेषो घ्राणं लक्ष्यते ॥ "स्रोतोऽम्बुवगेन्द्रिययोः" इत्यमरः ॥ स्रोतोरन्ध्रेषु नासाग्रकुहरेषु यद्ध्वनित शब्दस्तेन सुभगं यथा तथा दन्तिभिर्गजैः पीयमानः । वसुधागन्धलोभादाघ्रायमाण इत्यर्थः । अनेन मान्यमुच्यते । काननेषु बनेपूदुम्बराणां जन्तुफलानाम् “उदुम्बरो जन्तुफलो यज्ञाङ्गो हेमदग्धकः' इत्यमरः ॥ परिणमयिता परिपाकरिता ॥"मितां ह्रस्वः” इति द्वस्वः ॥ शीतो वायुः । देवपूर्व देवशब्दपूर्व गिरिम् । देवगिरिमित्यर्थः । उपजिगमिषोरुपगन्तुमिच्छोः ॥ गमेः सन्नन्तादप्रत्ययः । ते तव नाचैः शनस्पति । त्वां वीजयिष्यतीत्यर्थः ॥ संबन्धमानविवक्षायां षष्टी । “देवपूर्व गिरिम्” इत्यत्र देवपूर्वत्वं गिरिशब्दस्य न तु संजिनस्तदर्थस्येति संज्ञायाः संज्ञित्वाभावादवाच्यवचनं दोषमाहुरालंकारिकाः । तदुक्तमेकावल्याम्--"यदवाच्यस्य वचनमवाच्यवचनं हि तत्" इति ॥ समाधानं तु देवशब्दविशेषितेन गिरिशब्देन शब्दपरेण मेघोपगमनयोग्यो देवगिरिलक्ष्यत इति कथंचित्संपाद्यम् ॥ ४२ ॥
(चारि०) त्वनिष्यन्देति । भो मेव देवपूर्व गिरि देवगिरि देशविशेष उपजिगमिषोर्गन्तुमिच्छोस्ते नीरधस्तात् शीतो वातः पवनो वास्यति । किविशिष्टः । त्वनिष्यन्दोच्छ्वसितवसुधागन्धगम्पकरम्यः । त्वनिष्यन्देन तव जलक्षरणेन उछ्वसिता फुल्लिता या वसधा प्रथ्वी तस्या गन्धः सौरभ्यं तस्या सम्पर्कस्तेन रम्योः मनोरमः। एतेन सौगन्ध्यमुक्तम् । अत एवं दन्तिभिर्गजैः पीयमानः । कथं यथा स्यात् । स्रोतोरन्ध्रध्वनितसुभगं यथा स्यात् । स्रोतसः इन्द्रियभूतायाः शुण्डाया रन्धं तस्य ध्वनितं ध्वनिस्तेन सुभगं। एतेन मान्द्यम् । पुनः कीदृशः कानने वने यान्युदुम्बराणि तेषां परिणमयिता परिपाकं गमयिता । उदुम्बरफलानि नम्रीकुर्वन्नित्यर्थः । नतु पातयन्निति मान्यम् । ओजो दीप्ती बले स्रोत इन्द्रिये निम्नगास्यइत्यमरः ।। ४२ ॥
(भाव) हे मेघ ! ततः परं देवगिरि जिगमिधूत्वां त्वदृष्टयुपवृंहितभूमिगन्धसुरभिर्गजैश्च नासाग्रकुहरध्वनितसुभगमाघ्रायमाणो वन्योदुन्बरफलानां परिपाकयिता शीतोवायुस्त्वां वीजयिष्यति ॥ ४२ ॥ तत्र स्कन्दं नियतवसतिं पुष्पमेघीकृतात्मा
पुष्पासारैः स्नपयतु भवान्व्योमगङ्गाजलाद्रः । रक्षातोर्नवशशिमृता वासवीनां चमूना
मत्यादित्यं हुतवहमुखे संभृतं तद्धि तेजः ॥ ४३ ॥
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सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहिते(सभी० ) तत्रेति ॥ तत्र देवगिरी नियता वसतिर्यस्य तम् । नित्यसनिहितमित्यर्थः ॥ पुरा किल तारकाख्यासुरविजयसंतुष्टः सुरप्रार्थनावशाद्भगवान्भवानीनन्दनः स्कन्दो नित्यमहमिह सह शिवाभ्यां वसामीत्युक्त्वा तत्र वसतीति प्रसिद्धिः ॥ स्कन्दं कुमारं स्वामिनम् । पुष्पाणां मेघः पुष्पमेघः । पुष्पमेधीकृतात्मा कामरूपत्वात्पुष्पवर्युकमेघीकृतविग्रहः सन्व्योमगङ्गाजलाः । पुष्पासारैः पुष्पसंपातेः ॥ “धारासंपात आसारः" इत्यमरः ॥ भवान्स्वयमेव नपयत्वभिषिञ्चतु । स्वयंपूजाया उत्तमत्वादिति भावः ॥ तथा च शंभुरहस्ये--"स्वयं यजति चेदेवमुत्तमा सोदरात्मजैः । मध्यमा या यजेभृत्यैरधमा याजनक्रिया ॥” इति । स्कन्दस्य पूज्यत्वसमर्थनेनार्थनार्थान्तरं न्यस्यति-रक्षति ॥ तत् भगवान् स्कन्द इत्यर्थः । विधेयप्राधान्यानपुंसकनिदेशः ॥ वासवस्येति वासव्यः ॥ "तस्येदम्" इत्यण ॥ तासां वासवीनामैन्द्रीणां चमूनां सेनानां रक्षाहेतो रक्षायाः कारणेन । रक्षार्थमित्यर्थः ॥ “षष्ठी हेतुप्रयोगे” इति षष्टी ॥ नवशशिभृता भगवता चन्द्रशेखरेण । वहतीति वहः ॥ पचाद्यच् ॥ हुतस्य वहो हुतवहो वन्हिस्तस्य मुखे संभृतं संचितम् । आदित्यमतिक्रान्तमत्यादित्यम् ॥ “अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया” इति समासः ॥ तेजो हि साक्षाद्भगवतो हरस्यैवमूर्त्यन्तरमित्यर्थः । अतः पूज्यमिति भावः । मुखग्रहणं तु शुद्धत्वसूचनार्थम् । तदुक्तं शंभुरहस्ये-"गवां पश्चादूद्विजस्याघ्रिागिनां हृत्कर्वचः । परं शुचितमं विद्यान्मुखं स्त्रीवन्हिवाजिनाम् ॥” इति ॥ ४३ ॥
(चारि०) तत्रेति-भो मेघ तत्र देवगिरौ नियता निश्चला वसतिर्यस्य स तं स्कन्दं भवान् पुष्यासारैः पुष्पाण्येव आसारा धारासम्पातास्तैः स्नपयतु। कीदृशैः व्योमगङ्गाजलाद्रः व्योन्नि आकाशे या गङ्गा तस्याः जलं तेन आर्द्रास्तैः। भवान्कीदृशः। पुष्पमेधीकृतात्मा । अपुष्पमेघः पुष्पमेघः कृतः पुष्पमेघीकृत आत्मा येन सः पुष्पमेवीकृतात्मा । किमिति पूज्योऽयमित्यत आह-हि यत वासवीनां वासवस्य अमूः वासव्यस्तासां इन्द्रसम्बन्धिनीनां चमूनां सेनानां रक्षार्थ नवशशिनं कलामात्रं चन्द्रं बिभर्तीति नवशशिभृतेन महादेवेन हुतवहमुखे अग्निमुखे सम्भृतं निक्षिप्तं कीदृशम् । अत्यादित्यं आदित्यमतिक्रान्तं अत्यादित्यम् । पूर्व तारकासुरनाशाय वृन्दारकन्नैः मूर्धाभिरभिवन्य प्रार्थितेन महेशेन स्त्रकोयवीय पार्वत्यां समभूतं पश्चात्तस्या अशक्तिमालोक्य वन्हिमुखे न्यक्षेपि। ततः स्कन्द उत्पन्नः सन् देवाचितः सन्नत्रैव देवगिरी वसामीति प्रतिज्ञामकरोदिति द्रष्टव्यम् ॥ ४३ ॥
(भाव०) हे मेघ ! तत्र देवसेना रक्षणाथं स्थितं वह्निमुखनिपिक्तशिवतेजःस्वरूपं भगवन्स स्कन्दं मन्दाकिनीजलाः पुष्परभिषिञ्च ॥ ४३ ॥ ज्योतिर्लेखावलयि गलितं. यस्य. बह भवानी
पुत्रप्रेम्णा कुवलयदलप्रापि कर्णे करोति । धौतापाङ्गं हरशशिरुचा पावकेस्तं मयूर
पश्चादद्रिग्रहणगुरुभिर्जितै तयेथाः ॥ ४४ ॥ ( सञ्जी० ) ज्योतिरिति ॥ ज्योतिषस्तेजसो लेखा राजयस्तासां वलयं. मण्डल यस्यास्तीति तथोक्तम् गलितं भ्रष्टम् । न तु लोल्यात्वयं छिन्नमिति भावः । यस्य मयूरस्य बह पिच्छम् । "पिच्छबहे नपुंसके" इत्यमरः ॥ भवानी गौरी । पुत्रप्रेम्णा पुत्रस्नेहेन कुवलयस्य दलं पत्रं तत्प्रापि तद्योगे यथा तथा करें करोति । दलेन सह धारयतीत्यर्थः । यद्वा कुवलयस्य दलप्रापि दलभाजि दलाह कणं करोति । विबन्तात्सप्तमी ॥ दलं परिहृत्य तत्स्थाने बह धत्त इत्यर्थः ॥ नाथस्तु "कुवलय इलक्षेपि” इति पाठमनुसत्य "क्षेपो निन्दापसार वा" इति व्याख्यातवान् ॥ हरशशिरुवा हरशिरश्चन्द्रिका धौतायाझं स्वतोऽपि शौक्यादतिधवलित
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मेघदूत - पूर्वमेघः ।
३७
नेत्रान्तम् ॥ "अपाङ्गौ नेत्रयोरन्तौ” इत्यमरः ॥ पावकस्याग्नेरपत्यं पावकिः स्कन्दः ॥ "अत इज्" इति इञ् ॥ यस्य तं पूर्वोक्तं मयूरं पश्चात्पुष्पाभिषेचनानन्तरमद्रे देवगिरेः कर्तुः ॥ ग्रहणेन गुहासंक्रमणेन गुरुभिः । प्रतिध्वानमहद्भिरित्यर्थः । गर्जितैर्नर्तयेथा नृत्यं कारय । मार्दङ्गिकभावेन भगवन्तं कुमारमुपास्स्वेति भावः ॥ " नर्तयेथाः" इत्यत्र “अणावकर्मकाच्चित्तवत्कर्तृकात" इत्यात्मनेपदापवादः । “निगरणचलनार्थेभ्यश्च" इति परस्मैपई न भवति तस्य "न पादम्याइयमाङयसपरिमुहरुचिन्रतिवदवसः” इति प्रतिषेधात् ॥ ४४ ॥
1
( चारि ) ज्योतिरिति भो मेघ पश्चात् स्कन्दार्थनादनन्तरं पावकेः स्कन्दस्य तं मयूरं गर्जितमनिष येथाः । कीदृशैः । अद्रिग्रहणगुरुभिः । अद्विग्रहणेन कन्दरा मध्यसञ्चरन गुरुभिः । कीदृशं मयूरं । हरशशिरुवा हरस्य महादेवस्य शशिरकु चूडाचन्द्रज्योत्स्ना तया धौती उज्वलकृत अपाङ्गौ नेत्रान्तौ यस्य स तम् । तं कम् । भवानी पार्वतीपुत्रस्य कार्तिकेयस्य प्रेमा स्नेहस्तेन यस्य बह पिच्छे कर्णे करोति । कीदृशम् । कुवलयदलक्षेपि । शोभाधिक्यात कुवलयानां नीलोत्पलानां दलानि पत्राणि क्षेप्तुं तिरस्कर्तुं शोलं यस्य तत्तत् । कुत्रलयदलप्रापीति पाठे सप्तम्यन्तं कर्मविशेषणम् । अतिशयाभीष्टपुत्रवाहननर्तनेन पार्वती तव प्रसन्नतमा भविष्यतीति भावः । पुनः कीदृशं ज्योतिर्लेखावलयि । ज्योतिलेखाश्चन्द्रिका स्ता एव वलयास्ते सन्ति यस्य तत्तत् । पुनः कीदृशं गलितं स्वतः पतितं नतुत्पाटितमिति भावः ॥ ४४ ॥
( भाव० ) तत्र स्कन्दस्य नित्यं सन्निहितं तद्वाहनं मयूरं कन्दराप्रतिध्वानमहत्तमै - गर्जनैर्नर्त्तय । यस्य मयूरस्य गलितं पिच्छे पुत्रवाहनस्येदमिति सप्रेम कात्यायनी क कुरु ॥ ४४ ॥
आराध्यैनं शरवणभवं देवमुल्लङ्गिताध्वा सिद्धद्वन्द्वैर्जलकणभयाद्वीणिभिर्मुक्तमार्गः । व्यालम्बेथाः सुरभितनयालम्भजां मानयिष्यन् स्रोतोमूर्त्या भुवि परिणतां रन्तिदेवस्य कीर्तिम् ॥ ४५ ॥
( सञ्जी०) आराध्येति ॥ एनं पूर्वोक्तं शरा बागतृणानि ॥ "शरो बाणे बागतृणे" इति शब्दार्णवे ॥ तेषां वनं शरवणम् ॥ " प्रनिरन्तःशर-" इत्यादिना णत्वम् ॥ तत्र भवो जन्म यस्य तं शरवणभत्रम् ॥ "अवज्यों बहुब्रीहिर्व्यधिकरणो जन्मायुत्तरपदः" इति वामनः । अवज्योऽगतिकत्वादाश्रयणीय इत्यर्थः ॥ देवं स्कन्दम् || " शरजन्मा षडाननः" इत्यमरः ॥ आराध्योपास्य । वीणिभिवणावद्भिः ॥ व्रीह्मादित्वादिनिः ॥ सिद्धद्वन्द्वैः सिद्धमिथुनैः । भगवन्तं स्कन्दमुपवीणयितुमागतैरिति भावः । जलकणभयात् । जलसेकस्य वीणाक्वणनप्रतिबन्धकत्वादिति भावः । मुक्तमार्गरुत्यक्तवर्मा सन्नुलङ्घिताध्वा । कियन्तमध्वानं गत इत्यर्थः । सुरभितनयानां गवामालम्भेन संज्ञपनेन जायत इति तथोक्ताम् । भुवि लोके स्रोतोमूर्त्या प्रवाहरूपेण परिणतां रूपविशेषमापन्नां रन्तिदेवस्य दशपुरपतेर्महाराजस्य कीर्तिम् । चर्मग्वत्याख्यां नदीमित्यर्थः । मानयिष्यन्सत्कारयिष्यन्व्यालम्बेथाः । आलम्ब्यावतरेरित्यर्थः । पुरा किल राज्ञो रन्तिदेवस्वालम्भेध्येकत्र संमृताक्तनिष्यन्दाच्चर्मराशेः काचिन्नही सस्यन्दे । सा च
त्याख्यात इति ॥ ४५ ॥
( चारि०) अराध्यनमिति - भो मेघ एनं पूर्वोक्तं शरवणभवं शरजन्मानं कार्तिकेयं आरा ध्य पुष्पासारैः सम्पूज्य उल्लङ्घितो विक्रान्तोऽध्वा मार्गों येन स तथा वीणाः सन्त्येषां वीणिभिः सिद्धमिथुनर्मुक्तः मार्गों यस्य स त्वं व्यालम्बेथाः विलम्बं कुर्याः । किं करिष्यन् ।
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सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनी भाव प्रबोधिनी सहिते
arat
चर्मण्वतीनदीप्रवाहरूपेण भुवि परिणतां रन्तिदेवस्य रन्तिदेवनास्त्रो नृपतेः कीर्ति यशः मानयिष्यन् पूजयिष्यन् । पुनः कीदृशीं सुरभितनयालम्भजां सुरभितनयानां कामधेनू - त्पन्नगवां आलम्भो मारणं ततो जाता । महाभारते किलैवं श्रूयते दशपुराभिधानस्य देशस्य रन्तिदेवाख्यो भूपतिरभूत् । तस्य गावो देवगवीनां सौन्दर्यादिकमवलोक्य तच्च यज्ञेषु विशेसनादिति ताभ्य एवं निशम्य रन्तिदेवमेत्य विज्ञप्तिं चक्रुः स्वामिन् यागेषु त्वमस्मानालम्भेथा येन दिव्यरूपाभवाम इति । सोऽपि यागेषु ता मारयित्वा तासां चर्माणि पर्वतवत् राशीचक्रे ततो रक्तनिःस्यन्दात्काचिन्नदी समुत्पेदे तासां चर्मप्रभवत्वाच्चर्मण्वतीमाहुवृद्धाः ॥ ४५ ॥
(भाव० ) है मेघ; इत्थं भगवन्तं स्कन्द्र संसेव्य तत्र स्कन्दसेवासमागतैवीणोपजीविभिः सिद्धजातिविशेष मिथुनै जेल सम्बन्धाद्वीणा निक्कशनोपरोधभीतै मुक्तमार्गः सन् कंचिदध्वानमतिक्रम्य रन्तिदेवतासंख्यगोमेघसम्बन्धि गोचर्मनिष्यन्दपरिणतां चर्मण्वतीं नाम नदीमुपगच्छ ॥ ४५ ॥
त्वय्यादातुं जलमवनते शार्ङ्गिणो वर्णचौरे
तस्याः सिन्धोः पृथुमपि तनुं दूरभावात्यवाहम् | मेक्षिष्यन्ते गगनगतयो नूनमावर्ज्य दृष्टी
रेकं मुक्तागुणमिव भुवः स्थूलमध्येन्द्रनलिम् ॥ ४६ ॥
( सञ्जी० ) त्वयीति ॥ शार्ङ्गिणः कृष्णस्य वर्णस्य कान्तेश्वरे । तत्तुल्यवर्ण इत्यर्थः । त्वयि जलमादातुमवनते सति पृथुमपि दूरत्वात्तनुं सूक्ष्मतया प्रतीयमानं तस्याः सिन्धोश्वर्मण्वत्याख्यायाः प्रवाहम् । गगने गतिर्येषां ते गगनगतयः खेचराः सिद्धगन्धर्वादयः ॥ अयमपि बहुव्रीहिः पूर्वजन्माद्युत्तरपदेषु द्रष्टव्यः ॥ नूनं सत्यं दृष्टीरावर्ण्य नियम्यैकमेकयष्टिकं स्थूलो महान्मध्यो मध्यमणीभूत इन्द्रनीलो यस्य तं भुवो भूभुक्तागुणं मुक्ताहारमिव प्रेक्षिष्यन्ते ॥ अत्र अत्यन्तनीलमेघसङ्गतस्य प्रवाहस्य भूकण्ठमुक्तागुणत्वेनोत्प्रेक्षणादुत्प्रेक्षैवेयमितीवशब्देन व्यज्यते । निरुक्तकारस्तु " तत्र तत्रोपमा यत्र इवशब्दस्य दर्शनम्” इतीवशब्ददर्शनानाप्युपमैवेति बनाम ॥ ४६ ॥
( चारि०) त्वयीति - भो क्षेत्र गगने व्योम्नि गतियेषां ते सिद्धा दूरं यथा स्यात्तथा दृष्टीर्नयनान्यावर्ज्य नमयित्वा तस्याः सिन्धोश्चर्मण्वत्याः प्रवाहं त्वयि जलं समादातुं स्वीकर्तुमवनते लम्बमाने सति भुवः स्थूलो मध्ये इन्द्रनीलमणिर्यस्य तमेकं मुक्तागुणं मौक्तिकस्रजमिव प्रेक्षिष्यन्ते विलेोकयिष्यन्ति कीट प्रवाहम् । पृथु स्थूलमपि दूरभावात्तनुं कृशं कीदृशे शाङ्गिण विष्णोर्वचौरे | दीप्तिभुषि नीलकान्तावित्यर्थः ॥ ४६ ॥
( भाव० ) हे मेव ! तत्र कृष्णकान्तौ त्वयि जलपानायाऽवतीर्णे सति गगनचारिणो महान्तमपि दूरतया सूक्ष्म मित्र लक्ष्यमाणं नदीप्रवाहं त्वत्सम्बन्धेन इन्द्रनीलमणिमध्याङ्कितं मौहार मित्र कुतुकं ह्रदयन्ति ॥ ४६ ॥
तामुत्तीर्य व्रज परिचित भ्रूलताविभ्रमाणां पक्ष्मोत्क्षेपादुपरिविलसत्कृष्णशारमभाणाम् ।
कुन्दक्षेपानुगमधुकर श्रीमुषामात्मविम्बं
पात्रीकुर्वन्दशपुरवधूनेत्र कौतूहलानाम् ॥ ४७ ॥ ( सञ्जी०) तामिति ॥ तां चर्मण्वतीमुत्तीर्य भ्रुवो लता इव भ्रूलताः ॥ उपमितसमासः ॥
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मेघदते-पूर्वमेघः। तासां विभ्रमा विलासाः परिचिताः क्लता येषु तेषां पक्ष्माणि नेत्रलोमानि ॥ "पक्ष्म सूत्रे च सूक्ष्मांशे किचल्के नेत्रलोमनिः" इति विश्वः ॥ तेषामुत्क्षेपादुन्नमनाद्धेतोः । कृष्णाश्च ताः शाराश्च कृष्णशारा नीलशबलाः ॥ "वर्णो वर्णेन" इति समासः ॥ "कृष्णरक्तसिताः शाराः" इति यादवः । ततश्च शारशब्दादेव सिद्ध काण्ये पुनः कृष्णपदोपादानं कायॆप्राधान्यार्थम् । रक्तत्वं तु न विवक्षितमुपमानानुसारात्तस्य स्वाभाविकस्य स्त्रीनेत्रेषु सामुद्रिकविरोधादितरस्याप्रसङ्गात् । क्वचिद्भावकथनं तूपपत्तिविषयम् ॥ उपरि विलसन्त्पः कृष्णशाराः प्रभा येषां तेपाम् । कुन्दानि माध्यकुसुमानि॥ "माध्यं कुन्दम्" इत्यमरः ॥ तेषां क्षेप इतस्ततश्चलनं तस्यानुगा अनुसारिणो ये मधुकरास्तेषां श्रियं मुष्णन्तीति तथोक्तानाम् । क्षिप्यमाणकुन्दानुविधायिमधुकरकल्पानामित्यर्थः । दशपुरं रन्तिदेवस्य नगरं तस्य वध्वः स्त्रियः ॥ "वधूर्जाया स्नुषा स्त्री च” इत्यमरः ॥ तासां नेत्रकौतूहलानां नेत्राभिलाषाणाम् । साभिलाषदृष्टीनामित्यर्थः । आत्मबिम्ब स्वमूर्ति पात्रीकुर्वन्व्रज गच्छ ॥ ४७॥
(चारिक ) अन्यलाभकथनेन प्रोत्साहयन्नाह-तामिति-भो मेघ तां चर्मण्यतीमुत्तीर्य दशपुराभिधाने नगरे बधूनां नेत्रकौतूहलानामात्मबिम्ब निजस्वरूपं पात्रीकुर्वन् गोचरतां नयन् व्रज याहि । कीदृशानां परिचितभ्रूलतानां विभ्रमा दिलासा येषां तेषां विलोकने पक्ष्मणामु
क्षेपादुपरि विलसन्त्यः कृष्णशाराश्चित्रवर्णाः प्रभा येषां तेषांम् । कुन्दपुष्पाणां क्षेपमनुगच्छतां मधुकराणां भ्रमराणां श्रियं च शोभां मुष्णन्ति तेषाम् । कृष्णरक्तः शितः शार इति यादवः । अन्न रक्तशितमात्रे वर्तते पृथक् कृष्णपदोपादानात् ॥ ४७ ॥
(भाव० ) हे मेघ । चर्मण्वतीमुत्तीर्य विलासिनीनां कुतूहलादुन्मुखीनां दशपुरवधूवां नयनोत्सवं वितन्वन् गच्छ ॥४७॥ ब्रह्मावर्त जनपदमथ च्छायया गाहमानः
क्षेत्र क्षत्रप्रधनपिशुनं कौरवं तद्भजेथाः । राजन्यानां सितशरशतैर्यत्र गाण्डीवधन्या
धारापातस्त्वमिव कमलान्यभ्यवर्षन्मुखानि ॥४८॥ ( सञ्जी० ) ब्रह्मावर्तमिति ॥ अथानन्तरं ब्रह्मावत नाम जनपद देशम् ॥ अन मनुः--'सरस्वतीहषद्वत्योदेवनद्योर्यदन्तरम् । तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावतं प्रचक्षते ॥” इति ॥ छाययानातपमण्डलेन गाहमानः प्रविशन्न तु स्वरूपेण । “पीठक्षेत्राश्रमादीनि परिवृत्यान्यतो व्रजेत्” इति वचनात् । क्षत्रप्रधनपिशुनम् । अद्यापि शिरःकपालादिमत्तया कुरुपाण्डवयुद्धसूचकमित्यर्थः । "युद्धमायोधनं जन्यं प्रधन प्रविदारणम्" इत्यमरः ॥ तत्प्रसिद्धं कुरूणामिदं कौरवं क्षेत्रं भजेथाः । कुरुक्षेत्रं व्रजेत्यर्थः । यत्र कुरुक्षेत्रे गाण्ड्यस्यास्तीति गाण्डीवं धनुर्विशेषः ॥ "गाण्ड्यजगात्संज्ञायाम्” इति मत्वर्थीयो वप्रत्ययः ॥ कपिध्वजस्य स गाण्डीवगाण्डिवो पुनपुंसको, इत्यमरः ॥ तद्धनुर्यस्य स गाडीवधन्वाऽर्जुनः ॥ "वा संज्ञायाम्" इत्यनादेशः ॥ सितशरशतैनिशितबाणसहस्बै राजन्यानां राज्ञां मुखानि धाराणामुदकधाराणां पातैः कमलानि त्वमिवाभ्यवर्षदभिमुखं वृष्टवान् शरवर्षेण शिरांसि चिच्छेदेत्यर्थः ॥ ४८ ॥
(चारि०) पवित्रजनपदस्पर्शनेनान्यमङ्गलमुपदिशति-ब्रह्मावर्तमिति । भो जलद अधश्छायया ब्रह्मावर्ताभिधानं जनपदं देशं गाहमानः सन् तत्कुरूणां सम्बन्धि कौरवं क्षत्राणामिदं क्षेत्रं भजेथा आश्रय । कीदृशम् । क्षत्रप्रधनपिशुनं क्षत्रिययुद्धसूचकम् । यत्र कुरुक्षेने गाण्डीवं धनुर्यस्य सोऽर्जुनः शितानां तीक्ष्णानां शराणां शतै राजन्यानां भूपानां मुखानि अभ्यवर्षन् अभिषिञ्चन पूरयाञ्चके इत्यभिप्रायः । कैः कानि क इव । धारापातैनिरन्तरवर्षेः कमलानि
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४०
सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनी भावप्रबोधिनी सहिते
afra | अधरछायेत्यनेन पुण्यदेशत्वात् स्वरूपेणाक्रमणं न युक्तमिति सूच्यते युद्धमायोधनं जन्यं प्रधनं प्रविदारणम् । मूर्द्धाभिषिक्तो राजन्य इत्यमरः । सरस्वती हपद्वत्योर्देवनद्योदन्तरम् । तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्त प्रचक्षते ॥ ४८ ॥
( भाव० ) हे मेघ ! ततः परं छायामात्रेण ब्रह्मावर्तं देशं प्रविश्य कुरुक्षेत्रं गच्छ । यत्र वं जलैः कमलानीव पार्थः क्षत्रियाणां शिरांसि शरैरभ्यवर्षत् ॥ ४८ ॥
हित्वा हालामभिमतरसां रेवतीलोचनाङ्का
बन्धुप्रीत्या समरविमुखो लाङ्गली याः सिषेवे । कृत्वा तासामभिगममपां सौम्य सारस्वतीना
मन्तः शुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्णः ॥ ४९ ॥ तस्माद्गच्छेरनुकनखल शैलराजावतीर्णां
जन्होः कन्यां सगरतनयस्वर्गसोपानपङ्क्तिम् । गौरवक्त्र कुटिरचनां या विहस्येव फेनैः
शंभो: केशग्रहणमकरोदिन्दुलग्नोर्महस्ता ॥ ५० ॥
( सञ्जी० ) हित्वेति ॥ बन्धुप्रीत्या कुरुपाण्डवस्नेहेन ॥ न तु भयेन । समरविमुखो युद्धनिःस्पृहः । लाङ्गलमन्यास्तीति लाङ्गली हलधरः । अभिमतरसामभीष्टस्वादां तथा रेवत्याः स्वप्रियाया लोचने एवाङ्कः प्रतिबिम्बितत्वाच्चिह्नं यस्यास्तां हालां सुराम् ॥ "सुरा हलिप्रिया हाला" इत्यमरः ॥ "अभिप्रयुक्तं देशभाषापदमित्यत्र सूत्रे हालेति देशभापापदमप्यतीव कविप्रयोगात्साधु” इत्युदाजहार वामनः ॥ हित्वा त्यक्त्वा । दुस्त्यजामपीति भावः । याः सारस्वतीरपः सिषेवे ॥ हे सौम्य सुभग, त्वं तासां सरस्वत्या नद्या इमाः सारस्वत्यस्तासामभिगमं सेवां कृत्वान्तोऽन्तरात्मनि शुद्धो निर्मलो निर्दोषो भविता ॥ " ण्वुल्तृचौ” इति तृच् ॥ अपि सद्य एव पूतो भविष्यसीत्यर्थः ॥ “वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा" इति वर्तमानप्रत्यमः ॥ वर्णमात्रेण वर्णेनैव कृष्णः श्यामः । न तु पापेनेत्यर्थः । अन्तःशुद्धिरेव संपाद्या न तु बा
। बहिः शुद्धोऽपि सूतवधप्रायश्चित्तार्थं सारस्वतसलिलसेवी तत्र भगवान्बलभद्र एव निःर्शनम् । अतो भवतापि सरस्वती सर्वथा सेवितव्येति भावः ॥ ४९ ॥
( सञ्जी० ) तस्मादिति तस्मात्कुरुक्षेत्रात्कनखलस्याद्रेः समीपेऽनुकनखलम् || "अनुर्यत्यमया" इत्यव्ययीभावः ॥ शैलराजादिमवतोऽवतीर्णा सगरतनयानां स्वर्ग सोपानपङ्क्तिम् । स्वर्गप्राप्तिसाधनभूतामित्यर्थः । जह्नोर्नाम राज्ञः कन्यां जाह्नवीं गच्छेर्गच्छ ॥ विध्यर्थं लिङ् ॥ या जाह्नवी गौर्या वक्त्रे या भ्रुकुटिरचना सापत्न्यशेषाद्भूभङ्गकरणं तां फेनैर्विहस्यावहस्ये । धावल्यात्फेनानां हासत्वेनोत्प्रेक्षा । इन्दौ शिरोमाणिक्यभूते लग्ना कर्मय एव हस्ता यस्याः सेन्दुनोर्मिहस्ता सती शंभो: केशग्रहणमकरोत् । यथा काचित्प्रौढा नायिका सपत्नीमसहमामाना स्वाभ्यं प्रकटयन्ती स्वभर्तारं सह शिरोरत्नेन केशेष्वाकर्षति तद्वदिति भावः ॥ इ च पुरा किल भगीरथप्रार्थनया भगवतीं गगनपथात्पतन्तीं गङ्गां गङ्गाधरो जटाजूटेन जग्राहेति कथामुपजीव्योक्तम् ॥ ५० ॥
( चारि० ) तस्मादिति - हे मेघ तस्मात्कुरुक्षेत्रात् कनखलाख्यस्य पर्वतस्य समयाऽनु कनखलं कनखलसमीपस्थां शैलराज हिमालयदवतीर्णो प्रवृत्तां जन्हुकन्यां गङ्गां गच्छेः । कीदृशीम् । सगरनाम्नो भूपस्य तनयानां पुत्राणां स्वर्गसोपानपङ्गि स्वर्गारोहणनिश्रेणी या
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मेघदूते-पूर्वमेघः । गङ्गा गोर्या वक्रे मुखे भृकुटिकौटिल्य फेनैविहस्येन्दौ भालचन्द्रे । ऊर्मय एव हस्ता यस्याः सा सती शम्भोर्म हेशस्य केशग्रहणमधिचक्रे इति । तस्याः केशग्रहणविलोकनेन क्रुद्धां गौरी डिण्डीरपिण्डकापट्येन हसन्तीव या भातीति तात्पर्यम् । तव स्पशें तस्याः श्रीलाभमाह ॥ ४९ ॥ ५० ॥
(भाव० ) हे मेघ । कौरवपाण्डवस्नेहेन महाभारतसमरविमुखो बलरामस्तीर्थयात्राप्रसड्रेन सुरम्परित्यज्य यस्याः सरस्वतीनद्या जलमसेवत, तस्या जलम्पीत्वा बहिः कृष्णोऽपि त्वमन्तःशुद्धो भविष्यसि ॥ ४९ ॥
(भाव०) हे मेघ । ततः परं कुरुक्षेत्राद कनखलादिनिकटे हिमवतोऽवतीणी सगरसुतपावनीं गङ्गां व्रज। या फेनराजिभिर्गौरी कुटिभङ्गं हसन्तीव शम्भोः शिरोऽधिरह्यस्थिता ऽस्ति॥१०॥ तस्याः पातुं सुरगज इव व्योम्नि पश्चाधलम्बी
त्वं चेदच्छस्फटिकविशदं तकयेस्तिर्यगम्भः । संसर्पन्त्या सपदि भवतः स्रोतसि च्छाययासौ
__ स्यादस्थानोपगतयमुनासङ्गमेवाभिरामा ।। ५१ ॥ ( सञ्जी० ) तस्या इति ॥ सुरगज इव कश्चिदिग्गज इव व्योम्नि पश्चादर्घ पश्चाघम् । पश्चिमार्थमित्यर्थः ॥ पोदरादित्वात्साधुः ॥ तेन लम्बत इति पश्चार्धलम्बी सन्पश्चार्धमागेंण योन्नि स्थित्वा । पूर्वाधन जलोन्मुख इत्यर्थः । अच्छस्फष्टिकविशदं निर्मलस्फटिकावदानं तस्या गङ्गाया अम्भस्तियक्तिरश्चीनं यथा तथा पातं त्वं तक्यर्विचारयेश्चेत् । सपदि स्रोतसि प्रवाहे संसर्पन्त्या संक्रामन्त्या भवतश्छायया प्रतिबिम्बेनासौ गङ्गा अस्थाने प्रयागादन्यत्रोपगतः प्राप्तो यमुनारंगमो यया सा तथाभूतेवाभिरामा स्यात् ॥ ११॥
(चारि०) तस्या इति-हे मेघ सुरगज इव व्योनि तिर्यक पश्चाईलम्बमानः सन् त्वं तस्या गङ्गाया अच्छस्फटिकवद्विशदं अम्भः पातुं तर्विचारयेः । चेतहि भवतः स्रोतसि प्रवाहे सपदि शी संसर्पन्त्या अवगाहमानया छायया प्रतिबिम्बन करणभूतेन सा गङ्गाऽस्थाने प्रयागव्यतिरिक्त स्थाने उपगतः प्राप्तो यमुनासङ्गमो यया सेवाभिरामा मनोज्ञा स्यात् ॥११॥
(भाव० ) हे मेघ ! ततः परं गङ्गाया जलं पातुं त्वयि लम्बमाने सति स्रोतसि प्रस्तया त्वच्छाययाऽऽवृताऽसौ गङ्गा प्रयागादितरत्राऽपि यमुनासङ्गत्तेव शोभिष्यते ॥ २१॥ आसीनानां सुरभितशिलं नाभिगन्धैर्मूगाणां
तस्या एवं प्रभवमचलं प्राप्य गौरं तुषारैः । वक्ष्यस्य ध्वश्रमविनयने तस्य शृङ्गे निषएणः
शोभा शुभ्रत्रिनयषोत्खातपङ्कोपमेयाम् ॥ ५२ ।। (सञ्जी० ) आसीनानामिति!॥ आसीनानामुपविष्टानां मृगाणां कस्तूरिकामृगाणाम् । अन्यथा नाभिगन्धानुपपत्तेः । नाभिगन्धैः कस्तूरीगन्धैस्तेषां तदुद्भवत्वात् । अत एव मृगनाभिसंज्ञा च ॥ "मृगनाभिर्मगमदः कस्तूरी च” इत्यमरः ॥ अथवा नाभयः कस्तूर्यः ॥ "नामिः प्रधाने कस्तूरीमदे च क्वचिदीरितः" इति विधः ॥ तासां गन्धैः सुरभिताः सुरभीकृताःशिला यस्य तं तस्या गङ्गाया एव प्रभवत्यस्मादिति प्रभवः कारणम् । तुषारंगौरं सितम् ॥ "अबदातः सितो गौरः" इत्यमरः ॥ अचलं प्राप्य। विनीयतेऽनेनेति विनयनम् ॥ करणे ल्युट् ॥ अध्वश्रमस्य विनयनेऽपनोदके तस्य हिमाद्रेः भंगे निषण्णः सन् । शुभ्रो यस्रिनयनस्य त्र्यम्ब
५ मेघ०
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सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनी भाव प्रबोधिनी सहिते
४२
कस्य वृषो वृषभः॥ "सुकृते वृषभे वृषः" इत्यमरः । तेनोत्खातेन विदारितेन पट्ट ेन सहोपमेयामुपमातुमह शोभां वक्ष्यसि वोढासि । वहतेर्लट् ॥ "त्रिनयन-" इत्यत्र “पूर्वपदात्संज्ञायामगः" इति णत्वं न भवति "क्षुम्नादिषु च " इति निषेधात् ॥ तस्याः प्रभवमित्यादिना feerat aata वैवाहिको गृहविहारो ध्वन्यते ॥ ५२ ॥
( चारि०) भाग्यलाभमुपदिशति आसीनानामिति - भो जलद तुपारे हिमै गौरं तस्या गङ्गाया एव प्रभवमुत्पत्तिस्थानं अचलं हिमाहिं प्राप्य तस्य हिमवतोऽध्वश्रमविनयने मार्गक मानोदिनिशृङ्गे शिखरे निषण्ण उपविष्टः समशुदीप्रश्वासौ त्रिनयनस्य शम्भोर्वृषेण बलीवनोत्खातश्चासौ पश्च तेनोपमातुमही योग्यां शोभां वक्ष्यसि धास्यसि कीदृशमचलम् । आसीनानामुपविष्टानां मृगाणां कस्तूरिकाहरिणानां नाभिगन्धैर्नाभिविभागामोदः सुरभिताः सुगन्धीकृताः शिला यस्य स तम् । सुरभिशब्दतारकादित्यादितच् । क्तप्रत्ययो न स्यात् । ईशस्य धातोरभावात् । यद्वा सुरभिशब्दात्प्रातिपदिकणिजन्तात् क्तप्रत्ययः । वक्ष्यसीति वह प्रापणे लट् । शुभ्रमुद्दीप्तशुक्लयोरित्यमरः ॥ ५२ ॥
( भाव०) हे मेघ ! ततः परं मार्गश्रमापनयनाय कस्तूरीमृगाणां नाभिगन्धः सुगन्धित - शिलातलं गङ्गायाः प्रभवं हिमवन्तं प्राप्य तस्य शुभ्रे शृङ्गेो निपष्णस्त्वं विषाणोत्खापङ्को हवृषभ इव शोभिष्यसे ॥ ६२ ॥
तं चेद्वायौ सरति सरलस्कन्धसंघट्टजन्मा बाघेतोल्काक्षपितचमरीबालभारो दवाग्निः ।
अर्हस्येनं शमयितुमलं वारिधारासहस्रै
-
रायन्नार्तिप्रशमन फलाः सम्पदो घुत्तमानाम् ॥ ५३ ॥
( सञ्जी० ) तमिति ॥ बायौ वनवाते सरति वाति सति सरलानां देवदारुमाणां एकन्धाः प्रदेशविशेषाः ॥ 'अस्त्री प्रकाण्डः स्कन्धः स्यान्मूलाच्छाखावधेस्तरोः" इत्ममरः ॥ तेषां संघट्टनेन संघर्षणेन जन्म यस्य स तथोक्तः ॥ जन्मोत्तरपदत्वाव्यधिकरणोऽपि बहुव्रीहि:साधुरित्युक्तम् ॥ उल्कामिः स्फुलिङ्गैः क्षपिता निर्दग्धाश्रमरीणां बालभाराः केशसमहा येन । व एवाभिर्दवानिर्वह्निः ॥ "वने च वनवह्नौ च दवो दाव इतीष्यते" इति यादवः ॥ तं हिमाद्रि बात चेत्पीडयेद्यदि । एनं दवाग्मिं वारिधारासहस्रैः शमयितुमर्हसि ॥ युक्तं चैतदित्याह--- उत्तमानां महतां संपदः समृद्धय आपन्नानामार्तानामार्तिप्रशमनसापन्निवारणमेव फलं प्रयोजनं arir तास्तयोक्ता हि । अतो हिमाचलस्य दावानलस्त्वया शमयितव्य इति भावः ॥ ५३ ॥
( चारि०) तमिति - वायौ सरति सति दवाग्निर्दावानलस्तं पर्वतं चेहावेत दहेत् । कीटशः । सरलस्य देवदारोः स्कन्धानां प्रकाण्डानां सङ्घट्टात्सङ्घर्षात जन्म यस्य स तादृशः । तथोल्काभिर्वह्निकणसमूहैः क्षपितो दग्धश्चमरीणामरण्यमृगीणां बालानां पुच्छकेशानां भारः प्रयो येन सः । तर्हि त्वं वारिधारासहस्रैरनं दवानलमलमत्यर्थं शमयितुं निर्वापयितुमर्हसि । एतदेवार्थान्तरन्यासेन द्रढयति । हि यतः उत्तमानां सतां सम्पद आपन्नानामापद्दतानामातिः पीडा तस्याः प्रशमनमेव फलं यासां ताः । यद्यपि दुनोरनुपसर्ग इति प्रत्यये दाव इति भवितव्यम् । तथापि पचादिपाठादचि दव इत्यपि भवति । दवो दावो वनवह्निरित्यभिधानचिन्तामणिः ॥ ५३ ॥
( भाव० ) अथ हे मेध ! तत्र वनवायुना वर्द्धितः सरलाख्यतरस्कन्धसङ्घर्षोत्पन्नो दवाग्निस्तं हिमवन्तं पीडयेचेत् त्वं स्वकीयैर्धारासम्पातैस्तं प्रशमय । पीडितपीडाप्रशमनेकफला उत्तमानां सम्पदो भवन्ति ॥ ५३ ॥
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मेघदृते-पूर्वमेवः। ये संरम्भोत्पतनरभसाः स्वाङ्गभङ्गाय तस्मि
मुक्तावानं सपदि शरभा लङ्घयेयुभवन्तम् । तान्कुर्वीथास्तुमुलकरकावृष्टिपातावकीर्णान्
के वा न स्युः परिभवपदं निष्फलारम्भयत्नाः ।। ५४ ॥ ( सी० ) य इति ॥ तस्मिहिमाद्रौ संरम्भः कोपः ॥ “संरम्भः संक्रमे कोप” इति शब्दार्गव ॥ तेनोत्पतने उत्प्लवने रभसो वेगो येषां ते तथोक्ताः "स्भसो वेगहर्षयोः' इत्यमरः॥ ये शरभा अष्टाददमृगविशेषाः ॥ "शरभः शलभे चाष्टापदे प्रोक्तो मृगान्तरे” इति विश्वः ॥ मुक्तोऽध्वा शरभोत्प्लवनमार्गों येन तं भवन्तं सपदि स्वाङ्गभङ्गाय लङ्घन्येयुः संभावनायां लिङ् ॥ भवतोऽतिदूरत्वात्स्याङ्गभङ्गातिरिक्तं फलं नास्ति लाग्नस्येत्यर्थः। ताशरभांस्तुमुलाः संकुलाः करका वर्षांपलाः ॥ "वर्षीपलस्तु करका" इत्यमरः ॥ तासां घृष्टिस्तस्याः पातेनावकीर्णान्विक्षिप्तान्कुर्वीथाः कुरुष्व ॥ विध्यर्थे लिङ् ॥ क्षुद्रोऽप्यधिक्षिपन्प्रतिपक्षः सद्यः प्रतिशेप्तव्य इति भावः । तथा हि । आरभ्यन्त इत्यारम्भाः कर्माणि तेषु यल उद्योगः स निष्फलो येषां तथोताः । निष्फलकापक्रमा इत्यर्थः । अतः के वा परिभवपदं तिरस्कारपदं न स्युन भवन्ति । सर्व एव भवन्तीत्यर्थः । यदन्न “धनोपलस्तु करके” इति याश्ववचनात्करकशब्दस्य नियत'लिङ्गताभिप्रायेण 'करकाणामवृष्टिः" इति केषां चियाख्यानं तदन्ये नानुमन्यते । “वर्षीपलस्तु करका" इत्यमरवचनव्याख्याने क्षीरस्वामिना "कमण्डलौ च करकः सुगते च विनायका" इति नानाथे पुंस्यपि वक्ष्यतीति वदतोभयलिङ्गताप्रकाशनात् । यादवस्य तु पुंलिङ्गताविधाने तात्पयं न तु स्त्रीलिङ्गतानिषेध इति न तद्विरोधोऽपि । “करकस्तु करके स्याहाडिमे च कमण्डलो। पक्षिभदे कर चापि करका च धनापले" इति विश्वप्रकाशवचने तूभयलिङ्गता व्यक्तवति न कुत्रापि विरोधवार्ता। अत एव रुद्रः--"वपीपलस्तु करका करकोऽपि च दृश्यते" इति ॥५४॥
(चारि०) पीडानिषेधोपायमुपदिशन्नाह । य इति-भो मेव तस्मिन्गिरी ये शरभाः अष्टापदाः स्वाङ्गभङ्गाय निजगाविनाशाय संरम्भण क्रोधेनोत्पतनं रभसोऽर्द्धगमनवेगिनःसन्तः। मुक्ताध्यानं शरमाणामुत्पतनमागं हित्वा दूरगामिनं भवन्तं लान्येयुः त्यक्तमार्गत्वात् त्वयि शरभाणां लान न सम्पद्यते । किन्तु तेषां देहभङ्ग एव भावीति भावः। भी जलद तान् शरभान् तुमुलो रौद्रश्चासौ करकाणां वर्षांपलानां आसमन्तादृष्टिपातस्तेनावकीर्णान् अवक्षिप्तान् कुळथाः । उक्तमेवार्थान्तरन्यासेन प्रतिपादयति । निःफलाः फलरहितं आरम्भा यत्राः कर्मव्यापारा येषां ते । के वा प्राणिनः परिभवस्य न्यक्कारस्यस्पदमास्थानं न स्युः । कुत्रापि - टिहासावकीर्णानिति पाठः । तत्र वृष्टेरेव हासो हास्यं तेनावकीर्णान् । वर्षांपलस्तु करकः । शरभः कुक्षरात्पादकोऽष्टपादपीत्यभिधानचिन्तामणिः ॥ ५४॥
(भाव०) हे मेघ ! तत्र हिमादौ परित्यक्तमार्गमपि भवन्तं लहयितुं ये शरभाः प्रवत्ता भवेयुस्तान् करकावृष्टिद्वारा दण्डय । निष्फलारम्भाः सर्वेऽपि परिभवभाजो भवन्ति ॥१४॥
तत्र व्यक्तं दृषदि चरणन्यासमर्धेन्दुमौले
शवसिद्धैरुपचितबलिं भक्तिनम्रः परीयाः । यस्मिन्दृष्टे करणविगमादूर्ध्वमुद्धृतपापाः
संकल्पन्ते स्थिरगणपदमाप्तये श्रद्दधानाः ॥ ५५ ॥
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४४ सीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहिते
(सभी० ) तत्रेति। हिमाद्रौ दृषदि कस्यांचिच्छिलायां व्यक्तं प्रकटं शश्वत्सदा सिद्धांगिभिः ॥ "सिद्धिनिष्पत्तियांगयोः” इति विधः ॥ उपचितबह्वल रचितपूजाविधिम् ॥ "बलिः पूजोपहारयोः” इति यादवः ॥ अर्धश्वासाविन्दुश्चेत्यर्धेन्दुः॥ "श्र्धः खण्डे समेऽशके” इति विधः ॥ स मौलौ यस्य तस्येश्वरस्य चरणन्यासं पादविन्यासम् । भक्तिः पूज्येष्वनुरागस्तया नभ्रः सन्परीयाः प्रदक्षिणं कुरु ॥ परिपूर्वादिगो लिङ् ॥ यस्मिन्पादन्यासे दृष्टे सत्युधूतपापा निरस्तकल्मपाः सन्तः श्रद्दधाना विश्वसन्तः पुरुषाः। श्रद्धा विश्वासः । आस्तिक्यबुद्धिरिति यावत् ॥ "श्रदन्तरोरुपसर्गववृत्तिर्वक्तव्या' इति श्रुत्पूर्वाद्दधातः शानच् ॥ करणस्य क्षेत्रस्य विगमादूध्वं देहत्यागानन्तरम् ॥ "करण साधकतम क्षेत्रगानेन्द्रियपुच" इत्यमरः ॥ स्थिर शाचतं गणानां प्रमथानां पदं स्थानम् ॥ "गणाः प्रमथसंख्यौघाः” इति ,जयन्ती ॥ तस्य प्राप्तये संकल्पन्त समर्था भवन्ति ॥ क्लपः पयांतिवचनस्यालमर्थत्वात्तद्योग "नमःस्वस्ति--" इत्यादिना चतुर्थी ॥ "अलमिति पर्याप्त्यर्थग्रहणम्" इति भाष्यकारः ॥ "अव्यक्तं व्यायामास शिवः श्रीचरणद्वयम् ॥ हिमाद्रो शांभवादीनां सिद्धये सर्वकर्मणाम् ।। दृष्ट्वा श्रीचरणन्यासं साधकः स्थितये तनुम् । इच्छाधीनशरीरो हि विचरेच जगत्त्रयम् ॥ इति शंभुरहस्ये ॥ ५९॥
(चारि०) अन्यदपि मङ्गलमुपदिशति । तत्रेति-भो मेघ तन्न हिमवति दि शिलायां व्यक्तं स्पष्टं अद्धन्दुहेलेमहेशस्य चरणन्यासं भक्त्या नम्रः सन् परीयाः प्रदक्षिणी कुविति भावः। कोहशं शबदनवरतं सिद्धसरसहत उपनीतो बलिः पूजोपहारो यस्य तम् । भावनोत्पादनाय तं प्रकटयति । यस्मिन् वणन्यास दृश्ट सति उद्धृतपारा गतकल्मपाः श्रद्धाना श्रद्धावन्तः प्राणिनः करणस्य शरीरस्य विगमात् त्यागात् उद्धव स्थिरं च तत् गणानां पदं स्थानं च तस्य प्रातये कल्पिव्यसे सम्पत्स्यन्ते । अलं शब्दस्यार्थग्रहणात्पर्याप्तिवाचिनः कृपयोगे चतुर्थी । बलि: पूजापहारे च दैत्यभेदे करेऽपि चेति यादवः । करणं माधकतमंक्षेत्रगात्रेनियेच्चपीति अमरः । अश्वासाविन्दुश्चेति विशेषेण समासः । न तु इन्दोरुद्ध अद्वेन्दुरिति। अ हूँ न पुंसकमिति नपुंसकाईशब्दस्व समासविधानात् । समभिनविभागवाचिन एव नपुंसकत्वात् । शम्भुशिरसि कलामात्रस्युवावस्थानात् तन्त्र हितान्तरमुपदिशति ॥ १६॥
(भाव०) हे मेघ ! तत्र हिमाद्री शिलासुस्पटं शिवपदन्यासं भक्तियुक्तः सन् प्रदक्षिणीकुरु । यस्य दर्शनात् श्रद्धालयो जना देहपातानन्तरं नित्यगणपई लभन्त ॥ ६ ॥ शब्दायन्ते मधुरमनिलैः कीचकाः पूर्यमाणाः
संसक्ताभिस्त्रिपुरविजयो गीयते किंनरीभिः । निहादस्ते मुरज इव चेत्कन्दरेषु ध्वनि ! स्या
संगीतार्थो ननु पशुपतेस्तत्र भावी समग्रः ॥ ५६ ॥ ( सञ्जी. ) शब्दायन्त इति ॥ हे मेव, अनिलः पूर्यमाणाः कीचका घेणुविशेषाः "वणवः कीचकास्ते स्युयें स्वनन्त्यनिलोद्धताः” इत्यमरः । “काचको दैत्यभेदे स्थाच्छुकत्रंशे दुमान्तरे” इति विश्वः ॥ मधुरं श्रुतिसुखं यथा तथा शब्दायनी शई कुर्वन्ति । स्वनन्तीत्यर्थः ।। "शब्दवैरकलहाभ्रकग्नमे येभ्यः करणे" इत्यादिना क्यङ् ॥ अनेन वंशवाद्यसंपत्तिरुक्ता। संसक्ताभिः संयुक्ताभिवंशवाद्यानुषक्ताभिर्धा ॥ "संरक्ताः” इति पाठे संरक्तकण्ठीभिरित्यर्थः ॥ किंनरीभिः किनरस्त्रीभिः । त्रयाणां पुराणां समाहारस्त्रिपुरम् ॥ “तद्वितार्थीत्तरपद-" इति समासः । पात्रादित्वान्नपुंसकत्वम् ॥ तस्य विजयो गीयते। कन्दरेषु दरीषु । “दरी तु कन्दरी वास्त्री" इत्यमरः ॥ ते तव निहादो मुरजे वाद्यभेदे ध्वनिरिख । मुरजध्वनिरिवेत्यर्थः । स्याञ्चे
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मेघदूते-पूर्वमेघः । त्तहि तन्त्र चरणसमीप पशुपतेनित्यसंनिहितस्य शिवस्य संगीतम् ॥ "तौर्यत्रिकं तु संगीतं न्यायारम्भे प्रसिद्धके ॥ तूर्याणां त्रितये ब" इति शब्दार्णवे ॥ तदेवार्थ: संगीतार्थः संगीतवस्तु ॥ "अोऽभिवयरेवस्तुप्रयोजननिवृत्तिषु" इत्यमरः ॥ समनः संपूर्णा भावी ननु भविष्यति खलु ॥ “भविष्यति गम्यादयः" इति भविष्यदथें णिनिः ॥ १६ ॥
(चारि०) शब्दायन्त इति-तत्र हिमवति अनिलनिः पूर्यमाणाः कीचकाः लच्छिद्रवंशा मधुरं यथा स्यात्तथा शब्दायन्त शदं विदधते । मंसक्ताभिक्तियुक्ताभिः किन्नराभिस्त्रिपुरविजयस्त्रिपुरदाहाख्यः प्रबन्धो गीयते । उभयत्र लट् प्रयोगः सदा सम्भवात्कृतः । हे मंच ध्वनिस्त मुरज इत्र कन्दरपु गुहासु निहा नाइवायु भवेच्चहि पशुपतमहशस्य सङ्गीतातार्थः समप्रः सम्पूणा भावा भविष्यति । ननु निश्चितम् । निन् दो निनादो नादः । गीतनत्यवायत्रयं नाट्यम् तीयत्रिकं च तत् । सङ्गीतं प्रेक्षणीयाथेऽस्मिन्नित्यभिधानचिन्तामणिः । चरणन्यासमन्तरेण शम्भुस्तत्र वसतीति प्रसिद्धिः ॥ १६ ॥
(भावः) हे मेघ तत्र वायुपूर्णा वेणा मयुर क्वन्ति । शिवदर्शनार्थ सङ्गतामिः किन्नरीभिश्च त्रिपुरविजयो गीयते । दरीषु प्रतिध्वनितस्त निहादा सुरज इव सम्पद्येत चेत्, तत्र सम्पूर्ण सङ्गोनं भविष्यति ॥ १६ ॥ भालेयागुरुपतटमातिक्रम्य तांस्ताविशेषा.
हंसद्वारं भृगुपतियशोवत्म यत्क्रौञ्चरन्ध्रम् । तेनोदीची दिशमनुसरोस्तिर्यगायामशोमि
श्यामः पादो वलिनियमनाभ्युद्यतस्येव विष्णोः ॥५७।। (सी) प्रालेयेति । प्रालेयादेहिमादेरुरतटं तटसमी ॥ "अव्ययं विभक्ति-'' इत्यादिना समीपार्थेऽव्ययीभावः॥ तांस्तान् ॥ वीप्सायां द्विरुक्तिः ॥ विशेषान्द्रष्टव्यार्थान् ॥ "विशेषोऽवयये द्रव्ये द्रष्टव्योत्तमवस्तुनि" इति शब्दार्गवे ॥ अतिक्रम्यानुसरगच्छेरित्यनागतेन संबन्धः॥ हंसानों द्वारं हंसद्वारम् ॥ मानसप्रस्थायिनी हंसाः क्रौञ्चरन्ध्रेण संचरन्ति इत्यागमः ॥ भृगुपतेर्जामदग्न्यल्प यशोवर्म । यशःप्रवृत्तिकारणमित्यर्थः। यत्क्रौञ्चस्याद्रे रन्ध्रमस्ति तेन क्रौञ्चविलेन बलदैत्यस्य नियमने बन्धनेऽभ्युद्यतस्य प्रवृत्तस्य विष्णोर्ध्यापकस्यविक्रमस्य श्यामः कृष्णवर्णः पाद इव तिर्यगायामेन क्षिप्रप्रवेशनार्थं तिरश्चीनदैध्येण शोभत इति तथाविधः सन्नुहीचीमुत्तरां दिशमनुसरेरनुगच्छ ॥ पुरा किल भगवतोद वादधूर्जटेधनुरुपनिवदमधीयानेन भृगुनन्दनेन स्कन्दस्य स्पर्धया क्रौञ्चशिखरिणमतिनिशितविशिख मुखेन हेलया मृत्पिण्डभेदं भित्या तत एव क्रोश्चक्रोडादेव सद्यः समुज्जृम्भिते कस्मिन्नपि यशःक्षीरनिधौ निखिलमपि जगज्जालमाप्लावितमिति कथा श्रूयते ॥ १७ ॥
(चारि०) उदोची प्रति बेगेन गमनोपायं दर्शयन्नाह-प्रालेयादेरिति-भा मेघ प्रालेया हिमाचलस्योपतट तटस्य पार तांस्तान् विशेषान् पूर्वोक्तान अतिक्रम्योलध्य हंसानां मानसाख्यं सरो गमनद्वारं भृगुपतेः परशुरामस्य ग्रशसो वम प्रसृतिमार्गभूतं क्रौञ्चपर्वतस्य रन्धमस्ति तेन रन्ध्रेगोदीची दिशं त्वमनुसरुद्दिश्य गच्छेः । कोशस्त्वं तिर्यक् तिरश्चीनो य आयामो विस्तारस्तेन शोभते इति शोभी सन् वियन्मण्डलं व्रजन बलिनाम्नो राक्षसस्य नियमन नियन्त्रणं तत्रऽभ्युद्यतस्य सांद्यमस्य विष्णोस्त्रिविक्रमस्य श्यामः पाद इव स्थितः सन कोजवैरिणा कार्तिकेयेन स्पर्द्धमानः परशुरामः क्रौञ्चपर्वतं सच्छिद्रमकापात् । तेन तस्य महती कार्तिरासीदिति कथा ॥ १७ ॥
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४६
सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभाव प्रबोधिनीसहिते
( भाव०) हे मेघ ! हिमवत्तटे दर्शनीयानर्थान् वीक्ष्य परशुरामप्रतापसूचकेन क्रौञ्चबि - लेनोतरां दिशं गच्छ, तदा त्वं बलिनियमनोद्यतस्य विष्णोः श्यामः पाद इव शोभिन्यसे ॥ ६७ ॥ गत्वा चोर्ध्वं दशमुखभुजोच्छ्वासितप्रस्थ सन्धेः कैलासस्य त्रिदशवनितादर्पणस्यातिथिः स्याः ।
शृङ्गेोच्छ्रयैः कुमुदविशदेयों वितत्य स्थितः खं
राशीभूतः प्रतिदिनमिव त्र्यम्बकस्याट्टहासः ॥ ५८ ॥
(स० ) गत्येति ॥ क्रौञ्च बिल निर्गमनानन्तरमूध्वं च गत्वा दशमुखस्य रावणस्य भुबहुभिरुच्छ्वासिता विपिताः प्रस्थानां सानूनां संघयो यस्य तस्य ॥ एतेन नयनकौतुकलाव उक्तः ॥ त्रिदेशपरिमाणमेवामस्तीतित्रिदशाः ॥ "संख्ययाव्यया-" इत्यादिना बहुव्रीहिः । "बहुव्रीहौ संख्येये डच् -" इत्यादिना समासान्तो इजिति क्षीरस्वामी ॥ त्रिदशानां देवानां वनितास्तासां दर्पणस्य || कैलासस्य स्फटिकत्वाद्वजतबवत्तद्वा बिम्बग्राहित्येनेदमुक्त - म् || कैलासस्यातिथिः स्याः । यः कैलासः कुमुदविशदैनिर्मलैः शृङ्गाणामुच्छ्रायैरौन्नत्यै: खमाकाशं वितत्य व्याय प्रतिदिनं दिने दिने राशीभूतस्त्रयम्बकस्य त्रिलोचनस्याट्टहासोऽतिहास इव स्थितः || "अट्ठावतिशमक्षौमौ" इति यादवः ॥ धावल्याद्धासत्वेनोत्प्रेक्षा । हासादीनां धावल्यं कविसमयसिद्धम् ॥ ५८ ॥
I
1
( चारित्र ) अतः परं मार्गमुपदिशति । गत्येति-तेन रन्ध्रेणोद्धं गत्वा कैलासस्यातिथिः याः भवेतं गच्छ रित्यर्थः । कीदृशस्य दशमुखस्य रावणस्य भुजैरुवासितो विघटितः प्रस्थानां सानूनां सन्धिर्यस्य रूप्यमयत्वात् । तथा त्रिदशवनितानां दर्पणः स्स्या ननु । त्रिदशवनितादर्पणस्येत्युक्तम्, मेववायोः स्पर्शनान्मालिन्यप्रसङ्गात्कथं सम्भवेदित्याशङ्कयाह । कैलासस्य महत्तया मालिन्यं न भवतीति महत्तां दर्शयति । यः कैलासः कुमुदवद्विशदैनिशृङ्गायैः खमाकाशं वितत्य विस्तीर्य प्रतिदिशं दिशि दिशि राशीभूतस्त्रयम्बकस्य शम्भोरहास उद्भटहास इव स्थितः । चकारो गत्यानन्तर्यसमुच्चार्थः । दशमुखेत्यादिविशेषमयुक्तमिति न वाच्यम् । अभिगम्यस्य शैलस्याभिभत्रवाचित्वादिति वाच्यम् । अन्यानुत्येतस्ततः प्रक्षेप्तुं शक्नोति यः तेनास्येतस्य सारवत्तया प्रस्थोछ्वासमात्रमेव कृतमिति उत्कर्षस्य विवक्षितत्वात् ॥ ५८ ॥
( भाव० ) हे मेव ! ततः परं त्वं रावणभुजचालित शिखरसन्धेः स्फटिकादेः कैलासस्यातिथिर्भय । यः प्रतिदिननुचितस्त्रयम्बकल्याहहास इव स्थितोऽस्ति ॥ १८ ॥ उत्पश्यामि वाटते स्निग्धभिन्नाञ्जनाभे
सद्यः कृत्तद्विरददशनच्छेदगौरस्य तस्य । शोभामद्रेः स्तिमितनयन प्रेक्षणीयां भवित्री
मंसन्यस्ते सति इलभृतो मेचके वाससीव ॥ ५९ ॥
( सञ्जी० ) उत्पश्यामीति ॥ स्निग्धं मसृणं भिन्नं मर्दितं च यदञ्जनं कज्जलं तस्याभेवाभा यस्य तस्मिंस्त्वयि तगते सार्नु गते सति सद्यःकुत्तस्य छिन्नस्य द्विरददशनस्य गलदन्तछेदौर धवलस्य तस्याद्रेः कैलासस्य मेचके श्यामले ॥ " कृष्णे नीलासितश्यामकालश्यामलमेचकाः” इत्यमरः ॥ वाससि वस्त्रेऽन्यस्ते सति हलतो बलभद्रस्येव स्तिमिता
य
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मेघदूते-पूर्वमेघः । भ्यां नयनाभ्यां प्रेक्षणीयां शोभा भवित्री भाविनीमुत्पश्यामि । शोभा भविष्यतीति तर्कयामीत्यर्थः ॥ श्रौती पूर्णापमालेकारः ॥ ५९॥
(चारि०) उत्पश्यामीति-भो मेघ त्वयि तटगते तट प्राप्ते सति तस्याद्रेः कैलासस्यातिरमणीयत्वात स्तिमित निश्चलैनयनः प्रेक्षितुं योग्यां भवित्री भविष्यन्ती शोभामुत्पश्यामि । उत्प्रेक्षते । कस्मिन् सति कस्येव । मेचके नीले वाससि अंसन्यस्ते सति हलं सीरं बिभर्तीति हलभृतो बलभद्रस्येव कीदृशे त्वयि। स्निग्धं च तत् भिन्न विदारितं यदानं तद्वद्भाति। कीदृशस्य कैलासस्य सद्यः कृत्तश्छिन्नश्चासो द्विरदस्य दन्तस्य छेदस्तद्वद्गौरस्य । कृष्णे नीलेसित श्यामकालश्यामलमेचका इत्यमरः ॥ ५९॥
(भाव० ) हे मेघ! गौरस्य कैलासस्य तटे कृष्णवणे त्वयि स्थिते सति भवदाक्रान्तशृङ्गः स कैलासः स्कन्धस्थितश्यामबस्त्रो गौरवर्णा बलराम इव शोभिष्यते ।। २९॥ हित्वा तस्मिन्भुजगवलयं शंभुना दत्तहस्ता
क्रीडाशैले यदि च विचरेत्पादचारेण गौरी । भङ्गीभक्त्या विरचितवपुः स्तम्भितान्तर्जलौघः
सोपानत्वं कुरु माणितटारोहणायाग्रयायी ॥ ६० ॥ (सजी० ) हित्वेति ॥ तस्मिन् क्रीडाशैले कैलासे ॥ "कैलासः कनकाद्रिश्च मन्दरो गन्धमादनः । क्रीडा) निर्मिताः शंभादेवैः क्रीडादयोऽभवन्” इति शंभुरहस्ये ॥ शंभुना शिवेन भुजग एव वलयः काणं हित्वा गोर्या भीरुत्वात्त्यक्त्वा दत्तहस्ता सती गौरी पादचारेण विचरेद्यदि तग्रियायी पुरोगतस्तथा स्तम्भित्तो धनीभावं प्रापिन्तोऽतर्जलस्यौघः प्रवाहो यस्य स तथाभूतः । शृङ्गाणां पर्वणां भक्त्या रचनया विरचितवपुः कल्पितशरीरः सन् मणीनां तटं मणितट तस्यारोहणाय सोपानत्वं कुरु । सोपानभावं भजेत्यर्थः ॥ ६०॥
(चारि०) तत्र हितमुपदिशति-तस्मिन्निति । हे पयोद तस्मिन् क्रीडाशैले कैलासे भुजगवलयं सर्पभूषणं हिंत्या त्यक्या शम्भुना दत्तहस्ता सती गौरी यदि पादचारेण विहरेत् । नदा भङ्गा विभाः शकलानि अस्य स भङ्गी भक्त्या विरचितं निर्भिद्य रचितं वपुर्यस्य स तथा। स्तम्मितोऽन्तर्गतस्य जलस्यौधः प्रवाहो येन तादृशः सन् आरोहणाय सोपानत्वं निःश्रेणित्वं कुरु । ॥६०॥
( भाव० ) हे मेव ! तत्र कैलासे प्रातर्धसणार्थं निर्गतायाः सर्पकणरहितं शिवहस्तमवलम्ब्य विचरन्त्या गौर्या मणितटारोहणाय सोपानात्मा भव ॥६०॥ तत्रावश्यं वलयकुलिशोद्धट्टनोद्गीर्णतोयं
नेष्यन्ति त्वां सुरयुक्तयो यन्त्रधारागृहत्वम् । ताभ्यो मोक्षस्तव यदि सखे घमंलब्धस्य न स्या
क्रीडालोलाः श्रवणपरुषैजितैर्भीषयेस्ताः॥ ६१ ॥ ( सनीः ) तत्रेति ॥ तत्र कैलासेऽवश्यं सर्वधा सुरयुवतयो वलयकुलिशानि कणकोटयः ॥ शतकोटिवाचिना कुलिशशब्देन कोटिमात्रं लक्ष्यते ॥ तैरुद्धहनानि प्रहारास्तैरुतीर्णमुत्सृष्टं तोयं येन तं त्वां यन्त्रेषु धारा यन्त्रधारास्तासां गृहत्वं कृत्रिमधारागृहत्वं नेष्यन्ति प्रापयिष्यन्ति ॥ हे सखे मित्र, घमें निदाघे लब्धस्य ॥ धर्मलब्धत्वं चास्य देवभूमिषु सर्वदा सर्वर्तुसमाहारात्प्राथमिकमेघत्वाद्वा । यथोक्तम्-"आषाढस्य प्रथम-" इति ॥ तव ताभ्यः सु
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४८
सजीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहिते
रयुवतिभ्यो मोक्षो न स्याद्यदि तदा क्रीडालोलाः क्रीडासक्ताः प्रमत्ता इत्यर्थः । ताः सुरयुवतीः श्रवणपरुषैः श्रवणकटुभिर्गजितैः करणैर्भाययेस्त्रासयेः ॥ अत्र हेतुभयाभावादात्मनेपदं पुगागमश्च न ॥ ६१ ॥
(चारि०) हितान्तरमुपदिशति । तनेति-भो वारिद तत्र पर्वते सुरयुक्तयो देवाङ्गनास्त्वां भवन्तं यन्त्राणि शालभक्षिकाप्रभुतीनि तत्करतलप्रवृत्तनिराधाराप्रचुरं गृहं यन्त्रधारागृहं तस्य भावस्तत्त्वं अवश्यं निश्चितं नेष्यन्ति । कीदृशं वलयमेव कुलिशं तेन यत् घट्टनं तेनोहीणं वान्तं तोयं येन स तम् । भो सखे धर्मलब्धस्य तव ताभ्यो युवतिभो मोक्षो यदि न न स्यात् । तर्हि क्रीडासु लोलाः सतृष्णास्ता युवतीः श्रवण परुषैः कर्णकर्कशैजितैर्भाययेीषयेः । गर्जितभी तेस्त्रां त्यत्यन्तीति भावः । ननु धर्मलब्धस्येत्यसङ्गतं वर्तुसमयत्वादिति न वक्तव्यम् । कैलासस्य सुरभूमित्वेन षण्णामपि ऋतूनां सम्भवात् । यद्वा धर्मशब्देन श्रमो विवक्षितः । अमलब्धस्येत्यर्थः । हेतुरूपान्मेघात् स्त्रीणां न भयं किं गर्जितात् ॥६१॥
(भाव० ) हे मेघ ! तत्र कौतुकिन्यः सुरयुवतयः कणोद्वनैस्त्वां यन्त्रधारागृहत्वं नेष्यन्ति, हे मित्र ! ताभ्यस्ते सुखेन यदि सोक्षो न भवेत्तर्हि कठोरगर्जनैस्तास्त्रासय ॥ ६१ ॥ हेमाम्भोजप्रसवि सलिलं मानसस्याददानः
कुर्वन्कामं क्षणमुखपटप्रीतिमैरावतस्य । धुन्वन्कल्पद्रुमीकमलयान्यंशुकानीव वातैः
नानाचेष्टर्जलद ललितनिशिस्न नगेन्द्रम् ॥ ६२ ।। ( सञ्जी० ) हेमेघेति ॥ हे जलद, हेमाम्भोतार्ना प्रसवि जनकम् ॥ "जिदृक्षि-" इत्यादिनेनिप्रत्ययः ॥ मानसस्य सरसः सलिलमाददानः । पिबन्नित्यर्थः। तस्यैरावतस्येन्द्रगजस्य । कामचारित्वाद्वा शिवसेवार्थमिन्द्रागमनाद्वा समागतस्येति भावः । क्षणे जलादानकाले मुखे पटेन या प्रीतिस्तां कुर्वन् ॥ यथा कल्पद्रमाणां किसलयानि पल्लवभूतान्यंशुकानि सूक्ष्मवस्त्रागीय ॥ “अंशुकं वस्त्रमा स्यात्परिधानोत्तरीययोः । सूक्ष्मवस्त्रे नातिदीप्तौ” इति शब्दार्णरे ॥ वातैमधवातर्धन्वन् । नाना बहुविधाश्चेष्टास्तोयपानादयो येषु तैललितः क्रीडितः ॥ "ना भावभेदे स्त्रीनृत्ये ललितं त्रिषु सुन्दरे । अस्त्रियां प्रां मदागारे क्रीडिते जातपल्लवे” इति शब्दाणवे ॥ तं नगेन्द्रं कैलासं कामं यथेष्ट निर्विशेः समुपभुक्ष्व ॥ "निवेशो भृतिभोगयोः" इत्यमरः । यथेच्छविहारो मित्रगृहेषु मैत्र्याः फलम् । सहजमित्रं च ते कैलासः । मेघपर्वतयोरब्धिचन्द्रयोः शिखिजीपूतयोः समीराग्न्योर्मित्रता स्श्यमेवेति भावः ॥ ६ ॥
(चारि० ) गुणादिना प्रलोभयति-हेमाम्भोजेति। भो मेघ तं नगेन्द्र कैलासं निविशेः अ. नुभवः । कीदृशः हेनो जातानामम्भोजानां प्रसवो जननमस्य मानससरोविशेषस्य सलिलमाइदानः । कामं यथेच्छे ऐरावतस्य गजस्य क्षणं मुहन मुखपटनीति मुखावगुण्ठनवस्त्रलाभप्रीति कुर्वन् जनयन् सजलपृषतः जलकणिकासहितैतिः कल्पवृक्षकिसलयभूतानि अंशुकानि वस्त्राणि धुन्वन् कम्पयन् । पुनः कीदृशस्त्वम् । छायया प्रतिबिम्न भिन्नः सङ्गतः सन् कीदृशं नगेन्द्रं स्फटिकविशदं निर्मलम् । यथा कोऽपि सखा मित्रालयं गत्वा तत्सम्बन्धीनि दीर्घिकावाहनारामप्रभृतीनि यथाकामं निर्विशति तद्वदिति ध्वनिः । प्रसवो जननानुज्ञा पत्रेषु फलपुउपयोरिति यादवः ।। ६२ ॥
( भाव० ) हे शेत ! सुवर्ण र पार जनकं मानसजलं पिवन, ऐरावतस्य प्रीतिं जनयन् , मेघवातहारा कल्पद्गकिसलयानि कम्पयन् कैलासमुपभुश्व ॥६२ ।।
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मेघदूते-पूर्वमेघः। तस्योत्सङ्गे प्रणयिन इव स्रस्त गङ्गादुकूलां
न त्वं दृष्ट्वा न पुनरलका ज्ञास्यसे कामचारिन् । या वः काले वहति सलिलोद्गारमुच्चैर्विमाना
मुक्ताजालग्रथितमलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम् ।। ६३ ।। ( सञ्जी० ) तस्येति ॥ प्रणयिनः प्रियतमस्येव तस्य कैलासस्योत्सङ्गे ऊर्ध्वभागे कटौ च ॥ "उत्सङ्गो मुक्तसंयोगे सक्थिन्यूज़तलेऽपि च” इति मालतीमालायाम् ॥ "गङ्गा दुकूल शुभ्रवस्त्रमिव ॥ "दुकूलं सूक्ष्मवस्त्रे स्यादुत्तरीये सितांशुके" इति शब्दार्णवे ॥ अन्यत्र तु गङ्गव दुकूलम् । तत्स्रस्तं यस्यास्तां तथोक्तामलका कुबेरनगरीं दृष्ट्वा । कामिनीमिवेति शेषः। हे कामचारिन्, त्वं पुनस्त्वं तु न जास्यसा इति न किं तु ज्ञास्यस एवेत्यर्थः ॥ कामचारिणस्ते पूर्वमपि बहुकृत्वो दर्शनसंभवादज्ञानमसंभावितमेवेति निश्चयार्थ ननुयप्रयोगः । तदुक्तम्--"स्मृतिनिश्चयसिद्ध्यर्थेषु नद्धयप्रयोगः" इति ॥ उरुन्त्रतानि विमानानि सप्तभूमिकभवनानि यस्यां सा॥ "विमानोऽस्त्री देवयाने सप्तभूमौ च समनि" इति यादवः । मेघसंवाहनस्थानसूचनार्थमिदं विशेषणम् ॥ अन्यन्न विमाना निष्कोपा यालका । वो युष्माकं काले । मेघकाल इत्यर्थः ॥ कालस्य सर्वमेघसाधारण्याद्व इति बहुवचनम् ॥ सलिलमुद्रितीति सलिलोद्वारम् । स्रवत्सलिलधारमित्यर्थः ॥ अभ्रवृन्दं मेधकदम्बकं कामिनी स्त्री मुक्ताजालौक्तिकसरैथितं प्रत्युप्तम् ॥ "पुंश्चल्यां मौक्तिके मुक्ता" इति यादवः ॥ अलकमिव चूर्णकुन्तलानीव । जातावेकवचनम् ॥ "अलकाश्चूर्णकुन्तला:" इत्यमरः ॥ वहति बिभर्ति ॥ अत्र कैलासस्यानुकूलनायकत्वमलकायाश्च स्वाधीनपतिकाख्यनायिकात्वं ध्वन्यते । “एकायत्तोऽनुकूलः स्यात्" इति च "प्रियोपलालिता नित्यं स्वाधीनपतिका मता" इति च लक्षयन्ति । उदाहरन्ति च--लालयनलकप्रान्तारचयपत्रमारीम् । एकां विनोदयन् कान्तां छायावदनुवर्तते ॥” इति ॥ ६३ ॥
इति श्रीमहामहोपाध्यायमल्लिनाथसूरिविरचितया संजाविनीसमाख्यया व्याख्यया सनाथे महाकविश्रीकालिदासविरचिते मेघदूते
काव्ये पूर्वमेघः समाप्तः। (चारि० ) गुणोत्कीर्तनेनालका बोधयितुमाह । तस्येति-भो कामचारिन् जलद प्रणयिनो भर्तुरिव तस्य कैलासस्योत्सङ्ग उपरि शृङ्गे त्वं पुनरलकां दृष्ट्वा न ज्ञास्यस इति नापि तुज्ञास्यसे । द्वौ नौ प्रकृतमथं गमयतः । कीदृशीं खस्तं भ्रष्टं गङ्गैव दुकूलं विस्रवद्वस्वं यस्यास्ताम् । दर्शनमेव विशदयति । यालका वो युष्माकं मेघानां काले समये वर्ष वित्यर्थः। उच्चै रुनतैर्विमानैः सप्तभूमिकप्रासादैः सलिलमुहिरति सलिलोद्गारः कर्मण्यण् । तं अभ्राणां वृन्दं मेघानां समूह वहति । मुक्ताजालेन मौक्तिकगणेन ग्रथितं नद्धमलकं मालावलम्बि केशविन्यासे विशेष कामिनीव । विमानो ऽस्त्री देवयाने सप्तभौमे च समनि । जालं गवाक्षे आनाये क्षारके कदने गण इति यादवः । दुकूल शुक्लवस्त्रे, पीति केशवः ॥६३ ॥
इदानीं यावत्पूर्वमेघसन्देशः सम्पूर्णः ॥ इत्थमलकां वर्णयित्वा तत्र स्वभवनस्याभिज्ञानमाह(भाव० ) हे मेघ ! तस्य कैलास्योत्सने स्थितां प्रियक्रोडे स्थितां कामिनीमिवालकापुरी निश्चयेन ज्ञास्यसि ॥ ६३ ॥
इतिपूर्वमेघः ।
७ मेघ०
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सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहिते
उत्तरमेघः विद्युत्वन्तं ललितवनिताः सेन्द्रचापं सचित्राः
संगीताय प्रहतमुरजाः स्निग्धगम्भीरघोषम् । अन्तस्तोयं मणिमयभुवस्तुङ्गमभ्रंलिहाग्राः
प्रासादास्त्वां तुलयितुमलं यत्र तैस्तैर्विशेषैः ॥ १ ॥ ( सञ्जी०) विद्युत्वन्तमिति ॥ यत्रालकायां ललिता रम्या वनिता. स्त्रियो येषु । सह विनर्वर्तन्त इति सचित्राः "आलेख्याश्चर्ययोश्चित्रम्" इत्यमरः ॥ "तेन सहेति तुल्ययोगे" इति बहुव्रीहिः । “वोपसर्जनस्य” इति सहशब्दस्य समासः ॥ संगीताय तौर्यनिकाय प्रहतमुरजास्ताडितमृदङ्गाः ॥ "मुरजा तु मृदङ्ग स्याकामुरजयोरपि” इति शब्दार्णवे ॥ मणिविकारा
भुवो येषु । अभ्रं लिहन्तीत्य_लिहान्यभ्रंकषाणि ॥ "वहाभ्रेलिहः" इति खप्रत्ययः । “अरुद्विष-"इत्यादिना मुमागमः । अग्राणि शिखराणि येषां ते तथोक्ताः । अतितुङ्गा इत्यर्थः। प्रासादा देवगृहाणि ॥ “प्रासादो देवभूभुजाम्" इत्यमरः ॥ विद्युतोऽस्य सन्तीति विद्युत्वन्तम् । सेन्द्रचापमिन्द्रचापवन्तम् । स्निग्धः श्राव्यो गम्भीरो घोषो गर्जितं यस्य तम् । अन्तरन्तर्गत तोयं यस्य तम् । तुङ्गमुन्नतं त्वां तैस्तविशेषैर्ललितवनितत्वादिधर्मेस्तुलयितुं समीकर्तुमलं पप्तिाः ॥ “अलं भूषणपर्याप्तिशक्तिवारणवाचकम्" इत्यमरः। अत्रोपमानोपमेयभूतमेघप्रासादधर्माणां विद्युदनितादीनां यथासंख्यमन्योन्यसादृश्यान्मेघप्रासादयोः साम्यसिद्धिरिति बिम्बप्रतिविम्बभावेनेयं पूर्णोपमा । वस्तुतो भिन्नयोः परस्परसादृश्यादभिन्नयोरुपमानोपमेयधर्मयोः पृथगुपादानाद्विम्बप्रतिबिम्बभावः ॥ १॥
(चारि० ) साम्प्रतमलकादर्शनकौतुकमुत्पादयन्नलकाज्ञानार्थमेनामेव वर्णयति-विद्युअन्तमिति । यत्रालकायां प्रासादा हाणितैस्तै विशेषैस्त्वां भवन्तं तुलयितुं सदृशीकर्तुमलं पर्याप्ताः । विशेषणद्वारेण तानेव विशेषानाह । कीदृशं त्वां विद्युद्विद्यते यस्य तम् । ललिता मोहरा वनिता येषु ते इति साम्यम् । इन्द्रचापेन सह वर्तत इति सेन्द्रचापम् । चित्रेणालेख्येन सह वर्तन्त इति साम्यम् । स्निग्धो मधुरो गम्भीरो धीरो घोषो गर्जितं यस्य स तम् । तथा सङ्गीतस्य नृत्यगीतवाद्यादित्रयस्यार्था हेतवः प्रहताश्च मुरजा येषु ते इति साम्यम् । अन्तर्गतं तोयं जलं वा यस्य स तम् । मणिमय्यो भुवो येषां त इति साम्यम् । तुङ्गमुन्नतम् । अभ्रमाकाशं लिहन्ति स्पृशन्ति अग्राणि येषां त इति साम्यम् । अभ्रं सुरानो डमरुरित्यथोम्बरमित्यभिधानचिन्तामणिः । अभ्रंलिह इति वहाभ्रेलिह इति खश् । तुलया सादृश्येन गृहातीत्यर्थे तुलाप्रातिपदिकाण्णिजन्तातुलयितुमिति रूपम् । तुल उन्मानेऽस्माञ्चुरादिकात्तोलयितुमिति स्यात्॥आलेख्याश्चर्ययोश्चित्रम् । अलं भूषणपर्याप्तिशक्ति वारणवाचकमित्यमरः ॥१॥
(भाव० ) हे मेघ ! अलकां प्राप्तस्य ते तत्रत्याः प्रासादा ललितवनितात्वादिभिर्धमें समानधर्माणो भवन्तस्त्वां तुलयिष्यन्ति ॥१॥ संप्रति सर्वदा सर्वर्तुसंपत्तिमाहहस्ते लीलाकमलमलके बालकुन्दानुविद्धं
. नीता लोध्रप्रसवरजसा पाण्डुतामानने श्रीः । चूडापाशे नवकुरबकं चारु कर्णे शिरीषं
सीमन्ते च स्वदुपगमजं यत्र नीपं वधूनाम् ॥२॥
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मेघदूत-उत्तरमेषः । ( सञ्जी० ) हस्त इति ॥ यत्रालकायां वधूनां स्त्रीणां हस्ते लीलाथ कमलं लीलाकमलम् ॥ शरलिङ्गमेतत् । तदुक्तम्- "शरत् पङ्कजलक्षणा” इति ॥ अलके कुन्तले ॥ जातावेकवचनम् ॥ अलकेष्वित्यर्थः । बालकुन्दैः प्रत्यग्रमाध्यकुसुमैरनुविद्धम् । अनुवेधो ग्रन्थनम् ॥ नपुंसके भावे क्तः ॥ यद्यपि कुन्दानां शैशिरत्वमस्ति "माध्यं कुन्दम्" इत्यभिधानात्तथापि हेमन्ते प्रादुर्भावः शिशिरे प्रौढत्वमिति व्यवस्थाभेदेन हेमन्तकार्यत्वमित्याशयेन वालेति विशेषणम् ॥ "अ
लकम्" इति प्रथमान्तपाठे सप्तमी प्रक्रमभङ्गः स्यात् । नाथस्तु नियतपुंलिङ्गताहानिश्चेति दो. षान्तरमाह । तदसत् । “स्वभाववक्राण्यलकानि तासाम्” । “निधूतान्यलकानि पाटितमुरः
कृत्स्नोऽधरः खडितः” इत्यादिषु प्रयोगेषु नपुंसकलिङ्गतादर्शनात् ॥ आनने मुखे लोध्रप्रसवानां लोध्रपुष्पाणां शैशिराणां रजसा परागेण । “प्रसवस्तु फले पुष्पे वृक्षाणां गर्भमोचन" इति विचः । पाण्डुतां नीता श्रीः शोभा ॥ चूडापाशे केशपाशे नवकुरबकं वासन्तः पुष्पविशेषः । कों चारु पेशलं शिरीष zष्मः पुष्पविशेषः । सीमन्ते मस्तककेशवीथ्याम् ॥ “सीमन्तमस्त्रियां मस्तकेशवीथ्यामुदाहृतम्" इति शब्दार्णवे ॥ तवोपगमः । मेघागम इत्यर्थः । तत्र जातं त्वदुपगमजम् । वार्षिकमित्यर्थः । नीपं कदम्बकुसुमम् । सर्वत्रास्तीति शेषः । अस्तिर्भवन्तीपरः प्रथमपुरुषेऽप्रयुज्यमानोऽप्यस्तीति न्यायात् । इत्थं कमलकुन्दादितत्तत्कायसमाहाराभिधानादर्थात्सर्वर्तुसमाहारसिद्धिः । कारणं विना कार्यस्यासिद्धेरिति भावः ॥ । यत्रोन्मत्तभ्रमरमुखराः पादपा नित्यपुष्पा हंसश्रेणीरचितरशना नित्यपद्मा नलिन्यः । केकोत्कण्ठा भवनशिखिनो नित्यभास्वत्कलापा नित्यज्योत्स्नाःप्रतिहततमोवृत्तिरम्याः प्रदोषाः। . (सजी०) यत्रेति ॥ यत्रालकायां पादपा वृक्षाः नित्यानि पुष्पाणि येषां ते तथा । नत्वतुनियमादिति भावः । अत एवोन्मत्तैर्धमरैर्मुखराः शब्दायमानाः । नलिन्यः पग्रिन्यो नित्यानिपानि यासां तास्तथा न तु हेमन्तवर्जितमित्यर्थः । अत एव हंसश्रेणीभी रचितरशनाः । नित्यं हंसपरिवेष्टिता इत्यर्थः। भवनशिखिनः क्रीडामयूरा नित्यं भास्वन्तः कलापा बर्हाणि येषांते तथोक्ताः । नतु वर्षास्वेव । अत एव केकाभिरुत्कण्ठा उद्ग्रीवाः । प्रदोषा रात्रयो नित्या ज्योत्स्ना येषां ते । न तु शुक्लपक्ष एव । अत एव प्रतिहता तमसा वृत्तिाप्तियेषां ते च ते रम्याश्चेति तथोक्ताः।
आनन्दोत्थं नयनसलिलं यत्र नान्यनिमित्तैनान्यस्तापः कुसुमशरजादिष्टसंयोगसाध्यात । नाप्यन्यस्मात्प्रणयकलहाद्विप्रयोगोपपत्तिवित्तेशानां न च खलु वयो यौवनादन्यदस्ति ।
( सञ्जी०) आनन्देति ॥ यत्रालकायां वित्तेशानां यक्षाणाम् ॥ "वित्ताधिपः कुबेरः स्यात्प्रभौ धनिकयक्षयोः" इति शब्दार्णवे॥ आनन्दोत्वमानन्दजन्यमेव नयनसलिलम् । अन्यैनिमित्तः शोकादिभिर्न । इष्टसंयोगेन प्रियजनसमागगेन साध्यानिवर्तनीयात् । न त्वप्रतीका
र्यादित्यर्थः । कुसुमशरजान्मदनशरजादन्यस्तापो नास्ति प्रणयकलहादन्यस्मात्कारणाद्विप्रयोपतिविरहप्राप्तिरपि नास्ति । कि च यौवनादन्यद्वयो वार्धकं नास्ति ॥ श्लोकद्वयंप्रक्षिप्तम् ॥ .
(चारि०) तस्याः परिज्ञानाय चिन्हान्तरमाह-हस्त इति-यत्रालकायां वधूनां सीमन्तिनीनां हस्ते कमलम् । उभयत्र जातावेकवचनम् । एतेन धनात्ययस्य नैकल्यं दर्शितम् । अलके कटिलकेशविन्यासे । इहापि जात्याख्यायामेकवचनम् । बालानां कुन्दानां कुन्दकम
अनबन्धः सम्बन्धोऽनेन हेमन्तस्य सन्निधिः । तथाऽऽननश्रीर्मुखश्रीमुखलक्ष्मी लोध्रस्य वक्षविशेषस्य प्रसवः पुष्पं तस्य रजसा परागेण पाण्डुतां गौरवत्त्वं नीता प्रापिता । एतेन शिशिराभ्यासः । चूडापाशे केशकलापे नवं कुरबकम् । अमुना वसन्तः । करें चारु रम्यं शिरीष शिरीषपुष्पम् । एतेन तपत्ताः सानिध्यम् । सीमन्ते केशसीनि च । नीपं कदम्बपुष्पं त्वदपगमजम् । तवोपगमात्प्रादुर्भूतम्। अनेन वर्षागमस्य सामीप्यम् । अत्र सुवर्णाद्याभरणसम्भारप
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५२ सीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहितेरिहारेण पुष्पादिधारणकथनेन च तवत्यानां नितम्बिनीनां सुकुमारत्वं नागरकत्वं चासुचि । वधूर्जाया स्नुषा स्त्रीचेत्यमरः । अलकं बालकुन्दानुविद्धमित्यसदृशः पाठः । अलकाश्चूर्णकुन्तला इति पुंस्त्वनिर्देशात् । प्रक्रमभङ्गन्दोषपोषप्रसङ्गाच्च । यद्यपि कुन्दपुष्पं शिशिरचिन्हं तथाऽपि हेमन्तस्यापि, हेमन्ते उत्पत्तेः । शिशिरे प्रौढीभावात् अतो बाल इति प्रयोगः । सर्वत्र जातावेकवचनं ज्ञेयम् ॥२॥
(चारि०) आनन्दोत्थमिति-यत्र पुरि वित्तेशानां यक्षाणां नयनसलिलं नेत्रजलं आनन्दोत्थं हर्षोत्पन्न अन्यैनिमित्तैः शोकसन्तापादिभिर्न । इष्टसंयोगेन साध्यानिवारणीयात् । कुसुमशरः कामः तस्माजातात्तापादन्यस्तापोन । प्रणयकलहादन्यत्र विप्रयोगस्य वियोगस्योपपत्तिः सद्भावो न । तथा यौवनादन्यद्वयश्च न खल्वस्ति ॥
(भाव) मेव ! यत्राऽलकायां विलासिनोना हस्ते कमलम् , केशपाशे कुन्दशोभा, मुखे लोध्रपरागलेपः चूडायां कुरवक, कण शिरीष सीमन्ते नीपं च समं सर्वर्तुसमाहारज्ञान जनयति तामलकां व्रज ॥२॥ यस्यां यक्षाः सितमणिमयान्येत्य हर्यस्थलानि
ज्योतिश्छायाकुसुमरचितान्युत्तमस्त्रीसहायाः । आसेवन्ते मधु रतिफलं कल्पक्षप्रसूतं
त्वद्गम्भीरध्वनिषु शनकैः पुष्करेष्वाहतेषु ॥ ३ ॥ (सञ्जी० ) यस्यामिति ॥ यस्यामलकायां यक्षा देवयोनिविशेषा उत्तमस्त्रीसहाया ललिताडनासहचराः सन्तः सितमणिमयानि स्फटिकमणिमयानि चन्द्रकान्तमयानि वा । अत एव ज्योतिषां तारकाणां छायाः प्रतिबिम्बान्येव कुसुमानि ते रचितानि परिष्कृतानि ॥ "ज्योतिस्तरानिभाज्वालाहपुत्रार्थाध्वरात्मसु" इति वैजयन्ती ॥ एतेन पानभूमेरम्लानशोभत्वमुक्तम् । हर्म्यस्थलान्येत्य प्राय । त्वद्गम्भीरध्वनिरिव ध्वनियेषां तेषु पुष्करेषु वाद्यभाण्डमुखेषु ॥"पुष्करं करिहस्ताग्रे वाद्यभाण्डमुखे जले” इत्यमरः॥शनकैर्मदमन्दमाहतेषु सत्सु॥ एतच्च नृत्यगीतयोरप्युपलक्षणम् ॥ कल्पवृक्षप्रसूत कल्पवृक्षस्य कातितार्थदत्वान्मध्वपि तत्र प्रसतम् । रतिः फलं यस्य तदतिफलाख्यं मधु मद्यमासेवन्ते । आदृत्य पिबन्तीत्यर्थः ॥ "तालक्षीरसितामृतामलगुडोन्मत्तास्थिकालाद्वयादाविन्दद्रुममोरटेक्षुकदलीगुल्मप्रसूनैर्युतम् । इत्थं चेन्मधुपुष्पभङ्गयुपचितं पुष्पद्रुमूलावृतं क्वाथेन स्मरदीपनं रतिफलाख्यं स्वादु शीतं मधु॥ इति मदिरार्णवे ॥३॥
(चारि०)भूयोऽपि वर्णनेन तमुत्साहयति । यस्यामिति-यस्यामलकायामुत्तमाः स्त्रियः सहाया येषां ते तादृशाः सन्तो यक्षा हयंस्थलानि एत्य प्राप्य पुष्करेषु वाद्यभाण्डमुखेषु शनकैराहतेषु सत्सु रतिः फलं यस्य तत् । कल्पवृक्षात्प्रसूतं जातं मधु मद्यमासेवन्ते आस्वादयन्ति । कीदृशाणि हर्यस्थलानि सितमणिमयानि । स्फटिकमणिरचितानि । अत एव ज्योतिषां नक्षत्राणां छायाः प्रतिबिम्बान्येव कुसुमरचनानि । कीदृशेषु पुष्करेषु तवेव गम्भीरो ध्वनियेषां तेषु "पुष्करं करिहस्ताग्रे वाद्यभाण्डमुखे जले व्योनि खड्गफले पदूमे तीथौषधिविशेषयोरित्यमरः ॥३॥
(भाव) हे मेघ ! यत्राऽलकायां स्त्रीसहचरा यक्षाः सितमणिमयानि हर्म्यस्थलान्यारा त्वद्गम्भीरध्वन्यात्मके पुष्करेऽभिहन्यमाने सति कल्पतरूद्भवं मद्यमासेवन्ते तां ब्रज ॥३॥ मन्दाकिन्याः सलिलशिशिरैः सेव्यमाना मरुद्भि.
मन्दाराणामनुतटरुहां छायया वारितोष्णाः ।
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मेघदूत - उत्तरमेघः ।
अन्वेष्टव्यैः कनकसिकतामुष्टिनिक्षेपगूढैः
५३
संक्रीडन्ते मणिभिरमरप्रार्थिता यत्र कन्याः ॥ ४ ॥
( सञ्जी० ) मन्दाकिन्या इति ॥ यत्रालकायाममरैः प्रार्थिताः । सुन्दर्य इत्यर्थः । कन्या यक्षकुमार्यः । “कन्या कुमारिकानार्योः" इति विश्वः ॥ मन्दाकिन्या गङ्गायाः सलिलेन शिशिरैः शीतलैर्मरुद्भिः सेव्यमानाः सत्यः । तथानुतरं तटेषु रोहन्तीत्यनुतटरुहः ॥ क्विप् ॥ तेषां मन्दाराणां छाययानातपेन वारितोष्णाः शमितातपाः सत्यः कनकस्य सिकतासु मुष्टिभिर्निक्षेपेण गूढैः संवृतैरत एवान्वेष्टव्यैर्मृग्यैर्मणिभी रतैः संक्रीडन्ते गुप्तमणिसंज्ञया दैशिकक्रीडया सम्यक् - क्रीडन्तीत्यर्थः ॥ "क्रीडोऽनुसंपरिभ्यश्च" इत्यात्मनेपदम् ॥ "रत्नादिभिर्वालुकादौ गुप्तैर्द्रष्टव्यकर्मभिः । कुमारीभिः कृता क्रीडा नाम्ना गुप्तमणिः स्मृता ॥ रासक्रीडा गूढमणिगुप्तकेलिस्तु लायनम् । पिच्छकन्दुकदण्डाद्यैः स्मृता दैशिककल्यः ॥” इति शब्दार्णवे ॥ ४ ॥
( चारि०) भूयोऽपि तां वर्णयति । मन्दाकिन्या इति यत्रालकायां कन्या अन्वेष्टव्यैर्गवपणीयैः कनकमयीषु सिकतासु वालुकासु मुष्टिनिक्षेपेण गूढैर्गुप्तैर्मणिभिः कृत्वा सङ्क्रीडन्ते दीव्यन्ति । कीदृश्यः अमरैः प्रार्थिता याचिताः । तथा मन्दाकिन्याः सलिलेन शिशिरैः शीतलैर्मरुद्भिः पवनैः सेव्यमानाः । तये अनुतटं रोहन्तीति रुहस्तेषां मन्दाराणां कल्पतरूणां छायया वारितोष्णाः । सङ्क्रीडन्त इति " क्रीडोनुपसंपरिभ्यश्चेति" तङ् ॥ ४ ॥
I
( भाव० ) हे मेघ ! यत्र सुरप्रार्थितसौन्दर्या यक्षकन्या मन्दाकिनीपुलिने तत्रत्यैः शीतैवतैः सेव्यमानास्तटभुवां मन्दाराणां छायासु कनकसिकतासु मणि निक्षिप्य तदन्वेषणक्रीडां क्रीडन्ति तामलकां व्रज ॥ ४ ॥
नीवीबन्धोच्छ्वसितिशिथिलं यत्र बिम्बाधराणां क्षौमं रागादनिभूतकरेष्वाक्षिपत्सु प्रियेषु । अचिस्तुङ्गानभिमुखमपि प्राप्य रत्नप्रदीपान् ह्रीमूढानां भवति विफलमेरणा चूर्णमुष्टिः ॥ ५ ॥
( सञ्जी०) नीवीति ॥ यत्रा लकायामनिभृतकरेषु चपलहस्तेषु प्रियेषु । नीवी वसनग्रन्थिः ॥ " नीवी परिपणे ग्रन्थों स्त्रीणां जवनवाससि" इति विश्वः ॥ सैव बन्धो नीवीबन्धः ॥ चूतवृक्षवदपौनरुक्त्यम् ॥ तस्योच्छ्वसितेन त्रुटितेन शिथिलं क्षौमं दुकूलं रागादाक्षिपत्स्वाहरत्सु सत्सु arti farणाम् । बिम्बं बिम्बिकाफलम् ॥ "बिम्बं फले बिम्बिकायाः प्रतिबिम्बे च मण्डले" इति विश्वः ॥ बिम्बमिवाधरो यासां तासां बिम्बाधराणाम् "विशेषाः कामिनीकान्ताभीरुविम्बाधराङ्गनाः” इतिशब्दाचे ॥ चूर्णस्य कुङ्कुमादेर्मुष्टिः । अर्चिभिर्मयूखैस्तुङ्गान् “अचिर्मयूख शिखयोः" इति विश्वः ॥ रत्नान्येव प्रदीपानभिमुखं यथा तथा प्राप्यापि विफलप्रेरणा दीपनिर्वापणाक्षमत्वान्निष्फलयेगा भवति ॥ अत्राङ्गनानां रखप्रदीपनिर्वापणप्रवृत्या मौध्यं व्यज्यते ॥ ५ ॥
1
( चारि० ) लिङ्गान्तरेण पुनरपि तां ज्ञापयति । नीवीति - यत्रालकायां कामादनिभृता व्याप्रियमाणा येषु तेषु प्रियेषु वल्लभेषु नीवीबन्धः परिधानवासो विन्यासविशेषस्तस्योच्छ्वसितेन विकासेन शिथिलं वासो वस्त्रमाक्षिपत्सु सत्सु हीमूढानां लज्जामुग्धानां यक्षाङ्गनानां चूर्णमुष्टिर्मुष्टिमुखा वास कर्पूरादिर्विफलप्रेरणा भवति । किं कृत्वा अर्चिस्तुङ्गान् दीप्तिभिरुच्चान् रत्नान्येव दीपास्तानभिमुखं प्राप्य । कोऽर्थः । मुग्धा यक्षाङ्गनाः सुरतक्षणे दीपशमनाय चूर्णंमुष्टि प्रक्षिपन्ति । रत्नदीपानां विनाशाभावाद्विफला भवन्तीति भावः ॥ ५ ॥
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५४ सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहिते
(भाव० ) हे मेघ ! यत्र प्रियै रागादपहृतांशुकाः स्त्रियो लज्जिताः सत्यो सम्मुखस्थान रखदीपान निर्वापयितुं न प्रभवन्ति ॥ ५ ॥ नेत्रा नीताः सततगतिना यद्विमानाप्रभूमी.
रालेख्यानां नवजलकणैर्दोषमुत्पाद्य सद्यः । शङ्कास्पृष्टा इव जलमुचस्त्वादृशा जालमाग:
धूमोद्गारानुकृतिनिपुणा जर्जरा निष्पतन्ति ॥ ६ ॥ ( सजी० ) नेत्रेति ॥ हे मेघ, नेत्रा प्रेरकेण सततगतिना सदागतिना वायुना ॥ "मातरिचा सदागतिः” इत्यमरः ॥ यस्या अलकाया विमानानां सप्तभूमिकभवनानामग्रभूमीपरिभूमिका नीताः प्रापिताः । त्वमिव दृश्यन्त इति त्वादृशा इत्यर्थः ॥ "त्यदादिषु दृशोऽनालोचने कन्च” इति कन्प्रत्ययः ॥ जलमुचो मेघाः । आलेख्यानां सच्चित्राणाम् । “चित्रं लिखितरूपाढयं स्यादालेख्यं तु यत्नतः" इति शब्दाणवे ॥ नवजलकणेदोष स्फोटनमुत्पाद्य सद्यः शशस्पृष्टा इव सापराधत्वाद्याविष्टा इव ॥ “शडा वितर्कभययोः” इति शब्दार्णवे ॥ धूमोद्गारस्य धूमनिर्गमस्यानुकृतावनुकरणे निपुणा कुशला । जर्जरा विशीर्णाः सन्तो जालमागेंर्गवाक्षरन् निष्पतन्ति निष्कामन्ति ॥ केनचिदन्तःपुरसंचारवता दूतेनगूढवृत्या रहस्यभूमि प्रापितास्तत्र स्त्रीणां व्यभिचारदोषमुत्पाद्य सद्यः साशकाः क्लुप्तवेषान्तरा जाराः क्षुद्रमार्गनिष्कामन्ति तद्वदिति ध्वनिः । प्रकृतार्थे शङ्कास्पृष्टा इवेत्युत्प्रेक्षा ॥६॥
(चारि०) नेत्रेति--भो मेघ यत्र त्वमिव दृश्यन्ते त्वादृशा जलस्य लवं कणिका मुञ्चन्तीतिजललवमुचो नेवा प्रापकेन सततगतिना मरुता विमानाः सप्तभूमिकाः प्रासादाः तेषामग्रभूमि नीताः प्रापिताः सन्तः । आलेख्यानां तत्रत्यचित्राणां सलिलस्य कणिका लवास्ताभिदर्षि नाशरूपमुत्पाद्य सद्यः शङ्कास्पृष्टाः । चित्रविनाशं विलोक्यास्मान् कोऽपि ग्रहीष्यतीति शङ्मानाः । धूमस्योद्वारा निर्गमस्तस्यानुकृतिषु अनुसरणे निपुणाः समर्था । जर्जराः सन्तो यत्र जालैर्मुरजबन्धादिजालनिष्पतन्ति निर्गच्छन्ति ॥६॥
(भाव० ) हे मेघ ! यथा केनचिदन्तःपुरसञ्चारवता पुरुषेण गूढवृत्त्या रहस्यभूमि प्रापितास्तत्र स्त्रीणां व्यभिचारदोषमुत्पाद्य सद्यः साशकाः क्लप्तवेषान्तरा जाराः क्षुद्रमार्गेनिकामन्ति, तथा वायुना यत्प्रासादेषु प्रापितास्तत्र जलकर्णरालेख्यदोषमुत्पाद्य शङ्कास्पृष्टा इव त्वादृशो मेवा जालमार्गनिष्पतन्ति तामलकां व्रज ॥ ६॥ यत्र स्त्रीणां प्रियतमभुजालिङ्गनोच्छ्वासिताना
मङ्गग्लानि सुरतजनितां तन्तुजालावलम्बाः । त्वत्संरोधापगमविशदैश्चन्द्रपादैनिशीथे
व्यालुम्पन्ति स्फुटजललवस्यन्दिनश्चन्द्रकान्ताः ॥ ७॥ (सभी ) यत्रेति ॥ यत्रालकायां निशीथेऽर्धरात्रे ॥ "अर्धरात्रनिशीथौ द्वौ” इत्यमरः ॥ त्वत्संरोधस्य मेघावरणस्यापगमेन विशदैनिर्मलेश्चन्द्रपादैश्चन्द्रमरीचिभिः ॥ “पादा रश्म्यनितोशामा इत्यमरः॥ स्कुटजललवस्यन्दिन उल्वणाम्बुकणस्राविणस्तन्तुजालावलम्बा वितानलम्बिसनपुञ्जाधाराः । तद्गुणगुम्फिता इत्यर्थः । चन्द्रकान्ताश्चन्द्रकान्तमणयः । प्रियतमानां भुजैरालिङ्गानेपूच्च्छ्वासितानां प्रशिथिलीकृतानाम् । श्रान्त्या जलसेकाय वा शिथिलितालिङ्गानानामिति यावत् । स्त्रीणां सुरतजनितामङ्गग्लानि शरीरखेदम् । अवयवानां ग्लानतामिति यावत् । व्यालुम्पन्त्यपनुदन्ति ॥ ७ ॥
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मेघदूत-उत्तरमेषः ।
५५ (चारि०) भूयोऽपि चिन्हान्तरेण ज्ञापयति । यत्रेति--यत्रालकायां तन्तुमयं जालं तन्तुजालमानायस्तवावलम्बन्ते प्रासादानामुपरितनेषु भागेषु चन्द्रमणिबन्धरचना तन्तुजालस्थिता इति भावः । तव रोधस्यापगमे सति विशदैश्चन्द्रस्य पादैमयूखैनिशीथे रजन्यां स्फुटान जललवान् स्यन्दिनश्चन्द्रकान्ताः प्रियतभुजोच्छ्वासितानां प्रियतमभुजहढालिङ्गितानामित्यर्थः । स्त्रीणां सुरतजनितामङ्गग्लानि व्यालुम्पन्ति नाशयन्ति । जालं समूहआनायगवाक्षक्षारकेष्वपीत्यमरः । यन्त्रजालेति पाठे यन्त्राणि पुत्रिकाप्रभृतीनि तद्युक्तेषु जालेषु लम्बमाना इति ॥७॥
(भाव० ) हे मेघ ! यन्त्र निशीथे चन्द्रसम्बन्धेन क्षरन्तो भवनचन्द्रकान्ता उद्दामक्रीडाकान्तानां स्त्रीणां सुरतश्रमं हरन्ति तालमकां बजेः ॥ ७॥ ... अक्षय्यान्तभवननिधयः प्रत्यहं रक्तकण्ठ
रुद्रायद्भिर्धनपतियशः किंनरैर्यत्र सार्धम् । वैभ्राजाख्यं विबुधवनितावारमुख्यासहाया
बद्धालापा बहिरुपवनं कामिनो निर्विशन्ति ॥ ८ ॥ (सञ्जी० ) अक्षय्येति॥ यत्रालकायाम् । क्षेतुं शक्याः क्षय्याः ॥ "अय्यजय्यौ शक्याथें" इति निपातः । ततो नभ्समासः ॥ भवनानामन्तरन्तवनम् ॥ "अव्ययं विभक्ति-" इत्यादिनाव्ययीभावः ॥ अक्षय्या अन्तर्भवने निधयो येषां ते तथोक्ताः ॥ यथेच्छाभोगसंभावनार्थमिदं विशेषणम् ॥ विबुधवनिता अप्सरसस्ता एव वारमुख्या वेश्यास्ता एव सहाया येषां ते तथोक्ताः॥ "वारस्त्री गाणिका वेश्या रूपाजीवाथ सा जनैः । सत्कृता वारमुख्या स्यात्" इत्यमरः ॥ बद्धालापाः संभावितसंलापाः कामिनः कामुकाः प्रत्यहमहन्यहनि ॥ "अव्ययं विभक्ति-" इत्यदिना समासः । रक्तो मधुरः कण्ठः कण्ठध्वनिर्येषां ते तैः सुन्दरकण्ठध्वनिभिर्धनपतियशः कुबेरकोर्तिमुद्गायद्भिरुच्चैर्गायनशीलैः । देवगानस्य गान्धारग्रामत्वात्तारतरं गायद्भिरित्यर्थः ॥ किंनरैः साधं सह । विभ्राजस्येदं वैभ्राजमित्याख्या यस्य तद्वैभ्राजाख्यम् ॥ "विभ्राजेन गणेन्द्रेण जातं वैभ्राजमाख्यया” इति शंभुरहस्ये॥ चैत्ररथस्य नामान्तरमेतत् । बहिरुपवनं बाह्योद्यानं निर्विशन्त्यनुभवन्ति ॥ ८॥
(भाव० ) हे मेघ ! यत्र सुरस्त्रीसहचराः धनिनः कामिनो गायकैः किन्नरैः सह वैभ्राजाख्यं बाझोपवनं प्रविशन्ति ॥ ८॥
गत्युत्कम्पादलकपतितैयंत्र मन्दारपुष्पैः .. पत्र(१)च्छेदैः कनकमलैः कर्णविभ्रंशिभिश्च । मुक्ताजालैः स्तनपरिसरच्छिन्नमूत्रैश्च हारैः
शो मार्गः सवितुरुदये मुच्यते कामिनीनाम् ॥९॥ ( सञ्जी०) गतीति ॥ यत्रालकायां कामिनीनामभिसारिकाणाम् । निशि भवो नै शो मार्गः सवितुरुदये सति गत्या गमनेनोत्कम्पश्चल में तस्माद्धेतोरलकेभ्यः पतितैर्मन्दारपुष्पैः सुरतरुकुसुमैः । तथा पत्राणां पत्रलतानां छेदैः खण्डैः । पतितैरिति शेषः ॥ तथा कर्णेभ्यो विभ्रश्यन्तीति कर्णविनंशीनि तैः कनकस्य कमलैः। षष्ट्या विवक्षितार्थलाभे सति मयटा विग्रहेऽध्याहारदोषः । एवमन्यत्राप्यनुसंधेयम् ॥ तया मुक्ताजालैमौक्तिकसरैः। शिरोनिहितैरित्य
(१) "क्लप्सच्छेद्यैः कनककसलैः कर्लविभ्रशंभिश्च । मुक्तालग्नस्तनपरिमलैश्छिन्नसूत्रैश्च-1 हारैः" इति चारित्रवर्धनीटीकानुसृतः पाठ इति सम्पादकः ।
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सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहितर्थः । तथा स्तनयोः परिसरः प्रदेशस्तत्र छिन्नानि सूत्राणि येषां तैहारैश्च सूच्यते ज्ञाप्यते । मार्गपतितमन्दारकुसुमादिलिङ्रयमभिसारिकाणां मार्ग इत्यनुमीयत इत्यर्थः ॥९॥
(चारि०) पुनरप्येनां वर्णयति । गतीति-यत्रालकायां सवितुरादित्यस्योदये एभिः कामिनीनां स्त्रीणां नैशो निशासम्बन्धी मार्गः सूच्यते ज्ञाप्यते इत्यर्थः । एभिः कैरित्याह । गतेर्गमनात् उत्कम्पस्तस्मादलकेभ्यः पतितः सस्तैर्मन्दारपुष्पैः सुरतकुसुमैस्तथा क्लुप्त रचितं छेदूयं छेदो येषां तैः कनकमलेहेमपद्मैः । कीदृशैः कर्णभ्यो वित्रंसिभिश्च्युतहारैश्च कि विशिष्टैः । मुक्तासु मौक्तिकेषु लग्नः स्तनानां कुचानां परिमलः सौगन्ध्यं येभ्यस्ते तैः। छिन्नानि त्रुटितानि सूत्राणि तन्तवो येषां तैः ॥९॥ । ( भाव० ) ययालकायां मार्गे च्युतैर्मन्दारपुष्पकर्णाभरणहारमुक्तादिभिः सूर्योदये ऽभिसारिकाणां गमनमनुमीयत तामलकां व्रज ॥९॥ मत्वा देवं धनपतिसखं यत्र साक्षाद्वसन्तं
प्रायश्चापं न वहति भयान्मन्मथः षट्पदज्यम् । सभ्रूभङ्गप्रहितनयनैः कामिलक्ष्येष्वमोधै
स्तस्यारम्भश्चतुरवनिताविभ्रमैरेव सिद्धः ॥ १० ॥ (सञ्जी०) मत्वेति ॥ यत्रालकायां मन्मथः कामः । धनपतेः कुबेरस्य सखेति धनपतिसखः ॥ "राजाहःसखिभ्यष्टच्" ॥ तं देव महादेवं साक्षाद्वसन्तं सखिस्नेहान्निजरूपेण वर्तमान मत्वा ज्ञात्वा भयाद्भालेक्षणभयात्षट्पदा एव ज्या मौर्वी यस्य तं चापं प्रायः प्राचुर्येण न वहति न बिभर्ति ॥ कथं तर्हि तस्य कार्यसिद्धिरत आह-सभ्रूभङ्गेति ॥ तस्य मन्मथस्यारम्भः कामिजनविजयव्यापारः सभ्रूभङ्ग प्रहितानि प्रयुक्तानि नयनानि दृष्टयो येषु तैस्तथोक्तः कामिन एव लक्ष्याणि तेष्वमोधैः । सफलप्रयोगॅरित्यर्थः । मन्मथचापोऽपि क्वचिदपि मोवः स्यादिति भावः ॥ चतुराश्च ता वनिताश्च तासां विभ्रमैविलासैरेव सिद्धो निष्पन्नः। यदनर्थकरं पाक्षिकफलं च तत्प्रयोगावर निश्चितसाधनप्रयोग इति भावः ॥१०॥
(चारि० ) मत्वेति-यत्र पुयीं धनपतेर्धनदस्य सखा त महेशं साक्षात्प्रत्यक्ष वसन्त तिष्ठन्तं मत्त्वा प्राय उत्प्रेक्षायामव्ययम् । भयात् तृतीयनेत्रवन्हिभीतेः षट्पदा भ्रमरा एव ज्या यस्य तं चापं न वहति न दधाति मयि तमुद्देशं प्राप्ते स्मरपीडा कथं भवित्रीत्याशङ्याह । तस्य स्मरस्यारम्भः प्रवृत्तिः सभ्रूभङ्ग भ्रूकुटिलं यथा स्यात्तथा प्रहितनयनैः प्रेषितनेत्रैः कामिन एव लक्ष्याणि शरव्यानि तेषु । अमोघेः सफलैश्चतुराणां वनितानां विभ्रमविलासैरव सिद्धो निष्पन्नो भवेत् । “मन्ये शके ध्रुवं प्रायो नूनमित्येवमादिभिः । उत्प्रेक्षा व्यज्यते शब्दैरिव शब्दोऽपितादशः।" इति दण्ड्यलारे ॥१०॥
(भाव०) हे मेघ ! यत्राऽलकायां कामोऽपि शिवं स्वयं स्थितं दृष्ट्वा तद्भीत्या भ्रमरमौर्वीके स्वं चापं न वहति, किन्तु चतुरस्त्रीनेत्रविलासैरेव तत्कायं साधयति तामलकां व्रज ॥१०॥
"कचधाय देहधार्य परिधेयं विलेपनम् । चतुर्धा भूषणं प्राहुः स्त्रीणां मन्मथदेशिकम् ॥" इति रसाकरे । तदेवैतदाहवासश्चित्रं मधु नयनयोर्विभ्रमादेशदक्षं
पुष्पोद्भेदं सह किसलयभूषणानां विकल्पान् । लाक्षारागं चरणकमलन्यासयोग्यं च यस्या
मेकः सूते सकलमवलामण्डनं कल्पवृक्षः ॥ ११ ॥
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मेघदूत-उत्तरमेघः। ( सञ्जी० ) वास इति ॥ यस्यामलकायां चित्रं नानावण वासो वसनम् । परिधयमण्डनमेतत्। नयनयोविभ्रमाणादेश उपदेशे दक्षम् । अनेन विभ्रमद्वारा मधुनो मण्डनत्वमनुसंधेयम् । यच्च मण्डनादिवदेहधायेंऽन्तर्भाव्यम् । मधु मद्यम् । किसलयैः पल्लवैः सह पुष्पोद्भेदम् । उभयं चेत्यर्थः । इदं तु कचधार्यम् । भूषणानां विकल्पान्विशेषान् । देहधार्यमेतत् । तथा चरणकमलयोासस्य समर्पणस्य योग्यम् । रज्यतेऽनेनेति रागोरक्षकद्रव्यम् । लाक्षय रागस्तं लाक्षारागं च ॥ चकारोऽङ्गारागादिविलेपनमण्डनोपलक्षणार्थः ॥ सकलं सर्वम् । चतुर्विधमपीत्यर्थः । अबलामण्डनं योषित्प्रसाधनजातमेकः कल्पवृक्ष एव सूते जनयति । न तु नानासाधनसंपादनप्रयास इत्यर्थः ॥११॥
(भाव० ) हे मेघ ! यत्रालकायां प्रतिगृहं वर्तमान एकः कल्पवृक्ष एव स्त्रीणां कृते विचित्रवस्त्राङ्गरागादि सकलं मण्डनं सम्पादयति ॥ ११॥
इत्थमलकां वर्णयित्त्वा तत्र स्वभवनस्याभिज्ञानमाहतत्रागारं धनपतिगृहानुत्तरणास्मदीयं
दूराल्क्ष्यं सुरपतिधनुश्वारुणा तोरणेन । तस्योपान्ते कृतकतनयः कान्तया वर्धितो मे
हस्तप्राप्यस्तबकनमितो बालमन्दारवृक्षः ॥ १२ ॥ (सजी० ) तत्रेति ॥ तत्रालकायां धनपतिगृहात्कुबेरगृहादुत्तरेणोत्तरस्मिन्नदूरदेशे॥ "एनबन्यतरस्यामदूरेऽपञ्चम्याः" इत्येनप्प्रत्ययः । “एनपा द्वितीया” इति द्वितीया ॥ "गृहाः पुंसि च भूमन्येव” इत्यमरः॥ अथवा "उत्तरेण" इति नैनप्प्रत्ययान्तं किंतु "तोरणेन" इत्यस्य विशेषणं तृतीयान्तम् ॥ धनपतिगृहादुत्तरस्यां दिशि यत्तोरणं बहिरं तेन लक्षितमित्यर्थः । अस्माकमिदमस्मदीयम् ॥ "वृद्धाच्छः" इति पक्षे छप्रत्ययः ॥ अगारं गृहम् । सुरपतिधनुश्वारुणा मणिमयत्वाभंकपत्वाच्चेन्द्रचापसुन्दरेण तोरणेन । दूराल्लक्ष्य हश्यम् । अनेनाभिज्ञानेन दूरत एवं ज्ञातुं शक्यमित्यर्थः ॥ अभिज्ञानान्तरमाह-यस्यागारस्योपान्ते प्राकारान्तःपार्श्वदेशे में मम कान्तया वर्धितः पोषितः कृतकतनयः कृत्रिमसुतः । पुत्रत्वेनाभिमन्यमान इत्यर्थः ॥ हस्तेन प्राप्यैर्हस्तावचेयैः स्तबकच्छैनमितः ॥ "स्याद्गुच्छकस्तु स्तबका" इत्यमरः ॥ बालो मन्दारवृक्षः कल्पवृक्षोऽस्तीति शेषः ॥ १२ ॥
(चारि०) तत्र स्वालयं ज्ञापयितुमाह । तत्रेति--तत्र पुरि धनपतेः कुबेरस्य गृहादुत्तरेणोत्तरतः समीपे ऽस्मदीयं यदागार गृहम् । कीदृशं सुरपतिधनुरिन्द्रचापवच्चारणा मनोजेन तोरणेन दूराल्लक्ष्यम् यस्य गृहस्योद्याने कृतकश्चासौ तनयश्च मे मम कान्तया वल्लभया वर्द्धितः। उदकसेकादिना वृद्धि प्रापितो हस्तेन प्राप्तुं शक्याश्चते स्तबका गुच्छास्तैनमितो बालमन्दारवृक्षोऽस्ति। उत्तरेणेति एनबन्यतरस्यामदूरेऽपञ्चम्या इत्येनप् । अव्ययम् । एनपाद्वितीयेति द्वितीया १२ _(भाव०) हे मेघ ! तत्रालकायां कुबेरप्रासादादुत्तरभागे चारु तोरणाङ्कितं मम गृहमस्ति । यदबहिर्मम कान्तया वद्धितो बालमन्दारतरुः परिचायको वर्तते ॥१२॥ इतः परं चतुर्भिः श्लोकैरभिज्ञानान्तरमाहवापी चास्मिन्मरकतशिलाबद्धसोपानमार्गा
हैमैश्छन्ना विकचकमलैः स्निग्धवैदूर्यनालैः । यस्यास्तोये कृतवसतयो मानसं सन्निकृष्टं
नाध्यास्यन्ति व्यपगतशुचस्त्वामपि प्रेक्ष्य हंसाः ॥१३॥ ८ मेघ०
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५८ सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहिते
(सजी० ) वापीति ॥ अस्मिन्मदीयागारे मरकतशिलाभिर्बद्धः सोपानमार्गा यस्याः सा तथोक्ता । विदुरे भवा वैदूर्याः । “विदुराज्यः" इति ज्यप्रत्ययः ॥ वैदूर्याणां विकारा वैदूर्याणि ॥ विकारार्थेऽ णप्रत्ययः ॥ स्निग्धाणि वैदूर्याणि नालानि येषां तहमैर्विकचकमलैश्छन्ना वापी च । अस्तीति शेषः ॥ यस्या वाप्याल्तोये कृतवसतयः कृतनिवासा हंसास्त्वां मे प्रेक्ष्यापि व्यपगतशुचो वर्षाकालेऽपि व्यपगतकलुषजलत्वाद्वीतदुःखाः सन्तः संनिकृष्ट संनिहितम् । सुगममपीत्यर्थः । मानसं मानससरो नाध्यास्यन्ति नोत्कण्ठया स्मरिष्यन्ति ॥ "आध्यानमुत्कण्ठापूर्वकं स्मरणम्” इति काशिकायाम् ॥ १३ ॥
(चारि०) चिन्हान्तरेण गृहं ज्ञापयति। वापीति-अस्मिन् वापी दीर्घिका चास्ति । कीहशी। मरकतान्येव शिलास्ताभिर्बद्धः सोपानमागी यस्याः सा । हेन इमानि तैर्विकचकमलैविकसितपजैश्छन्ना व्याप्ता । कीदृशैः स्निग्धानि द्युतिमन्ति वैदूर्याणि विदररत्नमयानि नालानि येषां तैः । न केवलं बालमन्दारवृक्ष एव । वापी चेति चकारार्थः। यस्या वाप्यास्तोये कृतकवसतयो हंसा व्यपगता शुक् शोको येषां ते त्वां भवन्तं प्रेक्ष्यापि सन्निकृष्ट समीपं मानसं सरो न ध्यास्यन्ति न स्मरिष्यन्ति । तोयग्रहणं प्रावृट्कालेऽपि नीरस्य प्रसादातिशयसूचनार्थम् ॥ १३ ॥
(भाव०) हे मेघ ! मद्भवनस्थायां निर्मलजलायां वाप्यां वसन्तो हंसास्त्वामागतं वीक्ष्याऽपि मानसं न गमिष्यन्ति ॥ १३ ॥ तस्यास्तीरे रचितशिखरः पेशलैरिन्द्रनीलैः
क्रीडाशैलेः कनकदकलीवेष्टनप्रेक्षणीयः। मद्गहिन्याः प्रिय इति सखे चेतसा कातरेण
प्रेक्ष्योपान्ता फुरिततडितं त्वां तमेव स्मरामि ॥ १४ ॥ (सक्षी०) तस्या इति॥ तस्या वाप्यास्तीरे पेशलै श्रारुभिः॥"चारौ दक्षे च पेशलः" इत्यमरः। इन्द्रनील रचितशिखरः । इन्द्रनीलमणिमयशिखर इत्यर्थः । कनककदलीनां वेष्टनेन परिधानेन प्रेक्षणीयो दर्शनीयः क्रीडाशैलः । अस्तीति शेषः । हे सखे ! उपान्तेपु प्रान्तेषु स्फुरितास्तडितो यस्य तत्तथोक्तम् । इदं विशेषणं कदलीसाम्यार्थमुक्तम् । इन्द्रनीलसाम्य तु मेघस्य स्वाभाविकमित्यनेन सूच्यते । त्वां प्रेक्ष्य मद्गेहिन्याः प्रिय इति हेतोः । तस्य शैलस्य मद्गृहिणीप्रियत्वाद्धेतोरित्यर्थः । कातरेण भीतेन चेतसा । भयं चात्र सानन्दमेव । "वस्तूनामनुभूतानां तुल्यश्रवणदर्शनात् । श्रवणात्कीर्तनाद्वापि सानन्दा भीर्यथा भवेत् ॥" इति रसाकरे दर्शनात्। तमेव क्रीडाशैलमेव स्मरामि । एवकारो विषयान्तरव्यवच्छेदार्थः । सदृशवस्त्वनुभवादिष्टार्थस्मृतिर्जायत इत्यर्थः । अत एवात्र स्मरणाख्योऽलंकारः । तदक्तम"सहशानुभवादन्यस्मृतिः स्मरणमुच्यते” इति । निरुक्तकारस्तु "त्वां तमेव स्मरामिण इति योजयित्वा मेघे शैलत्वारोपमाचष्टे तदसंगतम् । असल्यापारारोपरय पुरोवर्तिन्यनुभवात्मकत्वेन स्मरतिशब्दप्रयोगानुपपत्तेः शैलत्वभावनास्मृतिरित्यपि नोपपद्यते । भावनायाः स्मृतित्वे प्रमाणाभावादनुभवायोगात्सादृश्योपन्यासस्य वैयर्थ्याच्च विसदृशेऽपि शालिग्रामे हरिभावनादर्शनादिति ॥१४॥
(चारि०) वापीमेव निरूपयन्नाह । तस्या इति-तस्या वाप्यास्तीरे तटे क्रीडाशैलः पर्वतोऽस्ति । कीदृशः पेशलैः रम्यैरिन्द्रनीलविहितानि शिखराणि यस्य स तथा। कनककदलीनां वेष्टनेन वृत्या प्रेक्षणीयः । हे सखे मित्र ! मद्गेहिन्याः प्रिय इति स्मृतित्वे कारणं संस्कारोबोधहेतुः। 'सदृशदृष्टचिन्ताद्या' इत्युक्तत्वादिन्द्रनीलशिखरेण कदलीवेष्टितेन पर्वतेन
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मेघदूत-उत्तरमेघः । विद्युत्त्वाकृष्टमेघसदृशः ॥ १४ ॥
(भाव० )हे मेघ ! तख्या वाप्यास्तीरे सुन्दरः कनककदलीयेष्टितः क्रीडाशैलोऽस्ति, विद्युद्विलासमहितं त्वां तमेव शैलमह मन्ये ॥ १४ ॥ रक्ताशोकश्चलकिसलयः केसरश्चात्र कान्तः
प्रत्यासन्नौ कुरबकवृतेमाधवीमण्डपस्य । एकः सख्यास्तव सह मया वामपादाभिलाषी
__काङ्गत्यन्यो वदनमदिरां दोहदच्छद्मनास्याः ॥ १५ ॥ ( सञ्जी० ) रक्तति ॥ अन्त्र क्रीडाशैले।कुरबका एव वृतिरावरणं यस्य तस्य । मधौ वसन्ते भवा माधव्यस्तासां मण्डपस्तस्यातिमुक्तलतागृहस्य । “ अतिमुक्तः पुण्ड्रकः स्याद्वासन्ती माधवी लता" इत्यमरः । प्रत्यासन्नौ संनिकृष्टौ चलकिसलयश्चञ्चलपल्लवः । अनेन वृक्षस्य पादताडनेषु प्राञ्जलित्वं व्यज्यते । रक्ताशोकः । रक्तविशेषणं तस्य स्मरोद्दीपकत्वादक्तम् । "प्रसूनकैरशोकस्तु श्वेतो रक्त इति द्विधा । बहुसिद्धिकरः श्वेतो रक्तोऽत्र स्मरवधनः ।" इत्यशोककल्पे दर्शनात् । कान्तः कमनीयःकेसरो बकुलश्च । “अथ केसरे । बकुलो वजुलः' इत्यमरः । स्त इति शेषः । एकस्तयोरन्यतरः । प्राथमिकत्वादशोक इत्यर्थः । मया सह तब सख्याः । स्वप्रियाया इत्यर्थः । वामपादाभिलाषी । दोहदच्छमनेत्यत्रापि संबन्धनोयम् । स चाहं च । अभिलाषिणावित्यर्थः । अन्यः केसरः । दोहदं वृक्षादीनां प्रसवकारणं संस्कारद्रव्यम् । “तरुाल्मलतादीनामकाले कुशलैः कृतम् । पुष्पायुत्पादक द्रव्यं दोहदं स्यात्त तक्रिया ॥” इति शब्दार्णवे । तस्य छद्मना व्याजेन । "कपटोऽस्त्री व्याजदम्भोपधयश्छदम कैतवे” इत्यमरः । अस्यास्तव सख्या वदनमदिरां गण्डूषमा काङ्क्षति । मया सहेत्यत्रापि संबन्धनीयम् । अशोकाकुलयाः स्वीपादताडनगण्डूपमदिरे दोहदमिति प्रसिद्धिः॥ "स्त्रीणां स्पर्शात्प्रियङ्गुर्विकसति बकुलः सीधुगण्डूपसेकात्पादाघातादशोकस्तिलककुरबको वीक्षणालिङ्गानाभ्याम् । मन्दारो नर्मवाक्यात्पटुमृदुवसनाच्चम्पको वक्त्रवाताच्चूतो गीतान्नमेरुविकसति च पुरो नर्तनात्कर्णिकारः" ॥१५॥
(चारि०) रक्तेति । तत्र गृहे चलानि किसलयानि पल्लवा यस्य स तथा। रक्तश्वासावशोकश्च कान्तः केसरो बकुलश्च कुरबका वृक्षविशेषाश्चावृतिरावरणं यस्य माधव्या वासन्त्या मण्डपस्य प्रत्यासन्नौ समीपत्तिनी तिष्ठतः । तयोर्मध्ये एकोऽशोको दोहदमेव छम व्याजस्तेन मया सह तव सख्या वल्लभाया वामपादाभिलाषी वामचरणाभिलाषुकः । यथाऽहं सापराधः पादप्रसादं वान्छामि । तद्वदित्यर्थः । अन्यः केसरो दोहदछमना मत्प्रियाया मया सह वदनमदिरां मुखमद्यमाकाङ्क्षति । यथाहं स्नेहेनाननासवमाकाङ्क्षामि तथायमपीत्यर्थः । स्त्रीचरणप्रहारेणाशोकस्य योषामुखसीधुवितरणेन केसरस्य वहलकुसुमाद्युत्पत्तिः ॥ १६ ॥
(भाव० )हे मेव ! तत्र क्रीडाशैले रक्ताशोको बकुलश्चाऽस्ति । तत्रैकः तव सख्या वामपादाघातं, अन्यो मुखमदिरागण्डूषं चापेक्षते ॥ १५ ॥ तन्मध्ये च स्फटिकफलका काश्चनी वासयष्टि
मूले बद्धा मणिभिरनतिप्रौढवंशप्रकाशैः । तालैः शिञ्जावलयसुभगैर्नर्तितः कान्तया मे
यामध्यास्ते दिवसविगमे नीलकण्ठः सुहृदः ॥ १६ ॥
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६० सभीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहिते
(सञ्जी० ) तन्मध्य इति । किं चेति चार्थः । तन्मध्ये तयोवृक्षयोर्मध्येऽनतिप्रौढानामनतिकठोराणां वंशानां प्रकाश इव प्रकाशो येषां तैस्तरुणवेणुसच्छायैर्मरकतशिलाभिर्मूले बद्धा । कृतवेदिकेत्यर्थः । स्फटिकं स्फटिकमयं फलकं पीठं यस्याः सा काञ्चनस्य विकारः काञ्चनी सौवर्णी वासयष्टिनिवासदण्डः । अस्तीति शेषः ! शिक्षा भूषणध्वनिः । “भूषणानां तु शिञ्जितम्” इत्यमरः । भिदादित्वादङ् । शिक्षिधातुरयं तालव्यादिर्न तु दन्त्यादिः । शिक्षाप्रधानानिविलयानि तैः सुभगा रम्यास्तैस्तालैः करतलवादनैर्मम कान्तया तितो वो युष्माकं सुहृत्सखा नीलकण्ठो मयूरः । “मयूरो बहिणो वहीं नीलकण्ठो भुजङ्गभुक्" इत्यमरः । दिवसविगमे सायंकाले यां यष्टिकामध्यास्ते ! यष्टयामास्त इत्यर्थः । “अधिशीङ्स्थासां कर्म" इति कर्मत्वाद्वितीया । “तत्रागारम्" इत्यारभ्य पञ्चसु श्लोकेषु समृद्धवस्तुवर्णनादुदात्तालंकारः । तदुक्तम्--"तदुदात्तं भवेद्यत्र समृद्ध वस्तु वर्ण्यते” इति ॥ न चैपा स्वभावोक्ति विकं वा, तत्र यथास्थितवस्तुवर्णनात् । अत्र तु "कविप्रतिभोत्थापितसंभाव्यमा नैश्वर्यशालिवस्तुवर्णनादारोपितविषयत्वमिति ताभ्यामस्य भेदः” इत्यलङ्कारसर्वस्वकारः ॥१६॥
(चारि०) भूयोऽपि निजालयं चिन्हान्तरेण ज्ञापयति-तन्मध्य इति। तन्मध्ये गृहमध्ये काञ्चनस्य विकारः काञ्चनी च वासयष्टिनिवासदण्डोऽस्ति । चकार उक्तसमुच्चये । कीदृशी स्फटिकमयं फलकं यस्याः सा । तथाऽनतिप्रौढा नवा वंशास्तद्वत्प्रकाशन्ते तैमणिभिर्मरकतेंमूले बद्धा । भो मेघ दिवसविगमे दिनावसाने यां वासयष्टिं वो युष्माकं सुहृन्मित्रं नीलकण्ठो मयूरोऽध्यास्ते । कीदृशः । मे मम कान्तया स्त्रिया शिक्षा शिञ्जितं तत् युक्तानि वलयानि तैः सुभगै रम्यैस्तालैः करतलास्फालनवाद्यैः कृत्वा नर्तितः । अध्यास्त इति 'अधिशीस्थासां कर्मः। सिञ्जवलयसुभगेरित्यशुद्धः पाठः । सिजि अव्यक्ते शब्दे । इत्यस्यात्मनेपदित्वात् । यद्वा सिञ्जन सिञ्जः । घजथे कविधानम् । सर्वप्रातिपदिकेभ्य इत्येके । इत्याचारे क्विम् ।तदन्तात् शतृप्रत्ययः ॥ १६ ॥
(भाव) हे मेघ ! रक्ताशोकबकुलयोर्मध्ये स्फटिकफलकाङ्का मणिजटिता सुवर्णमयी वासयष्टिरस्ति । सायं मम प्रियया तालैतितो मयूरो यामध्यास्ते ॥ १६ ॥ एभिः साधो ! हृदयनिहितलक्षणैर्लक्ष येथा
द्वारोपान्ते लिखितवपुषौ शङ्खपनौ च दृष्ट्वा । क्षामच्छायं भवनमधुना मद्वियोगेन नूनं
मूर्यापाये न खलु कमलं पुष्यति स्वामभिख्याम् ॥१७॥ ( सञ्जी) एभिरिति ॥ हे साधो निपुग ॥ साधु समर्थो निपुणो वा” इति काशिकायाम् । हृदयनिहितैः अविस्मृतरित्यर्थः ॥ एभिः पूर्वोक्तलक्षणैस्तोरणादिरभिज्ञानारोपान्ते । एकवचनमविवक्षितम् ॥ द्वारपाश्र्वयोरित्यर्थः ॥ लिखिते वपुषी आकृती ययोस्तौ तथोक्तोशङ्खपवूमौ नाम निधिविशेषौ ॥ "निधिर्ना शेवधिभेदाः पद्मशंखादयो निधेः" इत्यमरः ॥ दृष्ट्वा च नूनं सत्यमधुनेदानीम् । "अधुना" इति निपातः । मद्वियोगेन मम प्रवासेन क्षामच्छायं मन्दच्छायमुत्सवोपरमात्क्षीणकान्ति भवन मद्गृहं लक्षयेथा निश्चिनुयाः, तथाहि । सूर्यापाये सति कमलं पद्मं स्वामात्मीयामभिख्यां शोभाम् “अभिरख्या नामशोभयोः" इत्यमरः । न पुष्यति नोपचिनोति खलु । सूर्यविरहितं पद्ममिव पतिविरहितं गृहं न शोभत इत्यर्थः ॥ १७ ॥
(चारि०) स्वभवनकथनचिन्हमुपसंहरन्नाह-एभिरिति । हे साधो जलद । एभिः हृदयनि
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मेघदूत-उत्तरमेघः । हितैः स्थापितैः पूर्वोक्तैर्लक्षणैर्वारस्योपान्ते निकटे लिखितवपुषौ चित्रसमर्पितदेहौ शङ्खपद्माख्यौ निधी दृष्ट्वा लक्षयेः पश्येः। साम्प्रतं स्वकीयं तद्भवनं स्मृत्वा सविषादमाह। अधुना मद्वियोगेन तद्भवनं क्षामच्छायं गतकान्ति नूनमुत्प्रेक्षायाम् । अहमेवमुत्प्रेक्षे इति भावः । स्वामभिल्यां न पुष्यति । खलु प्रसिद्धौ । किमिव सूर्यापायेऽपगमे सति कमलमिव । "निधिर्ना शेवधिभेदाः पद्मशङ्खादयो निधेरि"त्यमरः । गृहदर्शनानन्तरं किं कार्यमित्याह॥१६॥
(भाव०) हे मेघ ! सूर्य विना कमलमिव विनष्टशोभं मम भवनं पूर्वोक्तैश्चिन्हैर्जानीहि ॥१७॥ निजगृहनिश्चयान्तरं कृत्यमाहगत्वा सद्यः कलभतनुतां शीघ्र संपातहेतोः
क्रीडाशैले प्रथमकथिते रम्यसानौ निषण्णः । अहस्यन्तभवनपतितांक तुमल्पाल्पभासं
खद्योतालीविलसितनिभां विद्युदुन्मेषदृष्टिम् ॥ १८ ॥ ( सञ्जो०) गत्वेति ॥ हे मेघ, शीघसंपात एव हेतुस्तस्य, शीघ्रप्रवेशार्थमित्यर्थः । “षष्ठी हेतुप्रयोगे” इति षष्ठी ॥ "संपातः पतने वेगे प्रवेशे वेदसंविदे” इति शब्दार्णवे । सद्यः सपदि कलभस्य करिपोतस्य तनुरिव तनुर्यस्य तस्य भावस्तामल्पशरीरतां गत्वा प्राप्य प्रथमकथिते "तस्यास्ती" इत्यादीना पूर्वादिष्टे रम्यसानो । निषदिनयोग्य इत्यर्थः । क्रीडाशैले निषण्ण उपविष्टः सन् । अल्पाल्पा भाः प्रकाशो यस्यास्ताम् । "प्रकारे गुणवचनस्य" इति द्विरुक्तिः । खद्योतानामाली तस्या विलसितेन स्फुरितेन निभा समानां विद्युत्प्रकाशः स एव दृष्टिस्तां भवनस्यान्तरन्तर्भवनं तत्र तत्र पतितां प्रविष्टां कर्तुमर्हसि, यथा कश्चित्किचिदन्विध्यन्कचिदुन्नते स्थित्वा शनैः शनैरतितरां द्राधीयसी दृष्टिमिष्टदेशे पातयति तद्वदित्यर्थः ॥१८॥
(चारि०) गत्वेति--मो जलद ! शीघ्रं यथा स्यात्तथा सम्पातः सञ्चरणं तद्धतोः। कलभवत् तनुतां कृशतां सद्यो गत्वा प्राप्य प्रथमकथिते पूर्वोक्त रत्नसानौ क्रीडाशैले निषण्ण उपविष्टः सन् विद्युत उन्मेष उन्मीलनं स एव दृष्टिः प्रकाशत्वात् तामन्तर्भवनपतितां भवनमध्यपतितां कर्तुमर्हसि । कीदृशीमतिशयेन अल्पा अल्पाल्पा भा यस्याः सा ताम् । अत एव खद्योतानां ज्योतिरिङ्गणानां आल्याः पविलसितं स्फुरणमिव निभाति ताम् । अहसीति "अर्हमहपूजायाम् ।" धातूनामनेकार्थत्वात्तत्र स्थितां मद्भार्या द्रक्ष्यसीत्यर्थः । कलभस्त्रिंशददइत्यभिधानचिन्तामणिः ॥१८॥
(भाव०) हे मेध ! करिशावकशरीरमिव स्वां तनुं विधाय तत्र क्रीडाशैले समुपविश्य भवनमध्ये विद्युदुन्मेषरुपां दृष्टिं कर्तु मर्हसि ॥१८॥ संप्रति दृष्टिपातफलस्याभिज्ञानं श्लोकद्वयेनाहतन्वी श्यामा शिखरिदशना पक्वबिम्बाधरोष्ठी
मध्ये क्षामा चकितहरिणांप्रेक्षणा निम्ननाभिः । श्रोणीभारादलसगमना स्तोकनम्रा स्तनाभ्यां
__ या तत्र स्थायुवतिविषये सृष्टिरायेव धातुः ॥ १९ ॥ (सञ्जी० ) तन्वीति ॥ तन्वी कृशाङ्गी, न तुपीवरी । “श्लक्ष्णं ददं कृशं तनु" इत्यमरः । "वोतो गुणवचनात्" इति डीए । श्यामा युवतिः । “श्यामा यौवनमध्यस्था" इत्युत्पलमा
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सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभाव प्रबोधिनी सहिते
लायाम् । शिखराण्येषां सन्तीति शिखरिणः कोटिमन्तः । " शिखरं शैलवृक्षाग्रकक्षापुलककोटिपु ” इति विश्वः । शिखरिणो दशना दन्ता यस्याः सा । एतेनाख्या भाग्यवत्त्वं पत्यायुष्करं च सूच्यते । तदुक्तं सामुद्रिके - स्निग्धाः समानरूपाः सुपङ्कयः शिखरिणः श्रिष्टाः । दन्ता भवन्ति यासां तासां पादे जगत्सर्वम् । ताम्बूलरसरक्तेऽपि स्फुटभासः समोदयाः । दन्ताः शिखरिणो यस्या दीर्घ जीवति तत्प्रियः ।" इति । पक्कं परिणतं बिम्ब बिम्ब फलfaraisष्टो यस्याः सा पक्वबिम्बाधरोष्टी । “शाकपार्थिवादित्वान्मध्यमपदलोपी समासः " इति वामन: । "नासिकोदरौष्ट-" इत्यादिना ङीप् ! मध्ये क्षामा कृशोदरीत्यर्थः । चकितहरिण्याः प्रेक्षणनीव प्रेक्षणानि दृष्टयो यस्याः सा तथोक्ता । एतेनास्याः पद्मिनीत्वं व्यज्यते । पद्मिनील क्षण प्रस्तावे - " चकितमृगदृशाभे प्रान्तरक्ते च नेत्रे" इति । निम्नानाभिर्गम्भीरनाभिः । अनेन नारीणां नाभिगाम्भीर्यान्मदनातिरेक इति कामसूत्रार्थः सूच्यते । श्रोणीभारादलसगमना मन्दगामिनी, न तु जघनदोषात् । स्तानाभ्यां स्तोकन पदवनता, न तु वपुर्दापात् । युवतयएव विषयस्तस्मिन्युवतिविषये । युवतीरधिकृत्येत्यर्थः । धातुर्ब्रह्मण आद्या सृष्टिः प्रथमशिपमिवस्थितेत्युत्प्रेक्षा । प्रथमनिर्मिता युवतिरियमेवेत्यर्थः । प्रायेण शिल्पिनां प्रथमनिर्माणे प्रयत्नातिशयवशाच्छिल्पनिर्माणसौष्ठवं दृश्यत इत्याद्यविशेषणम् । तथा चास्मिन्प्रपञ्चे न कुत्राप्येवंविधं रमणीयं रमणीरत्नेष्वस्तीति भावः । तदेवंभूता या स्त्री यन्त्रान्तर्भवने स्यात् । तत्र निवसेदित्यर्थः । तामित्युत्तरश्लोकेन संबन्धः ॥ १९ ॥
( चारि०) लोकद्वयेन स्वकीयप्रेयस्या लक्षणं दर्शयति । तन्वीति -- तत्रालये तन्वी कुशतनुः श्यामा यौवनमध्यस्था हरितवर्णा वा पोडशवार्षिकी । ' श्यामा यौवनमध्यस्थेति वाक्यात् । शिखराणि दाडिमबीजानीच दशना यस्याः सा । शिखरिणः कोटिमन्तो दशना दन्ता यस्या इति वा । शिखरं वज्रं तद्वदुज्वलदर्शनेति वा । 'पक्कदाडिमबीजाभ माणिक्यं शिखरं विदुरित्यभिधानचिन्तामणिः । पकविम्बवदधरोष्टो यस्याः सा । मध्ये मध्यदेशे क्षामा कृशोदरी । चकिता त्रस्ता या हरिणी तद्वत्प्रेक्षत इति प्रेक्षणा । निम्ना नाभिर्यस्याः सा । श्रोणीभारादलसं गमनं यस्याः सा । स्तनाभ्यां स्तोकं स्वल्पं नम्रा युवतिविषये धातुर्ब्रह्मण आद्या सृष्टिः प्रथमसर्ग इव स्थिता । मध्ये क्षामेति 'अमूर्द्ध मस्तका' दित्यलुक् । प्रेक्षणीति कर्त्तर्युपमान इति णिनिः । एवं विधा या स्त्री स्यात् यदि तिष्ठति तां जानीया इत्युत्तरत्र सम्बन्धः । स्यादिति आख्यातप्रतिरूपकमव्ययम् । यद्यर्थेऽव्ययम् ॥ १९ ॥
( भाव०) हे मेघ ! तत्र गृहे कृशाङ्गी लोकोत्तरलावण्या स्रष्टुराद्या सृष्टिरिव या वनिता दृश्येत सैव मम प्रियेति जानीहि ॥ १९ ॥
तां जानीथाः परिमितकथां जीवितं मे द्वितीयं
दूरीभृते मयि सहचरे चक्रवाकीमिवैकाम् । गाढieaori गुरु दिवसेष्वेषु गच्छत्सु बालां
जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनीं वान्यरूपाम् ॥ २० ॥
( सञ्जी० ) तामिति ॥ सहचरे सहचारिणि अनेन वियोगासहिष्णुत्वं व्यज्यते । मयि दूरीभूते दूरस्थिते सति सहचरे चक्रवाके दूरीभूते सति चक्रवाकी चक्रवाकवधूमिव । " जातेरarraversaryधात्" इति ङीप् । परिमितकथां परिमितवाचम् | एकामेकाकिनीं स्थितां तामन्तर्भवनगतां मे द्वितीयं जीवितं जानीथाः । जीविततुल्यो मत्प्रेयसीमवगच्छेरित्यर्थः ॥ "तन्वी” इत्यादिपूर्वलक्षणैरिति शेषः । लक्षणानामन्यथाभावभ्रमाशङ्कयाह - गाढेति । गाढोत्कण्ठां प्रबलविरहवेदनाम् "रागे त्वब्धविपये वेदना महती तु या । संशोषणी तु
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मेघदत-उत्तरमेघः। गानाणां तामुत्कण्ठां विदुर्बुधाः ॥” इत्यभिधानात् । बालां गुरुषु विरहमत्स्वेषु वर्तमानेषु दिवसेषु गच्छत्सु सत्सु शिशिरेण शिशिरकालेन मथितां पद्मिनी वा पद्मिनीमिव । "इववद्वायथाशब्दौ"इति दण्डी, । अन्यरूपां पूर्वविपरीताकारां जातां मन्ये। हिमहतपमिनीव विरहेणान्यादृशी जातेति तर्कयामीत्यर्थः । एतावता नेयमन्येति भ्रमितव्यमिति भावः ॥ २० ॥
(चारि०) तामिति--भो जलद तां मत्प्रियां मे द्वितीयं जीवितं जानीयाः। कीदृशी परिमिता स्वल्पा कथा भाषणं यस्याः सा । तथा दूरीभूते दूरस्थे मयि सहचरे, चक्रवाके दूरस्थे चक्रवाकीमिकाम् । पूर्वोक्तानां लक्षणानामन्यथाभावमाशय व्याचष्टे । गाढोत्कण्ठां गुरुषु दुःसहेषु एषु दिवसेषु गच्छत्सु बालां तुहिनेन हिमेन मथितां पद्मिनीमिवान्यथारूपां जातां मन्ये । गाढोत्कण्ठामिति वा पाठः । वा शब्द इवार्थे ॥ २०॥
(भाव० ) हे मेघ ! प्रियवियोगिनी चक्रवाकीमिव शिशिरमथितां पद्मिनीमिव वा मया विरहितां तां बालामहमुत्पश्यामि २०॥ नूनं तस्याः प्रबलरुदितोच्छ्रननेत्रं प्रियाया
निःश्वासानामाशिशिरतया भिन्नवर्णाधरोष्ठम् । हस्तन्यस्तं मुखमसकलव्यक्ति लम्बालकत्वा
दिन्दोर्दैन्यं त्वदनुसरणक्लिष्टकान्तेर्विभर्ति ॥ २१ ॥ (सञ्जी०) नूनमिति ॥ प्रबलरुदितेनोच्छूने उच्छ्वसिते नेत्रे यस्य तत् । उच्छूनेति स्वयतेः कतरिक्तः । "ओदितश्च” इति निष्ठानत्वम् । “वचिस्वपि-" इत्यादिना संप्रसारणम् । संप्रसारणाच्च” इति पूर्वरूपत्वम् । “हलः" इति दीर्घः । “छ्योः शूडनुनासिके च” इत्यूठादेशे कृते रूपसिद्धिरिति वर्तमानसामीप्यप्रक्रिया प्रामादिकीत्युपेक्ष्या। तथा सति धातोरिकारस्य गत्यभावादूठादेशे च्छ्योरन्त्यत्वेन विशेषणाचेति ॥ एतेन विषादो व्यज्यते । निःश्वासानामशिशिरतयाऽन्तस्तापोष्णत्वेन भिन्नवर्णा विच्छायोऽधरोष्ठो यस्य तत्। हस्ते न्यस्तं हस्तन्यस्तम् । एतेन चिन्ता व्यजते। लम्बालकत्वात्संस्काराभावालम्बमानकुन्तलत्वादसकलव्यक्त्यसंपूर्णाभिव्यक्ति तस्याः प्रियाया मुर्खत्वदनुसारणेन त्वदुपरोधेन । मेघानुसरणेनेति यावत्। विष्टकान्तः क्षीणकान्तेरिन्दोर्दैन्यं शोच्यतां बिभर्ति । नूनमिति वितकें। "नूनं तऽर्थनिश्वये इत्यमरः । पूर्ववत्तथापि न भ्रमितव्यमिति भावः ॥ २१ ॥
(चारि०) समस्तानामङ्गानां मुख्यभूतस्याननस्यान्यरूपमाह । नूनमिति--भो मेघ नुनमिति वितकें । तस्या मदल्लभायाः मुखं कर्तृ तवानुसरणमनुगमनं तेन क्लिष्टा कान्तिीप्तियस्य तस्येन्दोदैन्यं दीनभावं विभति धारयति । कीदृशं प्रबलमविच्छिन्नं यद्रादितं रोदनं तेनोच्छ्ने शोकसहिते नेत्रे यस्य तत् । तथा निःश्वासानामशिशिरतयोष्णतया भिन्नवर्णो गतलावण्योऽधर ओष्टो यस्य तत् । हस्ते वामकरे न्यस्तं स्थापितं दुःखितस्य स्त्रीजनस्य स्वभावः । संस्काराभावात् । लम्बा अलका ललाटावलम्बिनः कुटिलाः केशा यस्याः तस्य भावस्तत्त्वम् । तस्मात् असकला असम्पूर्णा व्यक्तिराकारो यस्य तत् ॥ २१॥
(भाव०) हे मेघ ! सम्प्रति मद्वियुक्तायाः प्रियाया विरहदुःखम्लानं वदनं त्वदावरणास्पष्टकान्तेश्चन्द्रस्य दशां बिभर्तीति तर्कये ॥२१॥
सर्वविरहिणीसाधारणानि लक्षणानि संभावनयोत्प्रेक्ष्याणीत्याह "आलोके” इत्यादिभित्रिभिःआलोके ते निपतति पुरा सा बलिव्याकुला वा
मत्सादृश्यं विरहतनु वा भावगम्यं लिखन्ती ।
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६४ सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहितेपृच्छन्ती वा मधुरवचनां सारिका पञ्जरस्था
कच्चिद्भर्तुः स्मरसि रसिके त्वं हि तस्य प्रियेति ॥२२॥ (सनी)आलोकेति॥ हे मेघ!सा मत्प्रिया बलिषु नित्येषु प्रोषितागमनाथेषु च देवताराधनेषु व्याकुला व्यापृता वा। विरहेण तनु कृशं भावगम्यम् । तात्कार्यस्यादृष्टचरत्वात्संप्रति संभाबनयोत्प्रेक्ष्यामित्यर्थः । मत्सादृश्यं मदाकारसाम्यम् । यद्यपि सादृश्यं नाम प्रसिद्धवस्त्वन्तरगतमाकारसाम्यं तथापि प्रतिकृतित्वेन विवक्षितमितरथा लेख्यत्वासंभवात् । अक्षय्यकोशे "आलेख्येऽपि च सादृश्यम्" इत्यभिधानात् । लिखन्ती । कचित्फलकादौ विन्यस्यन्ती वा चित्रदर्शनस्य विरहिणीविनोदोपायत्वादिति भावः । एतच्च कामशास्त्रसंवादेन सम्यग्विवेचितमस्माभी रघुवंशसंजीविन्याम् “सादृश्यप्रतिकृतिदर्शनैः 'प्रियायाः” इत्यत्र । मधुरवचनां मजुभाषिणीम् । अत एव पञ्जरस्थाम् । हिंस्रेभ्यः कृतसंरक्षणामित्यर्थः । सारिकां स्त्रीपक्षिविशेषाम् । हे रसिके । भतः स्वामिनः स्मरसि कञ्चित् । “कञ्चित्कामप्रवेदने" इत्यमरः । भर्तारं स्मरसि किमित्यर्थः । "अधीगर्थदयेशां कर्मणि" इति कर्मणि षष्ठी। स्मरणे कारणमाह-हि यस्मात्कारणात्त्वं तस्य भर्तुः । प्रीणातीति प्रिया ॥ "इगुपधज्ञाप्रीकिरः क” इति कप्रत्ययः ॥ अतः प्रेमास्पदत्वात्स्मर्तुमर्हसीति भावः । इत्येवं पृच्छन्ती वा ॥ वाशब्दो विकल्पे॥
"उपमायां विफल्पे वा" इत्यमरः ॥ ते तवालोके दृष्टिपथे पुरा निपतति । सद्यो निपतिप्यतीत्यर्थः ॥ "स्यात्प्रबन्धे पुरातीते निकटागामिके पुरा" इत्यमरः ॥ "यावत्पुरानिपातयोलट" इति लट् ॥ २२ ॥
(चारि०) लक्षणान्तरैस्तां ज्ञापयति । आलोक इति-भो जलद सा स्त्री ते तवाऽऽलोके दर्शने सति पुरा निपतति । त्वां विलोक्य सा भुवि पतिष्यतीत्यर्थः । यावत्पुरानिपातयोलडिति भविष्यदर्थे लट् । कीदृशी मदागमनाय देवताभ्यो यदलिदानं नैवेद्यवितरणं तेन व्याकुला वा । तथा मत्सादृश्यं मद्विषयमालेख्यं लिखन्ती वा । कीदृशं विरहेण वियोगेन योऽसौ तनुताया दुर्बलस्य भावश्चित्तं तेन गम्यं विरहात्तादृश्यसाम्प्रतमन्यथात्वमिति । उत्प्रेक्षया गम्यमिति भावः । हे रसिके हे कृपारसोपस्कृतमानसे त्वं कच्चिद्गर्तुः स्मरसि । त्वं तस्य म द्वल्लभस्य प्रियेति मधुरवचनां मनोरमवाक्यां पारस्थां सारिकां पृच्छन्ती वा । भर्तुरिति अधीगर्थे कर्मणि षष्टी । "आलोको दर्शनद्योताणवित्यमरः । 'कच्चिदिष्टप्रियप्रश्न' इत्यभिधानचिन्तामणिः । आलेख्येऽपि च सादृश्यमिति यादवः । पञ्जरः पक्षिरक्षाकरः पदार्थः ॥२२॥
( भाव० ) हे मेघ ! सा मे प्रिया देवाराधनव्यग्रा,वा, मत्सादृश्यं लिखन्ती वा, सारिकया सहालपन्ती वा ते दृष्टि पथं यास्यति ॥ २२ ॥ उत्सङ्गे वा मलिनवसने सौम्य ! निक्षिप्य वीणां
मद्गोत्राङ्क विरचितपदं गेयमुद्गातुकामा । तन्त्रीमाः नयनसलिलैः सारयित्वा कथंचिद्
भूयो भूयः स्वयमपि कृतां मूर्च्छनां विस्मरन्ती ॥२३॥ ( सनी० ) उत्सङ्गेति ॥ हे सौम्य ! साधो ! मलिनवसने । “प्रोषिते मलिना कृशा" इति शास्त्रादित्यर्थः उत्सङ्ग स्वरौ वीणां निक्षिप्य। मम गोनं नामाङ्कश्चित्रं यस्मिस्तन्मद्गोत्रा मन्नामाङ यथा तथा । “गोत्रं नाम्नि कुलेऽपि च” इत्यमरः । न विरचितानि पदानि यस्य तत्तथोक्तं गेयं गानार्ह प्रबन्धादि ॥ "गीतम्" इति पाठे स एवार्थः ॥ उद्गातुमुचैर्गातुं कामो
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मेघदूत-उत्तरमेघः । यस्याः सा ॥ “तु काममनसोरपि” इति मकारलोपः ॥ देवयोनित्वाद्वान्धारग्रामेण गातुकामेत्यर्थः । तदुक्तम्-'षड्जमध्यमनामानौ ग्रामौ गायन्ति मानवाः । न तु गान्धारनामानं, स लभ्यो देवयोनिभिः।” इति तथा नयनसलिलैः प्रियतमस्मृतिजनितैरश्रुभिरादों तन्त्री कथंचित्कृच्छ्रेण सारयित्वा । आद्त्वापहरणाय करेण प्रमृज्यान्यथा वणनासंभवादिति भावः । भूयो भूयः पुनः पुनः स्वयमात्मना कृतामपि । विस्मरणानमिपीत्यर्थः । मूर्च्छनां स्वरारोहावरोहक्रमम् । "स्वराणां स्थापनाः सान्ता मूर्च्छनाः सप्त सप्त हि" इति संगीतरत्नाकरे ॥ विस्मरन्ती वा । "आलोके ते निपपति" इति पूर्वेणान्वयः ॥ विस्मरणं चात्र दयितगुणस्मृतिजनितमच्छीवशादेव ॥ तथा च रसरत्नाकरे-"वियोगायोगयोरिष्टगुणानां कीर्तनात्स्मृतेः । साक्षात्कारोऽथवा मूर्छा दशधा जायते तथा ॥” इति ॥ मत्सादृश्यमित्यादिना मनःसङ्गानुवृत्तिः सूचिता ॥ २३ ॥
(चारि०) उत्सङ्ग इति-सोम इव सुन्दरः सौम्यस्तत्सम्बुद्धिः हे सौम्य मेघ मलिन वसनं वस्त्रं यस्य स तस्मिन् । एतेन पातिव्रत्यं ज्ञापितम् । उत्सङ्ग वीणां निक्षिप्य नयनसलिलै वाम्बुभिरार्दो तन्त्री सारयित्वा । पाणिना संस्पृश्य मम गोत्रं नाम अश्चिन्हें यस्य तत् । गेयं गीतमुद्रातुं कामो यस्याः सा सती भूयो भूयः कथंचित्स्वयमधिकृतां आत्मप्रस्तुतां मूर्च्छनां सप्तस्वरक्रमस्थापनां विस्मरन्ती वा ते आलोके पुरा निपतति । कीदृशं विरचितानि आरोहावरोहिस्वरक्रमेण विनिवेशितानि स्थापितानि पदानि यत्र तत् । “क्रमयुक्ताः स्वराः सप्त मूर्च्छनाः परिकीर्तिताः" ॥ २३ ॥
(भाव) किंच हे मेघ ! सा मे प्रिया उत्संगे वीणां निधाय मन्नामाई गीतं गातुमिच्छन्ती तत्कालप्रवृत्तबाप्पासारैरानी वीणां कथञ्चिदपसार्य पूर्व कृतामपि मूर्च्छनां भूयः कुर्वन्ती ते दृष्टिपथं यास्यति ॥२३॥ शेषान्मासान्विरहदिवसस्थापितस्यावधेर्वा
विन्यस्यन्ती भुवि गणनया देहलीदत्तपुष्पैः । मत्सङ्गं वा हृदयनिहितारम्भमास्वादयन्ती
प्रायेणेते रमणविरहेष्वङ्गनानां विनोदाः ॥ २४ ॥ (सी.) शेषानिति ॥ अथवा विरहस्य दिवसस्तस्मात्स्थापितस्य तत आरभ्य निश्चितस्यावधेरन्तस्य शेषान्गतावशिष्टान्मासान्देहलीदत्तपुष्पैः ॥ देहली द्वारस्याधारदारु ॥ “गृहावग्रहगी देहलो" इत्यमरः ॥ तत्र दत्तानि राशीकृतत्वेन निहितानि यानि पुष्पाणि तेर्गणनया एको द्वावित्यादिसंख्यानेन भूतले विन्यस्यन्ती वा । पुष्पविन्यासैर्मासानगणयन्ती वेत्यर्थः ॥ यद्वा हृदये निहितो मनसि संकल्पित आरम्भ उपक्रमो यस्य तम् । अथवा हृदयनिहिता आरम्भाश्चुम्बनादयो व्यापारा यस्मिस्तं मत्सङ्ग मत्संभोगरतिमास्वादयन्ती वा । " आलोके ते निपतति " इति पूर्वेण संबन्धः ॥ ननु कथमयं निश्चय इत्याशडामर्थान्तरन्यासेन परिहरति । प्रायेण बाहुल्येनाङ्गनानां रमणविरहेष्वेते पूर्वोक्ता विनोदाः कालयापनोपायाः । एतेन संकल्पावस्थोक्ता । तदुक्तम्-"संकल्पो नाथविषये मनोरथ उदाहृतः" इति ॥ त्रिभिः कुलकम् ॥ २४ ॥ " (चारि०) शेषानिति-भुवि देहल्यां पूजार्थ मुक्तविश्राणितैः पुष्पैः प्रियस्य गमनदिवसे स्थापितस्यावधेः कालनियमस्य शेषान् मासान् गणनया एकद्वित्रिचतुःपञ्चक्रमसन्य या विन्यस्यन्ती स्थापयन्ती ते तव आलोके निपतति पुरा । हदये निहित आरम्भो यस्य तं मया सह सम्भोगं आस्वादयन्ती अनुभवन्ती वा ते आलोके सति पुरा निपतति । प्रायेण
९ मेघ०
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६६ सञ्जीवनाचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहितेएते उक्तप्रकाराः रमणविरहेषु अङ्गनानां विनोदा कालयापकाः। "गृहावग्रहणी देहल्यङ्गणं चत्वराजिरम्" इत्यमरः ॥२४॥
(भाव०) हे मेघ ! विरहावधेरवशिष्टान् मासान् देहल्यां पुष्पाणि निधाय गणयन्ती, नेत्रे निमील्यान्तरेव मानसिकं मत्सम्भोगमास्वादयन्ती वा मे प्रिया ते दृष्टिपथं यास्यति । यतो विरहे स्त्रीणामेते विनोदा भवन्ति ॥ २४॥ सव्यापारामहनि न तथा पीडयेन्मद्वियोगः
शङ्के रात्रौ गुरुतरशुचं निर्विनोदां सखी ते । मत्संदेशः मुखयितुमलं पश्य साची निशीथे
तामुन्निद्रामवनिशयनां सौधवातायनस्थः ॥ २५ ॥ (सजी०) सव्यापारामिति ॥ सखे, अहनि दिवसे सव्यापारां पूर्वोक्तबलिचित्रलेखनादिव्यापारवती ते सखी स्वप्रियां मद्वियोगो मद्विरहस्तथा तेन प्रकारेण ॥ "प्रकारवचने थाल” इति थाल्प्रत्ययः ॥ न पीडयेत् । यथा रात्राविति शेषः ॥ किंतु रात्रौ निर्विनोदां निर्व्यापारां ते सखीं गुरुतरा शुग्यस्यास्तां गुरुतरशुचमतिदुर्भरदुःखां शङ्के तर्कयामि ॥ "शङ्का वितर्कभययोः" इति शब्दार्णवे ॥ अतो निशीथेऽर्धरात्र उनिद्रामुत्सृष्टनिदाम् । अवनिरेव शय्या यस्यास्ताम् ॥ नियमाथं स्थण्डिलशायिनीम् । साध्वी पतिव्रताम् ॥ "साध्वी पतिव्रता" इत्यमरः ॥ अतो नान्यथा शतिव्यमिति भावः । तां त्वत्सखी मत्संदेशैर्मद्वार्ताभिरलं पर्याप्तं सुखयितुमानन्दयितुं सौधवातायनस्थः सन्पश्य ॥" सखी धात्री च पितरौ मित्रतशुकादयः । सुखयन्तीष्टकथनसुखोपार्यवियोगिनीम् ॥” इति रत्नाकरे ॥ दूतश्चायं मेघ इति भावः। अनेन जागरावस्थोक्ता ॥ २५ ॥
(चारि०) तस्य विलोकनान्तर निशिभाषणं कर्तव्यमित्याह । सव्यापारामिति-मद्वियोगोऽहनि सव्यापारां ते सखों महलमा तया न पीडयेत् । यथा रात्रौ गुरुतरशुचं गरिष्टशोकां निर्विनोदां पीडयति । इत्यहं शङ्के । अतो भो मेव निशीयेऽर्द्धरात्रे समवातायनस्थः सन् । उन्निद्रा अवनिशयानां तां साध्या मत्सन्देशैः अलं सुखयितुं पश्य । 'अर्द्धरात्रनिशायौ द्वाविमरः । साध्वीमिति रात्रावपि सम्भाषणे हेतुः ॥ २६ ॥
(भाव० ) हे मेघ ! दिवसे गृहकर्मव्यग्रां मे प्रियां विरहस्तथा न पीडयेत् यथा रात्री, अतस्त्वं भूमिशयतां तां साध्वी निशीयिथे मत्सन्देशैः सुखय ॥२६॥ पुनस्तामेव विशिनष्टि "आधिक्षामाम्" इत्यादिभिश्चतुर्भिःआधिक्षामा विरहशयने सनिषण्णैकपाश्वा
प्राचीमूले तनुमिव कलामात्रशेषां हिमांशोः। नीता रात्रिः क्षण इव मया सार्धमिच्छारतैर्या
तामेवोष्णैर्षिरहमहतीमश्रुभिर्यापयन्तीम् ॥ २६ ॥ (सञ्जी०) आधिक्षामामिति ॥ आधिना मनाव्यथया । क्षामां कृशाम् ॥ “पुस्याधिर्मानसी व्यथा" इत्यमरः ॥ क्षायतेः कर्तरि क्तः ॥ "झायो मः" इति निष्ठातकारस्य मकारः ॥ विरहे शयनं तस्मिन्विरहशयने ॥ पल्लवादिरचित इत्यर्थः । संनिषण्णमेकं पाश्च यस्यास्ताम् । अत एव प्राच्याः पूर्वस्या दिशो मूले । उदयगिरिप्रान्त इत्यर्थः ॥ प्राचीग्रहणं क्षीणावस्थाद्योतनाथेम् । मूलग्रहणं दृश्यतार्थम् ॥ कलामात्र कलैव शेषो यस्यास्तां हिमांशोस्त, मूर्तिमिव
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मेघदूत - उत्तरमेघः ।
स्थिताम् । तथा या रात्रिर्मया सार्धमिच्छया कृतानि तानि तैः ॥ शाकपार्थिवादित्वान्मध्यमपदलोपी समासः ॥ क्षण इव नीता यापिता तां तज्जातीयामेव रात्रिं विरहेण महती महत्त्व प्रतीयमानामुष्णैरश्रुभिर्यापयन्तीम् । यातेर्ण्यत्ताच्छतृप्रत्ययः ॥ " अर्तिही " - इत्यादिना पुगागमः ॥ स एव कालः सुखिनामल्पः प्रतीयते । दुःखिनां तु विपरीत इति भावः ॥ एतेन कायस्थोक्ता ॥ २६ ॥
( चारि० ) आधिक्षामामिति - आधिर्मानसी व्यथा तेन क्षामां क्षीणां विरहशयने सन्निषण्णं एकं वामदक्षिणयोरन्यत्पाश्वं यस्याः सा तां पूर्वस्या दिशो मूले मुखे हिमांशोः कलैव कलामात्रं शेषो यस्याः ताम् । तनुं मूर्तिमिव स्थिताम् । या रात्रिर्मया सार्द्धं इच्छया कृतै रतैः क्षणमिव नीता तां रात्रिमेव उष्णैविरहजनितैरश्रुभिर्बाष्पैर्यापयन्तीं वाहयन्तीम् ॥ २६ ॥
( भाव० ) मेघ ! मनोव्यथाभिः कृशां, विरहशयने एकपार्श्वेन शयानां सम्भोगनिशाः हमरन्तीं, बाष्पाणि मुञ्चन्तीं मे प्रियां सन्देशैः सुखय ॥ २६ ॥ पादानिन्दो र मृत शिशिराञ्जालिमार्गप्रविष्टापूर्वप्रत्यागतमभिमुखं संनिवृत्तं तथैव । चक्षुः खेदात्सलिल गुरुभिः पक्ष्मभिश्छादयन्तीं
साव स्थलकमलिनीं न प्रबुद्धां न सुप्ताम् ॥ २७ ॥ ( सञ्जी० ) पादानिति ॥ जालमार्गप्रविष्टान्गवाक्षविवरगतानमृतशिशिरानिन्दोः पादारश्मीन्पूर्वप्रीत्या पूर्व स्नेहेन । पूर्ववदानन्दकरा भविष्यन्तीति बुद्धयेति भावः । अभिमुखं यथा तथा तं तथैव निवृत्तं यथागतं तथैव प्रतिनिवृत्तम् । तदा तेषामतीव दुःसहत्वादिति भावः । चक्षुर्दृष्टि खेदात्सलिल गुरुभिरक्षुदुर्भरैः पक्ष्मभिश्छादयन्तीम् । अत एव सा दुर्दिनेऽ ह्नि दिवसे न प्रबुद्धां मेधावरणादविकसितां न सुप्तामहरित्यमुकुलिताम् ॥ उभयत्रापि नत्रर्थस्य शब्दस्य सुप्सुपेति समासः ॥ स्थलकमलिनीमिव स्थिता । एतेन विषयद्वेषाख्या षष्टी दशा सूचिता ॥ २७ ॥
( चारि० ) पादानिति -- जालानां गवाक्षाणां मार्गेण प्रविष्टान् अमृतेन शिशिरान् इन्दोः पादान् किरणान् पूर्वप्रीत्याभिमुखगतं खेदात्तथैव यथागतं किरणेभ्यः सन्निवृत्तं चक्षुः सलिलेन गुरुभिः । पक्ष्मभिः छादयन्तीम् । सा नीरदाभियुक्तेऽन्हि दिवसे स्थलकमलिनीमिव । न प्रबुद्धांन सुप्तां तां सुखयितुं पश्येति सम्बन्धः ॥ २७ ॥
( भाव०) हे मेघ ! जालमार्गप्रविष्टेषु चन्द्रकिरणेषु पूर्वसंस्कारवशात्तत्र गतं चक्षुः सहसैव निवर्त्तयन्ती, रुदन्तीं मेघावृतेऽह्नि न विकसितां न सङ्कुचितां स्थलकमलिनीमिव राजमानां मे प्रियां मत्सन्देशैः सुखय ॥ २७ ॥
निःश्वासेनाधिर किसलयक्लेशिना विक्षिपन्ती
शुद्धस्नानात्परुषमलकं नूनमागण्डलम्बम् । मत्संभोगः कथमुपनयत्स्वप्नजोऽपीति निद्रा
६७
माकांक्षन्तीं नयनसलिलोत्पीडरुद्धावकाशाम् || २८ ॥
( सञ्जी० ) निःश्वासेति । शुद्धस्नानात्तैलादिरहितस्नानात्परूपं कठिनस्पर्श नूनमा गण्डलम्बम् ॥ सुप्सुपेति समासः । अलकं चूर्णकुन्तलान् ॥ जातायेकवचनम् ॥ अधरकिसलयं क्लेशयति क्लिश्नातीति वा तेन तथोक्तेन । उष्णेनेत्यर्थः ॥ क्लिश्यतेर्ण्यन्तात्किनातेरण्यन्ताद्वा ता
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सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहितेच्छील्ये णिनिः ॥ निःश्वासेन विक्षिपन्तीं चालयन्तीम् । तथा स्वप्नजोऽपि स्वप्नावस्थाजन्योऽपि साक्षात्संभोगासंभवादिति भावः । मत्संभोगः कथं केनापि प्रकारेणोपनयेदामच्छेत् । इत्याशयेनेति शेषः । इति नैवोक्तार्थत्वादप्रयोगः। “प्रयोगे चापौनरुक्त्यम्" इत्यालंकारिकाः ॥ प्रार्थनायां लिङ् ॥ नयनसलिलोत्पीडेनाश्रुप्रवृत्त्या रुद्वावकाशामाक्रान्तस्थानाम् । दुर्लभामित्यर्थः । निद्रामाकाङ्क्षन्तीम् । खेदातुरत्वादिति भावः ॥ अत्राश्रुविसर्जनेन लजात्यागो व्यज्यते ॥ २८॥ - (चारि० ) निःश्वासेनेति-अलकं नूनं निःश्चासेन विक्षिपन्ती तां सुखयितुं पश्येति सम्बन्धः । अधरकिसलय विश्नाति । उष्णत्वात् । कीदृशमलकम् । शुद्धस्नानात्परुषं कर्कशम् । तथा आगण्डं कपोलस्थलपर्यन्तं लम्बते तत् । स्वप्नजोऽपि मत्संयोगः कथमपि भवेदिति हेतोः निद्रामाकासन्ती । कीदृशीं निद्रां नयनसलिलस्योत्पीडः पूरस्तेन रुद्धोऽवकाशो यस्यास्ताम् ॥ २८ ॥
(भाव०) हे मेघ ! प्रबलैनि:श्वासै गण्डभागे लम्बमानान् रूक्षानलकान् विक्षिपन्ती, स्वप्नसम्भोगाकांक्षया निद्रामभिलषन्ती मे प्रियां मन्सन्देशैः सुस्वय ॥२८॥ आये बद्धा विरहदिवसे या शिखा दाम हित्वा
शापस्यान्ते विगलितशुचा तां मयोद्वेष्टनीयाम् । स्पर्शक्लिष्टामयमितनखेनासकृत्सारयन्ती
. गण्डाभोगात्कठिनविषमामेकवर्णी करेण ॥२९॥ (सञ्जी० ) आद्य इति ॥ आये विरहदिवसे दाम मालां हित्वा त्यक्त्वा या शिखा बद्धा प्रथिता शापस्यान्ते विगलितशुचा वीतशोकेन मयोद्वेष्टनीयां मोचनीयां स्पर्शक्लिष्टाम् । स्पर्श सति मूलकेशेषु सव्यथामित्यर्थः । कठिना च सा विषमा निम्नोन्नता च ताम् ॥ खञ्जकुब्जादिवदन्यतरस्य प्राधान्यविवक्षया "विशेषणं विशेष्येण बहुलम्" इति समासः ॥ एकवेणीमेकीभूतवेणीम् ॥ " पूर्वकाल"-इत्यादिना तत्पुरुषः। तां शिखाम् । अयमिता अकतितोपान्ता नखा अस्याः तेन करण गण्डाभोगात्कपोलविस्तारादसकन्मुहुर्मुहुः सारयन्तीमपसारयन्तीम् । “तां पश्य” इति पूर्वेण संबन्धः । असकृत्सारणाञ्चित्तविभ्रमदशा सूचिता ॥ २९ ॥
(चारि० ) कैश्चित् श्लोकैस्तामेव वर्णयति। आद्य इति-अयमिता असंस्कृता नखा यस्य तेन करेण तामेकवेणी गण्डस्य कपोलस्याऽभोगात्पुलकादसकद्वारं वारं सारयन्ती अपसारयन्तीं तां अलं सुखयितुं पश्येति सम्बन्धः । तामिति काम् । आये प्रथमे विरहदिवसे शिरोदाममालां हित्वा या बद्धा तथा शापस्यान्ते विगलिता गता शुक् शोको यस्य स तेन मया उद्वेष्टनीया मोचनीया । स्पर्शस्य त्वगिन्द्रियस्य क्लिष्टां बाधिकां, कठिना चासौ विषमा चोचावचा ताम् ॥२९॥
(भाव० ) हे मेध ! विरहदिवसे मया बद्धां विरहान्ते च मयैवोद्वेष्टनीयां रूक्षालकामेकवेणी करेण कपोलप्रदेशान्मुहुर्मुहुरपसारयन्ती मत्प्रियां मत्सन्देशैः सुखयः॥ २९ ॥ सा संन्यस्ताभरणमवला पेशल धारयन्ती
शय्योत्सने निहितमसकृद् दुःखदुःखेन गात्रम् । वामप्यत्रं नवजलमये मोचयिष्यत्यवश्यं
प्रायः सर्वो भवति करुणावृत्तिरान्तिरात्मा ॥३०॥
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मेघदूत-उत्तरमेघः ।
(सञ्जी० ) सेति ॥ अबला दुर्बला संन्यस्ताभरणं कृशत्वात्परित्यक्ताभरणमसकृदनेकशो दुःखदुःखेन दुःखप्रकारेण ॥ "प्रकारे गुणवचनस्य' इति द्विर्भावः ॥ शय्योत्सङ्गे निहितं पेशल मृदुलं गात्रं शरीरं धारयन्ती वहन्ती ॥ अनेनात्यन्ताशक्त्या मूर्छावस्था सूच्यते ॥ सा त्वत्सखी त्वामपि नवजलमयं नवाम्बुरूपमखं बाष्पमवश्यं सर्वथा मोचयिष्यति ॥ "द्विकर्मसु एचादीनामुपसंख्यानम्" इति मुचेः पचादित्वाद्विकर्मकत्वम् ॥ तथा हि। प्रायः प्रायेणान्तरात्मा मृदुहृदयः । मेघस्तु द्रवान्तःशरीरः। सर्वः करुणा करुणामयी वृत्तिरन्तः करणवृत्तिर्यस्य स करुणावृत्तिर्भवति । हि यस्मात् । अस्मिन्नवसरे सर्वथा त्वया शी गन्तव्यमनन्तरदशापरिहार्यति संदर्भाभिप्रायः ॥ ननु किमिदमादिमां चक्षुःप्रीतिमुपेक्ष्यावस्थान्तराण्येव तत्रभवान्कविरादृतवान् ! उच्यते-"संभोगो विप्रलम्भश्च द्विधा शृङ्गार उच्यते । संयुक्तयोस्तु संभोगो विप्रलम्भो वियुक्तयोः ॥ पूर्वानुरागमानाख्यप्रवासकरुणात्मना। विप्रलम्भश्चतुर्धात्र प्रवासस्तत्र च विधा । कार्यतः संभ्रमाच्छापादस्मिन्काव्ये तु शापजः । प्रागसंतयोयूँनोः सति पूर्वानुरअने ॥ चक्षुःप्रीत्यादयोऽवस्था दश स्युस्तत्क्रमो यथा । दृङ्मनःसङ्गसंकल्पा जागरः कृशता रतिः॥ ह्रीत्या गोन्मादमन्तिा इत्यनङ्गदशा दश । पूर्वसंगतयोरेव प्रवास इति कारणात् ॥ न तत्रापूर्ववच्चक्षुःप्रीतिस्त्पत्तुमर्हति । सत्सङ्गस्त तु सिद्धस्थाप्यविच्छेदोऽत्र वर्ण्यते ॥ अन्यथा पूर्ववद्वाच्या इति तावव्यवस्थितेः। वैयर्थ्यादादिमां हित्वा वैरस्यादन्तिमां तथा ॥ हृत्सङ्गादिरिहाचष्ट कविरष्टाविति स्थितिः॥ मत्सादृश्यं लिखन्तीति पद्येऽस्मिन्प्रतिपादिता । चक्षुःप्रीतिरिति प्रोक्तं निरुत्तरकृताननम् । चक्षुःप्रीतिर्भवेचित्रेष्वदृष्टचरदर्शनात । यथा मालविकारूपमग्निमित्रस्य पश्यतः । प्रोषितानां च भर्तृणां च दृष्टादृष्टपूर्वता ॥ अथ तत्रापि संदेहे स्वकलत्राणि पृच्छतु । किं भर्तृप्रत्यभिज्ञा स्यात्कि वैदेशिकभावना ॥ प्रवासादागते स्वस्मिनित्यलं कलहैर्वृथा ॥” इति ॥ ३० ॥
(चारिक) तस्या दैन्यं निरूपयति । सेति--सा अबला स्त्री एतादृशं गात्रं धारयन्ती सती त्वामपि नवजलमयं अस्त्रं बापं मोचयिष्यति । तथा दुःखितां तां विलोक्य त्वमपि रोदिष्यसीत्यर्थः । न केवलं मामपि त्वामपीत्यपेरर्थः । तस्या दुःखे तव रोदनं किं कारणमित्याह । आन्तिरात्मा सरसमनोवृत्तिः । सर्वः प्रायो बाहुल्येनावश्यं करुणमयी वृत्तिर्यस्य स तादृशो भवति । कीदृशं वपुः । विरहात्सन्यस्तानि त्यक्तान्याभरणानि यस्यतत् । तथा पेलवं मृदु । अत एव शय्याया उत्सङ्ग पृष्टे दुःखेनातिक्लेशेन असकृद्वारं वारं निहितं दुःखदुःखेनेति । अतिशये द्विवचनम् । गात्रं वपुः संहननमित्यमरः ॥३०॥
(भाव०)हे मेघ ! अनलार शोककृशम कथंचित् धारयन्ती सा मे प्रिया निजदुरवस्थादर्शनात् त्वामपि नवजलमयमच मोचयिष्यति, यत आन्तिरः सर्वोऽपि सकरुणो भवति ॥३०॥ नन्वीदृशी दशामापन्नेति कथं त्वया निश्चितमत आहजाने सख्यास्तव मयि मनः संभृतस्नेहमस्मा.
दित्थंभूतां प्रथमविरहे तामहं तर्कयामि । वाचालं मां न खलु सुभगंमन्यभावः करोति
प्रत्यक्षं ते निखिलमचिराातरुक्तं मया यत् ॥३१॥ ( सञ्जी० ) जान इति ॥ हे मेघ, तब सख्या मनोमयि संभृतस्नेहं संचितानुरागं जाने । अस्मात्स्नेह जानकारणात्प्रथमविरहे। प्रथमग्रहणं दुःखातिशयद्योतनार्थम् । तां त्वत्सखीमित्थंभूतां पूर्वोक्तावस्थामापन्नां तर्कयामि ॥ ननु सुभगमानिनामेष स्वभावो यदात्मनि स्त्रीणामनुरागप्रकटनं तत्राह-वाचालमिति। सुभगमात्मानं मन्यत इति सुभगमन्यः ॥ "आत्ममाने खश्व" इति खाप्रत्ययः । "अरुषि-" इत्यादिना मुमागमः ॥ तस्य भावः सुभगंम
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सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहितेन्यभावः सुभगमानित्वं मां वाचालं बहुभाषिणं न करोति खलु । सौन्दर्याभिमानितां न प्रकटयामीत्यर्थः॥ "स्याजल्पाकस्तु वाचालो वाचाटो बहुगर्यवाक्" इत्यमरः ॥ आलजाटजौबहभाषिणि" इत्यालच्प्रत्ययः ॥ किंतु हे भ्रातः मयोक्तं यत् “आधिक्षामाम्" इत्यादि तन्निखिलं सर्वमचिराच्छीघ्रमेव ते तव प्रत्यक्षम् । भविष्यतीति शेषः ॥३१॥
(चारि० ) एतादृशी सा कथं ज्ञायत इत्याह । जान इति-भो मेघ तव सख्या मत्प्रियाया मनोमयि विषये सम्भृतस्नेहमहं जाने । अस्मात्कारणात्प्रथमविरहे इत्थंभूतां तां तर्कयामि । उत्प्रेक्षे। सुभगमात्मानं मन्यते सुभगंमन्यस्तस्य भावो मां वाचालं यत्किंचन वादिनं न खलु करोति । कुत एतदित्याह । यद्यस्मात् । हे भ्रातः निखिलं मयोक्तं तत्तेऽचिरात्प्रत्यक्षं भविष्यति । एवं भूतां तामवेक्ष्य मद्वचः सत्यमिति ज्ञास्यसीति तात्पर्यार्थः ॥ ३१ ॥
(भाव० ) हे मेघ ! मम प्रियाया मनोमयि सस्नेहमिति तस्मिन् प्रथमविरहे ईदृशी. महं तर्कयामि नाई सुन्दरंमन्यभावेन वाचालोऽस्मि । मदुक्तमचिरात्ते प्रत्यक्ष भवेत् ॥ ३१ ॥ रुद्धापाङ्गप्रसरमलकैरञ्जनस्नेहशून्य
प्रत्यादेशादपि च मधुनो विस्मृतभूविलासम् । त्वरयासन्ने नयनमुपरिस्पन्दि शङ्के मृगाक्ष्या
__ मीनक्षोभाचलकुवलयश्रीतुलामेष्यतीति ॥ ३२ ॥ (सजी० ) रुद्वेति । अलकै रुद्धा अपाङ्गयोः प्रसरा यस्य तत्तथोक्तम् । अञ्जनेन स्नेहः स्नैग्ध्यं तेन शून्यम् । स्निग्धाञ्जनरहितमित्यर्थः । अपि च किंच मधुनो मद्यस्य प्रत्यादेशानिराकरणात् । परित्यागादित्यर्थः ॥ “प्रत्यादेशो निराकृतिः" इत्यमरः ॥ विस्मृतो भ्रूविलासो भ्रूभङ्गो येन तत्। नयनस्य रुद्धापाङ्गप्रसरत्वादिकं विरहसमुत्पन्नमिति भावः। त्वय्यासन्ने सति । स्वकुशलवार्ताशंसिनीति शेषः । उपव॑भागे स्पन्दते स्फुरतीत्युपरिस्पन्दि । तथा च निमित्तनिदाने-"स्पन्दान्मूनि च्छत्रलाभ ललाटे पट्टमंशुकम् । इष्टप्राप्तिं दृशोरूमपाङ्गे हानिमादिशेत् ॥” इति ॥ मृगाक्ष्यास्त्वत्सख्या नयनम् । वाममिति शेषः । “वामभागस्तु नारीणां पुंसां श्रेष्ठस्तु दक्षिणः । दाने देवादिपूजायां स्पन्देऽलंकरणेऽपि च ॥” इति स्त्रीणां वामभागप्राशस्त्यात् मीनक्षोभान्मीनचलनाञ्चलस्य कुवलयस्य श्रियाः शोभायास्तुला सादृश्यमेष्यतोति शङ्के तर्कयामि ॥ ( तुल्याथरतुलोपमाभ्यां तृतीया ) इति कृयोगे तृतीया (?) ॥३२॥
(चारि० ) अपि तत्र गते सति तस्याः शुभनिमित्तं व्याचष्टे । रुद्वेति-भो मेघ त्वयि आसन्ने निकटवर्तिनि सति मृगाक्ष्या मत्प्रियाया नयनं वामनेत्रं विवक्षितैकवचनाकर्तृ मीनानां क्षोभात् परिवर्तनात् चलं यत्कुवलयं नीलोत्पलं तस्य श्रियस्तुलामेष्यतीति शड़े सम्भावयामि । कीदृशम् । अलकैरुद्धोऽपाङ्गेन प्रसरो यस्य तत् । अञ्जनेन स्नेहः स्निग्धत्वं तेन शून्यं, मधुनो मद्यस्य प्रत्यादेशात् निराकरणाद्विस्मृता भ्रूविलासा येन तत् । स्त्रीणां स्वभावत एव विलासयोगेऽपि मधुपानस्याभावान्नाभिव्यक्तिरिति भावः । उपरिस्पन्दश्चलनं यस्य तत् । "अपाङ्गौ नेत्रयोरन्तौ" । "प्रत्यादेशो निराकृतिरित्यमरः” ॥ ३२ ॥
(भाव० ) हे मेघ ! मद्विरहवशादकृतशरीरसंस्काराया मे प्रियाया अञ्जनशून्यमविलास चक्षु स्त्वद्विलोकने चलकमलशोभां प्राप्स्यते ॥ ३२॥ वामश्चास्याः कररुहपदैर्मुच्यमानो मदीय
मुक्ताजालं चिरपरिचितं त्याजितो दैवगत्या ।
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मेघदूत-उत्तरमेघः । संभोगान्ते मम समुचितो इस्तसंवाहनानां
यास्यत्युरुः सरसकदलीस्तम्भगौरश्चलत्वम् ॥ ३३ ॥ (सजी० )वाम इति॥ मदीयैःकररुहपदैः ॥ "पुनर्भवः कररहो नखोऽस्त्री नखरोऽस्त्रियाम्" इत्यमरः ॥ मुच्यमानः परिहीयमाणः । नखाङ्करहित इत्यर्थः । उर्वार्नखपदास्पदत्वं तु रतिरहस्ये-"कण्ठकुक्षिकुचपावभुजोरःश्रोणिसक्थिषु नखास्पदमाहुः” इति ॥ चिरपरिचितं चिराभ्यस्तं मुक्ताजाल मौक्तिकसरमयं कटिभूषणं दैवगत्या दैववशेन त्याजितः । संप्रति नखपदोमाभावेन शीतोपचारस्य तस्य वैयर्थ्यादिति भावः ॥ त्यजतेय॑न्तात्कर्मकर्तरि क्तः । "द्विकर्मसु पचादीनां चोपसंख्यानमिष्यते” इति पचादित्वाद्विकर्मकत्वम् ॥ संभोगान्ते मम हस्तसंवाहनानां हस्तेन मनानाम् ॥ “संवाहनं मर्दनं स्यात्" इत्यमरः ॥ समुचितो योग्यः॥ सरसो रसाः परिपक्वो न शुष्कश्च स एव विवक्षितः । तत्रैव पाण्डिमसंभवात् । स चासो कदलीस्तम्भश्च स इव गौरः पाण्डुरः ॥ "गौरः करीरे सिद्धार्थे शुक्ले पीतेऽरुणेऽपि च” इति मालतीमालायाम् ॥ अस्याः प्रियाया वाम उरुश्चलत्वं स्पन्दनं यास्यति प्राप्स्यते । “उरोः रूपन्दादति विद्यादूर्वाः प्राप्ति सुवाससः" इति निमित्तनिदाने ॥ ३३ ॥
(चारि०) वाम इति-अस्याः प्रियायाः वाम उरुश्चञ्चलत्वं चञ्चलतां यास्यति । मम सन्देशहारिणि समोपवर्तिनि सति तस्याः शुभसूचकं वामनेत्रस्फुरणं च भविष्यतीति तात्पयार्थः । कीदृशः । मदीयैः कररुहैः नखक्षतैर्मुच्यमानस्त्यज्यमानः चिरं बहुकाले परिचितमभ्यस्तं मुक्तामयं कटितटभूषणं देवगत्या विधिवशेन त्याजितः । तथा सम्भोगस्य सुरतस्यान्तेऽवसाने मम हस्तसंवाहनानां करमर्दनानां समुचितः । कनकस्य कदलीस्तम्भस्तद्वद्गौरः पाण्डुः “पुनर्भवः कररहो!नखोऽस्त्री नखरोऽस्त्रिया” मित्यमरः । योषित ऊरुमूले दत्तनखक्षतनिर्वापणाय मुक्काजालं दधति । एतया तु नखक्षतसंयोगाऽभावतो मुक्ताजालं न कृतमिति ज्ञेयम् ॥ ३३ ॥
(भाव० ) हे मेध ! त्वदवलोकनेन सम्प्रति मदीयनखाङ्कशुन्या मुक्काजालरहितो म. प्रियाया वामऊरुः शुभाशंसी स्पन्दिस्यते ॥ ३३ ॥
तस्मिन्काले जलद यदि सा लब्धनिद्रासुखा स्या.
__दन्वास्यैनां स्तनितविमुखो याममात्रं सहस्व । मा भूदस्याः प्रणयिनि मयि स्वमलब्धे कथंचि
त्सद्यःकण्ठच्युतभुजलताग्रन्थि गाहोपगूढम् ॥३४॥ ( सञ्जी० ) तस्मिन्निति ॥ हे जलद, तस्मिन्काले त्वदुपसर्पणकाले सा मत्प्रिया लब्धं निद्रासुखं यया तादृशी स्याद्यदि स्याचेत् । एनां निद्राणामन्वास्य । पश्चादासित्वेत्यर्थः ॥ उपसर्गवशात्सकर्मकत्वम् ॥ स्तनितविमुखो गर्जितपराङ्मुखो निःशब्दः सन् । अन्यथा निद्राभङ्गः स्यादिति भावः । याममात्र प्रहरमात्रम् "द्वौ यामप्रहरौ समो” इत्यमरः । सहस्व प्रतीक्षस्व ॥ प्रार्थनायां लोट् ॥ शक्तयोरेकवारसुरतस्य यामावधिकत्वात्स्वप्नेऽपि तथा भवितव्यमित्यभिप्रायः । तथा च रतिसर्वस्वे-"एकवारावधिर्यामो रतस्य परमो मता। चण्डशक्तिमतो यूनोरभूतक्रमवर्तिनोः॥” इति ॥ यामसहनस्य प्रयोजनमाह-मा भूदिति ॥ अस्याः प्रियायाः प्रणयिनि प्रेयसि मयि कथंचित्कृच्छ्रेण स्वप्नलब्धे सति गाढालिङ्गानम् ॥ नपुंसके भावे कः ॥ सद्यस्तत्क्षणं कण्ठाच्च्युतः स्रस्तो भुजलतयोग्रन्थिबन्धो यस्य तन्मा भन्मास्तु । कथंचिल्लब्धस्यालिङ्गानस्य सद्यो विघातो मा भूदित्यर्थः । न चात्र निद्रोक्तिः "तामुन्निद्राम्" इति पूर्वोक्तन निद्राच्छेदेन विरुध्यते, पुनः सप्तम्याद्यवस्थासु पाक्षिकनिद्रासंभवात् ॥ तथा च
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७२ सञ्जीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहितेरसरताकरे-"आसक्ती रोदनं निद्रा निर्लज्जानर्थवाग्भ्रमः । सप्तमादिषु जायन्ते दशाभेदेषु वासुके ॥” इति ॥३४॥
(चारि०)। निजवल्लभायाः स्वस्मिन्प्रेम प्रकटयन्नाहातस्मिन्नितिहे जलद तस्मिन्काल निशीथे सा स्त्री यदि लब्धं निद्रासुखं यया सा ताशी स्यात्तहि तत्र गवाक्षमागे स्तनितविमुखो गर्जितरहित आसीनः सन् याममात्र सहस्व प्रतीक्ष्येथाः । किमर्थमित्याह । अस्याः प्रियायाः प्रगयिनि भर्तरि मयि कवित्स्वानलब्धे सति गाढं दृढं च तदुपगूढमालिङ्गन च सद्यः कण्ठात् प्रच्युतो बाहुलताग्रन्थिः पाशो यस्य तन्माभूत् । क्षणं निमील्य नेत्रे सहसा व्यबुद्धतेति वचनात् । स्वप्नापेक्षया याममात्रमिति नोक्तं किन्तु सम्भोगापेक्षया सम्भोगस्य परमावधिर्यामः । उक्तं च-"रामायां तु रतियूनामिष्टा यामावसानिकीति" ॥ ३४ ॥
(भाव०) हे मेघ ! त्वदुपसर्पणक्षणे यदि मे प्रिया मुप्ता स्यासहि याममात्रं निःशब्दः प्रतीक्षस्व । स्वप्ने लब्धे मदाढपरिरम्भे विघ्नं मा कुरु ॥ ३४ ॥ तामुत्थाप्य स्वजलकणिकाशीतलेनानिलेन
प्रत्याश्वस्तां सममभिनवैजोलकैर्मालतीनाम् । विद्युद्गर्भः स्तिमितनयनां त्वत्सनाथे गवाक्षे
वक्तुं धीरः स्तनितवचनैमानिनी प्रक्रमेथाः ॥३५॥ (सी० ) तामिति ॥ तां प्रियां स्वस्य जलकणिकाभिर्जलबिन्दुभिः शीतलेनानिलेनोत्यान्य प्रबोध्य । एतेन तस्याः प्रभुत्वाद्वय जनानिलसमाधिय॑ज्यते । यथाह भोजराजः"मृभिर्मर्दनः पादे शीतलैय॑र्जनस्तनौ । श्रुतौ च मधुरैगीतनिद्रातो बोधयेत्प्रभुम्" इति ॥ अभिनवैतनैर्मालतीनां जालकैः समं जातीमुकुलैः सह ॥ "सुमना मालती जातिः” इति । "साक सत्रासमं सह" इति। क्षारको जालकं क्लीवे कलिका कोरकः पुमान्" इति चामरः ॥ प्रत्याचस्तां सुस्थिताम् । अन्यच्च पुनरुछ्वसिताम् । श्वसेः कर्तरि क्तः। “उगितश्च" इति चकारादिप्रतिषेधः (?)। एतेनास्याः कुसुमसौकुमार्य गम्यते। त्वत्सनाथे त्वत्सहिते । "सनाथं प्रभुमित्याहुः सहित चित्ततापिनि" इति शब्दार्णवे । गवाने स्तिमितनयनां कोsसाविति विस्मयानिश्चलनेत्रां मानिनी मनस्विनाम् । जनानौचित्यासहिष्णुमित्यर्थः । विद्युदोऽन्तःस्यो यस्य स विद्युद्गर्भः । अन्तलीनविद्युत्क इत्यर्थः । “गोऽपवरकेऽनास्थे गर्भाऽनौ कुक्षिगोऽर्भके" इति शब्दार्णवे। दृष्टिप्रतिवातेन वक्तुर्मुखावलोकन प्रतिबन्धकत्वान्न विद्युता योतितव्यमितिभावः। धारो धैयविशिष्टश्च सन् । अन्यथा शालत्यादिनैतदनाश्वासनप्रसङ्गादिति भावः । स्तनितवचनैः स्तनितान्येव वचनानि तेर्वक्तुं प्रक्रमेथा उपक्रमस्व ॥ विध्यर्थे लिङ्ग ॥ "प्रोपाभ्यां समर्थाभ्याम्" इत्यात्मनेपदम् ॥ ३५ ॥
(चारि०) अथ कृत्यं दर्शयन्नाह तामिति--हे जलद स्वजलस्य कणिकाभिविन्दभिः शीतलेनानिलेन वायुना मालतीनां जातीनामभिनवैर्जालकैः कलिकाभिः समं प्रत्याश्वस्तां प्रतिबुद्धां गतग्लानि वा तां प्रियामुत्थाप्य त्वं धीरैः स्तनितानि गर्जितान्येव वचनानि तैमीनिनी मनस्विनी वक्तुं प्रक्रमेथाः प्रारभेथाः । कीदृशस्त्वम् । विद्युदर्भ यस्य स तादृशः सन् । कीदृशीं वत्सनाथे त्वयुक्ते गवाने स्तिमिते निश्चले नयने यस्या भतुः सकाशात्कोप्यगच्छेदित्युत्कण्ठया वातायनदत्तचक्षुषम् । वर्षो मालत्यः पुष्प्यन्ति निशि विकसन्तीति प्रसिद्धिः । तदपादानं ततोऽपि तस्याः सौकुमार्थसूचनार्थम् ॥ ३५ ॥
(भाव०) हे मेघ ! स्वजलकणशिशिरेण वायुना तो प्रबोध्य त्वदधिष्ठितगवाक्षे निश्चल. दृष्टिं तां गर्जितरूपैर्वचनैर्वक्तुं प्रारभस्व ॥ ३५ ॥
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मेघदत-उत्तरमेघः ।
७३ संप्रति दूतस्य श्रोतृजनामिमुखीकरणचातुरीमुपदिशतिभर्तुमित्रं प्रियमविधवे विद्धि मामम्बुवाई
तत्संदेशैर्हृदयनिहितैरागतं त्वत्समीपम् । यो वृन्दानि त्वरयति पथि श्राम्यतां प्रोषितानां
मन्द्रस्निग्धैर्ध्वनिभिरवलावेणिमोक्षात्सुकानि ॥३६॥ (सजी० ) भर्तृ रिति ॥ विधवा गतभर्तृका न भवतीत्यविधवा सभर्तृका । हे अविधवे। अनेन भर्तृजीवनसूचनादनिष्टाशङ्का वारयति । मां भर्तुस्तव पत्युः प्रिय मित्रं प्रियसुहृदम् । तत्रापि हृदयनिहितैर्मनसि स्थापितैस्तत्संदेशैस्तस्य भर्तुः संदेशैस्त्वत्समीपमागतम् । भर्तुः संदेशकथनार्थमागतमित्यर्थः। अम्बुवाहं मेघं विद्धि जानीहि ॥ न केवलमह वार्ताहरः किंतु घटकोऽपीत्याशयेनाह । योऽम्बुवाहो मेघो मन्दस्निग्धैः स्निग्धगम्भीरैर्ध्वनिभिर्गजितैः करणेंरखलानां स्त्रीणां वेशयस्तासां मोक्षे मोवन उत्सुकानि पथि श्रिाम्यतां श्रान्तिमापन्नाना प्रोषितानां प्रवासिनाम् । पान्थानामित्यर्थः । वृन्दानि सांस्त्वरयति । पान्थोपकारिणो मे किमु वक्तव्यं सुहृदुपकारित्वमिति भावः ॥ ३६॥
(चारि०) सन्देशप्रकारं दिशति भर्तुरिति, हे अविधवे सुवासिनि अमुना तव रमणो जवती. त्युक्तम् । भत्तः प्रिय मित्रं मनसि निहितैस्तत्सन्देशैः, त्वत्समीपमागतं मामम्बुवाहं विद्धि जानीहि । न केवलं तस्य मित्रमानं किन्तु त्वत्प्राप्तये तस्य प्रोत्साहकश्च भवामीत्याह । यः प्रोषितानां कार्यवशागार्यो विहाय देशान्तरं गतानां पथिकानां वृन्दानि समूहान् मन्दस्निग्धै धीरमधुरैर्ध्वनिभिजितैरबलाना भर्तृ विरहिताङ्गनानां वेणयः केशसंयमनविशेषास्तासां मोक्षोमोचनं तत्रोत्सुकानि उत्कण्ठितानि त्वरयति ॥ ३६॥
(भाव०) है मेघ ! त्वया मत्प्रिया प्रतीत्थं वक्तव्यम्, हे सौभाग्यवति यःप्रोषितान्त्वरित गृह प्रापयति तं ते पत्युमिन मेध मां विद्धि । तत्सन्देशमादाय त्वदन्तिकमागतोऽस्मि ॥३६॥ भर्तृसख्या दिज्ञापनस्य फलमाहइत्याख्याते पवनतनयं मैथिलीवोन्मुखी सा
त्वामुत्कण्ठाच्छ्वसितहृदया वीक्ष्य संभाव्य चैवम् । श्रोष्यत्यस्मात्परमवहिता सौम्य सीमन्तिनीनां
कान्तोदन्तः सुहृदुपनतः संगमास्किचिदूनः ॥ ३७॥ (सञ्जी०) इतीति ॥ इत्येवमाख्याते सति पवनतनयं हनूमन्तं मैथिलीव सीतेव सा मत्प्रिया। उन्मुख्युत्कण्ठ्यौत्सुक्येनोच्छ्वसितहृदया विकसितचित्ता सतीत्वां वीक्ष्य सम्भाव्य सत्कृत्य च । अस्मागर्तृमैत्रीज्ञापनात्परं सर्व श्रोतव्यम् । अवहिताऽप्रमत्ता सती श्रोष्यत्येव ॥ अन्न सीताहनुमदुपाख्यानादस्याः पातिव्रत्य मेघस्य दूतगुणसम्पत्तिश्च व्यज्यते । तद्गुणास्तु रसाकरे-"ब्रह्मचारी बली धीरो मायावी मानवर्जितः । धीमानुदारो निःशड़ो वक्ता दूतः स्त्रियां भवेत् ॥ इति ॥ ननु वार्तामात्रश्रवणादस्याः को लाभ इत्याशड्यार्थान्तरमुपन्यस्यति-हे सौम्य साधो, सीमन्तिनीनां वधूनाम् ॥ "नारी सीमन्तिनी वधूः" इत्यमरः ॥ सुहृदा सुहृन्मुखेनोपनतः प्रासः सन् । सुहृत्पदं विप्रलम्भशानिवारणार्थम् । कान्तस्योदन्तो वार्ता कान्तोदन्तः ॥ “वार्ता प्रवृत्तिवृत्तान्त उदन्तः स्यात्" इत्यमरः ॥ संगमात्कान्तसम्पर्कात्किचिदून ईषदूनस्तद्वदेवानन्दकारीत्यर्थः ॥ ३७॥
(चारि०) इतीति-हे सौम्य मेघ त्वया इत्याख्याते कथिते सति सा प्रेयसी उन्मुखी सती १० मेघ०
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७४ सजीवनाचारित्रबद्धनीभावप्रबोधिनीसहितेउत्कण्ठ्योच्छ्वसितं हृदयं चेतो यस्याः सा तादृशी मैथिली सीता पवनतनयं हनुमन्तमिव त्वां वीक्ष्य सम्भाष्य च सम्भावनायां च विधायेत्यर्थः । अस्मदर्तुमित्रमित्यस्माद्वचनात् परमविहिता सावधाना भवन्ती सन्देश श्रोष्यति । सावधानत्वे को हेतुरित्याह । सीमन्तिनीनां स्त्रीणां सुहृदा मित्रेणोपहृतः आनीतः कान्तस्य वल्लभस्योदन्तो वृत्तान्तो सङ्गमात्संयोगात्किञ्चिन्मनाक् उनो हीनस्तत्सदृशो भवतीत्यर्थः ॥३७॥
(भाव) हे मेघ ! इत्थमाकर्ण्य सीता हनूमन्तमिव त्वां वीक्ष्य सम्माव्य च मे प्रिया सादरं सन्देश श्रोष्यति । हि सुहृदांनीतः कान्तवृत्तान्तः सीमन्तिनीनां कृते सङ्गमकल्पो भवति ॥ ३७॥ सम्प्रति संदिशतितामायुष्मन्मम च वचनादात्मनवोपक
यादेवं तव सहचरो रामगिर्याश्रमस्थः । अव्यापत्रः कुशलमबले पृच्छति त्वां वियुक्तः
पूर्वाभाष्यं सुलभविपदा प्राणिनामेतदेव ॥ ३८ ॥ __(सञ्जी० ) तामिति ॥ हे आयुष्मन् । प्रशंसायां मतुप् । परोपकारश्लाध्यजीवितेत्यर्थः ॥ मम वचनं प्रार्थनावचनं तस्माच्चात्मनः स्वस्योपकतुं च परोपकारेणात्मानं कृतार्थयितुमित्यर्थः ॥ उपकारक्रिया प्रति कर्मत्वेऽपि तस्योपकरोतीत्यादिवत्सम्बन्धमात्रविवक्षायामात्मन इति पष्ठी न विरुध्यते । यथाह भारविः-“सा लक्ष्मीरुपकुरुते यया परेषाम्" इति । तथा श्रीहर्षश्च-"साधूनामुपकतुं लक्ष्मी द्रष्टुं विहायसा गन्तुम् । न कुतूहलि कस्य मनश्चरित च महात्मनां श्रोतुम् ॥” इति । तथा च "क्वचित्क्वचित् द्वितीयादर्शनात्सर्वस्य तथा" इति नाथवचनमनाथवचनमेव ॥ तां प्रियामेवं ब्रूयात् । भवानिति शेषः ॥ किमित्याह । हे अबले, तव सहचरो भर्ता रामगिरेश्चित्रकूटस्याश्रमेषु तिष्ठतीति रामगिर्याश्रमस्थः सन्नव्यापन्नः । न मृत इत्यर्थः । अमरणे हेतुमाह-वियुक्तो वियोगं प्राप्तो दुःखी संस्त्वां कुशलं पृच्छति ॥ दुह्यादित्वात्पृच्छतेद्विकर्मकत्वम् तथाहि । सुलभविपदामयनसिद्धविपत्तीनां प्राणिनामेतदेव कुशलमेव पूर्वाभाष्यमेतदेव प्रथममवश्यं प्रष्टव्यम् "कृत्याश्च" इत्यावश्यका) ण्यत्प्रत्ययः॥३८॥
(चारि०) कुशलपृच्छाकपटेन स्वजीवितं ज्ञापयति । तामिति-हे आयुष्मन् मेघ मम वचनाद्वाक्याच्चात्मन उपहतुं च तां मद्योषां एवं वक्ष्यमाणं ब्रूयाः कथयेः । एवमिति किम् । हे अबले प्रोषितभर्तृके रामगिर्याश्रमस्थोऽव्यापनः कुशलवान् वियुक्तो दूरवर्ती सन् तव सहचरः पतिस्त्वां कुशलं पृच्छति । पृच्छति द्विकर्मकः । एतदेव किमिति । प्रष्टव्यमत आह । सुलभा विपदो येषां तेषां प्राणिनामेतदेव कुशलमेव पूर्वभाष्यं प्रथमप्रार्थनीयम् । आयुष्मन्नित्यनेन त्वयि जीवति सा चाहं च जीवाव इत्यसूचि । "कुशलं क्षेममस्त्रियामित्यमरः" ॥३८॥ :
(भाव०) हे मेध ! त्वं तामेवं ब्रूयाः, यत् रामगिर्याश्रमस्थस्तव प्रिया कुशली ते कुशल पृच्छति । विपन्नानामिदमेव पूर्वाभाष्यम् ॥ ३८॥ अङ्गेनाङ्गं प्रतनु तनुना गाढतप्तेन तप्तं
साणाश्रुद्रुतमविस्तोत्कण्ठमुत्कण्ठितेन । उष्णोच्छ्वासं समधिकतरोच्चासिना दूरवर्ती
संकल्पैस्तैर्विशति विधिना वैरिणा रुद्धमार्गः ॥ ३९ ॥ (सञ्जी० ) अड्रेनेति ॥ किं च । दूरवर्ती दूरस्थः । न चागन्तुं शक्यत इत्याह । वैरिणा
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मेघदत-उत्तरमेधः । विगेधिना विधिना देवेन रुद्धमार्गः प्रतिबद्धवा स ते सहचरः तनुना कृशेन गाढतप्तेनात्पन्तसन्तप्तेन सास्त्रेण सानुगा । उत्कण्ठा वेदनास्यजातोत्कण्ठितस्तेनोत्कण्ठितेन ॥ “तदस्य संजातम्-" इत्यादिना तच्प्रत्ययः उत्कण्ठतेर्वा कर्तरि क्तः ॥ समधिकतरमधिकमुच्छ्वसितीति समधिकतरोच्छ्वासि तेन ॥ दीर्घनिःश्वासिनेत्यर्थः ॥ ताच्छील्ये णिनिः ॥ अङ्गेन स्वशरीरेण प्रतर्नु कृशं तप्त वियोगदुःखेन सन्तप्तमश्रद्रुतमश्रुक्लिनम् ॥ अश्रु नेत्राम्बु । "रोदन चास्रमनु च" इत्यमरः । अविरतोत्कण्ठमविच्छिन्नवेदनमुष्णोच्छ्वासंतीवनिःश्चासम् । "तिग्म तीव्र स्वरं तीक्ष्णं चण्डमुष्णं समं स्मृतम्" इति हलायुधः । अङ्गं त्वदीयं शरीरं तैः स्वसम्वेयैः संकल्पैमनोरथैविशति । एकीभवतीत्यर्थः ॥ अत्र समरागित्वद्योतनाय नायकेन नायिकायाः समानावस्थत्वमुक्तम् ॥ ३९ ॥
(चारि०) सन्देशान्तरं द्यूते अङ्गनेति-हे सुन्दरि वैरिणा विधिना विधात्रा रुद्धमागे दूरस्थस्ते प्रियस्तैस्तैः सङ्कल्पैर्मनोव्यापारैस्त्वां विशति प्रवेश करोति केन केन सङ्कल्पेन केन प्रकारेण विशतीत्युत्प्रेक्षायामाचष्टे । तनुना कृशेनाङ्गेन देहेन प्रतनु अङ्ग विशति कृशत्वे निमित्तमाह । कीदृशेन गाढं तप्तेन । कीदृशं तप्तं तत्राभिव्यञ्जकमाह । सास्त्रेण बाष्पयुक्तेन तथाऽश्रद्रुतं द्रुताखें । अहिताग्न्यादिपाठात् । अश्रुपाते हेतुमाह । उत्कण्ठितेन तथाऽविरतो विच्छिन्नोत्कण्ठा यस्य तत् । आत्मधर्माऽप्युत्कण्ठादयः शरीरेऽपि प्रयुज्यन्ते उपचारात् । उत्कण्ठायामभिव्यञ्जकमाह। समधिकस्तीक्ष्ण उच्छ्वासो यस्य तेन । तथोष्णोच्छ्वासम् । विशतीति सर्वत्र योज्यम् । तिग्म तीब खरं तीक्ष्णं चण्डमुणं पटुस्मृतमिति यादवः ॥३९॥
(भाव०) हे मेघ! "देवादू दूरवर्ती ते प्रियः तनुना तप्तेन सास्त्रेण उत्कण्ठितेन सो. च्छ्वासेन च स्वाङ्गेन ताशमेव तेऽङ्ग मनोरथैर्विशति" इति ब्रूयाः ॥३९॥ संप्रति स्वावस्थानिवेदनाय प्रस्तौतिशब्दाख्येयं यदपि किल ते यः सखीनां पुरस्ता
कर्णे लोलः कथयितुमभूदाननस्पर्शलोभात् । सोऽतिक्रान्तः श्रवणविषयं लोचनाभ्यामदृष्ट
स्त्वामुत्कण्ठाविरचितपदं मन्मुखेनेदमाह ॥ ४० ॥ (सञ्जी० ) शब्दाख्येयमिति ॥ हे अबले, यस्ते प्रियः सखीनां पुरस्तादन आननस्पर्शत्वन्मुख संपर्के लोभाद्गार्थ्यात् । अधरपानलोभादित्यर्थः । शब्दाख्येयं शब्देन वेणाख्येयमुच्वैर्वाच्यमपि यत्तत् । वचनमपीति शेषः। कर्गे कथयितुं लोलो लालसोऽभूत्किल ॥ "लोलुपो लोलुभो लोलो लालसो लम्पटोऽपि च" इति यादवः ॥ श्रवणविषयं कर्णपथमतिक्रान्तः तथा लोचनाभ्यामदृष्टः । अतिदूरत्वाद्रष्टुं श्रोतुं च न शक्य इति भावः । स ते प्रियः । त्वामुत्कण्ठया विरचितानि पदानि सुप्तिङन्तशब्दा वाक्यानि वा यस्य तत्तथोक्तम् ॥ "पदं शब्दे च वाक्ये चाइति विश्वः ॥ इदं वक्ष्यमाणं "श्यामास्वङ्गम्" इत्यादिकं मन्मुखेन स एव ब्रूत इत्यर्थः ॥ ४०॥
(चारि०) निजप्रीतिकथनेन वल्लभायाः प्रीतिमुत्पादयति । शब्देति-स यक्षः श्रवणविषयमन्योन्यवार्ताश्रवणदेशमतिक्रान्तो लोचनाभ्यां अदृश्यो भवन् मन्मुखेनोत्कण्ठामधिकृत्य । विरचितपदं यथा स्यात्तथा तत्वमिदं वक्ष्यमाणमाह । सकः । यो यक्षः शब्द एवाख्योऽभिधेयो यस्य यद्वचनं आननशब्देनोच्चैः शब्देनाख्येयं वा। तदपि किलेति सम्भावनायां सखीनां पुरस्तादाननस्पर्शलोभात् । त्वन्मुखस्पर्शसुखाभिलाषात्ते तव कर्णे कथयितुं लोलो लम्पटोऽभूत् ॥ ४०॥
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सीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहिते -
(भाव) मेव ! "यस्ते पतिः शब्दवाच्यमपि त्वत्कपोलस्पर्शलोमात् करें वक्तुमु. त्सुक आसीत् , स इदानी नयनश्रोत्रयोरगोचरः सन् सोत्कणी मन्मुखेनेदमाह" इतिव्याः ॥४०॥
सादृश्यप्रतिस्वप्नदर्शनतदङ्गस्पर्शाख्यानि चत्वारि विरहिणां विनोदस्थानानि । तथा चोक्तं गुणपताकायाम्-"वियोगावस्थासु प्रियजनसहक्षानुभवनं ततश्चित्रं कर्म स्वपनसमये दर्शनमपि । तदास्पृष्टानामुपनतवतां दर्शनमपि प्रतीकारोऽनङ्गव्यथितमनसां कोऽपि गदित" इति । तत्र सदृशवस्तुदर्शनमाहश्यामास्वङ्गं चकितहरिणीप्रेक्षणे दृष्टिपातं
वक्त्रच्छायां शशिनि शिखिना बईभारेषु के शान् । उत्पश्यामि प्रतनुषु नदीवीथिषु भूविलामा.
नहन्तकस्मिन्कचिदपि न ते चाण्डि सादृश्यमस्ति ॥४॥ (सञ्जी० ) श्यामास्विति ॥ श्यामासु प्रियङ्गुलतासु ॥ "श्यामा तु महिलालया। लता गोवन्दनी गुन्द्रा प्रियङ्गः फलिनी फलो" इत्यमरः ॥ अङ्ग शरीरमुत्पश्यामि । सौकुमार्यादिसाम्यादङ्गमिति तर्कयामीत्यर्थः । तथा चकितहरिणीनां प्रेक्षणे ते दृष्टिपातं शशिनि चन्द्रे वक्रच्छायां मुखकान्ति तथा शिखिना बहिणां बहभारेषु बहसमूहेषु केशान् । प्रतनुषु स्वल्पासु नदीनां वोचिषु ॥ अत्र वीचीनां विशेषणोपादानेनानुक्तगुणग्रहो दोषः । भ्रूसाम्यनिर्वाहाय महत्वदोषनिराकरणार्थत्वात्तस्येति । तदुक्तं रसरत्नाकरे-"ध्वन्युत्पादे गुणोत्कर्षे भोगोक्तौ दोषवारणे । विशेषणादिदोषस्य नास्त्यनुक्तगुणग्रहः ॥" इति ॥ भ्रूविलासान् "भ्रूपताकाः" इति पाठे भ्रवः पताका इवेत्युपमितसमासः ॥ उत्पश्यामीति सर्वत्र सम्बध्यते ॥ तथापि नास्ति मनोनितिरित्याशयेनाह-हन्तेति ॥ हन्त विपादे ॥ "हन्त हर्षेऽनुकम्पायां वाक्यारम्भविषादयोः" इत्यमरः । हे चण्डि कोपने ॥ "चण्डस्त्वत्यन्तकोपनः” इत्यमरः । गौरादित्वात् डीए ॥ उपमानकथनमात्रेण न कोपितव्यमिति भावः । कचिदपि कस्मिन्नप्येकस्मिन्वस्तुनि ते तव सादृश्यं नास्ति । अतो न निणोमीत्यर्थः । अनेनास्थाः सौन्दर्यमनुपममिति व्यज्यते ॥ ४१॥ ।
(चारि०) स्वकीय प्रेम प्रकाशयति श्यामास्थिति-हे चण्डि कोपनशीले ते सादृश्यं एकस्थं कचिदपि कुनापि नास्ति । हन्तेति खेदे । एकनाभावमेव दर्शयति । श्यामासु प्रियङ्गलतासु अङ्गमुत्पश्यामि । श्यामत्वतनुताभ्यामसाहश्यम् । चकिता स्वस्ताश्च ताश्च हरिण्यस्तासां प्रेक्षिते विलोकने दृष्टिपातानुत्पश्यामि । चन्चलत्वेन सारूप्यम् । शशिनि वक्रस्य मुखस्य छायां दीप्ति कान्तिमत्त्वानन्ददायित्वाभ्यां चन्द्रमादृश्यम् । शिखिनां मयूराणां बहभारेषु केशान् । नीलत्वबहुत्वादिना तत्तुल्यता । प्रतनुषु नदीवीचिषु कल्लोलेषु भूविलासान् । कुटिलत्वदीर्घत्वाच्च सारूप्यम् । उत्पश्यामीति सर्वत्र प्रयोज्यम् । प्रियङ्गः फलिनी श्यामेत्यभिधानचिन्तामणिः । त्वामिति । हे सुन्दरि शिलायां धातुरागैगरिकादिवणेः प्रणयकुपितां स्नेहक्रुद्धां त्वामालिख्य चरणपतितमात्मानं कर्तुं यावदिच्छामि तावन्मुहुरूपचितैः प्रवृद्ध रखैरश्रुभिमें दृष्टिरालुप्यते आच्छाद्यते । कुरः कृतान्तो विधिस्तस्मिनालेख्येऽपि नौ आवयोः सङ्गम संयोग न सहते न क्षमते । अत्र बुद्ध्या रूढिमेव चित्रलेखनादिकं विवक्षितं तु न बाह्यान्तःकरणम् । अनुरागाभावप्रसङ्गात् । “कृतान्तो यमसिद्धान्तदैवाकुशलकर्मसु” इत्यमरः ॥४१॥
( भाव० )हे मेघ ! "श्यामास्व भीतहरिणी दृष्टौ दृशं चन्द्रे मुखच्छायां मयूरपिच्छे. घुकेशान् नदी तरंगेषु भ्रूविलासान् उत्पश्यतोऽपि न तस्य तृप्तिः, यतस्तेषु ते सादृश्यं नास्ति" इति श्रूयाः ॥ ४१ ॥
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मेघदूत-उत्तरमेघः । संप्रति प्रकृतिदर्शनमाहत्वामालिख्य प्रणयकुपिता धातुरागैः शिलाया।
मात्मानं ते चरणपतितं यावदिच्छामि कर्तुम् । अस्तावन्मुहुरूपचितैष्ठिरालुप्यते में
क्रूरस्तस्मिन्नपि न सहते संगम नौ कृतान्तः ॥ ४२ ॥ ( सञ्जी० ) त्वामिति ॥ हे प्रिये, प्रणयेन प्रेमातिशयेन कुपितां कुपितावस्थायुक्तां त्वाम् । त्वत्प्रतिकृतिमित्यर्थः । धातबो गैरिकाइयः ॥ "धातुर्वातादिशब्दादिगैरिकादिष्वजादिषु" इति यादवः ॥ त एव रागा रक्षकद्रव्याणि ॥ "चित्रादिरञ्जकद्रव्ये लाक्षादौ प्रणयेच्छयाः । सारङ्गादौ च रागः स्यादारुण्ये रञ्जने पुमान्" इति शब्दार्णवे । तैर्धातुरागैः । शिलायां शिलापट्ट आलिख्य निर्मायात्मानं माम् । मत्प्रतिकृतिमित्यर्थः । ते तव । चित्रगताया इत्यर्थः । चरणपतितं कतुं तथा लेखितुं यावदिञ्छामि तावदिच्छासमकालं मुहरुपचितैः प्रवृद्वैरखैरश्रुभिः कर्तृभिः ॥ "अनमश्रुणि शोणिते” इति विश्वः ॥ मे दृष्टिरालुप्यते । आवियत इत्यर्थः । ततो दृष्टिप्रतिबन्धनालेखन प्रतिबध्यत इति भावः । किंबहुना यूरोघातुकः "नृशंसो घातुकः क्रूः" इत्यमरः॥ कृतान्तो देवम् ॥ कृतान्तो यमसिद्धान्तदेवाकुशलकर्मसु' इत्यमरः ॥ तस्मिन्नपि चित्रेऽपि ॥ नावावयोः ॥ युष्मदस्मदोः षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थर्योानावौ” इति नावादेशः ॥ संग सहवास न सहते । संगमलेखनमण्यावयोरसहमानं देवमावयोः सङ्गं न सहत इति किमु वक्तव्यमित्यपिशब्दार्थः ॥ ४२ ॥
(भाव० ) मेघ ! प्रणयकुपितां ते प्रतिकृति धातुरागैः शिलायामालिख्य यावदहमात्मानं ते चरणपतितं करोमि तावदेव मुहुः प्रवृद्धर्बाष्पैमें दृष्टिशलुप्यते, मन्ये क्रूरः कृतान्तस्त. भाऽपि आवयोः सङ्गमं न सहत" इति ब्रूयाः ॥ ४२ ॥ अधुना स्वप्नप्रदर्शनमाहमामाकाशप्रणिहितभुजं निर्दयाश्लेपहेतो.
लब्धायास्ते कथमपि मया स्वप्नसंदर्शनेषु । पश्यन्तीनां न खलु बहुशो न स्थल देवताना
- मुक्तास्थूलास्तरुकिसलयेष्वश्रुलेशाः पतन्ति ॥४३॥ (सनी० ) मामिति ॥ सुप्तस्य विज्ञानं स्वप्नः ॥ "स्वप्नः सुप्तस्य विज्ञानम्" इति विग्वः ॥ संदर्शनं संवित् । “दर्शनं समये शास्त्रे दृष्टौ स्वप्नेऽक्षिण संविदि ॥” इति शब्दार्णवे ॥ स्वप्नसंदर्शनानि स्वप्नज्ञानानि ॥ चूतवृक्षादिवत्सामान्यविशेषभावेन सहप्रयोगः ॥ तेषु मया कथमिति महता प्रयत्नेन लब्धाया गृहीतायाः। दृष्टाया इति यावत् ॥ ते तत्र निर्दयाश्लेपो गाढालिङ्गन स एव हेतुस्तस्य । निर्दयाश्लेषार्थमित्यर्थः ॥ "पष्टीहेनुप्रयोगे” इति षष्ठी ॥ आकाशे निर्विषये प्रणिहितभुजं प्रसारितबाहुं मां पश्यन्तीनां स्थलीदेवतानां मुक्ता मौक्तिकानीव स्थूला अश्रुलेशा वाष्पविन्दवस्तरुकिसलयेषु अनेन चेलाञ्चलेनाश्रुधारणसमाधिर्ध्वन्यते । बहुशो न पतन्तीति न किंतु पतन्त्येवेत्यर्थः ॥ निश्चये नन्द्वयप्रयोगः । तथा चाधिकारसूत्रम्-"स्मृतिनिश्चयसिद्धार्थेषु नन्द्वयप्रयोगः सिद्धः" इति । "महात्मगुरुदेवानामनुपातः क्षितौ यदि । देशभ्रंशो महद्दुःखं मरणं च भवेद्बषम् ॥” इति क्षितौ देवताश्रुपातनिषेधदर्शनाद्यक्षस्य मरणाभावसूचनाथं तरुकिसलयेषु पतन्तीत्युक्तम् ॥ ४३ ॥
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७. सजीवनीचारित्रवर्द्धनीभावप्रवोधिनी पहिते
(चारि०) स्वप्ने संयोगमाह । मामिति-हे अविधवे स्वप्नसन्दर्शनेषु कथमपि लब्धायास्ते निर्दयं यथा स्यात्तथा आश्लेपहेतोरालिङ्गनार्थ आकाशे प्रणिहितौ प्रेरितौ बाहू यस्य सतं मां पश्यन्तीनां स्थलदेवतानां वनाधिष्ठातृणां मुक्तावत् स्थूला अश्रुगां लेशाः कगास्तरुकिसलयेषु बहुशो न पतन्ति । न पतन्त्येवेति भावः। सम्भावनाथ नद्वयमत्र प्रयुक्तम् । तरुकिसलयग्रहणं पतिताश्रुलेशप्रकाशाय ।। ४३ ॥
(भाव० ) हे मेघ ! "तब स्वप्नदर्शने त्वामालिङ्गितुं प्रसारितभुजमपि विफलं मां पश्य. त्योवनदेवताअपि रुदन्ति" इति ब्रूयाः ।। ४३ ॥ इदानीं तदङ्गस्पृष्टवस्तुदर्शनमाह-- भित्वा सद्यः किसलयपुगन्देवदारुद्रुमाणां
ये तत्क्षीरसुतिसुरभयो दक्षिणेन प्रवृत्ताः । आलिङ्गयन्ते गुणवति मया ते तुषाराद्रिवाता:
पूर्व स्पृष्टं यदि किल भवेदङ्गमभिस्तवेति ॥ ४४ ॥ (सञ्जी०) भित्त्वेति ॥ देवदारुद्रुमाणां किसलयपुटान्पल्लवपुटान्सद्यो भित्त्वा । तत्क्षीरस्नुतिसुरभयस्तेषां देवदारुद्रमाणां क्षीरश्रुतिभिः क्षीरनिष्यन्दैः सुरभयः सुगन्धयः।। तुषारादिजातत्वे लिङ्गमिदम् । ये वाता दक्षिणेन दक्षिणमागंण ॥ तृतीयाविधाने प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानात्तृतीया समेन यातीतिवत् । तत्रापि करणत्वस्य प्रतीयमानत्वात् "कर्तृ करणयोरेव तृतीया” इति भाष्यकारः ॥ प्रवृत्ताचलिताः हे गुणवति सौशोल्यसौकुमार्याद्रिगुणसंपन्ने, ते तुषाराद्रिवाताः पूर्व प्रागेभिवतिस्तवाङ्गं स्पृष्टं भवेद्यदि किति सम्भावितमेतदिति बुद्धयेत्यर्थः ॥ "वार्तासम्भाव्ययोः किल" इत्यमरः ॥ मयालिङ्गायन्त आश्लिन्यते ॥ अत्र वायूनां स्पृश्यत्वेऽप्यमूर्तत्वेनालिङ्गनायोगादालिङ्गयन्त इत्यभिधानं यक्षस्योन्मत्तत्वात्प्रलपितमित्यदोष इति वदनिरुक्तकारः स्वयमेवोन्मत्तप्रलापीत्युपेक्षणीयः ॥ ४४ ॥
(चारि०) भित्वेति-हे प्रिये गुणवति गुणगगकलिने तबाङ्गं एभिः पूर्व यदि स्पृष्टं किल भवेत् इति मया ते तुषाराद्रिवाता आलिङ्ग्यन्ते । ते के । ये वाता देवदारुनुमाणां वृक्षविशेषाणां किसलयपुटान् भित्वा विकासयित्वा देवदारुद्रुमाणां क्षीरश्रुतिसुरभयः सन्तः दक्षिणेन मार्गेण प्रवृत्ता आगताः “प्रकृत्यादिभ्य उपसङ्ख्यानमिति” तृतीया । गुणवतीत्यत्र -गुणशब्देन शरीरस्य हृदयस्पर्शगुणो विवक्षितः । किलेति सम्भावनायाम् ॥ ४४ ॥
(भाव० ) हे मेघ ! "हेगुणवति ! देवदारुपत्रसुतक्षीरसुरभयो ये दक्षिणवायवस्नैस्त्व. दङ्ग स्पृष्टं भवेदिति धिया मया ते तु षाराद्विवाताः समालिंग्यन्ते" इति श्रूयाः ॥ ४४ ॥ संक्षिप्येत क्षण इव कथं दीर्घयामा त्रियामा
सर्वावस्थास्वहरपि कथं मन्दमन्दातपं स्यात् । इत्थं चेतश्चटुलनयने दुर्लभप्रार्थनं मे
गाढोष्माभिः कृतमशरणं त्ववियोगव्यथाभिः ॥ ४५ ॥ (सञ्जी० ) संक्षिप्येतेति ॥ दीर्घा यामाः प्रहरा यस्यां सा दीर्घयामा । विरहवेदनया तथा प्रतीयमानेत्यर्थः । त्रियामा रात्रिः ॥ "आद्यन्तयोरर्धयामयोर्दिनव्यवहाराधियामा” इति क्षीरस्वामी ॥ क्षण इव कथं केन प्रकारेण संक्षिप्येत लघूक्रियेत । अहरपि सर्वावस्थासु । सर्वकालेष्वित्यर्थः । मन्दमन्दो मन्दप्रकारः ॥ "प्रकारे गुणवचनस्य" इति द्विरुक्तिः । "कर्मधारयवदुत्तरेषु" इति कर्मधारयवद्रावात्सुपा लुक् ॥ मन्दमन्दातपमत्यल्पसंतापं कथं स्यात् । न
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मेघदूत-उत्तरमेघः। स्यादेव । हे चटुलनयने चञ्चलाक्षि, इत्थमनेन प्रकारेण दुर्लभप्रार्थनमप्राप्यमनोरथ मे मम घेतो गाढोष्माभिरतितीव्राभिस्त्वद्वियोगव्यथाभिरशरणमनाथ कृतम् ॥ ४५ ॥
(चारि०) सङ्क्षिप्येतेति-भी अबले दीर्घा यामाः प्रहरा यासां ता रात्रयः क्षण इव कथं सलिप्यन्ते । सर्वावस्थासु ग्रीष्ममध्यदिनासु अहरपि कथं मन्दमन्दातपं स्यात् । हे चटुलनयने वामनेत्रे इत्थं दुर्लभप्रार्थन मे चेतो गाढोष्मभिस्त्वद्वियोगे व्यथाभिरशरणमरक्षक कृतम् । गाढोष्माभिरित्यनेन मन्दातपविधातो विवक्षितः । वियोगव्यथाभिरित्यनेन रात्रिसझेपविधात इति द्रष्टव्यम् । मन्दमन्दमिति प्रकारगुणवचनमस्येति द्विवचनम् ॥ ४५ ॥
(भाव०) हे मेघ ! "रात्रे र्दीर्घयामत्वादहश्च तीव्रातपत्वात्त्वद्वियोगव्यथाभिरशरण मे चेत आकुलीकृतम्" इति ब्रूयाः ॥ ४५ ॥ न च मदीयदुर्दशाश्रवणा तव्यमित्याहनन्वात्मानं बहु विगणयन्त्रात्मनवावलम्बे
तत्कल्याणि त्वमपि नितरां मा गमः कातरत्वम् । कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा
नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ॥ ४६॥ ( सञ्जी०) नन्विति ॥ नम्वित्यामन्त्रणे ॥ "प्रश्नावधारणानुज्ञानुनयामन्त्रणे ननु" इत्यमरः ।। ननु प्रिये, बहु विगणयन्शापान्ते सत्येवमेवं करिष्यामीत्यावर्तयन्नात्मानमात्मनैव स्वेनैव ॥ "प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानम्" इति तृतीया ॥ अवलम्बे धारयामि । यथाकथंचिजीवामीत्यर्थः तत्तस्मात्कारणात् । हे कल्याणि सुभगे, त्वत्सौभाग्येनैव जीवामीति भावः ॥ "बह्वादिभ्यश्च" इति डीए ॥ त्वमपि नितरामत्यन्तं कातरत्वं भीरुत्वं मा गमःमा गच्छ ॥ " नमायोगे" इत्यडागमाभावः । तादृक्सुखिनोरावयोरीशि दुःखे कथं न बिभेमीत्याशङ्याह-कस्येति ॥ कस्य जनस्यात्यन्तं नियतं सुखमुपनतं प्राप्तमेकान्ततो नियमेन दुःखं वोपनतम् । किं तु दशावस्था चक्रस्य रथाङ्गस्य नेमिस्तदन्तः ॥ "चक्रं रथाङ्गं तस्यान्ते नेमिः स्त्री स्यात्प्रधिः पुमान्" इत्यमरः ॥ तस्याः क्रमेण परिपाट्या ॥ "क्रमः शक्ती परिपाटयाम्" इति विश्वः ॥ नीचैरध उपरि च गच्छति प्रवर्तते । एवं जन्तोः सुखदुःखे पर्यावर्तते इत्यर्थः ॥ ४६॥
(चारि०) साम्प्रतं शोकश्रवणेन सदुःखः स्यादिति तामाश्वासयति । नन्विति-बहुमङ्गलं भविष्यतीति विगणयन् जानन् आत्मना स्वयमेवात्मानमवलम्बे धारयामि । ननु शब्दोऽवधारणे । हे कल्याणि त्वमपि सुतरांकातरत्वं मा गमः । उक्तमेवार्थ संहरति । कस्यात्यन्त मतिक्रान्तावसानं नित्यमित्यर्थः । सुखमुपनतं प्राप्तं दुःखं वा एकान्तत एकान्तमुपनतम् । प्रथमार्थे तसिल् । दशावस्था चक्रनेमिक्रमेण नीचैर्वा गच्छति उपरि वा ॥ ४६॥
(भाव०) हे मेघ ! "हे कल्याणि ! विरहदुःखितोऽप्यहमात्मनैवात्मानमवलम्बे, तत्वमपि कातरत्वं मागमः, सुख दुखेहि चक्रवत्परिवत्तेते, तदावयोरपि संगमो भविष्यति" इति भूयाः ॥ ४६॥ न च निरवधिकमेतद्दुःखमित्याहशपान्तो मे भुजगशयनादुत्थिते शाङ्गपाणौ .
शेषान्मासान्गमय चतुरो लोचने मीलयित्वा ।
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८० सावनीचारित्रर्वद्धनीभावप्रबोधिनीसहितेपश्चादा विरहगुणितं तं तमात्माभिलाषं
निर्वेक्ष्यावः परिणत शरचन्द्रिकासु क्षपासु ॥ ४७ ॥ (सञ्जी० ) शापान्त इति ॥ शाङ्ग पाणौ यस्य स तस्मिशार्ङ्गपाणौ विष्णौ ॥ “सप्तमोविशेषणे-" इत्यादिना बहुव्रीहिः । “प्रहरणार्थेभ्यः परे निष्ठासप्तम्यौ भवतः” इति वक्तव्यात्पाणिशब्दस्योत्तरनिपातः ॥ भुजगः शेष एव शयनं तस्मादुत्थिते सति मे शापान्तः शापावसानम्। भविष्यतीति शेषः । शेषानवशिष्टांश्चतुरो मासान् । मेघदर्शनप्रभृति हरिबोधनदिनान्तमित्यर्थः । दशदिवसाधिक्यं त्वत्र न विवक्षितमित्युक्तमेव । लोचने मीलयित्वा निमील्य गमय । धैर्येणातिवाहयेत्यर्थः । पश्चादनन्तरं त्वं चाहं चावाम् ॥ "त्यदादीनि सबैनित्यम्" इत्येकशेषः ॥ "त्यदादीनां मिथो द्वन्द्वे यत्परं तच्छिष्यते” इत्यस्मदः शेषः ॥ विरहे गुणितमेवमेवं करिष्यामीति मनस्यावर्तितम् । तं तम् ॥ वीप्सायां द्विरुक्तिः ॥ आत्मनोरावयोरभिलावं मनोरथम् । परिणताः शरश्चन्द्रिका यासां तासु क्षपासु रात्रिषु निवेक्ष्यायो भोक्ष्यावहे ॥ विशतेलद ॥ "निवेशो भृतिभोगयो।। इत्यमरः ॥ अन कैश्चित् "नमोनभस्ययोरेव वार्षिकत्वात्कथमाषाढादिचतुष्टयस्य वार्षिकत्वमुक्तमिति चोदयित्वर्तुत्रयपक्षाश्रयणादविरोधः" इति पर्यहारि तत्सर्वमसँगतम् । अत्र गतशेषश्चत्वारो मासा इत्युक्तं कविना न तु ते वार्षिका इति । तस्मादनुत्तोपालम्भ एव । यच्च नाथेनोक्तम् "कथमाषाढादिचतुष्टयात्परं शरत्कालः" इति, तत्राप्याकातिकसमाप्तेः शरत्कालानुवृत्तेः परिणतशरचन्द्रिकास्वित्युक्तम् । न तु तदैव शरत्प्रादुर्भाव उक्त इत्यविरोध एव ॥ ४५ ॥
(चारि०) कदावयोः संयोगः स्यादित्यत आह-शापान्तइति । शाङ्गपाणी नारायणे भुजगशयनादुत्थिते सति में मम शापस्यान्तोऽवसानम् । तनैतान् चतुरो मासान् लोचने मीलयित्वा गमयातिवाहय । पश्चात् शरच्चन्द्रिकासु क्षपासु निशासु विरहकालगुणितं सङ्गल्पितं हृदयस्थापितमित्यर्थः । तं तमात्माभिलाषं आवां निर्वेक्ष्यावोऽनुभविष्यावः । इति नत्वा आपाढश्रवणयोः प्रावृट् । ततः परं शरदिति । तत्कथमाषाढात्प्रभृतिमासचतुष्टयात्परः शरदिति । न चैवं वाच्यं षड्तव इत्येकः पक्षः । वय इत्यमरः । चत्वारो वार्षिका मासा इति रामायणे। प्रयोगादन ऋतुम्रयापेक्षयोक्तत्वात ॥ १७ ॥
(भाव० ) हे मेघ ! "हे प्रिये ! विष्णोरत्थाने सति मे शापान्तो भविष्यति, अतोऽव. शिष्टमासचतुष्टयं कथमपि यापच, पश्चादावां शरच्चन्द्रिकामनोहरासु रात्रिषु तं तमात्माभिलार्ष पूरयिष्यावः" इति श्रूयाः ॥ ४॥ संप्रति तस्या मेघवञ्चकत्वशानिरासायातिगूढमभिधेयमुपदिशतिभूयश्वाहं त्वमपि शयने कण्ठलग्ना पुरा मे
निद्रां गत्वा किमपि रुदती सस्वनं विप्रबुद्धा । सान्तहाँसं कथितमसकुत्पृच्छतश्च त्वया मे
दृष्टः स्वप्ने कितव रमयन्कामपि त्वं मयति ॥४८॥ भूय इति ॥ हे अबले, भूयः पुनरप्याह । त्वदर्ता मन्मुखेनेति शेषः । मेघवजनमेतत् । किमित्यत आह-पुरा पूर्वम् । पुराशब्दश्चिरातीते ॥ "स्यात्प्रबन्ध चिरातीते निकटागामिके पुरा" इत्यमरः ॥ शयने मे कण्ठलग्नापि त्वम् । गले बद्धस्य कथमपि गमनं न संभवेदिति भावः । निद्रां गत्वा किमपि । केन वा निमित्तेनेत्यर्थः । सस्वनं संशब्दम् । उच्चरित्यर्थः । रुदती सती विप्रबुद्धा । आलोरिति शेषः। असकृद् हुशः पृच्छतः । रोदनहेतुमिति शेषः । मे मम हे कितव, त्वं कामपि रमयन्मया स्वप्ने दृष्ट इति त्वया सान्तास समन्दहासं यथा
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मेघदूत-उत्तरमेघः। तथा कथितं चेति । त्वदर्ता भूयश्चाहेति योजना ॥ ४८॥
(चारि० ) भूयश्चेति-भूयश्चाह पुनरपि मन्मुखे व्याचष्टे ।. पुरा पूर्वमह त्वमपि शयने सुतो तत्र में कण्ठलाला सती त्वं निहां गत्वा किसपि निसित्तं प्राप्य सत्वरं शीघ्र सशब्दं रुदती विप्रबुद्धा। ततोऽसत्पृच्छतो में मह्यं त्वया च सान्तसिं गूर्द हसित्वा कथितम् । किमिति । रे कितव धूर्त मया स्वप्ने कामपि प्रेयसी रमयन् त्वं हष्टोऽतोऽहं ईर्ष्याबशादोदिमीति वचनमभिज्ञानम् ॥४८॥
(भाव०) हे मेघ ! “हे प्रिये ! पुरा मया सहैकशयने सुप्ताऽपि किमपि वीक्ष्य सहसोत्थाय स्वप्ने कामपि स्त्रिये स्मयन् त्वं मया दृष्टोऽसि" इत्युक्तवती" इति ब्रूयाः ॥४८॥ एतस्मान्मां कुशलिनपभिज्ञानदानाद्विदित्वा
मा कोलीनाचकितनयने मय्यविश्वासिनी भ्रूः । स्नेहानाहुः किमपि विरहे ध्वंसिनस्ते त्वभोगा.
दिष्टे वस्तुन्युपाचतरसाः प्रेमराशीभवन्ति ।। ४९ ॥ (सञ्जी०) एतस्मादिति । एतस्मात्पूर्वोक्तात् । अभिज्ञायतेऽनेनेत्यभिज्ञानं लक्षणं तस्य दानात्प्रापणान्सां कुशलिनक्षेमवन्तं विदित्वा ज्ञात्वा । हे चकितनयने, कुले जनसमूहे भवात्कौलीनाल्लोकप्रवादात् । एताता कालेन परासुनी चेदागच्छतीति जनप्रवादादित्यर्थः ॥ "स्यास्कौलीनं लोकवादे युद्धे पञ्चहिपक्षिणाम्" इत्यमरः ॥ मयि विषयेऽविश्वासिनी मरणशङ्कनी मा भून भव ॥ भवतेर्लुङ् । 'न माङयोगे” इत्यडागमप्रतिषेधः ॥ न च दीर्घकालविप्रकर्षात्पूवस्नेहनिवृत्तिराशोत्याह-स्नेहानिति । किमिति किंचिन्निमित्तम् । न विद्यत इति शेषः । स्नेहान्प्रीतिविरहे सत्यन्योन्यविप्रक सति सिनो विनयरानाहुः । तत्तथा न भवतीत्यभिप्रायः किंतु ते स्नेहा अभोगाद्विरहे भोगाभावाद्वतोः॥प्रसज्यप्रतिषेथेऽपि नसमास इष्यते॥ इष्टे वस्तुनि विषये। उपचितो रसः स्वादो येषु त उचितरसाः सन्तः। प्रवृद्धतृष्णा इत्यर्थः ॥ "रसो गन्धरसे स्वादे तिक्तादौ विषरागयोः" इति विश्वः ॥ प्रेमराशीभवन्ति । वियोगासहिष्णुत्वमापद्यन्त इत्यर्थः ॥ स्नेहप्रेगोरवस्थाभेदावेदः । तदुक्तम्--"आलोकना भिलाषौ रागनेही ततः प्रेमा । रति शृङ्गारौ योगे वियोगता विप्रलम्भश्च ॥" इति । तदेव स्फुटीकृतं रसाकरे--"प्रेक्षा दिदृक्षा रस्येषु तच्चिन्ता त्वभिलाषकः । रागस्तत्सङ्गबुद्धिः स्यात्स्नेहस्तत्प्रवणक्रिया ॥ तद्वियोगासहं प्रेम रतिस्तत्सहवर्तनम् । शृङ्गारस्तत्सम क्रीडा संयोगः सप्तधा क्रमात्"॥ इति ॥ ४९ ॥
(चारि०) एतस्मादिति-असिते कृष्णे नयने लोचने यस्यास्तत्सम्बुद्धिः। एतस्मादमुष्मादभिज्ञानदानाचिन्हकथनान्मां कुशलिनं विदित्वा कोलीनात्तस्य परस्त्रीसङ्गमः सम्भाव्य इति । लोकापवादान्मयि अविश्वासिनी माभूः। अविश्वास मा कार्षीः । कोलीनं निराचष्टे । चिरहे वियागे स्नेहात् ध्वंसिनो नष्टानाहुः । प्रचक्षते । तत्किमपि यत्किञ्चिदपि अविचाररमणीयमिति भावः । हि यस्माद्धेतोस्ते स्नेहा अभोगादिष्टे वस्तुनि उपचितरसा वर्द्धिताभिलाषाः सन्तः प्रेमराशी भवन्ति। "स्यात्कौलीनं लोकवादे युद्धे पश्वहिपक्षिणामित्यमरः । न माझ्योगेऽडागमः ॥ ४९ ॥
(भाव० ) हे मेघ ! "हेचकितनयने ! प्रेषितसन्देशात्मकाभिज्ञानान्मां कुशलिन विदि. स्वा मय्यविश्वासिनी माभूः, विरहेऽपि भोगाभावा स्नेहोवर्द्धत एव" इति ब्रूयाः ॥ ४९॥ .
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सञ्जीवनी चारित्रवर्द्धनीभावप्रबोधिनीसहिते
इ स्वकुशलं संदिश्य तत्कुशल संदेशानयनमिदानीं याचते-आश्वास्यैवं प्रथमविरहोदग्रशोकां सखीं ते शैलादाशु त्रिनयनवृषोत्खातकूटानिवृत्तः । साभिज्ञानग्रहित कुशलैस्तद्वचोभिर्ममापि
प्रातः कुन्दप्रसवशिथिलं जीवितं धारयेथाः ॥ ५० ॥
( सञ्जी०) आश्वास्येति ॥ प्रथमविरहेणो दुग्रशोकां तीव्रदुःखां ते 'सखीमेवं पूर्वोक्तरीत्यावास्योपजीव्य त्रिनयनस्य त्र्यम्बकस्य वृषेण वृषभेणोत्खाता अवदारिताः कूटा : शिखारणि यस्य तस्मात् ॥ "कूटोsस्त्री शिखरं शृङ्गम्" इत्यमरः ॥ शैला कैलासादाशु निवृत्तः सन्प्रत्यावृत्तः सन्साभिज्ञानं सलक्षणं यथा तथा प्रहिनं प्रेषितं कुशलं येषु तैस्तस्यास्त्वत्सख्या बचोभिर्ममापि प्रातः कुन्दप्रसव मित्र शिथिलं दुर्बलं जीवितं धारयेथाः स्थापय । प्रार्थनायां लिङ् ॥५०॥
( चारि०) आश्वास्येति - भो मेघ प्रथमविरहेण उदग्र उत्कटः शोको यस्यास्ताम् । सखीं प्रियामेवमुक्तप्रकारेणाश्वास्याश्वासं दत्त्वा त्रिनयनस्येशस्य वृषेण वृषभेणोत्खाताः कूटाः शिखराणि यस्य तस्माच्छैलात्कैलासान्निवृतः सन् त्वं तस्या मद्वल्लभाया वचोभिर्ममापि मानसं धारयेथाः । कीदृशैः स्वाभिज्ञानेन स्त्रचिन्हेन प्रहितं कुशलं येषु तैः । कीदृशं मानसं कुन्दस्य प्रसवं पुष्पं तद्वच्छिथिलं धारयेथा इति । धृधारणेऽस्माल्लिट् । "कूटोऽस्त्री शिखरं शृङ्गमित्यमरः" ॥ ५० ॥
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( भाव० ) हे मेघ ! प्रथम विरहदुःखिनीं प्रियामित्यमुपजीव्य कैलासान्निवृतस्त्वं तत्सदेशपदैः शिथिलतरं जीवितमपि रक्ष ॥ ५० ॥ संप्रति मेघस्य प्रार्थनाङ्गीकारे प्रश्नपूर्वकं कल्पयति
कच्चित्सौम्य व्यवसितामिदं बन्धुकृत्यं त्वया मे प्रत्यादेशान्न खलु भवतो धीरतां कल्पयामि ।
निःशब्दोऽपि प्रदिशसि जलं याचितश्चातकेभ्यः
प्रत्युक्तं हि प्रणयिषु सतामीप्सितार्थ क्रियैव ॥ ५१ ॥ (स० ) कञ्चिदिति ॥ हे सौम्य, साधो, इदं मे बन्धुकृत्यं बन्धुकार्यम् ॥ देवदत्तस्य गुरुकुलमितिवत्प्रयोगः ॥ व्यवसितं कच्चित्करिष्यामीति निश्चितं किम् ॥ " कच्चित्कामप्रवेदने” इत्यमरः ॥ अभिप्रायज्ञापनं कामप्रवेदनम् ॥ न च ते तूष्णींभावादनङ्गीकारं शङ्के यतस्ते स एवोचित इत्याह- प्रत्यादेशात् “ करिष्यामि " इति प्रतिवचनात् ॥ "उक्तिराभाषणं वाक्यमादेशो वचनं वचः" इति शब्दार्णवे ॥ भवतस्तव धीरतां गम्भीरत्वं न कल्पयामि न समर्थये खलु । तर्हि कथमङ्गीकारज्ञानं तत्राह - याचितः सन्निः शब्दोऽपि निर्गर्जितोऽपि । अप्रतिजानानोऽपीत्यर्थः । चातकेभ्यो जलं प्रदिशसि ददासि । युक्तं चैतदित्याह -- हि यस्मात्सतां सत्पुरुषाणां प्रणयिषु याचकेषु विषये ईप्सितार्थक्रियैवापेक्षितार्थसंपादनमेव प्रत्युक्तं प्रतिवचनम् । क्रिया केवलमुत्तरमित्यर्थः ॥ " गर्जति शरदि न वर्षति वर्षाति वर्षासु निः स्वनो मेघः । नीच वदति न कुरुते न वदति सुजनः करोत्येव ॥” इति भावः ॥ ५१ ॥
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( चारि०) साम्प्रतं जलद सन्देशप्रार्थनामङ्गीकारयन्ते । । कच्चिदिति - हे सौम्य त्वया व्यवसितुमङ्गीकृतं कच्चिदिदं मे बन्धुकृत्यं कार्यं प्रत्याख्यातुं भवतो धीरतां तूष्णीभावं न खलु तर्कयामि । तत्र हेतुमाह । निःशब्दोऽपि चातकेभ्यो जल प्रदिशसि । हि यस्माद्धेतोः प्रण
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मेघदूत - उत्तरमेघः ।
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यिषु याचकेषु ईप्सितार्थक्रियैव प्रत्युक्त ं प्रत्युत्तरम् । “ कच्चिदिष्टप्रियप्रश्न" इत्यभिधानचिन्तामणिः ॥ ५१ ॥
( भाव० ) हे मेघ ! इदं मे बन्धुकार्यं त्वया स्वीकृतं कञ्चित् त्वं याचितः सन् निःश srisप चातकेभ्यो जलददासि, इत्थे ते तूष्णींभावादहं ते स्वीकृति कल्पयामि । सतामीप्सितार्थक्रियैव प्रत्युक्तं भवति ॥ ५१ ॥
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संप्रति स्वापराधसमाधानपूर्वकं स्वकार्यस्यावश्यं करणं प्रार्थयमानो मेधं विसृजति -- एतत्कृत्वा प्रियमनुचितप्रार्थनावर्तिनों में
सौहार्दाद्वा विधुर इति वा मय्यनुक्रोशबुद्धया ।
इष्टान्देशाञ्जलद विचर प्रावृषा संभृतश्री
र्माभूदेव क्षणपपि च ते विद्युता विप्रयोगः ॥ ५२ ॥
(सभी०) एतदिति ॥ हे जलद, सौहार्दात्सुहृद्भावात् ॥ "हृनगसिन्ध्वन्ते पूर्वपदस्य च" इत्युभयपदवृद्धिः ॥ विधुरो वियुक्त इति हेतोर्वा ॥ "विधुरं तु प्रविश्लेषे” इत्यमरः ॥ मयि विषयेऽनुकोशबुद्धया करुणा बुद्ध्या वा अनुचिता तवाननुरूपा या प्रार्थना प्रियां प्रति "संदेशं मे हर " इत्येवंरूपा तत्र वर्तिनो निर्बन्धपरस्य मे ममैतत्सन्देशहरणरूपं प्रियं कृत्वा सम्पाद्य प्रावृषा वर्षाभिः “स्त्रियां प्रावृट् स्त्रियां भूम्नि वर्षा" इत्यमरः ॥ संभृतश्रीरुपचितशोभः सन् । इष्टास्वाभिलषितान्देशान्विचर। यथेष्टदेशेषु विहरेत्यर्थः ॥ देशकालाध्वगन्तव्याः कर्मसंज्ञा कर्मणाम्” इति वचनात्कर्मत्वम् ॥ एवं मद्वत्क्षणमपि स्वल्पकालमपि तव विद्युता । कलत्रेणेति शेषः । विप्रयोगो विरहो मा भून्मास्तु । माडीत्याशिषि लुङ् ॥ " अन्ते काव्यस्य नित्यत्वाकुर्यादा शिषमुत्तमाम् ॥ सर्वत्र व्याप्यते विद्वेनायकेच्छानुरूपिणीम् ॥” इति सारस्वतालंकारे दर्शनात्काव्यान्ते नायकेच्छानुरूपोऽयमाशीर्वादः प्रयुक्त इत्यनुसंधेयम् ॥ ५२ ॥
इति श्रीमहामहोपाध्याय मल्लिनाथसूरिविरचितया संजीविनीसमाख्यया व्याख्यया समेतो महाकविश्री कालीदासविरचिते मेघदूतकाव्ये उत्तरमेघः
ः समाप्तः ।
( भाव० ) हे मेघ ! अनुचितप्रार्थनां कुर्वतोऽपीमां मेsभ्यर्थनां सदयं सम्पूर्ण वर्षापचिशोभः सन् स्वेदेशेषु विहर। ममेव तवापि विद्युत्कलत्रवियोगो मास्तु ॥ ५२ ॥ मेघदूते विरचिता सेयं भावप्रबोधिनी । छात्राणामुपकाराय तेन तुष्यन्तु ते यतः ॥ १ ॥ श्रीगङ्गाधरसद्गुरुप्रतिफलत्सारस्वतश्रीजुषः श्रीरामा विनिषेवणात सुमतेः सन्तीर्ण शास्त्राम्बुचेः ॥ श्रीमद्वैरवनायकात्मजनुषः सद्धर्मलक्ष्मीजुषः
श्रीनारायणशर्मणः कृतिरियं विद्वन्मुदे जायताम् ॥ २ ॥ इति श्रीमत् खिस्ते कुलजलधि कौस्तुभश्रीमद्भर वनाय कतनूज
साहित्याचार्य श्रीनारायणशास्त्रिखिस्ते विरचिता मेघदूतभावप्रबोधिनी समाप्ता ।
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८४ सञ्जीविनीचारित्रवर्द्धनीभावमबोधिनीसहिते
(चारि०) कृतोपकार मेघमाशीर्वादेनाभिनन्दयन् ब्रवीति । एतदिति-भो मेघ अनुचितप्रार्थनावर्त्मनो मे सौहार्दान्मित्रत्वभावाद्वाराविधुरो दुःख्ययमिति वा । मयि विषयेऽनुक्रोशबुद्धया कृपामत्या वा एतत्प्रियं सन्देशलक्षणं इष्टं कृत्वा प्रावृषा सम्भृत श्रीः सन् इष्टान् शान् विचर गच्छन्विहर एवं ममेव ते विद्युता सह विप्रयोगः क्षणमपि मा च भूत् । "कृपा दयानुकम्पास्यादनुक्रोशइत्यमरः ॥ १२ ॥
तं सन्देशं जलधरवरो दिव्यवाचा चचक्षे . प्राणांस्तस्या जनहितरतो रक्षितुं यक्षवध्याः । प्राप्योदन्तं प्रमुदितमुनाः साऽपि तस्थौ स्वभर्तुः
केषां न स्यादभिमतफला प्रार्थना झुत्तमेषु ॥ ५३ ।। (चारि०) यक्षवचनानन्तरं वारिदः किमकरोदित्याशङ्क्याह । तंसंदेशमिति-जनहितरतो जलधस्वरा मेघश्रेष्ठस्तस्याः प्राणान् रक्षितु तत्राऽलकां गत्वा दिव्यवाचा तस्थ गुह्यकस्य सन्देशं वार्ता प्रत्यवदन्जगाद। साऽपि स्वभर्तुर्यक्षस्योदन्तं वार्तामभिज्ञानादिना मत्वा प्रमुदितमनाः सती तस्थौ स्थिता । तेन वाक्यमात्रेण कथमेतदकारीत्याह। हि यस्मात् उत्तमेषु प्रार्थना केषामभिमतफला न स्यात । अपि तु सर्वेषामित्यर्थः ॥ १३ ॥ श्रुत्वा वा जलकदयितां तां धनशोऽपि सद्यः
शापस्यान्तं सदयहृदयः संविधायास्तकोपः । संयोज्यतो विगलितशुची दम्पती हृष्टचित्तौ
__भोगानिष्टानविरतसुखं भोजयामास शश्वत् ।। ५४ ॥ मेघसन्देशाकर्णनानन्तरं किमभवदित्याह
(चारि०) श्रुत्वेति-धनेशोऽपि कुबेरो जलदकथितां वार्ता श्रुत्वा सदयहृदयः सन् अस्तो गतः कोपो यस्य स धनेशः सद्यस्तत्क्षणं शापस्यान्तं संविधाय कृत्वा प्रातस्तुष्टचित्तौ विरचितानि शुभानि मङ्गलानि याभ्यां तो दम्पती पश्चात् शापाऽवसाने इष्टानभीष्टान् भोगान् भोजयामास ॥ १४ ॥
॥ इति श्री चरित्रवर्द्धनविरचिता मेघदूतटीका सम्पूर्णा ॥
टि---६३, ६४ श्लोको प्रक्षितौ । मल्लिनाथेन न तो। चारित्रवर्द्धनेन व्याख्याताविति समुपन्यस्तो।
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