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प्रस्तावना
पं० दलसुख मालवणिया
अध्यक्ष ला० द० भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर
अहमदाबाद --९
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प्रस्तुत इतिहास की योजना और मर्यादा
वैदिकधर्म और जैनधर्म प्राचीन यति-मुनि-- श्रमण
तीर्थंकरों की परंपरा
आगमों का वर्गीकरण उपलब्ध आगमों और उनकी टीकाओं का परिमाण
आगमों का काल आगम-विच्छेद का प्रश्न
श्रुतावतार
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प्रस्तुत इतिहास की योजना और मर्यादा :
प्रस्तुत ग्रन्थ 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' की मर्यादा क्या है, यह स्पष्ट करना आवश्यक है। यह केवल जैनधर्म या दर्शन से ही संबद्ध साहित्य का इतिहास नहीं होगा अपितु जैनों द्वारा लिखित समग्र साहित्य का इतिहास होगा। ___ साहित्य में यह भेद करना कि यह जैनों का लिखा है और यह जैनेतरों का, उचित तो नहीं हैं किन्तु ऐसा विवश होकर ही करना पड़ा है। भारतीय साहित्य के इतिहास में जैनों द्वारा लिखे विविध साहित्य की उपेक्षा होती आई है। यदि ऐसा न होता तो यह प्रयत्न जरूरी न होता। उदाहरण के तौर पर संस्कृत साहित्य के इतिहास में जब पुराणों पर लिखना हो या महाकाव्यों पर लिखना हो तब इतिहासकार प्रायः हिन्दु पुराणों से ही सन्तोष कर लेते हैं और यही गति महाकाव्यों की भी है। इस उपेक्षा के कारणों की चर्चा जरूरी नहीं है किन्तु जिन ग्रन्यों का विशेष अभ्यास होता हो उन्हों पर इतिहासकार के लिए लिखना
आसान होता है, यह एक मुख्य कारण है। 'कादंबरी' के पढ़ने-पढ़ानेवाले अधिक हैं अतएव उसकी उपेक्षा इतिहासकार नहीं कर सकता किन्तु धनपाल की 'तिलकमंजरी' के विषय में प्रायः उपेक्षा ही है क्योंकि वह पाठ्यग्रन्थ नहीं। किन्तु जिन विरल व्यक्तियों ने उसे पढ़ा है वे उसके भी गुण जानते हैं। ___ इतिहासकार को तो इतनी फुर्सत कहां कि वह एक-एक ग्रन्य स्वयं पढ़े और उसका मूल्यांकन करे। , होता प्रायः यही है कि जिन ग्रन्थों की चर्चा अधिक हुई हो उन्हीं को इतिहास-ग्रन्थ में स्थान मिलता है, अन्य ग्रन्थों की प्रायः उपेक्षा होती है। 'यशस्तिलक' जैसे चंपू को बहुत वर्षों तक उपेक्षा ही रही किन्तु डा० हन्दिकी ने जब उसके विषय में पूरी पुस्तक लिख डाली तब उस पर विद्वानों का ध्यान गया।
इसी परिस्थिति को देखकर जब इस इतिहास की योजना बन रही थी तब डा० ए० एन० उपाध्ये का सुझाव था कि इतिहास के पहले विभिन्न ग्रन्थों या विभिन्न विषयों पर अभ्यास, लेख लिखाये जायं तब इतिहास की सामग्री तैयार होगी और इतिहासकार के लिए इतिहास लिखना आसान होगा। उनका यह बहुमूल्य सुझाव उचित ही था किन्तु उचित यह समझा गया कि जब तक ऐसे लेख तयार न हो जायं तब तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना भी उचित नहीं है। अतएव निश्चय हुआ कि मध्यम मार्ग से जैन साहित्य के इतिहास को
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( १४ ) अनेक विद्वानों के सहयोग से लिखा जाय। उसमें गहरे चिंतनपूर्वक समीक्षा कदाचित् संभव न हो तो भी अन्य का सामान्य विषय-परिचय दिया जाय जिससे कितने विषय के कौन से ग्रन्थ हैं-इसका तो पता विद्वानों को हो ही जायगा । और फिर जिज्ञासु विद्वान् अपनी रुचि के अन्य स्वयं पढ़ने लगेंगे। ___ इस विचार को स्व० डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने गति दी और यह निश्चय हुआ कि ई० सन् १९५३ में अहमदाबाद में होने वाले प्राच्य विद्या परिषद् के सम्मेलन के अवसर पर वहाँ विद्वानों की उपस्थिति होगी अतएव उस अवसर का लाभ उठाकर एक योजना विद्वानों के समक्ष रखी जाय। इसी विचार से योजना का पूर्वरूप वाराणसी में तैयार कर लिया गया और अहमदाबाद में उपस्थित निम्न विद्वानों के परामर्श से उसको अन्तिम रूप दिया गया :१. मुनि श्री पुण्यविजयजी २. आचार्य जिनविजयजी ३. पं० सुखलालजी संघवी ४. पं० बेचरदासजी दोशी ५. डा० वासुदेवशरण अग्रवाल ६. डा० ए० एन० उपाध्ये ७. डा० पी० एल० वैद्य ८. डा० मोतीचन्द ६. श्री अगरचन्द नाहटा १०. डा० भोगीलाल सांडेसरा ११. डा० प्रबोध पण्डित १२. डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री १३. प्रो० पद्मनाभ जैनी १४. श्री बालाभाई वीरचंद देसाई जयभिक्खु १५. श्री परमानन्द कुवरजी कापड़िया
यहाँ यह भी बताना जरूरी है कि वाराणसी में योजना संबंधी विचार जब चल रहा था तब उसमें संपूर्ण सहयोग श्री पं० महेन्द्रकुमारजी का था और उन्हीं की प्रेरणा से पंडितद्वय श्री कैलाशचन्द्रजी शास्त्री तथा श्री फूलचन्द्रजी शास्त्री भी सहयोग देने को तैयार हो गये थे। किन्तु योजना का पूर्वरूप
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जब तैयार हुआ तो इन तीनों पंडितों ने निर्णय किया कि हमें अलग हो जाना चाहिए । तदनुसार उनके सहयोग से हम वंचित ही रहे - इसका दुःख सबसे अधिक मुझे है । अलग होकर उन्होंने अपनी पृथक् योजना बनाई और यह आनन्द का विषय है कि उनकी योजना के अन्तर्गत पं० श्री कैलाशचन्द्र द्वारा लिखित 'जैन साहित्य का इतिहासः पूर्व पीठिका श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी से वीरनि० सं० २४८६ में प्रकाशित हुआ है । जैनों द्वारा लिखित साहित्य का जितना अधिक परिचय कराया जाय, अच्छा ही है । है कि विविध दृष्टिकोण से साहित्य की समीक्षा होगी । का स्वागत ही करते हैं ।
यह भी लाभ
अतएव हम उस योजना
अहमदाबाद में विद्वानों ने जिस योजना को अन्तिम रूप दिया तथा उस समय जो लेखक निश्चित हुए उनमें से कुछ ने जब अपना अंश लिखकर नहीं दिया तो उन देशों को दूसरे से लिखवाना पड़ा है किन्तु मूल योजना में परिवर्तन करना उचित नहीं समझा गया है । हम आशा करते हैं कि यथासंभव हम उस मूल योजना के अनुसार इतिहास का कार्य आगे बढायेंगे ।
'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' जो कई भागों में प्रकाशित होने जा रहा है, उसका यह प्रथम भाग है । जैन अंग ग्रन्थों का परिचय प्रस्तुत भाग में मुझे ही लिखना था किन्तु हृा यह कि पार्श्वनाथ विद्याश्रम ने पं० बेचरदासजी को बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में जैन आगमों के विषय पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया । उन्होंने ये व्याख्यान विस्तृतरूप से गुजराती में लिखे भी थे । अतएव यह उचित समझा गया कि उन्हीं व्याख्यानों के आधार पर प्रस्तुत भाग के लिए अंग ग्रन्थों का परिचय हिन्दी में लिखा जाय । Astro मोहनलाल मेहता ने इसे सहर्ष स्वीकार किया और इस प्रकार मेरा भार हलका हुआ । डा० मेहता का लिखा 'अंग ग्रन्थों का परिचय' प्रस्तुत भाग में मुद्रित है ।
श्री पं० बेचरदासजी का आगमों का अध्ययन गहरा है, उनकी छानबीन भी स्वतंत्र है और श्रागमों के विषय में लिखनेवालों में वे अग्रदूत ही हैं । उन्हीं के व्याख्यानों के आधार पर लिखा गया प्रस्तुत अंग-परिचय यदि विद्वानों को अंग आगम के अध्ययन के प्रति आकर्षित कर सकेगा तो योजक इस प्रयास को सफल मानेंगे |
वैदिकधर्म और जैनधर्म :
वैदिकध और जैनधर्मं की तुलना की जाय तो जैनधर्म का वह रूप जो इसके प्राचीन साहित्य से उपलब्ध होता है, वेद से उपलब्ध वैदिकधमं से अत्यधिक
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( १६ ) मात्रा में सुसंस्कृत है। वेद के इन्द्रादि देवों का रूप और जैनों के आराध्य का स्वरूप देखा जाय तो वैदिक देव सामान्य मानव से अधिक शक्तिशाली हैं किन्तु वृत्तियों की दृष्टि से हीन ही हैं। मानवसुलभ क्रोध, राग, द्वेष आदि वृत्तियों का वैदिक देवों में साम्राज्य है तो जैनों के आराध्य में इन वृत्तियों का अभाव ही है । वैदिकों के इन देवों की पूज्यता कोई आध्यात्मिक शक्ति के कारण नहीं किन्तु नाना प्रकार से अनुग्रह और निग्रह शक्ति के कारण है जब कि जैनों के आराध्य ऐसी कोई शक्ति के कारण पूज्य नहीं किन्तु वीतरागता के कारण आराध्य हैं। आराधक में वीतराग के प्रति जो आदर है वह उसे उनकी पूजा में प्रेरित करता है जब कि वैदिक देवों का डर आराधक के यज्ञ का कारण है। वैदिकों ने भूदेवों की कल्पना तो की किन्तु वे कालक्रम से स्वार्थी हो गये थे। उनको अपनी पुरोहिताई की रक्षा करनी थी। किन्तु जैनों के भूदेव वीतराग मानव के रूप में कल्पित हैं। उन्हें यज्ञादि करके कमाई का कोई साधन जुटाना नहीं था। धार्मिक कर्मकांड में वैदिक में यज्ञ मुख्य था जो अधिकांश बिना हिंसा या पशु-वध के पूर्ण नहीं होता था जब कि जैनधर्म में क्रियाकांड तपस्यारूप है-अनशन और ध्यानरूप है जिसमें हिंसा का नाम नहीं है। ये वैदिक यज्ञ देवों को प्रसन्न करने के लिए किये जाते थे जब कि जैनों में अपनी आत्मा के उत्कर्ष के लिए ही धार्मिक अनुष्ठान होते थे । उसमें किसी देव को प्रसन्न करने की बात का कोई स्थान नहीं था। उनके देव तो वीतराग होते थे जो प्रसन्न भी नहीं होते और अप्रसन्न भी नहीं होते। वे तो केवल अनुकरणीय के रूप में प्राराध्य थे।
वैदिकों ने नाना प्रकार के इन्द्रादि देवों की कल्पना कर रखी थी जो तीनों लोक में थे और उनका वर्ग मनुष्य वर्ग से भिन्न था और मनुष्य के लिये आराध्य था। किन्तु जैनों ने जो एक वर्ग के रूप में देवों की कल्पना की है वे मानव वर्ग से पृथग्वर्ग होते हुए भी उनका वह वर्ग सब मनुष्यों के लिए प्राराध्य कोटि में नहीं है। मनुष्य देव की पूजा भौतिक उन्नति के लिए भले करे किन्तु आत्मिक उन्नति के लिए तो उससे कोई लाभ नहीं ऐसा मन्तव्य जैनधर्म का है। अतएव ऐसे ही वीतराग मनुष्यों की कल्पना जैनधर्म ने की जो देवों के भी आराध्य हैं । देव भी उस मनुष्य की सेवा करते हैं। सारांश यह है कि देव की नहीं किन्तु मानव की प्रतिष्ठा बढाने में जैनधर्म अग्रसर है ।
देव या ईश्वर इस विश्व का निर्माता या नियंता है, ऐसी कल्पना वैदिकों की देखी जाती है। उसके रथान में जैनों का सिद्धान्त है कि सृष्टि तो अनादि काल
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.से चली आती है, उसका नियंत्रण या सर्जन प्राणियों के कर्म से होता है, किसी अन्य कारण से नहीं । विश्व के मूल में कोई एक ही तत्त्व होना जरूरी है - इस विषय में वैदिक निष्ठा देखी जाय तो विविध प्रकार की है । अर्थात् वह एक तत्त्व क्या है, इस विषय में नाना मत हैं किन्तु ये सभी मत इस बात में तो एकमत हैं कि विश्व के मूल में कोई एक ही तत्त्व था । इस विषय में जैनों का स्पष्ट मन्तव्य है कि विश्व के मूल में कोई एक तत्त्व नहीं किन्तु वह तो नाना तत्त्वों का संमेलन है ।
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वेद के बाद ब्राह्मणकाल में तो देवों को गौणता प्राप्त हो गई और यज्ञ ही मुख्य बन गये । पुरोहितों ने यज्ञक्रिया का इतना महत्त्व बढ़ाया कि यज्ञ यदि उचित ढंग से हों तो देवता के लिए ग्रनिवार्य हो गया कि वे अपनी इच्छा न होते हुए भी यज्ञ के पराधीन हो गये । एक प्रकार से यह देवों पर मानवों को विजय थी किन्तु इसमें भी दोष यह था कि मानव का एक वर्ग — ब्राह्मणवर्ग ही यज्ञ-विधि को अपने एकाधिपत्य में रखने लग गया था । उस वर्ग की अनिवार्यता इतनी बढ़ा दी गई थी कि उनके बिना और उनके द्वारा किए गये वैदिक मन्त्रपाठ और विधिविधान के बिना यज्ञ की संपूति हो ही नहीं सकती थी। किन्तु जैनधर्म में इसके विपरीत देखा जाता है । जो भी त्याग-तपस्या का मार्ग अपनावे चाहे वह शूद्र ही क्यों न हो, गुरुपद को प्राप्त कर सकता था और मानवमात्र का सच्चा मार्गदर्शक भी बनता था । शूद्र वेदपाठ कर ही नहीं सकता था किन्तु जैनशास्त्रपाठ में उनके लिए कोई बाधा नहीं थी । धर्ममार्ग में स्त्री और पुरुष का समान अधिकार था, दोनों ही साधना करके मोक्ष पा सकते थे ।
वेदाध्ययन में शब्द का महत्त्व था अतएव वेदमन्त्रों के संस्कृत भाषा को पवित्र माना गया, उसे महत्त्व मिल। । का नहीं, पदार्थ का महत्त्व था । अतएव उनके यहां धर्म के सुरक्षा हुई किन्तु शब्दों की सुरक्षा नहीं हुई । परिणाम स्पष्ट था कि वे संस्कृत को नहीं, किन्तु लोकभाषा प्राकृत को ही महत्त्व दे सकते थे । प्रकृति के अनुसार सदैव एकरूप रह ही नहीं सकती थी, जब कि वैदिक संस्कृत उसी रूप में प्राज वेदों में उपलब्ध है । के काल में वैदिकधर्म में ब्राह्मणों का प्रभुत्व स्पष्टरूप से विदित होता है, जब कि जबसे जैनधर्म का इतिहास ज्ञात है तबसे उसमें ब्राह्मण नहीं किन्तु क्षत्रियवगं ही नेता माना गया है । उपनिषद् काल में वैदिकधर्मं में ब्राह्मणों के समक्ष
प्राकृत अपनी
वह बदलती हो गई उपनिषदों के पहले
पाठ की सुरक्षा हुई,
किन्तु जैनों में पद मौलिक सिद्धांत की
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क्षत्रियों ने अपना सिर उठाया है और वह भी विद्या के क्षेत्र में। किन्तु वह विद्या वेद न होकर आत्मविद्या थी और उपनिषदों में आत्मविद्या का ही प्राधान्य हो गया है। यह ब्राह्मगवगं के ऊपर स्पष्टरूप से क्षत्रियों के प्रभुत्व की सूचना देता है।
वैदिक और जैनधर्म में इस प्रकार का विरोध देखकर आधुनिक पश्चिम के विद्वानों ने प्रारंभ में यह लिखना शुरू किया कि बौद्धधर्म की ही तरह जैनधर्म भी वैदिकधर्म के विरोध के लिए खड़ा हुआ एक क्रान्तिकारो नया धर्म है या वह बौद्धधर्म की एक शाखामात्र है। किन्तु जैसे-जैसे जैनधर्म और बौद्धधर्म के मौलिक साहित्य का विशेष अध्ययन बढ़ा, पश्चिमी विद्वानों ने ही उनका भ्रम दूर किया और भब सुलझे हुए पश्चिमी विद्वान् और भारतीय विद्वान् भी यह उचित ही मानने लगे हैं कि जैनधर्म एक स्वतन्त्र धर्म है-वह वैदिक धर्म की शाखा नहीं है। किन्तु हमारे यहाँ के कुछ अधकचरे विद्वान् अभी भी उन पुराने पश्चिमी विद्वानों का अनुकरण करके यह लिख रहे हैं कि जैनधर्म तो वैदिकधर्म की शाखामात्र है या वेदधर्म के विरोध में खड़ा हया नया धर्म है। यद्यपि हम प्राचीनता के पक्षपाती नहीं हैं, प्राचीन होनेमात्र से ही जैनधर्म अच्छा नहीं हो जाता किन्तु जो परिस्थिति है उसका यथार्यरूप से निरूपण जरूरी होने से ही यह कह रहे हैं कि जैनधर्म वेद के विरोध में खड़ा होनेवाला नया धर्म नहीं है। अन्य विद्वानों का अनुसरण करके हम यह कहने के लिए बाध्य हैं कि भारत के बाहरी प्रदेश में रहनेवाले आर्य लोग जब भारत में आये तब जिस धर्म से भारत में उनकी टक्कर हुई थी उस धर्म का ही विकसित रूप जैनधर्म है—ऐसा अधिक संभव है। यदि वेद से ही इस धर्म का विकास होता या केवल वैदिकधर्म का विरोध ही करना होता तो जैसे अन्य वैदिकों ने वेद का प्रामाण्य मानकर ही वेदविरोधी बातों का प्रवर्तन कर दिया, जैसे उपनिषद् के ऋषियों ने, वैसे ही जैनधर्म में भी होता किन्तु ऐसा नहीं हुअा है, ये तो नास्तिक ही गिने गये-वेद निंदक हो गिने गये हैं-इन्होंने वेदप्रामाण्य कभी स्वीकृत किया ही नहीं। ऐसी परिस्थिति में उसे वैदिकधर्म की शाखा नहीं गिना जा सकता। सत्य तो यह है कि वेद के माननेवाले आर्य जैसे-जैसे पूर्व की ओर बढ़े हैं वैसे-वैसे वे भौतिकता से दूर हटकर आध्यात्मिकता में अग्रसर होते रहे हैं ऐसा क्यों हुआ? इसके कारणों की जब खोज की जाती है तब यही फलित होता है कि वे जैसे-जैसे संस्कारी प्रजा के प्रभाव में आये हैं वैसे-वैसे उन्होने अपना रवैया बदला है—उसी बदलते हुए रवैये की गूंज उपनिषदों को रचना में देखी जा सकती है। उपनिषदों में कई वेदमान्यताओं का विरोध तो है फिर भी वे वेद के अंग बने और वेदान्त कहलाए,
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यह एक ओर वेद का प्रभाव और दूसरी ओर नई सूझ का समन्वय ही तो है । वेद का अंग बनकर वेदान्त कहलाए और एक तरह से वेद का अन्त भी कर दिया । उपनिषद् बन जाने के बाद दार्शनिकों ने वेद को एक ओर रखकर उपनिषदों के सहारे ही वेद की प्रतिष्ठा बढ़ानी शुरू की । वेदभक्ति रही किन्तु निष्ठा तो उपनिषद् में ही बढ़ी । एक समय यह भी आया कि वेद की ध्वनिमात्र रह गई और अर्थ नदारद हो गया । उसके थं का उद्धार मध्यकाल में हुआ भी तो वह वेदान्त के अर्थ को अग्रसर करके ही हुआ । आधुनिक काल में भी दयानंद जैसों ने भी यह साहस नहीं किया कि वेद के मौलिक हिंसा - प्रधान अर्थं की प्रतिष्ठा करें। वेद के ह्रास का यह कारण पूर्वभारत की प्रजा के संस्कारों में निहित है और जैनधर्म के प्रवर्तक महापुरुष जितने भी हुए हैं वे मुख्यरूप से पूर्वभारत की ही देन है । जब हम यह देखते हैं तो सहज ही अनुमान होता है कि पूर्वभारत का यह धर्म ही जैनधर्म के उदय का कारण हो सकता है जिसने वैदिक धर्मं को भी नया रूप दिया और हिंसक तथा भौतिक धर्म को अहिंसा और आध्यात्मिकता का नया पाठ पढ़ाया |
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तक पश्चिमी विद्वानों ने केवल वेद और वैदिक साहित्य का अध्ययन किया था और जब तक सिंधुसंस्कृति को प्रकाश में लानेवाले खुदाई कार्य नहीं हुए थे तब तक — भारत जो कुछ संस्कृति है, उसका मूल वेद में ही होना चाहिए - ऐसा प्रतिपादन वे करते रहे । किन्तु जब से मोहेनजोदारो और हरप्पा की खुदाई हुई है तब से पश्चिम के विद्वानों ने अपना मत बदल दिया है और वेद के अलावा वेद से भी बढ़-चढ़कर वेदपूर्वकाल में भारतीय संस्कृति थी इस नतीजे पर पहुँचे हैं । और अब तो उस तथाकथित सिंधुसंस्कृति के अवशेष प्रायः समग्र भारतवर्ष में दिखाई देते हैं- ऐसी परिस्थिति में भारतीय धर्मों के इतिहास को उस नये प्रकाश में देखने का प्रारंभ पश्चिमीय और भारतीय विद्वानों ने किया है और कई विद्वान् इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि जैनधर्मं वैदिकधर्म से स्वतंत्र है । वह उसको शाखा नहीं है और न वह केवल उसके विरोध में ही खड़ा हुआ है ।
प्राचीन यति-- मुनि श्रमण :
मोहेनजोदारो में और हरप्पा में जो खुदाई हुई उसके अवशेषों का अध्ययन करके विद्वानों ने उसकी संस्कृति को सिन्धुसंस्कृति नाम दिया था और खुदाई में सबसे निम्नत्तर में मिलने वाले अवशेषों को वैदिक संस्कृति से भी प्राचीन संस्कृति के अवशेष हैं - ऐसा प्रतिपादन किया था । सिन्धुसंस्कृति के समान ही संस्कृति
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( २० ) के अवशेष अब तो भारत के कई भागों में मिले हैं-उसे देखते हुए उस प्राचीन संस्कृति का नाम सिन्धुसंस्कृति अव्याप्त हो जाता है। वैदिक संस्कृति यदि भारत के बाहर से आने वाले पार्यों की संस्कृति है तो सिन्धुसंस्कृति का यथार्थ नाम भारतीय संस्कृति ही हो सकता है। __अनेक स्थलों में होनेवाली खुदाई में जो नाना प्रकार की मोहरें मिली हैं उन पर कोई न कोई लिपि में लिखा हुआ भी मिला है। वह लिपि संभव है कि चित्रलिपि हो। किन्तु दुर्भाग्य है कि उस लिपि का यथार्थ वाचन अभी तक हो नहीं पाया है। ऐसी स्थिति में उसकी भाषा के विषय में कुछ भी कहना संभव नहीं है। और वे लोग अपने धर्म को क्या कहते थे, यह किसी लिखित प्रमाण से जानना संभव नहीं है। किन्तु अन्य जो सामग्री मिली है उस पर से विद्वानों का अनुमान है कि उस प्राचीन भारतीय संस्कृति में योग को अवश्य स्थान था। यह तो हम अच्छी तरह से जानते हैं कि वैदिक आर्यों में वेद और ब्राह्मणकाल में योग की कोई चर्चा नहीं है। उनमें तो यज्ञ को ही महत्त्व का स्थान मिला हृया है। दूसरी ओर जैन-बौद्ध में यज्ञ का विरोध था और योग का महत्त्व। ऐसी परिस्थिति में यदि जैनधर्म को तथाकथित सिन्धुसंस्कृति से भी संबद्ध किया जाय तो उचित होगा।
अब प्रश्न यह है कि वेदकाल में उनका नाम क्या रहा होगा ? पार्यों ने जिनके साथ युद्ध किया उन्हें दास, द यू जैसे नाम दिये हैं। किन्तु उससे हमारा काम नहीं चलता। हमें तो यह शब्द चाहिए जिससे उस संस्कृति का बोध हो जिसमें योगप्रक्रिया का महत्त्व हो। ये दास-दस्यू पुर में रहते थे और उनके पुरों का नाश करके आर्यों के मुखिया इन्द्र ने पुरन्दर की पदवी को प्राप्त किया। उसी इन्द्र ने यतियों और मुनियों की भी हत्या को है-ऐसा उल्लेख मिलता है (अथवं० २. ५. ३ )। अधिक संभव यही है कि ये मुनि और यति शब्द उन मूल भारत के निवासियों की संस्कृति के सूचक हैं और इन्ही शब्दों की विशेष प्रतिष्ठा जैनसंस्कृति में प्रारंभ से देखी भी जाती है । अतएव यदि जैनधर्म का पुराना नाम यतिधर्म या मुनिधर्म माना जाय तो इसमें आपत्ति को बात न होगी। यति और मुनिधर्म दीर्घकाल के प्रवाह में बहता हुआ कई शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त हो गया था। यही हाल वैदिकों का भी था। प्राचीन जैन और बौद्ध शास्त्रों में धर्मों के विविध प्रवाहों को सूत्रबद्ध करके श्रमण और ब्राह्मण इन दो विभागों में बांटा गया है। इनमें ब्राह्मण तो वे हैं जो वैदिक संस्कृति के अनुयायी हैं और शेष सभी का समावेश श्रमणों में होता था। अतएव इस
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( २१ ) दृष्टि से हम कह सकते हैं कि भ० महावीर और बुद्ध के समय में जैनधर्म का समावेश श्रमणवर्ग में था।
ऋग्वेद (१०.१३६.२) में 'वातरशना मुनि' का उल्लेख हुआ है जिसका अर्थ है नग्न मुनि। और आरण्यक में जाकर तो श्रमण और 'वातरशना' का एकीकरण भी उल्लिखित है। उपनिषद् में तापस और श्रमणों को एक बताया गया है (बृहदा० ४.३.२२)। इन सबका एक साथ विचार करने पर श्रमणों की तपस्या और योग की प्रवृत्ति ज्ञात होती है। ऋग्वेद के वातरशना मुनि और यति भी ये ही हो सकते हैं। इस दृष्टि से भी जैनधर्म का संबंध श्रमण-परंपरा से सिद्ध होता है और इस श्रमण-परंपरा का विरोध वैदिक या ब्राह्मण-परंपरा से चला आ रहा है, इसकी सिद्धि उक्त वैदिक तथ्य से होती है कि इन्द्र ने यतियों
और मुनियों को हत्या की तथा पतंजलि के उस वक्तव्य से भी होती है जिसमें कहा गया है कि श्रमग और ब्राह्मणों का शाश्वतिक विरोध है (पातंजल महाभाष्य ५.४.६)। जैनशास्त्रों में पांच प्रकार के श्रमग गिनाए हैं उनमें एक निर्ग्रन्थ श्रमण का प्रकार है-यही जैनधर्म के अनुयायी श्रमण हैं। उनका बौद्धग्रन्थों में निग्रंन्य नाम से परिचय कराया गया है-इससे इस मत की पुष्टि होती हैं कि जैन मुनि या यति को भ. बुद्ध के समय में निग्रन्थ कहा जाता था और वे श्रमगों के एक वर्ग में थे। ___ सारांश यह है कि वेदकाल में जैनों के पुरखे मुनि या यति में शामिल थे। उसके बाद उनका समावेश श्रमणों में हुआ और भगवान् महावीर के समय वे निग्रन्थ नाम से विशेषरूप से प्रसिद्ध थे। जैन नाम जैनों की तरह बौद्धों के लिए भी प्रसिद्ध रहा है क्योंकि दोनों में जिन की आराधना समानरूप से होती थी। किन्तु भारत से बौद्धधर्म के प्रायः लोप के बाद केवल महावीर के अनुयायियों के लिए जैन नाम रह गया जो आज तक चालू है । तीर्थकरों की परंपरा :
जैन-परंपरा के अनुसार इस भारतवर्ष में कालचक्र उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में विभक्त है। प्रत्येक में छः पारे होते हैं। अभी अवसर्पिणी काल चल रहा है। इसके पूर्व उत्सपिगी काल था। अवसर्पिणी के समाप्त होने पर पुनः उत्सर्पिणी कालचक्र शुरू होगा। इस प्रकार अनादिकाल से यह कालचक्र चल रहा है और अनन्तकाल तक चलेगा। उत्सर्पिणी में सभी भाव उन्नति को प्राप्त होते हैं और अवसर्पिणी में 'हास को। किन्तु दोनों में तीर्थंकरों का जन्म होता है। उनकी
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( २२ ) संख्या प्रत्येक में २४ की मानी गई है। तदनुसार प्रस्तुत अवसर्पिणी में अबतक २४ तीर्थकर हो चुके हैं। अंतिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर हुए और प्रथम तीथंकर ऋषभदेव। इन दोनों के बीच का अन्तर असंख्य वर्ष है। अर्थात् जैन-परंपरा के अनुसार ऋषभदेव का समय भारतीय ज्ञात इतिहासकाल में नहीं आता। उनके अस्तित्वकाल की यथार्थता सिद्ध करने का हमारे पास कोई साधन नहीं। अतएव हम उन्हें पौराणिक काल के अन्तर्गत ले सकते हैं। उनकी अवधि निश्चित नहीं करते। किन्तु ऋषभदेव का चरित्र जैनपुराणों में वर्णित है और उसमें जो समाज का चित्रण है वह ऐसा है कि उसे हम संस्कृति का उषः काल कह सकते हैं। उस समाज में राजा नही था, लोगों को लिखना-पढ़ना, खेती करना और हथियार चलाना नहीं भाता था। समाज में अभी सुसंस्कृत लग्नप्रथा ने प्रवेश नहीं किया था। भाई-बहन पति-पत्नी की तरह व्यवहार करते और संतानोत्पत्ति होती थी। इस समाज को सुसंस्कृत बनाने का प्रारंभ ऋषभदेव ने किया। ___ यहाँ हमें ऋग्वेद के यम-यमी संवाद की याद आती है। उसमें यमी जो यम की बहन है वह यम के साथ संभोग की इच्छा करती है किन्तु यम ने नहीं माना, और दूसरे पुरुष की तलाश करने को कहा। उससे यह झलक मिलती है कि भाई-बहन का पति-पत्नी होकर रहना किसी समय समाज में जायज था किन्तु उस प्रथा के प्रति ऋग्वेद के समय में अरुचि स्पष्ट है। ऋग्वेद का समाज ऋषभदेवकालीन समाज से भागे बढ़ा हुआ है-इसमें संदेह नहीं है। कृषि
आदि का उस समाज में प्रचलन स्पष्ट है। इस दृष्टि से देखा जाय तो ऋषभदेव के समाज का काल ऋग्वेद से भी प्राचीन हो जाता है। कितना प्राचीन, यह कहना संभव नहीं अतएव उसको चर्चा करना निरर्थक है। जिस प्रकार जैन शास्त्रों में राजपरंपरा की स्थापना की चर्चा है और उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल की व्यवस्था है वैसे ही काल की दृष्टि से उन्नति और ह्रास का चित्र तथा राजपरंपरा की स्थापना का चित्र बौद्धपरंपरा में भी मिलता है। इसके लिए दीघनिकाय के चक्कवत्तिसुत्त ( भाग ३, पृ० ४६ ) तथा अग्गजसुत्त ( भाग ३, पृ० ६३ ) देखना चाहिए। जैनपरंपरा के कुलकरों की परंपरा में नाभि और उनके पुत्र ऋषभ का जो स्थान है करीब वैसा ही स्थान बौद्धपरंपरा में महासंमत का है ( अग्गझसुत्त-दीघ० का ) और सामयिक परिस्थिति भी दोनों में करीबकरीब समानरूप से चित्रित है। संस्कृति के विकास का उसे प्रारंभ काल कहा जा सकता है। ये सब वर्णन पौराणिक हैं, यही उसकी प्राचीनता में प्रबल प्रमाण माना जा सकता है।
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( २३ )
हिन्दु पुराणों में ऋषभचरित ने स्थान पाया है और उनके माता-पिता मरुदेवी और नाभि के नाम भी वही हैं जैसा जैनपरंपरा मानती है और उनके त्याग और तपस्या का भी वही रूप है जैसा जैनपरंपरा में वर्णित है । और आश्रयं तो यह है कि उनको वेदविरोधी मान कर भी विष्णु के अवताररूप से बुद्ध की तरह माना गया है । १ यह इस बात का प्रमाण है कि ऋषभ का व्यक्तित्व प्रभावक था और जनता में प्रतिष्ठित भी । ऐसा न होता तो वैदिक परंपरा में तथा पुराणों में उनको विष्णु के अवतार का स्थान न मिलता। जैनपरंपरा में तो उनका स्थान प्रथम तीर्थंकर के रूप में निश्चित किया गया है। उनकी साधना का क्रम यज्ञ न होकर तपस्या है - यह इस बात का प्रमाण है कि वे श्रमणपरंपरा से मुख्यरूप से संबद्ध थे । श्रमणपरंपरा में यज्ञ द्वारा देव में नहीं किन्तु अपने कर्म द्वारा अपने में विश्वास मुख्य है ।
पं० श्री कैलाशचन्द्र ने शिव और ऋषभ के एकीकरण की जो संभावना प्रकट की है और जैन तथा शैव धर्म का मूल एक परंपरा में खोजने का जो प्रयास किया है वह सर्वमान्य हो या न हो किन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि ऋषभ का व्यक्तित्व ऐसा था जो वैदिकों को भी आकर्षित करता था और उनकी प्राचीनकाल से ऐसी प्रसिद्धि रही जिसकी उपेक्षा करना संभव नहीं था । अतएव ऋषभचरित ने एक या दूसरे प्रसंग से वेदों से लेकर पुराणों और अंत में श्रीमद्भागवत में भी विशिष्ट अवतारों में स्थान प्राप्त किया है । अतएव डा. जेकोबी ने भी जैनों की इस परंपरा में कि जैनधर्म का प्रारंभ ऋषभदेव से हुआ है - सत्य की संभावना मानी है । ३
डा. राधाकृष्णन् ने यजुर्वेद में ऋषभ, अजितनाथ और अरिष्टनेमि का उल्लेख होने की बात कही है किन्तु डा० शुब्रिग मानते हैं कि वैसी कोई सूचना उसमें नहीं है । ४ पं. श्री कैलाशचन्द्र ने डा० राधाकृष्णन् का समर्थन किया है । किन्तु इस विषय में निर्णय के लिए अधिक गवेषणा की आवश्यकता है ।
Vol. V. part II. p, 995;
१.
History of Dharmasastra, जैन साहित्य का इतिहास - पूर्वपीठिका, पृ० १२०.
२.
जै० सा० ३० पूर्वपीठिका, पृ० १०७. ३. देखिये – जै० सा० इ० पू०, पृ० ५. डॉक्ट्रिन ऑफ दी जैन्स, पृ० २७, टि. २. जै० सा० इ० पू०, पृ० १०८०
४.
५.
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एक ऐसी भी मान्यता विद्वानों में प्रचलित है कि जैनों ने अपने २४ तीथंकरों की नामावलि की पूर्ति प्राचीनकाल में भारत में प्रसिद्ध उन महापुरुषों के नामों को लेकर की है जो जैनधर्म को अपनानेवाले विभिन्न वर्गों के लोगों में मान्य थे। इस विषय में हम इतना ही कहना चाहते हैं कि ये महापुरुष यज्ञों की-हिंसक यज्ञों की प्रतिष्ठा करनेवाले नहीं थे किन्तु करुणा की और त्याग-तपस्या की तथा आध्यात्मिक साधना की प्रतिष्ठा करनेवाले थे-ऐसा माना जाय तो इसमें आपत्ति की कोई बात नहीं हो सकती।
जैनपरंपरा में ऋषभ से लेकर भ• महावीर तक २४ तीर्थंकर माने जाते हैं उनमें से कुछ ही का निर्देश जैनेतर शास्त्रों में है। तीर्थंकरों की जो कथाएँ जैनपुराणों में दी गई हैं उनमें ऐसी कथाएं भी हैं जो अन्यत्र भी प्रसिद्ध हैं, किन्तु नामान्तरों से। अतएव उनपर विशेष विचार न करके यहाँ उन्हीं तीर्थंकरो पर विशेष विचार करना है जिनका नामसाम्य अन्यत्र उपलब्ध है या जिनके विषय में बिना नाम के भी निश्चित प्रमाण मिल सकते हैं।
बौद्ध अंगुत्तरनिकाय में पूर्वकाल में होनेवाले सात शास्ता वीतराग तीर्थंकरों की बात भगवान् बुद्ध ने कही है—“भूतपुप्वं भिक्खवे सुनेत्तो नाम सत्था अहोसि तित्थकरो कामेसु वीतरागो .. मगपक्ख - 'अरनेमि.. कुद्दालक... हस्थिपाल... "जोतिपाल .अरको नाम सत्था अहोसि तित्थकरो कामेसु वीतरागो। अरकस्स खो पन, भिक्खवे, सत्थुनो अनेकानि सावकसतानि अहेसुं" ( भाग ३. पृ० २५६-२५७ )। ___इसी प्रसंग में अरकसुत्त में अरक का उपदेश कैसा था, यह भी भ. बुद्धने वर्णित किया है। उनका उपदेश था कि “अप्पकं जीवितं मनुस्सानं परित्तं, लहुकं बहुदुक्खं बहुपायासं मन्तयं बोद्धव्वं, कत्तब्बं कुसलं, चरितब्बं ब्रह्मचरियं, नस्थि जातस्स अमरणं' (पृ०२५७)। और मनुष्यजीवन की इस नश्वरता के लिए उपमा दी है कि सूर्य के निकलने पर जैसे तृणान में स्थित ( घास आदि पर पड़ा ) प्रोसबिन्दु तत्काल विनष्ट हो जाता है वैसे ही मनुष्य का यह जीवन भी शीघ्र मरणाधीन होता है। इस प्रकार इस अोसबिन्दु की उपमा के अलावा पानी के बुद्बुद और पानी में दंडराजी आदि का भी उदाहरण देकर जीवन की क्षणिकता बताई गई है ( पृ० २५८ )। ___ अरक के इस उपदेश के साथ उत्तराध्ययनगत 'समयं गोयम मा पमायए' उपदेश तुलनीय है ( उत्तरा. अ. १०)। उसमें भी जीवन की क्षणिकता
१. Doctrine of the Jainas, p. 28.
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( २५ ) के ऊपर भार दिया गया है और अप्रमादी बनने को कहा गया है। उसमें भी कहा है
कुसग्गे जह ओसबिन्दुए थोवं चिट्ठइ लंबमाणए।
एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयम मा पमायए। अरक के समय के विषय में भ० बुद्ध ने कहा है कि अरक तीर्थंकर के समय में मनुष्यों की आयु ६० हजार वर्ष की होती थी, ५०० वर्ष की कुमारिका पति के योग्य मानी जाती थी। उस समय के मनुष्यों को केवल छः प्रकार की पीड़ा होती थी—शीत, उष्ण, भूख, तृषा, पेशाब करना और मलोत्सर्ग करना। इनके अलावा कोई रोगादि की पीड़ा न होती थी। इतनी बड़ी आयु और इतनी कम पीड़ा फिर भी अरक का उपदेश जीवन की नश्वरता का और जीवन में बहृदुःख का था।
भगवान बुद्ध द्वारा वर्णित इस अरक तीर्थंकर की बात का अठारहवें जैन तीर्थकर अर के साथ कुछ मेल बैठ सकता है या नहीं, यह विचारणीय है। जैनशास्त्रों के आधार से अर की आयु ८४००० वर्ष मानी गई है और उनके बाद होनेवाली मल्ली तीर्थंकर की आयु ५५ हजार वर्ष है। अतएव पौराणिक दृष्टि से विचार किया जाय तो अरक का समय अर और मल्ली के बीच ठहरता है। इस आयु के भेद को न माना जाय तो इतना कहा ही जा सकता है कि अर या अरक नामक कोई महान् व्यक्ति प्राचीन पुराणकाल में हुअा था जिन्हें बौद्ध और जैन दोनों ने तीर्थंकर का पद दिया है। दूसरी बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि इस परक से भी पहले बुद्ध के मत से अरनेमि नामक एक तीर्थंकर हुए हैं। बुद्ध के बताये गये अरनेमि और जैन तीर्थंकर अर का भी कुछ संबंध हो सकता है। नामसाम्य आंशिक रूप से है हो और दोनों की पौराणिकता भी मान्य है। बौद्ध थेरगाथा में एक अजित थेर के नाम से गाथा है
"मरणे मे भयं नस्थि निकन्ति नत्थि जीविते। सन्देहं निक्खिपिस्सामि सम्पजानो पटिस्सतो ॥"
-थेरगाथा १.२० उसकी अट्ठकथा में कहा गया है कि ये अजित ६१ कल्प के पहले प्रत्येकबुद्ध हो गये हैं। जैनों के दूसरे तीथंकर अजित और ये प्रत्येकबुद्ध अजित योग्यता और नाम के अलावा पौराणिकता में भी साम्य रखते हैं। महाभारत में अजित और शिव का ऐक्य वर्णित है। बौद्धों के, महाभारत के और जैनों के अजित एक हैं
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( २६ ) या भिन्न, यह कहना कठिन है किन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि अजित नामक व्यक्ति ने प्राचीनकाल में प्रतिष्ठा पाई थी।
__ बौद्धपिटक में निग्गन्थ नातपुत्त का कई बार नाम आता है और उनके उपदेश की कई बातें ऐसी हैं जिससे निग्गन्थ नातपुत्त की ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर से अभिन्नता सिद्ध होती है। इस विषय में सर्वप्रथम डा० जेकोबी ने विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया था और अब तो यह बात सर्वमान्य हो गई है। डॉ. जेकोबी ने बौद्धपिटक से ही भ० पाश्वनाथ के अस्तित्व को भी साबित किया है। भ० महावीर के उपदेशों में बौद्धपिटकों में बारबार उल्लेख आता है कि उन्होंने चतुर्याम का उपदेश दिया है। डॉ. जेकोबी ने इस परसे अनुमान लगाया है कि बुद्ध के समय में चतुर्याम का पाश्र्वनाथ द्वारा दिया गया उपदेश जैसा कि स्वयं जैनधर्म की परंपरा में माना गया है, प्रचलित था। भ० महावीर ने उस चतुर्याम के स्थान में पांच महाव्रत का उपदेश दिया था। इस बात को बुद्ध जानते न थे। अतएव जो पाश्वका उपदेश था उसे महावीर का उपदेश कहा गया। बौद्धपिटक के इस गलत उल्लेख से जैन परंपरा को मान्य पार्श्व और उनके उपदेश का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार बौद्धपिटक से हम पार्श्वनाथ के अस्तित्व के विषय में प्रबल प्रमाण पाते हैं। ___ सोरेन्सन ने महाभारत के विशेषनामों का कोष बनाया है। उसके देखने से पता चलता है कि सुपाश्वं, चन्द्र और सुमति ये तीन नाम ऐसे हैं जो तीथंकरों के नामों से साम्य रखते हैं । विशेष बात यह भी ध्यान देने की है कि ये तीनों ही असुर हैं। और यह भी हम जानते हैं कि पौराणिक मान्यता के अनुसार अर्हतों ने जो जैनधर्म का उपदेश दिया है वह विशेषतः असुरों के लिए था। अर्थात् वैदिक पौराणिक मान्यता के अनुसार जैनधर्म असुरों का धर्म है। ईश्वर के अवतारों में जिस प्रकार ऋषभ को अवतार माना गया है उसी प्रकार सुपाश्वं को महाभारत में कुपथ नामक असुर का अंशावतार माना गया है। चन्द्र को भी मंशावतार माना गया है। सुमति नामक असुर के लिए कहा गया है कि वरुणप्रासाद में उनका स्थान दैत्यों और दानवों में था। तथा एक अन्य सुमति नाम के ऋषि का भी महाभारत में उल्लेख है जो भीष्म के समकालीन बताए गए हैं।
जिस प्रकार भागवत में ऋषभ को विष्णु का अवतार माना गया है उसी प्रकार अवतार के रूप में तो नहीं किन्तु विष्णु और शिव के जो सहस्रनाम महाभारत में दिये गये हैं उनमें श्रेयस, अनन्त, धर्म, शान्ति और संभव-ये नाम विष्णु के भी हैं और ऐसे ही नाम जैन तीर्थंकरों के भी मिलते हैं। सहस्रनामों
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(
२७ )
के अभ्यास से यह पता चलता है कि पौराणिक महापुरुषों का अभेद विष्णु से और शिव से करना—यह भी उसका एक प्रयोजन था। प्रस्तुत में इन नामों से जैन तीर्थकर अभिप्रेत हैं या नहीं, यह विचारणीय है। शिव के नामों में भी अनन्त, धर्म, अजित, ऋषभ-ये नाम पाते हैं ,जो तत्तत् तीर्थंकरों के नाम भी हैं। __ शान्ति विष्णु का भी नाम है, यह कहा ही गया है। महाभारत के अनुसार उस नाम के एक इन्द्र और ऋषि भी हुए हैं। इनका संबन्ध शान्ति नामक जैन तीर्थंकर से है या नहीं, यह विचारणीय है। बीसवें तीर्थकर के नाम मुनिसुव्रत में मुनि को सुव्रत का विशेषण माना जाय तो सुव्रत नाम ठहरता है। महाभारत में विष्णु और शिव का भी एक नाम सुव्रत मिलता है। नामसाम्य के अलावा जो इन महापुरुषों का संबंध असुरों से जोड़ा जाता है वह इस बात के लिए तो प्रमाण बनता ही है कि ये वेदविरोधी थे। उनका वेदविरोधी होना उनके श्रमणपरंपरा से संबद्ध होने की संभावना को दृढ़ करता है। आगमों का वर्गीकरण :
सांप्रतकाल में भागम रूप से जो ग्रन्य उपलब्ध हैं और मान्य हैं उनकी सूची नीचे दी जाती है। उनका वर्गीकरण करके यह सूची दी है क्योंकि प्रायः उसी रूप में वर्गीकरण सांप्रतकाल में मान्य है
११ अंग–जो श्वेताम्बरों के सभी संप्रदायों को मान्य हैं वे हैं
१ आयार (प्राचार ), २ सूयगड ( सूत्रकृत), ३ ठाण ( स्थान ), ४ समवाय, ५ वियाहपन्नत्ति ( व्याख्याप्रज्ञप्ति), ६ नायाधम्मकहाओ ( ज्ञात-धर्मकथाः ), ७ उवासगदसायो ( उपासकदशाः ), ८ अंतगडदसाओ (अन्तकृद्दशाः), ६ अनुत्तरोववाइयदसानो (अनुत्तरौपपातिकदशाः), १० पण्हावागरणाई ( प्रश्नव्याकरणानि ), ११ विवागसुयं ( विपाकश्रुतम् ) ( १२ दृष्टिवाद, जो विच्छिन्न हुअा है )।
१२ उपांग--जो श्वेताम्बरों के तीनों संप्रदायों को मान्य हैं
१ उववाइयं ( औपपातिकं ), २ रायपसेणइज ( राजप्रसेनजित्कं ) अथवा रायपसेणियं ( राजप्रश्नीयं ), ३ जीवाजीवाभिगम, ४ पण्णवणा ( प्रज्ञापना ), ५ सूरपण्णत्ति ( सूर्यप्रज्ञप्ति ), ६ जंबुद्दीवपण्णत्ति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति), ७ चंदपण्णत्ति ( चन्द्रप्रज्ञप्ति), ८-१२ निरयावलियासुयक्खंध (निरयावलिकाश्रुतस्कन्ध ): ८ निरयावलियानो ( निरयावलिकाः ), ६ कप्पडिसियानो ( कल्पावतंसिकाः ),
१. विशेष विस्तृत चर्चा के लिए देखिए-प्रो० कापडिया का ए हिस्ट्री ऑफ दी केनोनिकल लिटरेचर ऑफ जैन्स, प्रकरण २.
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( २८ ) १० पुफियानो ( पुष्पिकाः ), ११ पुप्फचूलानो ( पुष्पचूलाः ), १२ वण्हिदसानो ( वृष्णिदशाः )।
१० प्रकीर्णक-जो केवल श्वे० मूर्तिपूजक संप्रदाय को मान्य हैं
१ चउसरण ( चतुःशरण ), २ पाउरपञ्चक्खाण ( आतुरप्रत्याख्यान ), ३ भत्तपरिन्ना ( भक्तपरिज्ञा ), ४ संथार ( संस्तार ), ५ तंडुलवेयालिय ( तंडुल वैचारिक ), ६ चंदवेज्झय ( चन्द्रवेध्यक), ७ देविन्दत्यय ( देवेन्द्रस्तव ), ८ गणिविजा ( गणिविद्या ), ६ महापच्चक्खाण ( महाप्रत्याख्यान ), १० वीरत्थय ( वीरस्तव )।
६ छेद-१ आयारदसा अथवा दसा ( आचारदशा ), २ कप्प ( कल्प' ), ३ ववहार ( व्यवहार ), ४ निसीह ( निशीथ ), ५ महानिसीह ( महानिशीथ ), ६ जीयकप्प ( जीतकल्प )। इनमें से अंतिम दो स्था० और तेरापंथी को मान्य नहीं हैं।
२ चूलिकासूत्र-१ नन्दी, २ अणुयोगदारा ( अनुयोगद्वाराणि )।
४ मूलसूत्र-१ उत्तरज्झाया (उत्तराध्यायाः), २ दसवेयालिय (दशवकालिक), ३ श्रावस्सय ( आवश्यक ), ४ पिण्डनिज्जुत्ति ( पिण्डनियुक्ति )। इनमें से अंतिम स्था० और तेरा० को मान्य नहीं है।
यह जो गणना दी गई है उसमें एक के बदले कभी-कभी दूसरा भी आता है, जैसे पिण्डनियुक्ति के स्थान में प्रोधनियुक्ति । दशप्रकीर्णकों में भी नामभेद देखा जाता है। छेद में भी नामभेद है। कभी-कभी पंचकल्प को इस वर्ग में शामिल किया जाता है।
प्राचीन उपलब्ध आगमों में आगमों का जो परिचय दिया गया है उसमें यह पाठ है-"इह खलु समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं.. इमे दुवालसंगे गणिपिडगे पण्णत्ते, तं जहा-आयारे सूयगडे ठाणे समवाए वियाहपन्नत्ति नायाधम्मकहाओ उवासगदसाओ अंतगडदसाओ अणुत्तरोववाइयदसाओ पण्हावागरणं विवागसुए दिट्टिवाए। तत्थ णं जे से चउत्थे अंगे समवाए त्ति आहिए तस्स णं अयमठे पण्णत्ते" (समवाय अंग का प्रारंभ)।
१. दशाश्रुत में से पृथक् किया गया एक दूसरा कल्पसूत्र भी हैं। उसके नामसाम्य से भ्रम उत्पन्न न हो इसलिए इसका दूसरा नाम बृहत्कल्प रखा गया है।
२. देखिए-कापडिया-ए हिस्ट्री ऑफ दी केनोनिकल लिटरेचर ऑफ जैन्स, प्रकरण २.
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( २६ ) समवायांग मूल में जहाँ १२ संख्या का प्रकरण चला है वहाँ द्वादशांग का परिचय न देकर एक कोटि समवाय के बाद वह दिया है। वहीं का पाठ इस प्रकार प्रारंभ होता है—“दुवालसंगे गणिपिडगे पन्नत्ते, तं जहा-आयारे" दिठिवाए। से कं तं आयारे ? आयारे णं समणागं......."इत्यादि क्रम से एक-एक का परिचय दिया है। परिचय में "अंगठ्ठयाए पढमे...."अंगठ्ठयाए दोच्चे......" इत्यादि देकर द्वादश अंगों के क्रम को भी निश्चित कर दिया है। परिणाम यह हुआ कि जहाँ कहीं अंगों की गिनती की गई, पूर्वोक्त क्रम का पालन किया गया। अन्य वर्गों में जैसा व्युत्क्रम दीखता है वैसा द्वादशांगों के क्रम में नहीं देखा जाता।
दूसरी बात यह ध्यान देने की है कि "तस्स णं अयमठे पण्णत्ते"(समवाय का प्रारंभ) और "अंगठ्ठयाए पढमे"- इत्यादि में 'अट्ठ' (अर्थ) शब्द का प्रयोग किया है वह विशेष प्रयोजन से है । जो यह परंपरा स्थिर हुई है कि 'अत्थं भासइ अरहा' (आवनि० १६२)-उसी के कारण प्रस्तुत में 'अट्ट'-'अर्थ' शब्द का प्रयोग है । तात्पर्य यह है कि ग्रन्यरचना--शब्द-रचना तीर्थंकर भ० महावीर की नहीं है किन्तु उपलब्ध आगम में जो ग्रन्य-रचना है, जिन शब्दों में यह प्रागम उपलब्ध है उससे फलित होनेवाला अर्थ या तात्पर्य भगवान् द्वारा प्रगीत है। ये ही शब्द भगवान् के नहीं हैं किन्तु इन शब्दों का तात्पर्य जो स्वयं भगवान ने बताया था उससे भिन्न नहीं है। उन्हीं के उपदेश के आधार पर “सुत्तं गन्थन्ति गणहरा निउणं" ( पावनि० १९२ )-गगधर सूत्रों की रचना करते हैं। सारांश यह है कि उपलब्ध अंग आगम की रचना गणधरों ने की है-ऐसी परंपरा है । यह रचना गणधरों ने अपने मन से नहीं की किन्तु भ० महावीर के उपदेश के आधार पर की है अतएव ये पागम प्रमाण माने जाते हैं। - तीसरी बात जो ध्यान देने की है वह यह कि इन द्वादश ग्रन्थों को 'अंग' कहा गया है। इन्हीं द्वादश अंगों का एक वर्ग है जिनका गणिपिटक के नाम से परिचय दिया गया है। गणिपिटक में इन बारह के अलावा अन्य आगम ग्रन्थों का उल्लेख नहीं है इससे यह भी सूचित होता है कि मूलरूप से आगम ये ही थे और इन्हीं की रचना गणधरों ने की थी।
_ 'गणिपिटक' शब्द द्वादश अंगों के समुच्चय के लिए तो प्रयुक्त हुआ ही है किन्तु वह प्रत्येक के लिए भी प्रयुक्त होता होगा ऐसा समवायांग के एक उल्लेख से प्रतीत होता है-"तिण्हं गणिपिडगाणं आयारचूलिया वजाणं
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( ३० ) सत्तावन्नं अज्झयणा पन्नत्ता तं जहा-आयारे सूयगडे ठाणे।"-समवाय ५७वा। अर्थात् आचार आदि प्रत्येक की जैसे अंग संज्ञा है वैसे ही प्रत्येक की 'गणिपिटक' ऐसी भी संज्ञा थी ऐसा अनुमान किया जा सकता है ।
वैदिक साहित्य में 'भंग' ( वेदांग ) संज्ञा संहिताएं, जो प्रधान वेद थे, उनसे भिन्न कुछ ग्रन्थों के लिए प्रयुक्त है। भौर वहाँ 'अंग' का तात्पर्य है वेदों के अध्ययन में सहायभूत विविध विद्याओं के ग्रन्थ । अर्थात् वैदिकवाङमय में 'अंग' का तात्पर्यार्थ मौलिक नहीं किन्तु गौण ग्रन्थों से है। जैनों में 'अंग' शब्द का यह तात्पर्य नहीं है। प्राचार आदि भंग ग्रन्थ किसी के सहायक या गौण ग्रन्थ नहीं हैं किन्तु इन्हीं बारह ग्रन्थों से बननेवाले एक वर्ग को इकाई होने से 'अंग' कहे गये हैं। इसमें सन्देह नहीं। इसीसे आगे चलकर श्रुतपुरुष की कल्पना की गई और इन द्वादश अंगों को उस श्रुतपुरुष के अंगरूप से माना गया।
अधिकांश जैनतीर्थकरों की परंपरा पौराणिक होने पर भी उपलब्ध समग्र जैनसाहित्य का जो आदि स्रोत समझा जाता है वह जैनागमरूप अंगसाहित्य वेद जितना पुराना नहीं है, यह मानी हुई बात है । फिर भी उसे बौद्धपिटक का समकालीन तो माना जा सकता है।
डा० जेकोबी आदि का तो कहना है कि समय की दृष्टि से जैनागम का रचनासमय जो भी माना जाय किन्तु उसमें जिन तथ्यों का संग्रह है वे तथ्य ऐसे नहीं हैं जो उसी काल के हों। ऐसे कई तथ्य उसमें संगृहीत हैं जिनका संबंध प्राचीन पूर्वपरंपरा से है।४ अतएव जैनागमों के समय का विचार करना हो तब विद्वानों की यह मान्यता ध्यान में अवश्य रखसी होगी।
जैनपरंपरा के अनुसार तीथंकर भले ही अनेक हों किन्तु उनके उपदेश में साम्य होता है और तत्तत्काल में जो भी अंतिम तीर्थंकर हों उन्हीं का उपदेश
१ Doctrine of the Jainas, p, 73. २. नंदीचूर्णि, पृ० ४७; कापडिया-केनोनिकल लिटरेचर, पृ० २१.
३. "बौद्धसाहित्य जैनसाहित्य का समकालीन ही हैं"-ऐसा पं० कैलाशचन्द्र जब लिखते हैं तब इसका अर्थ यही हो सकता है। देखिये-जैन. सा. इ. पूर्वपीठिका, पृ० १७४.
8. Doctrine of the Jainas, p 15.
५. इसी दृष्टि से जैनागमों को अनादि-अनंत कहा गया है—च्चेइयं दुवालसंग गणिपिडगं न कयाइ नासी, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ, भुवि च भवइ च. भविस्सइ य, धुवे निअए सासए अक्खए अव्वए अवठ्ठिए निच्चे"-नन्दी, सू० ५८; समवायांग, सू०, १४८.
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और शासन विचार और प्राचार के लिए प्रजा में मान्य होता है। इस दृष्टि से भ. महावीर अंतिम तीर्थकर होने से उन्हीं का उपदेश अंतिम उपदेश है और वही प्रमाणभूत है। शेष तीर्थंकरों का उपदेश उपलब्ध भी नहीं और यदि हो तब भी वह भ० महावीर के उपदेश के अन्तर्गत हो गया है-ऐसा मानना चाहिए ।
प्रस्तुत में यह स्पष्ट करना जरूरी है कि भगवान महावीर ने जो उपदेश दिया उसे सूत्रबद्ध किया है गणधरों ने। इसीलिए अर्थोपदेशक या अर्थरूप शास्त्र के कर्ता भ० महावीर माने जाते हैं और शब्दरूप शास्त्र के कर्ता गणधर हैं।' अनुयोगद्वारगत ( सू० १४४, पृ० २१६ ) सुत्तागम, अत्थागम, अत्तागम, अणंतरागम आदि जो लोकोत्तर आगम के भेद हैं उनसे भी इसी का समर्थन होता है। भगवान् महावीर ने यह स्पष्ट स्वीकार किया है कि उनके उपदेश का संवाद भ० पाश्र्वनाथ के उपदेश से है। तथा यह भी शास्त्रों में कहा गया है कि पाश्वं
और महावीर के आध्यात्मिक संदेश में मूलतः कोई भेद नहीं है। कुछ बाह्याचार में भले ही भेद दीखता हो ।२
जैन परंपरा में आज शास्त्र के लिए 'आगम' शब्द व्यापक हो गया है किन्तु प्राचीन काल में वह 'श्रुत' या 'सम्यक् श्रुत' के नाम से प्रसिद्ध था ।३ इसी से 'श्रुतकेवली' शब्द प्रचलित हा न कि आगमकेवली या सूत्रकेवली। और स्थविरों की गणना में भी श्रुतस्थविर को स्थान मिला है वह भी 'श्रुत' शब्द को प्राचीनता सिद्ध कर रहा है। प्राचार्य उमास्वाति ने श्रुत के पर्यायों का संग्रह कर दिया है वह इस प्रकार है -श्रुत, प्राप्तवचन, आगम, उपदेश, ऐतिह्य, आम्नाय, प्रवचन और जिनवचन । इनमें से आज 'पागमा६ शब्द ही विशेषतः प्रचलित है।
समवायांग आदि आगमों से मालूम होता है कि सर्वप्रथम भगवान महावीर ने जो उपदेश दिया था उसकी संकलना 'द्वादशांगो' में हुई और वह 'गणिपिटक' इसलिए
१. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथति गणहरा निउणं । सासणस्स हियठाए तो सुत्त पवत्तइ ।
-आवश्यकनियुक्ति, गा० १९२; धवला भा० १, पृ० ६४ तथा ७२. २. Doctrine of the Jainas, p. 29. ३. नन्दी, सू० ४१. ४. स्थानांग, सू० १५६. ५. तत्त्वार्थभाष्य,१. २०.
६. • सर्वप्रथम अनुयोगद्वार सूत्र में लोकोत्तर आगम में द्वादशांग गिणिपिटक का समावेश किया है और आगम के कई प्रकार के भेद किये हैं-सू० १४४, पृ०. २१८.
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( ३२ ) कहलाया कि गणि के लिए वही श्रुतज्ञान का भंडार था।'
समय के प्रवाह में आगमों की संख्या बढती ही गई जो ८५ तक पहुंच गई है। किन्तु सामान्य तौर पर श्वेताम्बरों में मूर्तिपूजक संप्रदाय में वह ४५ और स्थानकवासी तथा तेरापंथ में ३२ संख्या में सीमित है। दिगम्बरों में एक समय ऐसा था जब वह संख्या १२ अंग और १४ अंगबाह्य = २६ में सीमित थी। किन्तु अंगज्ञान की परंपरा वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष तक ही रही और उसके बाद वह आंशिक रूप से चलती रही-ऐसी दिगम्बर-परंपरा है।३
__ आगम की क्रमशः जो संख्यावृद्धि हुई उसका कारण यह है कि गणधरों के अलावा अन्य प्रत्येकबुद्ध महापुरुषों ने जो उपदेश दिया था उसे भी प्रत्येकबुद्ध के केवली होने से आगम में संनिविष्ट करने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती थी। इसी प्रकार गणिपिटक के ही आधार पर मंदबुद्धि शिष्यों के हितार्थ श्रुतकेवली प्राचार्यों ने जो ग्रन्थ बनाए थे उनका समावेश भी, आगम के साथ उनका अविरोध होने से और पागमाथं को ही पुष्टि करनेवाले होने से, आगमों में कर लिया गया। अंत में संपूर्णदशपूर्व के ज्ञाता द्वारा ग्रथित ग्रन्य भी आगम में समाविष्ट इसलिए किये गये कि वे भी आगम को पुष्ट करने वाले थे और उनका आगम से विरोध इसलिए भी नहीं हो सकता था कि वे निश्चित रूप से सम्यग्दृष्टि होते थे। निम्न गाथा से इसी बात की सूचना मिलती है
सूत्तं गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च। सुदकेवलिणा कथिदं अभिण्णदसपूव्वकथिदं च ॥४
-मूलाचार, ५.८० इससे कहा जा सकता है कि किसी अन्य के प्रागम में प्रवेश के लिए यह मानदंड था। अतएव वस्तुतः जब से दशपूर्वी नहीं रहे तब से आगम की संख्या
१. “दुवालसंगे गणिपिडगे"--समवायांग, सू ० १ और १३६ ; नन्दी, सू० ४१ आदि । ____२. जयधवला, पृ० २५; धवला, भा० १ पृ० १६ ; गोम्मटसार-जीवकांड, गा० ३६७, ३६८. विशेष के लिए देखिए-आगमयुग का जैनदर्शन, पृ० २२-२७.
३. जै० सा० इ० पूर्वपीठिका, पृ० ५२८, ५३५, ५३८ ( इनमें सकल श्रुतज्ञान का विच्छेद उल्लिखित है। यह संगत नहीं ऊँचता)।
४. यही गाथा जयजवला में उद्धृत है-पृ० १५३. इसी भाव को व्यक्त करनेवाली गाथा संस्कृत में द्रोणाचार्य ने श्रोधनियुक्ति की टीका में पृ० ३ में उद्धृत की है।
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(. ३३ ) में वृद्धि होना रुक गया होगा, ऐसा माना जा सकता है। किन्तु श्वेताम्बरों के आगमरूप से मान्य कुछ प्रकीर्णक ग्रन्थ ऐसे भी हैं जो उस काल के बाद भी पागम में संमिलित कर लिये गये हैं। इसमें उन ग्रन्थों की निर्दोषता और वैराग्य भाव की वृद्धि में उनका विशेष उपयोग–ये ही कारण हो सकते हैं। या कर्ता आचार्य की उस काल में विशेष प्रतिष्ठा भी कारण हो सकती है ।
जैनागमों की संख्या जब बढ़ने लगी तब उनका वर्गीकरण भी आवश्यक हो गया। भगवान् महावीर के मौलिक उपदेश का गणधरकृत संग्रह द्वादश 'अंग' या 'गणिपिटक' में था अतएव यह स्वयं एक वर्ग हो जाय और उससे अन्य का पार्थक्य किया जाय यह जरूरी था। अतएव आगमों का जो प्रथम वर्गीकरण हा वह अंग और अंगबाह्य इस आधार पर हुआ। इसीलिए हम देखते हैं कि अनुयोग ( सू० ३) के प्रारम्भ में 'अंगपविट्ठ' ( अंगप्रविष्ट ) और 'अंगबाहिर ( अंगबाह्य ) ऐसे श्रुत के भेद किये गये हैं। नन्दी ( सू० ४४ ) में भी ऐसे ही भेद हैं। अंगबाहिर के लिये वहाँ 'अणंगपविठ्ठः शब्द भी प्रयुक्त है (स० ४४ के अंत में)। अन्यत्र नंदी ( सू० ३८ ) में हो 'अंगपविटू' और 'प्रणंगपविट्ट'--ऐसे दो भेद किये गए हैं।
इन अंगबाह्य ग्रन्थों की सामान्य संज्ञा 'प्रकीर्णक' भी थी, ऐसा नन्दीसूत्र से प्रतीत होता है।' अंगशब्द को ध्यान में रख कर अंगबाह्य ग्रन्थों की सामान्य संज्ञा 'उपांग' भी थी, ऐसा निरयावलिया सूत्र के प्रारंभिक उल्लेख से प्रतीत होता है और उससे यह भी प्रतीत होता है कि कोई एक समय ऐसा था जब ये निरयावलियादि पांच ही उपांग माने जाते होंगे।
समवायांग, नंदी, अनुयोग तथा पाक्षिकसूत्र के समय तक समग्र आगम के मुख्य विभाग दो हो थे--अंग और अंगबाह्य। प्राचार्य उमास्वाति के तस्वार्थसूत्रभाष्यरे से भी यही फलित होता है कि उनके समय तक भी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ऐसे ही विभाग प्रचलित थे।
स्थानांग सूत्र (२७७) में जिन चार प्रज्ञप्तियों को अंगबाह्य कहा गया है वे हैंचन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति। इनमें से जंबू
१. “एवमाइयाई चउरासीई पइन्नगसहस्साई........"अहवा जस्स जत्तिया सीसा उप्पत्तियाए......"चउन्विहाए बुद्धीए उववेा तस्स तत्तिाई पइएणगसहस्साई......"मन्दी, सू०४४.
२. तत्त्वार्थसूत्रभाष्य, १. २०.
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। ३४ ) द्वीपप्रज्ञप्ति को छोड़ कर शेष तीन कालिक हैं-ऐसा भी उल्लेख स्थानांग ( १५२ ) में है।
___ अंग के अतिरिक्त आचारप्रकल्प ( निशीथ) ( स्थानांग, सू० ४३३; समवायांग, २८), आचारदशा ( दशाश्रुतस्कंध), बन्धदशा, द्विगृद्धिदशा, दोघंदशा और संक्षेपितदशा का भी स्थानांग (७५५ ) में उल्लेख है। किन्तु बन्धदशादि शास्त्र अनुपलब्ध हैं। टीकाकार के समय में भी यही स्थिति थी जिससे उनको कहना पड़ा कि ये कौन ग्रन्थ हैं, हम नहीं जानते। समवायांग में उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययनों के नाम दिये हैं ( सम. ३६ ) तथा दशा-कल्पव्यवहार इन तीन के उद्देशनकाल की चर्चा है। किन्तु उनकी छेदसंज्ञा नहीं
दी गई है।
प्रज्ञप्ति का एक वर्ग अलग होगा ऐसा स्थानांग से पता चलता है। कुवलयमाला (पृ० ३४ ) में अंगबाह्य में प्रज्ञापना के अतिरिक्त दो प्रज्ञप्तियों का उल्लेख है। __ 'छेद' संज्ञा कब से प्रचलित हुई और छेद में प्रारंभ में कौन से शास्त्र संमिलित थे—यह भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। किन्तु आवश्यकनियुक्ति में सर्वप्रथम 'छेदसुत्त' का उल्लेख मिलता है। उससे प्राचीन उस्लेख अभी तक मिला नहीं है।' इससे अभी इतना तो कहा ही जा सकता है कि आवश्यकनियुक्ति के समय में छेदसुत्त का वर्ग पृथक् हो गया था।
कुवलयमाला जो ७-३-७७६ ई. में समाप्त हुई उसमें जिन नाना ग्रन्यों और विषयों का श्रमण चिंतन करते थे उनके कुछ नाम गिनाये हैं ।२ उसमें सर्वप्रथम आचार से लेकर दृष्टिवादपर्यंत अंगों के नाम हैं। तदनन्तर प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति का उल्लेख है। तदनंतर ये गाथाएं हैं
अण्णाइ य गणहरभासियाई सामण्णकेवलिकयाई । पञ्चेयसयंबुद्धेहिं विरइयाई गुणेति महरिसिणो॥ कत्थइ पंचावयवं दसह चिय साहणं परवेति ।
पञ्चक्खमणुमारणपमाणचउक्कयं च अण्णे वियारेति ॥ १. आव० नि० ७७७; केनोनिकल लिटरेचर, पृ० ३६ में उद्धृत । २. कुवलयमाला, पृ० ३४.
३. विपाक का नाम इन में नहीं आता, यह स्वयं लेखक की या लिपिकार की असांवधानी के कारण है।
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भवजलहिजाणवत्तं पेम्ममहारायणियलणिद्दलणं । कम्मट्ठगंठिवजं अण्णे धम्म परिकहेंति ॥ मोहंधयाररविगो परवायकुरंगदरियकेसरिणो। णयसयखरणहरिल्ले अण्णे अह वाइणो तत्थ ।। लोयालोयपयासं दूरंतरसण्हवत्थुपजोयं । केवलिसुत्तणिबद्धं णिमित्तमण्णे वियारंति ॥ णाणाजीवुप्पत्ती सुवण्णमणिरयगधाउसंजोयं ॥ जाणंति जणियजोणी जोणीणं पाहुडं अण्णे ।। ललियवयणत्थसारं सव्वालंकारणिवडियसोहं । अमयप्पवाहमहरं अण्णे कव्वं विइंतंति ॥ बहुतंतमंतविजावियाणया सिद्धजोयजोइसिया ।
अच्छंति अरणुगुणेता अवरे सिद्धंतसाराई ॥ कुवलयमालागत इस विवरण में एक तो यह बात ध्यान देने योग्य है कि अंग के बाद अंगबारों का उल्लेख है। उनमें अंगों के अलावा जिन आगमों के नाम हैं वे मात्र प्रज्ञापना, चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के हैं। इसके बाद गणधर, सामान्यकेवली, प्रत्येकबुद्ध और स्वयंसंबुद्ध के द्वारा भाषित या विरचित ग्रन्थों का सामान्य तौर पर उल्लेख है । वे कौन थे इसका नामपूर्वक उल्लेख नहीं है। दूसरी बात यह ध्यान देने की है कि इसमें दशपूर्वीकृत ग्रन्थों का उल्लेख नहीं है। गणधर का उस्लेख होने से श्र तकेवली का उल्लेख सूचित होता है। दूसरी ओर कम, मन्त्र, तन्त्र, निमित्त आदि विद्याओं के विषय में उल्लेख है और योनिपाहुड का नामपूर्वक उल्लेख है। काव्यों का चिंतन भी मुनि करते थे यह भी बताया है। निमित्त को केवलीसूत्रनिबद्ध कहा गया है। कुवलयमाला के दूसरे उल्लेख से यह फलित होता है कि लेखक के मन में केवल पागम ग्रन्थों का ही उल्लेख करना अभीष्ट नहीं है। प्रज्ञापना आदि तीन अंगबाह्य ग्रन्थों का जो नामोल्लेख है यह अंगबारों में उनकी विशेष प्रतिष्ठा का द्योतक है। धवला' जो ८.१०. ८१६ ई० को समाप्त हुई उससे भी यही सिद्ध होता है कि उस काल तक आगम के अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट ऐसे दो विभाग थे।
किन्तु सांप्रतकाल में श्वेताम्बरों में आगमों का जो वर्गीकरण प्रसिद्ध है वह कब शुरू हुआ, या किसने शुरू किया—यह जानने का निश्चित् साधन उपस्थित नहीं है।
१. धवला, पुस्तक १. पृ० ६६.
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( ३६ )
श्रीचन्द्र श्राचार्य (लेखनकाल ई० १११२ से प्रारंभ ) ने 'सुखबोधा सामाचारी' की रचना की है । उसमें उन्होंने आगम के स्वाध्याय की तपोविधि का जो वर्णन किया है उससे पता चलता है कि उनके कालतक अंग और उपांग की व्यवस्था अर्थात् अमुक अंगका प्रमुक उपांग ऐसी व्यवस्था बन चुकी थी । पठनक्रम में सर्वप्रथम आवश्यक सूत्र, तदनंतर दशवैकालिक और उत्तराध्ययन के बाद प्राचार आदि अंग पढ़े जाते थे । सभी अंग एक ही साथ क्रम से पढ़े जाते थे ऐसा प्रतीत नहीं होता । प्रथम चार आचारांग से समवायांग तक पढ़ने के बाद निसीह, जीयकप्प, पंचकम्प, कप्प, ववहार और दसा ? पढ़े जाते थे । निसीह आदि की यहाँ छेद संज्ञा का उल्लेख नहीं है किन्तु इन सबको एक साथ रखा है यह उनके एक वर्ग की सूचना तो देता ही है । इन छेदग्रन्थों के अध्ययन के बाद नाधम्मका (छठा अंग), उवासगदसा, अंतगडदसा, प्रगुत्तरोववाइयदसा, पहा - वागरण और विपाक- - इन अंगों की वाचना होती थी । विवाग के बाद एक पंक्ति में भगवई का उल्लेख है किन्तु यह प्रक्षिप्त हो— ऐसा लगता है क्योंकि वहाँ कुछ भी विवरण नहीं है ( पृ० ३१ ) । इसका विशेष वर्गन आगे चलकर "गणिजोगेसु य पंचमंगं विवाहपन्नत्ति " ( पृ० ३१ ) इन शब्दों से शुरू होता है । विपाक के बाद उवांग की वाचना का उल्लेख है । वह इस प्रकार है - उववाई, रायपसेणइय, जीवाभिगम, पन्नवणा, सूरपन्नत्ति, जंबूदीवपन्नति, चन्दन्नति । तीन पन्नत्तियों के विषय में उल्लेख है कि 'तो पन्नति कालिमात्र संघट्ट् च कोरइ' – (पृ. ३२ ) । तात्पर्यं यह जान पड़ता है कि इन तीनों की तत् तत् अंग को वाचना के साथ भी वाचना दी जा सकती है । शेष पाँच अंगों के लिए लिखा है कि "सेसाण पंचमंगाणं मयंतरेण निरयावलिया सुयवखंधो उवंगं ।” (पृ. ३२ ) । इस निरया - वलिया के पांच वर्ग हैं-निरयावलिया, कप्पवडिसिया, पुष्फिया, पुष्फ चूलिया और वहीदसा | इसके बाद 'इयाणि पन्नगा' ( पृ० ३२ ) इस उल्लेख के साथ नंदी, अनुयोगद्वार देविन्दत्थन, तंदुलवेयालिय, चंदावेज्झय, आउरपञ्चक्खाण और गरिविजा का उल्लेख करके 'एवमाइया' लिखा है । इस उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि प्रकोक में उल्लिखित के अलावा अन्य भी थे । 'देने की बात है कि नम्दी और अनुयोगद्वार को सांप्रतकाल में गिना जाता है किन्तु यहाँ उनका समावेश प्रकीर्णक में है ।
यहाँ यह भी ध्यान
प्रकीर्णक से पृथक्
इस प्रकरण के
१. सुखबोधा सामाचारी में "निसीहं सम्मत्तं " ऐसा उल्लेख है और तदनन्तर कप आदि से संबंधित पाठ के अंत में " कप्पववहारदसासुयक्खंधो सम्मत्तो" - ऐसा उल्लेख है । अतएव जीयकप्प और पंचकप्प की स्थिति संदिग्ध बनती हैं- पृ० ३०.
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( ३७ ) अंत में 'बाहिरजोगविहिसमत्तो' ऐसा लिखा है उससे यह भी पता चलता हैं कि उपांग और प्रकीर्णक दोनों को सामान्य संज्ञा या वर्ग अंगबाह्य था। इसके बाद भगवती की वाचना का प्रसंग उठाया है। यह भगवती का महत्त्व सूचित करता है। भगवती के बाद महानिसीह का उल्लेख है और उसका उल्लेख अन्य निसीहादि छेद के साथ नहीं है-इससे सूचित होता है कि वह बाद की रचना है। मतान्तर देने के बाद अंत में एक गाथा दी है जिससे सूचना मिलती है कि किस अंग का कौन उपांग है"उ० रा० जी० पन्नवणा सू० जं० चं० नि० क० क० पु० पु० वलिदसनामा । पायाराइउवंगा
नायव्वा
आणुपुव्वीए ॥"
-सुखबोधा सामाचारी, पृ० ३४. श्रीचन्द्र के इस विवरण से इतना तो फलित होता है कि उनके समय तक अंग उपांग, प्रकोणंक इतने नाम तो निश्चित हो चुके थे। उपांगों में कौन ग्रन्थ समाविष्ट हैं यह भी निश्चित हो चुका था जो सांप्रतकाल में भी वैसा ही है । प्रकोणक वर्ग में नंदी-अनुयोगद्वार शामिल था जो बाद में जाकर पृथक् हो गया। मूलसंज्ञा किसी को भी नहीं मिलती जो आगे जाकर आवश्यकादि को मिली है।
जिनप्रभ ने अपने 'सिद्धान्तागमस्तव' में आगमों का नामपूर्वक स्तवन किया है किन्तु वर्गीकरण नहीं किया। उनका रतवनक्रम इस प्रकार है-आवश्यक, विशेषावश्यक, दशवकालिक, प्रोपनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति, नन्दी, अनुयोगद्वार, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, आचारांग आदि ग्यारह अंग ( इनमें कुछ को अंग संज्ञा दी गई है), प्रोपपातिक आदि १२ (इनमें किसी को भी उपांग नहीं कहा है), मरणसमाधि आदि १३ (इनमें किसी को भी प्रकीर्णक नहीं कहा है), निशीथ, दशाश्रत, कम्प, व्यवहार, पंचकल्प, जीतकल्प, महानिशीथ-इतने नाम के बाद नियुक्ति
आदि टीकाओं का स्तवन है। तदनंतर दृष्टिवाद और अन्य कालिक, उत्कालिक ग्रन्थों की स्तुति की गई है। तदनंतर अंगविद्या, विशेषणवती, संमति, नयचक्रवाल, तत्त्वार्थ, ज्योतिष्करंड, सिद्धप्राभृत, वसुदेवहिंडी, कमप्रकृति आदि प्रकरण ग्रन्थों का उल्लेख है। इस सूची से एक बात तो सिद्ध होती है कि भले ही जिनप्रभ ने वर्गों के नाम नहीं दिये किन्तु उस समय तक कौन ग्रन्थ किसके साथ उल्लिखित होना चाहिए ऐसा एक क्रम तो बन गया होगा। इसीलिए हम मूलसूत्रों और चूलिकासूत्रों के नाम एक साथ ही पाते हैं। यही बात भंग, उपांग, छेद और प्रकीणंक में भी लागू होती है ।
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(
३८
)
आचार्य उमास्वाति भाष्य में अंग के साथ उपांग' शब्द का निर्देश करते हैं और अंगबाह्य ग्रन्थ उपांगशब्द से उन्हें अभिप्रेत है। आचार्य उमास्वाति ने अंगबाह्य की जो सूची दी है वह भी जिनप्रभकी सूची का पूर्वरूप है। उसमें प्रथम सामायिकादि छः आवश्यकों का उल्लेख है, तदनंतर "दशवकालिकं, उत्तराध्यायाः, दशाः, कल्पव्यवहारौ, निशीथं, ऋषिभाषितान्येवमादि-इस प्रकार उल्लेख है । इसमें जो आवश्यकादि मूलसूत्रों का तथा दशा आदि छेदग्रंथों का एक साथ निर्देश है वह उनके वर्गीकरण की पूर्वसूचना देता ही है। धवला में १४ मंगबाह्यों की जो गणना की गई है उनमें भी प्रथम छः आवश्यकों का निर्देश है, तदनंतर दशवकालिक और उत्तराध्ययन का और तदनंतर कप्पववहार, कप्पाकप्पिय, महाकप्पिय, पुंडरीय, महापुंडरीय और निसीह का निर्देश है। इसमें केवल पुंडरीय, महापुंडरीय का उल्लेख ऐसा है जो निसीह को अन्य छेद से पृथक् कर रहा है। अन्यथा यह भो मूल और छेद के वर्गीकरण की सूचना दे ही रहा है।
प्राचार्य जिनप्रभ ने ई. १३०६ में विधिमार्गप्रपा अन्य की समाप्ति की है। उसमें भी ( पृ० ४८ से ) उन्होंने आगमों के स्वाध्याय की तपोविधि का वर्णन किया है। क्रम से निम्न ५१ ग्रन्थों का उसमें उल्लेख है-१ आवश्यक२, २ दशवकालिक, ३ उत्तराध्ययन, ४ आचारांग, ५ सूयगडंग, ६ ठागंग, ७ समवायांग, ८ निसीह, ६-११ दसा-कप्प-ववहार, १२ पंचकप्प, १३ जीयकप्प, १४ विवाहपन्नत्ति, १५ नायाधम्मकहा, १६ उवासगदेसा, १७ अंतगडदसा, १८ अनुत्तरोववाइयदसा, १६ पण्हावागरण, २० विवागसुय (दिद्विवानो दुवालसमंगं तं च वोच्छिन्नं) ( पृ० ५६ ) । इसके बाद यह पाठ प्रासंगिक है- "इत्थ य दिक्खापरियाएण तिवासो अायारपकप्पं वहिजा वाइजा य । एवं चउवासो सूयगडं । पंचवासो दसा-कप्प-ववहारे। अट्ठवासो ठाण-समवाए। दसवासो भगवई । इक्कारसवासो खुड्डियाविमाणाइपंचज्झयणे । बारसवासो अरुणोववायाइपंचज्झयणे। तेरसवासो उद्घाणसुयाइचउरज्झयणे। चउदसाइअट्ठारसंतवासो कमेण कमेण
१. अन्यथा हि अनिबद्धमङ्गोपाङ्गश : समुद्रप्रतरणवद् दुरध्यवसेयं स्यात्'–तत्त्वार्थभाष्य, १. २०.
२. “ोहनिज्जुत्ती आवस्सयं चेव अणुपविट्ठा"-विधिमार्गप्रपा, पृ० ४६.
३. दसा-कप्प-ववहार का एक श्रुतस्कंध है यह सामान्य मान्यता है। किन्तु किसी के मत से कप्प-ववहार का एक स्कंध है-वही पृ० ५२.
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( ३६ ) पासीविसभावणा-दिट्ठिविसभावणा-चारणभावणा-महासुमिणभावणा-तेयनिसग्गे । एगूणवीसवासो दिट्ठीवायं संपुन्नवीसवासो सव्वसुत्तजोगो त्ति" ॥ (पृ० ५६)। इसके बाद “इयाणिं उगा" ऐसा लिखकर जिस अंग का जो उपांग है उसका निर्देश इस प्रकार किया है
अंग
प्राचार
सूयगड ३ ठाण ४ समवाय ५ भगवई ६ नाया(धम्म)
७ उवासगदसा ८-१२ अंतगडदसादि
उपांग २१ प्रोवाइय २२ रायपसेणइय २३ जीवाभिगम २४ पण्णवणा २५ सूरपण्णत्ति २६ जंबुद्दीवपण्णत्ति
२७ चंदपण्णत्ति २८-३२ निरयावलिया
सुयक्खंध ( २८ 'कप्पिया' २६ कप्पडिसिया, ३० पुप्फिया, ३१ पुप्फचूलिया, ३२ वण्हिदसा )
प्रा० जिनप्रभ ने मतान्तर का भी उल्लेख किया है कि "अण्णे पुण चंदपण्णत्ति, सूरपणत्ति च भगवईउवंगे भगति । तेसि मरण उवासगदसाईण पंचण्हमंगाणं उवगं निरयावलियासुयक्खंधों"-पृ० ५७.
- इस मत का उत्थान इस कारण से हुआ होगा कि जब ११ अंग उपलब्ध हैं
और बारहवां अंग उपलब्ध ही नहीं तो उसके उपांग की अनावश्यकता है। अतएव भगवती के दो उपांग मान कर ग्यारह अंग और बारह उपांग की संगति बैठाने का यह प्रयत्न है। अंत में श्रीचन्द्र की सुखबोधा सामाचारी में प्राप्त • गाथा उद्धृत करके 'उवंगविही की समाप्ति की है।
१. श्रीचंद्र की सुखबोधा सामाचारी में इसके स्थान में निरयावलिया का निर्देश है।
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( ४० ) तदनन्तर 'संपयं पइण्णगा'-इस उल्लेख के साथ ३३ नंदी, ३४ अनुयोगदाराई, ३५ देविदत्थय, ३६ तंदुलवेयालिय, ३७ मरणसमाहि, ३८ महापञ्चक्खाण, ३६ आउरपञ्चक्खाण, ४० संथारय, ४१ चन्दाविज्झय, ४२ भत्तपरिण्णा, ४३ चउसरण, ४४ वीरत्थय, ४५ गरिणविजा, ४६ दीवसागरपण्णत्ति, ४७ संगहणी, ४८ गच्छायार, ४६ दीवसागरपण्णत्ति, ५० इसिभासियाई-इनका उस्लेख करके 'पइण्णगविही' की समाप्ति की है। इससे सूचित होता है कि इनके मत में १८ प्रकीर्णक थे। अन्त में महानिसीह का उल्लेख होने से कुल ५१ ग्रंथों का जिनप्रभ ने उल्लेख किया है।
जिनप्रभ ने संग्रहरूप जोगविहाण नामक गाथाबद्ध प्रकरण का भी उद्धरण अपने ग्रन्थ में दिया है-पृ० ६०। इस प्रकरण में भी संख्यांक देकर अंगों के नाम दिये गये हैं। योगविधिक्रम में आवस्सय और दसयालिय का सर्वप्रथम उल्लेख किया है और प्रोघ और पिण्डनियुक्ति का समावेश इन्हों में होता है-ऐसी सूचना भी दी है ( गाथा ७, पृ० ५८ )। तदनंतर नन्दी और अनुयोग का उल्लेख करके उत्तराध्ययन का निर्देश किया है। इसमें भी समवाय अंग के बाद दसा-कप्प-ववहार-निसीह का उल्लेख करके इन्हीं की 'छेदसूत्र' ऐसी संज्ञा भी दी है---गाथा-२२, पृ० ५६ । तदनंतर जीयकप्प और पंचकप्प (पणकप्प) का उल्लेख होने से प्रकरणकार के समय तक संभव है ये छेदसूत्र के वर्ग में संमिलित न किये गए हों। पंचकल्प के बाद प्रोवाइय आदि चार उपांगों की बात कह कर विवाहपण्णत्ति से लेकर विवाग अंगों का उल्लेख है। तदनन्तर चार प्रज्ञप्ति-सूर्यप्रज्ञप्ति आदि निर्दिष्ट हैं। तदनन्तर निरयावलिया का उल्लेख करके उपांगदर्शक पूर्वोक्त गाथा (नं ६०) निर्दिष्ट है। तदनन्तर देविदत्थय आदि प्रकीर्णक की तपस्या का निर्देश कर के इसिभासिय का उल्लेख है। यह भी मत उल्लिखित है जिसके अनुसार इसिभासिय का समावेश उत्तराध्ययन में हो जाता है (गाथा ६२, पृ० ६२)। अन्त में सामाचारीविषयक परम्परा भेद को देखकर शंका नहीं करनी चाहिए यह भी उपदेश है-गाथा ६६.
जिनप्रभ के समय तक सांप्रतकाल में प्रसिद्ध वर्गीकरण स्थिर हो गया था इसका पता 'वायरणाविहीं के उत्थानमें उन्होंने जो वाक्य दिया उससे लगता है—“एवं कप्पतिप्पाइविहिपुरस्सरं साहू समाणियसयलजोगविही मूलग्गन्थ-नन्दिअणुओगदार-उत्तरज्ज्ञयण-इसिभासिय-अंग-उवंग-पइन्नय-छेयग्गन्थआगमे
१. गच्छायार के बाद- 'इच्चाइ पइएणगाणि' ऐसा उल्लेख होने से कुछ अन्य भी प्रकीर्णक होंगे जिनका उल्लेख नामपूर्वक नहीं किया गया-पृ० ५८.
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( ४१ ) वाइज्जा"-पृ० ६४। इससे यह भी पता लगता है कि 'मूल' में आवश्यक
और दशवकालिक ये दो ही शामिल थे । इस सूची में 'मूलग्रन्थ' ऐसा उल्लेख है किन्तु पृथक् रूपसे आवश्यक और दशवकालिक का उल्लेख नहीं है-इसीसे इसकी सूचना मिलती है।
जिनप्रभ ने अपने सिद्धान्तागमस्तव में वर्गों के नामकी सूचना नहीं दी किन्तु विधिमार्गप्रपा में दी है-इसका कारण यह भी हो सकता है कि उनकी ही यह सूझ हो, जब उन्होंने विधिमार्गप्रपा लिखी। जिनप्रभ का लेखनकाल सुदीर्घ था यह उनके विविधतीथंकल्प की रचना से पता लगता है। इसकी रचना उन्होंने ई० १२७० में शुरू की और ई० १३३२ में इसे पूर्ण किया। इसी बीच उन्होंने १३०६ ई० में विधिमार्गप्रपा लिखी है। स्तवन संभवतः इससे प्राचीन होगा।
उपलब्ध आगमों और उनकी टीकाओं का परिमाणः ___ समवाय और नन्दीसूत्र में अंगों की जो पदसंख्या दी है उसमें पद से क्या अभिप्रेत है यह ठोक रूप से ज्ञात नहीं होता। और उपलब्ध आगमों से पदसंख्या का मेल भी नहीं है। दिगंबर षखंडागम में गणित के आधार पर स्पष्टीकरण करने का जो प्रयत्न है२ वह भी काल्पनिक ही है, तथ्य के साथ उसका कोई संबंध नहीं दीखता।
अतएव उपलब्ध आगमों का क्या परिमाण है इसकी चर्चा की जाती है । ये संख्याएं हस्तप्रतियों में ग्रन्याग्ररूप से निर्दिष्ट हुई हैं। उसका तात्पर्य होता है-३२ अक्षरों के श्लोकों से। लिपिकार अपना लेखन-पारिश्रमिक लेने के लिए गिनकर प्रायः अन्त में यह संख्या देते हैं। कभी स्वयं ग्रन्थकार भी इस संख्या का निर्देश करते हैं ।३ यहां दी जानेवाली संख्याएं, भांडारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट के वोल्युम १७ के १-३ भागों में आगमों और उनकी टीकानों की हस्तप्रतियों को जो सूची छपी है उसके आधार से हैं-इससे दो कार्य सिद्ध होंगे-श्लोकसंख्या के बोध के अलावा किस आगम की कितनी टीकाएं लिखी गईं इसका भी पता लगेगा।
१. जै० सा० सं० इ०, पृ० ४१६. २. जै० सा० इ० पूर्वपीठिका, पृ० ६२१ ; षटखंडागम, पु० १३, पृ० २४७-२५४. ३. कभी-कभी धूर्त लिपिकार संख्या गलत भी लिख देते हैं।
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१. अंग
( ४२ ) (१) आचारांग २६४४, २६५४
, नियुक्ति ४५० , चूणि ८७५० , वृत्ति १२३००
दीपिका (१) ६०००, १००००, १५००० " , (२) ६००० " अवचूरि
, पर्याय सूत्रकृतांग २१०० (प्रथम श्रुतस्कन्ध की १०००)
, नियुक्ति २०८ गाथा , नियुक्ति मूल के साथ २५८० , नियुक्ति । १२८५०, १३०००, १३३२५,
वृत्ति १४००० , हर्षकुलकृत दीपिका (१) ६६००, ८६००, ७१००,
७००० ( यह संख्या मूल के साथ
की है) , साधुरंगकृत दीपिका १३४१६
पाश्वंचन्द्रकृत वार्तिक (टबा) ८००० चूरिंग
पर्याय (३) स्थानांग ३७७०, ३७५०
टीका ( अभयदेव ) १४२५०, १४५०० , सटीक १८००० , दीपिका (नागर्षिगणि) सह १८०००
बालावबोध " स्तबक १६००० , पर्याय
, बोल (४) समवाय १६६७, १७६७
" वृत्ति ३५७५, ३७०० , पर्याय
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( ४३ ) (५) भगवती १६०००, १५८००
" वृत्ति १८६१६, १९७७६ , अवचूणि ३११४
, पर्याय (६) ज्ञाताधर्म . ५५००, ६०००, ५२५०, ५६२७,
५७५०, ६००० , वृत्ति ३७००, ३८१५, ४७०० , सवृत्ति ९७५५
बालावबोधसह १८२०० (७) उपासकदशा ६१२, ८७२, ८१२
" वृत्ति ६४४ (८) अन्तकृत ६००
, वृत्ति (उपा० अन्त० अनुत्त०) १३००
" स्तबक (९) अनुत्तरौपपातिक १९२
" वृत्ति ४३७ (१०) प्रश्नव्याकरण १२५०
" वृत्ति ४६३०, ५६३०, ४८००, ५०१६ " स्तबक
, पर्याय (११) विपाक १२५०
, वृत्ति १०००, ६०६, ११६७ , स्तबक
२. उपांग (१) औपपातिक ११६७, १५००
. , वृत्ति ३४५५, ३१३५, ३१२५ (२) राजप्रश्नीय २५०६, २०७६, २१२०
, वृत्ति ३६५०, ३७००, ३७६८
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________________
( ४४ ) (३) जीवाभिगम ४७००, ५२००
" वृत्ति १४००० , स्तबक
, पर्याय (४) प्रज्ञापना ७६८६, ८१००, ७७८७
टीका १४०००, १५००० , प्रदेशव्याख्या , संग्रहणी
, पर्याय (५) सूर्यप्रज्ञप्ति
, टीका (६) जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति ४४५८, ४१४६
" टीका (हीर०) १४२५२ " , (शान्ति०)
टबासह १५०००
चूर्णि (करण) २०२३, १८२३, १८६०
, विवृति (ब्रह्म) (७) चन्द्रप्रज्ञप्ति २०५८
, विवरण ६५०० (८-१२) निरयावलिका (५) ११०६
, टीका ६०५, ६५०, ७३७, ६३७ " टबा ११०० , पर्याय
,, बालावबोध ३. प्रकीर्णक (१) चतुःशरण गाथा ६३
" अवचूरि
टबा
, विषमपद (२) आतुरप्रत्याख्यान गाथा ८४
, विवरण २५० , टबा
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४००
(३) भक्तपरिज्ञा गा० १७३,
ग्रन्थान १७१ , अवचूरि (४) संस्तारक गाथा १२१
, विवरण , अवचूरि
, बालावबोध (५) तंदुलवैचारिक
" बालावबोध (६) चन्द्रावेध्यक गाथा १७४,
गा० १७५ (७) देवेन्द्रस्तव गा० ३०७, गा० २६२ (८) गणिविद्या गा० ८६, गा० ८५ (९) महाप्रत्याख्यान गा० १४३, गा० १४२ (१०) वीरस्तव गा० ४३, गा० ४२ (११) अंगचूलिका .. (१२) अंगविद्या
६००० (१३) अजीवकल्प
गाथा ४४ (१४) आराधनापताका ६६०
(रचना सं. १०७८) (१५) कवचद्वार गा० १२६ (१६) गच्छाचार
विवृति ५८५० (विजयविमल)
, वानरर्षि
" अवचूरि (१७) जंबूस्वामिस्वाध्याय
, टबा
" , (पद्मसुंदर) (१८) ज्योतिष्करंडक
" टीका ५५००
१६७
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(१९) तीर्थोद्गालिक गा० १२५१, गा० १२३३.
ग्रन्थान १५६५ (२०) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति (२१) पर्यन्ताराधना ७४ ।
, बालावबोध २४५
, ३०० (२२) पिंडविशुद्धि
, टोका ४४०० , सुबोधा २८००
दीपिका ७०३
बालावबोध
, अवचूर्णि (२३) मरणविधि (२४) योनिप्राभृत (२५) वंकचूलिका (२६) सारावली
(२७) सिद्धप्राभृत गाथा १२१ ४. छेदसूत्र (१) निशीथ
_ ८१२ ,, नियुक्ति-भाष्य गा० ६४३६
ग्रन्थान ८४०० टिप्पणक ७७०५ (?) .
चूणि ( प्रथम उ०) ५३६५ , विशोद्देशकव्या०
, पर्याय (२) महानिशीथ
, टबा (३) व्यवहार
, नियुक्ति-भाष्य ५२००,
.
४५४४
टबा
, गा०४६२६
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। ४७ ) टीका प्रथम खण्ड ( उ० १-३ ) १६८५६
पीठिका २३५५
पीठिका और उ०१ १०८७८ " उ० ३ २५६५ , उ०१० ४१३३ " उ०१-१० ३७६२५
द्वितीय खण्ड १०३६६ , चूणि १०३६०
पीठिका २०००
, पर्याय (४) दशाश्रुत १३८०
, नियुक्ति गा० १५४ , चूणि २२२५, ४३२१,२१६१,२३२५ (?)
टीका (ब्रह्म) ५१५२
टिप्पणक " पर्याय कल्पसूत्र ( दशाश्रुत का मंश) १२१६ " संदेहविषौषधि (जिनप्रभ) २२६८
अवचूर्णि , किरणावली (धमंदास) ८०१४ (?) 'प्रदीपिका (संघविजय) ३२०० दीपिका (जयविजय) ३४३२ कस्पद्रुमकलिका ( लक्ष्मीवल्लभ ) अवचूरि टिप्पणक वाचनिकाम्नाय टबा नियुक्ति-संदेहविषौषधिसह ३०४१ वृत्ति ( उदयसागर)
टिप्पण (पृथ्वीचन्द्र ) , दुर्गपदनिरुक्ति ४१८
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32
"
""
27
"
"
"
( ५ ) बृहत्कल्प
23
"3
"
"
"
"
"
"
"
"
(६) पंचकल्प
"
( ४८ )
कल्पान्तर्वाच्य ( कल्पसमर्थन ) २७०० पर्युषणाष्ठाह्निकाव्याख्यान
पर्युषण पर्वविचार
मंजरी ( रत्नसागर ) ५६६५ ( ? )
लता ( समयसुंदर ) ८०००
सुबोधिका ( विनयविजय ) ५४००
कौमुदी (शांतिसागर ) ३७०७, ६५३८ (?) ज्ञानदीपिका ( ज्ञानविजय )
"
ލ
४००, ४७३
लघुभाष्य सटीक ( पीठिका ) ५६००
उ० १-२ ६५००
१२५४०
२-४ लघुभाष्य ६६००
"3
"
( ७ ) जीतकल्प
"2
""
""
टबा
चूर्णि १४०००, १६०००
विशेष चूर्णि ११०००
"
बृहद्भाष्य ८६००
पर्याय
चूर्णि
३१३५
बृहद्भाष्य ३१८५ ( गा० २५७४ ) पर्याय
( ८ ) यतिजीतकल्प
विवरणलव ( श्रीतिलक )
"
५ - चूलिका सूत्र ( १ ) नन्दी ७००
गा० १०३, गा० १०५
टीका ६७७३
चूर्ण ( सिद्धसेन )
पर्याय
विवृत्ति ५७००
वृत्तिसह ८५३५ चूर्णि १४००
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( ४६ ) विवरण ( हारि० ) २३३६ , , ( मलय० ) ७७३२, ७८३२ ,, दुर्गपदव्याख्या ( श्रीचन्द्र )
पर्याय . स्थविरावलि ( नंदीगता )
, अवचूरि
टबा
, बालावबोध (२) अनुयोगद्वार १३६६, १६०४, १८००, २००५
, वृत्ति ( हेम ) ५७००, ६०००
वार्तिक ६-मूलसूत्र ( १) उत्तराध्ययन २०००, २३००, २१००
सुखबोधा (देवेन्द्र = नेमिचन्द्र) १४६१६, १४२००, १२०००, १४४२७, १४४५२, १४००० अवचूरि वृत्ति ( कीर्तिवल्लभ ) ८२६० अक्षराथं
, लवलेश ६५६८ वृत्ति ( भावविजय ) १४२५५ दीपिका ( लक्ष्मीवल्लभ ) दीपिका ८६७० बालावबोध ६२५० टबा ७००० ( पाश्चचंद्र ) कथा ५००० ( पद्मसागर ), ४५००
नियुक्ति ६०४ , बृहवृत्ति ( शांतिसूरि ) १८००० , बृहद्वृत्तिपर्याय
, अवचूणि ( ज्ञानसागर ) ५२५० (२) दशवैकालिक ७००
, नियुक्ति ५५० , वृत्ति ( हारि० )
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( ५० ) , वृत्ति अवचूरि , , पर्याय
टीका ( सुमति ) २६५०
टीका ३००० , टीका २८०० , अवचूरि २१४३
टबा ( कनकसुंदर ) १५०० (३) आवश्यक , चैत्यवन्दन-ललितविस्तरा १२७०
पंजिका , टबा ( देवकुशल ) ३२५० , वृत्ति ( तरुणप्रभ ) , अवचूरि ( कुलमंडन ) , बालावबोध
टबा नियुक्ति २५७२, ३५५०, ३१००, ३३७५, ३१५० ,, पीठिका-बालावबोध , शिष्यहिता ( हरि०) १२३४३
विवृति ( मलय० )
लघुवृत्ति ( तिलकाचार्य ) नियुक्ति-अवचूरि (ज्ञानसागर) ६००५
बालावबोध दीपिका
लघुवृत्ति १३००० ,, प्रदेशव्याख्या (हेमचन्द्र) ४६०० (?) ,, विशेषावश्यकभाष्य गा० ४३१४,
गा० ३६७२, ग्रन्थान ५०००,
गा० ४३३६ ,,, वृत्ति स्वोपज्ञ ,, ,, वृत्ति (कोट्याचार्य) १३७०० , ,» वृत्ति (हेमचन्द्र) २८०००, २८६७६
"
,
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( ५१ ) (४) पिण्डनियुक्ति ७६६१
, शिष्यहिता (वीरगणि = समुद्रघोष) , वृत्ति (माणिक्यशेखर)
, अवचूरि (क्षमारल) (५) ओघनियुक्ति १४६०, गा० ११६२, गा० ११५४,
__ गा० ११६५, गा० ११६४ , टीका (द्रोण०) सह ७३८५, ८३८५ , टीका (द्रोण०) ६५४५ ।।
, अवणि (ज्ञानसागर) ३४०० (६) पाक्षिकसूत्र
, वृत्ति (यशोदेव) २७००
,, अवचुरि ६२१, १००० आगम और उनकी टीकाओं के परिमाग के उक्त निर्देश से यह पता चलता है कि आगमसाहित्य कितना विस्तृत है। उत्तराध्ययन, दशवकालिक, कल्पसूत्र तथा आवश्यकसूत्र-इनकी टीकाओं की सूची भी काफी लम्बी है। सबसे अधिक टीकाएं लिखी गई हैं कल्पसूत्र और आवश्यकसूत्र पर। इससे इन सूत्रों का विशेष पठन-पाठन सूचित होता है। जब से पर्युषण में संघसमक्ष कल्पसूत्र के वाचन की प्रतिष्ठा हुई है, इस सूत्र का अत्यधिक प्रचार हुआ है। आवश्यक तो नित्य-क्रिया का ग्रन्थ होने से उसपर अधिक टीकाएं लिखी जायं यह स्वाभाविक है । आगमों का काल:
आधुनिक विदेशी विद्वानों ने इस बात को माना है कि भले ही देवधि ने पुस्तक-लेखन करके आगमों के सुरक्षा कार्य को आगे बढ़ाया किन्तु वे, जैसा कि कुछ प्राचार्य भी मानते हैं, उनके कर्ता नहीं हैं। आगम तो प्राचीन ही हैं। उन्होंने उन्हें यत्र-तत्र व्यवस्थित किया ।' आगमों में कुछ अंश प्रक्षिप्त हो सकता है किन्तु उस प्रक्षेप के कारण समग्र पागम का काल देवधि का काल नहीं हो जाता। उनमें कई अंश ऐसे हैं जो मौलिक हैं। अतएव पूरे पागम का एक काल नहीं किन्तु तत्तत् प्रागम का परीक्षण करके कालनिर्णय करना जरूरी है। सामान्य तौर पर विद्वानों ने अंग आगमों का काल प्रक्षेपों को बाद किया जाय तो पाटलिपुत्र की वाचना के काल को माना है। पाटलिपुत्र की वाचना भगवान् महावीर के १. देखें-सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट, भाग २२ की प्रस्तावना, पृ० ३६ में जेकोबी
का कथन ।
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( ५२ )
बाद छठे प्राचार्य के काल में भद्रबाहु के समय में हुई और उसका काल है ई. पू. ४थी शताब्दी का दूसरा दशक । डा. जेकोबी ने छन्द आदि की दृष्टि से अध्ययन करके यह निश्चय किया था कि किसी भी हालत में आगम के प्राचीन अंश ई० पू० चौथी के अंत से लेकर ई० पू० तीसरी के प्रारम्भ से प्राचीन नहीं ठहरते । २ हर हालत में हम इतना तो मान ही सकते हैं कि आगमों का प्राचीन अंश ई० पूर्व का है । उन्हें देवधि के काल तक नहीं लाया जा सकता ।
वलभी में आगमों का लेखनकाल ई० ४५३ ( मतान्तर से ई० ४६६ ) माना जाता है । उस समय कितने आगम लेखबद्ध किये गये इसकी कोई सूचना नहीं मिलती । किन्तु इतनी तो कल्पना की जा सकती है कि अंग आगमों का प्रक्षेपों के साथ यह लेखन अंतिम था । अतएव अंगों के प्रक्षेपों की यही अंतिम मर्यादा हो सकती है । प्रश्नव्याकरण जैसे सर्वथा नूतन अंग की वलभी लेखन के समय क्या स्थिति थी यह एक समस्या बनी ही रहेगी । इसका हल अभी तो कोई दीखता नहीं है ।
रचनाकाल का
मान लेते हैं ।
कई विद्वान् इस लेखन के काल का और अंग श्रागमों के संमिश्रण कर देते हैं और इसी लेखनसमय को रचनाकाल भी यह तो ऐसी ही बात होगी जैसे कोई किसी हस्तप्रति के लेखनकाल को देख कर उसे ही रचनाकाल भी मान ले | ऐसा मानने पर तो समग्र वैदिक साहित्य के काल का निर्णय जिन नियमों के आधार पर किया जाता है वह नहीं होगा और हस्तप्रतियों के आधार पर ही करना होगा। सच बात तो यह है कि जैसे वैदिक वाङ्मय श्रुत है वैसे ही जैन आगमों का अंग विभाग भी श्रुत है । अतएव उसके कालनिर्णय के लिए उन्हीं नियमों का उपयोग आवश्यक है जिन नियमों का उपयोग वैदिक वाङ्मय के कालनिर्णय में किया जाता है । अंग आगम भ० महावीर का उपदेश है और उसके आधार पर उनके गणधरों ने अंगों की रचना की है । अतः रचना का प्रारंभ तो भ० महावीर के जा सकता है । उसमें जो प्रक्षेप हों उन्हें अलग कर उनका आधारों से करना चाहिए ।
आगमों में अंगबाह्य ग्रन्थ भी शामिल हुए हैं और वे तो गणधरों की रचना नहीं है अतः उनका समय निर्धारण जैसे अन्य प्राचार्यों के ग्रन्थों का समय निर्धारित
१.
२.
काल से हीं माना
समय निर्णय अन्य
Doctrine of the Jainas, p. 73.
सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट, भाग २२, प्रस्तावना, पृ० ३१ से; डोक्ट्रिन ऑफ दी
जैन्स, पृ०७३, ८१.
5
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( ५३ )
किया जाता है वैसे ही होना चाहिए । अंगबाह्यों का संबंध विविध वाचनात्रों से भी नहीं है और संकलन से भी नहीं है। उनमें जिन ग्रन्थों के कर्ता का निश्चित रूप से पता है उनका समय कता के समय के निश्चय से ही होना चाहिए। वाचना और संकलना और लेखन जिन आगमों के हुए उनके साथ जोड़ कर इन अंगबाह्य ग्रन्थों के समय को भी अनिश्चित कोटि में डाल देना अन्याय है और इसमें सचाई भी नहीं है। ___ अंगबाह्यों में प्रज्ञापना के कर्ता प्रायश्याम हैं अतएव प्रायंश्याम का जो समय है वही उसका रचनासमय है। प्रायश्याम को वीरनिर्वाण संवत् ३३५ में युगप्रधान पद मिला और वे ३७६ तक युगप्रधान रहे। अतएव प्रज्ञापना इसी काल की रचना है, इसमें संदेह को स्थान नहीं है। प्रज्ञापना आदि से अंत तक एक व्यवस्थित रचना है जैसे कि षट्खंडागम आदि ग्रन्य हैं। तो क्या कारण है कि उसका रचनाकाल वही न माना जाय जो उसके कता का काल है
और उसके काल को वलभी के लेखनकाल तक खींचा जाय ? अतएव प्रज्ञापना का रचनाकाल ई० पू० १६२ से ई० पू० १५१ के बीच का निश्चित मानना चाहिए। ___ चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति --- ये तीन प्रज्ञप्तियां प्राचीन हैं इसमें भी संदेह को स्थान नहीं है। दिगंबर परंपरा ने दृष्टिवाद के परिकम में इन तीनों प्रज्ञप्तियों का समावेश किया है और दृष्टिवाद के अंश का अविच्छेद भी माना है। तो यही अधिक संभव है कि ये तीनों प्रज्ञप्तियां विच्छिन्न न हुई हों । इनका उल्लेख श्वेताम्बरों के नन्दी आदि में भी मिलता है। अतएव यह तो माना ही जा सकता है कि इन तीनों की रचना श्वेताम्बर-दिगम्बर के मतभेद के पूर्व हो चुकी थी। इस दृष्टि से इनका रचनासमय विक्रम के प्रारंभ से इधर नहीं आ सकता। दूसरी बात यह है कि सूर्य-चन्द्रप्रज्ञप्ति में जो ज्योतिष की चर्चा है वह भारतीय प्राचीन वेदांग के समान है। बाद का जो ज्योतिष का विकास है वह उसमें नहीं है । ऐसी परिस्थिति में इनका समय विक्रम पूर्व ही हो सकता है, बाद में नहीं ।
छेदसूत्रों में देशात, बृहत्कल्प और व्यवहार सूत्रों को रचना भद्रबाहु ने की थी। इनके ऊपर प्राचीन नियुक्ति-भाष्य आदि प्राकृत टीकाएं भी लिखी गई हैं। अतएव इनके विच्छे है की कोई कल्पना करना उचित नहीं है। धवला में कल्प-व्यवहार को अंगबाह्य गिना गया है और उसके विच्छेद की वहाँ कोई चर्चा नहीं है। भद्रबाहु का समय ई० पू० ३५७ के आसपास निश्चित है। अतः उनके द्वारा रचित दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार का समय भी वही होना
१. सांप्रतकाल में उपलब्ध चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति में कोई भेद नहीं दीखता।
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( ५४ ) चाहिए। निशीथ आचारांग की चूला है और किसी काल में उसे प्राचारांग से पृथक् किया गया है। उस पर भी नियुक्ति, भाष्य, चूणि आदि प्राकृत टीकाएं हैं। धवला ( पृ० ६६ ) में अंगबाह्य रूप से इसका उल्लेख है और उसके विच्छेद की कोई ची उसमें नहीं है अतएव उसके विच्छेद की कोई कल्पना नहीं की जा सकती। डा० जेकोबी और शुबिंग के अनुसार प्राचीन छेदसूत्रों का समय ई० पू० चौथी का अन्त और तीसरी का प्रारंभ माना गया है वह उचित ही है।' जीतकल्प प्राचार्य जिनभद्र को कृति होने से उसका भी समय निश्चित ही है। यह स्वतंत्र ग्रन्य नहीं किन्तु पूर्वोक्त छेद ग्रन्थों का साररूप है। प्राचार्य जिनभद्र के समय के निर्धारण के लिए विशेषावश्यक की जैसलमेर की एक प्रति के अन्त में जो गाथा दी गई है वह उपयुक्त साधन है। उसमें शक संवत् ५३१ का उल्लेख है। तदनुसार ई० ६०६ बनता है। उससे इतना सिद्ध होता है कि जिनभद्र का काल इससे बाद तो किसी भी हालत में नहीं ठहरता। गाथा में जो शक संवत् का उल्लेख है वह संभवतः उस प्रति के किसी स्थान पर रखे जाने का है। इससे स्पष्ट है कि वह उससे पहले रचा गया था। अतएव इसी के आस-पास का काल जीतकरूप की रचना के लिए भी लिया जा सकता है।
महानिशीथ का जो संस्करण उपलब्ध है वह आचार्य हरिभद्र के द्वारा उद्धार किया हुआ है। अतएव उसका भी वही समय होगा जो आचार्य हरिभद्र का है। प्राचार्य हरिभद्र का समयनिर्धारण अनेक प्रमाणों से प्राचार्य जिनविजयजी ने किया है और वह है ई० ७०० से ८०० के बीच का।
मूलसूत्रों में दशवकालिक की रचना आचार्य शय्यंभव ने की है और यह तो साधुओं को नित्य स्वाध्याय के काम में आता है अतएव उसका विच्छेद होना संभव नहीं था। अपराजित सूरि ने सातवीं-आठवों शती में उसकी टीका भी लिखी थी। उससे पूर्व नियुक्ति, चूणि आदि टीकाएं भी उस पर लिखी गई हैं। पांचवीं-छठी शती में होने वाले प्राचार्य पूज्यपाद ने ( सर्वार्थसिद्धि, १.२० ) भी दशवकालिक का उल्लेख किया है और उसे प्रमाण मानना चाहिए ऐसा भी कहा है। उसके विच्छेद की कोई चर्चा उन्होंने नहीं की है। धवला (पृ० ६६) में भी अंगबाह्य रूप से दशवकालिक का उल्लेख है और उसके विच्छेद की कोई चर्चा नहीं है। दशवकालिक में चूलाएं बाद में जोड़ी गई हैं यह निश्चित है किन्तु उसके जो दस अध्ययन हैं जिनके आधार पर उसका नाम निष्पन्न है वे तो मौलिक ही हैं। ऐसी परिस्थिति में उन दस अध्ययनों के कती तो शय्यंभव हैं ही और
१. डोक्ट्रिन ऑफ दी जैन्स, पृ० ८१.
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(
५५ )
जो समय शय्यंभव का है वही उसका भी है । शय्यंभव वीर नि. ७५ से ६० तक युगप्रधान पद पर रहे हैं अतएव उनका समय ई० पू. ४५२ से ४२६ है । इसी समय के बीच दर्शवेकालिक की रचना आचार्य शय्यंभव ने की होगी ।
उत्तराध्ययन किसी एक आचार्य की कृति नहीं है किन्तु संकलन है । उत्तराध्ययन का उल्लेख अंगबाह्य रूप से धवला ( पृ० ६६ ) और सर्वार्थसिद्धि में ( १.२० ) है । उसपर नियुक्ति त्रूणि टीकाएं प्राकृत में लिखी गई हैं । इसी कारण उसकी सुरक्षा भी हुई है । उसका समय जो विद्वानों ने माना है वह है ई० पू० तीसरी चौथी शती ।
।
आवश्यक सूत्र तो अंगागम जितना ही प्राचीन है जैन निग्रन्थों के लिए प्रतिदिन करने की आवश्यक क्रियासंबंधी पाठ इसमें हैं । अंगों में जहाँ स्वाध्याय का उल्लेख आता है वहां प्रायः यह लिखा रहता है कि 'सामाइयाइणि एकादसंगाणि ( भगवती सूत्र ६३, ज्ञाता ५६, ६४ : विपाक ३३ ) ; 'सामाइयमाइयाई चोट्सपुव्वाई' ( भगवती सूत्र ६१७, ४३२ : ज्ञाता० ५४, ५५, १३० ) । इससे सिद्ध होता है कि अंग से भी पहले आवश्यक सूत्र का अध्ययन किया जाता था । आवश्यक सूत्र का प्रथम अध्ययन सामायिक है । इस दृष्टि से आवश्यक सूत्र के मौलिक पाठ जिन पर नियुक्ति, भाष्य, विशेषावश्यक भाष्य, चूर्णि श्रादि प्राकृत टीकाएँ लिखी गई हैं वे अंग जितने पुराने होंगे । अंगबाह्य आगम के भेद आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त-- इस प्रकार किये गये हैं । इससे भी
·
नाम धवला में प्राचीनता सिद्ध अतएव ज्ञान
बढते गये हैं ।
इसका महत्त्व सिद्ध होता है । श्रावश्यक के छहों अध्ययनों के अंगबाह्य में गिनाए हैं । ऐसी परिस्थिति में आवश्यक सूत्र की होती ही है । आवश्यक चूँकि नित्यप्रति करने की क्रिया है वृद्धि और ध्यानवृद्धि के लिए उसमें पर समय-समय उपयोगी पाठ आधुनिक भाषा के पाठ भी उसमें जोड़े गये हैं किन्तु मूल पाठ कौन से थे इसका तो पृथक्करण प्राचीन प्राकृत टीकात्रों के आधार पर करना सहज है । और वैसा श्री पं० सुखलालजी ने अपने 'प्रतिक्रमण' ग्रन्थ में किया भी है । अतएव उन पाठों के ही समय का विचार यहाँ प्रस्तुत हैं । उन पाठों का समय भ० महावीर के जीवनकाल के आसपास नहीं तो उनके की प्रथम शती में तो रखा जा सकता है ।
निर्वाण के निकट या बाद
पिण्डनियुक्ति दशर्वकालिक की टीका है और वह प्रा० भद्रबाहु की कृति है ।
१. डोक्ट्रिन ऑफ दी जैन्स, पृ० ८१.
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( ५६ ) ये भद्रबाहु अधिक संभव यह है कि द्वितीय हों। यदि यह स्थिति सिद्ध हो तो उनका समय पांचवी शताब्दी ठहरता है। ___ नन्दी सूत्र देववाचक की कृति है अतएव उसका समय पांचवीं-छठी शताब्दी हो सकता है। अनुयोगद्वार सूत्र के कर्ता कौन हैं यह कहना कठिन है किन्तु इतना कहा जा सकता है कि वह आवश्यक सूत्र की व्याख्या है अतएव उसके बाद का तो है ही। उसमें कई ग्रन्थों के उल्लेख हैं। यह कहा जा सकता है कि वह विक्रम पूर्व का ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ ऐसा है कि संभव है उसमें कुछ प्रेक्षेप हुए हों। इसकी एक संक्षिप्त वाचना भी मिलती है।
प्रकीर्णकों में से चउसरण, पाउरपच्चक्खाग और भत्रपरिन्ना--ये तीन वीरभद्र की रचनाएं हैं ऐसा एक मत है। यदि यह सच है तो उनका समय ई० ६५१ होता है। गच्छाचार प्रकीर्णक का आधार है-महानिशीथ, कल्प और व्यवहार । अतएव यह कृति उनके बाद की हो इसमें संदेह नहीं है।'
वस्तुस्थिति यह है कि एक-एक ग्रन्थ लेकर उसका बारीकी से अध्ययन करके उसका समय निर्धारित करना अभी बाकी है। अतएव जबतक यह नहीं होता तबतक ऊपर जो समय की चची की गई है वह कामचलाऊ समझी जानी चाहिए। कई विद्वान् इन ग्रन्था के अध्ययन में लगें तभी यथार्थ और सर्वग्राही निर्णय पर पहुंचा जा सकेगा। जबतक ऐसा नहीं होता तबतक ऊपर जो समय के बारे में लिखा है वह मान कर हम अपने शोधकार्य को आगे बढ़ा सकते हैं । आगम-विच्छेद का प्रश्न :
व्यवहार सूत्र में विशिष्ट प्रागम-पठन की योग्यता का जो वर्णन है ( दशम उद्देशक ) उस प्रसंग में निर्दिष्ट आगम, तथा नंदी और पाक्षिकसूत्र में जो आगम-सूची दी है तथा स्थानांग में प्रासंगिक रूप से जिन ागमा का उल्लेख है-इत्यादि के आधार पर श्री कापडिया ने श्वेताम्बरों के अनुसार अनुपलब्ध प्रागमों की विस्तृत चर्चा की है ।२ अतएव यहाँ विस्तार अनावश्यक है। निम्न अंग आगमों का अंश श्वेताम्बरों के अनुसार सांप्रतकाल में अनुपलब्ध हैं :
१ आचारांग का महापरिज्ञा अध्ययन, २ ज्ञाताधर्मकया की कई कथाएं, ३ प्रश्नव्याकरण का वह रूप जो नंदी, समवाय आदि में निर्दिष्ट है तथा दृष्टिवाद-इतना अंश तो अंगों में से विच्छिन्न हो गया यह स्पष्ट है। अंगों के जो परिमाण निर्दिष्ट हैं उसे देखते हुए और यदि वह वस्तुस्थिति का बोधक है तो
१. कापडिया-केनोनिकल लिटरेचर, पृ० ५२. २. केनोनिकल लिटरेचर, प्रकरण ४.
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( ५७ ) मानना चाहिए कि अंगों का जो भाग उपलब्ध है उससे कहीं अधिक विलुप्त हो गया है। किन्तु अंगों का जो परिमाण बताया गया है वह वस्तुस्थिति का बोधक हो ऐसा जंचता नहीं क्योंकि अधिकांश को उत्तरोत्तर द्विगुण-द्विगुण बताया गया है किन्तु वे यथार्थ में वैसे ही रूप में हों ऐसी संभावना नहीं है। केवल महत्त्व समर्पित करने के लिए वैसा कह दिया हो यह अधिक संभव है। ऐसी ही बात द्वीप-समुद्रों के परिमाण में भी देखी गई है। वह भी गणितिक सचाई हो सकती है पर यथार्थ से उसका कोई मेल नहीं है।
दिगम्बर आम्नाय जो धवला टीका में निर्दिष्ट है तदनुसार गौतम से सकल श्रुत ( द्वादशांग और चौदह पूर्व ) लोहायं को मिला, उनसे जंबू को। ये तीनों ही सकल श्रतसागर के पारगामी थे। उसके बाद क्रम से विष्णु आदि पांच प्राचार्य हुए जो चौदहपूर्वधर थे। यहां यह समझ लेना चाहिए कि जब उन्हें चौदहपूर्वधर कहा है तो वे शेष अंगों के भी ज्ञाता थे ही। अर्थात ये भी सकलश्रुतधर थे। गौतम आदि तीन अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में सर्वज्ञ भी हुए और ये पांच नहीं हुए इतना ही इन दोनों वर्गों में भेद है। ___उसके बाद विशाखाचार्य आदि ग्यारह आचार्य दशपूर्वधर हुए। तात्पर्य यह है कि ये सकलश्रुत में से केवल दशपूर्व अंश के ज्ञाता थे, संपूर्ण के नहीं । इसके बाद नक्षत्रादि पांच आचार्य ऐसे हुए जो एकादशांगधारी थे और बारहवें अंग के चौदहपूर्वो के अंशधर ही थे। एक भी पूर्व संपूर्ण इन्हें ज्ञात नहीं था। उसके बाद सुभद्रादि चार प्राचार्य ऐसे हुए जो केवल आचारांग को संपूर्ण रूप से किन्तु शेष अंगों और पूर्वो के एक देश को ही जानते थे। इसके बाद संपूर्ण आचारांग के धारक भी कोई नहीं हुए और केवल सभी अंगों के एक देश को और सभी पूर्वो के एक देश को जानने वाले प्राचार्यों की परंपरा चली। यही परंपरा धरसेन तक चली है।'
इस विवरण से यह स्पष्ट है कि सकलभूतधर होने में द्वादशांग का जानना । जरूरी है। अंगबाह्य ग्रन्थों का आधार ये ही द्वादशांग थे अतएव सकलश्रुतधर होने में अंगबाह्य महत्त्व के नहीं। यह भी स्पष्ट होता है कि इसमें क्रमशः अंगधरों अर्थात् अंगविच्छेद की ही चर्चा है। धवला में ही आवश्यकादि १४ अंगबाह्यों का उल्लेख है किन्तु उनके विच्छेद की चर्चा नहीं है। इससे यह फलित होता है कि कम से कम धवला के समय तक अंगबाह्यों के विच्छेद की
१. धवला पु० १, पृ० ६५-६७; जयधवला, पृ० ८३. २. धवला, पृ०६६ (पु०१).
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( ५८ ) कोई चर्चा दिगम्बर आम्नाय में थी ही नहीं। आचार्य पूज्यपाद ने श्रतविवरण में सवार्थसिद्धि में अंगबाह्य और अंगों की चर्चा की है किन्तु उन्होंने आगमविच्छेद की कोई चची नहीं की। आचांयं प्रकलंक जो धवला से पूर्व हुए हैं उन्होंने भी भंग या अंगबाह्य आगमविच्छेद की कोई चर्चा नहीं की है। अतएव धवला की चर्चा से हम इतना ही कह सकते हैं कि धवलाकार के समय तक दिगंबर आम्नाय में अंगविच्छेद की बात तो थी किन्तु आवश्यक आदि अंगबाह्य के विच्छेद की कोई मान्यता नहीं थी। अतएव यह संशोधन का विषय है कि भंगबाह्य के विच्छेद को मान्यता दिगम्बर परंपरा में कब से चली ? खेद इस बात का है कि पं० कैलाशचन्द्रजी ने आगमविच्छेद की बहुत बड़ी चर्चा अपनी पीठिका में की है किन्तु इस मूल प्रश्न की छानबीन किये बिना ही दिगंबरों की सांप्रतकालीन मान्यता का उस्लेख कर दिया है और उसका समर्थन भी किया है।
वस्तस्थिति तो यह है कि आगम की सुरक्षा का प्रश्न जब माचार्यों के समक्ष था तब द्वादशांगरूप गणिपिटक की सुरक्षा का ही प्रश्न था क्योंकि ये ही मौलिक आगम थे। अन्य प्रागम अन्य तो समय और शक्ति के अनुसार बनते रहते हैं और लुप्त होते रहते हैं। अतएव प्रागमवाचना का प्रश्न मुख्यरूप से मंगों के विषय में ही है। इन्हीं की सुरक्षा के लिए कई वाचनाएं की गई हैं। इन वाचनाओं के विषय में पं० कैलाशचन्द्र ने जो चित्र उपस्थित किया है ( पीठिका पृ० ४६६ से ) उस पर अधिक विचार करने की आवश्यकता है। वह यथासमय किया जायगा।
यहां तो हम विद्वानों का ध्यान इस बात की ओर खींचना चाहते हैं कि आगम पुस्तकाकार रूप में लिखे जाते थे या नहीं, और इस पर भी कि श्रृतविच्छेद की जो बात है वह लिखित पुस्तक की है या स्मृत श्रुत की ? भागम पुस्तक में लिखे जाते थे इसका प्रमाण अनुयोगद्वार सूत्र जितना तो प्राचीन है ही। उसमें आवश्यक सूत्र की व्याख्या के प्रसंग से स्थापना आवश्यक की चर्चा में पोत्यकम्म को स्थापना-आवश्यक कहा है। इसी प्रकार श्रत के विषय में स्थापना-श्रुत में भी पोत्थकम्म को स्थापना-श्रुत कहा है ( अनुयोगहार सू० ३१ प्र. ३२ अ)। द्रव्यश्रुत के भेद रूप से ज्ञायकशरीर और भव्यशरीर के भतिरिक्त जो द्रव्यश्रुत का भेद है उसमें स्पष्ट रूप से लिखा है कि "पत्तयपोहय१. अनुयोग की टीका में लिखा है-"अथवा पोत्थं पुस्तकं तच्चेह संपुटकरूपं गृह्यते
तत्र कर्म तन्मध्ये वर्तिकालिखितं रूपकमित्यर्थः। अथवा पोत्थं ताडपत्रादि । तत्र कर्म तच्छेदनिष्पन्न रूपकम्" पृ० १३ अ,
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( ५६ ) लिहियं" ( सूत्र ३७) । उस पद की टीका में अनुयोगद्वार के टीकाकार ने लिखा है - "पत्रकाणि तलतास्यादिसंबन्धीनि, तत्संघातनिष्पन्नास्तु पुस्तकाः, ततश्च पत्रकाणि च पुस्तकाच, तेषु लिखितं पत्रकपुस्तकलिखितम् । अथवा 'पोत्यय'ति पोतं वस्त्रं पत्रकाणि च पोतं च, तेषु लिखितं पत्रकपोतलिखितं ज्ञशरीरभव्यशरीर-व्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुतम्। अत्र च पत्रकादिलिखितस्य श्रुतस्य भावश्रुतकारणत्वात् द्रव्यश्रुतत्वमेव अवसेयम् ।"-पृ० ३४। .
___ इस श्रुतचर्चा में अनुयोगद्वार को भावश्रुतरूप से कौन सा श्रुत विवक्षित है यह भी आगे की चर्चा से स्पष्ट हो जाता है। आगे लोकोत्तर नोग्रागम भावश्रुत के भेद में तीथंकरप्रणीत द्वादशांग गणिपिटक आचार आदि को भावत में गिना है। इससे शंका को कोई स्थान नहीं रहना चाहिए और यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अनुयोगद्वार के समय में आचार आदि अंग पुस्तकरूप में लिखे जाते थे।
मंग पागम पुस्तक में लिखे जाते थे किन्तु पठन-पाठन प्रणाली में तो गुरुमुख से ही आगम की वाचना लेनी चाहिए यह नियम था। अन्यथा करना अच्छा नहीं समझा जाता था। अतएव प्रथम गुरुमुख से पढ़ कर ही पुस्तक में लेखन या उसका उपयोग किया जाता होगा ऐसा अनुमान होता है। विशेषावश्यकभाष्य में वाचना के शिक्षित आदि गुणों के वर्णन में प्राचार्य जिनभद्र ने 'गुरुवायणोवगयं'-गुरुवाचनोपगत का स्पष्टीकरण किया है कि "ण चोरितं पोत्थयातोवा'-गा० ८५२ । उसकी स्वकृत व्याख्या में लिखा है कि "गुरुनिर्वाचितम्, न चोर्यात् कर्णाघाटितं, स्वतंत्रेण वाऽधीतं पुस्तकात्"—विशेषा० स्वोपज्ञ व्याख्या गा० ८५२। तात्पर्य यह है कि गुरु किसी अन्य को पढ़ाते हों और उसे चोरी से सुनकर या पुस्तक से श्रुत का ज्ञान लेना यह उचित नहीं है। वह तो गुरुमुख से उनकी संमति से सुन कर ही करना चाहिए। इससे भी स्पष्ट है कि अनुयोगद्वार के पहले अन्य लिखे जाते थे किन्तु उनका पठन सर्वप्रथम गुरुमुख से होना जरूरी था। यह परंपरा जिनभद्र तक तो मान्य थी ही ऐसा भी कहा जा सकता है। गुरु के मुख से सुनकर अपनी स्मृति का भार हलका करने के लिए कुछ नोंधरूप ( टिप्पणरूप ) आगम प्रारम्भ में लिखे जाते होंगे। यह भी कारण है कि उसका मूल्य उतना नहीं हो सकता जितना श्रुतधर की स्मृति में रहे हुए आगमों का ।
१. अनुयोगद्वार-सूत्र ४२, पृ० ३७ अ.
२. अनुयोगद्वार में शिक्षित, स्थित, जित आदि गुणों का निर्देश है उनकी व्याख्या जिनभद्र ने की हैं-अनु० सू० १३.
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यह सब अनुमान ही है। किन्तु जब आगम पुस्तकों में लिखे गये थे फिर भी वाचनाओं का महत्त्व माना गया, तो उससे यही अनुमान हो सकता है जो सत्य के निकट है। गुरुमुख से वाचना में जो आगम मिले वही आगम परंपरागत कहा जाएगा। पुस्तक से पढ़ कर किया हुआ ज्ञान, या पुस्तक में लिखा हुआ आगम उतना प्रमाण नहीं माना जायगा जितना गुरुमुख से पढ़ा हुआ। यही गुरुपरंपरा की विशेषता है। अतएव पुस्तक में जो कुछ भी लिखा हो किन्तु महत्त्व तो उसका है जो वाचक की स्मृति में है। अतएव पुस्तकों में लिखित होने पर भी उसके प्रामाण्य को यदि महत्त्व नहीं मिला तो उसका मूल्य भी कम हुआ । इसी के कारण पुस्तक में लिखे रहने पर भी जब-जब संघ को मालूम हुआ हो कि श्रु तधरों का ह्रास हो रहा है, श्रुतसंकलन के प्रयत्न की आवश्यकता पड़ी होंगी और विभिन्न वाचनाएं हुई होंगी।
अब आगमविच्छेद के प्रश्न पर विचार किया जाय। आगमविच्छेद के विषय में भी दो मत हैं। एक के अनुसार सुत्त विनष्ट हना है, तब दूसरे के अनुसार सुत्त नहीं किन्तु सुत्तधर---प्रधान अनुयोगधर विनष्ट हुए हैं। इन दोनों मान्यताओं का निर्देश नंदी-बूर्णि जितना तो पुराना है ही। आश्चयं तो इस बात का है कि दिगंबर परंपरा के धवला ( पृ० ६५ ) में तथा जयधवला (पृ० ८३) में दूसरे पक्ष को माना गया है अर्थात् श्रुतधरों के विच्छेद की चर्चा प्रधानरूप से की गई है और श्रुतधरों के विच्छेद से श्रुत का विच्छेद फलित माना गया है। किन्तु
आज का दिगंबर समाज श्रुत का ही विच्छेद मानता है। इससे भी सिद्ध है कि पुस्तक में लिखित आगमों का उतना महत्त्व नहीं है जितना श्रुतधरों की स्मृति में रहे हुए आगमों का।
जिस प्रकार धवला में क्रमशः श्रतधरों के विच्छेद की बात कही है उसी प्रकार तित्थोगाली प्रकीर्णक में श्रुत के विच्छेद की चर्चा की गई है। वह इस प्रकार है
प्रथम भ० महावीर से भद्रबाहु तक की परंपरा दी गई है और स्थूलभद्र भद्रबाहु के पास चौदहपूर्व की वाचना लेने गये इस बात का निर्देश है। यह निर्दिष्ट है कि दशपूर्वधरों में अंतिम सर्वमित्र थे। उसके बाद निर्दिष्ट है कि वीरनिर्वाण के १००० वर्ष बाद पूर्वो का विच्छेद हुआ। यहाँ पर यह ध्यान देना जरूरी है कि यही उल्लेख भगवती सूत्र में ( २.८ ) भी है। तित्योगाली में उसके बाद निम्न प्रकार से क्रमशः श्रुतविच्छेद की चर्चा की गई है
१. देखिए-नंदीचूर्णि, पृ०.८.
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( ६१ )
ई० ७२३ = वीर - निर्वाण १२५० में विवाहप्रज्ञप्ति और छः अंगों का विच्छेद १३०० में समवायांग का विच्छेद
ई० ७७३ =
१३५० में ठाणांग का
१४०० में कल्प व्यवहार का
१५०० में दशाभूत का
१६०० में सूत्रकृतांग का
""
२००० में विशाख मुनि के समय में निशीथ का
२३०० में आचारांग का
ई० ८२३ =
ई० ८७३
ई० ६७३ =
ई० १३७३ =
ई० १४७३ = ई० १७७३ =
"
23
27
""
""
77
33
दुसमा के अंत में दुप्पसह मुनि के होने के कि वे ही अंतिम श्राचारवर होंगे । इसके बाद निर्दिष्ट है कि
उसके
ई० १६६७३ = वोरनि०
ई० २०३७३ =
ई० २०४७३ =
ई० २०४७३ =
""
"
"
२०५००
२०६००
२१०००
२१०००
"
"
17.
"
"
उल्लेख के बाद यह कहा गया है। बाद अनाचार का साम्राज्य होगा ।
में उत्तराध्ययन का विच्छेद
में दर्शा ० सूत्र का विच्छेद
में दशवै ० के अर्थ का विच्छेद दुप्पसह मुनि की मृत्यु के बाद ।
पर्यन्त आवश्यक, अनुयोगद्वार और नंदी सूत्र व्यवच्छिन्न रहेंगे ।
- तित्थोगाली गा० ६६७-८६६.
तित्थोगालीय प्रकरण श्वेताम्बरों के अनुकूल ग्रन्थ है ऐसा उसके अध्ययन से प्रतीत होता है । उसमें तीर्थंकरों की माताओं के १४ स्वप्नों का उल्लेख है गा० १००, १०२४; स्त्री-मुक्ति का समर्थन भी इसमें किया गया है गा० ५५६ ; आवश्यकनियुक्ति की कई गाथाएं इसमें आती हैं गा० ७० से, ३८३ से इत्यादि अनुयोगद्वार और नन्दी का उल्लेख और उनके तीर्थंपर्यंन्त टिके रहने की बात ; दशाश्चयं की चर्चा गा० ८८७ से; नन्दीसूत्रगत संघस्तुतिका अवतरण गा० ८४८से है ।
आगमों के क्रमिक विच्छेद की चर्चा जिस प्रकार जैनों में है उसी प्रकार बौद्धों के अनागतवंश में भी त्रिपिटक के विच्छेद की चर्चा की गई है। इससे प्रतीत होता है कि श्रमणों की यह एक सामान्य धारणा है कि श्रुत का विच्छेद क्रमशः होता है । तित्थोगाली में श्रंगविच्छेद की चर्चा है इस बात को व्यवहारभाष्य के कर्ता ने भी माना है
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( ६२ ) "तित्योगाली एत्थं वत्तव्वा होइ आणुपुवीए । जे तस्स उ अंगस्स बुच्छेदो जहिं विणिद्दिट्ठो"
--व्य० भा० १०.७०४ इससे जाना जा सकता है कि अंगविच्छेद की चर्चा प्राचीन है और यह दिगंबर-श्वेताम्बर दोनों संप्रदायों में चली है। ऐसा होते हुए भी यदि श्वेताम्बरों ने अंगों के अंश को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया और वह अंश आज हमें उपलब्ध है--यह माना जाय तो इसमें क्या अनुचित है ? । ___एक बात का और भी स्पष्टीकरण जरूरी है कि दिगम्बरों में भी धवला के अनुसार सर्व अंगों का संपूर्ण रूप से विच्छेद माना नहीं गया है किन्तु यह माना गया है कि पूर्व और अंग के एकदेशधर हुए हैं और उनकी परंपरा चली है। उस परंपरा के विच्छेद का भय तो प्रदर्शित किया है किन्तु वह परंपरा विच्छिन्न हो गई ऐसा स्पष्ट उल्लेख धवला या जयधवला में भी नहीं है। वहाँ स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष बाद भारतवर्ष में जितने भी प्राचार्य हुए हैं वे सभी "सव्वेसिमंगपुव्वाणमेकदेसधारया जादा" अर्थात् सर्वं अंग-पूर्व के एकदेशधर हुए हैं-जयधवला भा० १, पृ० ८७; धवला पृ० ६७ ।
तिलोयपण्णत्ति में भी श्रुतविच्छेद की चर्चा है और वहाँ भी प्राचारांगधारी तक का समय वीरनि० ६८३ बताया गया है। तिलोयपत्ति के अनुसार भी अंग श्रुत का सर्वथा विच्छेद मान्य नहीं है। उसे भी अंग-पूर्व के एकदेशधर के अस्तित्व में संदेह नहीं है। उसके अनुसार भी अंगबाह्य के विच्छेद का कोई प्रश्न उठाया नहीं गया है। वस्तुतः तिलोयपण्णत्ति के अनुसार श्रुततीथं का विच्छेद वीरनि० २०३१७ में होगा अर्थात् तब तक श्रुत का एकदेश विद्यमान रहेगा ही (देखिए, ४. गा० १४७५--१४६३)।
तिलोयपन्नत्ति में प्रक्षेप की मात्रा अधिक है फिर भी उसका समय डा० उपाध्ये ने जो निश्चित किया है वह माना जाय तो वह ई० ४७३ और ६०६ के बीच है। तदनुसार भी उस समय तक सर्वथा श्रुतविच्छेद की चर्चा नहीं थी। तिलोयपण्णत्ति का ही अनुसरण धवला में माना जा सकता है।
. ऐसी ही बात यदि श्वेतांबर परंपरा में भी हुई हो तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उसमें भी संपूर्ण नहीं होने से अंग आगमों का एकदेश सुरक्षित रहा हो और उसे ही संकलित कर सुरक्षित रखा गया हो तो इसमें क्या असंगति है ? दोनों परंपरामों में अंग भागमों का
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जो परिमाण बताया गया है उसे देखते हुए श्वेताम्बरों के अंग आगम एकदेश ही सिद्ध होते हैं। ये आगम आधुनिक दिगम्बरों को मान्य हों या न हों यह एक दूसरा प्रश्न है। किन्तु श्वेतांबरों ने जिन अंगों को संकलित कर सुरक्षित रखा है उसमें अंगों का एक अंश-बड़ा अंश विद्यमान है--इतनी बात में तो शंका का कोई स्थान होना नहीं चाहिए। साथ ही यह भी स्वीकार करना चाहिए कि उन मंगों में यत्र-तत्र प्रक्षेप भी हैं और प्रश्नव्याकरण तो नया ही बनाया गया है।
इस चर्चा के प्रकाश में यदि हम निम्न वाक्य जो पं० कैलाशचन्द्र ने अपनी पीठिका में लिखा है उसे निराधार कहें तो अनुचित नहीं माना जायगा। उन्होंने लिखा है-"और अन्त में महावीरनिर्वाग से ६८३ वर्ष के पश्चात् अंगों का ज्ञान पूर्णतया नष्ट हो गया।" पीठिका पृ० ५१८ । उनका यह मत स्वयं धवला और जयधवला के अभिमतों से विरुद्ध है और अपनी ही कल्पना के आधार पर खड़ा किया गया है।
श्रुतावतार:
श्रु तावतार की परंपरा श्वेतांबर-दिगंबरों में एक सी ही है किन्तु पं० कैलाशचन्द्रजी ने उसमें भी भेद बताने का प्रयत्न किया है अतएव यहाँ प्रथम दोनों संप्रदायों में इसी विषय में किस प्रकार ऐक्य है, सर्वप्रथम इसकी चर्चा करके बाद में पंडितजी के कुछ प्रश्नों का समाधान करने का प्रयत्न किया जाता है। भ० महावीर शासन के नेता थे और उनके अनेक गणधर थे इस विषय में दोनों संप्रदायों में कोई मतभेद नहीं। भगवान् महावीर या अन्य कोई तीर्थंकर अथं का ही उपदेश देते हैं, सूत्र की रचना नहीं करते इसमें भी दोनों संप्रदायों का ऐकमत्य है।
श्रुतावतार का क्रम बताते हुए अनुयोगद्वार में कहा गया है
"अहवा प्रागमे तिविहे पण्णत्ते। तं जहा अत्तागमे अणंतरागमे परंपरागमे । तित्थगराणं अत्यस्स अत्तागमे, गणहराणं सुत्तरस अत्तागमे अत्यस्स अणंतरागमे, गणहरसीसाग सुत्तस्स अणंतरागमे अत्थस्स परंपरागमे। तेण परं सुत्तस्स वि अत्यस्स वि णो अत्तागमे, णो अणंतरागमे, परंपरागमे ।"-अनुयोगद्वार सू० १४४, पृ० २१६ । इसी का पुनरावर्तन निशीथचूणि (पृ० ४) आदि में भी किया गया है।
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( ६४ ) पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि ग्रन्य में इस विषय में जो लिखा है वह इस प्रकार है-"तत्र सर्वज्ञेन परमर्षिणा परमाचिन्त्यकेवलज्ञानविभूतिविशेषेण अर्थत आगम उद्दिष्टः ।"तस्य साक्षात् शिष्यैः बुद्धयतिशयद्धियुक्तः गणधरैः श्रुतकेवलिभिरनुस्मृतग्रन्यरचनम्-अङ्गपूर्वलक्षणम् ।''--सवोर्थसिद्धि १.२० ।।
स्पष्ट है कि पूज्यपाद के समय तक ग्रन्यरचना के विषय में श्वेताम्बरदिगंबर में कोई मतभेद नहीं है। यह भी स्पष्ट है कि केवल एक ही गणधर सूत्र रचना नहीं करते किन्तु अनेक गणधर सूत्ररचना करते हैं। पूज्यपाद को तो यही परंपरा मान्य है जो श्वेताम्बरों के संमत अनुयोग में दी गई है यह स्पष्ट है। इसी परंपरा का समर्थन प्राचार्य अकलंक और विद्यानन्द ने भी किया है___ "बुद्धयतिशद्धि युक्तैर्गणधरैः अनुस्मृतग्रन्यरचनम्-प्राचारादिद्वादशविधमङ्गप्रविष्टमुच्यते ।"--राजवार्तिक १. २०. १२, पृ० ७२ । "तस्याप्यर्थतः सर्वज्ञवोतरागप्रणेतृकत्वसिद्धः, 'अहंद्भाषितार्थं गणधरदेवैः प्रथितम्' इति वचनात् ।" तत्वार्थश्लोकवार्तिक पृ० ६; "द्रव्यश्रुतं हि द्वादशाङ्गं वचनात्मकमाप्तोपदेशरूपमेव, तदर्थज्ञानं तु भावश्रुतम्, तदुभयमपि गणधरदेवानां भगवदहत्सर्वज्ञवचनातिशयप्रसादात् स्वमतिश्रुतज्ञानावरणवीयोन्तरायक्षयोपशमातिशयाच उत्पद्यमानं कथमाप्तायत्तं न भवेत् ?' वही पृ०१।
__ इस तरह आचार्य पूज्यपाद, आचार्य अकलंक और आचार्य विद्यानन्द ये सभी दिगंबर प्राचार्य स्पष्ट रूप से मानते हैं कि सभी गणधर सूत्र-रचना करते हैं।
ऐसी परिस्थिति में इन प्राचार्यों के मत के अनुसार यही फलित होता है कि गौतम गणधर ने और अन्य सुधर्मा आदि ने भी ग्रन्थरचना की थी। केवल गौतम ने ही ग्रन्यरचना की हो और सुधर्मा आदि ने न की हो यह फलित नहीं होता। यह परिस्थिति विद्यानन्द तक तो मान्य थी ऐसा प्रतीत होता है । ऐसा ही मत श्वेताम्बरों का भी है।
पं० कैलाशचन्द्र ने यह लिखा है कि "हमने इस बात को खोजना चाहा कि जैसे दिगंबर परंपरा के अनुसार प्रधान गणधर गौतम ने महावीर की देशना को अंगों में गूथा वैसे श्वेताम्बर परंपरा के अनुसार महावीर की वाणी को सुनकर उसे अंगों में किसने निबद्ध किया ? किन्तु खोजने पर भी हमें किसी खास गणधर का निर्देश इस संबंध में नहीं मिला।"--पीठिका पृ० ५३० ।।
इस विषम में प्रथम यह बता देना जरूरी है कि यहाँ पं० कैलाशचन्द्रजी यह बात 'केवल गौतम ने ही अंगरचना की थी'-इस मन्तव्य को मानकर ही
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कह रहे हैं। और यह मन्तव्य धवला से उन्हें मिला है जहाँ यह कहा गया है कि गौतम ने अंगज्ञान सुधमी को दिया। अतएव यह फलित किया गया कि सुधर्मा ने अंगग्रथन नहीं किया था, केवल गौतम ने किया था। ___हमने ऊपर जो पूज्यपाद आदि धवला से प्राचीन प्राचार्यों के अवतरण दिये हैं उससे तो यही फलित होता है कि धवलाकार ने अपना यह नया मन्तव्य प्रचलित किया है यदि-जैसा कि पंडित कैलाशचन्द्र ने माना है-यही सच हो। अतएव धवलाकार के वाक्य की संगति बैठाना हो तो इस विषय में दूसरा ही मागं लेना होगा या यह मानना होगा कि धवलाकार प्राचीन प्राचार्यों से पृथक् मतान्तर को उपस्थित कर रहे हैं, जिसका कोई प्राचीन आधार नहीं है। यह केवल उन्हीं का चलाया हुआ मत है। हमारा मत तो यही है कि धवलाकार के वाक्य की संगति बैठाने का दूसरा ही मार्ग लेना चाहिए, न कि पूर्वाचार्यों के मत के साथ उनकी विसंगति का।
अब यह देखा जाय कि क्या श्वेताम्बरों ने किसी गणधर व्यक्ति का नाम सूत्र के रचयिता के रूप में दिया है कि नहीं जिसकी खोज तो पं० कैलाशचन्द्र ने की किन्तु वे विफल रहे।
आवश्यकनियुक्ति की गाथा है"एक्कारस वि गणधरे पवायए पवयणस्स वंदामि। सव्वं गणधरवंसं वायगवंसं पवयगं च ।। ८० ॥
—विशेषा० १०६२ इसकी टीका में आचार्य मलधारी ने स्पष्टरूप से लिखा है
"गौतमादीन् वन्दे । कथं भूतान् प्रकर्षेण प्रधानाः पादौ वा वाचकाः प्रवाचकाः प्रवचनस्य आगमस्य ।"-पृ० ४६० ।'
इसी नियुक्तिगाथा की भाष्यगाथानों को स्वोपज्ञ टीका में जिनभद्र ने भी लिखा है
"यथा अहंन्नर्थस्य वक्तेति पूज्यस्तथा गगधराः गौतमादयः सूत्रस्य वक्तार इति . पूज्यन्ते मङ्गलत्वाच्च ।"
प्रस्तुत में गौतमादिका स्पष्ट उल्लेख होने से 'श्वेताम्बरों में साधारण रूप से गणधरों का उल्लेख है किन्तु खास नाम नहीं मिलता'-यह पंडितजी का कथन निर्मूल सिद्ध होता है।
१. यह पुस्तक पंडितजी ने देखी है अतएव इसका अवतरण यहाँ दिया है।
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यहाँ यह भी बता देना जरूरी है कि पंडितजी ने अपनी पीठिका में जिन "तवनियमनाण'' इत्यादि नियुक्ति की दो गाथानों को विशेषावश्यक से उद्धृत किया है (पीठिका पृ० ५३० की टिप्पणी ) उनकी टीका तो पंडितजी ने अवश्य ही देखी होगी-उसमें आचार्य हेमचन्द्र स्पष्टरूप से लिखते हैं
"तेन विमलबुद्धिमयेन पटेन गणधरा गौतमादयो”-विशेषा० टीका. गा० १०९५, पृ० ५०२ । ऐसा होते हुए भी पंडितजी को श्वेताम्बरों में सूत्र के रचयिता के रूप में खास गणधर के नाम का उल्लेख नहीं मिला-यह एक आश्चर्यजनक घटना ही है। और यदि पंडितजी का मतलब यह हो कि किसी खास = एक ही व्यक्ति का नाम नहीं मिलता तो यह बता देना जरूरी है कि श्वेताम्बर और दिगंबर दोनों के मत से जब सभी गणधर प्रवचन की रचना करते हैं तो किसी एक ही का नाम तो मिल ही नहीं सकता। ऐसी परिस्थिति में इसके आधार पर पंडितजी ने श्रुतावतार की परंपरा में दोनों संप्रदायों के भेद को मान कर जो कल्पनाजाल खड़ा किया है वह निरर्थक है।
पं० कैलाशचन्द्रजी मानते हैं कि श्वेताम्बर-वाचनागत अंगज्ञान सार्वजनिक है "किन्तु दिगंबर-परंपरा में अंगज्ञान का उत्तराधिकार गुरु-शिष्य परंपरा के रूप में ही प्रवाहित होता हा माना गया है। उसके अनुसार अंगज्ञान ने कभी भी सार्वजनिक रूप नहीं लिया।"-पीठिका पृ० ५४३ । यहाँ पंडितजी का तात्पर्य ठीक समझ में नहीं आता। गुरु अपने एक ही शिष्य को पढ़ाता था और वह फिर गुरु बन कर अपने शिष्य को--इस प्रकार की परंपरा दिगंबरों में चली है-क्या पंडितजी का यह अभिप्राय है ? यदि गुरु अनेक शिष्यों को पढ़ाता होगा तब तो मंगज्ञान श्वेताम्बरों की तरह सार्वजनिक हो जायगा । और यदि यह अभिप्राय है कि एक ही शिष्य को, तब शास्त्रविरोध पंडितजी के ध्यान के बाहर गया हैयह कहना पड़ता है। षट्खंडागम की धवला में परिपाटी और अपरिपाटी से सकल श्रुत के पारगामी का उल्लेख है। उसमें अपरिपाटी से—'अपरिवाडिए पुण सयलसुदपारगा संखेज्जसहस्सा" (धवला पृ० ६५) का उल्लेख है-इसका स्पष्टीकरण पंडितजी क्या करेंगे? हमें तो यह समझ में आता है कि युगप्रधान या वंशपरंपरा में जो क्रमशः आचार्य-गणधर हुए अर्थात् गण के मुखिया हुए उनका उल्लेख परिपाटीक्रम में समझना चाहिए और गण के मुख्य प्राचार्य के अलावा जो श्रुतधर थे वे परिपाटीक्रम से संबद्ध न होने से अपरिपाटी में गिने गये। वैसे अपरिपाटी में सहस्रों की संख्या में सकल श्र तधर थे। तो यह अंगभूत श्वेतांबरों की तरह दिगंबरों में भी सार्वजनिक था ही यह मानना
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( ६७ ) पड़ता है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना जरूरी है कि जयधवला में यह स्पष्ट लिखा है कि सुधर्मा ने केवल एक जंबू को ही नहीं किन्तु अंगों की वाचना अपने अनेक शिष्यों को दी थी- "तद्दिवसे चेव सुहम्माइरियो जंबूसामियादीणमणेयारणमाइरियागं वक्खाणिददुवालसंगो घाइचउक्कक्खयेण केवली जादो।"-जयधवला पृ० ८४। ____ यहाँ स्पष्टरूप से जंबू ने अपने शिष्य ऐसे एक नहीं किन्तु अनेक आचार्यों को द्वादशांग पढ़ाया है-ऐसा उल्लेख है। इस पर से क्या हम कल्पना नहीं कर सकते कि संघ में श्रुतधरों की संख्या बहुत बड़ी होती थी ? ऐसी स्थिति में श्वेताम्बर-दिगंबरों में जिस विषय में कभी भेद रहा नहीं उस विषय में भेद की कल्पना करना उचित नहीं है। प्राचीन परंपरा के अनुसार श्वेताम्बर और दिगंबर दोनों में यही मान्यता फलित होती है कि सभी गणधर सूत्ररचना करते थे और अपने अनेक शिष्यों को उसकी वाचना देते थे। एक बात और यह भी है कि अंगज्ञान सार्वजनिक हो गया श्वेताम्बरों में और दिगंबरों में नहीं हुआइससे पंडितजी का विशेष तात्पयं क्या यह है कि केवल दिगंबर परंपरा में ही गुरु-शिष्य परंपरा से ही अंगज्ञान प्रवाहित हृया और श्वेताम्बरों में नहीं ? यदि ऐसा ही उनका मन्तव्य है जैसा कि उनके आगे उद्धृत अवतरण से स्पष्ट है तो यह भी उनका कहना उचित नहीं जंचता। हमने अचायं जिनभद्र के अवतरणों से यह स्पष्ट किया ही है कि उनके समय तक यही परंपरा थी कि शिष्य को गुरुमुख से ही और वह भी उनकी अनुमति से ही, चोरी से नहीं, श्रुत का पाठ लेना जरूरी था और यही परंपरा विशेषावश्यक के टीकाकार हेमचन्द्र ने भी मानी है। इतना ही नहीं आज भी यह परंपरा श्वेताम्बरों में प्रचलित है कि योगपूर्वक, तपस्यापूर्वक गुरुमुख से ही श्रुतपाठ शिष्य को लेना चाहिए। ऐसा होने पर ही वह उसका पाठी कहा जायगा। ऐसी स्थिति में श्वेताम्बर-परंपरा में वह सार्वजनिक हो गया और दिगंबर-परंपरा में गुरुशिष्य परंपरा तक सीमित रहापंडितजी का यह कहना कहाँ तक संगत है ? ___ सार्वजनिक' से तात्पर्य यह हो कि कई साधुओं ने मिल कर अंग की वाचना निश्चित की अतएव श्वेताम्बरों में वह व्यक्तिगत न रहा और सार्वजनिक हो गया। इस प्रकार सार्वजनिक हो जाने से ही दिगंबरों ने अंगशास्त्र को मान्यता न दी हो यह बात हमारी समझ से तो परे है। कोई एक व्यक्ति कहे वही सत्य और अनेक मिलकर उसकी सचाई की मोहर दें तो वह सत्य नहीं-ऐसा मानने वाला उस काल का दिगंबर संप्रदाय होगा—ऐसा मानने को हमारा मन तो तैयार
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________________ ( 68 ) नहीं। इसके समर्थन में कोई उल्लेख भी नहीं है / आज का दिगंबर समाज जिस किसी कारण से श्वेताम्बरसम्मत आगमों को न मानता हो उसकी खोज करना जरूरी है किन्तु उसका कारण यह तो नहीं हो सकता कि चूंकि अंग सार्वजनिक हो गये थे अतएव वे दिगंबर समाज में मान्य नहीं रहे। अतएव पंडितजी का यह लिखना कि "उसने इस विषय में जन-जन की स्मृति को प्रमाण नहीं माना" निराधार है, कोरी कल्पना है। आखिर जिनके लिए पंडितजी ने 'जन-जन' शब्द का प्रयोग किया है वे कौन थे ? क्या उन्होंने अपने गुरुपों से मंगज्ञान लिया ही नहीं था ? अपनी कल्पना से ही अंगों का संकलन कर दिया था ? हमारा तो विश्वास है कि जिनको पंडितजी ने 'जन-जन' कहा है वे किसी प्राचार्य के शिष्य ही थे और उन्होंने अपने प्राचार्य से सीखा हुआ श्रुत ही वहां उपस्थित किया था। इसीलिए तो कहा गया है कि जिसको जितना याद था उसने उतना वहाँ उपस्थित किया।