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( ५६ ) लिहियं" ( सूत्र ३७) । उस पद की टीका में अनुयोगद्वार के टीकाकार ने लिखा है - "पत्रकाणि तलतास्यादिसंबन्धीनि, तत्संघातनिष्पन्नास्तु पुस्तकाः, ततश्च पत्रकाणि च पुस्तकाच, तेषु लिखितं पत्रकपुस्तकलिखितम् । अथवा 'पोत्यय'ति पोतं वस्त्रं पत्रकाणि च पोतं च, तेषु लिखितं पत्रकपोतलिखितं ज्ञशरीरभव्यशरीर-व्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुतम्। अत्र च पत्रकादिलिखितस्य श्रुतस्य भावश्रुतकारणत्वात् द्रव्यश्रुतत्वमेव अवसेयम् ।"-पृ० ३४। .
___ इस श्रुतचर्चा में अनुयोगद्वार को भावश्रुतरूप से कौन सा श्रुत विवक्षित है यह भी आगे की चर्चा से स्पष्ट हो जाता है। आगे लोकोत्तर नोग्रागम भावश्रुत के भेद में तीथंकरप्रणीत द्वादशांग गणिपिटक आचार आदि को भावत में गिना है। इससे शंका को कोई स्थान नहीं रहना चाहिए और यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अनुयोगद्वार के समय में आचार आदि अंग पुस्तकरूप में लिखे जाते थे।
मंग पागम पुस्तक में लिखे जाते थे किन्तु पठन-पाठन प्रणाली में तो गुरुमुख से ही आगम की वाचना लेनी चाहिए यह नियम था। अन्यथा करना अच्छा नहीं समझा जाता था। अतएव प्रथम गुरुमुख से पढ़ कर ही पुस्तक में लेखन या उसका उपयोग किया जाता होगा ऐसा अनुमान होता है। विशेषावश्यकभाष्य में वाचना के शिक्षित आदि गुणों के वर्णन में प्राचार्य जिनभद्र ने 'गुरुवायणोवगयं'-गुरुवाचनोपगत का स्पष्टीकरण किया है कि "ण चोरितं पोत्थयातोवा'-गा० ८५२ । उसकी स्वकृत व्याख्या में लिखा है कि "गुरुनिर्वाचितम्, न चोर्यात् कर्णाघाटितं, स्वतंत्रेण वाऽधीतं पुस्तकात्"—विशेषा० स्वोपज्ञ व्याख्या गा० ८५२। तात्पर्य यह है कि गुरु किसी अन्य को पढ़ाते हों और उसे चोरी से सुनकर या पुस्तक से श्रुत का ज्ञान लेना यह उचित नहीं है। वह तो गुरुमुख से उनकी संमति से सुन कर ही करना चाहिए। इससे भी स्पष्ट है कि अनुयोगद्वार के पहले अन्य लिखे जाते थे किन्तु उनका पठन सर्वप्रथम गुरुमुख से होना जरूरी था। यह परंपरा जिनभद्र तक तो मान्य थी ही ऐसा भी कहा जा सकता है। गुरु के मुख से सुनकर अपनी स्मृति का भार हलका करने के लिए कुछ नोंधरूप ( टिप्पणरूप ) आगम प्रारम्भ में लिखे जाते होंगे। यह भी कारण है कि उसका मूल्य उतना नहीं हो सकता जितना श्रुतधर की स्मृति में रहे हुए आगमों का ।
१. अनुयोगद्वार-सूत्र ४२, पृ० ३७ अ.
२. अनुयोगद्वार में शिक्षित, स्थित, जित आदि गुणों का निर्देश है उनकी व्याख्या जिनभद्र ने की हैं-अनु० सू० १३.
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