SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५८ ) कोई चर्चा दिगम्बर आम्नाय में थी ही नहीं। आचार्य पूज्यपाद ने श्रतविवरण में सवार्थसिद्धि में अंगबाह्य और अंगों की चर्चा की है किन्तु उन्होंने आगमविच्छेद की कोई चची नहीं की। आचांयं प्रकलंक जो धवला से पूर्व हुए हैं उन्होंने भी भंग या अंगबाह्य आगमविच्छेद की कोई चर्चा नहीं की है। अतएव धवला की चर्चा से हम इतना ही कह सकते हैं कि धवलाकार के समय तक दिगंबर आम्नाय में अंगविच्छेद की बात तो थी किन्तु आवश्यक आदि अंगबाह्य के विच्छेद की कोई मान्यता नहीं थी। अतएव यह संशोधन का विषय है कि भंगबाह्य के विच्छेद को मान्यता दिगम्बर परंपरा में कब से चली ? खेद इस बात का है कि पं० कैलाशचन्द्रजी ने आगमविच्छेद की बहुत बड़ी चर्चा अपनी पीठिका में की है किन्तु इस मूल प्रश्न की छानबीन किये बिना ही दिगंबरों की सांप्रतकालीन मान्यता का उस्लेख कर दिया है और उसका समर्थन भी किया है। वस्तस्थिति तो यह है कि आगम की सुरक्षा का प्रश्न जब माचार्यों के समक्ष था तब द्वादशांगरूप गणिपिटक की सुरक्षा का ही प्रश्न था क्योंकि ये ही मौलिक आगम थे। अन्य प्रागम अन्य तो समय और शक्ति के अनुसार बनते रहते हैं और लुप्त होते रहते हैं। अतएव प्रागमवाचना का प्रश्न मुख्यरूप से मंगों के विषय में ही है। इन्हीं की सुरक्षा के लिए कई वाचनाएं की गई हैं। इन वाचनाओं के विषय में पं० कैलाशचन्द्र ने जो चित्र उपस्थित किया है ( पीठिका पृ० ४६६ से ) उस पर अधिक विचार करने की आवश्यकता है। वह यथासमय किया जायगा। यहां तो हम विद्वानों का ध्यान इस बात की ओर खींचना चाहते हैं कि आगम पुस्तकाकार रूप में लिखे जाते थे या नहीं, और इस पर भी कि श्रृतविच्छेद की जो बात है वह लिखित पुस्तक की है या स्मृत श्रुत की ? भागम पुस्तक में लिखे जाते थे इसका प्रमाण अनुयोगद्वार सूत्र जितना तो प्राचीन है ही। उसमें आवश्यक सूत्र की व्याख्या के प्रसंग से स्थापना आवश्यक की चर्चा में पोत्यकम्म को स्थापना-आवश्यक कहा है। इसी प्रकार श्रत के विषय में स्थापना-श्रुत में भी पोत्थकम्म को स्थापना-श्रुत कहा है ( अनुयोगहार सू० ३१ प्र. ३२ अ)। द्रव्यश्रुत के भेद रूप से ज्ञायकशरीर और भव्यशरीर के भतिरिक्त जो द्रव्यश्रुत का भेद है उसमें स्पष्ट रूप से लिखा है कि "पत्तयपोहय१. अनुयोग की टीका में लिखा है-"अथवा पोत्थं पुस्तकं तच्चेह संपुटकरूपं गृह्यते तत्र कर्म तन्मध्ये वर्तिकालिखितं रूपकमित्यर्थः। अथवा पोत्थं ताडपत्रादि । तत्र कर्म तच्छेदनिष्पन्न रूपकम्" पृ० १३ अ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002543
Book TitleJain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy