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( ५७ ) मानना चाहिए कि अंगों का जो भाग उपलब्ध है उससे कहीं अधिक विलुप्त हो गया है। किन्तु अंगों का जो परिमाण बताया गया है वह वस्तुस्थिति का बोधक हो ऐसा जंचता नहीं क्योंकि अधिकांश को उत्तरोत्तर द्विगुण-द्विगुण बताया गया है किन्तु वे यथार्थ में वैसे ही रूप में हों ऐसी संभावना नहीं है। केवल महत्त्व समर्पित करने के लिए वैसा कह दिया हो यह अधिक संभव है। ऐसी ही बात द्वीप-समुद्रों के परिमाण में भी देखी गई है। वह भी गणितिक सचाई हो सकती है पर यथार्थ से उसका कोई मेल नहीं है।
दिगम्बर आम्नाय जो धवला टीका में निर्दिष्ट है तदनुसार गौतम से सकल श्रुत ( द्वादशांग और चौदह पूर्व ) लोहायं को मिला, उनसे जंबू को। ये तीनों ही सकल श्रतसागर के पारगामी थे। उसके बाद क्रम से विष्णु आदि पांच प्राचार्य हुए जो चौदहपूर्वधर थे। यहां यह समझ लेना चाहिए कि जब उन्हें चौदहपूर्वधर कहा है तो वे शेष अंगों के भी ज्ञाता थे ही। अर्थात ये भी सकलश्रुतधर थे। गौतम आदि तीन अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में सर्वज्ञ भी हुए और ये पांच नहीं हुए इतना ही इन दोनों वर्गों में भेद है। ___उसके बाद विशाखाचार्य आदि ग्यारह आचार्य दशपूर्वधर हुए। तात्पर्य यह है कि ये सकलश्रुत में से केवल दशपूर्व अंश के ज्ञाता थे, संपूर्ण के नहीं । इसके बाद नक्षत्रादि पांच आचार्य ऐसे हुए जो एकादशांगधारी थे और बारहवें अंग के चौदहपूर्वो के अंशधर ही थे। एक भी पूर्व संपूर्ण इन्हें ज्ञात नहीं था। उसके बाद सुभद्रादि चार प्राचार्य ऐसे हुए जो केवल आचारांग को संपूर्ण रूप से किन्तु शेष अंगों और पूर्वो के एक देश को ही जानते थे। इसके बाद संपूर्ण आचारांग के धारक भी कोई नहीं हुए और केवल सभी अंगों के एक देश को और सभी पूर्वो के एक देश को जानने वाले प्राचार्यों की परंपरा चली। यही परंपरा धरसेन तक चली है।'
इस विवरण से यह स्पष्ट है कि सकलभूतधर होने में द्वादशांग का जानना । जरूरी है। अंगबाह्य ग्रन्थों का आधार ये ही द्वादशांग थे अतएव सकलश्रुतधर होने में अंगबाह्य महत्त्व के नहीं। यह भी स्पष्ट होता है कि इसमें क्रमशः अंगधरों अर्थात् अंगविच्छेद की ही चर्चा है। धवला में ही आवश्यकादि १४ अंगबाह्यों का उल्लेख है किन्तु उनके विच्छेद की चर्चा नहीं है। इससे यह फलित होता है कि कम से कम धवला के समय तक अंगबाह्यों के विच्छेद की
१. धवला पु० १, पृ० ६५-६७; जयधवला, पृ० ८३. २. धवला, पृ०६६ (पु०१).
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