SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह सब अनुमान ही है। किन्तु जब आगम पुस्तकों में लिखे गये थे फिर भी वाचनाओं का महत्त्व माना गया, तो उससे यही अनुमान हो सकता है जो सत्य के निकट है। गुरुमुख से वाचना में जो आगम मिले वही आगम परंपरागत कहा जाएगा। पुस्तक से पढ़ कर किया हुआ ज्ञान, या पुस्तक में लिखा हुआ आगम उतना प्रमाण नहीं माना जायगा जितना गुरुमुख से पढ़ा हुआ। यही गुरुपरंपरा की विशेषता है। अतएव पुस्तक में जो कुछ भी लिखा हो किन्तु महत्त्व तो उसका है जो वाचक की स्मृति में है। अतएव पुस्तकों में लिखित होने पर भी उसके प्रामाण्य को यदि महत्त्व नहीं मिला तो उसका मूल्य भी कम हुआ । इसी के कारण पुस्तक में लिखे रहने पर भी जब-जब संघ को मालूम हुआ हो कि श्रु तधरों का ह्रास हो रहा है, श्रुतसंकलन के प्रयत्न की आवश्यकता पड़ी होंगी और विभिन्न वाचनाएं हुई होंगी। अब आगमविच्छेद के प्रश्न पर विचार किया जाय। आगमविच्छेद के विषय में भी दो मत हैं। एक के अनुसार सुत्त विनष्ट हना है, तब दूसरे के अनुसार सुत्त नहीं किन्तु सुत्तधर---प्रधान अनुयोगधर विनष्ट हुए हैं। इन दोनों मान्यताओं का निर्देश नंदी-बूर्णि जितना तो पुराना है ही। आश्चयं तो इस बात का है कि दिगंबर परंपरा के धवला ( पृ० ६५ ) में तथा जयधवला (पृ० ८३) में दूसरे पक्ष को माना गया है अर्थात् श्रुतधरों के विच्छेद की चर्चा प्रधानरूप से की गई है और श्रुतधरों के विच्छेद से श्रुत का विच्छेद फलित माना गया है। किन्तु आज का दिगंबर समाज श्रुत का ही विच्छेद मानता है। इससे भी सिद्ध है कि पुस्तक में लिखित आगमों का उतना महत्त्व नहीं है जितना श्रुतधरों की स्मृति में रहे हुए आगमों का। जिस प्रकार धवला में क्रमशः श्रतधरों के विच्छेद की बात कही है उसी प्रकार तित्थोगाली प्रकीर्णक में श्रुत के विच्छेद की चर्चा की गई है। वह इस प्रकार है प्रथम भ० महावीर से भद्रबाहु तक की परंपरा दी गई है और स्थूलभद्र भद्रबाहु के पास चौदहपूर्व की वाचना लेने गये इस बात का निर्देश है। यह निर्दिष्ट है कि दशपूर्वधरों में अंतिम सर्वमित्र थे। उसके बाद निर्दिष्ट है कि वीरनिर्वाण के १००० वर्ष बाद पूर्वो का विच्छेद हुआ। यहाँ पर यह ध्यान देना जरूरी है कि यही उल्लेख भगवती सूत्र में ( २.८ ) भी है। तित्योगाली में उसके बाद निम्न प्रकार से क्रमशः श्रुतविच्छेद की चर्चा की गई है १. देखिए-नंदीचूर्णि, पृ०.८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002543
Book TitleJain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy