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________________ ( ६७ ) पड़ता है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना जरूरी है कि जयधवला में यह स्पष्ट लिखा है कि सुधर्मा ने केवल एक जंबू को ही नहीं किन्तु अंगों की वाचना अपने अनेक शिष्यों को दी थी- "तद्दिवसे चेव सुहम्माइरियो जंबूसामियादीणमणेयारणमाइरियागं वक्खाणिददुवालसंगो घाइचउक्कक्खयेण केवली जादो।"-जयधवला पृ० ८४। ____ यहाँ स्पष्टरूप से जंबू ने अपने शिष्य ऐसे एक नहीं किन्तु अनेक आचार्यों को द्वादशांग पढ़ाया है-ऐसा उल्लेख है। इस पर से क्या हम कल्पना नहीं कर सकते कि संघ में श्रुतधरों की संख्या बहुत बड़ी होती थी ? ऐसी स्थिति में श्वेताम्बर-दिगंबरों में जिस विषय में कभी भेद रहा नहीं उस विषय में भेद की कल्पना करना उचित नहीं है। प्राचीन परंपरा के अनुसार श्वेताम्बर और दिगंबर दोनों में यही मान्यता फलित होती है कि सभी गणधर सूत्ररचना करते थे और अपने अनेक शिष्यों को उसकी वाचना देते थे। एक बात और यह भी है कि अंगज्ञान सार्वजनिक हो गया श्वेताम्बरों में और दिगंबरों में नहीं हुआइससे पंडितजी का विशेष तात्पयं क्या यह है कि केवल दिगंबर परंपरा में ही गुरु-शिष्य परंपरा से ही अंगज्ञान प्रवाहित हृया और श्वेताम्बरों में नहीं ? यदि ऐसा ही उनका मन्तव्य है जैसा कि उनके आगे उद्धृत अवतरण से स्पष्ट है तो यह भी उनका कहना उचित नहीं जंचता। हमने अचायं जिनभद्र के अवतरणों से यह स्पष्ट किया ही है कि उनके समय तक यही परंपरा थी कि शिष्य को गुरुमुख से ही और वह भी उनकी अनुमति से ही, चोरी से नहीं, श्रुत का पाठ लेना जरूरी था और यही परंपरा विशेषावश्यक के टीकाकार हेमचन्द्र ने भी मानी है। इतना ही नहीं आज भी यह परंपरा श्वेताम्बरों में प्रचलित है कि योगपूर्वक, तपस्यापूर्वक गुरुमुख से ही श्रुतपाठ शिष्य को लेना चाहिए। ऐसा होने पर ही वह उसका पाठी कहा जायगा। ऐसी स्थिति में श्वेताम्बर-परंपरा में वह सार्वजनिक हो गया और दिगंबर-परंपरा में गुरुशिष्य परंपरा तक सीमित रहापंडितजी का यह कहना कहाँ तक संगत है ? ___ सार्वजनिक' से तात्पर्य यह हो कि कई साधुओं ने मिल कर अंग की वाचना निश्चित की अतएव श्वेताम्बरों में वह व्यक्तिगत न रहा और सार्वजनिक हो गया। इस प्रकार सार्वजनिक हो जाने से ही दिगंबरों ने अंगशास्त्र को मान्यता न दी हो यह बात हमारी समझ से तो परे है। कोई एक व्यक्ति कहे वही सत्य और अनेक मिलकर उसकी सचाई की मोहर दें तो वह सत्य नहीं-ऐसा मानने वाला उस काल का दिगंबर संप्रदाय होगा—ऐसा मानने को हमारा मन तो तैयार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002543
Book TitleJain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size2 MB
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