________________
( ६२ ) "तित्योगाली एत्थं वत्तव्वा होइ आणुपुवीए । जे तस्स उ अंगस्स बुच्छेदो जहिं विणिद्दिट्ठो"
--व्य० भा० १०.७०४ इससे जाना जा सकता है कि अंगविच्छेद की चर्चा प्राचीन है और यह दिगंबर-श्वेताम्बर दोनों संप्रदायों में चली है। ऐसा होते हुए भी यदि श्वेताम्बरों ने अंगों के अंश को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया और वह अंश आज हमें उपलब्ध है--यह माना जाय तो इसमें क्या अनुचित है ? । ___एक बात का और भी स्पष्टीकरण जरूरी है कि दिगम्बरों में भी धवला के अनुसार सर्व अंगों का संपूर्ण रूप से विच्छेद माना नहीं गया है किन्तु यह माना गया है कि पूर्व और अंग के एकदेशधर हुए हैं और उनकी परंपरा चली है। उस परंपरा के विच्छेद का भय तो प्रदर्शित किया है किन्तु वह परंपरा विच्छिन्न हो गई ऐसा स्पष्ट उल्लेख धवला या जयधवला में भी नहीं है। वहाँ स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष बाद भारतवर्ष में जितने भी प्राचार्य हुए हैं वे सभी "सव्वेसिमंगपुव्वाणमेकदेसधारया जादा" अर्थात् सर्वं अंग-पूर्व के एकदेशधर हुए हैं-जयधवला भा० १, पृ० ८७; धवला पृ० ६७ ।
तिलोयपण्णत्ति में भी श्रुतविच्छेद की चर्चा है और वहाँ भी प्राचारांगधारी तक का समय वीरनि० ६८३ बताया गया है। तिलोयपत्ति के अनुसार भी अंग श्रुत का सर्वथा विच्छेद मान्य नहीं है। उसे भी अंग-पूर्व के एकदेशधर के अस्तित्व में संदेह नहीं है। उसके अनुसार भी अंगबाह्य के विच्छेद का कोई प्रश्न उठाया नहीं गया है। वस्तुतः तिलोयपण्णत्ति के अनुसार श्रुततीथं का विच्छेद वीरनि० २०३१७ में होगा अर्थात् तब तक श्रुत का एकदेश विद्यमान रहेगा ही (देखिए, ४. गा० १४७५--१४६३)।
तिलोयपन्नत्ति में प्रक्षेप की मात्रा अधिक है फिर भी उसका समय डा० उपाध्ये ने जो निश्चित किया है वह माना जाय तो वह ई० ४७३ और ६०६ के बीच है। तदनुसार भी उस समय तक सर्वथा श्रुतविच्छेद की चर्चा नहीं थी। तिलोयपण्णत्ति का ही अनुसरण धवला में माना जा सकता है।
. ऐसी ही बात यदि श्वेतांबर परंपरा में भी हुई हो तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उसमें भी संपूर्ण नहीं होने से अंग आगमों का एकदेश सुरक्षित रहा हो और उसे ही संकलित कर सुरक्षित रखा गया हो तो इसमें क्या असंगति है ? दोनों परंपरामों में अंग भागमों का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org