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जो समय शय्यंभव का है वही उसका भी है । शय्यंभव वीर नि. ७५ से ६० तक युगप्रधान पद पर रहे हैं अतएव उनका समय ई० पू. ४५२ से ४२६ है । इसी समय के बीच दर्शवेकालिक की रचना आचार्य शय्यंभव ने की होगी ।
उत्तराध्ययन किसी एक आचार्य की कृति नहीं है किन्तु संकलन है । उत्तराध्ययन का उल्लेख अंगबाह्य रूप से धवला ( पृ० ६६ ) और सर्वार्थसिद्धि में ( १.२० ) है । उसपर नियुक्ति त्रूणि टीकाएं प्राकृत में लिखी गई हैं । इसी कारण उसकी सुरक्षा भी हुई है । उसका समय जो विद्वानों ने माना है वह है ई० पू० तीसरी चौथी शती ।
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आवश्यक सूत्र तो अंगागम जितना ही प्राचीन है जैन निग्रन्थों के लिए प्रतिदिन करने की आवश्यक क्रियासंबंधी पाठ इसमें हैं । अंगों में जहाँ स्वाध्याय का उल्लेख आता है वहां प्रायः यह लिखा रहता है कि 'सामाइयाइणि एकादसंगाणि ( भगवती सूत्र ६३, ज्ञाता ५६, ६४ : विपाक ३३ ) ; 'सामाइयमाइयाई चोट्सपुव्वाई' ( भगवती सूत्र ६१७, ४३२ : ज्ञाता० ५४, ५५, १३० ) । इससे सिद्ध होता है कि अंग से भी पहले आवश्यक सूत्र का अध्ययन किया जाता था । आवश्यक सूत्र का प्रथम अध्ययन सामायिक है । इस दृष्टि से आवश्यक सूत्र के मौलिक पाठ जिन पर नियुक्ति, भाष्य, विशेषावश्यक भाष्य, चूर्णि श्रादि प्राकृत टीकाएँ लिखी गई हैं वे अंग जितने पुराने होंगे । अंगबाह्य आगम के भेद आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त-- इस प्रकार किये गये हैं । इससे भी
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नाम धवला में प्राचीनता सिद्ध अतएव ज्ञान
बढते गये हैं ।
इसका महत्त्व सिद्ध होता है । श्रावश्यक के छहों अध्ययनों के अंगबाह्य में गिनाए हैं । ऐसी परिस्थिति में आवश्यक सूत्र की होती ही है । आवश्यक चूँकि नित्यप्रति करने की क्रिया है वृद्धि और ध्यानवृद्धि के लिए उसमें पर समय-समय उपयोगी पाठ आधुनिक भाषा के पाठ भी उसमें जोड़े गये हैं किन्तु मूल पाठ कौन से थे इसका तो पृथक्करण प्राचीन प्राकृत टीकात्रों के आधार पर करना सहज है । और वैसा श्री पं० सुखलालजी ने अपने 'प्रतिक्रमण' ग्रन्थ में किया भी है । अतएव उन पाठों के ही समय का विचार यहाँ प्रस्तुत हैं । उन पाठों का समय भ० महावीर के जीवनकाल के आसपास नहीं तो उनके की प्रथम शती में तो रखा जा सकता है ।
निर्वाण के निकट या बाद
पिण्डनियुक्ति दशर्वकालिक की टीका है और वह प्रा० भद्रबाहु की कृति है ।
१. डोक्ट्रिन ऑफ दी जैन्स, पृ० ८१.
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