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________________ (. ३३ ) में वृद्धि होना रुक गया होगा, ऐसा माना जा सकता है। किन्तु श्वेताम्बरों के आगमरूप से मान्य कुछ प्रकीर्णक ग्रन्थ ऐसे भी हैं जो उस काल के बाद भी पागम में संमिलित कर लिये गये हैं। इसमें उन ग्रन्थों की निर्दोषता और वैराग्य भाव की वृद्धि में उनका विशेष उपयोग–ये ही कारण हो सकते हैं। या कर्ता आचार्य की उस काल में विशेष प्रतिष्ठा भी कारण हो सकती है । जैनागमों की संख्या जब बढ़ने लगी तब उनका वर्गीकरण भी आवश्यक हो गया। भगवान् महावीर के मौलिक उपदेश का गणधरकृत संग्रह द्वादश 'अंग' या 'गणिपिटक' में था अतएव यह स्वयं एक वर्ग हो जाय और उससे अन्य का पार्थक्य किया जाय यह जरूरी था। अतएव आगमों का जो प्रथम वर्गीकरण हा वह अंग और अंगबाह्य इस आधार पर हुआ। इसीलिए हम देखते हैं कि अनुयोग ( सू० ३) के प्रारम्भ में 'अंगपविट्ठ' ( अंगप्रविष्ट ) और 'अंगबाहिर ( अंगबाह्य ) ऐसे श्रुत के भेद किये गये हैं। नन्दी ( सू० ४४ ) में भी ऐसे ही भेद हैं। अंगबाहिर के लिये वहाँ 'अणंगपविठ्ठः शब्द भी प्रयुक्त है (स० ४४ के अंत में)। अन्यत्र नंदी ( सू० ३८ ) में हो 'अंगपविटू' और 'प्रणंगपविट्ट'--ऐसे दो भेद किये गए हैं। इन अंगबाह्य ग्रन्थों की सामान्य संज्ञा 'प्रकीर्णक' भी थी, ऐसा नन्दीसूत्र से प्रतीत होता है।' अंगशब्द को ध्यान में रख कर अंगबाह्य ग्रन्थों की सामान्य संज्ञा 'उपांग' भी थी, ऐसा निरयावलिया सूत्र के प्रारंभिक उल्लेख से प्रतीत होता है और उससे यह भी प्रतीत होता है कि कोई एक समय ऐसा था जब ये निरयावलियादि पांच ही उपांग माने जाते होंगे। समवायांग, नंदी, अनुयोग तथा पाक्षिकसूत्र के समय तक समग्र आगम के मुख्य विभाग दो हो थे--अंग और अंगबाह्य। प्राचार्य उमास्वाति के तस्वार्थसूत्रभाष्यरे से भी यही फलित होता है कि उनके समय तक भी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ऐसे ही विभाग प्रचलित थे। स्थानांग सूत्र (२७७) में जिन चार प्रज्ञप्तियों को अंगबाह्य कहा गया है वे हैंचन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति। इनमें से जंबू १. “एवमाइयाई चउरासीई पइन्नगसहस्साई........"अहवा जस्स जत्तिया सीसा उप्पत्तियाए......"चउन्विहाए बुद्धीए उववेा तस्स तत्तिाई पइएणगसहस्साई......"मन्दी, सू०४४. २. तत्त्वार्थसूत्रभाष्य, १. २०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002543
Book TitleJain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size2 MB
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