________________
। ३४ ) द्वीपप्रज्ञप्ति को छोड़ कर शेष तीन कालिक हैं-ऐसा भी उल्लेख स्थानांग ( १५२ ) में है।
___ अंग के अतिरिक्त आचारप्रकल्प ( निशीथ) ( स्थानांग, सू० ४३३; समवायांग, २८), आचारदशा ( दशाश्रुतस्कंध), बन्धदशा, द्विगृद्धिदशा, दोघंदशा और संक्षेपितदशा का भी स्थानांग (७५५ ) में उल्लेख है। किन्तु बन्धदशादि शास्त्र अनुपलब्ध हैं। टीकाकार के समय में भी यही स्थिति थी जिससे उनको कहना पड़ा कि ये कौन ग्रन्थ हैं, हम नहीं जानते। समवायांग में उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययनों के नाम दिये हैं ( सम. ३६ ) तथा दशा-कल्पव्यवहार इन तीन के उद्देशनकाल की चर्चा है। किन्तु उनकी छेदसंज्ञा नहीं
दी गई है।
प्रज्ञप्ति का एक वर्ग अलग होगा ऐसा स्थानांग से पता चलता है। कुवलयमाला (पृ० ३४ ) में अंगबाह्य में प्रज्ञापना के अतिरिक्त दो प्रज्ञप्तियों का उल्लेख है। __ 'छेद' संज्ञा कब से प्रचलित हुई और छेद में प्रारंभ में कौन से शास्त्र संमिलित थे—यह भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। किन्तु आवश्यकनियुक्ति में सर्वप्रथम 'छेदसुत्त' का उल्लेख मिलता है। उससे प्राचीन उस्लेख अभी तक मिला नहीं है।' इससे अभी इतना तो कहा ही जा सकता है कि आवश्यकनियुक्ति के समय में छेदसुत्त का वर्ग पृथक् हो गया था।
कुवलयमाला जो ७-३-७७६ ई. में समाप्त हुई उसमें जिन नाना ग्रन्यों और विषयों का श्रमण चिंतन करते थे उनके कुछ नाम गिनाये हैं ।२ उसमें सर्वप्रथम आचार से लेकर दृष्टिवादपर्यंत अंगों के नाम हैं। तदनन्तर प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति का उल्लेख है। तदनंतर ये गाथाएं हैं
अण्णाइ य गणहरभासियाई सामण्णकेवलिकयाई । पञ्चेयसयंबुद्धेहिं विरइयाई गुणेति महरिसिणो॥ कत्थइ पंचावयवं दसह चिय साहणं परवेति ।
पञ्चक्खमणुमारणपमाणचउक्कयं च अण्णे वियारेति ॥ १. आव० नि० ७७७; केनोनिकल लिटरेचर, पृ० ३६ में उद्धृत । २. कुवलयमाला, पृ० ३४.
३. विपाक का नाम इन में नहीं आता, यह स्वयं लेखक की या लिपिकार की असांवधानी के कारण है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org