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भवजलहिजाणवत्तं पेम्ममहारायणियलणिद्दलणं । कम्मट्ठगंठिवजं अण्णे धम्म परिकहेंति ॥ मोहंधयाररविगो परवायकुरंगदरियकेसरिणो। णयसयखरणहरिल्ले अण्णे अह वाइणो तत्थ ।। लोयालोयपयासं दूरंतरसण्हवत्थुपजोयं । केवलिसुत्तणिबद्धं णिमित्तमण्णे वियारंति ॥ णाणाजीवुप्पत्ती सुवण्णमणिरयगधाउसंजोयं ॥ जाणंति जणियजोणी जोणीणं पाहुडं अण्णे ।। ललियवयणत्थसारं सव्वालंकारणिवडियसोहं । अमयप्पवाहमहरं अण्णे कव्वं विइंतंति ॥ बहुतंतमंतविजावियाणया सिद्धजोयजोइसिया ।
अच्छंति अरणुगुणेता अवरे सिद्धंतसाराई ॥ कुवलयमालागत इस विवरण में एक तो यह बात ध्यान देने योग्य है कि अंग के बाद अंगबारों का उल्लेख है। उनमें अंगों के अलावा जिन आगमों के नाम हैं वे मात्र प्रज्ञापना, चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के हैं। इसके बाद गणधर, सामान्यकेवली, प्रत्येकबुद्ध और स्वयंसंबुद्ध के द्वारा भाषित या विरचित ग्रन्थों का सामान्य तौर पर उल्लेख है । वे कौन थे इसका नामपूर्वक उल्लेख नहीं है। दूसरी बात यह ध्यान देने की है कि इसमें दशपूर्वीकृत ग्रन्थों का उल्लेख नहीं है। गणधर का उस्लेख होने से श्र तकेवली का उल्लेख सूचित होता है। दूसरी ओर कम, मन्त्र, तन्त्र, निमित्त आदि विद्याओं के विषय में उल्लेख है और योनिपाहुड का नामपूर्वक उल्लेख है। काव्यों का चिंतन भी मुनि करते थे यह भी बताया है। निमित्त को केवलीसूत्रनिबद्ध कहा गया है। कुवलयमाला के दूसरे उल्लेख से यह फलित होता है कि लेखक के मन में केवल पागम ग्रन्थों का ही उल्लेख करना अभीष्ट नहीं है। प्रज्ञापना आदि तीन अंगबाह्य ग्रन्थों का जो नामोल्लेख है यह अंगबारों में उनकी विशेष प्रतिष्ठा का द्योतक है। धवला' जो ८.१०. ८१६ ई० को समाप्त हुई उससे भी यही सिद्ध होता है कि उस काल तक आगम के अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट ऐसे दो विभाग थे।
किन्तु सांप्रतकाल में श्वेताम्बरों में आगमों का जो वर्गीकरण प्रसिद्ध है वह कब शुरू हुआ, या किसने शुरू किया—यह जानने का निश्चित् साधन उपस्थित नहीं है।
१. धवला, पुस्तक १. पृ० ६६.
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