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श्रीचन्द्र श्राचार्य (लेखनकाल ई० १११२ से प्रारंभ ) ने 'सुखबोधा सामाचारी' की रचना की है । उसमें उन्होंने आगम के स्वाध्याय की तपोविधि का जो वर्णन किया है उससे पता चलता है कि उनके कालतक अंग और उपांग की व्यवस्था अर्थात् अमुक अंगका प्रमुक उपांग ऐसी व्यवस्था बन चुकी थी । पठनक्रम में सर्वप्रथम आवश्यक सूत्र, तदनंतर दशवैकालिक और उत्तराध्ययन के बाद प्राचार आदि अंग पढ़े जाते थे । सभी अंग एक ही साथ क्रम से पढ़े जाते थे ऐसा प्रतीत नहीं होता । प्रथम चार आचारांग से समवायांग तक पढ़ने के बाद निसीह, जीयकप्प, पंचकम्प, कप्प, ववहार और दसा ? पढ़े जाते थे । निसीह आदि की यहाँ छेद संज्ञा का उल्लेख नहीं है किन्तु इन सबको एक साथ रखा है यह उनके एक वर्ग की सूचना तो देता ही है । इन छेदग्रन्थों के अध्ययन के बाद नाधम्मका (छठा अंग), उवासगदसा, अंतगडदसा, प्रगुत्तरोववाइयदसा, पहा - वागरण और विपाक- - इन अंगों की वाचना होती थी । विवाग के बाद एक पंक्ति में भगवई का उल्लेख है किन्तु यह प्रक्षिप्त हो— ऐसा लगता है क्योंकि वहाँ कुछ भी विवरण नहीं है ( पृ० ३१ ) । इसका विशेष वर्गन आगे चलकर "गणिजोगेसु य पंचमंगं विवाहपन्नत्ति " ( पृ० ३१ ) इन शब्दों से शुरू होता है । विपाक के बाद उवांग की वाचना का उल्लेख है । वह इस प्रकार है - उववाई, रायपसेणइय, जीवाभिगम, पन्नवणा, सूरपन्नत्ति, जंबूदीवपन्नति, चन्दन्नति । तीन पन्नत्तियों के विषय में उल्लेख है कि 'तो पन्नति कालिमात्र संघट्ट् च कोरइ' – (पृ. ३२ ) । तात्पर्यं यह जान पड़ता है कि इन तीनों की तत् तत् अंग को वाचना के साथ भी वाचना दी जा सकती है । शेष पाँच अंगों के लिए लिखा है कि "सेसाण पंचमंगाणं मयंतरेण निरयावलिया सुयवखंधो उवंगं ।” (पृ. ३२ ) । इस निरया - वलिया के पांच वर्ग हैं-निरयावलिया, कप्पवडिसिया, पुष्फिया, पुष्फ चूलिया और वहीदसा | इसके बाद 'इयाणि पन्नगा' ( पृ० ३२ ) इस उल्लेख के साथ नंदी, अनुयोगद्वार देविन्दत्थन, तंदुलवेयालिय, चंदावेज्झय, आउरपञ्चक्खाण और गरिविजा का उल्लेख करके 'एवमाइया' लिखा है । इस उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि प्रकोक में उल्लिखित के अलावा अन्य भी थे । 'देने की बात है कि नम्दी और अनुयोगद्वार को सांप्रतकाल में गिना जाता है किन्तु यहाँ उनका समावेश प्रकीर्णक में है ।
यहाँ यह भी ध्यान
प्रकीर्णक से पृथक्
इस प्रकरण के
१. सुखबोधा सामाचारी में "निसीहं सम्मत्तं " ऐसा उल्लेख है और तदनन्तर कप आदि से संबंधित पाठ के अंत में " कप्पववहारदसासुयक्खंधो सम्मत्तो" - ऐसा उल्लेख है । अतएव जीयकप्प और पंचकप्प की स्थिति संदिग्ध बनती हैं- पृ० ३०.
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