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( ३७ ) अंत में 'बाहिरजोगविहिसमत्तो' ऐसा लिखा है उससे यह भी पता चलता हैं कि उपांग और प्रकीर्णक दोनों को सामान्य संज्ञा या वर्ग अंगबाह्य था। इसके बाद भगवती की वाचना का प्रसंग उठाया है। यह भगवती का महत्त्व सूचित करता है। भगवती के बाद महानिसीह का उल्लेख है और उसका उल्लेख अन्य निसीहादि छेद के साथ नहीं है-इससे सूचित होता है कि वह बाद की रचना है। मतान्तर देने के बाद अंत में एक गाथा दी है जिससे सूचना मिलती है कि किस अंग का कौन उपांग है"उ० रा० जी० पन्नवणा सू० जं० चं० नि० क० क० पु० पु० वलिदसनामा । पायाराइउवंगा
नायव्वा
आणुपुव्वीए ॥"
-सुखबोधा सामाचारी, पृ० ३४. श्रीचन्द्र के इस विवरण से इतना तो फलित होता है कि उनके समय तक अंग उपांग, प्रकोणंक इतने नाम तो निश्चित हो चुके थे। उपांगों में कौन ग्रन्थ समाविष्ट हैं यह भी निश्चित हो चुका था जो सांप्रतकाल में भी वैसा ही है । प्रकोणक वर्ग में नंदी-अनुयोगद्वार शामिल था जो बाद में जाकर पृथक् हो गया। मूलसंज्ञा किसी को भी नहीं मिलती जो आगे जाकर आवश्यकादि को मिली है।
जिनप्रभ ने अपने 'सिद्धान्तागमस्तव' में आगमों का नामपूर्वक स्तवन किया है किन्तु वर्गीकरण नहीं किया। उनका रतवनक्रम इस प्रकार है-आवश्यक, विशेषावश्यक, दशवकालिक, प्रोपनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति, नन्दी, अनुयोगद्वार, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, आचारांग आदि ग्यारह अंग ( इनमें कुछ को अंग संज्ञा दी गई है), प्रोपपातिक आदि १२ (इनमें किसी को भी उपांग नहीं कहा है), मरणसमाधि आदि १३ (इनमें किसी को भी प्रकीर्णक नहीं कहा है), निशीथ, दशाश्रत, कम्प, व्यवहार, पंचकल्प, जीतकल्प, महानिशीथ-इतने नाम के बाद नियुक्ति
आदि टीकाओं का स्तवन है। तदनंतर दृष्टिवाद और अन्य कालिक, उत्कालिक ग्रन्थों की स्तुति की गई है। तदनंतर अंगविद्या, विशेषणवती, संमति, नयचक्रवाल, तत्त्वार्थ, ज्योतिष्करंड, सिद्धप्राभृत, वसुदेवहिंडी, कमप्रकृति आदि प्रकरण ग्रन्थों का उल्लेख है। इस सूची से एक बात तो सिद्ध होती है कि भले ही जिनप्रभ ने वर्गों के नाम नहीं दिये किन्तु उस समय तक कौन ग्रन्थ किसके साथ उल्लिखित होना चाहिए ऐसा एक क्रम तो बन गया होगा। इसीलिए हम मूलसूत्रों और चूलिकासूत्रों के नाम एक साथ ही पाते हैं। यही बात भंग, उपांग, छेद और प्रकीणंक में भी लागू होती है ।
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