________________
( ३२ ) कहलाया कि गणि के लिए वही श्रुतज्ञान का भंडार था।'
समय के प्रवाह में आगमों की संख्या बढती ही गई जो ८५ तक पहुंच गई है। किन्तु सामान्य तौर पर श्वेताम्बरों में मूर्तिपूजक संप्रदाय में वह ४५ और स्थानकवासी तथा तेरापंथ में ३२ संख्या में सीमित है। दिगम्बरों में एक समय ऐसा था जब वह संख्या १२ अंग और १४ अंगबाह्य = २६ में सीमित थी। किन्तु अंगज्ञान की परंपरा वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष तक ही रही और उसके बाद वह आंशिक रूप से चलती रही-ऐसी दिगम्बर-परंपरा है।३
__ आगम की क्रमशः जो संख्यावृद्धि हुई उसका कारण यह है कि गणधरों के अलावा अन्य प्रत्येकबुद्ध महापुरुषों ने जो उपदेश दिया था उसे भी प्रत्येकबुद्ध के केवली होने से आगम में संनिविष्ट करने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती थी। इसी प्रकार गणिपिटक के ही आधार पर मंदबुद्धि शिष्यों के हितार्थ श्रुतकेवली प्राचार्यों ने जो ग्रन्थ बनाए थे उनका समावेश भी, आगम के साथ उनका अविरोध होने से और पागमाथं को ही पुष्टि करनेवाले होने से, आगमों में कर लिया गया। अंत में संपूर्णदशपूर्व के ज्ञाता द्वारा ग्रथित ग्रन्य भी आगम में समाविष्ट इसलिए किये गये कि वे भी आगम को पुष्ट करने वाले थे और उनका आगम से विरोध इसलिए भी नहीं हो सकता था कि वे निश्चित रूप से सम्यग्दृष्टि होते थे। निम्न गाथा से इसी बात की सूचना मिलती है
सूत्तं गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च। सुदकेवलिणा कथिदं अभिण्णदसपूव्वकथिदं च ॥४
-मूलाचार, ५.८० इससे कहा जा सकता है कि किसी अन्य के प्रागम में प्रवेश के लिए यह मानदंड था। अतएव वस्तुतः जब से दशपूर्वी नहीं रहे तब से आगम की संख्या
१. “दुवालसंगे गणिपिडगे"--समवायांग, सू ० १ और १३६ ; नन्दी, सू० ४१ आदि । ____२. जयधवला, पृ० २५; धवला, भा० १ पृ० १६ ; गोम्मटसार-जीवकांड, गा० ३६७, ३६८. विशेष के लिए देखिए-आगमयुग का जैनदर्शन, पृ० २२-२७.
३. जै० सा० इ० पूर्वपीठिका, पृ० ५२८, ५३५, ५३८ ( इनमें सकल श्रुतज्ञान का विच्छेद उल्लिखित है। यह संगत नहीं ऊँचता)।
४. यही गाथा जयजवला में उद्धृत है-पृ० १५३. इसी भाव को व्यक्त करनेवाली गाथा संस्कृत में द्रोणाचार्य ने श्रोधनियुक्ति की टीका में पृ० ३ में उद्धृत की है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org