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________________ ( १६ ) मात्रा में सुसंस्कृत है। वेद के इन्द्रादि देवों का रूप और जैनों के आराध्य का स्वरूप देखा जाय तो वैदिक देव सामान्य मानव से अधिक शक्तिशाली हैं किन्तु वृत्तियों की दृष्टि से हीन ही हैं। मानवसुलभ क्रोध, राग, द्वेष आदि वृत्तियों का वैदिक देवों में साम्राज्य है तो जैनों के आराध्य में इन वृत्तियों का अभाव ही है । वैदिकों के इन देवों की पूज्यता कोई आध्यात्मिक शक्ति के कारण नहीं किन्तु नाना प्रकार से अनुग्रह और निग्रह शक्ति के कारण है जब कि जैनों के आराध्य ऐसी कोई शक्ति के कारण पूज्य नहीं किन्तु वीतरागता के कारण आराध्य हैं। आराधक में वीतराग के प्रति जो आदर है वह उसे उनकी पूजा में प्रेरित करता है जब कि वैदिक देवों का डर आराधक के यज्ञ का कारण है। वैदिकों ने भूदेवों की कल्पना तो की किन्तु वे कालक्रम से स्वार्थी हो गये थे। उनको अपनी पुरोहिताई की रक्षा करनी थी। किन्तु जैनों के भूदेव वीतराग मानव के रूप में कल्पित हैं। उन्हें यज्ञादि करके कमाई का कोई साधन जुटाना नहीं था। धार्मिक कर्मकांड में वैदिक में यज्ञ मुख्य था जो अधिकांश बिना हिंसा या पशु-वध के पूर्ण नहीं होता था जब कि जैनधर्म में क्रियाकांड तपस्यारूप है-अनशन और ध्यानरूप है जिसमें हिंसा का नाम नहीं है। ये वैदिक यज्ञ देवों को प्रसन्न करने के लिए किये जाते थे जब कि जैनों में अपनी आत्मा के उत्कर्ष के लिए ही धार्मिक अनुष्ठान होते थे । उसमें किसी देव को प्रसन्न करने की बात का कोई स्थान नहीं था। उनके देव तो वीतराग होते थे जो प्रसन्न भी नहीं होते और अप्रसन्न भी नहीं होते। वे तो केवल अनुकरणीय के रूप में प्राराध्य थे। वैदिकों ने नाना प्रकार के इन्द्रादि देवों की कल्पना कर रखी थी जो तीनों लोक में थे और उनका वर्ग मनुष्य वर्ग से भिन्न था और मनुष्य के लिये आराध्य था। किन्तु जैनों ने जो एक वर्ग के रूप में देवों की कल्पना की है वे मानव वर्ग से पृथग्वर्ग होते हुए भी उनका वह वर्ग सब मनुष्यों के लिए प्राराध्य कोटि में नहीं है। मनुष्य देव की पूजा भौतिक उन्नति के लिए भले करे किन्तु आत्मिक उन्नति के लिए तो उससे कोई लाभ नहीं ऐसा मन्तव्य जैनधर्म का है। अतएव ऐसे ही वीतराग मनुष्यों की कल्पना जैनधर्म ने की जो देवों के भी आराध्य हैं । देव भी उस मनुष्य की सेवा करते हैं। सारांश यह है कि देव की नहीं किन्तु मानव की प्रतिष्ठा बढाने में जैनधर्म अग्रसर है । देव या ईश्वर इस विश्व का निर्माता या नियंता है, ऐसी कल्पना वैदिकों की देखी जाती है। उसके रथान में जैनों का सिद्धान्त है कि सृष्टि तो अनादि काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002543
Book TitleJain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size2 MB
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