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यह एक ओर वेद का प्रभाव और दूसरी ओर नई सूझ का समन्वय ही तो है । वेद का अंग बनकर वेदान्त कहलाए और एक तरह से वेद का अन्त भी कर दिया । उपनिषद् बन जाने के बाद दार्शनिकों ने वेद को एक ओर रखकर उपनिषदों के सहारे ही वेद की प्रतिष्ठा बढ़ानी शुरू की । वेदभक्ति रही किन्तु निष्ठा तो उपनिषद् में ही बढ़ी । एक समय यह भी आया कि वेद की ध्वनिमात्र रह गई और अर्थ नदारद हो गया । उसके थं का उद्धार मध्यकाल में हुआ भी तो वह वेदान्त के अर्थ को अग्रसर करके ही हुआ । आधुनिक काल में भी दयानंद जैसों ने भी यह साहस नहीं किया कि वेद के मौलिक हिंसा - प्रधान अर्थं की प्रतिष्ठा करें। वेद के ह्रास का यह कारण पूर्वभारत की प्रजा के संस्कारों में निहित है और जैनधर्म के प्रवर्तक महापुरुष जितने भी हुए हैं वे मुख्यरूप से पूर्वभारत की ही देन है । जब हम यह देखते हैं तो सहज ही अनुमान होता है कि पूर्वभारत का यह धर्म ही जैनधर्म के उदय का कारण हो सकता है जिसने वैदिक धर्मं को भी नया रूप दिया और हिंसक तथा भौतिक धर्म को अहिंसा और आध्यात्मिकता का नया पाठ पढ़ाया |
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तक पश्चिमी विद्वानों ने केवल वेद और वैदिक साहित्य का अध्ययन किया था और जब तक सिंधुसंस्कृति को प्रकाश में लानेवाले खुदाई कार्य नहीं हुए थे तब तक — भारत जो कुछ संस्कृति है, उसका मूल वेद में ही होना चाहिए - ऐसा प्रतिपादन वे करते रहे । किन्तु जब से मोहेनजोदारो और हरप्पा की खुदाई हुई है तब से पश्चिम के विद्वानों ने अपना मत बदल दिया है और वेद के अलावा वेद से भी बढ़-चढ़कर वेदपूर्वकाल में भारतीय संस्कृति थी इस नतीजे पर पहुँचे हैं । और अब तो उस तथाकथित सिंधुसंस्कृति के अवशेष प्रायः समग्र भारतवर्ष में दिखाई देते हैं- ऐसी परिस्थिति में भारतीय धर्मों के इतिहास को उस नये प्रकाश में देखने का प्रारंभ पश्चिमीय और भारतीय विद्वानों ने किया है और कई विद्वान् इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि जैनधर्मं वैदिकधर्म से स्वतंत्र है । वह उसको शाखा नहीं है और न वह केवल उसके विरोध में ही खड़ा हुआ है ।
प्राचीन यति-- मुनि श्रमण :
मोहेनजोदारो में और हरप्पा में जो खुदाई हुई उसके अवशेषों का अध्ययन करके विद्वानों ने उसकी संस्कृति को सिन्धुसंस्कृति नाम दिया था और खुदाई में सबसे निम्नत्तर में मिलने वाले अवशेषों को वैदिक संस्कृति से भी प्राचीन संस्कृति के अवशेष हैं - ऐसा प्रतिपादन किया था । सिन्धुसंस्कृति के समान ही संस्कृति
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