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________________ ( २० ) के अवशेष अब तो भारत के कई भागों में मिले हैं-उसे देखते हुए उस प्राचीन संस्कृति का नाम सिन्धुसंस्कृति अव्याप्त हो जाता है। वैदिक संस्कृति यदि भारत के बाहर से आने वाले पार्यों की संस्कृति है तो सिन्धुसंस्कृति का यथार्थ नाम भारतीय संस्कृति ही हो सकता है। __अनेक स्थलों में होनेवाली खुदाई में जो नाना प्रकार की मोहरें मिली हैं उन पर कोई न कोई लिपि में लिखा हुआ भी मिला है। वह लिपि संभव है कि चित्रलिपि हो। किन्तु दुर्भाग्य है कि उस लिपि का यथार्थ वाचन अभी तक हो नहीं पाया है। ऐसी स्थिति में उसकी भाषा के विषय में कुछ भी कहना संभव नहीं है। और वे लोग अपने धर्म को क्या कहते थे, यह किसी लिखित प्रमाण से जानना संभव नहीं है। किन्तु अन्य जो सामग्री मिली है उस पर से विद्वानों का अनुमान है कि उस प्राचीन भारतीय संस्कृति में योग को अवश्य स्थान था। यह तो हम अच्छी तरह से जानते हैं कि वैदिक आर्यों में वेद और ब्राह्मणकाल में योग की कोई चर्चा नहीं है। उनमें तो यज्ञ को ही महत्त्व का स्थान मिला हृया है। दूसरी ओर जैन-बौद्ध में यज्ञ का विरोध था और योग का महत्त्व। ऐसी परिस्थिति में यदि जैनधर्म को तथाकथित सिन्धुसंस्कृति से भी संबद्ध किया जाय तो उचित होगा। अब प्रश्न यह है कि वेदकाल में उनका नाम क्या रहा होगा ? पार्यों ने जिनके साथ युद्ध किया उन्हें दास, द यू जैसे नाम दिये हैं। किन्तु उससे हमारा काम नहीं चलता। हमें तो यह शब्द चाहिए जिससे उस संस्कृति का बोध हो जिसमें योगप्रक्रिया का महत्त्व हो। ये दास-दस्यू पुर में रहते थे और उनके पुरों का नाश करके आर्यों के मुखिया इन्द्र ने पुरन्दर की पदवी को प्राप्त किया। उसी इन्द्र ने यतियों और मुनियों की भी हत्या को है-ऐसा उल्लेख मिलता है (अथवं० २. ५. ३ )। अधिक संभव यही है कि ये मुनि और यति शब्द उन मूल भारत के निवासियों की संस्कृति के सूचक हैं और इन्ही शब्दों की विशेष प्रतिष्ठा जैनसंस्कृति में प्रारंभ से देखी भी जाती है । अतएव यदि जैनधर्म का पुराना नाम यतिधर्म या मुनिधर्म माना जाय तो इसमें आपत्ति को बात न होगी। यति और मुनिधर्म दीर्घकाल के प्रवाह में बहता हुआ कई शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त हो गया था। यही हाल वैदिकों का भी था। प्राचीन जैन और बौद्ध शास्त्रों में धर्मों के विविध प्रवाहों को सूत्रबद्ध करके श्रमण और ब्राह्मण इन दो विभागों में बांटा गया है। इनमें ब्राह्मण तो वे हैं जो वैदिक संस्कृति के अनुयायी हैं और शेष सभी का समावेश श्रमणों में होता था। अतएव इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002543
Book TitleJain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size2 MB
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