________________
( २१ ) दृष्टि से हम कह सकते हैं कि भ० महावीर और बुद्ध के समय में जैनधर्म का समावेश श्रमणवर्ग में था।
ऋग्वेद (१०.१३६.२) में 'वातरशना मुनि' का उल्लेख हुआ है जिसका अर्थ है नग्न मुनि। और आरण्यक में जाकर तो श्रमण और 'वातरशना' का एकीकरण भी उल्लिखित है। उपनिषद् में तापस और श्रमणों को एक बताया गया है (बृहदा० ४.३.२२)। इन सबका एक साथ विचार करने पर श्रमणों की तपस्या और योग की प्रवृत्ति ज्ञात होती है। ऋग्वेद के वातरशना मुनि और यति भी ये ही हो सकते हैं। इस दृष्टि से भी जैनधर्म का संबंध श्रमण-परंपरा से सिद्ध होता है और इस श्रमण-परंपरा का विरोध वैदिक या ब्राह्मण-परंपरा से चला आ रहा है, इसकी सिद्धि उक्त वैदिक तथ्य से होती है कि इन्द्र ने यतियों
और मुनियों को हत्या की तथा पतंजलि के उस वक्तव्य से भी होती है जिसमें कहा गया है कि श्रमग और ब्राह्मणों का शाश्वतिक विरोध है (पातंजल महाभाष्य ५.४.६)। जैनशास्त्रों में पांच प्रकार के श्रमग गिनाए हैं उनमें एक निर्ग्रन्थ श्रमण का प्रकार है-यही जैनधर्म के अनुयायी श्रमण हैं। उनका बौद्धग्रन्थों में निग्रंन्य नाम से परिचय कराया गया है-इससे इस मत की पुष्टि होती हैं कि जैन मुनि या यति को भ. बुद्ध के समय में निग्रन्थ कहा जाता था और वे श्रमगों के एक वर्ग में थे। ___ सारांश यह है कि वेदकाल में जैनों के पुरखे मुनि या यति में शामिल थे। उसके बाद उनका समावेश श्रमणों में हुआ और भगवान् महावीर के समय वे निग्रन्थ नाम से विशेषरूप से प्रसिद्ध थे। जैन नाम जैनों की तरह बौद्धों के लिए भी प्रसिद्ध रहा है क्योंकि दोनों में जिन की आराधना समानरूप से होती थी। किन्तु भारत से बौद्धधर्म के प्रायः लोप के बाद केवल महावीर के अनुयायियों के लिए जैन नाम रह गया जो आज तक चालू है । तीर्थकरों की परंपरा :
जैन-परंपरा के अनुसार इस भारतवर्ष में कालचक्र उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में विभक्त है। प्रत्येक में छः पारे होते हैं। अभी अवसर्पिणी काल चल रहा है। इसके पूर्व उत्सपिगी काल था। अवसर्पिणी के समाप्त होने पर पुनः उत्सर्पिणी कालचक्र शुरू होगा। इस प्रकार अनादिकाल से यह कालचक्र चल रहा है और अनन्तकाल तक चलेगा। उत्सर्पिणी में सभी भाव उन्नति को प्राप्त होते हैं और अवसर्पिणी में 'हास को। किन्तु दोनों में तीर्थंकरों का जन्म होता है। उनकी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org