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________________ ( २२ ) संख्या प्रत्येक में २४ की मानी गई है। तदनुसार प्रस्तुत अवसर्पिणी में अबतक २४ तीर्थकर हो चुके हैं। अंतिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर हुए और प्रथम तीथंकर ऋषभदेव। इन दोनों के बीच का अन्तर असंख्य वर्ष है। अर्थात् जैन-परंपरा के अनुसार ऋषभदेव का समय भारतीय ज्ञात इतिहासकाल में नहीं आता। उनके अस्तित्वकाल की यथार्थता सिद्ध करने का हमारे पास कोई साधन नहीं। अतएव हम उन्हें पौराणिक काल के अन्तर्गत ले सकते हैं। उनकी अवधि निश्चित नहीं करते। किन्तु ऋषभदेव का चरित्र जैनपुराणों में वर्णित है और उसमें जो समाज का चित्रण है वह ऐसा है कि उसे हम संस्कृति का उषः काल कह सकते हैं। उस समाज में राजा नही था, लोगों को लिखना-पढ़ना, खेती करना और हथियार चलाना नहीं भाता था। समाज में अभी सुसंस्कृत लग्नप्रथा ने प्रवेश नहीं किया था। भाई-बहन पति-पत्नी की तरह व्यवहार करते और संतानोत्पत्ति होती थी। इस समाज को सुसंस्कृत बनाने का प्रारंभ ऋषभदेव ने किया। ___ यहाँ हमें ऋग्वेद के यम-यमी संवाद की याद आती है। उसमें यमी जो यम की बहन है वह यम के साथ संभोग की इच्छा करती है किन्तु यम ने नहीं माना, और दूसरे पुरुष की तलाश करने को कहा। उससे यह झलक मिलती है कि भाई-बहन का पति-पत्नी होकर रहना किसी समय समाज में जायज था किन्तु उस प्रथा के प्रति ऋग्वेद के समय में अरुचि स्पष्ट है। ऋग्वेद का समाज ऋषभदेवकालीन समाज से भागे बढ़ा हुआ है-इसमें संदेह नहीं है। कृषि आदि का उस समाज में प्रचलन स्पष्ट है। इस दृष्टि से देखा जाय तो ऋषभदेव के समाज का काल ऋग्वेद से भी प्राचीन हो जाता है। कितना प्राचीन, यह कहना संभव नहीं अतएव उसको चर्चा करना निरर्थक है। जिस प्रकार जैन शास्त्रों में राजपरंपरा की स्थापना की चर्चा है और उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल की व्यवस्था है वैसे ही काल की दृष्टि से उन्नति और ह्रास का चित्र तथा राजपरंपरा की स्थापना का चित्र बौद्धपरंपरा में भी मिलता है। इसके लिए दीघनिकाय के चक्कवत्तिसुत्त ( भाग ३, पृ० ४६ ) तथा अग्गजसुत्त ( भाग ३, पृ० ६३ ) देखना चाहिए। जैनपरंपरा के कुलकरों की परंपरा में नाभि और उनके पुत्र ऋषभ का जो स्थान है करीब वैसा ही स्थान बौद्धपरंपरा में महासंमत का है ( अग्गझसुत्त-दीघ० का ) और सामयिक परिस्थिति भी दोनों में करीबकरीब समानरूप से चित्रित है। संस्कृति के विकास का उसे प्रारंभ काल कहा जा सकता है। ये सब वर्णन पौराणिक हैं, यही उसकी प्राचीनता में प्रबल प्रमाण माना जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002543
Book TitleJain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size2 MB
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