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हिन्दु पुराणों में ऋषभचरित ने स्थान पाया है और उनके माता-पिता मरुदेवी और नाभि के नाम भी वही हैं जैसा जैनपरंपरा मानती है और उनके त्याग और तपस्या का भी वही रूप है जैसा जैनपरंपरा में वर्णित है । और आश्रयं तो यह है कि उनको वेदविरोधी मान कर भी विष्णु के अवताररूप से बुद्ध की तरह माना गया है । १ यह इस बात का प्रमाण है कि ऋषभ का व्यक्तित्व प्रभावक था और जनता में प्रतिष्ठित भी । ऐसा न होता तो वैदिक परंपरा में तथा पुराणों में उनको विष्णु के अवतार का स्थान न मिलता। जैनपरंपरा में तो उनका स्थान प्रथम तीर्थंकर के रूप में निश्चित किया गया है। उनकी साधना का क्रम यज्ञ न होकर तपस्या है - यह इस बात का प्रमाण है कि वे श्रमणपरंपरा से मुख्यरूप से संबद्ध थे । श्रमणपरंपरा में यज्ञ द्वारा देव में नहीं किन्तु अपने कर्म द्वारा अपने में विश्वास मुख्य है ।
पं० श्री कैलाशचन्द्र ने शिव और ऋषभ के एकीकरण की जो संभावना प्रकट की है और जैन तथा शैव धर्म का मूल एक परंपरा में खोजने का जो प्रयास किया है वह सर्वमान्य हो या न हो किन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि ऋषभ का व्यक्तित्व ऐसा था जो वैदिकों को भी आकर्षित करता था और उनकी प्राचीनकाल से ऐसी प्रसिद्धि रही जिसकी उपेक्षा करना संभव नहीं था । अतएव ऋषभचरित ने एक या दूसरे प्रसंग से वेदों से लेकर पुराणों और अंत में श्रीमद्भागवत में भी विशिष्ट अवतारों में स्थान प्राप्त किया है । अतएव डा. जेकोबी ने भी जैनों की इस परंपरा में कि जैनधर्म का प्रारंभ ऋषभदेव से हुआ है - सत्य की संभावना मानी है । ३
डा. राधाकृष्णन् ने यजुर्वेद में ऋषभ, अजितनाथ और अरिष्टनेमि का उल्लेख होने की बात कही है किन्तु डा० शुब्रिग मानते हैं कि वैसी कोई सूचना उसमें नहीं है । ४ पं. श्री कैलाशचन्द्र ने डा० राधाकृष्णन् का समर्थन किया है । किन्तु इस विषय में निर्णय के लिए अधिक गवेषणा की आवश्यकता है ।
Vol. V. part II. p, 995;
१.
History of Dharmasastra, जैन साहित्य का इतिहास - पूर्वपीठिका, पृ० १२०.
२.
जै० सा० ३० पूर्वपीठिका, पृ० १०७. ३. देखिये – जै० सा० इ० पू०, पृ० ५. डॉक्ट्रिन ऑफ दी जैन्स, पृ० २७, टि. २. जै० सा० इ० पू०, पृ० १०८०
४.
५.
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