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________________ ( ५१ ) (४) पिण्डनियुक्ति ७६६१ , शिष्यहिता (वीरगणि = समुद्रघोष) , वृत्ति (माणिक्यशेखर) , अवचूरि (क्षमारल) (५) ओघनियुक्ति १४६०, गा० ११६२, गा० ११५४, __ गा० ११६५, गा० ११६४ , टीका (द्रोण०) सह ७३८५, ८३८५ , टीका (द्रोण०) ६५४५ ।। , अवणि (ज्ञानसागर) ३४०० (६) पाक्षिकसूत्र , वृत्ति (यशोदेव) २७०० ,, अवचुरि ६२१, १००० आगम और उनकी टीकाओं के परिमाग के उक्त निर्देश से यह पता चलता है कि आगमसाहित्य कितना विस्तृत है। उत्तराध्ययन, दशवकालिक, कल्पसूत्र तथा आवश्यकसूत्र-इनकी टीकाओं की सूची भी काफी लम्बी है। सबसे अधिक टीकाएं लिखी गई हैं कल्पसूत्र और आवश्यकसूत्र पर। इससे इन सूत्रों का विशेष पठन-पाठन सूचित होता है। जब से पर्युषण में संघसमक्ष कल्पसूत्र के वाचन की प्रतिष्ठा हुई है, इस सूत्र का अत्यधिक प्रचार हुआ है। आवश्यक तो नित्य-क्रिया का ग्रन्थ होने से उसपर अधिक टीकाएं लिखी जायं यह स्वाभाविक है । आगमों का काल: आधुनिक विदेशी विद्वानों ने इस बात को माना है कि भले ही देवधि ने पुस्तक-लेखन करके आगमों के सुरक्षा कार्य को आगे बढ़ाया किन्तु वे, जैसा कि कुछ प्राचार्य भी मानते हैं, उनके कर्ता नहीं हैं। आगम तो प्राचीन ही हैं। उन्होंने उन्हें यत्र-तत्र व्यवस्थित किया ।' आगमों में कुछ अंश प्रक्षिप्त हो सकता है किन्तु उस प्रक्षेप के कारण समग्र पागम का काल देवधि का काल नहीं हो जाता। उनमें कई अंश ऐसे हैं जो मौलिक हैं। अतएव पूरे पागम का एक काल नहीं किन्तु तत्तत् प्रागम का परीक्षण करके कालनिर्णय करना जरूरी है। सामान्य तौर पर विद्वानों ने अंग आगमों का काल प्रक्षेपों को बाद किया जाय तो पाटलिपुत्र की वाचना के काल को माना है। पाटलिपुत्र की वाचना भगवान् महावीर के १. देखें-सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट, भाग २२ की प्रस्तावना, पृ० ३६ में जेकोबी का कथन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002543
Book TitleJain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size2 MB
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