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बाद छठे प्राचार्य के काल में भद्रबाहु के समय में हुई और उसका काल है ई. पू. ४थी शताब्दी का दूसरा दशक । डा. जेकोबी ने छन्द आदि की दृष्टि से अध्ययन करके यह निश्चय किया था कि किसी भी हालत में आगम के प्राचीन अंश ई० पू० चौथी के अंत से लेकर ई० पू० तीसरी के प्रारम्भ से प्राचीन नहीं ठहरते । २ हर हालत में हम इतना तो मान ही सकते हैं कि आगमों का प्राचीन अंश ई० पूर्व का है । उन्हें देवधि के काल तक नहीं लाया जा सकता ।
वलभी में आगमों का लेखनकाल ई० ४५३ ( मतान्तर से ई० ४६६ ) माना जाता है । उस समय कितने आगम लेखबद्ध किये गये इसकी कोई सूचना नहीं मिलती । किन्तु इतनी तो कल्पना की जा सकती है कि अंग आगमों का प्रक्षेपों के साथ यह लेखन अंतिम था । अतएव अंगों के प्रक्षेपों की यही अंतिम मर्यादा हो सकती है । प्रश्नव्याकरण जैसे सर्वथा नूतन अंग की वलभी लेखन के समय क्या स्थिति थी यह एक समस्या बनी ही रहेगी । इसका हल अभी तो कोई दीखता नहीं है ।
रचनाकाल का
मान लेते हैं ।
कई विद्वान् इस लेखन के काल का और अंग श्रागमों के संमिश्रण कर देते हैं और इसी लेखनसमय को रचनाकाल भी यह तो ऐसी ही बात होगी जैसे कोई किसी हस्तप्रति के लेखनकाल को देख कर उसे ही रचनाकाल भी मान ले | ऐसा मानने पर तो समग्र वैदिक साहित्य के काल का निर्णय जिन नियमों के आधार पर किया जाता है वह नहीं होगा और हस्तप्रतियों के आधार पर ही करना होगा। सच बात तो यह है कि जैसे वैदिक वाङ्मय श्रुत है वैसे ही जैन आगमों का अंग विभाग भी श्रुत है । अतएव उसके कालनिर्णय के लिए उन्हीं नियमों का उपयोग आवश्यक है जिन नियमों का उपयोग वैदिक वाङ्मय के कालनिर्णय में किया जाता है । अंग आगम भ० महावीर का उपदेश है और उसके आधार पर उनके गणधरों ने अंगों की रचना की है । अतः रचना का प्रारंभ तो भ० महावीर के जा सकता है । उसमें जो प्रक्षेप हों उन्हें अलग कर उनका आधारों से करना चाहिए ।
आगमों में अंगबाह्य ग्रन्थ भी शामिल हुए हैं और वे तो गणधरों की रचना नहीं है अतः उनका समय निर्धारण जैसे अन्य प्राचार्यों के ग्रन्थों का समय निर्धारित
१.
२.
काल से हीं माना
समय निर्णय अन्य
Doctrine of the Jainas, p. 73.
सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट, भाग २२, प्रस्तावना, पृ० ३१ से; डोक्ट्रिन ऑफ दी
जैन्स, पृ०७३, ८१.
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