________________
( २८ ) १० पुफियानो ( पुष्पिकाः ), ११ पुप्फचूलानो ( पुष्पचूलाः ), १२ वण्हिदसानो ( वृष्णिदशाः )।
१० प्रकीर्णक-जो केवल श्वे० मूर्तिपूजक संप्रदाय को मान्य हैं
१ चउसरण ( चतुःशरण ), २ पाउरपञ्चक्खाण ( आतुरप्रत्याख्यान ), ३ भत्तपरिन्ना ( भक्तपरिज्ञा ), ४ संथार ( संस्तार ), ५ तंडुलवेयालिय ( तंडुल वैचारिक ), ६ चंदवेज्झय ( चन्द्रवेध्यक), ७ देविन्दत्यय ( देवेन्द्रस्तव ), ८ गणिविजा ( गणिविद्या ), ६ महापच्चक्खाण ( महाप्रत्याख्यान ), १० वीरत्थय ( वीरस्तव )।
६ छेद-१ आयारदसा अथवा दसा ( आचारदशा ), २ कप्प ( कल्प' ), ३ ववहार ( व्यवहार ), ४ निसीह ( निशीथ ), ५ महानिसीह ( महानिशीथ ), ६ जीयकप्प ( जीतकल्प )। इनमें से अंतिम दो स्था० और तेरापंथी को मान्य नहीं हैं।
२ चूलिकासूत्र-१ नन्दी, २ अणुयोगदारा ( अनुयोगद्वाराणि )।
४ मूलसूत्र-१ उत्तरज्झाया (उत्तराध्यायाः), २ दसवेयालिय (दशवकालिक), ३ श्रावस्सय ( आवश्यक ), ४ पिण्डनिज्जुत्ति ( पिण्डनियुक्ति )। इनमें से अंतिम स्था० और तेरा० को मान्य नहीं है।
यह जो गणना दी गई है उसमें एक के बदले कभी-कभी दूसरा भी आता है, जैसे पिण्डनियुक्ति के स्थान में प्रोधनियुक्ति । दशप्रकीर्णकों में भी नामभेद देखा जाता है। छेद में भी नामभेद है। कभी-कभी पंचकल्प को इस वर्ग में शामिल किया जाता है।
प्राचीन उपलब्ध आगमों में आगमों का जो परिचय दिया गया है उसमें यह पाठ है-"इह खलु समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं.. इमे दुवालसंगे गणिपिडगे पण्णत्ते, तं जहा-आयारे सूयगडे ठाणे समवाए वियाहपन्नत्ति नायाधम्मकहाओ उवासगदसाओ अंतगडदसाओ अणुत्तरोववाइयदसाओ पण्हावागरणं विवागसुए दिट्टिवाए। तत्थ णं जे से चउत्थे अंगे समवाए त्ति आहिए तस्स णं अयमठे पण्णत्ते" (समवाय अंग का प्रारंभ)।
१. दशाश्रुत में से पृथक् किया गया एक दूसरा कल्पसूत्र भी हैं। उसके नामसाम्य से भ्रम उत्पन्न न हो इसलिए इसका दूसरा नाम बृहत्कल्प रखा गया है।
२. देखिए-कापडिया-ए हिस्ट्री ऑफ दी केनोनिकल लिटरेचर ऑफ जैन्स, प्रकरण २.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org