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( ४० ) तदनन्तर 'संपयं पइण्णगा'-इस उल्लेख के साथ ३३ नंदी, ३४ अनुयोगदाराई, ३५ देविदत्थय, ३६ तंदुलवेयालिय, ३७ मरणसमाहि, ३८ महापञ्चक्खाण, ३६ आउरपञ्चक्खाण, ४० संथारय, ४१ चन्दाविज्झय, ४२ भत्तपरिण्णा, ४३ चउसरण, ४४ वीरत्थय, ४५ गरिणविजा, ४६ दीवसागरपण्णत्ति, ४७ संगहणी, ४८ गच्छायार, ४६ दीवसागरपण्णत्ति, ५० इसिभासियाई-इनका उस्लेख करके 'पइण्णगविही' की समाप्ति की है। इससे सूचित होता है कि इनके मत में १८ प्रकीर्णक थे। अन्त में महानिसीह का उल्लेख होने से कुल ५१ ग्रंथों का जिनप्रभ ने उल्लेख किया है।
जिनप्रभ ने संग्रहरूप जोगविहाण नामक गाथाबद्ध प्रकरण का भी उद्धरण अपने ग्रन्थ में दिया है-पृ० ६०। इस प्रकरण में भी संख्यांक देकर अंगों के नाम दिये गये हैं। योगविधिक्रम में आवस्सय और दसयालिय का सर्वप्रथम उल्लेख किया है और प्रोघ और पिण्डनियुक्ति का समावेश इन्हों में होता है-ऐसी सूचना भी दी है ( गाथा ७, पृ० ५८ )। तदनंतर नन्दी और अनुयोग का उल्लेख करके उत्तराध्ययन का निर्देश किया है। इसमें भी समवाय अंग के बाद दसा-कप्प-ववहार-निसीह का उल्लेख करके इन्हीं की 'छेदसूत्र' ऐसी संज्ञा भी दी है---गाथा-२२, पृ० ५६ । तदनंतर जीयकप्प और पंचकप्प (पणकप्प) का उल्लेख होने से प्रकरणकार के समय तक संभव है ये छेदसूत्र के वर्ग में संमिलित न किये गए हों। पंचकल्प के बाद प्रोवाइय आदि चार उपांगों की बात कह कर विवाहपण्णत्ति से लेकर विवाग अंगों का उल्लेख है। तदनन्तर चार प्रज्ञप्ति-सूर्यप्रज्ञप्ति आदि निर्दिष्ट हैं। तदनन्तर निरयावलिया का उल्लेख करके उपांगदर्शक पूर्वोक्त गाथा (नं ६०) निर्दिष्ट है। तदनन्तर देविदत्थय आदि प्रकीर्णक की तपस्या का निर्देश कर के इसिभासिय का उल्लेख है। यह भी मत उल्लिखित है जिसके अनुसार इसिभासिय का समावेश उत्तराध्ययन में हो जाता है (गाथा ६२, पृ० ६२)। अन्त में सामाचारीविषयक परम्परा भेद को देखकर शंका नहीं करनी चाहिए यह भी उपदेश है-गाथा ६६.
जिनप्रभ के समय तक सांप्रतकाल में प्रसिद्ध वर्गीकरण स्थिर हो गया था इसका पता 'वायरणाविहीं के उत्थानमें उन्होंने जो वाक्य दिया उससे लगता है—“एवं कप्पतिप्पाइविहिपुरस्सरं साहू समाणियसयलजोगविही मूलग्गन्थ-नन्दिअणुओगदार-उत्तरज्ज्ञयण-इसिभासिय-अंग-उवंग-पइन्नय-छेयग्गन्थआगमे
१. गच्छायार के बाद- 'इच्चाइ पइएणगाणि' ऐसा उल्लेख होने से कुछ अन्य भी प्रकीर्णक होंगे जिनका उल्लेख नामपूर्वक नहीं किया गया-पृ० ५८.
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