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( ३६ ) पासीविसभावणा-दिट्ठिविसभावणा-चारणभावणा-महासुमिणभावणा-तेयनिसग्गे । एगूणवीसवासो दिट्ठीवायं संपुन्नवीसवासो सव्वसुत्तजोगो त्ति" ॥ (पृ० ५६)। इसके बाद “इयाणिं उगा" ऐसा लिखकर जिस अंग का जो उपांग है उसका निर्देश इस प्रकार किया है
अंग
प्राचार
सूयगड ३ ठाण ४ समवाय ५ भगवई ६ नाया(धम्म)
७ उवासगदसा ८-१२ अंतगडदसादि
उपांग २१ प्रोवाइय २२ रायपसेणइय २३ जीवाभिगम २४ पण्णवणा २५ सूरपण्णत्ति २६ जंबुद्दीवपण्णत्ति
२७ चंदपण्णत्ति २८-३२ निरयावलिया
सुयक्खंध ( २८ 'कप्पिया' २६ कप्पडिसिया, ३० पुप्फिया, ३१ पुप्फचूलिया, ३२ वण्हिदसा )
प्रा० जिनप्रभ ने मतान्तर का भी उल्लेख किया है कि "अण्णे पुण चंदपण्णत्ति, सूरपणत्ति च भगवईउवंगे भगति । तेसि मरण उवासगदसाईण पंचण्हमंगाणं उवगं निरयावलियासुयक्खंधों"-पृ० ५७.
- इस मत का उत्थान इस कारण से हुआ होगा कि जब ११ अंग उपलब्ध हैं
और बारहवां अंग उपलब्ध ही नहीं तो उसके उपांग की अनावश्यकता है। अतएव भगवती के दो उपांग मान कर ग्यारह अंग और बारह उपांग की संगति बैठाने का यह प्रयत्न है। अंत में श्रीचन्द्र की सुखबोधा सामाचारी में प्राप्त • गाथा उद्धृत करके 'उवंगविही की समाप्ति की है।
१. श्रीचंद्र की सुखबोधा सामाचारी में इसके स्थान में निरयावलिया का निर्देश है।
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