Book Title: Agam 10 Prashnavyakaran Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथाय नम: पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरूभ्यो नमः आगम-१० प्रश्नव्याकरण आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद अनुवादक एवं सम्पादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ] आगम हिन्दी-अनुवाद-श्रेणी पुष्प-१० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' आगमसूत्र-१०- "प्रश्नव्याकरण' अंगसूत्र-१० -हिन्दी अनुवाद कहां क्या देखे? क्रम विषय पृष्ठ । क्रम विषय पृष्ठ ०१ ०२ १२ । ०७ ३८ | आश्रवद्वार-१ हिंसा आश्रवद्वार-२ मृषा ०३ आश्रवद्वार-३ अदत्तादान आश्रवद्वार-४ अब्रह्मचर्य ०५ आश्रवद्वार-५ परिग्रह ०५ । ०६ संवरद्वार-१ अहिंसा संवरद्वार-२ सत्य १६ - ०८ संवरद्वार-३ अचौर्य संवरद्वार-४ ब्रह्मचर्य ३१ संवरद्वार-५ अपरिग्रह ४१ ०४ o ४४ १० मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 2 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक ४५ आगम वर्गीकरण सूत्र क्रम क्रम आगम का नाम आगम का नाम आ सूत्र ०१ | आचार आतुरप्रत्याख्यान पयन्नासूत्र-२ सूत्रकृत् २६ पयन्नासूत्र-३ स्थान महाप्रत्याख्यान २७ भक्तपरिज्ञा | तंदुलवैचारिक पयन्नासूत्र-४ समवाय पयन्नासूत्र-५ २९ संस्तारक भगवती ०६ ज्ञाताधर्मकथा अंगसूत्र-१ अंगसूत्र-२ अंगसूत्र-३ अंगसूत्र-४ अंगसूत्र-५ अंगसूत्र-६ अंगसूत्र-७ अंगसूत्र-८ अंगसूत्र-९ अंगसूत्र-१० अंगसूत्र-११ उपांगसूत्र-१ ३०.१ | गच्छाचार ३०.२ | चन्द्रवेध्यक उपासकदशा अंतकृत् दशा गणिविद्या पयन्नासूत्र-६ पयन्नासूत्र-७ पयन्नासूत्र-७ पयन्नासूत्र-८ पयन्नासूत्र-९ पयन्नासूत्र-१० छेदसूत्र-१ देवेन्द्रस्तव वीरस्तव अनुत्तरोपपातिकदशा प्रश्नव्याकरणदशा ११ | विपाकश्रुत | औपपातिक ३४ । निशीथ १२ ३५ बृहत्कल्प छेदसूत्र-२ १३ उपांगसूत्र-२ व्यवहार राजप्रश्चिय | जीवाजीवाभिगम १४ उपांगसत्र-३ ३७ १५ प्रज्ञापना उपागसूत्र-४ दशाश्रुतस्कन्ध जीतकल्प ३९ महानिशीथ ३८ उपांगसूत्र-५ १७ उपांगसूत्र-६ १६ | सूर्यप्रज्ञप्ति | चन्द्रप्रज्ञप्ति | जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति १९ | निरयावलिका छेदसूत्र-३ छेदसूत्र-४ छेदसूत्र-५ छेदसूत्र-६ मूलसूत्र-१ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-३ मूलसूत्र-४ चूलिकासूत्र-१ १८ उपांगसूत्र-७ उपागसूत्र-८ ४० । आवश्यक ४१.१ | ओघनियुक्ति | पिंडनियुक्ति दशवैकालिक ४३ उत्तराध्ययन ४४ । नन्दी २० | कल्पवतंसिका ४२ पुष्पिका उपांगसूत्र-९ उपांगसूत्र-१० उपांगसूत्र-११ उपांगसूत्र-१२ पुष्पचूलिका अनुयोगद्वार चूलिकासूत्र-२ वृष्णिदशा २४ | चतु:शरण पयन्नासूत्र-१ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 3 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक 10 [45] 06 मुनि दीपरत्नसागरजी प्रकाशित साहित्य आगम साहित्य आगम साहित्य साहित्य नाम बक्स क्रम साहित्य नाम मूल आगम साहित्य: 147 6 | आगम अन्य साहित्य:1-1- आगमसुत्ताणि-मूलं print [49] -1- याराम थानुयोग 06 -2- आगमसुत्ताणि-मूलं Net -2- आगम संबंधी साहित्य 02 -3- आगममञ्जूषा (मूल प्रत) [53] | -3- ऋषिभाषित सूत्राणि 01 आगम अनुवाद साहित्य:165 -4- आगमिय सूक्तावली 01 1-1-मागमसूत्रगुती सनुवाई [47] | | आगम साहित्य- कुल पुस्तक 516 -2- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद Net: [47] | -3- Aagamsootra English Trans. | [11] | -4- सामसूत्रसटी ४राती सनुवाई | [48] -5- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद print [12] अन्य साहित्य:3 आगम विवेचन साहित्य:171 1तवाल्यास साहित्य -13 -1- आगमसूत्र सटीक [46] 2 सूत्रात्यास साहित्य-2- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-11151]| 3 વ્યાકરણ સાહિત્ય 05 | -3- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-20 વ્યાખ્યાન સાહિત્ય 04 -4-आगम चूर्णि साहित्य [09] 5 उनलत साहित्य 09 | -5- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-1 [40] 6 aoसाहित्य-6- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-2 [08] 7 माराधना साहित्य 03 |-7- सचूर्णिक आगमसुत्ताणि [08] 8 परियय साहित्य 04 आगम कोष साहित्य: 149 પૂજન સાહિત્ય 02 -1- आगम सद्दकोसो [04] 10 तीर्थं5२ संक्षिप्त र्शन -2- आगम कहाकोसो [01]| 11 ही साहित्य 05 -3-आगम-सागर-कोष: [05] 12 દીપરત્નસાગરના લઘુશોધનિબંધ -4- आगम-शब्दादि-संग्रह (प्रा-सं-गु) [04] | આગમ સિવાયનું સાહિત્ય કૂલ પુસ્તક आगम अनुक्रम साहित्य: 09 -1- भागमविषयानुभ- (भूग) 02 | 1-आगम साहित्य (कुल पुस्तक) -2- आगम विषयानुक्रम (सटीक) 04 2-आगमेतर साहित्य (कुल -3- आगम सूत्र-गाथा अनुक्रम दीपरत्नसागरजी के कुल प्रकाशन 60 KAAREमुनिहीपरत्नसागरनुं साहित्य | भुनिटीपरत्नसागरनु आगम साहित्य [ पुस्त8 516] तेजा पाना [98,300] 2 भुनिटीपरत्नसागरनुं मन्य साहित्य [हुत पुस्त8 85] तना हुस पाना [09,270] मुनिहीपरत्नसागर संशसित तत्वार्थसूत्र'नी विशिष्ट DVD तेनाल पाना [27,930] | सभा। प्राशनोहुला १०१ + विशिष्ट DVD हुआ पाना 1,35,500 04 25 05 85 5 08 | 03 मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 4 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक १० प्रश्नव्याकरण अंगसूत्र-१०- हिन्दी अनुवाद अध्ययन-१ - आस्रवद्वार-१ सूत्र-१ उस काल, उस समय चम्पानगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र चैत्य था, वनखण्ड था । उसमें उत्तम अशोकवृक्ष था । वहाँ पृथ्वीशिलापट्टक था । राजा कोणिक था और उसकी पटरानी का धारिणी था। उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी स्थविर आर्य सधर्मा थे । वे जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, बलसम्पन्न, रूपसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, लज्जासम्पन्न, लाघवसम्पन्न, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी, क्रोध-मान-माया-लोभ-विजेता, निदा, इन्द्रियों और परीषहों के विजेता, जीवन की कामना और मरण की भीति से विमुक्त, तपप्रधान, गुणप्रधान, मुक्तिप्रधान, विद्याप्रधान, मन्त्रप्रधान, ब्रह्मप्रधान, व्रतप्रधान, नयप्रधान, नियमप्रधान, सत्यप्रधान, शौचप्रधान, ज्ञान-दर्शन-चारित्रप्रधान, चतुर्दश पूर्वो के वेत्ता, चार ज्ञानों से सम्पन्न, पाँच सौ अनगारों से परिवृत्त, पूर्वानुपूर्वी से चलते, ग्राम-ग्राम विचरते चम्पा नगरी में पधारे । संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए ठहरे। उस काल, उस समय, आर्य सुधर्मा के शिष्य आर्य जम्बू साथ थे । वे काश्यपगोत्रीय थे । उनका शरीर सात हाथ ऊंचा था...(यावत्) उन्होंने अपनी विपुल तेजोलेश्या को अपने में ही समा रखा था । वे आर्य सुधर्मा से न अधिक द्र दूर और न अधिक समीप, घुटने ऊपर करके और नतमस्तक होकर संयम एवं तपश्चर्या से आत्मा को भावित कर रहे थे ।-पर्षदा नीकली । धर्मकथन हुआ । पर्षदा वापस लौट गई । एक बार आर्य जम्बू के मनमें जिज्ञासा उत्पन्न हुई और वे आर्य सुधर्मा के निकट पहुँचे । आर्य सुधर्मा की तीन बार प्रदक्षिणा की, उन्हें वन्दन किया, नमस्कार किया। फिर विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर अंजलि करके, पर्युपासना करते हुए बोले भंते ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने नौवें अंग अनुत्तरौपपातिक दशा का यह अर्थ कहा है तो दसवें अंग प्रश्नव्याकरण का क्या अर्थ कहा है? जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने दसवें अंग के दो श्रुतस्कन्ध कहे हैं-आस्रवद्वार और संवरद्वार | प्रथम और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पाँच-पाँच अध्ययन प्ररूपित किए हैं । भन्ते ! श्रमण भगवान ने आस्रव और संवर का क्या अर्थ कहा है ? तब आर्य सुधर्मा ने जम्बू अनगार को इस प्रकार कहासूत्र-२ हे जम्बू ! आस्रव और संवर का भलीभाँति निश्चय कराने वाले प्रवचन के सार को मैं कहूँगा, जो महर्षियोंतीर्थंकरों एवं गणधरों आदि के द्वारा निश्चय करने के लिए सुभाषित है-समीचीन रूप से कहा गया है। सूत्र-३ जिनेश्वर देव ने इस जगत में अनादि आस्रव को पाँच प्रकार का कहा है-हिंसा, असत्य, अदत्तादान, अब्रह्म और परिग्रह। सूत्र -४ प्राणवधरूप प्रथम आस्रव जैसा है, उसके जो नाम हैं, जिन पापी प्राणियों द्वारा वह किया जाता है, जिस प्रकार किया जाता है और जैसा फल प्रदान करता है, उसे तुम सूनो । सूत्र-५ जिनेश्वर भगवान ने प्राणवध को इस प्रकार कहा है-यथा पाप, चण्ड, रुद्र, क्षुद्र, साहसिक, अनार्य, निघृण, मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 5 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक नृशंस, महाभय, प्रतिभय, अतिभय, भापनक, त्रासनक, अन्याय, उद्वेगजनक, निरपेक्ष, निर्धर्म, निष्पिपास, निष्करुण, नरकवास गमन-निधन, मोहमहाभय प्रवर्तक और मरणवैमनस्य यह प्रथम अधर्मद्वार है। सूत्र-६ प्राणवधरूप हिंसा के गुणवाचक तीस नाम हैं । यथा-प्राणवध, शरीर से (प्राणों का) उन्मूलन, अविश्वास, हिंस्यविहिंसा, अकृत्य, घात, मारण, वधना, उपद्रव, अतिपातना, आरम्भ-समारंभ, आयुकर्म का उपद्रव-भेदनिष्ठापन-गालना-संवर्तक और संक्षेप, मृत्यु, असंयम, कटकमर्दन, व्युपरमण, परभवसंक्रामणकारक, दुर्गतिप्रपात, पापकोप, पापलोभ, छविच्छेद, जीवित-अंतकरण, भयंकर, ऋणकर, वज्र, परितापन आस्रव, विनाश, निर्यापना, लुंपना और गुणों की विराधना । इत्यादि प्राणवध के कलुष फल के निर्देशक ये तीस नाम हैं। सूत्र-७ कितने ही पातकी, संयमविहीन, तपश्चर्या के अनुष्ठान से रहित, अनुपशान्त परिणाम वाले एवं जिनके मन, वचन और काम का व्यापार दुष्ट है, जो अन्य प्राणियों को पीड़ा पहुँचाने में आसक्त रहते हैं तथा त्रस और स्थावर जीवों की प्रति द्वेषभाव वाले हैं, वे अनेक प्रकारों से हिंसा किया करते हैं । वे कैसे हिंसा करते हैं ? मछली, बड़े मत्स्य, महामत्स्य, अनेक प्रकार की मछलियाँ, अनेक प्रकार के मेंढक, दो प्रकार के कच्छप दो प्रकार के मगर, ग्राह, मंडूक, सीमाकार, पुलक आदि ग्राह के प्रकार, सुंसुमार इत्यादि अनेकानेक प्रकार के जलचर जीवों का घात करते हैं। कुरंग और रुरु जाति के हिरण, सरभ, चमर, संबर, उरभ्र, शशक, पसय, बैल, रोहित, घोड़ा, हाथी, गधा, ऊंट, गेंडा, वानर, रोझ, भेड़िया, शृंगाल, गीदड़, शूकर, बिल्ली, कोलशुनक, श्रीकंदलक एवं आवर्त नामक खुर वाले पशु, लोमड़ी, गोकर्ण, मृग, भैंसा, व्याघ्र, बकरा, द्वीपिक, श्वान, तरक्ष, रीछ, सिंह, केसरीसिंह, चित्तल, इत्यादि चतुष्पद प्राणी हैं, जिनकी पूर्वोक्त पापी हिंसा करते हैं । अजगर, गोणस, दृष्टिविष सर्प-फेन वाला साँप, काकोदरसामान्य सर्प, दर्वीकर सर्प, आसालिक, महोरग, इन सब और इस प्रकार के अन्य उरपरिसर्प जीवों का पापी वध करते हैं । क्षीरल, शरम्ब, सेही, शल्यक, गोह, उंदर, नकुल, गिरगिट, जाहक, गिलहरी, छडूंदर, गिल्लोरी, वातोत्पत्तिका, छिपकली, इत्यादि अनेक प्रकार के भुजपरिसर्प जीवों का वध करते हैं। हंस, बगला, बलाका, सारस, आडा, सेतीय, कलल, वंजल, परिप्लव, तोता, तीतर, दीपिका, श्वेत हंस, धार्तराष्ट्र, भासक, कुटीक्रोश, क्रौंच, दकतुंडक, ढेलियाणक, सुघरी, कपिल, पिंगलाक्ष, कारंडक, चक्रवाक, उक्कोस, गरुड़, पिंगुल, शुक, मयूर, मैना, नन्दीमुख, नन्दमानक, कोरंग, भंगारक, कुणालक, चातक, तित्तिर, वर्तक, लावक, कपिंजल, कबूतर, पारावत, परेवा, चिड़िया, ढिंक, कुकड़ा, वेसर, मयूर, चकोर, हृदपुण्डरीक, करक, चील, बाज, वायस, विहग, श्वेत चास, वल्गुली, चमगादड़, विततपक्षी, समुद्गपक्षी, इत्यादि पक्षियों की अनेकानेक जातियाँ हैं, हिंसक जीव इनकी हिंसा करते हैं। जल, स्थल और आकाश में विचरण करने वाले पंचेन्द्रिय प्राणी तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय अथवा चतुरिन्द्रिय प्राणी अनेकानेक प्रकार के हैं । इन सभी प्राणियों को जीवित रहना प्रिय है । मरण का दुःख अप्रिय है। फिर भी अत्यन्त संक्लिष्टकर्मा-पापी पुरुष इन बेचारे दीन-हीन प्राणियों का वध करते हैं । चमड़ा, चर्बी, माँस, मेद, रक्त, यकृत, फेफड़ा, भेजा, हृदय, आंत, पित्ताशय, फोफस, दाँत, अस्थि, मज्जा, नाखून, नेत्र, कान, स्नायु, नाक, धमनी, सींग, दाढ़, पिच्छ, विष, विषाण और बालों के लिए (हिंसक प्राणी जीवों की हिंसा करते हैं) । रसासक्त मनुष्य मधु के लिए-मधुमक्खियों का हनन करते हैं, शारीरिक सुख या दुःखनिवारण करने के लिए खटमल आदि त्रीन्द्रियों का वध करते हैं, वस्त्रों के लिए अनेक द्वीन्द्रिय कीड़ों आदि का घात करते हैं। अन्य अनेकानेक प्रयोजनों से त्रस-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय-जीवों का घात करते हैं तथा बहुत-से एकेन्द्रिय जीवों का उनके आश्रय से रहे हुए अन्य सूक्ष्म शरीर वाले त्रस जीवों का समारंभ करते हैं । ये प्राणी त्राणरहित हैं-अशरण हैं-अनाथ हैं, बान्धवों रहित हैं और बेचारे अपने कृत कर्मों की बेड़ियों से जकड़े हुए मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 6 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक हैं । जिनके परिणाम-अशुभ हैं, जो मन्दबुद्धि हैं, वे इन प्राणियों को नहीं जानते । वे अज्ञानी जन न पृथ्वीकाय को जानते हैं, न पृथ्वीकाय के आश्रित रहे अन्य स्थावरों एवं त्रस जीवों को जानते हैं । उन्हें जलकायिक तथा जल में रहने वाले अन्य जीवों का ज्ञान नहीं है । उन्हें अग्निकाय, वायुकाय, तृण तथा (अन्य) वनस्पतिकाय के एवं इनके आधार पर रहे हुए अन्य जीवों का परिज्ञान नहीं है । ये प्राणी उन्हीं के स्वरूप वाले, उन्हीं के आधार से जीवित रहने वाले अथवा उन्हीं का आहार करने वाले हैं । उन जीवों का वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शरीर अपने आश्रयभूत पृथ्वी, जल आदि सदृश होता है । उनमें से कोई जीव नेत्रों से दिखाई नहीं देते हैं और कोई-कोई दिखाई देते हैं । ऐसे असंख्य त्रसकायिक जीवों की तथा अनन्त सूक्ष्म, बादर, प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर वाले स्थावरकाय के जीवों की जानबूझ कर या अनजाने इन कारणों से हिंसा करते हैं। वे कारण कौन से हैं, जिनसे (पृथ्वीकायिक) जीवों का वध किया जाता है ? कृषि, पुष्करिणी, वावड़ी, क्यारी, कप, सर, तालाब, भित्ति, वेदिका, खाई, आराम, विहार, स्तप, प्राकार, द्वार, गोपर, अटारी, चरिका, सेतपुल, संक्रम, प्रासाद, विकल्प, भवन, गह, झोंपडी, लयन, दुकान, चैत्य, देवकुल, चित्रसभा, प्याऊ, आयतन, देवस्थान, आवसथ, भूमिगृह और मंडप आदि के लिए तथा भाजन, भाण्ड आदि एवं उपकरणों के लिए मन्दबुद्धि जन पृथ्वीकाय की हिंसा करते हैं। स्नान, पान, भोजन, वस्त्र धोना एवं शौच आदि की शुद्धि, इत्यादि कारणों से जलकायिक जीवों की हिंसा की जाती है । भोजनादि पकाने, पकवाने, जलाने तथा प्रकाश करने के लिए अग्निकाय के जीवों की हिंसा की जाती है । सूप, पंखा, ताड़ का पंखा, मयूरपंख, मुख, हथेलियों, सागवान आदि के पत्ते तथा वस्त्र-खण्ड आदि से वायुकाय के जीवों की हिंसा की जाती है। गृह, परिचार, भक्ष्य, भोजन, शयन, आसन, फलक, मूसल, ओखली, तत, वितत, आतोद्य, वहन, वाहन, मण्डप, अनेक प्रकार के भवन, तोरण, विडंग, देवकुल, झरोखा, अर्द्धचन्द्र, सोपान, द्वारशाखा, अटारी, वेदी, निःसरणी, द्रौणी, चंगेरी, खूटी, खम्भा, सभागार, प्याऊ, आवसथ, मठ, गंध, माला, विलेपन, वस्त्र, जूवा, हल, मतिक, कुलिक, स्यन्दन, शिबिका, रथ, शकट, यान, युग्य, अट्टालिका, चरिका, परिघ, फाटक, आगल, अरहट आदि, शूली, लाठी, मुसुंढी, शतध्नी, ढक्कन एवं अन्य उपकरण बनाने के लिए और इसी प्रकार के ऊपर कहे गए तथा नहीं कहे गए ऐसे बहुत-से सैकड़ों कारणों से अज्ञानी जन वनस्पतिकाय की हिंसा करते हैं। ढ-अज्ञानी, दारुण मति वाले पुरुष क्रोध, मान, माया और लोभ के वशीभत होकर तथा हँसी, रति, एवं शोक के अधीन होकर, वेदानुष्ठान के अर्थी होकर, जीवन, धर्म, अर्थ एवं काम के लिए, स्ववश और परवश होकर प्रयोजन से और बिना प्रयोजन त्रस तथा स्थावर जीवों का, जो अशक्त हैं, घात करते हैं । (ऐसे हिंसक प्राणी वस्तुतः) मन्दबुद्धि हैं । वे बुद्धिहीन क्रूर प्राणी स्ववश होकर घात करते हैं, विवश होकर, स्ववशविवश दोनों प्रकार से, सप्रयोजन एवं निष्प्रयोजन तथा सप्रयोजन और निष्प्रयोजन दोनों प्रकार से घात करते हैं। हास्य-विनोद से, वैर से और अनुराग से प्रेरित होकर हिंसा करते हैं । क्रुद्ध होकर, लुब्ध होकर, मुग्ध होकर, क्रुद्धलुब्ध-मुग्ध होकर हनन करते हैं, अर्थ के लिए, धर्म के लिए, काम-भोग के लिए तथा अर्थ-धर्म-कामभोग तीनों के लिए घात करते हैं। सूत्र-८ वे हिंसक प्राणी कौन हैं ? शौकरिक, मत्स्यबन्धक, मृगों, हिरणों को फँसाकर मारने वाले, क्रूरकर्मा वागुरिक, चीता, बन्धनप्रयोग, छोटी नौका, गल, जाल, बाज पक्षी, लोहे का जाल, दर्भ, कूटपाश, इन सब साधनों को हाथ में लेकर फिरने वाले, चाण्डाल, चिड़ीमार, बाज पक्षी तथा जाल को रखने वाले, वनचर, मधु-मक्खियों का घात करने वाले, पोतघातक, मृगों को आकर्षित करने के लिए मुगियों का पालन करने वाले, सरोवर, ह्रद, वापी, तालाब, पल्लव, खाली करने वाले, जलाशय को सूखाने वाले, विष अथवा गरल को खिलाने वाले, घास एवं खेत को निर्दयतापूर्वक जलाने वाले, ये सब क्रूरकर्मकारी हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 7 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक ये बहत-सी म्लेच्छ जातियाँ हैं, जो हिंसक हैं । वे कौन-सी हैं ? शक, यवन, शबर, बब्बर, काय, मुरुंड, उद, भडक, तित्तिक, पक्कणिक, कुलाक्ष, गौड, सिंहल, पारस, क्रौंच, आन्ध्र, द्रविड़, विल्वल, पुलिंद, आरोष, डौंब, पोकण, गान्धार, बहलीक, जल्ल, रोम, मास, वकुश, मलय, चुंचुक, चूलिक, कोंकण, मेद, पण्हव, मालव, महुर, आभाषिक, अणक्क, चीन, ल्हासिक, खस, खासिक, नेहुर, मरहष्ट्र, मौष्टिक, आरब, डोबलिक, कुहण, कैकय, हूण, रोमक, रुरु, मरुक, चिलात, इन देशों के निवासी, जो पाप बुद्धि वाले हैं, वे जो अशुभ लेश्या-परिणाम वाले हैं, वे जलचर, स्थलचर, सनखपद, उरग, नभश्चर, संडासी जैसी चोंच वाले आदि जीवों का घात करके अपनी आजीविका चलाते हैं । वे संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों का हनन करते हैं । वे पापी जन पाप को ही उपादेय मानते हैं । पाप में ही उनकी रुचि-होती है । वे प्राणिघात करके प्रसन्नता अनुभवते हैं । उनका अनुष्ठानप्राणवध करना ही होता है । प्राणियों की हिंसा की कथा में ही आनन्द मानते हैं । वे अनेक प्रकार के पाप का आचरण करके संतोष अनुभव करते हैं। (पूर्वोक्त मूढ़ हिंसक लोग) हिंसा के फल-विपाक को नहीं जानते हुए, अत्यन्त भयानक एवं दीर्घकाल पर्यन्त बहुत-से दुःखों से व्याप्त-एवं अविश्रान्त-लगातार निरन्तर होने वाली दुःखरूप वेदना वाली नरकयोनि और तिर्यञ्चयोनि को बढ़ाते हैं। पूर्ववर्णित हिंसाकारी पापीजन यहाँ, मृत्यु को प्राप्त होकर अशुभ कर्मों की बहुलता के कारण शीघ्र हीनरकों में उत्पन्न होते हैं । नरक बहुत विशाल है। उनकी भित्तियाँ वज्रमय हैं । उन भित्तियों में कोई सन्धिछिद्र नहीं है, बाहर नीकलने के लिए कोई द्वार नहीं है । वहाँ की भूमि कठोर है । वह नरक रूपी कारागार विषम है । वहाँ नारकावास अत्यन्त उष्ण एवं तप्त रहते हैं । वे जीव वहाँ दुर्गन्ध-के कारण सदैव उद्विग्न रहते हैं । वहाँ का दृश्य ही अत्यन्त बीभत्स है । वहाँ हिम-पटल के सदृश शीतलता है । वे नरक भयंकर हैं, गंभीर एवं रोमांच खड़े कर देने वाले हैं । धृणास्पद हैं । असाध्य व्याधियों, रोगों एवं जरा से पीड़ा पहुंचाने वाले हैं । वहाँ सदैव अन्धकार रहने के कारण प्रत्येक वस्तु अतीव भयानक लगती है । ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र आदि की ज्योति का अभाव है, मेद, वसा, माँस के ढेर होने से वह स्थान अत्यन्त धृणास्पद है । पीव और रुधिर के बहने से वहाँ की भूमि गीली और चिकनी रहती है और कीचड़-सी बनी रहती है। वहाँ का स्पर्श दहकती हुई करीष की अग्नि या खदिर की अग्नि के समान उष्ण तथा तलवार, उस्तरा अथवा करवत की धार के सदश तीक्ष्ण है । वह स्पर्श बिच्छ के डंक से भी अधिक वेदना उत्पन्न करने वाला अतिशय दुस्सह है । वहाँ के नारक जीव त्राण और शरण से विहीन हैं । वे नरक कटुक दुःखों के कारण घोर परिणाम उत्पन्न करने वाले हैं । वहाँ लगातार दुःखरूप वेदना चालु ही रहती है । वहाँ परमाधामी देव भरे पड़े हैं । नारकों को भयंकर-भयंकर यातनाएं देते हैं। वे पूर्वोक्त पापी जीव नरकभूमि में उत्पन्न होते ही अन्तर्मुहूर्त में नरकभवकारणक लब्धि से अपने शरीर का निर्माण कर लेते हैं । वह शरीर हुंडक संस्थान वाला-बेडौल, भद्दी आकृति वाला, देखने में बीभत्स, घृणित, भयानक, अस्थियों, नसों, नाखूनों और रोमों से रहित; अशुभ और दुःखों को सहन करने में सक्षम होता है । शरीर का निर्माण हो जाने के पश्चात् वे पर्याप्तियों से-पर्याप्त हो जाते हैं और पाँचों इन्द्रियों से अशुभ वेदना का वेदन करते हैं। उनकी वेदना उज्ज्वल, बलवती, विपुल, उत्कट, प्रखर, परुष, प्रचण्ड, घोर, डरावनी और दारुण होती है नारकों को जो वेदनाएं भोगनी पड़ती हैं, वै-कैसी हैं ? नारक जीवों को-कढाव जैसे चौडे मुख के पात्र में और महाकुंभी-सरीखे महापात्र में पकाया और उबाला जाता है । सेका जाता है । पूँजा जाता है । लोहे की कढ़ाई में ईख के रस के समान औटाया जाता है । -उनकी काया के खंड-खंड कर दिये जाते हैं । लोहे के तीखे शूल के समान तीक्ष्ण काँटों वाले शाल्मलिवृक्ष के काँटों पर उन्हें इधर-उधर घसीटा जाता है । काष्ठ के समान उनकी चीरफाड़ की जाती है । उनके पैर और हाथ जकड़ दिये जाते हैं । सैकड़ों लाठियों से उन पर प्रहार किये जाते हैं । गले में फंदा डालकर लटका दिया जाता है । शूली के अग्रभाग से भेदा जाता है । झूठे आदेश देकर उन्हें ठगा जाता है। उनकी भर्त्सना की जाती है । उन्हें वधभूमि में घसीट कर ले जाया जाता है । वध्य जीवों को दिए जाने वाले सैकड़ों मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 8 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक प्रकार के दुःख उन्हें दिये जाते हैं । इस प्रकार वे नारक जीव पूर्व जन्म में किए हुए कर्मों के संचय से संतप्त रहते हैं। महा-अग्नि के समान नरक की अग्नि से तीव्रता के साथ जलते रहते हैं । वे पापकृत्य करने वाले जीव प्रगाढ़ दुःखमय, घोर भय उत्पन्न करने वाली, अतिशय कर्कश एवं उग्र शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार की असातारूप वेदना बहुत पल्योपम और सागरोपम काल तक रहती है । अपनी आयु के अनुसार करुण अवस्था में रहते हैं । वे यमकालिक देवों द्वारा त्रास को प्राप्त होते हैं और भयभीत होकर शब्द करते हैं-(नारक जीव) किस प्रकार रोते-चिल्लाते हैं ? हे अज्ञातबन्धु ! हे स्वामिन् ! हे भ्राता ! अरे बाप ! हे तात ! हे विजेता ! मुझे छोड़ दो । मैं मर रहा हूँ। मैं दुर्बल हूँ। मैं व्याधि से पीड़ित हूँ। आप क्यों ऐसे दारुण एवं निर्दय हो रहे हैं ? मेरे ऊपर प्रहार मत करो । मुहूर्त्तभर साँस तो लेने दीजिए । दया कीजिए । रोष न कीजिए । मैं जरा विश्राम ले लँ । मेरा गला छोड दीजिए । मैं: रहा हूँ। मैं प्यास से पीड़ित हूँ । पानी दे दीजिए । 'अच्छा, हाँ, यह निर्मल और शीतल जल पीओ।' ऐसा कहकर नरकपाल नारकों को पकड़कर खौला हआ सीसा कलश से उनकी अंजली में उड़ेल देते हैं । उसे देखते ही उनके अंगोपांग काँपने लगते हैं । उनके नेत्रों से आँसू टपकने लगते हैं । फिर वे कहते हैं-'हमारी प्यास शान्त हो गई !' इस प्रकार करुणापूर्ण वचन बोलते हुए भागने के लिए दिशाएं देखने लगते हैं । अन्ततः वे त्राणहीन, शरणहीन, अनाथ, बन्धुविहीन-एवं भय के मारे धबड़ा करके मृग की तरह बड़े वेग से भागते हैं। कोई-कोई अनुकम्पा-विहीन यमकायिक उपहास करते हुए इधर-उधर भागते हुए उन नारक जीवों को जबरदस्ती पकड़कर और लोहे के डंडे से उनका मुख फाड़कर उसमें उबलता हुआ शीशा डाल देते हैं । उबलते शीशे से दग्ध होकर वे नारक भयानक आर्तनाद करते हैं । वे कबूतर की तरह करुणाजनक आक्रंदन करते हैं, खूब रुदन करते हुए अश्रु बहाते हैं । नरकापाल उन्हें रोक लेते हैं, बाँध देते हैं । तब आर्तनाद करते हैं, हाहाकार करते हैं, बड़बड़ाते हैं, तब नरकापाल कुपित होकर और उच्च ध्वनि से उन्हें धमकाते हैं । कहते हैं-इसे पकड़ो, मारो, प्रहार करो, छेद डालो, भेद डालो, इसकी चमड़ी उधेड़ दो, नेत्र बाहर नीकाल लो, इसे काट डालो, खण्ड-खण्ड कर डालो, हनन करो, इसके मुख में शीशा उड़ेल दो, इसे उठाकर पटक दो या मुख में और शीशा डाल दो, घसीटो, उलटो, घसीटो । नरकपाल फिर फटकारते हुए कहते हैं-बोलता क्यों नहीं ! अपने पापकर्मों को, अपने कुकर्मों को स्मरण कर ! इस प्रकार अत्यन्त कर्कश नरकपालों की ध्वनि की वहाँ प्रतिध्वनि होती है । नारक जीवों के लिए वह ऐसी सदैव त्रासजनक होती है कि जैसे किसी महानगर में आग लगने पर घोर शब्द-होता है, उसी प्रकार निरन्तर यातनाएं भोगने वाले नारकों का अनिष्ट निर्घोष वहाँ सुना जाता है। वे यातनाएं कैसी हैं? नारकों को असि-वन में चलने को बाध्य किया जाता है, तीखी नोक वाले दर्भ के वन में चलाया जाता है, कोल्हू में डाल कर पेरा जाता है, सूई की नोक समान अतीव तीक्ष्ण कण्टकों के सदृश स्पर्श वाली भूमि पर चलाया जाता है, क्षारयुक्त पानी वाली वापिका में पटक दिया जाता है, उबलते हुए सीसे आदि से भरी वैतरणी नदी में बहाया जाता है, कदम्बपुष्प के समान-अत्यन्त तप्त-रेत पर चलाया जाता है, जलती हुई गुफा में बंद कर दिया जाता है, उष्णोष्ण एवं कण्टकाकीर्ण दुर्गम-मार्ग में रथ में जोतकर चलाया जाता है, लोहमय उष्ण मार्ग में चलाया जाता है और भारी भार वहन कराया जाता है । वे अशुभ विक्रियालब्धि से निर्मित सैकड़ों शस्त्रों से परस्पर को वेदना उत्पन्न करते हैं । वे विविध प्रकार के आयुध-शस्त्र कौन-से हैं ? वे शस्त्र ये हैं-मुद्गर, मुसुंढि, करवत, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, कुन्त, तोमर, शूल, लकुट, भिंडिमार, सद्धल, पट्टिस, चम्मे?, द्रुघण, मौष्टिक, असि-फलक, खङ्ग, चाप, नाराच, कनक, कप्पिणी-कर्तिका, वसूला, परशु । ये सभी अस्त्र-शस्त्र तीक्ष्ण और निर्मल-चमकदार होते हैं । इनसे तथा इसी प्रकार के अन्य शस्त्र से भी वेदना की उदीरणा करते हैं । नरकों में मुद्गर के प्रहारों से नारकों का शरीर चूर-चूर कर दिया जाता है, मुसुंढि से संभिन्न कर दिया जाता है, मथ दिया जाता है, कोल्हू आदि यंत्रों से पेरने के कारण फड़फड़ाते हुए उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाते हैं । कईयों को चमड़ी सहित विकृत कर दिया जाता है, कान और ओठ नाक और हाथ-पैर समूल काट लिए जाते हैं, तलवार, करवत, तीखे मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 9 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक भाले एवं फरसे से फाड़ दिये जाते हैं, वसूला से छीला जाता है, उनके शरीर पर उबलता खारा जल सींचा जाता है, जिससे शरीर जल जाता है, फिर भालों की नोक से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाते हैं, इस इस प्रकार उनके समग्र शरीर को जर्जरित कर दिया जाता है। उनका शरीर सूझ जाता है और वे पृथ्वी पर लोटने लगते हैं। नरकक में दर्पयुक्त-मानो सदा काल से भूख से पीड़ित, भयावह, घोर गर्जना करते हुए, भयंकर रूप वाले भेड़िया, शिकारी कुत्ते, गीदड़, कौवे, बिलाव, अष्टापद, चीते, व्याघ्र, केसरी सिंह और सिंह नारकों पर आक्रमण कर देते हैं, अपनी मजबूत दाढ़ों से नारकों के शरीर को काटते हैं, खींचते हैं, अत्यन्त पैने नोकदार नाखूनों से फाड़ते हैं और फिर इधर-उधर चारों ओर फेंक देते हैं । उनके शरीर के बन्धन ढीले पड़ जाते हैं । उनके अंगोपांग विकृत और पृथक् हो जाते हैं । तत्पश्चात् दृढ़ एवं तीक्ष्ण दाढों, नखों और लोहे के समान नुकीली चोंच वाले कंक, कुरर और गिद्ध आदि पक्षी तथा घोर कष्ट देने वाले काक पक्षियों के झुंड कठोर, दृढ़ तथा स्थिर लोहमय चोंचों से झपट पडते हैं । उन्हें अपने पंखों से आघात पहँचाते हैं । तीखे नाखूनों से उनकी जीभ बाहर खींच लेते हैं और आँखें बाहर नीकाल लेते हैं । निर्दयतापूर्वक उनके मुख को विकृत कर देते हैं । इस प्रकार की यातना से पीड़ित वे नारक जीव रुदन करते हैं, कभी ऊपर उछलते हैं और फिर नीचे आ गिरते हैं, चक्कर काटते हैं। पूर्वोपार्जित पापकर्मों के अधीन हुए, पश्चात्ताप से जलते हुए, अमुक-अमुक स्थानों में, उस-उस प्रकार के पूर्वकृत कर्मों की निन्दा करके, अत्यन्त चीकने-निकाचित दुःखों नन्दा करके, अत्यन्त चीकने-निकाचित दुःखों को भुगत कर, तत्पश्चात् आयु का क्षय होने पर नरकभूमियों में से नीकलकर बहुत-से जीव तिर्यंचयोनि में उत्पन्न होते हैं । अतिशय दुःखों से परिपूर्ण होती है, दारुण कष्टों वाली होती है, जन्म-मरण-जरा-व्याधि का अरहट उसमें घूमता रहता है । उसमें जलचर, स्थलचर और नभश्चर के पारस्परिक घात-प्रत्याघात का प्रपंच या दुष्चक्र चलता रहता है । तिर्यंचगति के दुःख जगत में प्रकट दिखाई देते हैं । नरक से किसी भी भाँति नीकले और तिर्यंचयोनि में जन्मे वे पापी जीव बेचारे दीर्घ काल तक दुःखों को प्राप्त करते हैं । वे तिर्यंचयोनि के दुःख कौन-से हैं ? शीत, उष्ण, तृषा, क्षुधा, वेदना का अप्रतीकार, अटवी में जन्म लेना, निरन्तर भय से घबड़ाते रहना, जागरण, वध, बन्धन, ताड़न, दागना, डामना, गड़हे आदि में गिराना, हड्डियाँ तोड़ देना, नाक छेदना, चाबुक, लकड़ी आदि के प्रहार सहन करना, संताप सहना, छविच्छेदन, जबरदस्ती भारवहन आदि कामों में लगना, कोड़ा, अंकुश एवं डंडे के अग्र भाग में लगी हुई नोकदार कील आदि से दमन किया जाना, भार वहन करना आदि-आदि । तिर्यंचगति में इन दःखों को भी सहन करना पडता है-माता-पिता का वियोग, शोक से अत्यन्त पीडित होना, या श्रोत-नखूनों आदि के छेदन से पीड़ित होना, शस्त्रों से, अग्नि से और विष से आघात पहुँचना, गर्दन-एवं सींगों का मोडा जाना, मारा जाना, गल-काँटे में या जाल में फँसा कर जल से बाहर नीकालना, पकाना, काटा जाना, जीवन पर्यन्त बन्धन में रहना, पींजरे में बन्द रहना, अपने समूह-से पृथक् किया जाना, भैंस आदि को फूंका लगाना, गले में डंडा बाँध देना, घेर कर रखना, कीचड़-भरे पानी में डूबोना, जल में घुसेड़ना, गड्ढे में गिरने से अंगभंग हो जाना, पहाड़ के विषम-मार्ग में गिर पड़ना, दावानल की ज्वालाओं में जलना, आदि-आदि कष्टों से परिपूर्ण तिर्यंचगति में हिंसाकारी पापी नरक से नीकलकर उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार वे हिंसा का पाप करने वाले पापी जीव सैकड़ों पीड़ाओं से पीड़ित होकर, नरकगति से आए हुए, प्रमाद, राग और द्वेष के कारण बहुत संचित किए और भोगने से शेष रहे कर्मों के उदयवाले अत्यन्त कर्कश असाता को उत्पन्न करने वाले कर्मों से उत्पन्न दुःखों के भजन बनते हैं। भ्रमर, मच्छर, मक्खी आदि पर्यायों में, उनकी नौ लाख जाति-कुलकोटियों में वारंवार जन्म-मरण का अनुभव करते हुए, नारकों के समान तीव्र दुःख भोगते हुए स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु से युक्त होकर वे पापी जीव संख्यात काल तक भ्रमण करते रहते हैं । इसी प्रकार कुंथु, पिपीलिका, अंधिका आदि त्रीन्द्रिय जीवों की पूरी आठ लाख कुलकोटियों में जन्म-मरण का अनुभव करते हुए संख्यात काल तक नारकों के सदृश तीव्र दुःख भोगते हैं । ये त्रीन्द्रिय जीव स्पर्शन, रसना और घ्राण-से युक्त होते हैं । गंडूलक, जलौक, कृमि, चन्दनक आदि द्वीन्द्रिय मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 10 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक जीव पूरी सात लाख कुलकोटियों में से वहीं-वहीं जन्म-मरण की वेदना का अनुभव करते हुए संख्यात हजार वर्षों तक भ्रमण करते रहते हैं । वहाँ भी उन्हें नारकों के समान तीव्र दुःख भुगतने पड़ते हैं । ये द्वीन्द्रिय जीव स्पर्शन और रसना वाले होते हैं। एकेन्द्रिय अवस्था को प्राप्त हुए पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के दो-दो भेद हैं-सूक्ष्म और बादर, या पर्याप्तक और अपर्याप्तक । वनस्पतिकाय में इन भेदों के अतिरिक्त दो भेद और भी हैं-प्रत्येकशरीरी और साधारणशरीरी । इन भेदों में से प्रत्येकशरीर पर्याय में उत्पन्न होने वाले पापी-जीव असंख्यात काल तक उन्हीं उन्हीं पर्यायों में परिभ्रमण करते रहते हैं और अनन्तकाय में अनन्त काल तक पुनः पुनः जन्ममरण करते हुए भ्रमण किया करते हैं। ये सभी जीव एक स्पर्शनेन्द्रिय वाले होते हैं । इनके दुःख अतीव अनिष्ट होते हैं । वनस्पतिकाय रूप एकेन्द्रिय पर्याय में कायस्थिति सबसे अधिक-अनन्तकाल की है । कदा पृथ्वी का विदारण किया जाना, जल का मथा जाना और निरोध किया जाना, अग्नि तथा वायु का विविध प्रकार से शस्से घट्टन होना, पारस्परिक आघातों से आहत होना, मारना, दूसरों के निष्प्रयोजन अथवा प्रयोजन वाले व्यापार से उत्पन्न होने वाली विराधना की व्यथा सहन करना, खोदना, छानना, मोड़ना, सड़ जाना, स्वयं टूट जाना, मसलना-कुचलना, छेदन करना, छीलना, रोमों का उखाड़ना, पत्ते आदि तोड़ना, अग्नि से जलाना, इस प्रकार भवपरम्परा में अनुबद्ध हिंसाकारी पापी जीव भयंकर संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं। जो अधन्य जीव नरक से नीकलकर किसी भाँति मनुष्य-पर्याय में उत्पन्न होते हैं, किन्त जिसके पापकर्म भोगने से शेष रह जाते हैं, वे भी प्रायः विकृत एवं विकल-रूप-स्वरूप वाले, कुबड़े, वामन, बधिर, काने, टूटे हाथ वाले, लँगड़े, अंगहीन, गूंगे, मम्मण, अंधे, खराब एक नेत्र वाले, दोनों खराब आँखों वाले या पिशाचग्रस्त, कुष्ठ आदि व्याधियों और ज्वर आदि रोगों से पीड़ित, अल्पायुष्क, शस्त्र से वध किए जाने योग्य, अज्ञान-अशुभ लक्षणों से भरपूर शरीर वाले, दुर्बल, अप्रशस्त संहनन वाले, बेडौल अंगोपांगों वाले, खराब संस्थान वाले, कुरूप, दीन, हीन, सत्त्वविहीन, सुख से सदा वंचित रहने वाले और अशुभ दुःखों के भाजन होते हैं। इस प्रकार पापकर्म करने वाले प्राणी नरक और तिर्यंच योनि में तथा कुमानुष-अवस्था में भटकते हुए अनन्त दुःख प्राप्त करते हैं । यह प्राणवध का फलविपाक है, जो इहलोक और परलोक में भोगना पड़ता है। यह फलविपाक अल्प सुख किन्तु अत्यधिक दुःख वाला है । महान भय का जनक है और अतीव गाढ़ कर्मरूपी रज से युक्त है । अत्यन्त दारुण है, कठोर है और असाता को उत्पन्न करने वाला है । हजारों वर्षों में इससे छूटकारा मिलता है । किन्तु इसे भोगे बिना छूटकारा नहीं मिलता । हिंसा का यह फलविपाक ज्ञातकुल-नन्दन महात्मा महावीर नामक जिनेन्द्रदेव ने कहा है। यह प्राणवध चण्ड, रौद्र, क्षुद्र और अनार्य जनों द्वारा आचरणीय है। यह घृणारहित, नृशंस, महाभयों का कारण, भयानक, त्रासजनक और अन्यायरूप है, यह उद्वेगजनक, दूसरे के प्राणों की परवाह न करने वाला, धर्महीन, स्नेहपीपासा से शून्य, करुणाहीन है । इसका अन्तिम परिणाम नरक में गमन करना है, अर्थात् यह नरकगति में जाने का कारण है । मोहरूपी महाभय को बढ़ाने वाला और मरण के कारण उत्पन्न होने वाली दीनता का जनक है। अध्ययन-१-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 11 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२- आस्रवद्वार-२ सूत्र - ९ जम्बू ! दूसरा (आस्रवद्वार) अलीकवचन है । यह गुण-गौरव से रहित, हल्के, उतावले और चंचल लोगों द्वारा बोला जाता है, भय उत्पन्न करने वाला, दुःखोत्पादक, अपयशकारी एवं वैर उत्पन्न करने वाला है । यह अरति, रति, राग, द्वेष और मानसिक संक्लेश को देने वाला है । शुभ फल से रहित है । धूर्त्तता एवं अविश्वसनीय वचनों की प्रचुरता वाला है । नीच जन इसका सेवन करते हैं । यह नृशंस, क्रूर अथवा निन्दित है । अप्रीतिकारक है । सत्पुरुषों द्वारा निन्दित है । दूसरों को-पीड़ा उत्पन्न करने वाला है । उत्कृष्ट कृष्णलेश्या से सहित है । यह दुर्गतियों में निपात को बढ़ाने वाला है । भव करने वाला है । यह चिरपरिचित है । निरन्तर साथ रहने वाला है और बड़ी कठिनाई से इसका अन्त होता है। सूत्र-१० उस असत्य के गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं । अलीक, शठ, अन्याय्य, माया-मृषा, असत्क, कूटकपटअवस्तुक, निरर्थकअपार्थक, विद्वेष-गर्हणीय, अनजुक, कल्कना, वञ्चना, मिथ्यापश्चात्कृत, साति, उच्छन्न, उत्कूल, आर्त, अभ्याख्यान, किल्बिष, वलय, गहन, मन्मन, नूम, निकृति, अप्रत्यय, असमय, असत्यसंधत्व, विपक्ष, अपधीक, उपधि-अशुद्ध और अपलोप । सावध अलीक वचनयोग के उल्लिखित तीस नामों के अतिरिक्त अन्य भी अनेक नाम हैं। सूत्र - ११ यह असत्य कितनेक पापी, असंयत, अविरत, कपट के कारण कुटिल, कटुक और चंचल चित्तवाले, क्रुद्ध, लुब्ध, भय उत्पन्न करने वाले, हँसी करने वाले, झूठी गवाही देने वाले, चोर, गुप्तचर, खण्डरक्ष, जुआरी, गिरवी रखने वाले, कपट से किसी बात को बढ़ा-चढ़ा कर कहनेवाले, कुलिंगी-वेषधारी, छल करनेवाले, वणिक्, खोटा नापने-तोलनेवाले, नकली सिक्कों से आजीविका चलानेवाले, जुलाहे, सुनार, कारीगर, दूसरों को ठगने वाले, दलाल, चाटुकार, नगररक्षक, मैथुनसेवी, खोटा पक्ष लेने वाले, चुगलखोर, उत्तमर्ण, कर्जदार, किसी के बोलने से पूर्व ही उसके अभिप्राय को ताड़ लेने वाले साहसिक, अधम, हीन, सत्पुरुषों का अहित करने वाले दुष्ट जन अहंकारी, असत्य की स्थापना में चित्त को लगाए रखने वाले, अपने को उत्कृष्ट बताने वाले, निरंकुश, नियमहीन और बिना विचारे यद्वा-तद्वा बोलने वाले लोग, जो असत्य से विरत नहीं हैं, वे (असत्य) बोलते हैं। दूसरे, नास्तिकवादी, जो जोक में विद्यमान वस्तुओं को भी अवास्तविक कहने के कारण कहते हैं कि शून्य है, क्योंकि जीव का अस्तित्व नहीं है । वह मनुष्यभव में या देवादि-परभव में नहीं जाता । वह पुण्य-पाप का स्पर्श नहीं करता । सुकृत या दुष्कृत का फल भी नहीं है । यह शरीर पाँच भूतों से बना हुआ है । वायु के निमित्त से वह सब क्रियाएं करता है। कुछ लोग कहते हैं-श्वासोच्छ्वास की हवा ही जीव है । कोई पाँच स्कन्धों का कथन करते हैं । कोई-कोई मन को ही जीव मानते हैं । कोई वायु को ही जीव के रूप में स्वीकार करते हैं । किन्हीं-किन्हीं का मंतव्य है कि शरीर सादि और सान्त है-यह भव ही एक मात्र भव है । इस भव का समूल नाश होने पर सर्वनाश हो जाता है । मृषावादी ऐसा कहते हैं । इस कारण दान देना, व्रतों का आचरण, पोषध की आराधना, तपस्या, संयम का आचरण, ब्रह्मचर्य का पालन आदि कल्याणकारी अनुष्ठानों का फल नहीं होता । प्राणवध और असत्यभाषण भी नहीं है । चोरी और परस्त्रीसेवन भी कोई पाप नहीं है । परिग्रह और अन्य पापकर्म भी निष्फल हैं । नारकों, तिर्यंचों और मनुष्यों की योनियाँ नहीं हैं । देवलोक भी नहीं हैं । मोक्ष-गमन या मुक्ति भी नहीं है । माता-पिता भी नहीं हैं । पुरुषार्थ भी नहीं है । प्रत्याख्यान भी नहीं है । भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल नहीं है और न मृत्यु है। अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव भी कोई नहीं होते । न कोई ऋषि है, न कोई मुनि है । धर्म और अधर्म का थोडा या बहत फल नहीं होता । इसलिए ऐसा जानकर इन्द्रियों के अनुकूल सभी विषयों में प्रवत्ति करो। न कोई शुभ या अशुभ क्रिया है । इस प्रकार लोकविप-रीत मान्यतावाले नास्तिक विचारधारा का अनुसरण करते मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक हुए इस प्रकार का कथन करते हैं। कोई-कोई असद्भाववादी मूढ जन दूसरा कुदर्शन-इस प्रकार कहते हैं-यह लोक अंडे से प्रकट हुआ है । इस लोक का निर्माण स्वयं स्वयम्भू ने किया है । इस प्रकार वे मिथ्या कथन करते हैं । कोई-कोई कहते हैं कि यह जगत प्रजापति या महेश्वर ने बनाया है । किसी का कहना है कि समस्त जगत विष्णुमय है । किसी की मान्यता है कि आत्मा अकर्ता है किन्तु पुण्य और पाप का भोक्ता है । सर्व प्रकार से तथा सर्वत्र देश-काल में इन्द्रियाँ ही कारण हैं । आत्मा नित्य है, निष्क्रिय है, निर्गुण है और निर्लेप है । असद्भाववादी इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं । कोईकोई ऋद्धि, रस और साता के गारव से लिप्त या इनमें अनुरक्त बने हुए और क्रिया करने में आलसी बहुत से वादी धर्म की मीमांसा करते हुए इस प्रकार मिथ्या प्ररूपणा करते हैं-इस जीवलोक में जो कुछ भी सुकृत या दुष्कृत दष्टिगोचर होता है, वह सब यदच्छा से, स्वभाव से अथवा दैवतप्रभाव से ही होता है । इस लोक में कुछ भी ऐसा नहीं है जो पुरुषार्थ से किया गया तत्त्व हो । लक्षण और विद्या की की नियति ही है, ऐसा कोई कहते हैं कोई-कोई दूसरे लोग राज्यविरुद्ध मिथ्या दोषारोपण करते हैं । यथा-चोरी न करने वाले को चोर कहते हैं। जो उदासीन है उसे लड़ाईखोर कहते हैं । जो सुशील है, उसे दुःशील कहते हैं, यह परस्त्रीगामी है, ऐसा कहकर उसे मलिन करते हैं । उस पर ऐसा आरोप लगाते हैं कि यह तो गुरुपत्नी के साथ अनुचित सम्बन्ध रखता है । यह अपने मित्र की पत्नियों का सेवन करता है । यह धर्महीन है, यह विश्वासघाती है, पापकर्म करता है, नहीं करने योग्य कृत्य करता है, यह अगम्यगामी है, यह दुष्टात्मा है, बहुत-से पापकर्मों को करने वाला है । इस प्रकार ईर्ष्यालु लोग मिथ्या प्रलाप करते हैं । भद्र पुरुष के परोपकार, क्षमा आदि गुणों की तथा कीर्ति, स्नेह एवं परभव की लेशमात्र परवाह न करने वाले वे असत्यवादी, असत्य भाषण करने में कुशल, दूसरों के दोषों को बताने में निरत रहते हैं । वे विचार किए बिना बोलने वाले, अक्षय दुःख के कारणभूत अत्यन्त दृढ़ कर्मबन्धनों से अपनी आत्मा को वेष्टित करते हैं। पराये धन में अत्यन्त आसक्त वे निक्षेप को हड़प जाते हैं तथा दूसरे को ऐसे दोषों से दूषित करते हैं जो दोष उनमें विद्यमान नहीं होते । धन लोभी झूठी साक्षी देते हैं । वे असत्यभाषी धन के लिए, कन्या के लिए, भूमि के लिए तथा गाय-बैल आदि पशुओं के निमित्त अधोगतिमें ले जानेवाला असत्यभाषण करते हैं। इसके अतिरिक्त वे मृषावादी जाति, कुल, रूप एवं शील के विषयमें असत्यभाषण करते हैं । मिथ्या षड्यंत्र रचनेमें कुशल, परकीय असद्गुणों के प्रकाशक, सद्गुणों के विनाशक, पुण्य-पाप के स्वरूप से अनभिज्ञ, अन्यान्य प्रकार से भी असत्य बोलते हैं । वह असत्य माया के कारण गुणहीन हैं, चपलता से युक्त हैं, चुगलखोरी से परिपूर्ण हैं, परमार्थ को नष्ट करने वाला, असत्य अर्थ वाला, द्वेषमय, अप्रिय, अनर्थकारी, पापकर्मों का मूल एवं मिथ्यादर्शन से युक्त है। वह कर्णकटु, सम्यग्ज्ञानशून्य, लज्जाहीन, लोकगर्हित, वध-बन्धन आदि रूप क्लेशों से परिपूर्ण, जरा, मृत्यु, दुःख और शोक का कारण है, अशुद्ध परिणामों के कारण संक्लेश से युक्त है । जो लोग मिथ्या अभिप्राय में सन्निविष्ट हैं, जो अविद्यमान गुणों की उदीरणा करने वाले, विद्यमान गुणों के नाशक हैं, हिंसा करके प्राणियों का उपघात करते हैं, जो असत्य भाषण करने में प्रवृत्त हैं, ऐसे लोग सावध-अकुशल, सत्-पुरुषों द्वारा गर्हित और अधर्मजनक वचनों का प्रयोग करते हैं । ऐसे मनुष्य पुण्य और पाप के स्वरूप से अनभिज्ञ होते हैं । वे पुनः अधिकरणों, शस्त्रों आदि की क्रिया में प्रवृत्ति करने वाले हैं, वे अपना और दूसरों का बहुविध से अनर्थ और विनाश करते हैं। इसी प्रकार घातकों को भैंसा और शूकर बतलाते हैं, वागुरिकों-को-शशक, पसय और रोहित बतलाते हैं, तीतुर, बतक और लावक तथा कपिंजल और कपोत पक्षीघातकों को बतलाते हैं, मछलियाँ, मगर और कछुआ मच्छीमारों को बतलाते हैं, शंख, अंक और कौड़ी के जीव धीवरों को बतला देते हैं, अजगर, गोणस, मंडली एवं दर्वीकर जाति के सर्पो को तथा मुकुली-को सँपेरों को-बतला देते हैं, गोधा, सेह, शल्लकी और गिरगट लुब्धकों को बतला देते हैं, गजकुल और वानरकुल के झुंड पाशिकों को बतलाते हैं, तोता, मयूर, मैना, कोकिला और हंस के कुल तथा सारस पक्षी पोषकों को बतला देते हैं | आरक्षकों को वध, बन्ध और यातना देने के उपाय बतलाते हैं। चोरों को धन, धान्य और गाय-बैल आदि पशु बतला कर चोरी करने की प्रेरणा करते हैं । गुप्तचरों को ग्राम, नगर, मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 13 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक आकर और पत्तन आदि बस्तियाँ बतलाते हैं । ग्रन्थिभेदकों को रास्ते के अन्त में अथवा बीच में मारने-लूटने-टांठ काटने आदि की सीख देते हैं । नगररक्षकों को की हुई चोरी का भेद बतलाते हैं । गाय आदि पशुओं का पालन करने वालों को लांछन, नपुंसक, धमण, दुहना, पोषना, पीडा पहुँचाना, वाहन गाड़ी आदि में जोतना, इत्यादि अनेकानेक पाप-पूर्ण कार्य सिखलाते हैं । इसके अतिरिक्त खान वालों को गैरिक आदि धातुएं बतलाते हैं, चन्द्रकान्त आदि मणियाँ बतलाते हैं, शिलाप्रवाल बतलाते हैं । मालियों को पुष्पों और फलों के प्रकार बतलाते हैं तथा वनचरों को मधु का मूल्य और मधु के छत्ते बतलाते हैं। मारण, मोहन, उच्चाटन आदि के लिए यन्त्रों, संखिया आदि विषों, गर्भपात आदि के लिए जड़ी-बूटियों के प्रयोग, मन्त्र आदि द्वारा नगर में क्षोभ या विद्वेष उत्पन्न कर देने, द्रव्य और भाव से वशीकरण मन्त्रों एवं औषधियों के प्रयोग करने, चोरी, परस्त्रीगमन करने आदि बहत-से पापकर्म उपदेश तथा छलसे शत्रसेना की शक्ति नष्ट करने अथवा उसे कुचल देने के, जंगल में आग लगाने, तालाब आदि जलाशयों को सूखाने के, ग्रामघात के, बुद्धि के विषय-विज्ञान आदि भय, मरण, क्लेश और दुःख उत्पन्न करनेवाले, अतीव संक्लेश होने के कारण मलिन, जीवों का घात और उपघात करनेवाले वचन तथ्य होने पर भी प्राणिघात करनेवाले असत्य वचन, मृषावादी बोलते हैं। अन्य प्राणियों को सन्ताप करने में प्रवृत्त, अविचारपूर्वक भाषण करने वाले लोग किसी के पूछने पर और बिना पूछे ही सहसा दूसरों को उपदेश देते हैं कि-ऊंटों को बैलों को और रोझों को दमो । वयःप्राप्त अश्वों को, हाथियों को, भेड़-बकरियों को या मुर्गों को खरीदो खरीदवाओ, इन्हें बेच दो, पकाने योग्य वस्तुओं को पकाओ, स्वजन को दे दो, पेय-का पान करो, दासी, दास, भृतक, भागीदार, शिष्य, कर्मकर, किंकर, ये सब प्रकार के कर्मचारी तथा ये स्वजन और परिजन क्यों कैसे बैठे हुए हैं ! ये भरण-पोषण करने योग्य हैं । ये आपका काम करें। ये सघन वन, खेत, बिना जोती हुई भूमि, वल्लर, जो उगे हुए घास-फूस से भरे हैं, इन्हें जला डालो, घास कटवाओ या उखड़वा डालो, यन्त्रों, भांड उपकरणों के लिए और नाना प्रकार के प्रयोजनों के लिए वृक्षों को कटवाओ, इक्षु को कटवाओ, तिलों को पेलो, ईंटों को पकाओ, खेतों को जोतो, जल्दी-से ग्राम, आकर नगर, खेड़ा और कर्वटकुनगर आदि को बसाओ । पुष्पों, फूलों को तथा प्राप्तकाल कन्दों और मूलों को ग्रहण करो। संचय करो । शाली, ब्रीहि आदि और जौ काट लो । इन्हें मलो । पवन से साफ करो और शीघ्र कोठार में भर लो। छोटे, मध्यम और बड़े नौकादल या नौकाव्यापारियों या नौकायात्रियों के समूह को नष्ट कर दो, सेना प्रयाण करे, संग्रामभूमि में जाए, घोर युद्ध प्रारंभ हो, गाड़ी और नौका आदि वाहन चलें, उपनयन संस्कार, चोलक, विवाह-संस्कार, यज्ञ-ये सब कार्य अमक दिनों में, बालव आदि करणों में, अमतसिद्धि आदि महर्मों में, अश्विनी पुष्य आदि नक्षत्रों में और नन्दा आदि तिथियों में होने चाहिए । आज सौभाग्य के लिए स्नान करना चाहिए-आज प्रमोदपूर्वक बहुत विपुल मात्रा में खाद्य पदार्थों एवं मदिरा आदि पेय पदार्थों के भोज के साथ सौभाग्यवृद्धि अथवा पुत्रादि की प्राप्ति के लिए वधू आदि को स्नान कराओ तथा कौतुक करो । सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण और अशुभ स्वप्न के फल को निवारण करने के लिए विविध मंत्रादि से संस्कारित जल से स्नान और शान्तिकर्म करो । अपने कुटुम्बीजनों की अथवा अपने जीवन की रक्षा के लिए कृत्रिम प्रतिशीर्षक चण्डी आदि देवियों की भेंट चढ़ाओ। अनेक प्रकार की ओषधियों, मद्य, मांस, मिष्टान्न, अन्न, पान, पुष्पमाला, चन्दन-लेपन, उबटन, दीपक, सुगन्धित धूप, पुष्पों तथा फलों से परिपूर्ण विधिपूर्वक बकरा आदि पशुओं के सिरों की बली दो । विविध प्रकार की हिंसा करके उत्पात, प्रकृति-विकार, दुःस्वप्न, अपशकुन, क्रूरग्रहों के प्रकोप, अमंगल सूचक अंगस्फुरण आदि के फल को नष्ट करने के लिए प्रायश्चित्त करो । अमुक की आजीविका नष्ट कर दो । किसी को कुछ भी दान मत दो । वह मारा गया, यह अच्छा हुआ । उसे काट डाया गया, यह ठीक हुआ । उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले गये, यह अच्छा हुआ । इस प्रकार किसी के न पूछने पर भी आदेश-उपदेश अथवा कथन करते हुए, मन-वचन-काय से मिथ्या आचरण करने वाले अनार्य, अकुशल, मिथ्यामतों का अनुसरण करने वाले मिथ्या भाषण करते हैं । ऐसे मिथ्याधर्म में निरत लोग मिथ्या कथाओं में रमण करते हुए, नाना प्रकार से असत्य का सेवन करते सन्तोष का अनुभव करते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 14 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक सूत्र - १२ पूर्वोक्त मिथ्याभाषण के फल-विपाक से अनजान वे मृषावादी जन नरक और तिर्यञ्च योनि की वृद्धि करते हैं, जो अत्यन्त भयंकर है, जिनमें विश्रामरहित वेदना भुगतनी पड़ती है और जो दीर्घकाल तक बहुत दुःखों से परिपूर्ण हैं । वे मृषावाद में निरत नर भयंकर पुनर्भव के अन्धकार में भटकते हैं । उस पुनर्भव में भी दुर्गति प्राप्त करते हैं, जिनका अन्त बड़ी कठिनाई से होता है । वे मृषावादी मनुष्य पुनर्भव में भी पराधीन होकर जीवन यापन करते हैं । वे अर्थ और भोगों से परिवर्जित होते हैं । वे दुःखी रहते हैं। उनकी चमड़ी बिवाई, दाद, खुजली आदि से फटी रहती है, वे भयानक दिखाई देते हैं और विवर्ण होते हैं । कठोर स्पर्श वाले, रतिविहीन, मलीन एवं सारहीन शरीर वाले होते हैं । शोभाकान्ति से रहित होते हैं । वे अस्पष्ट और विफल वाणी वाले होते हैं । वे संस्काररहित और सत्कार से रहित होते हैं । वे दुर्गन्ध से व्याप्त, विशिष्ट चेतना से विहीन, अभागे, अकान्त-अकमनीय, अनिष्ट स्वर वाले, धीमी और फटी हुई आवाज वाले, विहिंस्य, जड़, वधिर, अंधे, गूंगे और अस्पष्ट उच्चारण करने वाले, अमनोज्ञ तथा विकृत इन्द्रियों वाले, जाति, कुल, गौत्र तथा कार्यों से नीचे होते हैं । उन्हें नीच लोगों का सेवक बनना पड़ता है । वे लोक में गर्हा के पात्र होते हैं । वे भृत्य होते हैं और विरुद्ध आचार-विचार वाले लोगों के आज्ञापालक या द्वेषपात्र होते हैं । वे दुर्बुद्धि होते हैं अतः लौकिक शास्त्र, वेद, आध्यात्मिक शास्त्र, आगमों या सिद्धान्तों के श्रवण एवं ज्ञान से रहित होते हैं । वे धर्मबुद्धि से रहित होते हैं। उस अशुभ या अनुपशान्त असत्य की अग्नि से जलते हुए वे मृषावादी अपमान, निन्दा, आक्षेप, चुगली, परस्पर की फूट आदि की स्थिति प्राप्त करते हैं । गुरुजनों, बन्धु-बान्धवों, स्वजनों तथा मित्रजनों के तीक्ष्ण वचनों से अनदार पाते हैं । अमनोरम, हृदय और मन को सन्ताप देने वाले तथा जीवनपर्यन्त कठिनाई से मिटने वालेमिथ्या आरोपों को वे प्राप्त करते हैं । अनिष्ट, तीक्ष्ण, कठोर और मर्मवेधी वचनों से तर्जना, झिड़कियों और धिक्कार के कारण दीन मुख एवं खिन्न चित्त वाले होते हैं । वे खराब भोजन वाले और मैले तथा फटे वस्त्रों वाले होते हैं, उन्हें निकृष्ट वस्ती में क्लेश पाते हुए अत्यन्त एवं विपुल दुःखों की अग्नि में जलना पड़ता है । उन्हें न तो शारीरिक सुख प्राप्त होता है और न मानसिक शान्ति ही मिलती है। मृषावाद का इस लोक और परलोक सम्बन्धी फल विपाक है । इस फल-विपाकमें सुख अभाव है और दुःख-बहुलता है । यह लता है । यह अत्यन्त भयानक है, प्रगाढ कर्म-रज के बन्ध का कारण है । यह दारुण है, कर्कश है और असातारूप है । सहस्रों वर्षों में इससे छुटकारा मिलता है । फल को भोगे बिना इस पाप से मुक्ति नहीं मिलती। ज्ञातकुलनन्दन, महान आत्मा वीरवर महावीर नामक जिनेश्वर देव ने मृषावाद का यह फल प्रतिपादित किया है। यह दूसरा अधर्मद्वार है । छोटे लोग इसका प्रयोग करते- । यह मृषावाद भयंकर है, दुःखकर है, अपयशकर है, वैरकर है । अरति, रति, राग-द्वेष एवं मानसिक संक्लेश को उत्पन्न करने वाला है । यह झूठ, निष्फल कपट और अविश्वास की बहुलता वाला है । नीच जन इसको सेवन करते हैं। यह नृशंस एवं निघृण है। अविश्वासकारक है । परम साधुजनों द्वारा निन्दनीय है । दूसरों को पीड़ा उत्पन्न करने वाला और परम कृष्णलेश्या से संयुक्त है। अधोगति में निपात का कारण है । पुनः पुनः जन्म-मरण का कारण है, चिरकाल से परिचित है-अत एव अनुगत है। इसका अन्त कठिनता से होता है अथवा इसका परिणाम दुःखमय ही होता है। अध्ययन-२-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-३ - आस्रवद्वार-३ सूत्र-१३ हे जम्बू ! तीसरा अधर्मद्वार अदत्तादान । यह अदत्तादान (परकीय पदार्थ का) हरण रूप है । हृदय को जलाने वाला, मरण-भय रूप, मलीन, परकीय धनादि में रौद्रध्यान स्वरूप, त्रासरूप, लोभ मूल तथा विषमकाल और विषमस्थान आदि स्थानों पर आश्रित है। यह अदत्तादान निरन्तर तृष्णाग्रस्त जीवों को अधोगति की ओर ले जाने वाली बुद्धि वाला है । अदत्तादान अपयश का कारण, अनार्य पुरुषों द्वारा आचरित, छिद्र, अपाय एवं विपत्ति का मार्गण करने वाला, उसका पात्र है । उत्सवों के अवसर पर मदिरा आदि के नशे में बेभान, असावधान तथा सोये हुए मनुष्यों को ठगनेवाला, चित्त में व्याकुलता उत्पन्न करने और घात करने में तत्पर तथा अशान्त परिणाम वाले चोरों द्वारा अत्यन्त मान्य है । यह करुणाहीन कृत्य है, राजपुरुषों, कोतवाल आदि द्वारा इसे रोका जाता है । सदैव साधुजनों, निन्दित, प्रियजनों तथा मित्रजनों में फूट और अप्रीति उत्पन्न करने वाला और राग द्वेष की बहुलता वाला है । यह बहुतायत से मनुष्यों को मारने वाले संग्रामों, स्वचक्र-परचक्र सम्बन्धी डमरों-विप्लवों, लड़ाईझगड़ों, तकरारों एवं पश्चात्ताप का कारण है । दुर्गति-पतन में वृद्धि करने वाला, पुनर्भव कराने वाला, चिरकाल से परिचित, आत्मा के साथ लगा हुआ और परिणाम में दुःखदायी है । यह तीसरा अधर्मद्वार ऐसा है। सूत्र-१४ पूर्वोक्त स्वरूप वाले अदत्तादान के गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं | –चौरिक्य, परहृत, अदत्त, क्रूरिकृतम्, परलाभ, असंजम, परधन में गृद्धि, लोलुपता, तस्करत्व, अपहार, हस्तलघुत्व, पापकर्मकरण, स्तेनिका, हरणविप्रणाश, आदान, धनलुम्पता, अप्रत्यय, अवपीड, आक्षेप, क्षेप, विक्षेप, कूटता, कुलमषि, कांक्षा, लालपन-प्रार्थना, व्यसन, ईच्छामूर्छा, तृष्णा-गृद्धि, निकृतिकर्म और अपराक्ष । इस प्रकार पापकर्म और कलह से मलीन कार्यों की बहुलता वाले इस अदत्तादान आस्रव के ये और इस प्रकार के अन्य अनेक नाम हैं। सूत्र - १५ उस चोरी को वे चोर-लोग करते हैं जो परकीय द्रव्य को हरण करने वाले हैं, हरण करने में कुशल हैं, अनेकों बार चोरी कर चुके हैं और अवसर को जानने वाले हैं, साहसी हैं, जो तुच्छ हृदय वाले, अत्यन्त महती ईच्छा वाले एवं लोभ से ग्रस्त हैं, जो वचनों के आडम्बर से अपनी असलियत को छिपाने वाले हैं-आसक्त हैं, जो सामने स साधा प्रहार करने वाले है, ऋण को नहीं चूकाने वाले हैं, जो वायदे को भंग करने वाले हैं, राज्यशासन का अनिष्ट करने वाले हैं, जो जनता द्वारा बहिष्कृत हैं, जो घातक हैं या उपद्रव करने वाले हैं, ग्रामघातक, नगरघातक, मार्ग में पथिकों को मार डालने वाले हैं, आग लगाने वाले और तीर्थ में भेद करने वाले हैं, जो हाथ की चालाकी वाले हैं, जुआरी हैं, खण्डरक्ष हैं, स्त्रीचोर हैं, पुरुष का अपहरण करते हैं, खात खोदने वाले हैं, गाँठ काटने वाले हैं, परकीय धन का हरण करने वाले हैं, अपहरण करने वाले हैं, सदा दूसरों के उपमर्दक, गुप्तचोर, गो-चोर- अश्व-चोर एवं दासी को चूराने वाले हैं, अकेले चोरी करने वाले, घर में से द्रव्य निकाल लेने वाले, छिपकर चोरी करने वाले, सार्थ को लूटने वाले, बनावटी आवाज में बोलने वाले, राजा द्वारा निगृहीत, अनेकानेक प्रकार से चोरी करके द्रव्य हरण करने की बुद्धि वाले, ये लोग और इसी कोटि के अन्य-अन्य लोग, जो दूसरे के द्रव्य को ग्रहण करने कीईच्छा से निवृत्त नहीं हैं, वे चौर्य कर्म में प्रवृत्त होते हैं। इनके अतिरिक्त विपुल बल और परिग्रह वाले राजा लोग भी, जो पराये धन में गृद्ध हैं और अपने द्रव्य से जिन्हें संतोष नहीं है, दूसरे देश-प्रदेश पर आक्रमण करते हैं । वे लोभी राजा दूसरे के धनादि को हथियाने के उद्देश्य से चतुरंगिणी सेना के साथ (अभियान करते हैं ।) वे दृढ़ निश्चय वाले, श्रेष्ठ योद्धाओं के साथ युद्ध करने में विश्वास रखने वाले, दर्प से परिपूर्ण सैनिकों से संपरिवृत्त होते हैं । वे नाना प्रकार के व्यूहों की रचना करते हैं, जैसे पद्मपत्र व्यूह, शकटव्यूह, शूचीव्यूह, चक्रव्यूह, सागरव्यूह और गरुडव्यूह । इस तरह नाना प्रकार की व्यहरचना वाली सेना द्वारा दूसरे की सेना को आक्रान्त करते हैं, और उसे पराजित करके दूसरे की धन-सम्पत्ति को हरण कर लेते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 16 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक दूसरे-युद्धभूमि में लड़कर विजय प्राप्त करने वाले, कमर कसे हुए, कवच धारण किये हुए और विशेष प्रकार के चिह्नपट्ट मस्तक पर बाँधे हुए, अस्त्र-शस्त्रों को धारण किए हुए, प्रतिपक्ष के प्रहार से बचने के लिए ढाल से और उत्तम कवच से शरीर को वेष्टित किए हुए, लोहे की जाली पहने हुए, कवच पर लोहे के काँटे लगाए हुए, वक्षःस्थल के साथ ऊर्ध्वमुखी बाणों की तूणीर बाँधे हुए, हाथों में पाश लिए हुए, सैन्यदल की रणोचित रचना किए हुए, कठोर धनुष को हाथों में पकड़े हुए, हर्षयुक्त, हाथों से खींच कर की जाने वाली प्रचण्ड वेग से बरसती हुई मूसलधार वर्षा के गिरने से जहाँ मार्ग अवरुद्ध गया है, ऐसे युद्ध में अनेक धनुषों, दुधारी तलवारों, त्रिशूलों, बाणों, बाएं हाथों में पकड़ी हुई ढालों, म्यान से निकाली हुई चमकती तलवारों, प्रहार करते हुए भालों, तोमर नामक शस्त्रों, चक्रों, गदाओं, कुल्हाड़ियों, मूसलों, हलों, शूलों, लाठियों, भिंडमालों, शब्बलों, पट्टिस, पत्थरों, द्रुघणों, मौष्टिकों, मदगरों, प्रबल आगलों, गोफणों, द्रहणों, बाणों के तणीरों, कवेणियों और चमचमाते शस्त्रों को आकाश में फेंकने से आकाशतल बिजली के समान उज्ज्वल प्रभावाला हो जाता है । उस संग्राम में प्रकट शस्त्र-प्रहार होता है। महायुद्ध में बजाये जाने वाले शंखों, भेरियों, उत्तम वाद्यों, अत्यन्त स्पष्ट ध्वनिवाले ढोलों के बजने के गंभीर आघोष से वीर पुरुष हर्षित होते हैं और कायर पुरुषों को क्षोभ होता है। वे काँपने लगते हैं । इस कारण युद्धभूमि में होहल्ला होता है । घोड़े, हाथी, रथ और पैदल सेनाओं के शीघ्रतापूर्वक चलने से चारों ओर फैली- धूल के कारण वहाँ सघन अंधकार व्याप्त रहता है । वह युद्ध कायर नरों के नेत्रों एवं हृदयों को आकुल-व्याकुल बना देता है। ढीला होने के कारण चंचल एवं उन्नत उत्तम मुकुटों, तिरीटों-ताजों, कुण्डलों तथा नक्षत्र नामक आभूषणों की उस युद्ध में जगमगाहट होती है । पताकाओं, ध्वजाओं, वैजयन्ती पताकाओं तथा चामरों और छत्रों के कारण होने वाले अन्धकार के कारण वह गंभीर प्रतीत होता है । अश्वों की हिनहिनाहट से, हाथियों की चिंघाड़ से, रथों की घनघनाहट से, पैदल सैनिकों की हर-हराहट से, तालियों की गड़गड़ाहट से, सिंहनाद की ध्वनियों से, सीटी बजाने की सी आवाजों से, जोर-जोर की चिल्लाहट से, जोर की किलकारियों से और एक साथ उत्पन्न होनेवाली हजारों कंठो की ध्वनि से वहाँ भयंकर गर्जनाएं होती हैं । उसमें एक साथ हँसने, रोने और कराहने के कारण कलकल ध्वनि होती रहती है । वह रौद्र होता है । उस युद्ध में भयानक दाँतों से होठों को जोर से काटने वाले योद्धाओं के हाथ अचूक प्रहार करने के लिए उद्यत रहते हैं । योद्धाओं के नेत्र रक्तवर्ण होते हैं। उनकी भौंहें तनी रहती हैं, उनके ललाट पर तीन साल पड़े हुए होते हैं । उस युद्ध में, मार-काट करते हुए हजारों योद्धाओं के पराक्रम को देखकर सैनिकों के पौरुष-पराक्रम की वद्धि हो जाती है। हिनहिनाते हए अश्वों और रथों द्वारा इधर-उधर भाग वीरों तथा शस्त्र चलाने में कुशल और सधे हए हाथों वाले सैनिक हर्ष-विभोर होकर, दोनों भुजाएं ऊप खिलखिलाक हँस रहे होते हैं । किलकारियाँ मारते हैं | चमकती हई ढालें एवं कवच धारण किए हाथियों पर आरूढ़ प्रस्थान करते हुए योद्धा, शत्रुयोद्धाओं के साथ परस्पर जूझते हैं तथा युद्धकला में कुशलता के कारण अहंकारी योद्धा अपनी-अपनी तलवारें म्यानों में से नीकाल कर, फुर्ती के साथ रोषपूर्वक परस्पर प्रहार करते हैं । हाथियों की सूंड़ें काट रहे होते हैं। ऐसे भयावह युद्ध में मुद्गर आदि द्वारा मारे गए, काटे गए या फाड़े गए हाथी आदि पशुओं और मनुष्यों के युद्धभूमि में बहते हुए रुधिर के कीचड़ से मार्ग लथपथ हो रहे होते हैं । कूख के फट जाने से भूमि पर बिखरी हुई एवं बाहर नीकलती हुई आंतों से रक्त प्रवाहित होता रहता है । तथा तड़फड़ाते हुए, विकल, मर्माहत, बूरी तरह से कटे हुए, प्रगाढ प्रहार से बेहोश हुए, इधर-उधर लुढ़कते हुए, विह्वल मनुष्यों के विलाप के कारण वह युद्ध बड़ा ही करुणाजनक होता है । उस युद्ध में मारे गए योद्धाओं के इधर-उधर भटकते घोड़े, मदोन्मत्त हाथी और भयभीत मनुष्य, मूल से कटी हुई ध्वजाओं वाले टूटे-फूटे रथ, मस्तक कटे हुए हाथियों के धड़-कलेवर, विनष्ट हुए शस्त्रास्त्र और बिखरे हुए आभूषण इधर-उधर पड़े होते हैं । नाचते हुए बहुसंख्यक कलेवरों पर काक और गीध मंडराते रहते हैं । तब उनकी छाया के अन्धकार के कारण वह युद्ध गंभीर बन जाता है । ऐसे संग्राम में स्वयं प्रवेश करते हैंकेवल सेना को ही युद्ध में नहीं झोंकते । पृथ्वी को विकसित करते हुए, परकीय धन की कामना करने वाले वे राजा मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 17 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक साक्षात श्मशान समान, अतीव रौद्र होने के कारण भयानक और जिसमें प्रवेश करना अत्यन्त कठिन है, ऐसे संग्राम रूप संकट में चल कर प्रवेश करते हैं। इनके अतिरिक्त पैदल चोरों के समूह होते हैं । कईं ऐसे सेनापति भी होते हैं जो चोरों को प्रोत्साहित करते हैं । चोरों के यह समूह दुर्गम अटवी-प्रदेश में रहते हैं । उनके काले, हरे, लाल, पीले और श्वेत रंग के सैकड़ों चिह्न होते हैं, जिन्हें वे अपने मस्तक पर लगाते हैं । पराये धन के लोभी वे चोर-समुदाय दूसरे प्रदेश में जाकर धन का अपहरण करते हैं और मनुष्यों का घात करते हैं । इन चोरों के सिवाय अन्य लूटेरे हैं जो समुद्र में लूटमार करते हैं । वे लूटेरे रत्नों के आकर में चढ़ाई करते हैं । वह समुद्र सहस्रों तरंग-मालाओं से व्याप्त होता है । पेय जल के अभाव में जहाज के कुल-व्याकुल मनुष्यों की कल-कल ध्वनि से युक्त, सहस्रों पाताल-कलशों की वायु के क्षुब्ध होने से उछलते हुए जलकणों की रज से अन्धकारमय बना, निरन्तर प्रचुर मात्रा में उठने वाले श्वेतवर्ण के फेन, पवन के प्रबल थपेड़ों से क्षुब्ध जल, तीव्र वेग के साथ तरंगित, चारों ओर तूफानी हवाएं क्षोभित, जो तट के साथ टकराते हए जल-समूह से तथा मगर-मच्छ आदि जलीय जन्तुओं के कारण अत्यन्त चंचल हो रहा होता है। बीच-बीच में उभरे हुए पर्वतों के साथ टकराने वाले एक बहते हुए अथाह जल-समूह से युक्त है, गंगा आदि महानदियों के वेग से जो शीघ्र ही भर जाने वाला है, जिसके गंभीर एवं अथाह भंवरों में जलजन्तु चपलतापूर्वक भ्रमण करते, व्याकुल होते, ऊपर-नीचे उछलते हैं, जो वेगवान अत्यन्त प्रचण्ड, क्षुब्ध हुए जल में से उठने वाली लहरों से व्याप्त हैं, महाकाय मगर-मच्छों, कच्छपों, ओहम्, घडियालों, बड़ी मछलियों, सुंसुमारों एवं श्वापद नामक जलीय जीवों के परस्पर टकराने से तथा एक दूसरे को निगल जाने के लिए दौड़ने से वह समुद्र अत्यन्त घोर होता है, जिसे देखते ही कायरजनों का हृदय काँप उठता है, जो अतीव भयानक है, अतिशय उद्वेगजनक है, जिसका ओर-छोर दिखाई नहीं देता, जो आकाश से सदृश निरालम्बन है, उपपात से उत्पन्न होने वाले पवन से प्रेरित और ऊपराऊपरी इठलाती हुई लहरों के वेग से जो नेत्रपथ-को आच्छादित कर देता है। उस समुद्रों में कहीं-कहीं गंभीर मेघगर्जना के समान गूंजती हुई, व्यन्तर देवकृत घोर ध्वनि के सदृश तथा प्रतिध्वनि के समान गंभीर और धुक्-धुक् करती ध्वनि सुनाई पड़ती है । जो प्रत्येक राह में रुकावट डालने वाले यक्ष, राक्षस, कूष्माण्ड एवं पिशाच जाति के कुपित व्यन्तर देवों के द्वारा उत्पन्न किए जानेवाले हजारों उत्पातों से परिपूर्ण है जो बलि, होम और धूप देकर की जाने वाली देवता की पूजा और रुधिर देकर की जाने वाली अर्चन प्रयत्नशील एवं सामुद्रिक व्यापार में निरत नौका-वणिकों-जहाजी व्यापारियों द्वारा सेवित है, जो कलिकाल के अन्त समान है, जिसका पार पाना कठिन है, जो गंगा आदि महानदियों का अधिपति होने के कारण अत्यन्त भयानक है, जिसके सेवन में बहुत ही कठिनाईयाँ होती हैं, जिसे पार करना भी कठिन है, यहाँ तक कि जिसका आश्रय लेना भी दुःखमय है, और जो खारे पानी से परिपूर्ण होता है । ऐसे समुद्र में परकीय द्रव्य के अपहारक ऊंचे किए हुए काले और श्वेत झंडों वाले, अति-वेगपूर्वक चलने वाले, पतवारों से सज्जित जहाजों द्वारा आक्रमण करके समुद्र के मध्य में जाकर सामुद्रिक व्यापारियों के जहाजों को नष्ट कर देते हैं। जिनका हृदय अनुकम्पाशून्य है, जो परलोककी परवाह नहीं करते, ऐसे लोग धन से समृद्ध ग्रामों, आकरों, नगरों, खेटों, कर्बटों, मडम्बों, पत्तनों, द्रोणमुखों, आश्रमों, निगमों एवं देशों को नष्ट कर देते हैं। और वे कठोर हृदय या निहित स्वार्थवाले, निर्लज्ज लोग मानवों को बन्दी बनाकर गायों आदि को ग्रहण करके ले जाते हैं। दारुण मति वाले, कृपाहीन-अपने आत्मीय जनों का भी घात करते हैं । वे गृहों की सन्धि को छेदते हैं । जो परकीय द्रव्यों से विरत नहीं हैं ऐसे निर्दय बुद्धि वाले लोगों के घरों में रक्खे हुए धन, धान्य एवं अन्य प्रकार के समूहों को हर लेते हैं । इसी प्रकार कितने ही अदत्तादान की गवेषणा करते हुए काल और अकाल में इधर-उधर भटकते हुए ऐसे श्मशान में फिरते हैं वहाँ चिताओं में जलती हुई लाशें पड़ी हैं, रक्त से लथपथ मृत शरीरों को पूरा खा लेने और रुधिर पी लेने के पश्चात इधर-उधर फिरती हई डाकिनों के कारण जो अत्यन्त भयावह जान पड़ता है, जहाँ गीदड़ खीं-खीं ध्वनि कर रहे हैं. उल्लओं की डरावनी आवाज आ रही है, भयोत्पादक एवं विद्रूप पिशाचों द्वारा अट्टहास मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 18 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक करने से जो अतिशय भयावना एवं अस्मरणीय हो रहा है और जो तीव्र दुर्गन्ध से व्याप्त एवं घिनौना होने के कारण देखने से भीषण जान पड़ता है। ऐसे श्मशान-स्थानों के अतिरिक्त बनों में, सूने घरों में, लयनों में, मार्ग में, बनी हुई दुकानों, पर्वतों की गुफाओं, विषम स्थानों और हिंस्र प्राणियों से व्याप्त स्थानों में क्लेश भोगते हुए मारे-मारे फिरते हैं । उनके शरीर की चमड़ी शीत और उष्ण से शुष्क हो जाती है, जल जाती है या चेहरे की कान्ति मंद पड़ जाती है। वे नरकभव में और तिर्यंच भव रूपी गहन वन में होने वाले निरन्तर दुःखों की अधिकता द्वारा भोगने योग्य पापकर्मों का संचय करते हैं । ऐसे घोर पापकर्मों का वे संचय करते हैं। उन्हें खाने योग्य अन्न और जल भी दुर्लभ होता है । कभी प्यासे, कभी भूखे, थके और कभी माँस, शब-मुर्दा, कभी कन्दमूल आदि जो कुछ भी मिला जाता है, उसी को खा लेते हैं । वे निरन्तर उद्विग्न रहते हैं, सदैव उत्कंठित रहते हैं। उनका कोई शरण नहीं होता । इस प्रकार वे अटवीवास करते हैं, जिसमें सैकड़ों सर्पो आदि का भय बना रहता है। वे अकीर्तिकर काम करने वाले और भयंकर तस्कर, ऐसी गुप्त विचारणा करते रहते हैं कि आज किसके द्रव्य का अपहरण करें; वे बहुत-से मनुष्यों के कार्य करने में विघ्नकारी होते हैं । वे नशा के कारण बेभान, प्रमत्त और विश्वास रखने वाले लोगों का अवसर देखकर घात कर देते हैं । विपत्ति और अभ्युदय के प्रसंगों में चोरी करने की बुद्धि वाले होते हैं । भेड़ियों की तरह रुधिर-पिपासु होकर इधर-उधर भटकते रहते हैं । वे राजाओं की मर्यादाओं का अतिक्रमण करने वाले, सज्जन पुरुषों द्वारा निन्दित एवं पापकर्म करने वाले अपनी ही करतूतों के कारण अशुभ परिणाम वाले और दुःख के भागी होते हैं । सदैव मलिन, दुःखमय अशान्तियुक्त चित्तवाले ये परकीय द्रव्य को हरण करने वाले इसी भव में सैकड़ों कष्टों से घिर कर क्लेश पाते हैं। सूत्र-१६ इसी प्रकार परकीय धन द्रव्य की खोज में फिरते हुए कईं चोर पकड़े जाते हैं और उन्हें मारा-पीटा जाता है, बाँधा जाता है और कैद किया जाता है । उन्हें वेग के साथ घूमाया जाता है । तत्पश्चात् चोरों को पकड़ने वाले, चौकीदार, गुप्तचर उन्हें कारागार में ट्रंस देते । कपड़े के चाबुकों के प्रहारों से, कठोर-हृदय सिपाहियों के तीक्ष्ण एवं कठोर वचनों की डाट-डपट से तथा गर्दन पकड़कर धक्के देने से उनका चित्त खेदखिन्न होता है । उन चोरों को नारकावास सरीखे कारागार में जबरदस्ती घुसेड़ दिया जाता है। वहाँ भी वे कारागार के अधिकारियों द्वारा प्रहारों, यातनाओं, तर्जनाओं, कटुवचनों एवं भयोत्पादक वचनों से भयभीत होकर दुःखी बने रहते हैं । उनके वस्त्र छीन लिये जाते हैं । वहाँ उनको मैले फटे वस्त्र मिलते हैं । बार-बार उन कैदियों से लाँच माँगने में तत्पर कारागार के रक्षकों द्वारा अनेक प्रकार के बन्धनों में बाँध दिये जाते हैं । चोरों को जिन विविध बन्धनों से बाँधा जाता है, वे बन्धन कौन-से हैं ? हड्डि या काष्ठमय बेड़ी, लोहमय बेड़ी, बालों से बनी हुई रस्सी, एक विशेष प्रकार का काष्ठ, चर्मनिर्मित मोटे रस्से, लोहे की सांकल, हथकड़ी, चमड़े का पट्टा, पैर बाँधने की रस्सी तथा निष्कोडन, इन सब तथा इसी प्रकार के अन्य-अन्य दुःखों को समुत्पन्न करने वाले कारागार के साधनों द्वारा बाँधे जाते हैं; इतना ही नहीं उन पापी चोर कैदियों के शरीर को सिकोड़ कर, मोड़ कर जकड़ दिया जाता है । कैदकोठरी में डाल कर किवाड़ बंद कर देना, लोहे के पींजरे में डालना, भूमिगृहमें बंद करना, कूपमें उतारना, बंदीघर के सींखचों से बाँध देना, अंगोंमें कीलें ठोकना, जूवा उनके कँधे पर रखना, गाड़ी के पहिये के साथ बाँध देना, बाहों जाँघों और सिर को कस कर बाँधना, खंभे से चिपटाना, पैरों को ऊपर और मस्तक को नीचे करके बाँधना, इत्यादि बन्धन से बाँधकर अधर्मी जेल-अधिकारीयों द्वारा चोर बाँधे जाते हैं । गर्दन नीची करके, छाती और सिर कस कर बाँध दिया जाता है तब वे निश्वास छोड़ते हैं । उनकी छाती धक् धक् करती है। उनके अंग मोड़े जाते हैं । ठंडी श्वासें छोड़ते हैं चमड़े की रस्सी से उनके मस्तक बाँध देते हैं, दोनों जंघाओं को चीर देते हैं, जोड़ों को काष्ठमय यन्त्र से बाँधा जाता है । तपाई हर्ड लोही की सलाइयाँ एवं सइयाँ शरीर में चुभोई जाती हैं । शरीर छीला जाता है। मर्मस्थलों को पीड़ित किया जाता है । क्षार कटक और तीखे पदार्थ उनके कोमल अंगों पर छिड़के जाते हैं । इस प्रकार पीड़ा पहुँचाने के सैकड़ों कारण वे प्राप्त करते हैं । छाती पर काष्ठ रखकर जोर से दबाने से उनकी हड्डियाँ मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 19 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक भग्न हो जाती हैं । मछली पकड़ने के काँटे के समान घातक काले लोहे के नोकदार डंडे छाती, पेट, गुदा और पीठ में भोंक देने से वे अत्यन्त पीड़ा अनुभव करते हैं । ऐसी-ऐसी यातनाओं से अदत्तादान करने वालों का हृदय मथ दिया जाता है और उनके अंग-प्रत्यंग चूर-चूर हो जाते हैं । कोई-कोई अपराध किये बिना ही वैरी बने हुए कर्मचारी यमदूतों के समान मार-पीट करते हैं । वे अभागे कारागार में थप्पड़ों, मुक्कों, चर्मपट्टों, लोहे के कुशों, लोहमय तीक्ष्ण शस्त्रों, चाबुकों, लातों, मोटे रस्सों और बेतों के सैकड़ों प्रहारों से अंग-अंग को ताड़ना देकर पीड़ित किये जाते हैं । लटकती हुई चमड़ी पर हुए घावों की वेदना से उन बेचारे चोरों का मन उदास हो जाता है । बेड़ियों को पहनाये रखने के कारण उनके अंग सिकुड़ जाते हैं और शिथिल पड़ जाते हैं । यहाँ तक कि उनका मल-मूत्रत्याग भी रोक दिया जाता है, उनका बोलना बंद कर दिया जाता है । वे इधर-उधर संचरण नहीं कर पाते । ये और इसी प्रकार की अन्यान्य वेदनाएं वे अदत्तादान का पाप करने वाले पापी प्राप्त करते हैं। जिन्होंने अपनी इन्द्रियों का दमन नहीं किया है-वशीभूत हो रहे हैं, जो तीव्र आसक्ति के कारण मूढ-बन गए हैं, परकीय धनमें लुब्ध हैं, जो स्पर्शनेन्द्रिय विषयमें तीव्र रूप से गद्ध-हैं, स्त्री सम्बन्धी रूप, शब्द, रस और गंध में इष्ट रति तथा इष्ट भोग की तृष्णा से व्याकुल बने हुए हैं, जो केवल धन में ही सन्तोष मानते हैं, ऐसे मनुष्य-गण फिर भी पापकर्म के परिणाम को नहीं समझते । वे आरक्षक-वधशास्त्र के पाठक होते हैं । चोरों को गिरफ्तार करने में चतुर होते हैं । सैकड़ों बार लांच-लेते हैं । झूठ, कपट, माया, निकृति करके वेषपरिवर्तन आदि करके चोर को पकड़ने तथा उससे अपराध स्वीकार कराने में अत्यन्त कुशल होते हैं वे नरकगतिगामी, परलोक से विमुख एवं सैकड़ों असत्य भाषण करने वाले, ऐसे राजकिंकरों के समक्ष उपस्थित कर दिये जाते हैं । प्राणदण्ड की सजा पाए हुए चोरों को पुरवर-में शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख, महापथ और पथ आदि स्थानों में जनसाधारण के सामने-लाया जाता है । तत्पश्चात् बेतों, डंडों, लाठियों, लकड़ियों, ढेलों, पत्थरों, लम्बे लठों, पणोल्लि, मुक्कों, लताओं, लातों, घुटनों और कोहनियों से, उनके अंग-अंग भंग कर दिए जाते हैं, उनके शरीर को मथ दिया जाता है। अठारह प्रकार के चोरों एवं चोरी के प्रकारों के कारण उनके अंग-अंग पीड़ित कर दिये जाते हैं, करुणाजनक दशा होती है। उनके ओष्ठ, कण्ठ, गला, तालु और जीभ सूख जाती है, जीवन की आशा नष्ट हो जाती है । पानी भी नसीब नहीं होता । उन्हें धकेले या घसीटे जाते हैं । अत्यन्त कर्कश पटह-बजाते हुए, धकियाए जाते हुए तथा तीव्र क्रोध से भरे हुए राजपुरुषों के द्वारा फाँसी पर चढ़ाने के लिए दृढ़तापूर्वक पकड़े हुए वे अत्यन्त ही अपमानित होते हैं । उन्हें दो वस्त्र और लाल कनेर की माला पहनायी जाती है, जो वध्यभूत सी प्रतीत होती है, पुरुष को शीघ्र ही मरणभीति से उनके शरीर से पसीना छूटता है, उनके सारे अंग भीग जाते हैं। कोयले आदि से उनका शरीर पोता है। हवा से उड़कर चिपटी हुई धूल से उनके केश रूखे एवं धूल भरे हो जाते हैं । उनके मस्तक के केशों को कुसुंभी से रंग दिया जाता है । उनकी जीवन-आशा छिन्न हो जाती है । अतीव भयभीत होने के कारण वे डगमगाते हुए चलते हैं और वे वधकों से भयभीत बने रहते हैं । उनके शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े कर दिए जाते हैं। उन्हीं के शरीर में से काटे हए और रुधिर से लिप्त माँस के टुकड़े उन्हें खिलाए जाते हैं । कठोर एवं कर्कश स्पर्श वाले पत्थर आदि से उन्हें पीटा जाता है । इस भयावह दृश्य को देखने के लिए उत्कंठित, पागलों जैसी नर-नारियों की भीड़ से वे घिर जाते हैं । नागरिक जन उन्हें देखते हैं । मृत्युदण्डप्राप्त कैदी की पोशाक पहनाई जाती है और नगर के बीचों-बीच हो कर ले जाया जाता है । उस समय वे अत्यन्त दयनीय दिखाई देते हैं । त्राणरहित, अशरण, अनाथ, बन्धुबान्धवविहीन, स्वजन द्वारा परित्यक्त वे इधर-उधर नजर डालते हैं और मौत के भय से अत्यन्त घबराए हुए होते हैं । उन्हें वधस्थल पर पहुंचा दिया जाता है और उन अभागों को शूली पर चढ़ा दिया जाता है, जिससे उनका शरीर चिर जाता है। वहाँ वध्यभूमि में उनके अंग-प्रत्यंग काट डाले जाते हैं । वृक्ष की शाखाओं पर टांग दिया जाता है । चार अंगों-को कस कर बाँध दिया जाता है । किन्हीं को पर्वत की चोटी से गिराया जाता है। उससे पत्थरों की चोट मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 20 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक सहेनी पड़ती है। किसी-किसी को हाथी के पैर के नीचे कुचला जाता है । उन अदत्तादान का पाप करनेवालों को कुंठित धारवाले-कुल्हाड़ों आदि से अठारह स्थानों में खंडित किया जाता है । कईयों के कान, आँख और नाक काटे जाते हैं तथा नेत्र, दाँत और वृषण उखाड़े जाते हैं । जीभ खींच ली जाती है, कान या शिराएं काट दी जाती हैं। फिर उन्हें वधभूमि में ले जाया जाता है और वहाँ तलवार से काटा जाता है । हाथ और पैर काट कर निर्वासित कर दिया जाता है । कईं चोरों को आजीवन कारागार में रखा जाता है । परकीय द्रव्य के अपहरण में लुब्ध कईं चोरों को सांकल बाँध कर एवं पैरों में बेड़ियाँ डाल कर बन्ध कर के उनका धन छीन लिया जाता है। वे चोर स्वजनों द्वारा त्याग दिये जाते हैं। सभी के द्वारा वे तिरस्कत होते हैं। अत एव वे सभी की ओर से निराश हो जाते हैं । बहुत-से लोगों के धिक्कार से वे लज्जित होते हैं । उन लज्जाहीन मनुष्यों को निरन्तर भूखा मरना पडता है। चोरी के वे अपराधी सर्दी, गर्मी और प्यास की पीडा से कराहते रहते हैं। उनका मुख-सहमा हआ और कान्तिहीन को जाता है । वे सदा विह्वल या विफल, मलिन और दुर्बल बने रहते हैं । थके-हारे या मुझाए रहते हैं, कोई-कोई खांसते रहते हैं और अनेक रोगों से ग्रस्त रहते हैं । अथवा भोजन भलीभाँति न पचने के कारण उनका शरीर पीड़ित रहता है । उनके नख, केश और दाढ़ी-मूंछों के बाल तथा रोम बढ़ जाते हैं । वे कारागार में अपने ही मल-मूत्र में लिप्त रहते हैं । जब इस प्रकार की दुस्सह वेदनाएं भोगते-भोगते वे, मरने की ईच्छा न होने पर भी, मर जाते हैं । उनके शब के पैरों में रस्सी बाँध कर किसी गड्ढे में फेंका जाता है । तत्पश्चात् भेड़िया, कुत्ते, सियार, शूकर तथा संडासी के समान मुखवाले अन्य पक्षी अपने मुखों से उनके शब को नोच-चींथ डालते हैं । कई शबों को पक्षी खा जाते हैं । कईं चोरों के मृत कलेवर में कीड़े पड़ जाते हैं, उनके शरीर सड़-गल जाते हैं । उनके बाद भी अनिष्ट वचनों से उनकी निन्दा की जाती है-अच्छा हुआ जो पापी मर गया । उसकी मृत्यु से सन्तुष्ट हुए लोग उसकी निन्दा करते हैं । इस प्रकार वे पापी चोर अपनी मौत के पश्चात् भी दीर्घकाल तक अपने स्वजनों को लज्जित करते रहते हैं। वे परलोक को प्राप्त होकर नरक में उत्पन्न होते हैं । नरक निराभिराम है और आग से जलते हुए घर के समान अत्यन्त शीत वेदना वाला होता है । असातावेदनीय कर्म की उदीरणा के कारण सैकड़ों दुःखों से व्याप्त है। नरक से उद्वर्त्तन करके फिर तिर्यंचयोनि में जन्म लेते हैं । वहाँ भी वे नरक जैसी असातावेदना को अनुभवते हैं । तिर्यंचयोनि में अनन्त काल भटकते हैं । किसी प्रकार, अनेकों बार नरकगति और लाखों बार तिर्यंचगति में जन्ममरण करते-करते यदि मनुष्यभव पा लेते हैं तो वहाँ भी नीच कुल में उत्पन्न और अनार्य होते हैं । कदाचित् आर्यकुल में जन्म मिल गया तो वहाँ भी लोकबाह्य होते हैं । पशुओं जैसा जीवन यापन करते हैं, कुशलता से रहित होते हैं, अत्यधिक कामभोगों की तृष्णा वाले और अनेकों बार नरक-भवों में उत्पन्न होने के कु-संस्कारों के कारण पापकर्म करने की प्रवृत्ति वाले होते हैं । अत एव संसार में परिभ्रमण कराने वाले अशुभ कर्मों का बन्ध करते हैं । वे धर्मशास्त्र के श्रवण से वंचित रहते हैं । वे अनार्य, क्रूर मिथ्यात्व के पोषक शास्त्रों को अंगीकार करते हैं । एकान्ततः हिंसा में ही उनकी रुचि होती है । इस प्रकार रेशम के कीडे के समान वे अष्टकर्म रूपी तन्तुओं से अपनी आत्मा को प्रगाढ बन्धनों से जकड़ लेते हैं। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति में गमनागमन करना संसार-सागर की बाह्य परिधि है । जन्म, जरा और मरण के कारण होने वाला गंभीर दुःख ही संसार-सागर का अत्यन्त क्षुब्ध जल है । संसार-सागर में संयोग और वियोग रूपी लहरें उठती रहती हैं | सतत-चिन्ता ही उसका प्रसार है । वध और बन्धन ही उसमें विस्तीर्ण तरंगें हैं । करुणाजनक विलाप तथा लोभ की कलकलाहट की ध्वनि की प्रचुरता है । अपमान रूपी फेन होते हैं । तीव्र निन्दा, पुनः पुनः उत्पन्न होनेवाले रोग, वेदना, तिरस्कार, पराभव, अधःपतन, कठोर झिड़कियाँ जिनके कारण ती हैं, ऐसे कठोर ज्ञानावरणीय आदि कर्मों रूपी पाषाणों से उठी हुई तरंगों के समान चंचल है । मृत्यु का भय उस संसार-समुद्र के जल का तल है । वह संसार-सागर कषायरूपी पाताल-कलशों से व्याप्त है । भवपरम्परा ही उसकी विशाल जलराशि है । वह अनन्त है । अपार है । महान भय रूप है । उसमें प्रत्येक प्राणी को मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 21 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक एक दूसरे के द्वारा उत्पन्न होने वाला भय बना रहता है। जिनकी कहीं कोई सीमा नहीं, ऐसी विपुल कामनाओं और कलुषित बुद्धि रूपी पवन आँधी के प्रचण्ड वेग के कारण उत्पन्न तथा आशा और पीपासा रूप पाताल, समुद्रतल से कामरति की प्रचुरता से वह अन्धकारमय हो रहा है । संसार-सागर के जल में प्राणी मोहरूपी भँवरों में भोगरूपी गोलाकार चक्कर लगा रहे हैं, व्याकुल होकर उछल रहे हैं, नीचे गिर रहे हैं । इस संसार-सागर में दौड़धाम करते हुए, व्यसनों से ग्रस्त प्राणियों के रुदनरूपी प्रचण्ड पवन से परस्पर टकराती हुई अमनोज्ञ लहरों से व्याकुल तथा तरंगों से फूटता हुआ एवं चंचल कल्लोलों से व्याप्त जल है । वह प्रमाद रूपी अत्यन्त प्रचण्ड एवं दुष्ट श्वापदों द्वारा सताये गये एवं इधर-उधर घूमते हुए प्राणियों के समूह का विध्वंस करने वाले घोर अनर्थों से परिपूर्ण है। उसमें अज्ञान रूपी भयंकर मच्छ घूमते हैं । अनुपशान्त इन्द्रियों वाले जीवरूप महामगरों की नयी-नयी उत्पन्न होने वाली चेष्टाओं से वह अत्यन्त क्षब्ध हो रहा है। उसमें सन्तापों का समूह विद्यमान है, ऐसा प्राणियों के द्वारा पूर्वसंचित एवं पापकर्मों के उदय से प्राप्त होनेवाला तथा भोगा जानेवाला फल रूपी घूमता हुआ जल-समूह है जो बिजली के समान चंचल है । वह त्राण एवं शरण से रहित है, इसी प्रकार संसार में अपने पापकर्मों का फल भोगने से कोई बच नहीं सकता। संसार-सागर में ऋद्धि, रस और सातागौरव रूपी अपहार द्वारा पकड़े हुए एवं कर्मबन्ध से जकड़े हुए प्राणी जब नरकरूप पाताल-तल के सम्मुख पहुँचते हैं तो सन्न और विषण होते हैं, ऐसे प्राणियों की बहलता वाला है । वह अरति, रति, भय, दीनता, शोक तथा मिथ्यात्व रूपी पर्वतों से व्याप्त हैं । अनादि सन्तान कर्मबन्धन एवं राग-द्वेष आदि क्लेश रूप कीचड़ के कारण उस संसार-सागर को पार करना अत्यन्त कठिन है । समुद्र में ज्वार के समान संसार-समुद्र में चतुर्गति रूप कुटिल परिवर्तनों से युक्त विस्तीर्ण-ज्वार-आते रहते हैं । हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह रूप आरंभ के करने, कराने और अनुमोदने से सचित्त ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के गुरुतर भार से दबे हुए तथा व्यसन रूपी जलप्रवाह द्वारा दूर फेंके गए प्राणियों के लिए इस संसार-सागर का तल पाना अत्यन्त कठिन है। इसमें प्राणी दुःखों का अनुभव करते हैं । संसार संबंधी सुख-दुःख से उत्पन्न होने वाले परिताप के कारण वे कभी ऊपर उठने और कभी डूबने का प्रयत्न करते रहते हैं । यह संसार-सागर चार दिशा रूप चार गतियों के कारण विशाल है । यह अन्तहीन और विस्तृत है । जो जीव संयम में स्थित नहीं, उनके लिए यहाँ कोई आलम्बन नहीं है । चौरासी लाख जीवयोनियों से व्याप्त हैं । यहाँ अज्ञानान्धकार छाया रहता है और र काल तक स्थायी है । संसार-सागर उद्वेगप्राप्त-दुःखी प्राणियों का निवास स्थान है । इस संसार में पापकर्मकारी प्राणी-जिस ग्राम, कुल आदि की आयु बाँधते हैं वहीं पर वे बन्धु-बान्धवों, स्वजनों और मित्रजनों से परिवर्जित होते हैं, वे सभी के लिए अनिष्ट होते हैं । उनके वचनों को कोई ग्राह्य नहीं मानता और वे दुर्विनीत होते हैं। उन्हें रहने को, बैठने को खराब आसन, सोने को खराब शय्या और खाने को खराब भोजन मिलता है । वे अशुचि रहते हैं । उनका संहनन खराब होता है, शरीर प्रमाणोपेत नहीं होता । उनके शरीर की आकृति बेडौल होती है । वे कुरूप होते हैं । तीव्रकषायी होते हैं और मोह की तीव्रता होती है । उनमें धर्मसंज्ञा नहीं होती । वे सम्यग्दर्शन से रहित होते हैं । उन्हें दरिद्रता का कष्ट सदा सताता रहता है। वे सदा परकर्मकारी रहकर जिन्दगी बिताते हैं। कृपण-रंक-दीन-दरिद्र रहते हैं । दूसरों के द्वारा दिये जाने वाले पिण्ड-ताक में रहते हैं । कठिनाई से दुःखपूर्वक आहार पाते हैं, किसी प्रकार रूखे-सूखे, नीरस एवं निस्सार भोजन से पेट भरते हैं। दूसरों का वैभव, सत्कार सम्मान, भोजन, वस्त्र आदि समुदय-अभ्युदय देखकर वे अपनी निन्दा करते हैं । इस भव में या पूर्वभव में किये पापकर्मों की निन्दा करते हैं । उदास मन रह कर शोक की आग में जलते हुए लज्जित-तिरस्कृत होते हैं । साथ ही वे सत्त्वहीन, क्षोभग्रस्त तथा चित्रकला आदि शिल्प के ज्ञान से, विद्याओं से एवं शास्त्र ज्ञान से शून्य होते हैं । यथाजात अज्ञान पशु के समान जड़ बुद्धि वाले, अविश्वसनीय या अप्रतीति उत्पन्न करने वाले होते हैं । सदा नीच कृत्य करके अपनी आजीविका चलाते हैं-लोकनिन्दित, असफल मनोरथ वाले, निराशा से ग्रस्त होते हैं। लो के प्राणी भवान्तर में भी अनेक प्रकार की तृष्णाओं के पाश में बँधे रहते मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 22 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक हैं। लोक में सारभूत अनुभव किये जाने वाले अर्थोपार्जन एवं कामभोगों सम्बन्धी सुख के लिए अनुकूल या प्रबल प्रयत्न करने पर भी उन्हें सफलता प्राप्त नहीं होती। उन्हें प्रतिदिन उद्यम करने पर भी बड़ी कठिनाई से इधर-उधर बिखरा भोजन ही नसीब होता है । वे प्रक्षीणद्रव्यसार होते हैं । अस्थिर धन, धान्य और कोश के परिभोग से वे सदैव वंचित रहते हैं । काम तथा भोग के भोगोपभोग के सेवन से भी वंचित रहते हैं । परायी लक्ष्मी के भोगोपभोग को अपने अधीन बनाने के प्रयास में तत्पर रहते हुए भी वे बेचारे न चाहते हुए भी केवल दुःख के ही भागी होते हैं । उन्हें न तो सुख नसीब होता है, न शान्ति । इस प्रकार जो पराये द्रव्यों से विरत नहीं हुए हैं, वे अत्यन्त एवं विपुल सैकड़ों दुःखों की आग में जलते रहते हैं । अदत्तादान का यह फलविपाक है । यह इहलोक और परलोक में भी होता है । यह सुख से रहित है और दुःखों की बहुलता वाला है । अत्यन्त भयानक है । अतीव प्रगाढ कर्मरूपी रज वाला है । बडा ही दारुण है, कर्कश है, असातामय है और हजारों वर्षों में इससे पिण्ड छटता है, किन्तु इसे भोगे बिना छूटकारा नहीं मिलता।। ज्ञातकुलनन्दन, महावीर भगवान ने इस प्रकार कहा है । अदत्तादान के इस तीसरे (आस्रव-द्वार के) फलविपाक को भी उन्हीं तीर्थंकर देव ने प्रतिपादित किया है । यह अदत्तादान, परधन-अपहरण, दहन, मृत्यु, भय, मलिनता, त्रास, रौद्रध्यान एवं लोभ का मूल है । इस प्रकार यह यावत् चिर काल से लगा हुआ है । इसका अन्त कठिनाई से होता है। अध्ययन-३-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 23 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-४ - आस्रवद्वार-४ सूत्र-१७ हे जम्बू ! चौथा आस्रवद्वार अब्रह्मचर्य है । यह अब्रह्मचर्य देवों, मानवों और असुरों सहित समस्त लोक द्वारा प्रार्थनीय है । यह प्राणियों को फँसाने वाले कीचड़ के समान है । संसार के प्राणियों को बाँधने के लिए पाश और फँसाने के लिए जाल सदृश है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद इसका चिह्न है । यह अब्रह्मचर्य तपश्चर्या, संयम और ब्रह्मचर्य के लिए विघातक है । सदाचार सम्यक्चारित्र के विनाशक प्रमाद का मूल है । कायरों और कापुरुषों द्वारा इसका सेवन किया जाता है । यह सुजनों द्वारा वर्जनीय है । ऊर्ध्वलोक, अधोलोक एवं तिर्यक्लोक में, इसकी अवस्थिति है । जरा, मरण, रोग और शोक की बहुलता वाला है । वध, बन्ध और विघात कर देने पर भी इसका विघात नहीं होता । यह दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का मूल कारण है । चिरकाल से परिचित है और सदा से अनुगत है । यह दुरन्त है, ऐसा यह अधर्मद्वार है। सूत्र - १८ उस पूर्व प्ररूपित अब्रह्मचर्य के गुणनिष्पन्न अर्थात् सार्थक तीस नाम हैं । अब्रह्म, मैथुन, चरंत, संसर्गि, सेवनाधिकार, संकल्पी, बाधनापद, दर्प, मूढ़ता, मनःसंक्षोभ, अनिग्रह, विग्रह, विघात, विभग, विभ्रम, अधर्म, अशीलता, ग्रामधर्मतप्ति, गति, रागचिन्ता, कामभोगमार, वैर, रहस्य, गुह्य, बहमान, ब्रह्मचर्यविघ्न, व्यापत्ति, विराधना, प्रसंग और कामगुण । सूत्र - १९ उस अब्रह्म नामक पापास्रव को अप्सराओं के साथ सरगण सेवन करते हैं। कौन-से देव सेवन करते हैं? जिनकी मति मोह के उदय से मूढ़ बन गई है तथा असुरकुमार, भुजगकुमार, गरुड़कुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, पवनकुमार तथा स्तनितकुमार, ये भवनवासी, अणपन्निक, पणपण्णिक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, महाक्रन्दित, कूष्माण्ड और पतंग देव, पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग और गन्धर्व । ये व्यन्तर देव, इनके अतिरिक्त तीर्छ-लोक में ज्योतिष्क देव, मनुष्यगण तथा जलचर, स्थलचर एवं खेचर अब्रह्म का सेवन करते हैं । जिनका चत्त मोहग्रस्त है, जिनकी प्राप्त कायभोग संबंधी तृष्णा अतृप्त है, जो अप्राप्त कामभोगों के लिए तृष्णातुर है, जो महती तृष्णा से बूरी तरह अभिभूत है, जो विषयों में गृद्ध एवं मूर्छित है, उससे होने वाले दुष्परिणामों का भान नहीं है, जो अब्रह्म के कीचड़ में फंसे हुए हैं और जो तामसभाव से मुक्त नहीं हुए हैं, ऐसे अन्योन्य नरनारी के रूप में अब्रह्म का सेवन करते हुए अपनी आत्मा को दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म के पींजरे में डालते हैं। पुनः असुरों, सुरों, तिर्यंचों और मनुष्यों सम्बन्धी भोगों में रतिपूर्वक विहार में प्रवृत्त, सुरेन्द्रों और नरेन्द्रों द्वारा सत्कृत, देवलोक में देवेन्द्र सरीखे, भरतक्षेत्र में सहस्रों पर्वतों, नगरों, निगमों, जनपदों, पुरवरों, द्रोणमुखों, खेटों, कर्बटों, छावनियों, पत्तनों से सुशोभित, सुरक्षित, स्थिर लोगों के निवास वाली, एकच्छत्र, एवं समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का उपभोग करके चक्रवर्ती-नरसिंह हैं, नरपति हैं, नरेन्द्र हैं, नर-वृषभ हैं-स्वीकार किये उत्तरदायित्व को निभाने में समर्थ हैं, जो मरुभूमि के वृषभ के समान, अत्यधिक राज-तेज रूपी लक्ष्मी से देदीप्यमान हैं, जो सौम्य एवं निरोग हैं, राजवंशों में तिलक के समान हैं, जो सूर्य, चन्द्रमा, शंख, चक्र, स्वस्तिक, पताका, यव, मत्स्य, कच्छप, उत्तम, रथ, भग, भवन, विमान, अश्व, तोरण, नगरद्वार, मणि, रत्न, नंद्यावर्त्त, मूसल, हल, सुन्दर कल्पवृक्ष, सिंह, भद्रासन, सुरुचि, स्तूप, सुन्दर मुकुट, मुक्तावली हार, कुंडल, हाथी, उत्तम बैल, द्वीप, मेरुपर्वत, गरुड़, ध्वजा, इन्द्रकेतु, अष्टापद, धनुष, बाण, नक्षत्र, मेघ, मेखला, वीणा, गाड़ी का जुआ, छत्र, माला, दामिनी, कमण्डलु, कमल, घंटा, जहाज, सूई, सागर, कुमुदवन, मगर, हार, गागर, नूपुर, पर्वत, नगर, वज्र, किन्नर, मयूर, उत्तम राजहंस, सारस, चकोर, चक्रवाक-युगल, चंवर, ढाल, पव्वीसक, विपंची, श्रेष्ठ पंखा, लक्ष्मी का अभिषेक, पृथ्वी, तलवार, अंकुश, निर्मल कलश, भंगार और वर्धमानक, (चक्रवर्ती इन सब) मांगलिक एवं विभिन्न लक्षणों के मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 24 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक धारक होते हैं। बत्तीस हजार श्रेष्ठ मुकुटबद्ध राजा मार्ग में उनके पीछे-पीछे चलते हैं । वे चौंसठ हजार श्रेष्ठ युवतियों के नेत्रों के कान्त होते हैं । उनके शरीर की कान्ति रक्तवर्ण होती है । वे कमल के गर्भ, चम्पा के फूलों, कोरंट की माला और तप्त सुवर्ण की कसौटी पर खींची हुई रेखा के समान गौर वर्ण वाले होते हैं । उनके सभी अंगोपांग अत्यन्त सुन्दर और सुडौल होते हैं । बड़े-बड़े पत्तनों में बने हुए विविध रंगों के हिरनी के चर्म के समान कोमल एवं बहुमूल्य वल्कल से तथा चीनी वस्त्रों, रेशमी वस्त्रों से तथा कटिसूत्र से उनका शरीर सुशोभित होता है । उनके मस्तिष्क उत्तम सुगन्ध से सुंदर चूर्ण के गंध से और उत्तम कुसुमों से युक्त होते हैं । कुशल कलाचार्यों द्वारा निपुणतापूर्वक बनाई हुई सुखकर माला, कड़े, अंगद, तुटिक तथा अन्य उत्तम आभूषणों को वे शरीर पर धारण किए रहते हैं । एकावली हार से उनका कण्ठ सशोभित रहता है । वे लम्बी लटकती धोती एवं उत्तरीय वस्त्र पहनते हैं। उनकी उंगलियाँ अंगूठियों से पीली रहती हैं । अपने उज्ज्वल एवं सुखप्रद वेष से अत्यन्त शोभायमान होते हैं। अपनी तेजस्विता से वे सूर्य के समान दमकते हैं। उनका आघोष शरद् ऋतु के नये मेघ की ध्वनि के समान मधुर गम्भीर एवं स्निग्ध होता है। उनके यहाँ चौदह रत्न-उत्पन्न हो जाते हैं और वे नौ निधियों के अधिपति होते हैं । उनका कोश, खूब भरपूर होता है । उनके राज्य की सीमा चातुरन्त होती है, चतुरंगिणी सेना उनके मार्ग का अनुगमन करती है । वे अश्वों, हाथियों, रथों, एवं नरों के अधिपति होते हैं । वे बड़े ऊंचे कुलों वाले तथा विश्रुत होते हैं । उनका मुख शरद्-ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा के समान होता है । शूरवीर होते हैं । उनका प्रभाव तीनों लोकों में फैला होता है एवं सर्वत्र उनकी जय-जयकार होती है । वे सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के अधिपति, धीर, समस्त शत्रुओं के विजेता, बड़े-बड़े राजाओं में सिंह के समान, पूर्वकाल में किए तप के प्रभाव से सम्पन्न, संचित पुष्ट सुख को भोगने वाले, अनेक वर्षशत के आयुष्य वाले एवं नरों में इन्द्र होते हैं । उत्तर दिशा में हिमवान् वर्षधर पर्वत और शेष तीन दिशाओं में लवणसमुद्र पर्यन्त समग्र भरतक्षेत्र का भोग उनके जनपदों में प्रधान एवं अतुल्य शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध सम्बन्धी काम-भोगों का अनुभव करते हैं। फिर भी वे काम-भोगों से तप्त हए बिना ही मरणधर्म को प्राप्त हो जाते हैं। बलदेव और वासुदेव पुरुषों में अत्यन्त श्रेष्ठ होते हैं, महान् बलशाली और महान् पराक्रमी होते हैं । बड़े-बड़े धनुषों को चढ़ाने वाले, महान् सत्त्व के सागर, शत्रुओं द्वारा अपराजेय, धनुषधारी, मनुष्यों में वृषभ समान, बलराम और श्रीकृष्ण-दोनों भाई-भाई विशाल परिवार समेत होते हैं । वे वसुदेव तथा समुद्रविजय आदि दशाह के तथा प्रद्युम्न, प्रतिव, शम्ब, अनिरुद्ध, निषध, उल्मक, सारण, गज, सुमुख, दुर्मुख आदि यादवों और साढ़े तीन करोड़ कुमारों के हृदयों को प्रिय होते हैं । वे देवी रोहिणी तथा देवकी के हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाले होते हैं । सोलह हजार मुकुट-बद्ध राजा उनके मार्ग का अनुगमन करते हैं । वे सोलह हजार सुनयना महारानियों के हृदय के वल्लभ होते हैं। उनके भाण्डार विविध प्रकार की मणियों, स्वर्ण, रत्न, मोती, मूंगा, धन और धान्य के संचय रूप ऋद्धि से सदा भरपूर रहते हैं । वे सहस्रों हाथियों, घोड़ों एवं रथों के अधिपति होते हैं । सहस्रों ग्रामों, आकरों, नगरों, खेटों, कर्बटों, मडम्बों, द्रोणमुखों, पट्टनों, आश्रमों, संवाहों में स्वस्थ, स्थिर, शान्त और प्रमुदित जन निवास करते हैं, जहाँ विविध प्रकार के धान्य उपजाने वाली भूमि होती है, बड़े-बड़े सरोवर हैं, नदियाँ हैं, छोटे-छोटे तालाब हैं, पर्वत हैं, वन हैं, आराम हैं, उद्यान हैं, वे अर्धभरत क्षेत्र के अधिपति होते हैं, क्योंकि भरतक्षेत्र का दक्षिण दिशा की ओर का आधा भाग वैताढ्य नामक पर्वत के कारण विभक्त हो जाता है और वह तीन तरफ लवणसमुद्र से घिरा है । उन तीनों खण्डों के शासक वासुदेव होते हैं । वह अर्धभरत छहों प्रकार के कालों में होने वाले अत्यन्त सुख से युक्त होता है। बलदेव और वासुदेव धैर्यवान् और कीर्तिमान होते हैं । वे ओघबली होते हैं । अतिबल होते हैं । उन्हें कोई आहत नहीं कर सकता । वे कभी शत्रुओं द्वारा पराजित नहीं होते । वे दयालु, मत्सरता से रहित, चपलता से रहित, मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक बिना कारण कोप न करने वाले, परिमित और मंजु भाषण करने वाले, मुस्कान के साथ गंभीर और मधुर वाणी का प्रयोग करने वाले, अभ्युगत के प्रति वत्सलता रखने वाले तथा शरणागत की रक्षा करने वाले होते हैं । उनका समस्त शरीर लक्षणों से, व्यंजनों से तथा गुणों से सम्पन्न होता है । मान और उन्मान से प्रमाणोपेत तथा इन्द्रियों एवं अवयवों से प्रतिपूर्ण होने के कारण उनके शरीर के सभी अंगोपांग सुडौल-सुन्दर होते हैं | चन्द्रमा के समान सौम्य होता है और वे देखने में अत्यन्त प्रिय और मनोहर होते हैं । वे अपराध को सहन नहीं करते । प्रचण्ड एवं देखने में गंभीर मुद्रा वाले होते हैं । बलदेव की ऊंची ध्वजा ताड़ वृक्ष के चिह्न से और वासुदेव की ध्वजा गरुड़ के चिह्न से अंकित होती है । गर्जते हुए अभिमानियों में भी अभिमानी मौष्टिक और चाणूर नामक पहलवानों के दर्प को (उन्होंने) चूर-चूर कर दिया था । रिष्ट नामक सांड का घात करने वाले, केसरी सिंह के मुख को फाड़ने वाले, अभिमानी नाग के अभिमान का मथन करने वाले, यमल अर्जुन को नष्ट करने वाले, महाशकुनि और पूतना नामक विद्याधारियों के शत्रु, कंस के मुकुट को मोड़ देने वाले और जरासंघ का मान-मर्दन करने वाले थे। वे सघन, एकसरीखी एवं ऊंची शलाकाओं से निर्मित तथा चन्द्रमण्डल के समान प्रभा वाले, सूर्य की किरणों के समान, अनेक प्रतिदण्डों से युक्त छत्रों को धारण करने से अतीव शोभायमान थे। उनके दोनों पार्श्वभागों में ढोले जाते हए चामरों से सुखद एवं शीतल पवन किया जाता है । उन चामरों की विशेषता इस प्रकार है-पार्वत्य प्रदेशों में विचरण करने वाली चमरी गायों से प्राप्त किये जाने वाले, नीरोग चमरी गायों के पूछ में उत्पन्न हुए, अम्लान, उज्ज्वल-स्वच्छ रजतगिरि के शिखर एवं निर्मल चन्द्रमा की किरणों के सदृश वर्ण वाले तथा चाँदी के समान निर्मल होते हैं । पवन से प्रताडित, चपलता से चलने वाले, लीलापूर्वक नाचते हुए एवं लहरों के प्रसार तथा सुन्दर क्षीर-सागर के सलिलप्रवाह के समान चंचल होते हैं । साथ ही वे मानसरोवर के विस्तार में परिचित आवास वाली, श्वेत वर्ण वाली, स्वर्णगिरि पर स्थित तथा ऊपर-नीचे गमन करने में अन्य चंचल वस्तुओं को मात कर देने वाले वेग से युक्त हंसनियों के समान होते हैं । विविध प्रकार की मणियों के तथा तपनीय स्वर्ण के बने विचित्र दंडों वाले होते हैं । वे लालित्य से युक्त और नरपतियों की लक्ष्मी के अभ्युदय को प्रकाशित करते हैं । वे बड़े-बड़े पत्तनों में निर्मित होते हैं और समृद्धिशाली राजकुलों में उनका उपयोग किया जाता है । वे चामर, काले अगर, उत्तम कुंदरुक्क एवं तुरुष्क की धूप के कारण उत्पन्न होने वाली सुगंध के समूह से सुगंधित होते हैं। (वे बलदेव और वासुदेव) अपराजेय होते हैं । उनके रथ अपराजित होते हैं । बलदेव हाथों में हल, मूसल और बाण धारण करते हैं और वासुदेव पाञ्चजन्य शंख, सुदर्शन चक्र, कौमुदी गदा, शक्ति और नन्दक नामक खड्ग धारण करते हैं । अतीव उज्ज्वल एवं सुनिर्मित कौस्तुभ मणि और मुकुट को धारण करते हैं । कुंडलों से उनका मुखमण्डल प्रकाशित होता रहता है । उनके नेत्र पुण्डरीक समान विकसित होता है । उनके कण्ठ और वक्षःस्थल पर एकावली हार शोभित रहता है । उनके वक्षःस्थल में श्रीवत्स का सुन्दर चिह्न बना होता है । वे उत्तम यशस्वी होते हैं । सर्व ऋतुओं के सौरभमय सुमनों से ग्रथित लम्बी शोभायुक्त एवं विकसित वनमाला से उनका वक्षःस्थल शोभायमान रहता है । उनके अंग उपांग एक सौ आठ मांगलिक तथा सुन्दर लक्षणों से सुशोभित होते हैं। उनकी गति मदोन्मत्त उत्तम गजराज की गति के समान ललित और विलासमय होती है। उनकी कमर कटिसूत्र से शोभित होती है और वे नीले तथा पीले वस्त्रों को धारण करते हैं । वे देदीप्यमान तेज से विराजमान होते हैं। उनका घोष शरत्काल के नवीन मेघ की गर्जना के समान मधुर, गंभीर और स्निग्ध होता है । वे नरों में सिंह के समान होते हैं । उनकी गति सिंह के समान पराक्रमपूर्ण होती है । वे बड़े-बड़े राज-सिंहों के समाप्त कर देने वाले हैं । फिर (भी प्रकृति से) सौम्य होते हैं । वे द्वारवती के पूर्ण चन्द्रमा थे । वे पूर्वजन्म में किये तपश्चरण के प्रभाव वाले होते हैं । वे पूर्वसंचित इन्द्रियसुखों के उपभोक्ता और अनेक सौ वर्षों की आयु वाले होते हैं । ऐसे बलदेव और वासुदेव अनुपम शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धरूप इन्द्रियविषयों का अनुभव करते हैं । परन्तु वे भी कामभोगों से तृप्त हुए बिना ही कालधर्म को प्राप्त होते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 26 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक और माण्डलिक राजा भी होते हैं । वे भी सबल होते हैं । उनका अन्तःपुर विशाल होता है । वे सपरिषद् होते हैं । शान्तिकर्म करने वाले पुरोहितों से, अमात्यों से, दंडनायकों से, सेनापतियों से जो गुप्त मंत्रणा करने एवं नीति में निपुण होते हैं, इन सब से सहित होते हैं । उनके भण्डार अनेक प्रकार की मणियों से, रत्नों से, विपुल धन और धान्य से समृद्ध होते हैं । वे अपनी विपुल राज्य-लक्ष्मी का अनुभव करके, अपने शत्रुओं का पराभव करके बल में उन्मत्त रहते हैं ऐसे माण्डलिक राजा भी कामभोगों से तृप्त नहीं हए । वे भी अतृप्त रह कर ही कालधर्म को प्राप्त हो गए। इसी प्रकार देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रों के वनों में और गुफाओं में पैदल विचरण करने वाले युगल मनुष्य होते हैं । वे उत्तम भोगों से सम्पन्न होते हैं । प्रशस्त लक्षणों के धारक होते हैं । भोग-लक्ष्मी से युक्त होते हैं । वे प्रशस्त मंगलमय सौम्य एवं रूपसम्पन्न होने के कारण दर्शनीय होते हैं । सर्वांग सुन्दर शरीर के धारक होते हैं । उनकी हथेलियाँ और पैरों के तलभाग-लाल कमल के पत्तों की भाँति लालिमायुक्त और कोमल होते हैं । उनके पैर कछुए के समान सुप्रतिष्ठित होते हैं । उनकी अंगुलियाँ अनुक्रम से बड़ी-छोटी, सुसंहत होती हैं । उनके नख उन्नतपतले, रक्तवर्ण और चिकने होते हैं । उनके पैरों के गुल्फ सुस्थित, सुघड़ और मांसल होने के कारण दिखाई नहीं देते हैं । उनकी जंघाएं हिरणी की जंघा, कुरुविन्द नामक तृण और वृत्त समान क्रमशः वर्तुल एवं स्थूल होती हैं । उनके घुटने डिब्बे एवं उसके ढक्कन की संधि के समान गूढ़ होते हैं, उनकी गति मदोन्मत्त उत्तम हस्ती के समान विक्रम और विकास से युक्त होती है, उनका गुह्यदेश उत्तम जाति के घोड़े के गुप्तांग के समान सुनिर्मित एवं गुप्त होता है । उत्तम जाति के अश्व के समान उन यौगलिक पुरुषों का गुदाभाग भी मल के लेप से रहित होता है । उनका कटिभाग हृष्ट-पृष्ट एवं श्रेष्ठ और सिंह की कमर से भी अधिक गोलाकार होता है । उनकी नाभि गंगा नदी के आवर्त्त के समान चक्कर-दार तथा सूर्य की किरणों से विकसित कमल की तरह गंभीर और विकट होती है। उनके शरीर का मध्यभाग समेटी हुई त्रिकाष्ठिका-मूसल, दर्पण और शुद्ध किए हुए उत्तम स्वर्ण से निर्मित खड्ग की मूठ एवं श्रेष्ठ वज्र के समान कृश होता है । उनकी रोमराजि सीधी, समान, परस्पर सटी हुई, स्वभावतः बारीक, कृष्णवर्ण, चिकनी, प्रशस्त पुरुषों के योग्य सुकुमार और सुकोमल होती है । वे मत्स्य और विहग के समान उत्तम रचना से युक्त कुक्षि वाले होने से झषोदर होते हैं । उनकी नाभि कमल के समान गंभीर होती है । पार्श्वभाग नीचे की ओर झुके हुए होते हैं, अत एव संगत, सुन्दर और सुजात होते हैं । वे पार्श्व प्रमाणोपेत एवं परिपुष्ट होते हैं | वे ऐसे देह के धारक होते हैं, जिसकी पीठ और बगल की हड्डियाँ माँसयुक्त होती हैं तथा जो स्वर्ण के आभूषण के समान निर्मल कान्तियुक्त, सुन्दर बनावट वाली और निरुपहत होती है। उनके वक्षःस्थल सोने की शिला के तल के समतल, उपचित और विशाल होते हैं। उनकी कलाइयाँ गाडी के जुए के समान पुष्ट, मोटी एवं रमणीय होती हैं । तथा अस्थिसन्धियाँ अत्यन्त सुडौल, सुगठित, सुन्दर, माँसल और नसों से दृढ़ बनी होती हैं । उनकी भुजाएं नगर के द्वार की आगल के समान लम्बी और गोलाकार होती हैं । उनके बाहु भुजगेश्वर के विशाल शरीर के समान और अपने स्थान से पृथक् की हुई आगल के समान लम्बे होते हैं । उनके हाथ लाल-लाल हथेलियों वाले, परिपुष्ट, कोमल, मांसल, सुन्दर बनावट वाले, शुभ लक्षणों से युक्त और निश्छिद्र उंगलियों वाले होते हैं । उनके हाथों की उंगलियाँ पुष्ट, सुरचित, कोमल और श्रेष्ठ होती हैं । उनके नख ताम्रवर्ण के, पतले, स्वच्छ, रुचिर, चिकने होते हैं । तथा चन्द्रमा की तरह, सूर्य के समान, शंख के समान या चक्र के समान, दक्षिणावर्त्त स्वस्तिक के चिह्न से अंकित, हस्त-रेखाओं वाले होते हैं । उनके कंधे उत्तम महिष, शूकर, सिंह, व्याघ्र, सांड़ और गजराज के कंधे के समान परिपूर्ण होते हैं। उनकी ग्रीवा चार अंगुल परिमित एवं शंख जैसी होती है। उनक दाढ़ी-मूंछे अवस्थित हैं तथा सुविभक्त एवं सुशोभन होती हैं । वे पुष्ट, मांसयुक्त, सुन्दर तथा व्याघ्र के समान विस्तीर्ण हनुवाले होते हैं । उनके अधरोष्ठ संशुद्ध मूंगे और बिम्बफल के सदृश लालिमायुक्त होते हैं । उनके दाँतों की पंक्ति चन्द्रमा के टुकड़े, निर्मल शंख, गाय के दूध के फेन, कुन्दपुष्प, जलकण तथा कमल की नाल के समान धवल-श्वेत होती है । उनके दाँत अखण्ड, अविरल, अतीव स्निग्ध और सुरचित होते हैं । वे एक दन्तपंक्ति के मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 27 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक समान अनेक दाँतों वाले होते हैं । उनका तालु और जिह्वा अग्नि में तपाये हुए और फिर धोये हुए स्वच्छ स्वर्ण के सदृश लाल तल वाली होती है । उनकी नासिका गरुड़ के समान लम्बी, सीधी और ऊंची होती है । उनके नेत्र विकसित पुण्डरीक के समान एवं धवल होते हैं । उनकी भू किंचित् नीचे झुकाए धनुष के समान मनोरम, कृष्ण मेघों की रेखा के समान काली, उचित मात्रा में लम्बी एवं सुन्दर होती हैं । कान आलीन और उचित प्रमाण वाले होते हैं । उनके कपोलभाग परिपुष्ट तथा मांसल होते हैं । उनका ललाट अचिर उद्गत, ऐसे बाल-चन्द्रमा के आकार का तथा विशाल होता है। उनका मुखमण्डल पूर्ण चन्द्र के सदृश सौम्य होता है । मस्तक छत्र के आकार का उभरा हुआ होता है । उनके सिर का अग्रभाग मुद्गर के समान सुदृढ नसों से आबद्ध, प्रशस्त लक्षणों-चिह्नों से सुशोभित, उन्नत, शिखरयुक्त भवन के समान और गोलाकार पिण्ड जैसा होता है। उनके मस्तक की चमड़ी अग्नि में तपाये और फिर धोये हुए सोने के समान लालिमायुक्त एवं केशों वाली होती है । उनके मस्तक के केश शामल्मली वृक्ष के फल के समान सघन, छांटे हुए-बारीक, सुस्पष्ट, मांगलिक, स्निग्ध, उत्तम लक्षणों से युक्त, सुवासित, सुन्दर, भुजमोचक रत्न जैसे काले वर्ण वाले, नीलमणि और काजल के सदृश तथा हर्षित भ्रमरों में झुंड की तरह काली कान्ति वाले, गुच्छ रूप, धुंघराले, दक्षिणावर्त हैं । उनके अंग सुडौल, सुविभक्त और सुन्दर होते हैं। वे यौगलिक उत्तम लक्षणों, व्यंजनों तथा गुणों से सम्पन्न होते हैं । वे प्रशस्त बत्तीस लक्षणों के धारक होते हैं । वे हंस के, क्रौंच पक्षी के, दुन्दुभि के एवं सिंह के समान स्वर वाले होते हैं । उनका स्वर ओघ होता है । उनकी ध्वनि मेघ की गर्जना जैसी होती है, अत एव कानों को प्रिय लगती है । उनका स्वर और निर्घोष सुन्दर होते हैं । वे वज्रऋषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान के धारक होते हैं । उनके अंग-प्रत्यंग कान्ति से देदीप्यमान रहते हैं । उनके शरीर की त्वचा प्रशस्त होती है । वे नीरोग होते हैं और कंक नामक पक्षी के समान अल्प आहार करते हैं। उनकी आहार को पचाने की शक्ति कबूतर जैसी होती है । उनका मल-द्वार पक्षी जैसा होता है, जिसके कारण वह मल-लिप्त नहीं होता । उनकी पीठ, पार्श्वभाग और जंघाएं सुन्दर, सुपरिमित होती हैं । पद्म नीलकमल की सुगन्ध के सदृश मनोहर गन्ध से उनका श्वास एवं मुख सुगन्धित रहता है । उनके शरीर की वायु का वेग सदा अनुकूल रहता है । वे गौर-वर्ण, स्निग्ध तथा श्याम होते हैं । उनका उदर शरीर के अनुरूप उन्नत होता है । वे अमृत के समान रस वाले फलों का आहार करते हैं । उनके शरीर की ऊंचाई तीन गव्यूति की और वायु तीन पल्योपम होती है। परी आय को भोग कर वे अकर्मभूमि के मनुष्य कामभोगों से अतृप्त रहकर ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं। उनकी स्त्रियाँ भी सौम्य एवं सात्त्विक स्वभाव वाली होती हैं । उत्तम सर्वांगों से सुन्दर होती हैं । महिलाओं के सब श्रेष्ठ गुणों से युक्त होती हैं। उनके पैर अत्यन्त रमणीय, शरीर के अनुपात में उचित प्रमाण वाले कच्छप के समान और मनोज्ञ होते हैं । उनकी उंगलियाँ सीधी, कोमल, पुष्ट और निश्छिद्र होती हैं । उनके नाखून उन्नत, प्रसन्न-ताजनक, पतले, निर्मल और चमकदार होते हैं । उनकी दोनों जंघाएं रोमों से रहित, गोलाकार श्रेष्ठ मांगलिक लक्षणों से सम्पन्न और रमणीय होती हैं । उनके घुटने सुन्दर रूप से निर्मित तथा मांसयुक्त होने के कारण निगूढ होते हैं। उनकी सन्धियाँ मांसल, प्रशस्त तथा नसों से सुबद्ध होती हैं। उनकी सांथल कदली-स्तम्भ से भी अधिक सुन्दर आकार की, घाव आदि से रहित, सुकुमार, कोमल, अन्तररहित, समान प्रमाण वाली, सुन्दर लक्षणों से युक्त, सुजात, गोलाकार और पुष्ट होती है। उनकी कटि अष्टापद समान आकारवाली, श्रेष्ठ और विस्तीर्ण होती है । वे मुख की लम्बाई के प्रमाण, विशाल, मांसल, गढे हुए श्रेष्ठ जघन को धारण करनेवाली होती हैं । उदर वज्र के समान शोभायमान, शुभ लक्षणों से सम्पन्न एवं कृश होता है। शरीर का मध्यभाग त्रिवलि से युक्त, कृश और नमित होता है । रोमराजि सीधी, एकसी, परस्पर मिली हुई, स्वाभाविक, बारीक, काली, मुलायम, प्रशस्त, ललित, सुकुमार, कोमल और सुविभक्त होती है। नाभि गंगा नदी के भंवरों के समान, दक्षिणावर्त चक्कर वाली तरंगमाला जैसी, सूर्य की किरणों से ताजा खिले हुए और नहीं कुम्हलाए हुए कमल के समान गंभीर एवं विशाल होती हैं । उनकी कुक्षि अनुद्भट प्रशस्त, सुन्दर और मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 28 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक पुष्ट होती है । उनका पार्श्वभाग सन्नत, सुगठित और संगत होता है तथा प्रमाणोपेत, उचित मात्रा में रचित, पुष्ट और रतिद होता है। उनकी गात्रयष्टि अस्थि से रहित, शुद्ध स्वर्ण से निर्मित रुचक नामक आभूषण के समान निर्मल या स्वर्ण की कान्ति के समान सुगठित तथा नीरोग होती है । उनके दोनों पयोधर स्वर्ण के दो कलशों के सदृश, प्रमाणयुक्त, उन्नत, कठोर तथा मनोहर चूची वाले तथा गोलाकार होते हैं । उनकी भुजाएं सर्प की आकृति सरीखी क्रमशः पतली गाय की पूँछ के समान गोलाकार, एक-सी, शिथिलता से रहित, सुनमित, सुभग एवं ललित होती हैं । उनके नाखून ताम्रवर्ण होते हैं । उनके अग्रहस्त मांसल होती है । उनकी अंगुलियाँ कोमल और पुष्ट होती हैं । उनकी हस्तरेखाएं स्निग्ध होती हैं तथा चन्द्रमा, सूर्य, शंख, चक्र एवं स्वस्तिक के चिह्नों से अंकित एवं सनिर्मित होती हैं। उनकी कांख और मलोत्सर्गस्थान पुष्ट तथा उन्नत होते हैं एवं कपोल परिपूर्ण तथा गोलाकार होते हैं । उनकी ग्रीवा चार अंगुल प्रमाण वाली एवं उत्तम शंख जैसी होती है। उनकी ठुड्डी मांस से पुष्ट, सुस्थिर तथा प्रशस्त होती है । उनके अधरोष्ठ अनार के खिले फूल जैसे लाल, कान्तिमय, पुष्ट, कुछ लम्बे, कुंचित और उत्तम होते हैं । उनके उत्तरोष्ठ भी सुन्दर होते हैं । उनके दाँत दहीं, पत्ते पर पड़ी बूंद, कुन्द के फूल, चन्द्रमा एवं चमेली की कली के समान श्वेत वर्ण, अन्तररहित और उज्ज्वल होते हैं । वे रक्तोत्पल के समान लाल तथा कमलपत्र के सदृश कोमल तालु और जिह्वा वाली होती हैं । उनकी नासिका कनेर की कली के समान, वक्रता से रहित, आगे से ऊपर उठी, सीधी और ऊंची होती है । उनके नेत्र सूर्यविकासी कमल, चन्द्रविकासी कुमुद तथा कुवलय के पत्तों के समूह के समान, शुभ लक्षणों से प्रशस्त, कुटिलता से रहित और कमनीय होते हैं । भौंहें किंचित् नमाये हुए धनुष के समान मनोहर, कृष्णवर्ण मेघमाला के समान सुन्दर, पतली, काली और चिकनी होती हैं । कपोलरेखा पुष्ट, साफ और चिकनी होती हैं । ललाट चार अंगुल विस्तीर्ण और सम होता है । मुख चन्द्रिकायुक्त निर्मल एवं परिपूर्ण चन्द्र समान गोलाकार एवं सौम्य होता है । मस्तक छत्र के सदृश उन्नत होता है । और मस्तक के केश काले, चिकने और लम्बे-लम्बे होते हैं। वे उत्तम बत्तीस लक्षणों से सम्पन्न होती हैं-यथा छत्र, ध्वजा, यज्ञस्तम्भ, स्तूप, दामिनी, कमण्डलु, कलश, वापी, स्वस्तिक, पताका, यव, मत्स्य, कच्छप, प्रधान रथ, मकरध्वज, वज्र, थाल, अंकुश, अष्टापद, स्थापनिका, देव, लक्ष्मी का अभिषेक, तोरण, पृथ्वी, समुद्र, श्रेष्ठ भवन, श्रेष्ठ पर्वत, उत्तम दर्पण, क्रीड़ा करता हुआ हाथी, वृषभ, सिंह और चमर । उनकी चाल हंस जैसी और वाणी कोकिला के स्वर की तरह मधुर होती है। वे कमनीय कान्ति से युक्त और सभी को प्रिय लगती हैं । उनके शरीर पर न झुरियाँ पड़ती हैं, न उनके बाल सफेद होते हैं, न उनमें अंगहीनता होती है, न कुरूपता होती है । वे व्याधि, दुर्भाग्य एवं शोक-चिन्ता से मुक्त रहती हैं । ऊंचाई में पुरुषों से कुछ कम ऊंची होती हैं । शृंगार के आगार के समान और सुन्दर वेश-भूषा से सुशोभित होती हैं । उनके स्तन, जघन, मुख, हाथ, पाँव और नेत्र-सभी कुछ अत्यन्त सुन्दर होते हैं । सौन्दर्य, रूप और यौवन के गुणों से सम्पन्न होती हैं । वे नन्दन वन में विहार करने वाली अप्सराओं सरीखी उत्तरकुरु क्षेत्र की मानवी अप्सराएं होती हैं। वे आश्चर्यपूर्वक दर्शनीय होती हैं, वे तीन पल्योपम की उत्कृष्ट मनुष्यायु को भोग कर भी कामभोगों से तृप्त नहीं हो पाती और अतृप्त रहकर ही कालधर्म को प्राप्त होती हैं। सूत्र-२० जो मनुष्य मैथुनसंज्ञा में अत्यन्त आसक्त है और मूढता अथवा से भरे हुए हैं, वे आपस में एक दूसरे का शस्त्रों से घात करते हैं । कोई-कोई विषयरूपी विष की उदीरणा करने वाली परकीय स्त्रियों में प्रवृत्त होकर दूसरों के द्वारा मारे जाते हैं । जब उनकी परस्त्रीलम्पटता प्रकट हो जाती है तब धन का विनाश और स्वजनों का सर्वथा नाश प्राप्त करते हैं, जो परस्त्रियों में विरत नहीं है और मैथुनसेवन की वासना से अतीव आसक्त हैं और मूढता या मोह से भरपूर हैं, ऐसे घोड़े, हाथी, बैल, भैंसे और मृग परस्पर लड़कर एक-दूसरे को मार डालते हैं । मनुष्यगण, बन्दर और पक्षीगण भी मैथुनसंज्ञा के कारण परस्पर विरोधी बन जाते हैं । मित्र शीघ्र ही शत्रु बन जाते हैं । परस्त्री मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 29 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक गामी पुरुष सिद्धांतों को, अहिंसा, सत्य आदि धर्मों को तथा गण को या समाज की मर्यादाओं को भंग कर देते हैं । यहाँ तक कि धर्म और संयमादि गुणों में निरत ब्रह्मचारी पुरुष भी मैथुनसंज्ञा के वशीभूत होकर क्षणभर में चारित्रसंयम से भ्रष्ट हो जाते हैं । बड़े-बड़े यशस्वी और व्रतों का समीचीन रूप से पालन करने वाले भी अपयश और अपकीर्ति के भागी बन जाते हैं । ज्वर आदि रोगों से ग्रस्त तथा कोढ़ आदि व्याधियों से पीड़ित प्राणी मैथुनसंज्ञा की तीव्रता की बदौलत रोग और व्याधि की अधिक वृद्धि कर लेते हैं, जो मनुष्य परस्त्री से विरत नहीं है, वे दोनों लोको में, दुराधक होते हैं, इस प्रकार जिनकी बुद्धि तीव्र मोह या मोहनीय कर्म के उदय से नष्ट हो जाती है, वे यावत् अधोगति को प्राप्त होते हैं। सीता, द्रौपदी, रुक्मिणी, पद्मावती, तारा, काञ्चना, रक्तसुभद्रा, अहिल्या, किन्नरी, स्वर्णगुटिका, सुरूपविद्यन्मती और रोहिणी के लिए पूर्वकाल में मनुष्यों के संहारक जो संग्राम हए हैं, उनका मूल कारण मैथन ही थाइनके अतिरिक्त महिलाओं के निमित्त से अन्य संग्राम भी हए हैं, जो अब्रह्ममूलक थे। अब्रह्म का सेवन करने वाले इस लोक और परलोक में भी नष्ट होते हैं । मोहवशीभूत प्राणी पर्याप्त और अपर्याप्त, साधारण और प्रत्येकशरीरी जीवों में, अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदिम, उद्भिज्ज और औपपातिक जीवों में, नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्यगति के जीवों में, दारुण दशा भोगते हैं तथा अनादि और अनन्त, दीर्घ मार्ग वाले, चतुर्गतिक संसार रूपी अटवी में बार-बार परिभ्रमण करते हैं। अब्रह्म रूप अधर्म का यह इहलोकसम्बन्धी और परलोकसम्बन्धी फल-विपाक है । यह अल्पसुखवाला किन्तु बहुत दुःखोंवाला है । यह फल-विपाक अत्यन्त भयंकर है, अत्यधिक पाप-रज से संयुक्त है । बड़ा ही दारुण और कठोर है । असातामय है । हजारों वर्षों में इससे छुटकारा मिलता है, किन्तु इसे भोगे बिना छूटकारा नहीं मिलता । ऐसा ज्ञातकुल के नन्दन महावीर तीर्थंकर ने कहा है और अब्रह्म का फल-विपाक प्रतिपादित किया है। यह चौथा आस्रव अब्रह्म भी देवता, मनुष्य और असुर सहित समस्त लोक के प्राणियों द्वारा प्रार्थनीय है । इसी प्रकार यह चिरकाल से परिचित, अनुगत और दुरन्त है। अध्ययन-४-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 30 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-५ - आस्रवद्वार-५ सूत्र - २१ हे जम्बू ! चौथे अब्रह्म नामक आस्रवद्वार के अनन्तर यह पाँचवां परिग्रह है । अनेक मणियों, स्वर्ण, कर्केतन आदि रत्नों, बहुमूल्य सुगंधमय पदार्थ, पुत्र और पत्नी समेत परिवार, दासी-दास, भृतक, प्रेष्य, घोड़े, हाथी, गाय, भैंस, ऊंट, गधा, बकरा और गवेलक, शिबिका, शकट, रथ, यान, युग्य, स्यन्दन, शयन, आसन, वाहन तथा कुप्य, धन, धान्य, पेय पदार्थ, भोजन, आच्छादन, गन्ध, माला, वर्तन-भांडे तथा भवन आदि के अनेक प्रकार के विधानों को (भोग लेने पर भी) और हजारों पर्वतों, नगरों, निगमों, जनपदों, महानगरों, द्रोणमुखों, खेट, कर्बटों, मडंबो, संबाहों तथा पत्तनों से सुशोभित भरतक्षेत्र को भोग कर भी अर्थात् सम्पूर्ण भारतवर्ष का आधिपत्य भोग लेने पर भी, तथा-जहाँ के निवासी निर्भय निवास करते हैं ऐसी सागरपर्यन्त पथ्वी को एकच्छत्र-अखण्ड राज्य करके भोगने पर भी (परिग्रह से तृप्ति नहीं होती)। ___ परिग्रह वृक्ष सरीखा है । कभी और कहीं जिसका अन्त नहीं आता ऐसी अपरिमित एवं अनन्त तृष्णा रूप महती ईच्छा ही अक्षय एवं अशुभ फल वाले इस वृक्ष के मूल हैं । लोभ, कलि और क्रोधादि कषाय इसके महास्कन्ध हैं । चिन्ता, मानसिक सन्ताप आदि की अधिकता से यह विस्तीर्ण शाखाओं वाला है । ऋद्धि, रस और साता रूप गौरव ही इसके विस्तीर्ण शाखाग्र हैं । निकृति, ठगाई या कपट ही इस वृक्ष के त्वचा, पत्र और पुष्प हैं । काम-भोग ही इस वृक्ष के पुष्प और फल हैं । शारीरिक श्रम, मानसिक खेद और कलह ही इसका कम्पायमान अग्रशिखर है। यह परिग्रह राजा-महाराजाओं द्वारा सम्मानित है, बहुत लोगों का हृदय-वल्लभ है और मोक्ष के निर्लोभता रूप मार्ग के लिए अर्गला के समान है, यह अन्तिम अधर्मद्वार है। सूत्र-२२ उस परिग्रह नामक अधर्म के गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं । वे नाम इस प्रकार हैं-परिग्रह, संचय, चय, उपचय, निधान, सम्भार, संकर, आदर, पिण्ड, द्रव्यसार, महेच्छा, प्रतिबन्ध, लोभात्मा, महर्धिका, उपकरण, संरक्षणा, भार, संपातोत्पादक, कलिकरण्ड, प्रविस्तर, अनर्थ, संस्तव, अगुप्ति या अकीर्ति, आयास, अवियोग, अमुक्ति, तृष्णा, अनर्थक, आसक्ति और असन्तोष है। सूत्र-२३ उस परिग्रह को लोभ से ग्रस्त परिग्रह के प्रति रुचि रखने वाले, उत्तम भवनों में और विमानों में निवास करने वाले ममत्वपूर्वक ग्रहण करते हैं । नाना प्रकार से परिग्रह को संचित करने की बुद्धि वाले देवों के निकाय यथा -असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार तथा अणपन्निक, यावत् पतंग और पिशाच, यावत् गन्धर्व, ये महर्द्धिक व्यन्तर देव तथा तिर्यक्लोक में निवास करने वाले पाँच प्रकार के ज्योतिष्क देव, बृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र और शनैश्चर, राहु, केतु और बुध, अंगारक, अन्य जो भी ग्रह ज्योतिष्चक्र में संचार करते हैं, केतु, गति में प्रसन्नता अनुभव करने वाले, अट्ठाईस प्रकार के नक्षत्र देवगण, नाना प्रकार के संस्थान वाले तारागण, स्थिर लेश्या अढ़ाई द्वीप से बाहर के ज्योतिष्क और मनुष्य क्षेत्र के भीतर संचार करने वाले, जो तिर्यक् लोक के ऊपरी भाग में रहने वाले तथा अविश्रान्त वर्तुलाकार गति करने वाले हैं । ऊर्ध्वलोक में निवास करने वाले वैमानिक देव दो प्रकार के हैं-कल्पो-पपन्न और कल्पातीत । सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत, ये उत्तम कल्प-विमानों में वास करने वाले-कल्पोपपन्न हैं । नौ ग्रैवेयकों और पाँच अनुत्तर विमानों में रहने वाले दोनों प्रकार के देव कल्पातीत हैं । ये विमानवासी देव महान ऋद्धि के धारक, श्रेष्ठ सुरवर हैं। ये चारों निकायों के, अपनी-अपनी परिषद् सहित परिग्रह को ग्रहण करते हैं । ये सभी देव भवन, हस्ती आदि वाहन, रथ आदि अथवा घूमे के विमान आदि यान, पुष्पक आदि विमान, शय्या, भद्रासन, सिंहासन प्रभृति आसन, विविध प्रकार के वस्त्र एवं उत्तम प्रहरण को, अनेक प्रकार की मणियों के पंचरंगी दिव्य भाजनों को, मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 31 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक विक्रियालब्धि से ईच्छानुसार रूप बनाने वाली कामरूपा अप्सराओं के समूह को, द्वीपों, समुद्रों, दिशाओं, विदिशाओं, चैत्यों, वनखण्डों और पर्वतों को, ग्रामों और नगरों को, आरामों, उद्यानों और जंगलों को, कूप, सरोवर, तालाब, वापी-वावड़ी, दीर्घिका-लम्बी वावड़ी, देवकुल, सभा, प्रपा और वस्ती को और बहुत-से कीर्तनीय धर्मस्थानों को ममत्वपूर्वक स्वीकार करते हैं । इस प्रकार विपुल द्रव्यवाले परिग्रह को ग्रहण करके इन्द्रों सहित देवगण भी न तृप्ति को और न सन्तुष्टि को अनुभव कर पाते हैं । ये सब देव अत्यन्त तीव्र लोभ से अभिभूत संज्ञावाले हैं, अतः वर्षधरपर्वतों, इषुकार पर्वत, वृत्तपर्वत, कुण्डलपर्वत, रुचकवर, मानुषोत्तर पर्वत, कालोदधि समुद्र, लवणसमुद्र, सलिला, ह्रदपति, रतिकर पर्वत, अंजनक पर्वत, अवपात पर्वत, उत्पात पर्वत, काञ्चनक, चित्र-विचित्रपर्वत, यमकवर, शिखरी, कट आदि में रहनेवाले ये देव भी तप्ति नहीं पाते । वक्षारों में तथा अकर्मभमियों में और सविभक्त भरत, ऐरवत आदि पन्द्रह कर्मभूमियों में जो भी मनुष्य निवास करते हैं, जैसे-चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, माण्डलिक राजा, ईश्वर-बड़े-बड़े ऐश्वर्यशाली लोग, तलवर, सेनापति, इभ्य, श्रेष्ठी, राष्ट्रिक, पुरोहित, कुमार, दण्डनायक, माडम्बिक, सार्थवाह, कौटुम्बिक और अमात्य, ये सब और इनके अतिरिक्त अन्य मनुष्य परिग्रह का संचय करते हैं। वह परिग्रह अनन्त या परिणामशून्य है, अशरण है, दुःखमय अन्त वाला है, अध्रुव है, अनित्य है, एवं अशाश्वत है, पापकर्मों का मूल है, ज्ञानीजनों के लिए त्याज्य है, विनाश का मूल कारण है, अन्य प्राणियों के वध और बन्धन का कारण है, इस प्रकार वे पूर्वोक्त देव आदि धन, कनक, रत्नों आदि का संचय करते हए लोभ से ग्रस्त होते हैं और समस्त प्रकार के दुःखों के स्थान इस संसार में परिभ्रमण करते हैं। परिग्रह के लिए बहुत लोग सैकड़ों शिल्प या हुन्नर तथा लेखन से लेकर शकुनिरुत-पक्षियों की बोली तक की, गणित की प्रधानता वाली बहत्तर कलाएं सिखते हैं । नारियाँ रति उत्पन्न करने वाले चौंसठ महिलागुणों को सीखती है । कोई असि, कोई मसिकर्म, कोई कृषि करते हैं, कोई वाणिज्य सीखते हैं, कोई व्यवहार की शिक्षा लेते हैं । कोई अर्थशास्त्र-राजनीति आदि की, कोई धनुर्वेद की, कोई वशीकरण की शिक्षा करते हैं । इसी प्रकार के परिग्रह के सैकड़ों कारणों में प्रवृत्ति करते हुए मनुष्य जीवनपर्यन्त नाचते रहते हैं । और जिनकी बुद्धि मन्द है, वे परिग्रह का संचय करते हैं । परिग्रह के लिए लोग प्राणियों की हिंसा के कृत्य में प्रवृत्त होते हैं । झूठ बोलते हैं, दूसरों को ठगते हैं, निकृष्ट वस्तु को मिलावट करके उत्कृष्ट दिखलाते हैं और परकीय द्रव्य में लालच करते हैं । स्वदार-गमन में शारीरिक एवं मानसिक खेद को तथा परस्त्री की प्राप्ति न होने पर मानसिक पीड़ा को अनुभव करते हैं । कलह-लडाई तथा वैर-विरोध करते हैं, अपमान तथा यातनाएं सहन करते हैं । ईच्छाओं और चक्रवर्ती आदि के समान महेच्छाओं रूपी के समान महेच्छाओं रूपी पीपासा से निरन्तर प्यासे बने रहते हैं । तृष्णा तथा गद्धि तथा लोभ में ग्रस्त रहते हैं । वे त्राणहीन एवं इन्द्रियों तथा मन के निग्रह से रहित होकर क्रोध, मान, माया और लोभ का सेवन करते हैं। इस निन्दनीय परिग्रह में ही नियम से शल्य, दण्ड, गौरव, कषाय, संज्ञाएं होती हैं, कामगुण, आस्रवद्वार, इन्द्रियविकार तथा अशुभ लेश्याएं होती हैं । स्वजनों के साथ संयोग होते हैं और परिग्रहवान असीम-अनन्त सचित्त, अचित्त एवं मिश्र-द्रव्यों को ग्रहण करने की ईच्छा करते हैं । देवों, मनुष्यों और असुरों-सहित इस त्रसस्थावररूप जगत में जिनेन्द्र भगवंतों ने (पूर्वोक्त स्वरूप वाले) परिग्रह का प्रतिपादन किया है । (वास्तव में) परिग्रह के समान अन्य कोई पाश नहीं है। सूत्र-२४ परिग्रह में आसक्त प्राणी परलोक में और इस लोक में नष्ट-भ्रष्ट होते हैं । अज्ञानान्धकार में प्रविष्ट होते हैं। तीव्र मोहनीयकर्म के उदय से मोहित मति वाले, लोभ के वश में पड़े हुए जीव त्रस, स्थावर, सूक्ष्म और बादर पर्यायों में तथा पर्याप्तक और अपर्याप्तक अवस्थाओं में यावत् चार गति वाले संसार-कानन में परिभ्रमण करते हैं । परिग्रह का यह इस लोक सम्बन्धी और परलोक सम्बन्धी फल-विपाक अल्प सुख और अत्यन्त दुःख वाला है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 32 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक घोर भय से परिपूर्ण है, अत्यन्त कर्म-रज से प्रगाढ़ है, दारुण है, कठोर है और असाता का हेतु है । हजारों वर्षों में इससे छुटकारा मिलता है । किन्तु इसके फल को भोगे बिना छूटकारा नहीं मिलता। इस प्रकार ज्ञातकुलनन्दन महात्मा वीरवर जिनेश्वर देव ने कहा है । अनेक प्रकार की चन्द्रकान्त आदि मणियों, स्वर्ण, कर्केतन आदि रत्नों तथा बहुमूल्य अन्य द्रव्यरूप यह परिग्रह मोक्ष के मार्गरूप मुक्ति-निर्लोभता के लिए अर्गला के समान है। इस प्रकार यह अन्तिम आस्रवद्वार समाप्त हुआ। सूत्र-२५ इन पूर्वोक्त पाँच आस्रवद्वारों के निमित्त से जीव प्रतिसमय कर्मरूपी रज का संचय करके चार गतिरूप संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। सूत्र-२६ जो पुण्यहीन प्राणी धर्म को श्रवण नहीं करते अथवा श्रवण करके भी उसका आचरण करने में प्रमाद करते हैं, वे अनन्त काल तक चार गतियों में गमनागमन करते रहेंगे। सूत्र - २७ जो पुरुष मिथ्यादृष्टि हैं, अधार्मिक हैं, निकाचित कर्मों का बन्ध किया है, वे अनेक तरह से शिक्षा पाने पर भी, धर्माश्रवण तो करते हैं किन्तु आचरण नहीं करते । सूत्र - २८ जिन भगवान के वचन समस्त दुःखों का नाश करने के लिए गुणयुक्त मधुर विरेचन औषध हैं, किन्तु निःस्वार्थ भाव से दिये जाने वाले इस औषध को जो पीना ही नहीं चाहते, उनके लिए क्या किया जा सकता है ? सूत्र - २९ जो प्राणी पाँच को त्याग कर और पाँच की भावपूर्वक रक्षा करते हैं, वे कर्मरज से सर्वथा रहित होकर सर्वोत्तम सिद्धि प्राप्त करते हैं। अध्ययन-५-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 33 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-६ - संवरद्वार-१ सूत्र-३० हे जम्बू ! अब मैं पाँच संवरद्वारों को अनुक्रम से कहूँगा, जिस प्रकार भगवान ने सर्व दुःखों स मुक्ति पाने के लिए कहे हैं। सूत्र - ३१ प्रथम अहिंसा है, दूसरा सत्यवचन है, तीसरा स्वामी की आज्ञा से दत्त है, चौथा ब्रह्मचर्य और पंचम अपरिग्रहत्व है। सूत्र-३२ इन संवरद्वारों में प्रथम जो अहिंसा है, वह त्रस और स्थावर-समस्त जीवों का क्षेम-कुशल करने वाली है। मैं पाँच भावनाओं सहित अहिंसा के गुणों का कुछ कथन करूँगा। सूत्र - ३३ हे सुव्रत ! ये महाव्रत समस्त लोक के लिए हितकारी है । श्रुतरूपी सागर में इनका उपदेश किया गया है। ये तप और संयमरूप व्रत है । इन महाव्रतों में शील का और उत्तम गणों का समह सन्निहित है । सत्य और आर्जव-इनमें प्रधान है । ये महाव्रत नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति से बचाने वाले हैं-समस्त जिनों-तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट हैं । कर्मरूपी रज का विदारण करने वाले हैं। सैकड़ों भवों का अन्त करने वाले हैं। सैकड़ों दुःखों से बचाने वाले हैं और सैकड़ों सुखों में प्रवृत्त करने वाले हैं । ये महाव्रत कायर पुरुषों के लिए दुस्तर है, सत्पुरुषों द्वारा सेवित है, ये मोक्ष में जाने के मार्ग हैं, स्वर्ग में पहुँचाने वाले हैं । इस प्रकार के ये महाव्रत रूप पाँच संवरद्वार भगवान महावीर ने कहे हैं | उन पाँच संवरद्वारों में प्रथम संवरद्वार अहिंसा है | अहिंसा के निम्नलिखित नाम हैं-द्वीप-त्राण-शरण-गति-प्रतिष्ठा, निर्वाह, निर्वृत्ति, समाधि, शक्ति, कीर्ति, कान्ति, रति, विरति, श्रुताङ्ग, तृप्ति, दया, विमुक्ति, शान्ति, सम्यक्त्वाराधना, महती, बोधि, बुद्धि, धृति, समृद्धि, ऋद्धि, वृद्धि, स्थिति, पुष्टि, नन्दा, भद्रा, विशुद्धि, लब्धि, विशिष्ट दृष्टि, कल्याण, मंगल, प्रमोद, विभूति, रक्षा, सिद्धावास, अनास्रव, केवलि-स्थान, शिव, समिति, शील, संयम, शीलपरिग्रह, संवर, गुप्ति, व्यवसाय, उच्छय, यज्ञ, आयतन, अप्रमाद, आश्वास, विश्वास, अभय, सर्वस्य अमाघात, चोक्ष, पवित्रा, सुचि, पूता, विमला, प्रभासा, निर्मलतरा अहिंसा भगवती के इत्यादि (पूर्वोक्त तथा इसी प्रकार के अन्य) स्वगुणनिष्पन्न नाम हैं। सूत्र-३४ यह अहिंसा भगवती जो है सो भयभीत प्राणियों के लिए शरणभूत है, पक्षियों के लिए आकाश में गमन करने समान है, प्यास से पीड़ित प्राणियों के लिए जल के समान है, भूखों के लिए भोजन के समान है, समुद्र के मध्य में जहाज समान है, चतुष्पद के लिए आश्रम समान है, दुःखों से पीड़ित के लिए औषध समान है, भयानक जंगल में सार्थ समान है । भगवती अहिंसा इनसे भी अत्यन्त विशिष्ट है, जो पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, बीज, हरितकाय, जलचर, स्थलचर, खेचर, त्रस और स्थावर सभी जीवों का क्षेम-कुशल-मंगल करनेवाली है। यह भगवती अहिंसा वह है जो अपरिमित केवलज्ञान-दर्शन को धारण करने वाले, शीलरूप गुण, विनय, तप और संयम के नायक, तीर्थ की संस्थापन करने वाले, जगत के समस्त जीवों के प्रति वात्सल्य धारण करने वाले, त्रिलोकपूजित जिनवरों द्वारा अपने केवलज्ञान-दर्शन द्वारा सम्यक् रूप में स्वरूप, कारण और कार्य के दृष्टिकोण से निश्चित की गई है । विशिष्ट अवधिज्ञानियों द्वारा विज्ञात की गई है-ज्ञपरिज्ञा से जानी गई और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से सेवन की गई है । ऋजुमति-मनःपर्यवज्ञानियों द्वारा देखी-परखी गई है । विपुलमति-मनः-पर्यायज्ञानियों द्वारा ज्ञात की गई है । चतुर्दश पूर्वश्रुत के धारक मुनियों ने इसका अध्ययन किया है । विक्रियालब्धि के धारकों ने इसका आजीवन पालन किया है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 34 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक मतिज्ञानियों, श्रुतज्ञानियों, अवधिज्ञानियों, मनःपर्यवज्ञानियों, केवलज्ञानियों ने, आमखैषधिलब्धि धारक, श्लेष्मौषधिलब्धि धारक, जल्लौषधिलब्धि धारकों, विप्रडौषधिलब्धि धारकों, सर्वोषधिलब्धिप्राप्त, बीजबुद्धिकोष्टबुद्धि-पदानुसारिबुद्धि-लब्धिकारकों, संभिन्नश्रोतस्लब्धि धारकों, श्रुतधरों, मनोबली, वचनबली और कायबली मुनियों, ज्ञानबली, दर्शनबली तथा चारित्रबली महापुरुषों ने, मध्यास्रवलब्धिधारी, सर्पिरास्रवलब्धिधारी तथा अक्षीणमहानसलब्धि के धारकों ने चारणों और विद्याधरों ने, चतुर्थभक्तिकों से लेकर दो, तीन, चार, पाँच दिनों, इसी प्रकार एक मास, दो मास, तीन मास, चार मास, पाँच मास एवं छह मास तक का अनशन-उपवास करने वाले तपस्वियों ने, इसी प्रकार उत्क्षिप्तचरक, निक्षिप्तचरक, अन्तचरक, प्रान्तचरक, रूक्षचरक, समुदानचरक, अन्नग्लायक, मौनचरक, संसृष्टकल्पिक, तज्जातसंसृष्टकल्पिक, उपनिधिक, शुद्धैषणिक, संख्यादत्तिक, दृष्ट-लाभिक, अदृष्टलाभिक, पृष्ठलाभिक, आचाम्लक, पुरिमार्धिक, एकाशनिक, निर्विकृतिक, भिन्नपिण्डपातिक, परिमितपिण्डपातिक, अन्ताहारी, प्रान्ताहारी, अरसाहारी, विरसाहारी, रूक्षाहारी, तृच्छाहारी, अन्तजीवी, प्रान्तजीवी, रूक्षजीवी, तुच्छजीवी, उपशान्तजीवी, प्रशान्तजीवी, विविक्तजीवी तथा दूध, मधु और धृत का यावज्जीवन त्याग करने वालों ने, मद्य और माँस से रहित आहार करने वालों ने कायोत्सर्ग करके एक स्थान पर स्थित रहने का अभिग्रह करने वालों ने, प्रतिमास्थायिकों ने स्थानोत्कटिकों ने, वीरासनिकों ने, नैषधिकों ने, दण्डायतिकों ने, लगण्डशायिकों ने, एकपार्श्वकों ने, आतापकों ने, अपाव्रतों ने, अनिष्ठीवकों ने, अकंडूयकों ने, धूतकेश-श्मश्रु लोम-नख अर्थात् सिर के बाल, दाढ़ी, मूंछ और नखों का संस्कार करने का त्याग करने वालों ने, सम्पूर्ण शरीर के प्रक्षालन आदि संस्कार के त्यागियों ने, श्रुतधरों के द्वारा तत्त्वार्थ को अवगत करनेवाली बुद्धिधारक महापुरुषों ने सम्यक् प्रकार से आचरण किया है । इनके अतिरिक्त आशीविष सर्प के समान उग्र तेज से सम्पन्न महापुरुषों ने, वस्तु तत्त्व का निश्चय और पुरुषार्थ-दोनों में पूर्ण कार्य करने वाली बुद्धि से सम्पन्न प्रज्ञापुरुषों ने, नित्य स्वाध्याय और चित्तवृत्तिनिरोध रूप ध्यान करने वाले तथा धर्मध्यान में निरन्तर चिन्ता को लगाये रखने वाले पुरुषों ने, पाँच महाव्रतस्वरूप चारित्र से युक्त तथा पाँच समितियों से सम्पन्न, पापों का शमन करने वाले, षट् जीवनिकायरूप जगत के वत्सल, निरन्तर अप्रमादी रहकर विचरण करने वाले महात्माओं ने तथा अन्य विवेकविभूषित सत्पुरुषों ने अहिंसा भगवती की आराधना की है। अहिंसा का पालन करने के लिए उद्यत साधु को पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रस, इस प्रकार सभी प्राणियों के प्रति संयमरूप दया के लिए शुद्ध भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए। जो आहार साधु के लिए नहीं बनाया गया हो, दूसरे से नहीं बनवाया गया हो, जो अनाहूत हो, अनुद्दिष्ट हो, साधु के उद्देश्य से खरीदा नहीं गया हो, जो नव कोटियों से विशुद्ध हो, शंकित, उदगम, उत्पादना और एषणा दोषों से रहित हो, जिस देय वस्तु में से आगन्तुक जीव-जन्तु स्वतः पृथक् हो गए हों, वनस्पतिकायिक आदि जीव स्वतः या परतः मृत हो गए हों या दाता द्वारा दूर करा दिए गए हों, इस प्रकार जो भिक्षा अचित्त हो, जो शुद्ध हो, ऐसी भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए । भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर गए हुए साधु को आसन पर बैठ कर, धर्मोपदेश देकर या कथाकहानी सूनाकर प्राप्त किया हुआ आहार नहीं ग्रहण करना चाहिए । वह आहार चिकित्सा, मंत्र, मूल, औषध आदि के हेतु नहीं होना चाहिए । स्त्री पुरुष आदि के शुभाशुभसूचक लक्षण, उत्पात, अतिवृष्टि, दुर्भिक्ष आदि स्वप्न, ज्योतिष, महर्त्त आदि का प्रतिपादक शास्त्र, विस्मयजनक चामत्कारिक प्रयोग या जाद के प्रयोग के कारण दिया जाता आहार नहीं होना चाहिए । दम्भ करके भिक्षा नहीं लेनी चाहिए । गृहस्वामी के घर की या पुत्र आदि की रखवाली करने के बदले प्राप्त होने वाली भिक्षा नहीं लेनी चाहिए । गृहस्थ के पुत्रादि को शिक्षा देने या पढ़ाने के निमित्त से भी भिक्षा ग्राह्य नहीं है । गृहस्थ का वन्दन-स्तवन-प्रशंसा करके, सन्मान-सत्कार करके अथवा पूजासेवा करके और वन्दन, मानन एवं पूजन-इन तीनों को करके भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिए। (पूर्वोक्त वन्दन, मानन एवं पूजन से विपरीत) न तो गृहस्थ की हीलना करके, न निन्दना करके और न गर्दा करके तथा हीलना, निन्दना एवं गर्हा करके भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । इसी तरह साधु को भय दिखला कर, मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक तर्जना करके और ताड़ना करके भी भिक्षा नहीं ग्रहण करना चाहिए और यह तीनों-भय-तर्जना-ताड़ना करके भी भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिए । अभिमान से, दरिद्रता दिखाकर, मायाचार करके या क्रोध करके, दीनता दिखाकर और न यह तीनों-गौरव-क्रोध-दीनता दिखाकर भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए । मित्रता प्रकट करके, प्रार्थना करके और सेवा करके भी अथवा यह तीनों करके भी भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिए । किन्तु अज्ञात रूप से, अगृद्ध, मूर्छा से रहित होकर, आहार और आहारदाता के प्रति द्वेष न करते हुए, अदीन, अपने प्रति हीनता भाव न रखते हुए, अविषादी वचन कहकर, निरन्तर मन-वचन-काय को धर्मध्यान में लगाते हुए, प्राप्त संयमयोग में उद्यम, अप्राप्त संयम योगों की प्राप्ति में चेष्टा, विनय के आचरण और क्षमादि के गुणों के योग से युक्त होकर साधु को भिक्षा की गवेषणा में निरत-तत्पर होना चाहिए। यह प्रवचन श्रमण भगवान महावीर ने जगत के समस्त जीवों की रक्षा के लिए समीचीन रूप में कहा है। यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकर है, परलोक में शुद्ध फल के रूप में परिणत होने से भविक है तथा भविष्यत् काल में भी कल्याणकर है । यह भगवत्प्रवचन शुद्ध है और दोषों से मुक्त रखने वाला है, न्याययुक्त है, अकुटिल है, यह अनुत्तर है तथा समस्त दुःखों और पापों को उपशान्त करने वाला है। सूत्र - ३५ पाँच महाव्रतों-संवरों में से प्रथम महाव्रत की ये-आगे कही जाने वाली-पाँच भावनाएं प्राणातिपातविरमण अर्थात् अहिंसा महाव्रत की रक्षा के लिए हैं । खड़े होने, ठहरने और गमन करने में स्व-पर की पीड़ारहितता गणयोग को जोडने वाली तथा गाडी के युग प्रमाण भमि पर गिरने वाली दष्टि से निरन्तर कीट, पतंग, त्रस, स्थावर जीवों की दया में तत्पर होकर फल, फल, छाल, प्रवाल-पत्ते-कोंपल-कंद, मल, जल, मिट्री, बीज एवं हरितकायदब आदि को बचाते हए, सम्यक प्रकार से चलना चा र, सम्यक् प्रकार से चलना चाहिए । इस प्रकार चलने वाले साधु को निश्चय ही समस्त प्राणी की हीलना, निन्दा, गर्दा, हिंसा, छेदन, भेदन, व्यथित, नहीं करना चाहिए । जीवों को लेश मात्र भी भय या दुःख चाहिए । इस प्रकार (के आचरण) से साधु ईर्यासमिति में मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से भावित होता है । तथा सबलता से रहित, संक्लेश से रहित, अक्षत चारित्र की भावना से युक्त, संयमशील एवं अहिंसक सुसाधु कहलाता है। दूसरी भावना मनःसमिति है । पापमय, अधार्मिक, दारुण, नृशंस, वध, बन्ध और परिक्लेश की बहुलता वाले, भय, मृत्यु एवं क्लेश से संक्लिष्ट ऐसे पापयुक्त मन से लेशमात्र भी विचार नहीं करना चाहिए । इस प्रकार (के आचरण) से-मनःसमिति की प्रवृत्ति से अन्तरात्मा भावित होती है तथा निर्मल, संक्लेशरहित, अखण्ड निरतिचार चारित्र की भावना से युक्त, संयमशील एवं अहिंसक सुसाधु कहलाता है। अहिंसा महाव्रत की तीसरी भावना वचनसमिति है। पापमय वाणी से तनिक भी पापयुक्त वचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए । इस प्रकार की वाक्समिति के योग से युक्त अन्तरात्मा वाला निर्मल, संक्लेशरहित और अखण्ड चारित्र की भावना वाला अहिंसक साधु सुसाधु होता है। आहार की एषणा से शुद्ध, मधुकरी वृत्ति से, भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए । भिक्षा लेनेवाला साधु अज्ञात रहे, अगृद्ध, अदुष्ट, अकरुण, अविषाद, सम्यक् प्रवृत्ति में निरत रहे । प्राप्त संयमयोगों की रक्षा के लिए यतनाशील एवं अप्राप्त संयमयोगों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नवान, विनय का आचरण करने वाला तथा क्षमा आदि गुणों की प्रवृत्ति से युक्त ऐसा भिक्षाचर्या में तत्पर भिक्षु अनेक घरों में भ्रमण करके थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ग्रहण करे । भिक्षा ग्रहण करके अपने स्थान पर गुरुजन के समक्ष जाने-आने में लगे हुए अतिचारों का प्रतिक्रमण करे । गृहीत आहार-पानी की आलोचना करे, आहार-पानी उन्हें दिखला दे, फिर गुरुजन के द्वारा निर्दिष्ट किसी अग्रगण्य साधु के आदेश के अनुसार, सब अतिचारों से रहित एवं अप्रमत्त होकर विधिपूर्वक अनेषणाजनित दोषों की निवृत्ति के लिए पुनः प्रतिक्रमण करे । तत्पश्चात् शान्त भाव से सुखपूर्वक आसीन होकर, मुहर्त भर धर्मध्यान, गुरु की सेवा आदि शुभ योग, तत्त्वचिन्तन अथवा स्वाध्याय के द्वारा अपने मन का गोपन करके-चित्त स्थिर करके श्रुत-चारित्र मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 36 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक रूप धर्म में संलग्न मनवाला होकर, चित्तशून्यता से रहित होकर, संक्लेश से मुक्त रहकर, कलह से रहित होकर, समाधियुक्त मन वाला, श्रद्धा, संवेग और कर्मनिर्जरा में चित्त को संलग्न करने वाला, प्रवचन में वत्सलतामय मन वाला होकर साधु अपने आसन से उठे और हृष्ट-तुष्ट होकर यथारानिक अन्य साधुओं को आहार के लिए निमंत्रित करे। गुरुजनों द्वारा लाये हुए आहार को वितरण कर देने के बाद उचित आसन पर बैठे । फिर मस्तक सहित शरीर को तथा हथेली को भलीभाँति प्रमार्जित करके आहार में अनासक्त होकर, स्वादिष्ट भोजन की लालसा से रहित होकर तथा रसों में अनुरागरहित होकर, दाता या भोजन की निन्दा नहीं करता हुआ, सरस वस्तुओं में आसक्ति न रखता हुआ, अकलुषित भावपूर्वक, लोलुपता से रहित होकर, परमार्थ बुद्धि का धारक साधु 'सुर-सुर' ध्वनि न करता हआ, 'चप-चप' आवाज न करता हआ, न बहत जल्दी-जल्दी और न बहत देर से, भोजन को भमि पर न गिराता हआ, चौडे प्रकाशयुक्त पात्र में (भोजन करे ।) यतनापर्वक, आदरपूर्वक एवं संयोजन दोषों से रहित, अंगार तथा धूम दोष से रहित, गाड़ी की धूरी में तेल देने अथवा घाव पर मल्हम लगाने के समान, केवल संयमयात्रा के निर्वाह के लिए एवं संयम के भार को वहन करने के लिए प्राणों को धारण करने के उद्देश्य से साधु को सम्यक प्रकार से भोजन करना चाहिए। इस प्रकार आहारसमिति में समीचीन रूप से प्रवृत्ति के योग से अन्तरात्मा भावित करने वाला साधु निर्मल, संक्लेशरहित तथा अखण्डित चारित्र की भावना वाला अहिंसक संयमी होता है। अहिंसा महाव्रत की पाँचवीं भावना आदान-निक्षेपणसमिति है । इस का स्वरूप इस प्रकार है-संयम के उपकरण पीठ, चौकी, फलक पाट, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, चोलपट्ट, मुखवस्त्रिका, पादपोंछन, ये अथवा इनके अतिरिक्त उपकरण संयम की रक्षा या वृद्धि के उद्देश्य से तथा पवन, धूप, डांस, मच्छर और शीत आदि से शरीर की रक्षा के लिए धारण-ग्रहण करना चाहिए । साधु सदैव इन उपकरणों के प्रतिलेखन, प्रस्फोटन और प्रमार्जन करने में, दिन में और रात्रि में सतत अप्रमत्त रहे और भाजन, भाण्ड, उपधि तथा अन्य उपकरणों को यतनापूर्वक रखे या उठाए । इस प्रकार आदान-निक्षेपणसमिति के योग से भावित अन्तरात्माअन्तःकरण वाला साधु निर्मल, असंक्लिष्ट तथा अखण्ड चारित्र की भावना से युक्त अहिंसक संयमशील सुसाधु होता है। इस प्रकार मन, वचन और काय से सुरक्षित इन पाँच भावना रूप उपायों से यह अहिंसा-संवरद्वार पालित होता है । अत एव धैर्यशाली और मतिमान् पुरुष को सदा सम्यक् प्रकार से इसका पालन करना चाहिए । यह अनास्रव है, दीनता से रहित, मलीनता से रहित और अनास्रवरूप है, अपरिस्रावी है, मानसिक संक्लेश से रहित है, शुद्ध है और सभी तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात है । पूर्वोक्त प्रकार से प्रथम संवरद्वार स्पृष्ट होता है, पालित होता है, शोधित होता है, तीर्ण होता है, कीर्तित, आराधित और आज्ञा के अनुसार पालित होता है । ऐसा ज्ञातमुनि-महावीर ने प्रज्ञापित किया है एवं प्ररूपित किया है । यह सिद्धवरशासन प्रसिद्ध है, सिद्ध है, बहुमूल्य है, सम्यक् प्रकार से उपदिष्ट है और प्रशस्त है। अध्ययन-६-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 37 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-७ - संवरद्वार-२ सूत्र - ३६ हे जम्बू ! द्वितीय संवर सत्यवचन है । सत्य शुद्ध, शुचि, शिव, सुजात, सुभाषित होता है । यह उत्तम व्रतरूप है और सम्यक् विचारपूर्वक कहा गया है । इसे ज्ञानीजनों ने कल्याण के समाधान के रूप में देखा है । यह सुप्रतिष्ठित है, समीचीन रूप में संयमयुक्त वाणी से कहा गया है । सत्य सुरवरों, नरवृषभों, अतिशय बलधारियों एवं सुविहित जनों द्वारा बहुमत है । श्रेष्ठ मुनियों का धार्मिक अनुष्ठान है । तप एवं नियम से स्वीकृत किया गया है। सद्गति के पथ का प्रदर्शक है और यह सत्यव्रत लोक में उत्तम है । सत्य विद्याधरों की आकाशगामिनी विद्याओं को सिद्ध करने वाला है । स्वर्ग तथा मुक्ति के मार्ग का प्रदर्शक है । यथातथ्य रहित है, ऋजुक है, कुटिलता रहित है । यथार्थ पदार्थ का ही प्रतिपादक है, सर्व प्रकार से शुद्ध है, विसंवाद रहित है । मधुर है और मनुष्यों का बहुत-सी विभिन्न प्रकार की अवस्थाओं में आश्चर्यकारक कार्य करने वाले देवता के समान है। किसी महासमुद्र में, जिस में बैठे सैनिक मूढधी हो गए हों, दिशाभ्रम से ग्रस्त हो जाने के कारण जिनकी बुद्धि काम न कर रही हो, उनके जहाज भी सत्य के प्रभाव से ठहर जाते हैं, डूबते नहीं हैं । सत्य का ऐसा प्रभाव है कि भँवरों से युक्त जल के प्रवाह में भी मनुष्य बहते नहीं हैं, मरते नहीं हैं, किन्तु थाह पा लेते हैं । अग्नि से भयंकर घेरे में पड़े हुए मानव जलते नहीं हैं । उबलते हुए तेल, रांगे, लोहे और सीसे को छू लेते हैं, हथेली पर रख लेते हैं, फिर भी जलते नहीं हैं। मनुष्य पर्वत के शिखर से गिरा दिये जाते हैं फिर भी मरते नहीं हैं । सत्य को धारण करने वाले मनुष्य चारों ओर से तलवारों के घेरे में भी अक्षत-शरीर संग्राम से बाहर नीकल आते हैं । सत्यवादी मानव वध, बन्धन सबल प्रहार और घोर वैर-विरोधियों के बीच में से मुक्त हो जाते हैं-बच नीकलते हैं । सत्यवादी शत्रुओं के घेरे में से बिना किसी क्षति के सकुशल बाहर आ जाते हैं । देवता भी सान्निध्य करते हैं। तीर्थंकरों द्वारा भाषित सत्य दस प्रकार का है । इसे चौदह पूर्वो के ज्ञाता महामुनियों ने प्राभृतों से जाना है एवं महर्षियों को सिद्धान्त रूप में दिया गया है । देवेन्द्रों और नरेन्द्रों ने इसका अर्थ कहा है, सत्य वैमानिक देवों द्वारा भी समर्थित है । महान् प्रयोजन वाला है । मंत्र औषधि और विद्याओं की सिद्धि का कारण है-चारण आदि मुनिगणों की विद्याओं को सिद्ध करने वाला है । मानवगणों द्वारा वंदनीय है-इतना ही नहीं, सत्यसेवी मनुष्य देवसमूहों के लिए भी अर्चनीय तथा असुरकुमार आदि भवनपति देवों द्वारा भी पूजनीय होता है। अनेक प्रकार के पाषंडी-व्रतधारी इसे धारण करते हैं । इस प्रकार की महिमा से मण्डित यह सत्य लोक में सारभूत है । महासागर से भी गम्भीर है । सुमेरु पर्वत से भी अधिक स्थिर है । चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य है । सूर्यमण्डल से भी अधिक देदीप्यमान है । शरत्-काल के आकाश तल से भी अधिक विमल है । गन्धमादन से भी अधिक सुरभिसम्पन्न है। लोक में जो भी समस्त मंत्र हैं, वशीकरण आदि योग है, जप है, प्रज्ञप्ति प्रभृति विद्याएं हैं, दस प्रकार के जुंभक देव हैं, धनुष आदि अस्त्र हैं, जो भी शस्त्र हैं, कलाएं हैं, आगम हैं, वे सभी सत्य में प्रतिष्ठित हैं। किन्तु जो सत्य संयम में बाधक हो-वैसा सत्य तनिक भी नहीं बोलना चाहिए । जो वचन हिंसा रूप पाप से युक्त हो, जो भेद उत्पन्न करने वाला हो, जो विकथाकारक हो, जो निरर्थक वाद या कलहकारक हो, जो वचन अनार्य हो, जो अन्य के दोषों को प्रकाशित करने वाला हो, विवादयुक्त हो, दूसरों की विडम्बना करने वाला हो, जो विवेकशून्य जोश और धृष्टता से परिपूर्ण हो, जो निर्लज्जता से भरा हो, जो लोक या सत्पुरुषों द्वारा निन्दनीय हो, ऐसा वचन नहीं बोलना चाहिए । जो घटना भलीभाँति स्वयं न देखी हो, जो बात सम्यक् प्रकार से सूनी न हो, जिसे ठीक तरह जान नहीं लिया हो, उसे या उसके विषय में बोलना नहीं चाहिए। इसी प्रकार अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा भी (नहीं करनी चाहिए), यथा-तू बुद्धिमान् नहीं है, तू दरिद्र है, तू धर्मप्रिय नहीं है, तू कुलीन नहीं है, तू दानपति नहीं है, तू शूरवीर नहीं है, तू सुन्दर नहीं है, तू भाग्यवान नहीं है, तू पण्डित नहीं है, तू बहुश्रुत नहीं है, तू तपस्वी भी नहीं है, तुझमें परलोक संबंधी निश्चय करने की बुद्धि भी नहीं है, आदि । अथवा जो वचन सदा-सर्वदा जाति, कुल, रूप, व्याधि, रोग से सम्बन्धित हो, जो पीड़ाकारी या मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 38 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक निन्दनीय होने के कारण वर्जनीय हो, अथवा जो वचन द्रोहकारक हो-शिष्टाचार के अनुकूल न हो, इस प्रकार का तथ्य-सद्भूतार्थ वचन भी नहीं बोलना चाहिए । जो वचन द्रव्यों से, पर्यायों से तथा गुणों से युक्त हों तथा कर्मों से, क्रियाओं से, शिल्पों से और सिद्धान्तसम्मत अर्थों से युक्त हों और जो संज्ञापद, आख्यात, क्रियापद, निपात, अव्यय, उपसर्ग, तद्धितपद, समास, सन्धि, हेतु, यौगिक, उणादि, क्रियाविधान, पद, धातु, स्वर, विभक्ति, वर्ण, इन से युक्त हो (ऐसा वचन बोलना चाहिए।) त्रिकालविषयक सत्य दस प्रकार का होता है। जैसा मुख से कहा जाता है, उसी प्रकार कर्म से अर्थात् लेखन क्रिया से तथा हाथ, पैर, आँख आदि की चेष्टा से, मुँह बनाना आदि आकृति से अथवा जैसा कहा जाए वैसी ही क्रिया करके बतलाने से सत्य होता है । बारह प्रकार की भाषा होती है । वचन सोलह प्रकार का होता है । इस प्रकार अरिहंत भगवान द्वारा अनुज्ञात तथा सम्यक् प्रकार से विचारित सत्यवचन यथावसर पर ही साध को बोलना चाहिए सूत्र - ३७ ___अलीक-असत्य, पिशुन-चुगली, परुष-कठोर, कटु-कटुक और चपल-चंचलतायुक्त वचनों से बचाव के लिए तीर्थंकर भगवान ने यह प्रवचन समीचीन रूप से प्रतिपादित किया है । यह भगवत्प्रवचन आत्मा के लिए हितकर है, जन्मान्तर में शुभ भावना से युक्त है, भविष्य में श्रेयस्कर है, शुद्ध है, न्यायसंगत है, मुक्ति का सीधा मार्ग है, सर्वोत्कृष्ट है तथा समस्त दुःखों और पापों को पूरी तरह उपशान्त है। सत्यमहाव्रत की ये पाँच भावनाएं हैं, जो असत्य वचन के विरमण की रक्षा के लिए हैं, इन पाँच भावनाओं में प्रथम अनुवीचिभाषण है । सदगुरु के निकट सत्यव्रत को सुनकर एवं उसके शुद्ध परमार्थ जानकर जल्दी-जल्दी नहीं बोलना चाहिए, कठोर वचन, चपलता वचन, सहसा वचन, परपीडा एवं सावध वचन नहीं बोलना चाहि किन्तु सत्य, हितकारी, परिमित, ग्राहक, शुद्ध-निर्दोष, संगत एवं पूर्वापर-अविरोधी, स्पष्ट तथा पहले बुद्धि द्वारा सम्यक् प्रकार से विचारित ही साधु को अवसर के अनुसार बोलना चाहिए । इस प्रकार निरवद्य वचन बोलने की यतना के योग से भावित अन्तरात्मा हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख पर संयम रखने वाला, शूर तथा सत्य और आर्जव धर्म सम्पन्न होता है। दूसरी भावना क्रोधनिग्रह है । क्रोध का सेवन नहीं करना चाहिए । क्रोधी मनुष्य रौद्रभाव वाला हो जाता है और असत्य भाषण कर सकता है । मिथ्या, पिशुन और कठोर तीनों प्रकार के वचन बोलता है । कलह-वैर-विकथा -ये तीनों करता है । वह सत्य, शील तथा विनय-इन तीनों का घात करता है। असत्यवादी लोक में द्वेष, दोष और अनादर-इन तीनों का पात्र बनता है । क्रोधाग्नि से प्रज्वलितहृदय मनुष्य ऐसे और इसी प्रकार के अन्य सावध वचन बोलता है । अत एव क्रोध का सेवन नहीं करना चाहिए । इस प्रकार क्षमा से भावित अन्तःकरण वाला हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख के संयम से युक्त, शूर साधु सत्य और आर्जव से सम्पन्न होता है। तीसरी भावना लोभनिग्रह है । लोभ का सेवन नहीं करना चाहिए । लोभी मनुष्य लोलुप होकर क्षेत्र-खेतखुली भूभि और वस्तु-मकान आदि के लिए असत्य भाषण करता है । कीर्ति और लोभ-वैभव और भोजन के लिए, पानी के लिए, पीठ-पीढ़ा और फलक के लिए, शय्या और संस्तारक के लिए, वस्त्र और पात्र के लिए, कम्बल और पादपोंछन के लिए, शिष्य और शिष्या के लिए, तथा इस प्रकार के सैकड़ों कारणों से असत्य भाषण करता है । लोभी व्यक्ति मिथ्या भाषण करता है, अत एव लोभ का सेवन नहीं करना चाहिए । इस प्रकार मुक्ति से भावित अन्तःकरण वाला साधु हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख से संयत, शूर और सत्य तथा आर्जव धर्म से सम्पन्न होता है। चोथी भावना निर्भयता है । भयभीत नहीं होना चाहिए । भीरु मनुष्य को अनेक भय शीघ्र ही जकड़ लेते हैं। भीरु मनुष्य असहाय रहता है । भूत-प्रेतों द्वारा आक्रान्त कर लिया जाता है । दूसरों को भी डरा देता है। निश्चय ही तप और संयम को भी छोड़ बैठता है । स्वीकृत कार्यभार का भलीभाँति निर्वाह नहीं कर सकता है । सत्पुरुषों मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 39 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक द्वारा सेवित मार्ग का अनुसरण करने में समर्थ नहीं होता । अत एव भय से, व्याधि-कुष्ठ आदि से, ज्वर आदि रोगों से, वृद्धावस्था से, मृत्यु से या इसी प्रकार के अन्य इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि के भय से डरना नहीं चाहिए। इस प्रकार विचार करके धैर्य की स्थिरता अथवा निर्भयता से भावित अन्तःकरण वाला साधु हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख से संयत, शूर एवं सत्य तथा आर्जवधर्म से सम्पन्न होता है। पाँचवीं भावना परिहासपरिवर्जन है । हास्य का सेवन नहीं करना चाहिए । हँसोड़ व्यक्ति अलीक और असत् को प्रकाशित करने वाले या अशोभनीय और अशान्तिजनक वचनों का प्रयोग करते हैं । परिहास दूसरों के तिरस्कार का कारण होता है । हँसी में परकीय निन्दा-तिरस्कार ही प्रिय लगता है । हास्य परपीड़ाकारक होता है । चारित्र का विनाशक, शरीर की आकृति को विकृत करने वाला और मोक्षमार्ग का भेदन करने वाला है । हास्य अन्योन्य होता है, फिर परस्पर में परदारगमन आदि कुचेष्टा का कारण होता है । एक दूसरे के मर्म को प्रकाशित करने वाला बन जाता है । हास्य कन्दर्प-आज्ञाकारी सेवक जैसे देवों में जन्म का कारण होता है। असरता एवं किल्बिषता उत्पन्न करता है । इस कारण हँसी का सेवन नहीं करना चाहिए | इस प्रकार मौन से भावित अन्तःकरण वाला साधु हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख से संयत होकर शूर तथा सत्य और आर्जव से सम्पन्न होता है। इस प्रकार मन, वचन और काय से पूर्ण रू से सुरक्षित इन पाँच भावनाओं से संवर का यह द्वार आचरित और सुप्रणिहित हो जाता है । अत एव धैर्यवान् तथा मतिमान् साधक को चाहिए कि वह आस्रव का निरोध करने वाले, निर्मल, निश्छिद्र, कर्मबन्ध के प्रवाह से रहित, संक्लेश का अभाव करने वाले एवं समस्त तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात इस योग को निरन्तर जीवनपर्यन्त आचरण में उतारे । इस प्रकार (पूर्वोक्त रीति से) सत्य नामक संवरद्वार यथासमय अंगीकृत, पालित, शोधित, तीरित, कीर्तित, अनुपालित और आराधित होता है । इस प्रकार ज्ञातमुनिमहावीर स्वामी ने इस सिद्धवरशासन का कथन किया है, विशेष प्रकार से विवेचन किया है । यह तर्क और प्रमाण से सिद्ध है, सुप्रतिष्ठित किया गया है, भव्य जीवों के लिए इसका उपदेश किया गया है, यह प्रशस्त-कल्याणकारीमंगलमय है। अध्ययन-७-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 40 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-८-संवरद्वार-३ सूत्र-३८ हे जम्बू ! तीसरा संवरद्वार दत्तानुज्ञात' नामक है । यह महान व्रत है तथा यह गुणव्रत भी है । यह परकीय द्रव्य-पदार्थों के हरण से निवृत्तिरूप क्रिया से युक्त है, व्रत अपरिमित और अनन्त तृष्णा से अनुगत महा-अभिलाषा से युक्त मन एवं वचन द्वारा पापमय परद्रव्यहरण का भलिभाँति निग्रह करता है । इस व्रत के प्रभाव से मन इतना संयमशील बन जाता है कि हाथ और पैर परधन को ग्रहण करने से विरत हो जाते हैं । सर्वज्ञ भगवंतों ने इसे उपादेय कहा है । आस्रव का निरोध करने वाला है । निर्भय है-लोभ उसका स्पर्श भी नहीं करता । यह प्रधान बलशालियों तथा सुविहित साधुजनों द्वारा सम्मत है, श्रेष्ठ साधुओं का धर्माचरण है । इस अदत्तादानविरमण व्रत में ग्राम, आकर, नगर, निगम, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, संबाध, पट्टन अथवा आश्रम में पड़ी हुई, उत्तम मणि, मोती, शिला, प्रवाल, कांसा, वस्त्र, चाँदी, सोना, रत्न आदि कोई भी वस्तु पड़ी हो-गिरी हो, कोई उसे भूल गया हो, गुम हुई हो तो किसी को कहना अथवा स्वयं उठा लेना नहीं कल्पता है । क्योंकि साधु को हिरण्य का त्यागी हो कर, पाषाण और स्वर्ण में समभाव रख कर, परिग्रह से सर्वथा रहित और सभी इन्द्रियों से संवृत होकर ही लोक में विचरना चाहिए। कोई भी वस्तु, जो खलिहान में, खेत में, या जंगल में पड़ी हो, जैसे कि फूल, फल, छाल, प्रवाल, कन्द, मूल, तृण, काष्ठ या कंकर आदि हो, वह थोड़ी हो या बहुत हो, छोटी हो या मोटी हो, स्वामी के दिए बिना या उसकी आज्ञा प्राप्त किये बिना ग्रहण करना नहीं कल्पता । घर और स्थंडिलभूमि भी आज्ञा प्राप्त किये बिना ग्रहण करना उचित नहीं है । तो फिर साधु को किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए ? प्रतिदिन अवग्रह की आज्ञा लेकर ही उसे लेना चाहिए । तथा अप्रीतिकारक घर में प्रवेश वर्जित करना चाहिए । अप्रीतिकारक के घर से आहार-पानी तथा पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कंबल, दण्ड और पादपोंछन एवं भाजन, भाण्ड तथा उपधि उपकरण भी ग्रहण नहीं करना चाहिए । साधु को दूसरे की निन्दा नहीं करनी चाहिए, दूसरे को दोष नहीं देना चाहिए, दूसरे के नाम से जो कोई वस्तु ग्रहण करता है तथा जो उपकरण को या किसी के सुकृत को छिपाता है, जो दान में अंतराय करता है, जो दान का विप्रणाश करता है, जो पैशुन्य करता है और मात्सर्य करता है। जो भी पीठ, पाट, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, आसन, चोलपट्टक, 1 और पादप्रोञ्छन आदि, पात्र, मिट्टी के पात्र और अन्य उपकरणों का जो आचार्य आदि साधर्मिकों में संविभाग नहीं करता, वह अस्तेयव्रत का आराधक नहीं होता । जो असंग्रहरुचि है, जो तपस्तेन है, वचनस्तेन है, रूपस्तेन है, जो आचार का चोर है, भावस्तेन है, जो शब्दकर है, जो गच्छ में भेद उत्पन्न करने वाले कार्य करता है, कलहकारी, वैरकारी और असमाधिकारी है, जो शास्त्रोक्त प्रमाण से सदा अधिक भोजन करता है, जो सदा वैर बाँध रखने वाला है, सदा क्रोध करता रहता है, ऐसा पुरुष इस अस्तेयव्रत का आराधक नहीं होता है। किस प्रकार के मनुष्य इस व्रत के आराधक हो सकते हैं ? इस अस्तेयव्रत का आराधक वही पुरुष हो सकता है जो-वस्त्र, पात्र आदि धर्मोपकरण, आहार-पानी आदि का संग्रहण और संविभाग करने में कुशल हो । जो अत्यन्त बाल, दुर्बल, रुग्ण, वृद्ध और मासक्षपक आदि तपस्वी साधु की, प्रवर्तक, आचार्य, उपाध्याय की, नवदीक्षित साधु की तथा साधर्मिक, तपस्वी कुल, गण, संघ के चित्त की प्रसन्नता के लिए सेवा करने वाला हो । जो निर्जरा का अभिलाषी हो, जो अनिश्रित हो, वही दस प्रकार का वैयावृत्य, अन्नपान आदि अनेक प्रकार से करता है। वह अप्रीतिकारक गृहस्थ के कुल में प्रवेश नहीं करता और न अप्रीतिकारक के घर का आहार-पानी ग्रहण करता है। अप्रीतिकारक से पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, आसन, चोलपट्ट, मुख-वस्त्रिका एवं पादपोंछन भी नहीं लेता है । वह दूसरों की निन्दा नहीं करता और न दूसरे के दोषों को ग्रहण करता है। जो दूसरे के नाम से कुछ भी ग्रहण नहीं करता और न किसी को दानादि धर्म से विमुख करता है के दान आदि सुकृत का अथवा धर्माचरण का अपलाप नहीं करता है, जो दानादि देकर और वैयावृत्त्य आदि करके मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 41 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक पश्चात्ताप नहीं करता है, ऐसा आचार्य, उपाध्याय आदि के लिए संविभाग करने वाला, संग्रह एवं उपकार करने में कुशल साधक ही इस अस्तेयव्रत का आराधक होता है। परकीय द्रव्य के हरण से विरमण रूप इस अस्तेयव्रत की परीक्षा के लिए भगवान तीर्थंकर देव ने यह प्रवचन समीचीन रूप से कहा है । यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकारी है, आगामी भव में शुभ फल प्रदान करने वाला और भविष्यत् में कल्याणकारी है । यह प्रवचन शुद्ध है, न्याय-युक्ति-तर्क से संगत है, अकुटिल-मुक्ति का सरल मार्ग है, सर्वोत्तम है तथा समस्त दुःखों और पापों को निःशेष रूप से शान्त कर देने वाला है । परद्रव्यहरणविरमण (अदत्तादानत्याग) व्रत की पूरी तरह रक्षा करने के लिए पाँच भावनाएं हैं, जो आगे कही जा रही हैं। पाँच भावनाओं में से प्रथम भावना इस प्रकार है-देवकुल, सभा, प्रपा, आवसथ, वृक्षमूल, आराम, कन्दरा, गिरिगहा, कर्म, यानशाला, कप्यशाला, मण्डप, शन्य घर, श्मशान, लयन तथा दकान में और इसी प्रकार के अन्य स्थानों में जो भी सचित्त जल, मत्तिका, बीज, दब आदि हरित और चींटी-मकोडे आदि त्रस जीवों से रहित हो, जिसे गृहस्थ ने अपने लिए बनवाया हो, प्रासुक हो, जो स्त्री, पशु एवं नपुंसक के संसर्ग से रहि कारण जो प्रशस्त हो, ऐसे उपाश्रय में साधु को विहरना चाहिए-साधुओं के निमित्त जिसके लिए हिंसा की जाए, ऐसे आधाकर्म की बहलता वाले, आसिक्त, संमार्जित, उत्सिक्त, शोभित, छादन, दुमन, लिम्पन, अनुलिंपन, ज्वलन, भाण्डों को इधर-उधर हटाए हुए स्थान-उपाश्रय साधुओं के लिए वर्जनीय है । ऐसा स्थान शास्त्र द्वारा निषिद्ध है । इस प्रकार विविक्त-स्थान में वसतिरूप समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला मुनि सदैव दुर्गति के कारण पापकर्म करने और करवाने से निवृत्त होता-बचता है तथा दत्त-अनुज्ञात अवग्रह में रुचि वाला होता है। दूसरी भावना निर्दोष संस्तारकग्रहण संबंधी है । आराम, उद्यान, कानन और वन आदि स्थानों में जो कुछ भी इक्कड जाति का घास तथा कठिन, जन्तुक, परा, मेरा, कूर्च, कुश, डाभ, पलाल, मूयक, वल्वज, पुष्प, फल, त्वचा, प्रवाल, कन्द, मूल, तृण, काष्ठ और शर्करा आदि द्रव्य संस्तारक रूप उपधि के लिए अथवा संस्तारक एवं उपधि के लिए ग्रहण करता है तो इन उपाश्रय के भीतर की ग्राह्य वस्तुओं को दाता द्वारा दिये बिना ग्रहण करना नहीं कल्पता । इस प्रकार अवग्रहसमिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला साधु सदा दुर्गति के कारणभूत पापकर्म के करने और कराने से निवृत्त होता-बचता है और दत्त-अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है। तीसरी भावना शय्या-परिकर्मवर्जन है । पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक के लिए वृक्षों का छेदन नहीं करना चाहिए । वृक्षों के छेदन या भेदन से शय्या तैयार नहीं करवानी चाहिए । साधु जिस उपाश्रय में निवास करे, वहीं शय्या की गवेषणा करनी चाहिए । वहाँ की भूमि यदि विषम हो तो उसे सम न करे । पवनहीन स्थान को अधिक पवन वाला अथवा अधिक पवन वाले स्थान को पवनरहित बनाने के लिए उत्सुक न होअभिलाषा भी न करे, डाँस-मच्छर आदि के विषय में क्षुब्ध नहीं होना चाहिए और उन्हें हटाने के लिए धूम आदि नहीं करना चाहिए । इस प्रकार संयम की, संवर की, कषाय एवं इन्द्रियों के निग्रह, अत एव समाधि की प्रधानता वाला धैर्यवान मुनि काय से इस व्रत का पालन करता हुआ निरन्तर आत्मा के ध्यान में निरत रहकर, समितियुक्त रहकर और एकाकी-रागद्वेष से रहित होकर धर्म का आचरण करे । इस प्रकार शय्यासमिति के योग से भावित अन्तरात्मा वाला साधु सदा दुर्गति के कारणभूत पाप-कर्म से विरत होता है और दत्त-अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है। चौथी भावना अनुज्ञातभक्तादि है । सब साधुओं के लिए साधारण सम्मिलित आहार-पानी आदि मिलने पर साधु को सम्यक् प्रकार से-यतनापूर्वक खाना चाहिए । शाक और सूप की अधिकता वाला भोजन अधिक नहीं खाना चाहिए । तथा वेगपूर्वक, त्वरा के साथ, चंचलतापूर्वक और न विचारविहीन होकर खाना चाहिए । जो दूसरों को पीड़ाजनक हो ऐसा एवं सदोष नहीं खाना चाहिए । साधु को इस रीति से भोजन करना चाहिए, जिससे उसके तीसरे व्रत में बाधा उपस्थित न हो । यह अदत्तादानविरमणव्रत का सूक्ष्म नियम है । इस प्रकार सम्मिलित भोजन के लाभ में समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला साधु सदा दुर्गतिहेतु पापकर्म से विरत होता है और दत्त मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 42 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक एवं अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है। __पाँचवीं भावना साधर्मिक-विनय है । साधर्मिक के प्रति विनय का प्रयोग करना चाहिए । उपकार और तपस्या की पारणा में, वाचना और परिवर्तना में, भिक्षा में प्राप्त अन्न आदि अन्य साधुओं को देने में तथा उनसे लेने में और विस्मृत अथवा शंकित सूत्रार्थ सम्बन्धी पृच्छा करने में, उपाश्रय से बाहर नीकलते और उसमें प्रवेश करते समय विनय का प्रयोग करना चाहिए । इनके अतिरिक्त इसी प्रकार के अन्य सैकड़ों कारणों में विनय का प्रयोग करना चाहिए । क्योंकि विनय भी अपने आप में तप है और तप भी धर्म है । अत एव विनय का आचरण करना चाहिए । विनय किनका करना चाहिए ? गुरुजनों का, साधुओं का और तप करने वाले तपस्वियों का । इस प्रकार विनय से युक्त अन्तःकरण वाला साधु अधिकरण से विरत तथा दत्त-अनुज्ञात अवग्रह में रुचि वाला होता है । शेष पूर्ववत् । इस प्रकार (आचरण करने) से यह तीसरा संवरद्वार समीचीन रूप से पालित और सुरक्षित होता है । इस प्रकार यावत् तीर्थंकर भगवान द्वारा कथित है, सम्यक् प्रकार से उपदिष्ट है और प्रशस्त है । शेष शब्दों का अर्थ पूर्ववत् समझना चाहिए। अध्ययन-८-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 43 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-९- संवरद्वार-४ सूत्र-३९ हे जम्बू ! अदत्तादानविरमण के अनन्तर ब्रह्मचर्य व्रत है । यह ब्रह्मचर्य अनशन आदि तपों का, नियमों का, ज्ञान का, दर्शन का, चारित्र का, सम्यक्त्व का और विनय का मूल है । अहिंसा आदि यमों और गुणों में प्रधान नियमों से युक्त है । हिमवान् पर्वत से भी महान और तेजोवान है । प्रशस्य है, गम्भीर है । इसकी विद्यमानता में मनुष्य का अन्तःकरण स्थिर हो जाता है । यह सरलात्मा साधुजनों द्वारा आसेवित है और मोक्ष का मार्ग है । विशुद्ध, निर्मल सिद्धि के गृह के समान है । शाश्वत एवं अव्याबाध तथा पुनर्भव से रहित बनानेवाला है । यह प्रशस्त, सौम्य, शिव, अचल और अक्षय पद को प्रदान करने वाला है । उत्तम मुनियों द्वारा सुरक्षित है, सम्यक् प्रकार से आचरित है और उपदिष्ट है । श्रेष्ठ मुनियों द्वारा जो धीर, शूरवीर, धार्मिक धैर्यशाली हैं, सदा विशुद्ध रूप से पाला गया है । यह कल्याण का कारण है। भव्यजनों द्वारा इसका आराधन किया गया है । यह शंकारहित है, ब्रह्मचारी निर्भीक रहता है । यह व्रत निस्सारता से रहित है । यह खेद से रहित और रागादि के लेप से रहित है। चित्त की शान्ति का स्थल है और नियमतः अविचल है । यह तप और संयम का मूलधार है । पाँच महाव्रतों में विशेष रूप से सुरक्षित, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों से गुप्त हैं । रक्षा के लिए उत्तम ध्यान रूप सुनिर्मित कपाट वाला तथा अध्यात्म चित्त ही लगी हई अर्गला है । यह व्रत दुर्गति के मार्ग को रुद्ध एवं आच्छादित कर देने वाला है और सद्गति के पथ को प्रदर्शित करने वाला है। यह ब्रह्मचर्यव्रत लोक में उत्तम है। यह व्रत कमलों से सुशोभित सर और तडाग के समान धर्म की पाल के समान है, किसी महाशकट के पहियों के आरों के लिए नाभि के समान है, ब्रह्मचर्य के सहारे ही क्षमा आदि धर्म टिके हुए हैं । यह किसी विशाल वृक्ष के स्कन्ध के समान है, यह महानगर के प्राकार के कपाट की अर्गला के समान है । डोरी से बँधे इन्द्रध्वज के सदृश है । अनेक निर्मल गुणों से व्याप्त है । जिसके भग्न होने पर सहसा सब विनय, शील, तप और गुणों का समूह फूटे घड़े की तरह संभग्न हो जाता है, दहीं की तरह मथित हो जाता है, आटे की भाँति चूर्ण हो जाता है, काँटे लगे शरीर की तरह शल्ययुक्त हो जाता है, पर्वत से लुढ़की शिला के समान लुढ़का हुआ, चीरी या तोड़ी हुई लकड़ी की तरह खण्डित हो जाता है तथा दुरवस्था को प्राप्त और अग्नि द्वारा दग्ध होकर बिखरे काष्ठ के समान विनष्ट हो जाता है। वह ब्रह्मचर्य-अतिशय सम्पन्न है। ब्रह्मचर्य की बत्तीस उपमाएं इस प्रकार हैं-जैसे ग्रहगण, नक्षत्रों और तारागण में चन्द्रमा प्रधान होता है, मणि, मुक्ता, शिला, प्रवाल और रत्न की उत्पत्ति के स्थानों में समुद्र प्रधान है, मणियों में वैडूर्यमणि समान, आभूषणों में मुकुट के समान, वस्त्रों में क्षौमयुगल के सदृश, पुष्पों में श्रेष्ठ अरविन्द समान, चन्दनों में गोशीर्ष चन्दन समान, औषधियों-चामत्कारिक वनस्पतियों का उत्पत्तिस्थान हिमवान पर्वत है, उसी प्रकार आमर्शीषधि आदि की उत्पत्ति का स्थान, नदियों में शीतोदा नदी समान, समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र समान | माण्डलिक पर्वतों में रुचकवर पर्वत समान, ऐरावण गजराज के समान । वन्य जन्तुओं में सिंह के समान, सुपर्णकुमार देवों में वेणुदेव के समान, नागकुमार जाति के धरणेन्द्र समान और कल्पों में ब्रह्मलोक कल्प के समान यह ब्रह्मचर्य उत्तम है। जैसे उत्पादसभा, अभिषेकसभा, अलंकारसभा, व्यवसायसभा और सुधर्मासभा, इन पाँचों में सुधर्मासभा श्रेष्ठ है । जैसे स्थितियों में लवसप्तमा स्थिति प्रधान है, दानों में अभयदान के समान, कम्बलों में कृमिरागरक्त कम्बल के समान, संहननों में वज्रऋषभनाराच संहनन के समान, संस्थानों में चतुरस्र संस्थान के समान, ध्यानों में शुक्लध्यान समान, ज्ञानों में केवलज्ञान समान, लेश्याओं में परमशुक्ल लेश्या के समान, मुनियों में तीर्थंकर के समान, क्षेत्रों में महाविदेहक्षेत्र के समान, पर्वतों में गिरिराज सुमेरु की भाँति, वनों में नन्दनवन समान, वृक्षों में सुदर्शन जम्बू के समान, अश्वाधिपति, गजाधिपति और रथाधिपति राजा के समान और रथिकों में महारथी के समान समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्यव्रत सर्वश्रेष्ठ है। इस प्रकार एक ब्रह्मचर्य की आराधना करने पर अनेक गुण स्वतः अधीन हो जाते हैं । ब्रह्मचर्यव्रत के मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक पालन करने पर सम्पूर्ण व्रत अखण्ड रूप से पालित हो जाते हैं, यथा-शील, तप, विनय और संयम, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति । ब्रह्मचर्यव्रत के प्रभाव से इहलोक और परलोक सम्बन्धी यश और कीर्ति प्राप्त होती है । यह विश्वास का कारण है । अत एव स्थिरचित्त से तीन कारण और तीन योग से विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और वह भी जीवनपर्यन्त, इस प्रकार भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्यव्रत का कथन किया है। भगवान का वह कथन इस प्रकार का हैसूत्र-४० यह ब्रह्मचर्यव्रत पाँच महाव्रतरूप शोभन व्रतों का मूल है, शुद्ध आचार वाले मुनियों के द्वारा सम्यक् प्रकार से सेवन किया गया है, यह वैरभाव की निवृत्ति और उसका अन्त करने वाला है तथा समस्त समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र के समान दुस्तर किन्तु तैरने का उपाय होने के कारण तीर्थस्वरूप है। सूत्र-४१ तीर्थंकर भगवंतों ने ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करने के मार्ग-भलीभाँति बतलाए हैं । यह नरकगति और तिर्यंच गति के मार्ग को रोकने वाला है, सभी पवित्र अनुष्ठानों को सारयुक्त बनाने वाला तथा मुक्ति और वैमानिक देवगति के द्वार को खोलने वाला है । सूत्र -४२ देवेन्द्रों और नरेन्द्रों के द्वारा जो नमस्कृत हैं, उन महापुरुषों के लिए भी ब्रह्मचर्य पूजनीय है । यह जगत के सब मंगलों का मार्ग है । यह दुर्द्धर्ष है, यह गुणों का अद्वितीय नायक है । मोक्ष मार्ग का द्वार उद्घाटक है। सूत्र - ४३ __ब्रह्मचर्य महाव्रत का निर्दोष परिपालन करने से सुब्राह्मण, सुश्रमण और सुसाधु कहा जाता है । जो शुद्ध ब्रह्मचर्य का आचरण करता है वही ऋषि है, वही मुनि है, वही संयत है और वही सच्चा भिक्षु है । ब्रह्मचर्य का अनुपालन करने वाले पुरुष को रति, राग, द्वेष और मोह, निस्सार प्रमाददोष तथा शिथिलाचारी साधुओं का शील और घृतादि की मालिश करना, तेल लगाकर स्नान करना, बार-बार बगल, सिर, हाथ, पैर और मुँह धोना, मर्दन करना, पैर आदि दबाना, परिमर्दन करना, विलेपन करना, चूर्णवास से शरीर को सुवासित करना, अगर आदि की धूप देना, शरीर को मण्डित करना, बाकुशिक कर्म करना-नखों, केशों एवं वस्त्रों को संवारना आदि, हँसी-ठट्ठा करना, विकारयुक्त भाषण करना, नाट्य, गीत, वाजिंत्र, नटों, नृत्यकारकों, जल्लों और मल्ला का तमाशा देखना तथा इसी प्रकार की अन्य बातें जो शृंगार का आगार हैं और जिनसे तपश्चर्या, संयम एवं ब्रह्मचर्य का उपघात या घात होता है, ब्रह्मचर्य का आचरण करने वाले को सदैव के लिए त्याग देनी चाहिए। इन त्याज्य व्यवहारों के वर्जन के साथ आगे कहे जाने वाले व्यापारों से अन्तरात्मा को भावित-वासित करना चाहिए । स्नान नहीं करना, दन्तधावन नहीं करना, स्वेद (पसीना) धारण करना, मैल को धारण करना, मौन व्रत धारण करना, केशों का लुञ्चन करना, क्षमा, इन्द्रियनिग्रह, अचेलकता धारण करना, भूख-प्यास सहना, लाघव -उपधि अल्प रखना, सर्दी-गर्मी सहना, काष्ठ की शय्या, भूमिनिषद्या, परगृहप्रवेश में मान, अपमान, निन्दा एवं दंश-मशक का क्लेश सहन करना, नियम करना, तप तथा मूलगुण आदि एवं विनय आदि से अन्तःकरण को भावित करना चाहिए; जिससे ब्रह्मचर्यव्रत खूब स्थिर हो । अब्रह्मनिवृत्ति व्रत की रक्षा के लिए भगवान महावीर ने यह प्रवचन कहा है । यह प्रवचन परलोक में फलप्रदायक है, भविष्य में कल्याण का कारण है, शुद्ध है, न्याययुक्त है, कुटिलता से रहित है, सर्वोत्तम है और दुःखों और पापों को उपशान्त करने वाला है। चतुर्थ अब्रह्मचर्यविरमण व्रत की रक्षा के लिए ये पाँच भावनाएं हैं-प्रथम भावना इस प्रकार है-शय्या, आसन, गृहद्वार, आँगन, आकाश, गवाक्ष, शाला, अभिलोकन, पश्चाद्गृह, प्रसाधनक, इत्यादि सब स्थान स्त्रीसंसक्त होने से वर्जनीय है । इनके अतिरिक्त वेश्याओं के स्थान हैं और जहाँ स्त्रियाँ बैठती-उठती हैं और बारबार मोह, द्वेष, कामराग और स्नेहराग की वृद्धि करने वाली नाना प्रकार की कथाएं कहती हैं-उनका भी ब्रह्मचारी को मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 45 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक वर्जन करना चाहिए। ऐसे स्त्री के संसर्ग के कारण संक्लिष्ट जो भी स्थान हों, उनसे भी अलग रहना चाहिए, जैसेजहाँ रहने से मन में विभ्रम हो, ब्रह्मचर्य भग्न होता हो या उसका आंशिकरूप से खण्डन होता हो, जहाँ रहने से आर्त्तध्यान-रौद्रध्यान होता हो, उन-उन अनायतनों का पापभीरु-परित्याग करे । साधु तो ऐसे स्थान पर ठहरता है जो अन्त-प्रान्त हों । इस प्रकार असंसक्तवास-वसति-समिति के स्थान का त्याग रूप समिति के योग से युक्त अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य की मर्यादा में मन वाला तथा इन्द्रियों के विषय ग्रहण से निवृत्त, जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य से गुप्त होता है। दूसरी भावना है स्त्रीकथावर्जन । नारीजनों के मध्य में अनेक प्रकार की कथा नहीं करनी चाहिए, जो बातें स्त्रियों की कामुक चेष्टाओं से और विलास आदि के वर्णन से युक्त हों, जो हास्यरस और शृंगाररस की प्रधानता वाली साधारण लोगों की कथा की तरह हों, जो मोह उत्पन्न करने वाली हों । इसी प्रकार विवाह सम्बन्धी बातें, स्त्रियों के सौभाग्य-दुर्भाग्य की भी चर्चा, महिलाओं के चौंसठ गुणों, स्त्रियों के रंग-रूप, देश, जाति, कुल-सौन्दर्य, भेद-प्रभेद-पद्मिनी, चित्रणी, हस्तिनी, शंखिनी आदि प्रकार, पोशाक तथा परिजनों सम्बन्धी कथाएं तथा इसी प्रकार की जो भी अन्य कथाएं शृंगाररस से करुणता उत्पन्न करने वाली हों और जो तप, संयम तथा ब्रह्मचर्य का घात-उपघात करने वाली हों, ऐसी कथाएं ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले साधुजनों को नहीं कहनी चाहिए । ऐसी कथाएं -बातें उन्हें सूननी भी नहीं चाहिए और उनका मन में चिन्तन भी नहीं करना चाहिए । इस प्रकार स्त्रीकथाविरति-समिति योग से भावित अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चित्तवाला तथा इन्द्रिय विकार से विरत रहने वाला, जितेन्द्रिय साधु ब्रह्मचर्य से गुप्त रहता है। ब्रह्मचर्यव्रत की तीसरी भावना स्त्री के रूप को देखने के निषेध-स्वरूप है । नारियों के हास्य को, विकारमय भाषण को, हाथ आदि की चेष्टाओं को, विप्रेक्षण को, गति को, विलास और क्रीड़ा को, इष्ट वस्तु की प्राप्ति होने पर अभिमानपूर्वक किया गया तिरस्कार, नाट्य, नृत्य, गीत, वादित आदि वाद्यों के वादन, शरीर की आकृति, गौर श्याम आदि वर्ण, हाथों, पैरों एवं नेत्रों का लावण्य, रूप, यौवन, स्तन, अधर, वस्त्र, अलंकार और भूषणललाट की बिन्दी आदि को तथा उसके गोपनीय अंगों को, एवं स्त्रीसम्बन्धी अन्य अंगोपांगों या चेष्टाओं को जिनसे ब्रह्मचर्य, तप तथा संयम का घात-उपघात होता है, उन्हें ब्रह्मचर्य का अनुपालन करने वाला मुनि न नेत्रों से देखे, न मन से सोचे और न वचन से उनके सम्बन्ध में कुछ बोले और न पापमय कार्यों की अभिलाषा करे । इस प्रकार स्त्री रूपविरति के योग से भावित अन्तःकरण वाला मुनि ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चित्त वाला, इन्द्रियविकार से विरत, जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य से गुप्त-सुरक्षित होता है। पूर्व-रमण, पूर्वकाल में की गई क्रीड़ाएं, पूर्वकाल के सग्रन्थ, ग्रन्थ तथा संश्रुत, इन सब का स्मरण नहीं करना चाहिए । इसके अतिरिक्त द्विरागमन, विवाह, चूडाकर्म, पर्वतिथियों में, यज्ञों आदि के अवसरों पर, शृंगार के आगार जैसी सजी हुई, हाव, भाव, प्रललित, विक्षेप, पत्रलेखा, आँखों में अंजन आदि शृंगार, विलास-इन सब से सुशोभित, अनुकूल प्रेमवाली स्त्रियों के साथ अनुभव किए हुए शयन आदि विविध प्रकार के कामशास्त्रोक्त प्रयोग, ऋतु के उत्तम वासद्रव्य, धूप, सुखद स्पर्श वाले वस्त्र, आभूषण, रमणीय आतोद्य, गायन, प्रचुर नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल-कुश्तीबाज, मौष्टिक, विदूषक, कथा-कहानी सुनाने वाले, प्लवक रासलीला करने वाले, शुभाशुभ बतलाने वाले, लंख, मंख, तुण नामक वाद्य बजाने वाले, वीणा बजाने वाले, तालाचर-इस सब की क्रीडाएं, गायकों के नाना प्रकार के मधुर ध्वनि वाले गीत एवं मनोहर स्वर और इस प्रकार के अन्य विषय, जो तप, संयम और ब्रह्मचर्य का घात-उपघात करने वाले हैं, उन्हें ब्रह्मचर्यपालक श्रमण को देखना नहीं चाहिए, इन से सम्बद्ध वार्तालाप नहीं करना चाहिए और पूर्वकाल में जो देखे-सूने हों, उनका स्मरण भी नहीं करना चाहिए । इस प्रकार पूर्ववत्-पूर्वक्रीडितविरति-समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चित्त वाला, मैथुनविरत, जितेन्द्रिय साधु ब्रह्मचर्य से गुप्त-सुरक्षित होता है। ___ पाँचवीं भावना-सरस आहार एवं स्निग्ध भोजन का त्यागी संयम शील सुसाधु दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 46 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक गुड़, खाँड़, मिसरी, मधु, मद्य, माँस, खाद्यक और विगय से रहित आहार करे । वह दर्पकारक आहार न करे । दिन में बहुत बार न खाए और न प्रतिदिन लगातार खाए । न दाल और व्यंजन की अधिकता वाला और न प्रभूत भोजन करे । साधु उतना ही हित-मित आहार करे जितना उसकी संयम-यात्रा का निर्वाह करने के लिए आवश्यक हो, जिससे मन में विभ्रम उत्पन्न न हो और धर्म से च्युत न हो । इस प्रकार प्रणीत-आहार की विरति रूप समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य की आराधना में अनुरक्त चित्त वाला और मैथुन से विरत साधु जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य से सुरक्षित होता है। प्रकार ब्रह्मचर्य सम्यक प्रकार से संवत और सरक्षित होता है । मन, वचन, और काय, इन तीनों योगों से परिरक्षित इन पाँच भावनारूप कारणों से सदैव, आजीवन यह योग धैर्यवान् और मतिमान् मुनि को पालन करना चाहिए । यह संवरद्वार आस्रव से, मलीनता से, और भावछिद्रों से रहित है । इससे कर्मों का आस्रव नहीं होता । यह संक्लेश से रहित है, शुद्ध है और सभी तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात है । इस प्रकार यह चौथा संवरद्वार स्पृष्ट, पालित, शोधित, पार, कीर्तित, आराधित और तीर्थंकर भगवान की आज्ञा के अनुसार अनुपालित होता है, ऐसा ज्ञातमुनि भगवान ने कहा है। यह प्रसिद्ध है, प्रमाणों से सिद्ध है। यह भवस्थित सिद्धों का शासन है। सुर, नर आदि की परिषद् में उपदिष्ट किया गया है, मंगलकारी है । जैसा मैंने भगवान से सूना, वैसा ही कहता हूँ। अध्ययन-९-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 47 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-१० - संवरद्वार-५ सूत्र-४४ __ हे जम्बू ! जो मूर्छारहित है । आरंभ और परिग्रह रहित है । तथा क्रोध-मान-माया-लोभ से विरत है । वही श्रमण है। एक असंयम, राग और द्वेष दो, तीन दण्ड, तीन गौरव, तीन गुप्ति, तीन विराधना, चार कषाय-चार ध्यानचार संज्ञा-चार विकथा, पाँच क्रिया-पाँच समिति-पाँच महाव्रत छह जीवनिकाय, छह लेश्या, सात भय, आठ मद, नव ब्रह्मचर्यगुप्ति, दशविध श्रमणधर्म, एकादश उपासकप्रतिमा, बारह भिक्षुप्रतिमा, तेरह क्रियास्थान, चौदह भूतग्राम, पंद्रह परमाधामी, सोलह गाथा अध्ययन, सत्तरहविध असंयम, अट्ठारह अब्रह्म, एगूणवीस ज्ञात अध्ययन, बीस असमाधि स्थान, एकवीस शबलदोष, बाईस परीषह, तेईस सूत्रकृत अध्ययन, चोबीस देव, पंचवीस भावना, छब्बीस दसा कल्प व्यवहार उदेसनकाल सत्ताईस अनगारगुण, अट्ठाईस आचार प्रकल्प एगूणतीस पापश्रुतप्रसंग, तीस मोहनीयस्थान, इकतीस सिद्धों के गुण, बत्तीस योग संग्रह और तैंतीस आशातना-इन सब संख्या वाले पदार्थों में तथा इसी प्रकार के अन्य पदार्थों में, जो जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित हैं तथा शाश्वत अवस्थित और सत्य हैं, किसी प्रकार की शंका या कांक्षा न करके हिंसा आदि से निवृत्ति करनी चाहिए एवं विशिष्ट एकाग्रता धारण करनी चाहिए। इस प्रकार नियाणा से रहित होकर, ऋद्धि आदि के गौरव से दूर रह कर, निर्लोभ होकर तथा मूढ़ता त्याग कर जो अपने मन, वचन और काय को संवृत्त करता हुआ श्रद्धा करता है, वही वास्तव में साधु है। सूत्र-४५ श्रीवीरवर-महावीर के वचन से की गई परिग्रहनिवृत्ति के विस्तार से यह संवरवर-पादप बहुत प्रकार का है। सम्यग्दर्शन इसका विशुद्ध मूल है । धृति इसका कन्द है । विनय इसकी वेदिका है । तीनों लोकों में फैला हुआ विपुल यश इसका सघन, महान और सुनिर्मित स्कन्ध है । पाँच महाव्रत इसकी विशाल शाखाएं हैं । भावनाएं इस संवरवृक्ष की त्वचा है। धर्मध्यान, शुभयोग तथा ज्ञान रूपी पल्लवों के अंकुरों को यह धारण करने वाला है । बहुसंख्यक उत्तरगुण रूपी फूलों से यह समृद्ध है । यह शील के सौरभ से सम्पन्न है और वह सौरभ ऐहिक फल की वाञ्छा से रहित सत्प्रवृत्तिरूप है । यह संवरवृक्ष अनास्रव फलों वाला है । मोक्ष की इसका उत्तम बीजसार है । यह मेरु पर्वत के शिखर पर चूलिका के समान मोक्ष के निर्लोभता स्वरूप मार्ग का शिखर है । इस प्रकार का अपरिग्रह रूप उत्तम संवरद्वार रूपी जो वृक्ष है, वह अन्तिम संवरद्वार है। ग्राम, आकर, नगर, खेड़, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन अथवा आश्रम में रहा हुआ कोई भी पदार्थ हो, चाहे वह अल्प मूल्य वाला हो या बहुमूल्य हो, प्रमाण में छोटा हो अथवा बड़ा हो, वह भले त्रसकाय हो या स्थावर काय हो, उस द्रव्यसमूह को मन से भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, चाँदी, सोना, क्षेत्र, वास्तु भी ग्रहण करना नहीं कल्पता । दासी, दास, भृत्य, प्रेष्य, घोड़ा, हाथी, बैल आदि भी ग्रहण करना नहीं कल्पता । यान, गाड़ी, युग्य, शयन और छत्र भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, न कमण्डलु, न जूता, न मोरपींछी, न वीजना और तालवृन्त ग्रहण करना कल्पता है । लोहा, रांगा, तांबा, सीसा, कांसा, चाँदी, सोना, मणि और मोती का आधार सीपसम्पुट, शंख, उत्तम दाँत, सींग, शैल-पाषाण, उत्तम काच, वस्त्र और चर्मपात्र-इन सब को भी ग्रहण करना नहीं कल मूल्यवान पदार्थ दूसरे के मन में ग्रहण करने की तीव्र आकांक्षा उत्पन्न करते हैं, आसक्तिजनक हैं, उन्हें सँभालने और बढ़ाने की ईच्छा उत्पन्न करते हैं, किन्तु साधु को नहीं कल्पता कि वह इन्हें ग्रहण करे । इसी प्रकार पुष्प, फल, कन्द, मूल आदि तथा सन जिनमें सत्तरहवाँ है, ऐसे समस्त धान्यों को भी परिग्रह-त्यागी साधु औषध, भैषज्य या भोजन के लिए त्रियोग-मन, वचन, काय से ग्रहण न करे। नहीं ग्रहण करने का क्या कारण है ? अनन्त ज्ञान और दर्शन के धारक, शील, गुण, विनय, तप और संयम के नायक, जगत के समस्त प्राणियों पर वात्सल्य धारण करने वाले, त्रिलोक पूजनीय, तीर्थंकर जिनेन्द्र देवों ने अपने केवलज्ञान से देखा है कि ये पुष्प, फल आदि त्रस जीवों की योनि हैं । योनि का उच्छेद करना योग्य नहीं है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 48 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक इसी कारण उत्तम मुनि पुष्प, फल आदि का परिवर्जन करते हैं । और जो भी ओदन, कुल्माष, गंज, तर्पण, मंथु, आटा, पूँजी हुई धानी, पलल, सूप, शष्कुली, वेष्टिम, वरसरक, चूर्णकोश, गुड़ पिण्ड, शिखरिणी, बड़ा, मोदक, दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, खाजा, गुड़, खाँड़, मिश्री, मधु, मद्य, माँस और अनेक प्रकार के व्यंजन, छाछ आदि वस्तुओं का उपाश्रय में, अन्य किसी के घर में अथवा अटवी में सुविहित-परिग्रहत्यागी, शोभन आचार वाले साधुओं को संचय करना नहीं कल्पता है । इसके अतिरिक्त जो आहार औद्देशिक हो, स्थापित हो, रचित हो, पर्यवजात हो, प्रकीर्ण, प्रादुष्करण, प्रामित्य, मिश्रजात. क्रीतकत. प्राभत दोषवाला हो, जो दान के लिए या पण्य के लिए बनाया गया प्रकार के श्रमणों अथवा भिखारियों को देने के लिए तैयार किया गया हो, जो पश्चात्कर्म अथवा पुरःकर्म दोष से जो नित्यकर्म-दषित हो, जो प्रक्षित, अतिरिक्त मौखर, स्वयंग्राह अथवा आहत हो, मत्तिकोपलिप्त, आच्छेद्य, अनिसृष्ट हो अथवा जो आहार मदनत्रयोदशी आदि विशिष्ट तिथियों में यज्ञ और महोत्सवों में, उपाश्रय के भीतर या बाहर साधुओं को देने के लिए रखा हो, जो हिसा-सावद्य दोषों से युक्त हो, ऐसा भी आहार साधु को लेना नहीं कल्पता है। तो फिर किस प्रकार का आहार साधु के लिए ग्रहण करने योग्य है ? जो आहारादि एकादश पिण्डपात से शुद्ध हो, जो खरीदना, हनन करना और पकाना, इन तीन क्रियाओं से कृत, कारित और अनुमोदन से निष्पन्न नौ कोटियों से पूर्ण रूप से शुद्ध हो, जो एषणा के दस दोषों से रहित हो, जो उद्गम और उत्पादनारूप एषणा दोष से रहित हो, जो सामान्य रूप से निर्जीव हुए, जीवन से च्युत हो गया हो, आयुक्षय के कारण जीवनक्रियाओं से रहित हो, शरीरोपचय से रहित हो, अत एव जो प्रासुक हो, संयोग और अंगार नामक मण्डल-दोष से रहित हो, धूम-दोष से रहित हो, जो छह कारणों में से किसी कारण से ग्रहण किया गया हो और छह कायों की रक्षा के लिए स्वीकृत किया गया हो, ऐसे प्रासुक आहारादि से प्रतिदिन निर्वाह करना चाहिए। आगमानुकूल चारित्र का परिपालन करने वाले साधु को यदि अनेक प्रकार के ज्वर आदि रोग और आतंक या व्याधि उत्पन्न हो जाए, वात, पित्त या कफ या अतिशय प्रकोप हो जाए, अथवा सन्निपात हो जाए और इसके कारण उज्ज्वल, प्रबल, विपुल-दीर्घकाल तक भोगने योग्य कर्कश एवं प्रगाढ़ दुःख उत्पन्न हो जाए और वह दुःख अशुभ या कटुक द्रव्य के समान असुख हो, परुष हो, दुःखमय दारुण फल वाला हो, महान भय उत्पन्न करने वाला हो, जीवन का अन्त करने वाला और समग्र शरीर में परिताप उत्पन्न करने वाला हो, तो ऐसा दुःख उत्पन्न होने की स्थिति में भी स्वयं अपने लिए अथवा दूसरे साधु के लिए औषध, भैषज्य, आहार तथा पानी का संचय करके रखना नहीं कल्पता। पात्रधारी सुविहित साधु के पास जो पात्र, भाँड, उपधि और उपकरण होते हैं, जैसे-पात्र, पात्रबन्धन, पात्र केसरिका, पात्रस्थापनिका, पटल, रजस्राण, गोच्छक, तीन प्रच्छाद, रजोहरण, चोलपट्टक, मुखानन्तक, ये सब भी संयम की वृद्धि के लिए होते हैं तथा वात, ताप, धूप, डाँस-मच्छर और शीत से रक्षण के लिए हैं । इन सब उपकरणों को राग और द्वेष से रहित होकर साधु को धारण करने चाहिए । सदा इनका प्रतिलेखन, प्रस्फोटन और प्रमार्जन करना चाहिए । दिन में और रात्रि में सतत अप्रमत्त रहकर भाजन, भाण्ड, उपधि और उपकरणों को रखना और ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार के आचार का परिपालन करने के कारण वह साधु संयमवान, विमुक्त, निःसंग, निष्परिग्रहरुचि, निर्मम, निःस्नेहबन्धन, सर्वपापविरत, वासी-चन्दनकल्प समान भावना वाला, तृण, मणि, मुक्ता और मिट्टी के ढेले को समान मानने वाला रूप, सन्मान और अपमान में समता का धारक, पापरूपी रज को उपशान्त करने वाला, राग-द्वेष को शान्त करने वाला, ईर्या आदि पाँच समितियों से युक्त, सम्यग्दृष्टि और समस्त प्राणों-द्वीन्द्रियादि त्रस प्राणियों और भूतों पर समभाव धारण करने वाला होता है । वही वास्तव में साधु है। वह साधु श्रुत का धारक, ऋजु- और संयमी है । वह साधु समस्त प्राणियों के लिए शरणभूत होता है, मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 49 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक समस्त जगद्वर्ती जीवों का वत्सल होता है । वह सत्यभाषी, संसार- के अन्त में स्थित, संसार का उच्छेद करने वाला, सदा के लिए मरण आदि का पारगामी और सब संशयों का पारगामी होता है । आठ प्रवचनमाताओं के द्वारा आठ कर्मों की ग्रन्थि को खोलने वाला, आठ मदों का मथन करने वाला एवं स्वकीय सिद्धान्त में निष्णात होता है । वह सुख-दुःख में विशेषता रहित होता है । आभ्यन्तर और बाह्य तप रूप उपधान में सम्यक् प्रकार से उद्यत रहता है, क्षमावान्, इन्द्रियविजेता, स्वकीय और परकीय हित में निरत, ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान-भाण्ड-मात्र-निक्षेपणसमिति और मल-मूत्र-श्लेष्म-संधान-नासिकामलजल्ल आदि के प्रतिष्ठापन की समिति से युक्त, मनोगुप्ति से, वचनगुप्ति से और कायगुप्ति से युक्त, विषयों की ओर उन्मुख इन्द्रियों का गोपन करने वाला, ब्रह्मचर्य की गुप्ति से युक्त, समस्त प्रकार के संग का त्यागी, सरल, तपस्वी, क्षमागुण के कारण सहनशील, जितेन्द्रिय, सदगुणों से शोभित या शोधित, निदान से रहित, चित्तवत्ति को संयम की परिधि से बाहर न जाने देने वाला, ममत्व से विहीन, अकिंचन, स्नेहबन्धन को काटने वाला और कर्म के उपलेप से रहित होता है । मुनि आगे कही जाने वाली उपमाओं से मण्डित होता है कांसे के उत्तम पात्र समान रागादि के बन्ध से मुक्त होता है | शंख के समान निरंजन, कच्छप की तरह इन्द्रियों का गोपन करने वाला । उत्तम शुद्ध स्वर्ण के समान शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त । कमल के पत्ते के सदृश निर्लेप । चन्द्रमा के समान सौम्य, सूर्य के समान देदीप्यमान, मेरु के समान अचल, सागर के समान क्षोभरहित, पृथ्वी के समान समस्त स्पर्शों को सहन करने वाला । तपश्चर्या के तेज से दीप्त प्रज्वलित अग्नि के सदृश देदीप्यमान, गोशीर्ष चन्दन की तरह शीतल, सरोवर के समान प्रशान्तभाव वाला, अच्छी तरह घिस कर चमकाए हुए निर्मल दर्पणतल के समान स्वच्छ, गजराज की तरह शूरवीर, वृषभ की तरह अंगीकृत व्रतभार का निर्वाह करने वाला, मृगाधिपति सिंह के समान परीषहादि से अजेय, शरत्कालीन जल के सदृश स्वच्छ हृदय वाला, भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त, गेंडे के सींग के समान अकेला, स्थाणु की भाँति ऊर्ध्वकाय, शून्यगृह के समान अप्रतिकर्म, वायुरहित घर में स्थित प्रदीप की तरह निश्चल, छूरे की तरह एक धार वाला, सर्प के समान एकदृष्टि वाला, आकाश के समान स्वावलम्बी । पक्षी के सदृश विप्रमुक्त, सर्प के समान दूसरों के लिए निर्मित स्थान में रहने वाला । वायु के समान अप्रतिबद्ध । देहविहीन जीव के समान अप्रतिहत गति वाला होता है। (मुनि) ग्राम में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि तक विचरता है, क्योंकि वह जितेन्द्रिय होता है, परीषहों को जीतने वाला, निर्भय, विद्वान, सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों में वैराग्य युक्त होता है, वस्तुओं के संचय से विरत, मुक्त, लघु, जीवन मरण की आशा से मुक्त, चारित्र-परिणाम के विच्छेद से रहित, निरतिचार, अध्यात्मध्यान में निरत, उपशान्तभाव तथा एकाकी होकर धर्म आचरण करे । परिग्रहविरमणव्रत के परिरक्षण हेतु भगवान ने यह प्रवचन कहा है । यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकारी है, आगामी भवों में उत्तम फल देने वाला है और भविष्य में कल्याण करने वाला है । यह शुद्ध, न्याययुक्त, अकुटिल, सर्वोत्कृष्ट और समस्त दुःखों तथा पापों को सर्वथा शान्त करने वाला है। अपरिग्रह महाव्रत की पाँच भावनाएं हैं । उनमें से प्रथम भावना इस प्रकार है-श्रोत्रेन्द्रिय से, मन के अनकल होने के कारण भद्र शब्दों को सनकर (साध को राग नहीं करना चाहिए) । वे शब्द कौन से, किस प्रकार के हैं ? उत्तम मुरज, मृदंग, पणव, दुर्दर, कच्छभी, वीणा, विपंची और वल्लकी, बध्धीसक, सुघोषा, घंटा, नन्दी, सूसर-परिवादिनी, वंश, तूणक एवं पर्वक नामक वाद्य, तंत्री, तल, ताल, इन सब बाजों के नाद को (सून कर) तथा नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल, मुष्टिमल्ल, विदूषक, कथक, प्लवक, रास गाने वाले आदि द्वारा किये जाने वाले नाना प्रकार की मधुर ध्वनि से युक्त सुस्वर गीतों को (सून कर) तथा कंदोरा, मेखला, कलापक, प्रतरक, प्रहेरक, पादजालक एवं घण्टिका, खिंखिनी, रत्नोरुजालक, क्षुद्रिका, नेउर, चरणमालिका, कनकनिगड और जालक इन सब की ध्वनि सूनकर तथा लीलापूर्वक चलती हुई स्त्रियों की चाल से उत्पन्न एवं तरुणी रमणियों के हास्य की, बोलों की तथा स्वर-घोलनायुक्त मधुर तथा सुन्दर आवाज को और स्नेहीजनों द्वारा भाषित प्रशंसा-वचनों को एवं मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 50 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक इसी प्रकार के मनोज्ञ एवं सुहावने वचनों को (सूनकर) उनमें साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, गृद्धि नहीं करनी चाहिए, मुग्ध नहीं होना चाहिए, उनके लिए स्व-पर का परिहनन नहीं करना चाहिए, लुब्ध नहीं होना चाहिए, तुष्ट नहीं होना चाहिए, हँसना नहीं चाहिए, ऐसे शब्दों का स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त श्रोत्रेन्द्रिय के लिए अमनोज्ञ एवं पापक शब्द को सूनकर रोष नहीं करना । वे शब्द-कौन से हैं ? आक्रोश, परुष, वचन, खिंसना-निन्दा, अपमान, तर्जना, निर्भर्त्सना, दीप्तवचन, त्रासजनक वचन, अस्पष्ट उच्च ध्वनि, रुदनध्वनि, रटित, क्रन्दन, निर्घष्ट, रसित, विलाप के शब्द-इन सब शब्दों में तथा इसी प्रकार के अन अमनोज्ञ एवं पापक शब्दों में साधु को रोष नहीं करना चाहिए, उनकी हीलना, या निन्दा नहीं करनी चाहिए, जनसमूह के समक्ष उन्हें बूरा नहीं करना चाहिए, अमनोज्ञ शब्द उत्पन्न करने वाली वस्तु का छेदन, भेदन या नष्ट नहीं करना चाहिए । अपने अथवा दूसरे के हृदय में जुगुप्सा उत्पन्न नहीं करनी चाहिए । इस प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय (संयम) की भावना से भावित अन्तःकरण वाला साधु मनोज्ञ एवं अमनोज्ञरूप शुभ-अशुभ शब्दों में राग-द्वेष के संवर वाला, मन-वचन और काय का गोपन करने वाला, संवरयुक्त एवं गुप्तेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करे। द्वितीय भावना चक्षुरिन्द्रिय का संवर है । चक्षुरिन्द्रिय से मनोज्ञ एवं भद्र सचित्त द्रव्य, अचित्त द्रव्य और मिश्र द्रव्य के रूपों को देख कर वे रूप चाहे काष्ठ पर हों, वस्त्र पर हों, चित्र-लिखित हों, मिट्टी आदि के लेप से बनाए गए हों, पाषण पर अंकित हों, हाथीदाँत आदि पर हों, पाँच वर्ण के और नाना प्रकार के आकार वाले हों, Dथ कर माला आदि की तरह बनाए गए हों, वेष्टन से, चपड़ी आदि भरकर अथवा संघात से-फूल आदि की तरह एक-दूसरे को मिलाकर बनाए गए हों, अनेक प्रकार की मालाओं के रूप हों और वे नयनों तथा मन को अत्यन्त आनन्द प्रदान करने वाले हों (तथापि उन्हें देखकर राग नहीं उत्पन्न होने देना चाहिए)। इसी प्रकार वनखण्ड, पर्वत, ग्राम, आकर, नगर तथा विकसित नीलकमलों एवं कमलों से सुशोभित और मनोहर तथा जिनमें अनेक हंस, सारस आदि पक्षियों के युगल विचरण कर रहे हों, ऐसे छोटे जलाशय, गोलाकार वावड़ी, चौकोर वावड़ी, दीर्घिका, नहर, सरोवरों की कतार, सागर, बिलपंक्ति, लोहे आदि की खानों में खोदे हुए गडहों की पंक्ति, खाई, नदी, सर, तडाग, पानी की क्यारी अथवा उत्तम मण्डप, विविध प्रकार के भवन, तोरण, चैत्य, देवालय, सभा, प्याऊ, आवसथ, सुनिर्मित शयन, आसन, शिबिका, रथ, गाड़ी, यान, युग्य, स्यन्दन और नरनारियों का समूह, ये सब वस्तुएं यदि सौम्य हों, आकर्षक रूपवाली दर्शनीय हों, आभूषणों से अलंकृत और सुन्दर वस्त्रों से विभूषित हों, पूर्व में की हुई तपस्या के प्रभाव से सौभाग्य को प्राप्त हों तो (इन्हें देखकर) तथा नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल, मौष्टिक, विदूषक, कथावाचक, प्लवक, रास करने वाले व वार्ता कहने वाले, चित्रपट लेकर भिक्षा माँगने वाले, वाँस पर खेल करने वाले, तुणा बजाने वाले, तुम्बे की वीणा बजाने वाले एवं तालाचरों के विविध प्रयोग देखकर तथा बहुत से करतबों को देखकर । इस प्रकार के अन्य मनोज्ञ तथा सुहावने रूपों में साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, अनुरक्त नहीं होना चाहिए, यावत् उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए - इसके सिवाय चक्षुरिन्द्रिय से अमनोज्ञ और पापकारी रूपों को देखकर (रोष नहीं करना चाहिए) । वे (अमनोज्ञ रूप) कौन-से हैं ? वात, पित्त, कफ और सन्निपात से होने वाले गंडरोग वाले को, अठारह प्रकार के कुष्ठ रोग वाले को, कुणि को, जलोदर के रोगी को, खुजली वाले को, श्लीपद रोग के रोगी को, लंगड़े को, वामन को, जन्मान्ध को, काणे को, विनिहत चक्षु को जिसकी एक या दोनों आँखें नष्ट हो गई हों, पिशाचग्रस्त को अथवा पीठ से सरक कर चलने वाले, विशिष्ट चित्तपीड़ा रूप व्याधि या रोग से पीड़ित को तथा विकृत मृतक-कलेवरों को या बिलबिलाते कीड़ों से युक्त सड़ी-गली द्रव्यराशि को देखकर अथवा इनके सिवाय इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ और पापकारी रूपों को देखकर श्रमण को उन रूपों के प्रति रुष्ट नहीं होना चाहिए, यावत् अवहेलना आदि नहीं करनी चाहिए और मन में जुगुप्सा-धृणा भी नहीं उत्पन्न होने देना चाहिए । इस प्रकार चक्षुरिन्द्रियसंवर रूप भावना से भावित अन्तःकरण वाला होकर मुनि यावत् धर्म का आचरण करे । घ्राणेन्द्रिय से मनोज्ञ और सुहावना गंध सूंघकर (रागादि नहीं करना चाहिए) । वे सुगन्ध क्या-कैसे हैं ? मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 51 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक जल और स्थल में उत्पन्न होने वाले सरस पुष्प, फल, पान, भोजन, उत्पलकुष्ठ, तगर, तमालपत्र, सुगन्धित त्वचा, दमनक, मरुआ, इलायची का रस, पका हुआ मांसी नामक सुगन्ध वाला द्रव्य-जटामासी, सरस गोशीर्ष चन्दन, कपूर, लवंग, अगर, कुंकुम, कक्कोल, उशीर, श्वेत, चन्दन, श्रीखण्ड आदि द्रव्यों के संयोग से बनी श्रेष्ठ धूप की सुगन्ध को सूंघकर तथा भिन्न-भिन्न ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले कालोचित सुगन्ध वाले एवं दूर-दूर तक फैलने वाली सुगन्ध से युक्त द्रव्यों में और इसी प्रकार की मनोहर, नासिका को प्रिय लगने वाली सुगन्ध के विषय में मुनि को आसक्त नहीं होना चाहिए, यावत् अनुरागादि नहीं करना चाहिए । उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त घ्राणेन्द्रिय से अमनोज्ञ और असुहावने गंधों को सूंघकर (रोष आदि नहीं करना चाहिए)। वे दुर्गन्ध कौन-से हैं ? मरा हुआ सर्प, घोड़ा, हाथी, गाय तथा भेड़िया, कुत्ता, मनुष्य, बिल्ली, शृंगाल, सिंह और चिता आदि के मृतक सड़े-गले कलेवरों की, जिसमें कीड़े बिलबिला रहे हों, दूर-दूर तक बदबू फैलाने वाली गन्ध में तथा इसी प्रकार के और भी अमनोज्ञ और असुहावनी दुर्गन्धों के विषय में साधु को रोष नहीं करना चाहिए यावत् इन्द्रियों को वशीभूत करके धर्म का आचरण करना चाहिए। रसना-इन्द्रिय से मनोज्ञ एवं सुहावने रसों का आस्वादन करके (उनमें आसक्त नहीं होना चाहिए) । वे रस कैसे हैं ? घी-तैल आदि में डुबा कर पकाए हुए खाजा आदि पकवान, विविध प्रकार के पानक, तेल अथवा घी से बने हुए मालपूवा आदि वस्तुओं में, जो अनेक प्रकार के नमकीन आदि रसों से युक्त हों, मधु, माँस, बहुत प्रकार की मज्जिका, बहुत व्यय करके बनाया गया, खट्टी दाल, सैन्धाम्ल, दूध, दही, सरक, मद्य, उत्तम प्रकार की वारुणी, सीधु तथा पिशायन नामक मदिराएं, अठारह प्रकार के शाक वाले ऐसे अनेक प्रकार के मनोज्ञ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त अनेक द्रव्यों से निर्मित भोजन में तथा इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ एवं लुभावने रसों में साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, यावत् उनका स्मरण तथा विचार भी नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जिह्वा-इन्द्रिय से अमनोज्ञ और असुहावने रसों का, आस्वाद करके (रोष आदि नहीं करना चाहिए) । वे अमनोज्ञ रस कौन-से हैं ? अरस, विरस, ठण्डे, रूखे, निर्वाह के अयोग्य भोजन-पानी को तथा रात-वासी, व्यापन्न, सड़े हुए, अमनोज्ञ, तिक्त, कटु, कसैले, खट्टे, शेवालरहित पुराने पानी के समान एवं नीरस पदार्थों में तथा इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ तथा अशुभ रसों में साधु को रोष धारण नहीं करना चाहिए यावत् संयतेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करना चाहिए। स्पर्शनेन्द्रिय से मनोज्ञ और सुहावने स्पर्शों को छूकर (रागभाव नहीं धारण करना चाहिए) । वे मनोज्ञ स्पर्श कौन-से हैं ? जलमण्डप, हार, श्वेत चन्दन, शीतल निर्मल जल, विविध पुष्पों की शय्या, खसखस, मोती, पद्मनाल, चन्द्रमा की चाँदनी तथा मोर-पिच्छी, तालवृन्त, वीजना से की गई सुखद शीतल पवन में, ग्रीष्मकाल में सुखद स्पर्श वाले अनेक प्रकार के शयनों और आसनों में, शिशिरकाल में आवरण गुण वाले अंगारों से शरीर को तपाने, धूप स्निग्ध पदार्थ, कोमल और शीतल, गर्म और हल्के, शरीर को सुख और मन को आनन्द देने वाले हों, ऐसे सब स्पर्शों में तथा इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ और सुहावने स्पर्शों में श्रमण को आसक्त नहीं होना चाहिए, अनुरक्त नहीं होना चाहिए, गृद्ध नहीं होना चाहिए, मुग्ध नहीं होना चाहिए और स्व-परहित का विघात नहीं करना चाहिए, लुब्ध नहीं होना चाहिए, तल्लीनचित्त नहीं होना चाहिए, उनमें सन्तोषानुभूति नहीं करनी चाहिए, हँसना नहीं चाहिए, यहाँ तक कि उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त स्पर्शनेन्द्रिय से अमनोज्ञ एवं पापक-असुहावने स्पर्शों को छूकर (रुष्ट-द्विष्ट नहीं होना चाहिए) । वे स्पर्श कौन-से हैं ? वध, बन्धन, ताड़न आदि का प्रहार, अंकन, अधिक भार का लादा जाना, अंग-भंग होना या किया जाना, शरीर में सूई या नख का चुभाया जाना, अंग की हीनता होना, लाख के रस, नमकीन तैल, उबलते शीशे या कृष्णवर्ण लोहे से शरीर का सीचा जाना, काष्ठ के खोड़े में डाला जाना, डोरी के निगड बन्धन से बाँधा जाना, हथकड़ियाँ पहनाई जाना, कुंभी में पकाना, अग्नि से जलाया जाना, शेफत्रोटन लिंगच्छेद, बाँधकर ऊपर से लटकाना, शूली पर चढ़ाया जाना, हाथी के पैर से कुचला जाना, हाथ-पैर-कान-नाक-होठ और शिर में छेद किया जाना, जीभ का बाहर खींचा जाना, अण्डकोश-नेत्र-हृदय-दाँत या आंत का मोड़ा जाना, गाड़ी में जोता मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 52 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक जाना, बेंत या चाबुक द्वारा प्रहार किया जाना, एड़ी, घुटना या पाषाण का अंग पर आघात होना, यंत्र में पीला जाना, अत्यन्त खुजली होना, करेंच का स्पर्श होना, अग्नि का स्पर्श, बिच्छू के डंक का, वायु का, धूप का या डाँसमच्छरों का स्पर्श होना, कष्टजनक आसन, स्वाध्यायभूमि में तथा दुर्गन्धमय, कर्कश, भारी, शीत, उष्ण एवं रूक्ष आदि अनेक प्रकार के स्पर्शों में और इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ स्पर्शों में साधु को रुष्ट नहीं होना चाहिए, उनकी हीलना, निन्दा, गर्हा और खिंसना नहीं करनी चाहिए, अशुभ स्पर्श वाले द्रव्य का छेदन-भेदन, स्व-पर का हनन और स्व-पर में धृणावृत्ति भी उत्पन्न नहीं करनी चाहिए । इस प्रकार स्पर्शनेन्द्रियसंवर की भावना से भावित अन्तःकरण वाला, मनोज्ञ और अमनोज्ञ अनुकूल और प्रतिकूल स्पर्शों की प्राप्ति होने पर राग-द्वेषवृत्ति का संवरण करने वाला साधु मन, वचन और काय से गुप्त होता है । इस भाँति साधु संवृतेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करे । इस प्रकार से यह पाँचवां संवरद्वार-सम्यक प्रकार से मन, वचन और काय से परिरक्षित पाँच भावना रूप कारणों से संवत्त किया जाए तो सुरक्षित होता है । धैर्यवान और विवेकवान साधु को यह योग जीवनपर्यन्त निरन्तर पालनीय है । यह आस्रव को रोकने वाला, निर्मल, मिथ्यात्व आदि छिद्रों से रहित होने के कारण अपरिस्रावी, संक्लेशहीन, शुद्ध और समस्त तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात है । इस प्रकार यह पाँचवां संवरद्वार शरीर द्वारा स्पृष्ट, पालित, अतिचाररहित शुद्ध किया हुआ, परिपूर्णता पर पहुँचाया हुआ, वचन द्वारा कीर्तित किया हुआ, अनुपालित तथा तीर्थंकरों की आज्ञा के अनुसार आराधित होता है । ज्ञातमुनि भगवान ने ऐसा प्रतिपादन किया है । युक्तिपूर्वक समझाया है। यह प्रसिद्ध, सिद्ध और भवस्थ सिद्धों का उत्तम शासन कहा गया है, समीचीन रूप से उपदिष्ट है। ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१०-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण सूत्र-४६ ये पाँच संवररूप महाव्रत सैकड़ों हेतुओं से विस्तीर्ण हैं। अरिहंत-शासन में ये संवरद्वार संक्षेप में पाँच हैं। विस्तार से इनके पच्चीस भेद हैं । जो साधु ईर्यासमिति आदि या ज्ञान और दर्शन से रहित है, कषाय और इन्द्रियसंवर से संवृत है, जो प्राप्त संयमयोग का यत्नपूर्वक पालन और अप्राप्त संयमयोग के लिए यत्नशील है, सर्वथा विशुद्ध श्रद्धानवान् है, वह इन संवरों की आराधना करके मुक्त होगा। सूत्र - ४७ प्रश्नव्याकरण में एक श्रुतस्कन्ध है, एक सदृश दस अध्ययन हैं । उपयोगपूर्वक आहारपानी ग्रहण करने वाले साधु के द्वारा, जैसे आचारांग का वाचन किया जाता है, उसी प्रकार एकान्तर आयंबिल युक्त तपस्यापूर्वक दस दिनों में इन का वाचन किया जाता है। १० प्रश्नव्याकरण-अंगसूत्र-१० का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 53 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र 10, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक नमो नमो निम्मलदंसणस्स પૂજ્યપાશ્રી આનંદ-ક્ષમા-લલિત-સુશીલ-સુધર્મસાગર ગુરૂભ્યો નમ: CROSCORRENT KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX 10 OROO XXXXXXXXXXXXXXXXXX XXX XXXXXOYXXXXXX wwwwwwwwwwwwwww प्रश्नव्याकरण आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद [अनुवादक एवं संपादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ] AG 211892:- (1) (2) deepratnasagar.in भेल भेड्रेस:- jainmunideepratnasagar@gmail.com भोला09825967397 मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 54