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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-३ - आस्रवद्वार-३ सूत्र-१३
हे जम्बू ! तीसरा अधर्मद्वार अदत्तादान । यह अदत्तादान (परकीय पदार्थ का) हरण रूप है । हृदय को जलाने वाला, मरण-भय रूप, मलीन, परकीय धनादि में रौद्रध्यान स्वरूप, त्रासरूप, लोभ मूल तथा विषमकाल और विषमस्थान आदि स्थानों पर आश्रित है। यह अदत्तादान निरन्तर तृष्णाग्रस्त जीवों को अधोगति की ओर ले जाने वाली बुद्धि वाला है । अदत्तादान अपयश का कारण, अनार्य पुरुषों द्वारा आचरित, छिद्र, अपाय एवं विपत्ति का मार्गण करने वाला, उसका पात्र है । उत्सवों के अवसर पर मदिरा आदि के नशे में बेभान, असावधान तथा सोये हुए मनुष्यों को ठगनेवाला, चित्त में व्याकुलता उत्पन्न करने और घात करने में तत्पर तथा अशान्त परिणाम वाले चोरों द्वारा अत्यन्त मान्य है । यह करुणाहीन कृत्य है, राजपुरुषों, कोतवाल आदि द्वारा इसे रोका जाता है । सदैव साधुजनों, निन्दित, प्रियजनों तथा मित्रजनों में फूट और अप्रीति उत्पन्न करने वाला और राग द्वेष की बहुलता वाला है । यह बहुतायत से मनुष्यों को मारने वाले संग्रामों, स्वचक्र-परचक्र सम्बन्धी डमरों-विप्लवों, लड़ाईझगड़ों, तकरारों एवं पश्चात्ताप का कारण है । दुर्गति-पतन में वृद्धि करने वाला, पुनर्भव कराने वाला, चिरकाल से परिचित, आत्मा के साथ लगा हुआ और परिणाम में दुःखदायी है । यह तीसरा अधर्मद्वार ऐसा है। सूत्र-१४
पूर्वोक्त स्वरूप वाले अदत्तादान के गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं | –चौरिक्य, परहृत, अदत्त, क्रूरिकृतम्, परलाभ, असंजम, परधन में गृद्धि, लोलुपता, तस्करत्व, अपहार, हस्तलघुत्व, पापकर्मकरण, स्तेनिका, हरणविप्रणाश, आदान, धनलुम्पता, अप्रत्यय, अवपीड, आक्षेप, क्षेप, विक्षेप, कूटता, कुलमषि, कांक्षा, लालपन-प्रार्थना, व्यसन, ईच्छामूर्छा, तृष्णा-गृद्धि, निकृतिकर्म और अपराक्ष । इस प्रकार पापकर्म और कलह से मलीन कार्यों की बहुलता वाले इस अदत्तादान आस्रव के ये और इस प्रकार के अन्य अनेक नाम हैं। सूत्र - १५
उस चोरी को वे चोर-लोग करते हैं जो परकीय द्रव्य को हरण करने वाले हैं, हरण करने में कुशल हैं, अनेकों बार चोरी कर चुके हैं और अवसर को जानने वाले हैं, साहसी हैं, जो तुच्छ हृदय वाले, अत्यन्त महती ईच्छा वाले एवं लोभ से ग्रस्त हैं, जो वचनों के आडम्बर से अपनी असलियत को छिपाने वाले हैं-आसक्त हैं, जो सामने स साधा प्रहार करने वाले है, ऋण को नहीं चूकाने वाले हैं, जो वायदे को भंग करने वाले हैं, राज्यशासन का अनिष्ट करने वाले हैं, जो जनता द्वारा बहिष्कृत हैं, जो घातक हैं या उपद्रव करने वाले हैं, ग्रामघातक, नगरघातक, मार्ग में पथिकों को मार डालने वाले हैं, आग लगाने वाले और तीर्थ में भेद करने वाले हैं, जो हाथ की चालाकी वाले हैं, जुआरी हैं, खण्डरक्ष हैं, स्त्रीचोर हैं, पुरुष का अपहरण करते हैं, खात खोदने वाले हैं, गाँठ काटने वाले हैं, परकीय धन का हरण करने वाले हैं, अपहरण करने वाले हैं, सदा दूसरों के उपमर्दक, गुप्तचोर, गो-चोर- अश्व-चोर एवं दासी को चूराने वाले हैं, अकेले चोरी करने वाले, घर में से द्रव्य निकाल लेने वाले, छिपकर चोरी करने वाले, सार्थ को लूटने वाले, बनावटी आवाज में बोलने वाले, राजा द्वारा निगृहीत, अनेकानेक प्रकार से चोरी करके द्रव्य हरण करने की बुद्धि वाले, ये लोग और इसी कोटि के अन्य-अन्य लोग, जो दूसरे के द्रव्य को ग्रहण करने कीईच्छा से निवृत्त नहीं हैं, वे चौर्य कर्म में प्रवृत्त होते हैं।
इनके अतिरिक्त विपुल बल और परिग्रह वाले राजा लोग भी, जो पराये धन में गृद्ध हैं और अपने द्रव्य से जिन्हें संतोष नहीं है, दूसरे देश-प्रदेश पर आक्रमण करते हैं । वे लोभी राजा दूसरे के धनादि को हथियाने के उद्देश्य से चतुरंगिणी सेना के साथ (अभियान करते हैं ।) वे दृढ़ निश्चय वाले, श्रेष्ठ योद्धाओं के साथ युद्ध करने में विश्वास रखने वाले, दर्प से परिपूर्ण सैनिकों से संपरिवृत्त होते हैं । वे नाना प्रकार के व्यूहों की रचना करते हैं, जैसे पद्मपत्र व्यूह, शकटव्यूह, शूचीव्यूह, चक्रव्यूह, सागरव्यूह और गरुडव्यूह । इस तरह नाना प्रकार की व्यहरचना वाली सेना द्वारा दूसरे की सेना को आक्रान्त करते हैं, और उसे पराजित करके दूसरे की धन-सम्पत्ति को हरण कर लेते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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