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________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक पश्चात्ताप नहीं करता है, ऐसा आचार्य, उपाध्याय आदि के लिए संविभाग करने वाला, संग्रह एवं उपकार करने में कुशल साधक ही इस अस्तेयव्रत का आराधक होता है। परकीय द्रव्य के हरण से विरमण रूप इस अस्तेयव्रत की परीक्षा के लिए भगवान तीर्थंकर देव ने यह प्रवचन समीचीन रूप से कहा है । यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकारी है, आगामी भव में शुभ फल प्रदान करने वाला और भविष्यत् में कल्याणकारी है । यह प्रवचन शुद्ध है, न्याय-युक्ति-तर्क से संगत है, अकुटिल-मुक्ति का सरल मार्ग है, सर्वोत्तम है तथा समस्त दुःखों और पापों को निःशेष रूप से शान्त कर देने वाला है । परद्रव्यहरणविरमण (अदत्तादानत्याग) व्रत की पूरी तरह रक्षा करने के लिए पाँच भावनाएं हैं, जो आगे कही जा रही हैं। पाँच भावनाओं में से प्रथम भावना इस प्रकार है-देवकुल, सभा, प्रपा, आवसथ, वृक्षमूल, आराम, कन्दरा, गिरिगहा, कर्म, यानशाला, कप्यशाला, मण्डप, शन्य घर, श्मशान, लयन तथा दकान में और इसी प्रकार के अन्य स्थानों में जो भी सचित्त जल, मत्तिका, बीज, दब आदि हरित और चींटी-मकोडे आदि त्रस जीवों से रहित हो, जिसे गृहस्थ ने अपने लिए बनवाया हो, प्रासुक हो, जो स्त्री, पशु एवं नपुंसक के संसर्ग से रहि कारण जो प्रशस्त हो, ऐसे उपाश्रय में साधु को विहरना चाहिए-साधुओं के निमित्त जिसके लिए हिंसा की जाए, ऐसे आधाकर्म की बहलता वाले, आसिक्त, संमार्जित, उत्सिक्त, शोभित, छादन, दुमन, लिम्पन, अनुलिंपन, ज्वलन, भाण्डों को इधर-उधर हटाए हुए स्थान-उपाश्रय साधुओं के लिए वर्जनीय है । ऐसा स्थान शास्त्र द्वारा निषिद्ध है । इस प्रकार विविक्त-स्थान में वसतिरूप समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला मुनि सदैव दुर्गति के कारण पापकर्म करने और करवाने से निवृत्त होता-बचता है तथा दत्त-अनुज्ञात अवग्रह में रुचि वाला होता है। दूसरी भावना निर्दोष संस्तारकग्रहण संबंधी है । आराम, उद्यान, कानन और वन आदि स्थानों में जो कुछ भी इक्कड जाति का घास तथा कठिन, जन्तुक, परा, मेरा, कूर्च, कुश, डाभ, पलाल, मूयक, वल्वज, पुष्प, फल, त्वचा, प्रवाल, कन्द, मूल, तृण, काष्ठ और शर्करा आदि द्रव्य संस्तारक रूप उपधि के लिए अथवा संस्तारक एवं उपधि के लिए ग्रहण करता है तो इन उपाश्रय के भीतर की ग्राह्य वस्तुओं को दाता द्वारा दिये बिना ग्रहण करना नहीं कल्पता । इस प्रकार अवग्रहसमिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला साधु सदा दुर्गति के कारणभूत पापकर्म के करने और कराने से निवृत्त होता-बचता है और दत्त-अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है। तीसरी भावना शय्या-परिकर्मवर्जन है । पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक के लिए वृक्षों का छेदन नहीं करना चाहिए । वृक्षों के छेदन या भेदन से शय्या तैयार नहीं करवानी चाहिए । साधु जिस उपाश्रय में निवास करे, वहीं शय्या की गवेषणा करनी चाहिए । वहाँ की भूमि यदि विषम हो तो उसे सम न करे । पवनहीन स्थान को अधिक पवन वाला अथवा अधिक पवन वाले स्थान को पवनरहित बनाने के लिए उत्सुक न होअभिलाषा भी न करे, डाँस-मच्छर आदि के विषय में क्षुब्ध नहीं होना चाहिए और उन्हें हटाने के लिए धूम आदि नहीं करना चाहिए । इस प्रकार संयम की, संवर की, कषाय एवं इन्द्रियों के निग्रह, अत एव समाधि की प्रधानता वाला धैर्यवान मुनि काय से इस व्रत का पालन करता हुआ निरन्तर आत्मा के ध्यान में निरत रहकर, समितियुक्त रहकर और एकाकी-रागद्वेष से रहित होकर धर्म का आचरण करे । इस प्रकार शय्यासमिति के योग से भावित अन्तरात्मा वाला साधु सदा दुर्गति के कारणभूत पाप-कर्म से विरत होता है और दत्त-अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है। चौथी भावना अनुज्ञातभक्तादि है । सब साधुओं के लिए साधारण सम्मिलित आहार-पानी आदि मिलने पर साधु को सम्यक् प्रकार से-यतनापूर्वक खाना चाहिए । शाक और सूप की अधिकता वाला भोजन अधिक नहीं खाना चाहिए । तथा वेगपूर्वक, त्वरा के साथ, चंचलतापूर्वक और न विचारविहीन होकर खाना चाहिए । जो दूसरों को पीड़ाजनक हो ऐसा एवं सदोष नहीं खाना चाहिए । साधु को इस रीति से भोजन करना चाहिए, जिससे उसके तीसरे व्रत में बाधा उपस्थित न हो । यह अदत्तादानविरमणव्रत का सूक्ष्म नियम है । इस प्रकार सम्मिलित भोजन के लाभ में समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला साधु सदा दुर्गतिहेतु पापकर्म से विरत होता है और दत्त मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 42
SR No.034677
Book TitleAgam 10 Prashnavyakaran Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 10, & agam_prashnavyakaran
File Size3 MB
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