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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-८-संवरद्वार-३ सूत्र-३८
हे जम्बू ! तीसरा संवरद्वार दत्तानुज्ञात' नामक है । यह महान व्रत है तथा यह गुणव्रत भी है । यह परकीय द्रव्य-पदार्थों के हरण से निवृत्तिरूप क्रिया से युक्त है, व्रत अपरिमित और अनन्त तृष्णा से अनुगत महा-अभिलाषा से युक्त मन एवं वचन द्वारा पापमय परद्रव्यहरण का भलिभाँति निग्रह करता है । इस व्रत के प्रभाव से मन इतना संयमशील बन जाता है कि हाथ और पैर परधन को ग्रहण करने से विरत हो जाते हैं । सर्वज्ञ भगवंतों ने इसे उपादेय कहा है । आस्रव का निरोध करने वाला है । निर्भय है-लोभ उसका स्पर्श भी नहीं करता । यह प्रधान बलशालियों तथा सुविहित साधुजनों द्वारा सम्मत है, श्रेष्ठ साधुओं का धर्माचरण है । इस अदत्तादानविरमण व्रत में ग्राम, आकर, नगर, निगम, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, संबाध, पट्टन अथवा आश्रम में पड़ी हुई, उत्तम मणि, मोती, शिला, प्रवाल, कांसा, वस्त्र, चाँदी, सोना, रत्न आदि कोई भी वस्तु पड़ी हो-गिरी हो, कोई उसे भूल गया हो, गुम हुई हो तो किसी को कहना अथवा स्वयं उठा लेना नहीं कल्पता है । क्योंकि साधु को हिरण्य का त्यागी हो कर, पाषाण और स्वर्ण में समभाव रख कर, परिग्रह से सर्वथा रहित और सभी इन्द्रियों से संवृत होकर ही लोक में विचरना चाहिए।
कोई भी वस्तु, जो खलिहान में, खेत में, या जंगल में पड़ी हो, जैसे कि फूल, फल, छाल, प्रवाल, कन्द, मूल, तृण, काष्ठ या कंकर आदि हो, वह थोड़ी हो या बहुत हो, छोटी हो या मोटी हो, स्वामी के दिए बिना या उसकी आज्ञा प्राप्त किये बिना ग्रहण करना नहीं कल्पता । घर और स्थंडिलभूमि भी आज्ञा प्राप्त किये बिना ग्रहण करना उचित नहीं है । तो फिर साधु को किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए ? प्रतिदिन अवग्रह की आज्ञा लेकर ही उसे लेना चाहिए । तथा अप्रीतिकारक घर में प्रवेश वर्जित करना चाहिए । अप्रीतिकारक के घर से आहार-पानी तथा पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कंबल, दण्ड और पादपोंछन एवं भाजन, भाण्ड तथा उपधि उपकरण भी ग्रहण नहीं करना चाहिए । साधु को दूसरे की निन्दा नहीं करनी चाहिए, दूसरे को दोष नहीं देना चाहिए, दूसरे के नाम से जो कोई वस्तु ग्रहण करता है तथा जो उपकरण को या किसी के सुकृत को छिपाता है, जो दान में अंतराय करता है, जो दान का विप्रणाश करता है, जो पैशुन्य करता है और मात्सर्य करता है।
जो भी पीठ, पाट, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, आसन, चोलपट्टक,
1 और पादप्रोञ्छन आदि, पात्र, मिट्टी के पात्र और अन्य उपकरणों का जो आचार्य आदि साधर्मिकों में संविभाग नहीं करता, वह अस्तेयव्रत का आराधक नहीं होता । जो असंग्रहरुचि है, जो तपस्तेन है, वचनस्तेन है, रूपस्तेन है, जो आचार का चोर है, भावस्तेन है, जो शब्दकर है, जो गच्छ में भेद उत्पन्न करने वाले कार्य करता है, कलहकारी, वैरकारी और असमाधिकारी है, जो शास्त्रोक्त प्रमाण से सदा अधिक भोजन करता है, जो सदा वैर बाँध रखने वाला है, सदा क्रोध करता रहता है, ऐसा पुरुष इस अस्तेयव्रत का आराधक नहीं होता है।
किस प्रकार के मनुष्य इस व्रत के आराधक हो सकते हैं ? इस अस्तेयव्रत का आराधक वही पुरुष हो सकता है जो-वस्त्र, पात्र आदि धर्मोपकरण, आहार-पानी आदि का संग्रहण और संविभाग करने में कुशल हो । जो अत्यन्त बाल, दुर्बल, रुग्ण, वृद्ध और मासक्षपक आदि तपस्वी साधु की, प्रवर्तक, आचार्य, उपाध्याय की, नवदीक्षित साधु की तथा साधर्मिक, तपस्वी कुल, गण, संघ के चित्त की प्रसन्नता के लिए सेवा करने वाला हो । जो निर्जरा का अभिलाषी हो, जो अनिश्रित हो, वही दस प्रकार का वैयावृत्य, अन्नपान आदि अनेक प्रकार से करता है। वह अप्रीतिकारक गृहस्थ के कुल में प्रवेश नहीं करता और न अप्रीतिकारक के घर का आहार-पानी ग्रहण करता है। अप्रीतिकारक से पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, आसन, चोलपट्ट, मुख-वस्त्रिका एवं पादपोंछन भी नहीं लेता है । वह दूसरों की निन्दा नहीं करता और न दूसरे के दोषों को ग्रहण करता है। जो दूसरे के नाम से कुछ भी ग्रहण नहीं करता और न किसी को दानादि धर्म से विमुख करता है के दान आदि सुकृत का अथवा धर्माचरण का अपलाप नहीं करता है, जो दानादि देकर और वैयावृत्त्य आदि करके
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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