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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक द्वारा सेवित मार्ग का अनुसरण करने में समर्थ नहीं होता । अत एव भय से, व्याधि-कुष्ठ आदि से, ज्वर आदि रोगों से, वृद्धावस्था से, मृत्यु से या इसी प्रकार के अन्य इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि के भय से डरना नहीं चाहिए। इस प्रकार विचार करके धैर्य की स्थिरता अथवा निर्भयता से भावित अन्तःकरण वाला साधु हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख से संयत, शूर एवं सत्य तथा आर्जवधर्म से सम्पन्न होता है।
पाँचवीं भावना परिहासपरिवर्जन है । हास्य का सेवन नहीं करना चाहिए । हँसोड़ व्यक्ति अलीक और असत् को प्रकाशित करने वाले या अशोभनीय और अशान्तिजनक वचनों का प्रयोग करते हैं । परिहास दूसरों के तिरस्कार का कारण होता है । हँसी में परकीय निन्दा-तिरस्कार ही प्रिय लगता है । हास्य परपीड़ाकारक होता है । चारित्र का विनाशक, शरीर की आकृति को विकृत करने वाला और मोक्षमार्ग का भेदन करने वाला है । हास्य अन्योन्य होता है, फिर परस्पर में परदारगमन आदि कुचेष्टा का कारण होता है । एक दूसरे के मर्म को प्रकाशित करने वाला बन जाता है । हास्य कन्दर्प-आज्ञाकारी सेवक जैसे देवों में जन्म का कारण होता है। असरता एवं किल्बिषता उत्पन्न करता है । इस कारण हँसी का सेवन नहीं करना चाहिए | इस प्रकार मौन से भावित अन्तःकरण वाला साधु हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख से संयत होकर शूर तथा सत्य और आर्जव से सम्पन्न होता है।
इस प्रकार मन, वचन और काय से पूर्ण रू से सुरक्षित इन पाँच भावनाओं से संवर का यह द्वार आचरित और सुप्रणिहित हो जाता है । अत एव धैर्यवान् तथा मतिमान् साधक को चाहिए कि वह आस्रव का निरोध करने वाले, निर्मल, निश्छिद्र, कर्मबन्ध के प्रवाह से रहित, संक्लेश का अभाव करने वाले एवं समस्त तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात इस योग को निरन्तर जीवनपर्यन्त आचरण में उतारे । इस प्रकार (पूर्वोक्त रीति से) सत्य नामक संवरद्वार यथासमय अंगीकृत, पालित, शोधित, तीरित, कीर्तित, अनुपालित और आराधित होता है । इस प्रकार ज्ञातमुनिमहावीर स्वामी ने इस सिद्धवरशासन का कथन किया है, विशेष प्रकार से विवेचन किया है । यह तर्क और प्रमाण से सिद्ध है, सुप्रतिष्ठित किया गया है, भव्य जीवों के लिए इसका उपदेश किया गया है, यह प्रशस्त-कल्याणकारीमंगलमय है।
अध्ययन-७-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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