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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक भाले एवं फरसे से फाड़ दिये जाते हैं, वसूला से छीला जाता है, उनके शरीर पर उबलता खारा जल सींचा जाता है, जिससे शरीर जल जाता है, फिर भालों की नोक से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाते हैं, इस इस प्रकार उनके समग्र शरीर को जर्जरित कर दिया जाता है। उनका शरीर सूझ जाता है और वे पृथ्वी पर लोटने लगते हैं।
नरकक में दर्पयुक्त-मानो सदा काल से भूख से पीड़ित, भयावह, घोर गर्जना करते हुए, भयंकर रूप वाले भेड़िया, शिकारी कुत्ते, गीदड़, कौवे, बिलाव, अष्टापद, चीते, व्याघ्र, केसरी सिंह और सिंह नारकों पर आक्रमण कर देते हैं, अपनी मजबूत दाढ़ों से नारकों के शरीर को काटते हैं, खींचते हैं, अत्यन्त पैने नोकदार नाखूनों से फाड़ते हैं और फिर इधर-उधर चारों ओर फेंक देते हैं । उनके शरीर के बन्धन ढीले पड़ जाते हैं । उनके अंगोपांग विकृत और पृथक् हो जाते हैं । तत्पश्चात् दृढ़ एवं तीक्ष्ण दाढों, नखों और लोहे के समान नुकीली चोंच वाले कंक, कुरर और गिद्ध आदि पक्षी तथा घोर कष्ट देने वाले काक पक्षियों के झुंड कठोर, दृढ़ तथा स्थिर लोहमय चोंचों से झपट पडते हैं । उन्हें अपने पंखों से आघात पहँचाते हैं । तीखे नाखूनों से उनकी जीभ बाहर खींच लेते हैं और आँखें बाहर नीकाल लेते हैं । निर्दयतापूर्वक उनके मुख को विकृत कर देते हैं । इस प्रकार की यातना से पीड़ित वे नारक जीव रुदन करते हैं, कभी ऊपर उछलते हैं और फिर नीचे आ गिरते हैं, चक्कर काटते हैं।
पूर्वोपार्जित पापकर्मों के अधीन हुए, पश्चात्ताप से जलते हुए, अमुक-अमुक स्थानों में, उस-उस प्रकार के पूर्वकृत कर्मों की निन्दा करके, अत्यन्त चीकने-निकाचित दुःखों
नन्दा करके, अत्यन्त चीकने-निकाचित दुःखों को भुगत कर, तत्पश्चात् आयु का क्षय होने पर नरकभूमियों में से नीकलकर बहुत-से जीव तिर्यंचयोनि में उत्पन्न होते हैं । अतिशय दुःखों से परिपूर्ण होती है, दारुण कष्टों वाली होती है, जन्म-मरण-जरा-व्याधि का अरहट उसमें घूमता रहता है । उसमें जलचर, स्थलचर और नभश्चर के पारस्परिक घात-प्रत्याघात का प्रपंच या दुष्चक्र चलता रहता है । तिर्यंचगति के दुःख जगत में प्रकट दिखाई देते हैं । नरक से किसी भी भाँति नीकले और तिर्यंचयोनि में जन्मे वे पापी जीव बेचारे दीर्घ काल तक दुःखों को प्राप्त करते हैं । वे तिर्यंचयोनि के दुःख कौन-से हैं ? शीत, उष्ण, तृषा, क्षुधा, वेदना का अप्रतीकार, अटवी में जन्म लेना, निरन्तर भय से घबड़ाते रहना, जागरण, वध, बन्धन, ताड़न, दागना, डामना, गड़हे आदि में गिराना, हड्डियाँ तोड़ देना, नाक छेदना, चाबुक, लकड़ी आदि के प्रहार सहन करना, संताप सहना, छविच्छेदन, जबरदस्ती भारवहन आदि कामों में लगना, कोड़ा, अंकुश एवं डंडे के अग्र भाग में लगी हुई नोकदार कील आदि से दमन किया जाना, भार वहन करना आदि-आदि ।
तिर्यंचगति में इन दःखों को भी सहन करना पडता है-माता-पिता का वियोग, शोक से अत्यन्त पीडित होना, या श्रोत-नखूनों आदि के छेदन से पीड़ित होना, शस्त्रों से, अग्नि से और विष से आघात पहुँचना, गर्दन-एवं सींगों का मोडा जाना, मारा जाना, गल-काँटे में या जाल में फँसा कर जल से बाहर नीकालना, पकाना, काटा जाना, जीवन पर्यन्त बन्धन में रहना, पींजरे में बन्द रहना, अपने समूह-से पृथक् किया जाना, भैंस आदि को फूंका लगाना, गले में डंडा बाँध देना, घेर कर रखना, कीचड़-भरे पानी में डूबोना, जल में घुसेड़ना, गड्ढे में गिरने से अंगभंग हो जाना, पहाड़ के विषम-मार्ग में गिर पड़ना, दावानल की ज्वालाओं में जलना, आदि-आदि कष्टों से परिपूर्ण तिर्यंचगति में हिंसाकारी पापी नरक से नीकलकर उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार वे हिंसा का पाप करने वाले पापी जीव सैकड़ों पीड़ाओं से पीड़ित होकर, नरकगति से आए हुए, प्रमाद, राग और द्वेष के कारण बहुत संचित किए और भोगने से शेष रहे कर्मों के उदयवाले अत्यन्त कर्कश असाता को उत्पन्न करने वाले कर्मों से उत्पन्न दुःखों के भजन बनते हैं।
भ्रमर, मच्छर, मक्खी आदि पर्यायों में, उनकी नौ लाख जाति-कुलकोटियों में वारंवार जन्म-मरण का अनुभव करते हुए, नारकों के समान तीव्र दुःख भोगते हुए स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु से युक्त होकर वे पापी जीव संख्यात काल तक भ्रमण करते रहते हैं । इसी प्रकार कुंथु, पिपीलिका, अंधिका आदि त्रीन्द्रिय जीवों की पूरी आठ लाख कुलकोटियों में जन्म-मरण का अनुभव करते हुए संख्यात काल तक नारकों के सदृश तीव्र दुःख भोगते हैं । ये त्रीन्द्रिय जीव स्पर्शन, रसना और घ्राण-से युक्त होते हैं । गंडूलक, जलौक, कृमि, चन्दनक आदि द्वीन्द्रिय
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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