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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/सूत्रांक प्रकार के दुःख उन्हें दिये जाते हैं । इस प्रकार वे नारक जीव पूर्व जन्म में किए हुए कर्मों के संचय से संतप्त रहते हैं। महा-अग्नि के समान नरक की अग्नि से तीव्रता के साथ जलते रहते हैं । वे पापकृत्य करने वाले जीव प्रगाढ़ दुःखमय, घोर भय उत्पन्न करने वाली, अतिशय कर्कश एवं उग्र शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार की असातारूप वेदना बहुत पल्योपम और सागरोपम काल तक रहती है । अपनी आयु के अनुसार करुण अवस्था में रहते हैं । वे यमकालिक देवों द्वारा त्रास को प्राप्त होते हैं और भयभीत होकर शब्द करते हैं-(नारक जीव) किस प्रकार रोते-चिल्लाते हैं ?
हे अज्ञातबन्धु ! हे स्वामिन् ! हे भ्राता ! अरे बाप ! हे तात ! हे विजेता ! मुझे छोड़ दो । मैं मर रहा हूँ। मैं दुर्बल हूँ। मैं व्याधि से पीड़ित हूँ। आप क्यों ऐसे दारुण एवं निर्दय हो रहे हैं ? मेरे ऊपर प्रहार मत करो । मुहूर्त्तभर साँस तो लेने दीजिए । दया कीजिए । रोष न कीजिए । मैं जरा विश्राम ले लँ । मेरा गला छोड दीजिए । मैं: रहा हूँ। मैं प्यास से पीड़ित हूँ । पानी दे दीजिए । 'अच्छा, हाँ, यह निर्मल और शीतल जल पीओ।' ऐसा कहकर नरकपाल नारकों को पकड़कर खौला हआ सीसा कलश से उनकी अंजली में उड़ेल देते हैं । उसे देखते ही उनके अंगोपांग काँपने लगते हैं । उनके नेत्रों से आँसू टपकने लगते हैं । फिर वे कहते हैं-'हमारी प्यास शान्त हो गई !' इस प्रकार करुणापूर्ण वचन बोलते हुए भागने के लिए दिशाएं देखने लगते हैं । अन्ततः वे त्राणहीन, शरणहीन, अनाथ, बन्धुविहीन-एवं भय के मारे धबड़ा करके मृग की तरह बड़े वेग से भागते हैं।
कोई-कोई अनुकम्पा-विहीन यमकायिक उपहास करते हुए इधर-उधर भागते हुए उन नारक जीवों को जबरदस्ती पकड़कर और लोहे के डंडे से उनका मुख फाड़कर उसमें उबलता हुआ शीशा डाल देते हैं । उबलते शीशे से दग्ध होकर वे नारक भयानक आर्तनाद करते हैं । वे कबूतर की तरह करुणाजनक आक्रंदन करते हैं, खूब रुदन करते हुए अश्रु बहाते हैं । नरकापाल उन्हें रोक लेते हैं, बाँध देते हैं । तब आर्तनाद करते हैं, हाहाकार करते हैं, बड़बड़ाते हैं, तब नरकापाल कुपित होकर और उच्च ध्वनि से उन्हें धमकाते हैं । कहते हैं-इसे पकड़ो, मारो, प्रहार करो, छेद डालो, भेद डालो, इसकी चमड़ी उधेड़ दो, नेत्र बाहर नीकाल लो, इसे काट डालो, खण्ड-खण्ड कर डालो, हनन करो, इसके मुख में शीशा उड़ेल दो, इसे उठाकर पटक दो या मुख में और शीशा डाल दो, घसीटो, उलटो, घसीटो । नरकपाल फिर फटकारते हुए कहते हैं-बोलता क्यों नहीं ! अपने पापकर्मों को, अपने कुकर्मों को स्मरण कर ! इस प्रकार अत्यन्त कर्कश नरकपालों की ध्वनि की वहाँ प्रतिध्वनि होती है । नारक जीवों के लिए वह ऐसी सदैव त्रासजनक होती है कि जैसे किसी महानगर में आग लगने पर घोर शब्द-होता है, उसी प्रकार निरन्तर यातनाएं भोगने वाले नारकों का अनिष्ट निर्घोष वहाँ सुना जाता है। वे यातनाएं कैसी हैं?
नारकों को असि-वन में चलने को बाध्य किया जाता है, तीखी नोक वाले दर्भ के वन में चलाया जाता है, कोल्हू में डाल कर पेरा जाता है, सूई की नोक समान अतीव तीक्ष्ण कण्टकों के सदृश स्पर्श वाली भूमि पर चलाया जाता है, क्षारयुक्त पानी वाली वापिका में पटक दिया जाता है, उबलते हुए सीसे आदि से भरी वैतरणी नदी में बहाया जाता है, कदम्बपुष्प के समान-अत्यन्त तप्त-रेत पर चलाया जाता है, जलती हुई गुफा में बंद कर दिया जाता है, उष्णोष्ण एवं कण्टकाकीर्ण दुर्गम-मार्ग में रथ में जोतकर चलाया जाता है, लोहमय उष्ण मार्ग में चलाया जाता है और भारी भार वहन कराया जाता है । वे अशुभ विक्रियालब्धि से निर्मित सैकड़ों शस्त्रों से परस्पर को वेदना उत्पन्न करते हैं । वे विविध प्रकार के आयुध-शस्त्र कौन-से हैं ? वे शस्त्र ये हैं-मुद्गर, मुसुंढि, करवत, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, कुन्त, तोमर, शूल, लकुट, भिंडिमार, सद्धल, पट्टिस, चम्मे?, द्रुघण, मौष्टिक, असि-फलक, खङ्ग, चाप, नाराच, कनक, कप्पिणी-कर्तिका, वसूला, परशु । ये सभी अस्त्र-शस्त्र तीक्ष्ण और निर्मल-चमकदार होते हैं । इनसे तथा इसी प्रकार के अन्य शस्त्र से भी वेदना की उदीरणा करते हैं । नरकों में मुद्गर के प्रहारों से नारकों का शरीर चूर-चूर कर दिया जाता है, मुसुंढि से संभिन्न कर दिया जाता है, मथ दिया जाता है, कोल्हू आदि यंत्रों से पेरने के कारण फड़फड़ाते हुए उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाते हैं । कईयों को चमड़ी सहित विकृत कर दिया जाता है, कान और ओठ नाक और हाथ-पैर समूल काट लिए जाते हैं, तलवार, करवत, तीखे
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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